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१. शंकित दोष
आधाकर्म आदि दोष की संभावना होने पर भी भिक्षा ग्रहण करना शंकित दोष है । दशवैकालिक में स्पष्ट उल्लेख है कल्प और अकल्प की दृष्टि से शंकायुक्त आहार का मुनि निषेध करे ग्रंथकार ने शंकित के विषय में निम्न चतुर्भंगी का निर्देश दिया है.
शंकित ग्रहण, शंकित भोग ।
शंकित ग्रहण, निःशंकित भोग ।
•
·
निःशंकित ग्रहण, शंकित भोग ।
• निःशंकित ग्रहण, निःशंकित भोग ।
•
इस चतुर्भंगी में चौथा भंग विशुद्ध है। निर्युक्तिकार ने इन चारों भंगों का विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। गृहस्थ के घर दी जाने वाली प्रचुर भिक्षा सामग्री को देखकर मुनि लज्जावश पूछताछ करने में समर्थ नहीं होता। वह शंका के साथ भिक्षा ग्रहण करता है और उसी अवस्था में उसका उपभोग करता है, यह प्रथम भंग की व्याख्या है।
दूसरे भंग में मुनि भिक्षा ग्रहण करते समय शंकाग्रस्त रहता है लेकिन उपभोग करते समय दूसरा मुनि स्पष्टीकरण कर देता है कि उस घर में प्रकरणवश किसी अतिथि के लिए प्रचुर खाना बना है अथवा किसी अन्य के घर से प्रहेणक आया है, यह सुनकर वह निःशंकित होकर उस भिक्षा का उपभोग करता है, यह चतुर्भंगी का दूसरा विकल्प है।
तीसरे विकल्प में गुरु के समक्ष आलोचना करते हुए अन्य मुनियों के पास भी वैसी ही खाद्य सामग्री देखकर मुनि के मन में शंका हो जाती है अतः निःशंकित रूप से ग्रहण की गई भिक्षा को भी वह शंकित अवस्था में उपभोग करता है। चौथे भंग में दोनों स्थितियों में शंका नहीं होती अतः वह विशुद्ध होने से एषणीय है।
२. प्रक्षित दोष
सचित्त आदि पदार्थों से लिप्त हाथ या चम्मच आदि से भिक्षा ग्रहण करना म्रक्षित दोष है ।" समवायांग में चौदहवां तथा दशाश्रुतस्कन्ध में इसे पन्द्रहवां असमाधिस्थान माना है। टीकाकार मलयगिरि प्रक्षित के स्थान पर प्रक्षिप्त शब्द का प्रयोग भी किया है। यह दो प्रकार का होता है - १. सचित्त प्रक्षित
१. मूला ४६३, पिंप्रंटी प. ७१; आधाकर्मादिदोषवत्तया
आरेकितस्य भक्तादेर्ग्रहणं स्वीकार: शंकितग्रहणम् ।
पिंड
२. दश ५ /१/४४
३. पिनि २३८, जीभा १४७७, १४७८ ।
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४. पिनि २४० / १-३ ।
५. मूला ४६४ ।
६. सम २०/१, दश्रु १ / ३ |
७. मवृ प. १४७ ; प्रक्षिप्तं सचित्तपृथिव्यादिनाऽवगुण्डितम् ।
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