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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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इसकी शुद्धि की प्रक्रिया बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि मिश्रजात आहार लेने पर उसका अंगुलि से पूरा अपनयन करके अथवा सूखे गोबर से पात्र को साफ करके फिर तीन बार पात्र का प्रक्षालन किया जाए, तत्पश्चात् धूप में पात्र को सुखाकर उसमें शुद्ध आहार ग्रहण किया जाए। कुछ आचार्यों की मान्यता है कि चौथी बार प्रक्षालन करने पर बिना पात्र को सुखाए भी भोजन ग्रहण किया जा सकता है, उसमें कोई दोष नहीं रहता। ५. स्थापना दोष
___ साधु को देने के लिए आहार निकालकर अलग रख देना स्थापना दोष है। मूलाचार के अनुसार पाक-भाजन से अन्य बर्तन में निकालकर अपने घर में या दूसरे घर में रखना स्थापना दोष है। भाष्यकार के अनुसार स्थापनाकुल से आहार लेने वाला मुनि पार्श्वस्थ होता है। स्थापना दोष युक्त आहार को अनवद्य मानकर उसका परिभोग करने वाला मुनि यदि उस स्थान की आलोचना या प्रतिक्रमण नहीं करता तो वह कालधर्म को प्राप्त होकर आराधक नहीं होता।
स्थापना दो प्रकार से होती है-स्वस्थान स्थापना २. परस्थान स्थापना। चूल्हे पर वस्तु आदि रखना स्वस्थान स्थापना दोष है तथा छींके आदि पर रखना परस्थान स्थापना है। इन दोनों के दो-दो भेद होते हैं
• स्वस्थान अनंतर स्थापना तथा स्वस्थान परम्पर स्थापना। • परस्थान अनंतर स्थापना तथा परस्थान परम्पर स्थापना।
घी तथा गुड़ आदि पदार्थ, जिनमें कोई विकार संभव नहीं होता, कर्ता के द्वारा उसका स्वरूप परिवर्तन नहीं होता, वे द्रव्य अनंतर स्थापित कहलाते हैं। दूध, इक्षुरस आदि जिनका दही, मक्खन, घी तथा गुड़ आदि विकार संभव है, वे परम्पर स्थापित कहलाते हैं। लम्बे समय तक इनको रखने से ये दुर्गन्ध युक्त तथा कुथित हो जाते हैं।
नियुक्तिकार ने काल के आधार पर स्थापना दोष को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है। किसी साधु ने एक गृहिणी से दूध की याचना की, उस समय उसने कहा-'मैं कुछ समय बाद भिक्षा दूंगी।' साधु को किसी दूसरे स्थान से दूध मिल गया। गृहिणी ने जब साधु से दूध लेने का आग्रह किया तो मुनि बोला'मुझे अभी दूध प्राप्त हो गया फिर कभी प्रयोजन होने पर लूंगा।' साधु के ऋण से भयभीत उस महिला ने दूध का उपयोग नहीं किया। उसने सोचा कल इसी दूध को मैं दही जमाकर दूंगी। यह सोचकर उसने उसे मुनि के लिए स्थापित कर दिया। दूसरे दिन भी मुनि ने दही नहीं लिया। महिला ने उस दही से मक्खन तथा १. पिनि १२५, मवृ प. ८९।।
४. व्यभा ८५६। २. मवृ प. ३५ ; स्थापनं साधुभ्यो देयमिति बुद्धया देयवस्तुनः... ५. भग ५/१३९-४५। व्यवस्थापनं स्थापना।
६. पिनि १२६-२८, मवृ प. ८९, ९०। ३. मूला ४३०।
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