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चोल्लक अनिसृष्ट
भोजन से सम्बन्धित अनिसृष्ट दो प्रकार का है - १. स्वामी विषयक, २. हस्ती विषयक । स्वामी विषयक - स्वामी विषयक चोल्लक दो प्रकार का होता है - छिन्न और अच्छिन्न । कोई कौटुम्बिक अपने खेत में काम करने वाले हालिकों के लिए भोजन बनवाकर अलग-अलग भेजता है वह छिन्न कहलाता है । जब वह सभी हालिकों के लिए एक साथ एक ही बर्तन में भोजन भेजता है तो वह अच्छिन्न कहलाता है । यदि कौटुम्बिक हालिकों के लिए भेजे सामूहिक भोजन को साधु के दान हेतु भी भेजता है तो वह निसृष्ट- अनुज्ञात कहलाता है, कौटुम्बिक की अनुमति के बिना वह अनिसृष्ट कहलाता है । छिन्न चुल्लक में मूल स्वामी की अनुज्ञा अपेक्षित नहीं है। प्रत्येक हालिक यदि अपना व्यक्तिगत आहार देना चाहे तो वह साधु के लिए कल्प्य है। अच्छिन्न में यदि सभी स्वामी अनुज्ञा दें तो वह आहार साधु को ग्रहण करना कल्पनीय है।
हस्ती विषयक - हाथी का भोजन महावत के द्वारा अनुज्ञात होने पर भी अकल्प्य है। यदि स्वयं महावत का भोजन गज के द्वारा अदृष्ट है तो वह साधु के लिए ग्रहण योग्य है । अननुज्ञात राजपिण्ड और गजपिण्ड को लेने से अंतराय और अदत्तादान आदि दोष लगते हैं। राजा की अनुज्ञा के बिना राजपिण्ड लेने से राजा महावत आदि को नौकरी से मुक्त कर सकता है, उसकी आजीविका विच्छेद से साधु को अंतराय का दोष लगता है। गजभक्त को न लेने का कारण स्पष्ट करते हुए व्याख्याकार कहते हैं कि महावत को प्रतिदिन दान देते देखकर हाथी रुष्ट होकर यह सोच सकता है कि यह साधु प्रतिदिन मेरे आहार को ग्रहण करता है । वह उपाश्रय में उस साधु को देखकर उपाश्रय को तोड़ सकता है तथा रोष में आकर साधु का प्राणघात भी कर सकता है अतः गज के समक्ष महावत के द्वारा दिया जाने वाला आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए ।" यह खोज का विषय है किं तिर्यञ्च में गाय, भैंस, घोड़ा, कुत्ता आदि का उल्लेख न करके केवल हाथी का ही उल्लेख क्यों हुआ ? इसके संभावित निम्न कारण हो सकते हैं
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हाथी को जो आहार दिया जाता है, उसमें मनुष्य द्वारा भोग्य पदार्थ अधिक दिए जाते होंगे ।
पिण्डनिर्युक्ति की रचना के आसपास कोई ऐसी घटना घट गई होगी, जब निरन्तर भिक्षा ग्रहण करने वाले किसी साधु को हाथी ने चोट पहुंचाई हो ।
• अन्य प्राणियों की तुलना में हाथी की समझ अधिक परिपक्व होती है ।
मूलाचार के टीकाकार ने 'अणिसट्ठ' की संस्कृत छाया अनीशार्थ की है । अनगारधर्मामृत में यह
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१. पिनि १८१ / १ ।
२. जीभा १२७७ ; परिछिण्णं चिय दिज्जति, एसो छिण्णो मुणेतव्वो । ३. मवृ प. ११४; यदा तु सर्वेषामपि हालिकानां योग्य
पिंड नियुक्ति
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मेकस्यामेव स्थाल्यां कृत्वा प्रेषयति तदा सोऽच्छिन्नः ।
४. पिनि १८५, जीभा १२८१ ।
५. मवृ प. ११५, जीभा १२८२ ।
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