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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
मूलाचार में प्रकटकरण के स्थान पर संक्रमण शब्द का प्रयोग हुआ है। जिसका तात्पर्य वही है, जो प्रकटकरण का है। प्रकाशकरण में टीकाकार ने एक अर्थ राख आदि से बर्तनों को चमकाना तथा बर्तनों को फैलाकर रखना किया है।
दोनों दोषों के अपवाद बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि यदि गृहस्थ बाहर प्रकाश में लाकर यह कहता है कि घर के अंदर बहुत मक्खियां हैं तथा गर्मी भी अधिक है, बाहर प्रकाश भी है और मक्खियां भी नहीं हैं अतः हम अपने लिए भोजन बाहर लाए हैं अथवा बाहर पकाया है। इस प्रकार आत्मार्थीकृत करने पर वह भोजन निर्दोष होने से साधु के लिए कल्पनीय है। ज्योति या दीपक का प्रकाश करने पर आत्मार्थीकृत अर्थात् गृहस्थ के अपने लिए करने पर भी वह आहार साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता। यदि किसी कारण से प्रादुष्करण दोष युक्त आहार ग्रहण कर लिया जाए तो साधु उस पात्र को धोए बिना भी उसमें शुद्ध आहार ग्रहण कर सकता है। आचार्य वसुनंदी के अनुसार ईर्यापथ की शुद्धि न होने के कारण प्रादुष्करण दोष युक्त आहार वर्जित है। ८. क्रीतकृत दोष
साधु के लिए खरीदकर भिक्षा देना क्रीतदोष है। आचार्य हरिभद्र ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो साधु के लिए खरीदा जाए, वह क्रीत है तथा खरीदी हुई वस्तु से बना हुआ क्रीतकृत कहलाता है। आचारचूला, सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती, दशवैकालिक आदि आगमों में जहां भी औद्देशिक का उल्लेख है, वहां क्रीतकृत और अभिहत आदि दोषों का भी साथ में उल्लेख मिलता है।
बृहत्कल्प भाष्य के अनुसार क्रीतकृत दोष दो प्रकार का होता है-निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट। जहां गृहस्थ इस निर्देश पूर्वक खरीदता है कि अमुक वस्त्र, पात्र आदि मेरे लिए होंगे तथा अमुक साधु के लिए, वहां निर्दिष्टक्रीत होता है। इसके विपरीत सहज रूप से खरीदा हुआ अनिर्दिष्टक्रीत कहलाता है। अनिर्दिष्टक्रीत में गृहस्थ के द्वारा प्रयुक्त होने के बाद शेष वस्त्र आदि साधु के लिए कल्प्य होते हैं लेकिन निर्दिष्टक्रीत साधु के लिए अग्राह्य होता है। निर्दिष्टक्रीत में गृहस्थ यदि साधु को यह कहे कि आप मेरे निमित्त खरीदे वस्त्र ग्रहण करें, मैं आपके निमित्त क्रीत वस्त्रों का उपयोग करूंगा, ऐसा कहने पर साधु उस गृहस्थ के लिए निर्दिष्ट वस्त्र को ले सकता है। पिण्डनियुक्ति में क्रीतकृत दोष के चार भेदों की व्याख्या की गई है
१. मूलाटी पृ. ३४१ ; प्रकाशनं भाजनादीनां भस्मादिनोद- ४. दशहाटी प. ११६ ; क्रयणं-क्रीतं....साध्वादिनिमित्तमिति कादिना वा निर्मार्जनं भाजनादेर्वा विस्तरणम्।
गम्यते, तेन कृतं-निर्वर्तितं क्रीतकृतं। २. मूलाटी पृ. ३४१ ; ईर्यापथदोषदर्शनादिति।
५. आचूला १/२९, सू१/९/१४, स्था ९/६२, भग ९/१७७, ३. (क) दसअचू पृ.६०; कोतकडं जं किणिऊण दिज्जति । दश ३/२। (ख) म प. ३५ क्रीतं यत् साध्वर्थं मूल्येन परिगृहीतम्। ६.बभा ४२०१, ४२०२, टी प. ११४१ ।
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