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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण • मूलाचार में अभिहत दोष के स्थान पर अभिघट दोष है। • मालापहत दोष के स्थान पर मूलाचार में मालारोह तथा अनगारधर्मामृत में आरोह दोष का उल्लेख है। • प्राभृतिका दोष के स्थान पर मूलाचार में प्रावर्तित तथा अनगारधर्मामृत में प्राभृतक दोष है। • मूलाचार में प्रामित्य दोष के स्थान पर प्रामृष्य तथा आच्छेद्य के स्थान पर अच्छेद्य दोष का उल्लेख है। • अनिसृष्ट दोष के स्थान पर अनगारधर्मामृत में निषिद्ध दोष का उल्लेख मिलता है। • मूलाचार और अनगारधर्मामृत में उल्लिखित बलि दोष अतिरिक्त है। इसकी किसी के साथ तुलना नहीं
की जा सकती। यक्ष, नाग, कुलदेवता, पितरों आदि के लिए बनाए गए उपहार में से बचा हुआ अंश मुनि को देना बलि दोष है। आगम साहित्य में प्राप्त उद्गम दोष
तीर्थंकरों एवं जैन आचार्यों ने जिस सूक्ष्मता से साधु की अहिंसा प्रधान भिक्षावृत्ति का उल्लेख किया है, वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। आगम-साहित्य में भिक्षाचर्या के ४२ दोष एक साथ नहीं मिलते हैं। वहां विकीर्ण रूप से मूलकर्म को छोड़कर प्रायः सभी दोषों के नाम मिलते हैं। कुछ अतिरिक्त दोषों का उल्लेख भी वहां मिलता है। यहां आगम-साहित्य में प्रकीर्ण रूप से मिलने वाले उद्गम दोषों का संकलन प्रस्तुत किया जा रहा है• आचारचूला-आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, क्रीतकृत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभिहत दोष। • सूत्रकृतांग-औद्देशिक, आधाकर्म', क्रीत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, अभिहत और पूति। • स्थानांग-आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतर, पूतिक, क्रीत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट
और अभिहत • भगवती-आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतर, पूतिक, क्रीत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और
अभिहत • प्रश्नव्याकरण-उद्दिष्ट, स्थापित, प्रादुष्करण, प्रामित्य, मिश्रक (मिश्रजात), क्रीतकृत, प्राभृत (प्राभृतिका) आच्छेद्य और अनिसृष्ट। ज्ञाताधर्मकथा तथा अंतकृद्दशा आदि ग्रंथों में भी आधाकर्मिक, औद्देशिक और क्रीतकृत आदि दोषों का उल्लेख मिलता है।
____ यहां विमर्शनीय बिन्दु यह है कि दशवैकालिक साध्वाचार का प्रतिनिधि ग्रंथ है, उसमें उद्गम के
१. मूला ४३१, अनध ५/१२।
५.स्था ९/६२ आधाकम्मिए ति वा उद्देसिए ति वा मीसज्जा२. आचूला १/२९ ; संखडिं संखडिं-पडियाए अभिसंधारेमाणे एति वा अज्झोयरए ति वा पतिए कीते पामिच्चे अच्छेज्जे
आहाकम्मियं वा, उद्देसियं वा, मीसजायं वा, कीयगडं वा, अणिसटे अभिहडे ति वा। पामिच्चं वा, अच्छेज्जं वा, अणिसिटुं वा, अभिहडं वा ६. भग ९/१७७। आहट्ट दिज्जमाणं भुंजेज्जा।
७. प्र १०/७। ३. सू१/९/१४।
८. ज्ञा १/१/११२, अंत ३/७२। ४. सू २/१/६५।
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