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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
मोदकों को प्रासुक समझकर ग्रहण कर लिया यह निशीथ परग्राम अभ्याहृत है। नोनिशीथ परग्राम अभ्याहृत को नोनिशीथ स्वग्राम अभ्याहृत की भांति समझना चाहिए। नियुक्तिकार और टीकाकार ने उसकी अलग से व्याख्या नहीं की है। आचीर्ण स्वग्राम अभ्याहृत
क्षेत्र की अपेक्षा आचीर्ण स्वग्राम अभ्याहृत के दो भेद हैं-देश तथा देशदेश। सौ हाथ प्रमित क्षेत्र देश तथा सौ हाथ के मध्य या उससे दूर क्षेत्र देशदेश कहलाता है। इसमें सौ हाथ प्रमित क्षेत्र से लाया हुआ आहार साधु के लिए आचीर्ण तथा इससे अधिक दूरी से लाया हुआ अनाचीर्ण होता है। आचीर्ण अभ्याहृत के तीन भेद हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। एक हाथ से दूसरे हाथ में वस्तु परिवर्तन करना जघन्य आचीर्ण, सौ हाथ से अभ्याहत उत्कृष्ट आचीर्ण तथा इसके मध्यवर्ती क्षेत्र से अभ्याहृत मध्यम आचीर्ण कहलाता है।
नियुक्तिकार ने जलपथ और स्थलपथ से अभ्याहृत के दोषों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार इन दोनों मार्गों से लाने में संयम-विराधना और आत्म-विराधना होती है। जलमार्ग के दोष इस प्रकार हैंगहरे पानी में निमज्जन, जलचर जंतुओं के द्वारा पकड़ा जाना तथा कीचड़ आदि के कारण पैर का धंसना आदि। स्थलमार्ग में कांटे, सर्प, चोर, श्वापद आदि दोषों का भय रहता है।
___ मूलाचार की टीका में 'अभिहड' की संस्कृत छाया अभिघट की है तथा इसको देश अभिघट और सर्व अभिघट-इन दो भागों में विभक्त किया है। देश अभिघट आचीर्ण और अनाचीर्ण दो प्रकार का होता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार तीन घर या सात घर से लाई हुई भिक्षा आचीर्ण है, इससे अधिक दूरी से लाई गई अनाचीर्ण है। सर्व अभिघट के चार भेद हैं-१. स्वग्राम २. परग्राम ३. स्वदेश ४. परदेश। पूर्व दिशा के मुहल्ले से पश्चिम दिशा के मुहल्ले में ले जाना स्वग्राम अभिघट है। दूसरे गांव से लाना परग्राम अभिघट है। इसी प्रकार स्वदेश और परदेश समझना चाहिए। सर्वाभिघट के सभी भेद अनाचीर्ण हैं।
स्वग्राम अभ्याहृत में तीन घर के अन्तर से उपयोगपूर्वक लाया हुआ आहार स्वग्राम गृहान्तर कहलाता है। नोगृहान्तर वाटक, गली आदि अनेक प्रकार का होता है। इसमें लाने वाले का उपयोग संभव नहीं होता इसलिए यह अनाचीर्ण है। १२. उद्भिन्न दोष
ढके हुए या लाख आदि से मुद्रित पात्र को खोलकर औषध, घी, शक्कर आदि वस्तुएं साधु को
१. पिनि १५७/१-४, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,
कथा सं. २१।
२. पिनि १५४ । ३. मूला ४३८-४४०, टी. पृ. ३४३ ।
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