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पिंडनियुक्ति
है अथवा स्त्री के द्वारा भार्यावत् आचरण करने पर चित्त-विक्षोभ से मुनि का ब्रह्मचर्य व्रत भी भंग हो सकता है।
• यदि वह गृहिणी भद्र स्वभाव की है तो उन दोनों के मध्य स्नेह-सम्बन्ध स्थापित हो सकता है, वह अपनी विधवा पुत्रवधू का दान भी कर सकती है। १२. विद्यापिण्ड दोष
जिसकी अधिष्ठात्री देवी हो तथा जो जप, होम आदि के द्वारा सिद्ध की जाए, वह विद्या है। विद्या का प्रदर्शन करके भिक्षा प्राप्त करना विद्यापिण्ड दोष है। मूलाचार के अनुसार विद्या-प्रदान करने का प्रलोभन देकर या विद्या के माहात्म्य से आहार प्राप्त करना विद्या-दोष है। नियुक्तिकार ने विद्या के लिए भिक्षु-उपासक की कथा का संकेत किया है। विद्या का प्रयोग करने से विद्या से अभिमंत्रित व्यक्ति या उससे सम्बन्धित अन्य कोई व्यक्ति प्रतिविद्या से मुनि का अनिष्ट कर सकता है। विद्या-प्रयोग से लोगों में यह अपवाद फैलता है कि ये मुनि पापजीवी, मायावी एवं कार्मणकारी हैं। राजा को शिकायत करने से राजपुरुषों द्वारा निग्रह तथा दंड भी प्राप्त हो सकता है। १३. मंत्रपिण्ड दोष
जिसका अधिष्ठाता देवता हो तथा जो बिना होम आदि क्रिया के पढ़ने मात्र से सिद्ध हो जाए, वह मंत्र कहलाता है। मंत्रप्रयोग से चमत्कार करके आहार प्राप्त करना मंत्रपिण्ड दोष है। मंत्रप्रयोग में नियुक्तिकार ने मुरुण्ड राजा एवं पादलिप्त आचार्य की कथा का निर्देश किया है। मंत्रपिण्ड का प्रयोग करने में वे ही दोष हैं, जो विद्यापिण्ड में उल्लिखित हैं। ग्रंथकार के अनुसार संघ की प्रभावना के लिए आपवादिक स्थिति में मंत्र का सम्यक् प्रयोग किया जा सकता है।'
मूलाचार में विद्या और मंत्र को एक साथ मानकर प्रकारान्तर से भी इसकी व्याख्या की है। उसके अनुसार आहार देने वाले व्यन्तर देवताओं को विद्या और मंत्र से बुलाकर उन्हें सिद्ध करना विद्यामंत्र दोष
१. पिनि २२३, २२४। २. (क) मवृ प. १४१ ; ससाधना स्त्रीरूपदेवताधिष्ठिता
वाऽक्षरपद्धतिर्विद्या। (ख) पिंप्र७३, टी. प.६६ ; साधनेन जपहोमाधुपचारेण
युक्ता समन्विता अक्षरपद्धतिः साधनयुक्ता विद्या। ३. मूला ४५७;
विज्जा साधितसिद्धा, तिस्से आसापदाणकरणेहिं।
तस्से माहप्पेण य. विज्जादोसो द उप्पादो॥ ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४०।
५.पिनि २२८॥ ६.(क) जीभा १४३८; मंतो पुण पढियसिद्धोतु ।
(ख) मवृप. १४१ ; असाधना पुरुषरूपदेवताधिष्ठितावा मंत्रः। ७. मूला ४५८1 ८. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४१। ९. पिनि २२९ । १०. मूला ४५९;
आहारदायगाणं, विज्जा-मंतेहिं देवदाणं तु। आहूय साधिदव्वा, विज्जामंतो हवे दोसो॥
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