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पिंडनियुक्ति जीर्ण-शीर्ण हो जाए, चोरी हो जाए अथवा खो जाए तो कलह की संभावना रहती है। दूसरी प्रकार से उधार लेने पर उससे अच्छा या विशिष्ट वस्त्र देने पर भी कोई दुष्कररुचि मुनि कलह कर सकता है। ग्रंथकार कहते हैं कि यदि किसी साधु को वस्त्र की आवश्यकता हो और कोई दूसरा साधु वस्त्र आदि देना चाहे तो बिना किसी आशंसा के वस्त्र दे। यदि कोई कुटिल या आलसी साधु को वस्त्र देने की अपेक्षा पड़े तो उसको वह स्वयं वस्त्र न दे। गुरु के माध्यम से वस्त्र दिया जाए, जिससे बाद में कलह न हो। १०. परिवर्तित दोष
साधु को देने के लिए पड़ोसी या किसी अन्य से परिवर्तन करके आहार आदि देना परिवर्तित दोष है। परिवर्तित दोष भी दो प्रकार का है-लौकिक और लोकोत्तर। दोनों के दो-दो भेद होते हैं-१. तद्द्रव्यविषयक २. अन्यद्रव्यविषयक।
कुथित घी के बदले सुगंध युक्त घी लेकर साधु को देना तद्रव्यविषयक लौकिक परावर्त है तथा कोद्रव धान्य देकर शाल्योदन आदि लेना लौकिक अन्यद्रव्य परावर्त दोष है। नियुक्तिकार ने लौकिक परावर्त दोष में लक्ष्मी नामक महिला की कथा का उल्लेख किया है, जिसने अपने भ्राता क्षेमंकर साधु के आने पर कोद्रव धान्य को बदलकर शाल्योदन दिया, इससे दोनों परिवारों में कलह हो गया।
___ एक साधु दूसरे साधु के साथ वस्त्र आदि का परिवर्तन करता है, वह लोकोत्तर परावर्त है। साधु द्वारा वस्त्र देकर वस्त्र लेना तद्रव्यविषयक लोकोत्तर परिवर्तित दोष है तथा वस्त्र देकर पुस्तक लेना अन्यद्रव्यविषयक लोकोत्तर परावर्त है।
लोकोत्तर परावर्त के दोष बताते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि वस्त्र आदि परिवर्तन करने में ग्रहणकर्ता साधु कह सकता है कि यह न्यून वस्त्र है, मेरा वस्त्र बड़ा था तथा यह वस्त्र जीर्णप्रायः, कर्कश स्पर्श वाला, मोटे धागे से निष्पन्न, छिन्न, मलिन तथा शीत से रक्षा करने में असमर्थ और बदरंग है, मेरा वस्त्र ऐसा नहीं था। इसी प्रकार किसी कुटिल साधु के कहने पर भी साधु विपरिणत हो सकता है अत: यदि किसी साधु के पास प्रमाणोपेत वस्त्र है और दूसरे के पास नहीं है तो गुरु के सामने परिवर्तन किया जाए, जिससे बाद में कलह की संभावना न रहे। ११. अभ्याहृत दोष
साधु के लिए अन्य स्थान से आहार आदि लाकर देना अभ्याहृत दोष है। इसे आहूत और
१. पिनि १४४/४-१४६।। २. (क) पिंप्र ४५ ; पल्लट्टिय जं दव्वं, तदन्नदव्वेहिं देइ
साहूणं । तं परियट्टियमेत्थं । (ख) मवृ प. ३५ ; परिवर्तितं यत् साधनिमित्तं
कृतपरावर्तम्। ३. पिनि १४७, मवृ प. १००।
४. पिनि १४८-१४८/२, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,
कथा सं. २०। ५. (क) दशअचू. पृ. ६०; अभिहडं जं अभिमुहमाणीतं
उवस्सए आणेऊण दिण्णं। (ख) मवृ प. ३५% अभिहृतं-यत् साधुदानाय स्वग्रामात्
परग्रामाद्वा समानीतम्। ६. सू १/९/१४।
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