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पिंडनियुक्ति औद्देशिक, क्रीतकृत, अभिहत, पूतिकर्म, अध्यवतर, प्रामित्य और मिश्रजात'-इन दोषों का वर्णन मिलता है लेकिन आधाकर्म दोष का उल्लेख नहीं है। आधाकर्म का उल्लेख न होने के कुछ संभावित बिन्दु ये हो सकते हैं• आचार्य शय्यंभव ने औदेशिक दोष में आधाकर्म का समावेश कर दिया हो। • आचार्य शय्यंभव तक आधाकर्म दोष का अधिक प्रयोग नहीं होता था। • कर्मप्रवाद पूर्व, जिससे पिण्डैषणा अध्ययन निर्दृढ़ हुआ है, वहां इसका उल्लेख नहीं होने से उन्होंने इसका समावेश नहीं किया।
दशाश्रुतस्कन्ध तथा दशवैकालिक में वर्णित ५२ अनाचारों में कुछ अनाचार भिक्षाचर्या के दोषों से भी सम्बन्धित हैं
१. औद्देशिक-दूसरा उद्गम दोष। ४. आजीववृत्तिता-उत्पादना का चौथा आजीव दोष। २. क्रीतकृत-तीसरा उद्गम दोष। ५. तप्तानिवृतभोजित्व-एषणा का नवां अपरिणत दोष। ३. अभिहत-ग्यारहवां उद्गम दोष।
- निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि उद्गम के सोलह दोषों का एक स्थान पर क्रमिक और व्यवस्थित वर्णन पिण्डनियुक्तिकार का मौलिक अवदान है। प्राभृतिका', परिवर्तन आदि दोषों का आगमसाहित्य में अधिक उल्लेख नहीं है, फिर भी इन सभी दोषों के बीज आगम-साहित्य में मिलते हैं। नियुक्तिकार ने इनको व्यवस्थित रूप देकर व्याख्यायित किया है। उत्पादना से सम्बन्धित दोष
उत्पादना का अर्थ है-उत्पन्न करना। पंचवस्तु में उत्पादन, संपादन और निर्वर्तन को एकार्थक माना है। नियुक्तिकार ने नाम, स्थापना और द्रव्य के आधार पर उत्पादना शब्द की विस्तृत व्याख्या की है। भाव-उत्पादना के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त । ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि की उत्पत्ति प्रशस्त भाव-उत्पादना है। क्रोध आदि से या धात्रीकरण आदि सावध व्यापार से आहार आदि की उत्पादना करना अप्रशस्त भाव-उत्पादना है। उत्पादना के सोलह दोष साधु से सम्बन्धित होते हैं। १. धात्रीदोष
पंचविध धाय की भांति बालक को खिलाकर आहार प्राप्त करना धात्री दोष है। जो बालक को धारण करती है, बालक का पोषण करती है अथवा बालक जिसको पीते हैं, वह धात्री कहलाती है। १. दश ५/१/५५।
६. जीभा १३१७। २. दशनि १५ ; कम्मप्पवायपुव्वा, पिंडस्स तु एसणा तिविधा। ७. पिनि १९४/३। ३. वसति सम्बन्धी प्राभृतिका दोष का विस्तृत वर्णन ८. (क) पिनि १९३ ; उप्पादणाय दोसे, साहूउ समुट्ठिते जाण। बृहत्कल्पभाष्य में मिलता है।
(ख) जीभा १४७२; उप्पायण होइ समणउत्थाणा। ४. पंव ७५३ ; उप्पायण संपायण निव्वत्तणमो य हुंति एगट्ठा। ९. मूला ४४७ ; पंचविधधादिकम्मेणुप्पादो धादिदोसो दु। ५. विस्तार हेतु देखें पिनि १९४/१, २, मवृ प. ११९, १२०। १०. पिनि १९८ ।
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