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पिंडनियुक्ति
निशीथ स्वग्राम अभ्याहृत
जिस गांव में साधु निवास करते हैं, वह स्वग्राम तथा शेष परग्राम कहलाते हैं। निशीथ स्वग्राम अभ्याहृत को स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि कोई श्राविका दान देने के लिए उपाश्रय में आहार लेकर जाती है। मुनि को आशंका न हो इसलिए वह मुनि के समक्ष कहती है कि भगवन् ! अमुक घर में जाते हुए मुझे यह मिठाई प्राप्त हुई है अथवा मुझे अमुक जीमनवार में यह सामग्री मिली है। मैं सहज रूप से साधुओं को वंदना करने आई हूं, ऐसा कहकर वह मुनि को वंदना करके भिक्षा प्रदान करके लौट जाती
अथवा वह मुनि के समक्ष मूल मनोगत भावों को छिपाते हुए कहती है कि यह मिठाई मैं परिजनों को देने के लिए घर से लाई थी लेकिन उन्होंने ली नहीं अथवा वह कपटपूर्वक शय्यातरी के घर में उच्च स्वर में कहती है कि यह प्रहेणक लो। शय्यातरी मायापूर्वक निषेध करती है। दोनों में कृत्रिम कलह हो जाने पर मुनि को वह प्रहेणक भिक्षा में देती है, यह निशीथ स्वग्राम अभ्याहत है। नोनिशीथ स्वग्राम अभ्याहृत
ग्रंथकार ने नोनिशीथ स्वग्राम अभ्याहृत के अनेक कारणों का उल्लेख किया है - • मुनि भिक्षा हेतु गए, उस समय भिक्षादात्री घर में नहीं थी अथवा सो रही थी। • उस समय भिक्षा का काल नहीं था। • विशिष्ट व्यक्तियों के लिए बने खाद्य पदार्थ को पहले नहीं दिया गया। • भिक्षार्थ साधु के चले जाने पर किसी दूसरे घर से त्यौहार की मिठाई आई। इन सब कारणों से वह श्राविका बाद में अपने घर से भिक्षा लेकर साधु के उपाश्रय में जाती है, यह
नोनिशीथ स्वग्राम अभ्याहृत है। निशीथ परग्राम अभ्याहृत ।
निशीथ परग्राम अभ्याहृत को नियुक्तिकार ने एक कथा के माध्यम से विस्तार से स्पष्ट किया है। सेठ धनावह के यहां विवाह के पश्चात् अधिक मोदक बच गए तो उसने सोचा कि यदि साधुओं को भी भिक्षा दी जाए तो लाभ मिलेगा। साधु अभी समीपवर्ती गांव से नहीं आ सकते क्योंकि बीच में नदी है अतः अच्छा हो मैं ही साधुओं को दान देने के लिए पास के गांव में चला जाऊं। वहां भी श्रावक यह सोचकर कि साधु इन मोदकों को आधाकर्म की आशंका से ग्रहण नहीं करेंगे अतः पहले ब्राह्मणों को दान देना चाहिए। वह साधु-साध्वियों के उच्चार-स्थण्डिल भूमि के बीच में बैठा फिर निवेदन करने पर मुनि ने उन
३. पिनि १५६/१।
१. पिनि १५७/५। २. पिनि १५७/६।
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