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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
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बादर उत्ष्वष्कण प्राभृतिका - साधुओं को आहार देने के निमित्त से पुत्र आदि के विवाह की तिथि बाद में करना बादर उत्ष्वष्कण प्राभृतिका है ।"
सूक्ष्म उत्ष्वष्कण प्राभृतिका - आहार का समय होने पर भी कार्य में व्यस्त मां यदि बालक को यह कहे कि थोड़ी देर रुको, अभी मुनि अपने घर आएंगे, उस समय तुम्हें भी भोजन दे दूंगी, यह सूक्ष्म उत्ष्वष्कण या सूक्ष्म उत्सर्पण प्राभृतिका दोष है।
आचार्य बट्टर ने काल की वृद्धि हानि के अनुसार दिवस, पक्ष, महीना, वर्ष आदि का परावर्तन करके आहार देना बादर प्राभृतिका तथा पूर्वाह्न में दिए जाने वाले आहार को अपराह्न या मध्याह्न में देने को सूक्ष्म प्राभृतिका दोष माना है। मूलाचार के टीकाकार ने प्राभृतिका दोष को प्रावर्तित दोष के रूप में उल्लिखित किया है । "
निर्युक्तिकार के अनुसार जो मुनि प्राभृतिका दोष युक्त आहार को ग्रहण करके, उस स्थान का प्रतिक्रमण नहीं करता, वह मुण्ड मुनि विलुप्त पंख वाले कपोत की भांति व्यर्थ ही संसार में परिभ्रमण करता रहता है ।" अनगारधर्मामृत में प्राभृतिका के स्थान पर प्राभृतक दोष का उल्लेख है। दिगम्बर आचार्य वसुनंदी के अनुसार प्रावर्तित दोष युक्त भिक्षा ग्रहण करने से क्लेश, बहुविघ्न तथा आरंभ - हिंसा आदि दोष होते हैं।
पिण्डनिर्युक्ति में प्राभृतिका दोष आहार से सम्बन्धित है लेकिन बृहत्कल्पभाष्य में प्राभृतिका वसति- -स्थान से सम्बन्धित भी है ।
बादर प्राभृतिका
बादर प्राभृतिका के पांच भेद इस प्रकार हैं - १. विध्वंसन २. छादन ३. लेपन ४. भूमीकर्म ५. प्रतीत्यकरण ।" ये पांचों भेद दो प्रकार के हैं-अवष्वष्कण २. अभिष्वष्कण ।' अवष्वष्कण में विध्वंसन आदि साधु के निमित्त निर्धारित समय से पूर्व किए जाते हैं । अभिष्वष्कण में निर्धारित समय के बाद किए जाते हैं। ये सब भेद भी देशतः और सर्वतः - इन दो भागों में विभक्त हैं। वसति सम्बन्धी बादर प्राभृतिका करने पर चार लघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है । देशतः करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) तथा सर्वतः करने पर भिन्नमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है ।"
सूक्ष्म प्राभृतिका
वसति सम्बन्धी सूक्ष्म प्राभृतिका भी पांच प्रकार की होती है"
१. पिनि १३५ ।
२. पिनि १३२, १३३।
३. मूला ४३३ ।
४. मूलाटी पृ. ३४० ।
५.
पिनि १३६ ।
६. मूलाटी पृ. ३४० ।
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७. इन सबके विस्तार हेतु देखें, बृभा १६७५ - १६८०, टी पृ. ४९३, ४९४ ।
८. पिण्डनिर्युक्ति में अभिष्वष्कण के स्थान पर उत्ष्वष्कण
शब्द का प्रयोग मिलता है।
९. बृभा १६७५, टी. पृ. ४९३ ।
१०. बृभा १६८०, टी. पृ. ४९४ । ११. बृभा १६८१
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