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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
• गृहस्थ के पूछने पर साधु कहता है कि मैं वैद्य नहीं हूं। इस वाक्य की अर्थापत्ति से गृहस्थ जान लेता है कि रोग गंभीर है, उसे वैद्य के पास जाना चाहिए। • चिकित्सा के दूसरे प्रकार में गृहस्थ के द्वारा रोग का निदान पूछने पर मुनि कहता है कि मैं भी अतीत में इस रोग से ग्रस्त था, तब अमुक औषधि के सेवन से मैंने स्वास्थ्य-लाभ प्राप्त किया था। अथवा वह यह कहता है कि हम साधु लोग सहसा उत्पन्न रोग की चिकित्सा तेले आदि की तपस्या से करते हैं।२ । • तीसरी प्रकार की चिकित्सा में साधु स्वयं वैद्य बनकर रोग की चिकित्सा हेतु पेट का शोधन तथा पित्त का उपशमन करवाता है फिर रोग का निदान करता है।
जीतकल्पभाष्य के अनुसार इन तीन प्रकार की चिकित्साओं में प्रथम दो सूक्ष्म चिकित्सा है तथा तीसरा भेद बादर चिकित्सा रूप है।
असंयमी गृहस्थ की चिकित्सा द्वारा भिक्षा-प्राप्ति में निम्न दोषों की संभावना रहती है• चिकित्सा में कंद, मूल आदि औषधियों के प्रयोग से जीवहिंसा का प्रसंग रहता है। • असंयम की वृद्धि होती है क्योंकि गृहस्थ तप्त लोहे के गोले के समान होता है। वह सबल बनकर अनेक जीवों की हिंसा में निमित्तभूत बनता है। ग्रंथकार ने इस महत्त्वपूर्ण पहलू को समझाने के लिए दुर्बल व्याघ्र के दृष्टान्त का संकेत किया है। इस सिद्धान्त की गहराई को समझाने के लिए आचार्य भिक्षु की दान-दया की चौपई तथा आचार्य महाप्रज्ञ की भिक्षु विचार दर्शन पुस्तक पठनीय है। • यदि साधु के द्वारा चिकित्सा की जाने पर भी किसी कारणवश रोग बढ़ जाए तो गृहस्थ साधु का निग्रह कर सकता है अर्थात् राजा आदि से दंडित भी करवा सकता है, जिससे प्रवचन की निंदा होती है।' ७. क्रोधपिण्ड
जो आहार मुनि अपनी विद्या और तप के प्रभाव से, राजकुल की प्रियता तथा अपने शारीरिक बल के प्रभाव से प्राप्त करता है, वह क्रोध पिण्ड है। मांगने पर भिक्षा प्राप्त न होने से साधु के कुपित होने पर गृहस्थ यह सोचता है कि साधु का कुपित होना मेरे भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा, यदि मुनि को भिक्षा नहीं दूंगा तो राजा मुझ पर कुपित हो जाएंगे क्योंकि ये राजा के कृपापात्र हैं, इस रूप में भिक्षा प्राप्त करना क्रोधपिण्ड है। क्रोधपिण्ड को स्पष्ट करने के लिए ग्रंथकार ने हस्तकल्प नगर के एक क्षपक की कथा का उल्लेख किया है।
१. पिनि २१४/१। २. पिनि २१४/२। ३. पिनि २१४/३। ४. जीभा १३८९। ५. पिनि २१५, मवृ प. १३३, जीभा १३९२।
६. विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २९। ७. पिनि २१५। ८. पिनि २१७, पिंप्र ६७। ९. पिनि २१८। १०. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३०।
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