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पिंडनियुक्ति तक्र बना दिया और मक्खन को घी रूप में परिवर्तित कर दिया। यदि गृहिणी उस घी को कुटुम्ब के लिए होगा, ऐसा करके नहीं अपनाती है तो वह स्थापित घी देशोनपूर्वकोटि' तक स्थापना दोष से युक्त रह सकता है। जीतकल्पभाष्य में इसे चिरस्थापित दोष माना है।
स्थापना दोष को प्रकारान्तर से व्याख्यायित करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि एक ही पंक्ति में स्थित तीन घरों से कोई साधु को देने के लिए हाथ में भिक्षा लेकर आता है, उस समय एक साधु भिक्षा को सम्यक् उपयोगपूर्वक ग्रहण करता है तथा दूसरा साधु दो घरों के बीच में खड़े होकर भिक्षा की अनेषणीयता आदि का उपयोग करता है। इस प्रकार तीन घर के बाद वह आहार स्थापना दोष युक्त होता है। जीतकल्पभाष्य में इसे इत्वरिक स्थापना दोष के अन्तर्गत रखा है। पिण्डविशुद्धिप्रकरण में इसको अभ्याहत दोष के अन्तर्गत व्याख्यायित किया है। ६. प्राभृतिका दोष
अपने इष्ट अथवा पूज्य को बहुमानपूर्वक उपहारस्वरूप अभीष्ट वस्तु देना प्राभृत है। साधु को ऐसे आहार का दान देना प्राभृतिका दोष है। बृहत्कल्प भाष्य में प्राभृतिका और प्रहेणक को एकार्थक माना है। यह दो प्रकार का है-सूक्ष्म प्राभृतिका २. बादर प्राभृतिका। इनके भी दो-दो भेद हैं-अवष्वष्कण (उत्सर्पण) तथा उत्ष्वष्कण (अवसर्पण)। बादर अवष्वष्कण प्राभृतिका-साधु का आगमन ज्ञात होने पर निर्धारित समय से पूर्व विवाह करना, जिससे साधु को भिक्षा दी जा सके, यह बादर अवष्वष्कण या बादर अवसर्पण प्राभृतिका दोष है।१२।। सूक्ष्म अवष्वष्कण प्राभृतिका-मां ने बालक को कहा कि अभी मैं रुई आदि कातने में व्यस्त हूं अत: बाद में भोजन दूंगी। इसी बीच साधु का आगमन होने से उनके साथ बालक को भी पहले भोजन देना सूक्ष्म अवष्वष्कण या सूक्ष्म अवसर्पण प्राभृतिका है।१२
१. साधु का उत्कृष्ट चारित्र-काल आठ वर्ष कम पूर्व-कोटि ३. जीभा १२२३ । जितना होता है। टीकाकार स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ४. पिनि १३०, मवृ प. ९१ । यदि कोई बालक आठ वर्ष की आयु में साधु बना, उसका ५. जीभा १२२१, १२२२ । आयुष्य यदि पूर्वकोटि प्रमाण है। उसने यदि पूर्वकोटि ६. पिंप्र ४७ । आयु वाली गृहिणी से घी की याचना की। उस समय ७. मवृ प. ३५ ; कस्मैचिदिष्टाय पूज्याय वा बहुमानपुरस्सरीकिसी कारण से वह नहीं दे सकी, बाद में उसने वह घी
कारेण यदभीष्टं वस्तु दीयते तत्प्राभृतमुच्यते। मुनि के लिए स्थापित कर दिया तथा उस घी को तब तक ८. बृभा ३६५६ ; पाहुडिय पहेणगं च एगटुं। रखा, जब तक मुनि दिवंगत न हों तो उस स्थापित घी का ९. पिंप्र ४० ; परओ करणमुस्सक्कणं। काल देशोनपूर्वकोटि हो सकता है। दिवंगत होने पर वह १०. पिंप्र४०; ओसक्कणमारओ करणं।
घी स्थापना दोष से मुक्त हो जाता है (म प. ९१)। ११. पिनि १३४। २. पिनि १२८/२, ३।
१२. पिभा २६, २७।
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