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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण दोष है। निःश्रेणी आदि पर चढ़कर प्रासाद के ऊपरी हिस्से से उतारकर भिक्षा देना उत्कृष्ट मालापहृत दोष है। नियुक्तिकार ने जघन्य मालापहृत में भिक्षु का तथा उत्कृष्ट मालापहत में कापालिक का दृष्टान्त दिया
प्रकारान्तर से मालापहत दोष के तीन भेद भी मिलते हैं-ऊर्ध्व २. अध: ३. तिर्यक् । ऊपर छींके आदि से उतारकर देना ऊर्ध्व मालापहृत है। नीचे भूमिगृह से लाकर देना अध: मालापहत तथा बहुत ऊंचे कुंभ आदि से भिक्षा देना तिर्यक् मालापहत है। भाष्यकार के अनुसार अर्धमाले में रखा हुआ आहार देना तिर्यक मालापहृत है।
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में मालापहत दोष के चार भेद किए हैं। उपर्युक्त तीन के अतिरिक्त चौथा उभय मालापहृत का उल्लेख हुआ है। उभय की व्याख्या करते हुए उसके टीकाकार यशोदेवसूरि कहते हैं कि कुम्भी, उष्ट्रिका तथा बड़े कोठे में से एड़ी को ऊंचा करके तथा बाहु को नीचे फैलाकर साधु को आहार देना उभय मालापहृत दोष है। इसमें शरीर का व्यापार ऊपर और नीचे दोनों दिशाओं में हुआ है अतः इसका नाम उभय मालापहत है।
यदि दर्दर, सिला, सोपान आदि पर साधु के आगमन से पूर्व ही गृहस्वामी चढ़ा हुआ हो तो हाथ लम्बा करके वह साधु को पात्र-दान दे सकता है क्योंकि यह अनुच्चोत्क्षिप्त है।
__यशोदेवसूरि ने मालापहृत दोष के प्रसंग में एक तर्क उपस्थित किया है कि ऊपर से उतारकर देना तो मालापहृत दोष है लेकिन नीचे भूमिगृह से लाकर देना मालापहृत कैसे हुआ? इसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि प्रवृत्ति निमित्त से भूगृह से लाए हुए आहार को भी मालापहृत कहा गया है। आगम में यह रूढ़ हो गया है अतः नीचे से लाने के लिए मालापहृत शब्द का प्रयोग गलत नहीं है।'
मालापहृत के दोष बताते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि निःश्रेणी, फलक आदि से चढ़कर भक्तपान देने से दाता के पैर का संतुलन बिगड़ने से वह नीचे गिर सकता है, जिससे उसके हाथ-पैर में चोट लग सकती है। यदि वहां ब्रीहिदलनक यंत्र आदि पड़े हों तो उसकी मृत्यु हो सकती है। यदि गर्भिणी स्त्री हो तो दो त्रस जीवों की हिंसा की संभावना भी रहती है तथा नीचे गिरने से उसके शरीर के नीचे आए पृथ्वीजीव तथा उसके आश्रित अन्य जीवों की हिंसा हो सकती है। मुनि के प्रति प्रद्वेष भाव होने से द्रव्यप्राप्ति का व्यवधान हो सकता है, प्रवचन की अप्रभावना होती है तथा लोगों में यह भ्रांति फैलती है कि ये मुनि भविष्य में होने वाले अनर्थों को नहीं जानते।
१. पिनि १६५, मवृ प. १०८। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २२, २३ । ३. पिनि १६९, जीभा १२७०, निशीथ भाष्य (५९४९) में
तिर्यक् के स्थान पर उभयत: भेद का उल्लेख मिलता है। ४. जीभा १२७०।
५. पिंप्रटी प. ४५। ६.पिनि १७०। ७. पिंप्रटी प. ४५, ४६। ८. पिनि १६७, १६८, दश ५/१/६७-६९।
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