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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण प्राचीन काल में वैभव के अनुसार पांच प्रकार की धाय होती थीं
१. क्षीरधात्री-स्तनपान कराने वाली। २. मज्जनधात्री-स्नान कराने वाली। ३. मंडनधात्री-बालक का मंडन-विभूषा करने वाली। ४. क्रीड़नधात्री-बालक को क्रीड़ा कराने वाली।
५. अंकधात्री-बालक को गोद में रखने वाली। दिगम्बर साहित्य में इनके नामों में कुछ परिवर्तन है। मूलाचार में मार्जन, मण्डन, क्रीड़न, क्षीर और अम्ब तथा अनगारधर्मामृत में मार्जन, क्रीड़न, स्तन्यपान, स्वापन और मण्डन-इन पांच नामों का उल्लेख मिलता है।
धात्री दोष दो प्रकार से लगता है-स्वयं धात्रीत्व करना तथा दूसरों से करवाना।
धात्रीत्वकरण को स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि भिक्षार्थ गया मुनि बालक को रुदन करते देखकर यदि गृहस्थ को यह कहता है कि यह बालक अभी दूध पर आश्रित है अत: दूध न मिलने के कारण रो रहा है। मुझे भिक्षा देकर इसे दूध पिलाओ अथवा इसे दूध पिलाकर मुझे भिक्षा दो अथवा मैं पुनः भिक्षार्थ आ जाऊंगा अथवा यह कहे कि तुम इसे दूध पिलाओ अन्यथा मैं इसे दूध पिलाऊंगा। साधु के द्वारा इस प्रकार कहने से गृहस्वामिनी यदि भद्र स्वभाव वाली होती है तो वह स्नेहवश साधु के लिए आधाकर्म जन्य हिंसा कर सकती है, यदि वह धर्माभिमुखी नहीं है तो उसके मन में प्रद्वेष हो सकता है। किसी कारणवश या कर्मोदय से बालक बीमार हो जाए तो प्रवचन की अवहेलना होती है। मुनि को चाटुकारी मानकर लोग उनकी निंदा करते हैं तथा गृहस्वामी के मन में भी साधु के शील के प्रति आशंका हो सकती है।
धात्रीत्व कारावण में यदि साधु एक धात्री के स्थान पर दूसरी धात्री रखने का प्रयत्न करता है तो वह भी धात्री दोष के अन्तर्गत आता है, जैसे-भिक्षार्थ गया साधु यदि किसी स्त्री को खेदखिन्न देखकर उसके दुःख का कारण पूछे। उस समय वह स्त्री यह कहे कि आज मेरा धात्रीत्व छीन लिया गया है। मेरे स्थान पर अमुक स्त्री को धात्री के रूप में नियुक्त किया गया है अतः आजीविका विच्छिन्न होने से मैं दुःखी हूं। मुनि उस स्त्री को सांत्वना देकर नवनियुक्त धात्री की आयु, स्तनों की स्थूलता या कृशता को जानकर उस धनाढ्य व्यक्ति को यह कहता है कि तुम्हारे पूर्वजों को धात्रीविषयक ज्ञान नहीं था अथवा इस कुल में वैभव अभी ही बढ़ा है, तभी ऐसी-वैसी अनुभव रहित धात्री नियुक्त की हुई है। मुनि से सारी बात सुनकर वह धनाढ्य गृहस्थ नवनियुक्त धात्री को मुक्त करके पुनः पुरानी धात्री को रखता है तो उसका यह कथन धात्री दोष से युक्त होता है। ऐसा करने से वह अभिनवधात्री द्वेषयुक्त हो सकती है। प्रतिशोधवश वह साधु
१. ज्ञा १/१/८२, राज ८०४, पिनि १९७। २. अनध ५/२० ; मार्जन-क्रीडन-स्तन्यपान-स्वापन
मण्डनम्।
३. जीभा १३२३; तं दुविहं धातित्तं, करणे कारावणे य बोद्धव्वं । ४. पिनि १९८/१-३। ५. पिनि १९८४-६।
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