________________
१४
पिंडनियुक्ति
१. सम्मार्जन-झाडू लगाना। २. आवर्षण-पानी से स्थान को ठंडा करना। ३. उपलेपन-गोबर से लीपना। ४. सूक्ष्म-पुष्प-रचना करना। ५. दीपक-दीपक जलाना।
इनके भी अवष्वष्कण और अभिष्वष्णकण-ये दो भेद हैं। उदाहरण के रूप में जैसे गृहस्थ सोचता है कि जब तक स्वाध्याय-मंडली का काल नहीं आता है, तब तक मैं प्रमार्जन कर देता हूं , ऐसा सोचकर यदि प्रमार्जन करता है तो यह सूक्ष्म सम्मार्जन अवष्वष्कण प्राभृतिका दोष है। यदि यह सोचता है कि अभी स्वाध्याय-मंडली बैठी है, जब यह उठेगी, तभी प्रमार्जन करूंगा तो यह सूक्ष्म सम्मार्जन अभिष्वष्कण प्राभृतिका है। ग्रंथकार ने फिर इसके भी अनेक भेद-प्रभेद किए हैं। ७. प्रादुष्करण दोष
अंधकार युक्त स्थान को प्रकाशित करके अथवा अंधकार से बाहर प्रकाश में लाकर आहर देना प्रादुष्करण दोष है। दशवैकालिक सूत्र में उल्लेख मिलता है कि अंधकार के कारण वस्तु अथवा प्राणी दिखाई न दे, वैसे निम्न द्वार वाले अथवा अंधकार युक्त कोठरी से मुनि भिक्षा ग्रहण न करे। प्रादुष्करण दोष के दो भेद हैं-१. प्रकटकरण २. प्रकाशकरण। प्रकटकरण-देय वस्तु को अंधकार से हटाकर प्रकाशयुक्त स्थान में रखना। प्रकाशकरण-अंधकार युक्त स्थान को प्रकाशित करने के लिए दीवार में छिद्र करना, द्वार बढ़ाना, दूसरा द्वार बनाना, घर के ऊपर के छप्पर को हटाना अथवा मणि, दीपक या अग्नि से देय वस्तु को आलोकित करना।
प्रकटकरण दोष को स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि चूल्हे के तीन प्रकार होते हैं१. संचारिमा २. साधु के लिए पहले से ही बाहर बनाई हुई चुल्ही। ३. साधु के लिए सद्यः बाहर प्रकाश में बनाया गया चूल्हा।
इन तीनों प्रकार के चूल्हों पर पकाया हुआ भोजन लेने से दो दोष होते हैं-उपकरणपूति और प्रादुष्करण।
१. विस्तार हेतु देखें बृभा १६८१-८६, टी. पृ. ४९५, ४९६। ५. वह चूल्हा, जो घर के अंदर होने पर भी प्रयोजनवश बाहर २. पंव ७४७; नीयवारंधारे, गवक्खकरणाइ पाउकरणं तु। ले जाया जा सके (मवृ प. ९४)। ३. दश ५/१/२०।
६. पिनि १३८/१। ४. पिनि १३८/४,५।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org