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पिंडनियुक्ति
आत्मद्रव्यक्रीत
सौभाग्य के लिए तीर्थों का प्रसाद, गंधद्रव्य, रूपपरावर्तिनी गुटिका, चंदन तथा वस्त्र खंड आदि गृहस्थ को देकर आहार प्राप्त करना आत्मद्रव्यक्रीत है। यहां कार्य में कारण का उपचार करके आत्मद्रव्यक्रीत को ग्रहण किया गया है।
आत्मद्रव्यक्रीत के दोष बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि यदि निर्माल्य-देवद्रव्य आदि देने पर संयोगवश कोई बीमार हो जाए तो वह व्यक्ति प्रवचन अथवा साधु की निंदा कर सकता है कि इनके योग से मुझे रोग हुआ है। यदि निर्माल्य आदि से स्वस्थ हो जाए तो वह सबके समक्ष साधु की चाटुकारिता करता है कि इनके योग से मैं स्वस्थ हो गया। उसकी प्रशंसा सुनकर अन्य व्यक्तियों द्वारा निर्माल्य गंध आदि की याचना करने पर यदि उन सबको न दी जाए तो अधिकरण-कलह की संभावना रहती है। आत्मभावक्रीत
धर्मकथा, वाद-विवाद, तपस्या, ज्योतिष्विद्या, आतापना, श्रुतस्थान (आचार्यपद), जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प आदि के आधार पर भिक्षा प्राप्त करना आत्मभावक्रीत है। नियुक्तिकार ने आत्मभावक्रीत में बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग से मानवीय दुर्बलता को प्रकट करने का प्रयत्न किया है। यदि साधु आहार-प्राप्ति के लिए धर्म-कथा करता है तो उसे जिस वस्तु की आवश्यकता होती है, श्रोता उसे सहर्ष प्रदान कर देते हैं। इसका दूसरा विकल्प बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि कोई साधु प्रसिद्ध कथा कथक के आकार जैसा है, उससे यदि लोग पूछते हैं कि क्या वह प्रसिद्ध धर्मकथा करने वाले आप ही हैं? तब वह आहार आदि के लोभ में कहता है कि सभी साधु धर्मकथा करने वाले ही होते हैं अथवा उस समय यदि वह मौन रहता है तो श्रावक सोचते हैं कि वह प्रसिद्ध धर्मकथा कथक यही है, गंभीरता के कारण यह स्वयं को प्रकाशित नहीं कर रहा है। इस प्रकार अपने कौशल से प्रभावित करके द्रव्य प्राप्त करना भी आत्मभावक्रीत है।
___ यदि साधु इन सब चीजों को दुःखक्षय या कर्मक्षय के लिए करता है तो महान् निर्जरा होती है। यदि भिक्षा-प्राप्ति जैसी सामान्य आवश्यकता के लिए धर्मकथा आदि का प्रयोग करता है तो निर्जरा का फल कम हो जाता है। परद्रव्यक्रीत
गृहस्थ के द्वारा साधु के निमित्त खरीदा हुआ आहार ग्रहण करना परद्रव्यक्रीत है। परभावक्रीत
साधु को देने के लिए मंख आदि के द्वारा प्रदर्शन करना अथवा धर्मकथा करना, जिससे आकृष्ट
१. पिनि १४१। २. पिनि १४३।
३. पिनि १४३/१-३। ४. मवृ प. ९७।
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