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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण उस आहार को ग्रहण कर सकता है, फिर चोरों के चले जाने पर मुनि वह आहार सार्थिक को पुनः देते हुए कहे कि उस समय चोरों के भय से हमने यह आहार ग्रहण कर लिया, अब तुम यह द्रव्य वापिस ग्रहण कर लो, ऐसा कहने पर सार्थिक यदि प्रसन्नतापूर्वक अनुज्ञा दे तो मुनि वह आहार ग्रहण कर सकता है। १५. अनिसृष्ट दोष
स्वामी के द्वारा दत्त निसृष्ट कहलाता है। अनेक स्वामी होने पर या जो वस्तु जिसकी है, उसकी अनुमति के बिना आहार आदि ग्रहण करना अनिसृष्ट दोष है। अनिसृष्ट दोष युक्त आहार तीर्थंकरों द्वारा प्रतिषिद्ध है।' दशवैकालिक सूत्र में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जिस आहार का दो स्वामी भोग करने वाले हों, उसमें से यदि एक निमंत्रित करे तो मुनि वह दिया जाने वाला आहार ग्रहण न करे। इसकी व्याख्या करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि एक दाता की अनुज्ञा होने पर भी दूसरे स्वामी के आकार, इंगित, चेष्टा तथा मुख और नयन के संकेतों से जानने का प्रयत्न करे, यदि उसे इष्ट हो तो स्पष्ट अनुमति के बिना भी एक स्वामी द्वारा दत्त आहार लिया जा सकता है। साधारणतः अनिसृष्ट के दो भेद हैं-१. साधारण अनिसृष्ट २. चोल्लक अनिसृष्ट (भोजनविषयक)। जीतकल्पभाष्य एवं पिण्डविशुद्धिप्रकरण में इसके तीन भेद किए हैं-१. साधारण अनिसृष्ट २. चोल्लक अनिसृष्ट ३. जड्ड-हस्ती अनिसृष्ट। पिण्डनियुक्ति में चोल्लक अनिसृष्ट के अन्तर्गत जड्डु-हस्ती अनिसृष्ट का समावेश कर दिया गया है। साधारण अनिसृष्ट
साधारण अनिसृष्ट में मोदक, क्षीर, कोल्हू, विवाह, दुकान तथा गृह आदि का समावेश होता है। मोदक, क्षीर तथा कोल्हू आदि स्थानों पर होने वाले पदार्थ के अनेक स्वामी हो सकते हैं अतः साधु स्वामी की अनुज्ञा के बिना उन्हें न ले। ग्रंथकार ने मोदक विषयक साधारण अनिसृष्ट को माणिभद्र आदि ३२ युवकों की कथा के माध्यम से स्पष्ट किया है।
___ साधारण अनिसृष्ट लेने पर गृहस्थ साधु को 'पच्छाकड'–पुनः गृहस्थ बनाकर देश से निष्काशन भी कर सकता है।
१. मवृ प. ११३। २. बृभा ३६५७, टी. पृ. १०१६ ; दिण्णं तु जाणसु निसटुं। ३. स्थाटी पृ. ३११; अनिसृष्टं साधारणं बहनामेकादिना
अननुज्ञातं दीयमानम्। ४. पिनि १७८। ५. दश ५/१/३७। ६. दशअचू पृ. ११०, दशजिचू पृ. १७९ ; णेत्तादीहिं विगारेहिं
अभणंतस्स वि नज्जइ जहा एयस्स दिज्जमाणं चियत्तं
न वा इति, अचियत्तं तो णो पडिगेण्हेज्जा। ७. जीभा १२७५, पिंप्र५१। ८. पिनि १८१/१। ९. जीभा १२७६। १०. पिनि १७९-१७९/२, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,
कथा सं. २५। ११. पिनि १८०॥
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