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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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निषिद्ध दोष के नाम से उल्लिखित है। चारित्रसार, मूलाचार आदि दिगम्बर ग्रंथों में इस दोष की व्याख्या कुछ अंतर के साथ मिलती है। अणिसट्ठ के दो भेद हैं-ईश्वर और अनीश्वर । इन दोनों के भी चार-चार भेद हैं-१. सारक्ष २. व्यक्त ३. अव्यक्त ४. संघात। १६. अध्यवपूरक दोष
गृहस्थ के लिए पकाए जाने वाले भोजन में याद आने पर साधु के लिए अधिक डालकर भोजन पकाना अध्यवपूरक दोष है, इसे अध्यवतर भी कहा जाता है। दिगम्बर परम्परा में अध्यवपूरक के स्थान पर अध्यधि नामक दोष मिलता है, इसका दूसरा नाम साधिक भी है। इसका वैकल्पिक अर्थ मूलाचार में इस प्रकार मिलता है-'अहवा पागं तु जाव रोहो वा' अर्थात् जब तक आहार पूरा तैयार न हो, तब तक मुनि को रोकना भी अध्यधि दोष है।"
मिश्रजात और अध्यवपूरक में यही अंतर है कि मिश्रजात में साधु के निमित्त चावल, जल, फल, शाक आदि का परिमाण प्रारम्भ से ही अधिक कर दिया जाता है, जबकि अध्यवतर या अध्यवपूरक में इनका परिमाण मध्य में बढ़ाया जाता है।
__ अध्यवपूरक दोष तीन प्रकार का होता है-१. स्वगृहयावदर्थिक मिश्र २. स्वगृहसाधुमिश्र ३. स्वगृहपाषंडिमिश्र। इन तीनों की व्याख्या अपने-अपने नाम से स्पष्ट है। इनमें स्वगृहयावदर्थिकमिश्र विशोधिकोटि के अन्तर्गत आता है। इसका तात्पर्य यह है कि शुद्ध आहार में यदि यावदर्थिक मिश्र अध्यवपूरक आहार मिल जाए तो उसको उतनी मात्रा में निकाल देने से या भिक्षाचरों को देने से आहार की विशुद्धि हो जाती है, शेष आहार मुनि के लिए कल्प्य हो सकता है लेकिन स्वगृहपाषंडिमिश्र और स्वगृहसाधुमिश्र अध्यवपूरक पकाया हुआ आहार यदि शुद्ध आहार में गिर जाए तो वह पूति दोष युक्त हो जाता है। उतना आहार पृथक् करने या पाषंडियों को देने पर भी शेष आहार साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता।
मूलाचार में जिन दो गाथाओं में उद्गम के १६ दोषों का उल्लेख है, वहां प्रथम नाम आधाकर्म का है लेकिन आधाकर्म को जोड़ने से उद्गम के १७ दोष हो जाते हैं अतः दिगम्बर परम्परा में आधाकर्म को १६ दोषों के साथ नहीं जोड़ा गया है। मूलाचार के टीकाकार इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि अध:कर्म (आधाकर्म) महादोष वाला है। पंच सूना (हिंसा स्थान) तथा छह जीवनिकायों के वध से युक्त
१. अनध ५/१५, टी पृ. ३८६ । २. (क) चासा ६९/२। (ख) इन सब भेदों की विस्तृत व्याख्या हेतु
द्र मूलाटी पृ. ३४७, ३४८ । ३. (क) मूला ४२७, टी पृ. ३३६ ।
(ख) अनध ५/८ स्याद्दोषोऽध्यधिरोधो, यत् स्वपाके यतिदत्तये।
प्रक्षेपस्तण्डुलादीनां रोधो वाऽऽपचनाद्यतेः॥ ४. मूला ४२७, टी पृ. ३३६। ५. पिनि १८७, मवृ प. ११६। ६. पिनि १८८, मवृ प. ११६ ।
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