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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण है। स्थानांग सूत्र में इसके स्थान पर लिंग आजीवना का नाम है। लिंग- आजीवना का तात्पर्य है ज्ञानशून्य साधु का केवल साधु लिंग के आधार पर भिक्षा प्राप्त करना।
व्यवहार भाष्य में इन पांच के अतिरिक्त तप और श्रुत आजीवना का भी उल्लेख मिलता है। स्वयं के तप को बताकर भिक्षा प्राप्त करना तप-आजीवना तथा अपने ज्ञान को प्रकट करके भिक्षा प्राप्त करना श्रुतआजीवना है। आजीवना दोष युक्त आहार लेने से शक्ति का गोपन तथा मुनि की दीनता प्रकट होती है। ५. वनीपक दोष
वनीपक शब्द वनु-याचने धातु से निष्पन्न है। स्वयं को श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और श्वान आदि का भक्त बताकर या उनकी प्रशंसा करके आहार की याचना करना वनीपक दोष है। अभयदेवसूरि के अनुसार दूसरों को अपनी दरिद्रता दिखाकर अथवा उनके अनुकूल बोलने से जो द्रव्य मिलता है, उसे वनी कहते हैं। जो उसको पीता है अर्थात् उसका आस्वादन करता है अथवा रक्षा करता है, वह वनीपक कहलाता है। नियुक्तिकार उपमा के द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जिस बछड़े की मां मर जाती है, उसके लिए ग्वाला अन्य गाय की खोज करता है, वैसे ही आहार आदि के लोभ से माहण, कृपण, अतिथि और श्वान के भक्तों के सम्मुख स्वयं को उनका भक्त बताकर दीनता से याचना करना वनीपक दोष है । दिगम्बर ग्रंथों में इसका नाम वनीपकोक्ति मिलता है।
__ भक्तों के सामने साधु कैसी भाषा का प्रयोग करता है, इसका ग्रंथकार ने सुंदर विवेचन प्रस्तुत किया है
शाक्य-बौद्ध-भक्तों के सम्मुख साधु कहता है कि बौद्ध भिक्षु चित्रभित्ति की भांति अनासक्त रूप से भोजन करते हैं। ये परम कारुणिक और दानरुचि हैं। काम में अत्यन्त आसक्त ब्राह्मणों को दिया गया दान भी नष्ट नहीं होता तो फिर शाक्य आदि श्रमणों को दिया गया व्यर्थ कैसे हो सकता है ?
ब्राह्मण-भक्तों के समक्ष ब्राह्मणों की प्रशंसा रूप वनीपकत्व करते हुए साधु कहता है कि ब्राह्मण पृथ्वी पर देव रूप में विचरण करते हैं अतः लोकोपकारी ब्राह्मणों को दिया गया दान बहुत फलदायी होता है, फिर षट्कर्म में रत ब्राह्मण को देने से होने वाले लाभ का तो कहना ही क्या?
कृपण-भक्तों के सम्मुख मुनि कहता है कि यह लोक पूजितपूजक है। जो कृपण, दु:खी, अबंधु, रोगी या लूले-लंगड़े को आशंसा से रहित होकर दान देता है, वह दानपताका का हरण करता है।
१.स्था ५/७१। २. व्यभा ८८०। ३. मूलाटी पृ. ३५३ ; वीर्यगूहनदीनत्वादिदोषदर्शनात् । ४. स्थाटी ५/२००, टी. पृ. २२८; परेषामात्मदुःस्थत्वदर्शनेना
नुकूलभाषणतो यल्लभ्यते द्रव्यं सा वनी तांपिबति-आस्वादयति पातीति वेति वनीपः स एव वनीपको-याचकः।
५. पिनि २०८/१, जीभा १३६५। ६. अनध ५/२२। ७. पिनि २०९/१, जीभा १३६८। ८. पिनि २१०/१, जीभा १३७१ । ९. पिनि २१०/२, जीभा १३७३ ।
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