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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण ३. निमित्त दोष
त्रिकालविषयक षड्विध' निमित्त-लाभ-अलाभ, सुख-दुःख और जीवन-मरण बताकर भिक्षा प्राप्त करना निमित्त दोष है। अनगारधर्मामृत के अनुसार अष्टांगनिमित्त बताकर दाता को प्रसन्न करके आहार ग्रहण करना निमित्त दोष है। भाष्यकार ने विद्या, मंत्र और निमित्त का प्रयोग करने वाले साधु को चरणकुशील माना है। मनुस्मृति में भी निमित्त कथन के द्वारा भिक्षा लेने का प्रतिषेध है। निशीथ के अनुसार वर्तमान और भविष्य के निमित्त का कथन करने वाला मुनि प्रायश्चित्त का भागी होता है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी अतीत सम्बन्धी निमित्त कथन की अपेक्षा वर्तमान और भविष्य सम्बन्धी निमित्त कथन को अधिक दोषपूर्ण माना है अतः इन दोनों के प्रायश्चित्त में भी अंतर है। नियुक्तिकार ने निमित्त दोष से होने वाली हानियों को स्पष्ट करने के लिए एक कथा का संकेत किया है। निशीथ भाष्य में निमित्त कथन से होने वाले दोषों की विस्तार से चर्चा है। निमित्त दोष से युक्त भिक्षा ग्रहण करने में स्वपर की हिंसा का भय रहता है। ४. आजीवना दोष
अपनी जाति, कुल, गण आदि का परिचय देकर भिक्षा लेना आजीवना दोष है। निशीथ सूत्र में आजीवपिंड का भोग करने वाले मुनि को प्रायश्चित्त का भागी बताया गया है। दशवकालिक सूत्र में आजीववृत्तिता को अनाचार माना है। भाष्यकार ने आजीवना से भिक्षा प्राप्त करने वाले साधु को कुशील माना है।१२
__ आजीवना दोष पांच प्रकार से लगता है-जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प। मूलाचार में जाति, कुल, शिल्प, तप और ऐश्वर्य-इन पांच को आजीव माना है।३
आजीवना के पांचों दोष दो प्रकार से लगते हैं-स्पष्ट शब्दों से कथन तथा प्रकारान्तर से अस्फुट वचन से कथन। इसे ग्रंथकार ने सूचा और असूचा शब्द से प्रकट किया है। ग्रंथकार ने पांचों भेदों का मनोवैज्ञानिक और सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत किया है। जाति-आजीवना
जाति मातृपक्ष से सम्बन्धित होती है। जाति के आधार पर गृहस्थ से आहार आदि प्राप्त करना
१. मूला ४४९ ; मूलाचार में निमित्त दोष में व्यञ्जन, अंग,
स्वर आदि अष्टविध निमित्तों का उल्लेख है। २. अनध ५/२१ । ३. व्यभा ८७९। ४. मनु ६/५०। ५.नि १०/७,८। ६. जीभा १३४८, १३४९ । ७. पिनि २०५, जीभा १३४२-४७, कथा के विस्तार हेतु
देखें परि. ३, कथा सं. २८ ।
८. निभा २६८९-९२, चू पृ. १८, १९ । ९. पिनि २०४, मवृ प. १२८ १०.नि १३/६४। ११. दश ३/६। १२. व्यभा८८०॥ १३. मूला ४५० १४. (क) जीभा १३५२; जाती माहणमादी, मातिसमुत्था व
होति बोधव्वा। (ख) पिंप्र६४; माइभवा विप्पाइ व जाई।
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