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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
होकर लोग उसे आहार आदि दें, वह आहार ग्रहण करना परभावक्रीत है। परभावक्रीत को ग्रहण करने में तीन दोष होते हैं - क्रीत, अभिहृत और स्थापित । नियुक्तिकार ने इस दोष को स्पष्ट करने के लिए देवशर्मा नामक मंख की कथा का संकेत भी दिया है । २
भगवती के अनुसार क्रीतकृत आहार को अनवद्य मानने वाला, अनवद्य मानकर उसका परिभोग करने वाला तथा उसे परिषद् में अनवद्य प्ररूपित करने वाला मुनि यदि उस स्थान की आलोचना नहीं करता तो वह विराधक होता है ।
९. प्रामित्य ( अपमित्य) दोष
उद्गम का नवां दोष है - प्रामित्य । साधु को देने के लिए किसी से उधार लेकर आहार आदि देना प्रामित्य दोष है। टीकाकार मलयगिरि ने 'पामिच्च' की संस्कृत छाया अपमित्य की है।" धान्य आदि पदार्थ पुनः लौटाने की प्रतिज्ञापूर्वक ग्रहण करने को चाणक्य ने अपमित्यक कहा है अतः यहां टीकाकार मलयगिरि द्वारा की गई अपमित्य संस्कृत छाया भी संगत बैठती है । दिगम्बर साहित्य में प्रामित्य दोष के लिए ऋणदोष का उल्लेख है ।" यह दो प्रकार का होता है - वृद्धि सहित (ब्याज सहित) वृद्धि रहित । कहने
तात्पर्य यह है कि जब दाता यह कहकर ओदन आदि लाता है कि मैं पुनः इससे अधिक तुमको वापस दे दूंगा तो वह वृद्धिसहित दोष है। जब वह यह निर्देश करके लाता है कि इतना ही भोजन मैं तुमको बाद में दे दूंगा, यह वृद्धिरहित दोष है ।'
नियुक्तिकार के अनुसार प्रामित्य दोष दो प्रकार का होता है-लौकिक तथा लोकोत्तर । लौकिक प्रामित्य
बहिन आदि पारिवारिक व्यक्ति साधु के लिए किसी से उधार लेकर दे तो वह लौकिक प्रामित्य दोष है । इस दोष को प्रकट करने हेतु ग्रंथकार ने भगिनी सम्मति की कथा का उल्लेख किया है, जिसने अपने भ्राता साधु के लिए तैल उधार लेकर दान दिया। ऋण अपरिमित होने के कारण उसे दासत्व स्वीकार करना पड़ा। कालान्तर में दीक्षित भाई ने सेठ को समझाया तथा बहिन सम्मति ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली । लोकोत्तर प्रामित्य
परस्पर साधुओं में एक दूसरे को उधार देना लोकोत्तर प्रामित्य है । लोकोत्तर प्रामित्य दो प्रकार का है। प्रथम तो कोई मुनि कुछ समय के उपयोग हेतु वस्त्र ग्रहण करे। दूसरा यह कि इतने दिनों बाद ऐसा ही वस्त्र वापस दे दिया जाएगा, इस रूप में उधार दे । प्रथम भेद में यदि वस्त्र मैला हो जाए, फट जाए,
१. पिनि १४२, निभा ४४७७ ।
२. पिनि १४२ / १, २, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १८ ।
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३. भग ५/१३९--१४५ ।
४. (क) पिंप्र ४४ ; समणट्ठा उच्छिंदिय, जं देयं देइ तमिह पामिच्वं । (ख) दशहाटी प १७४ ; प्रामीत्यं साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणम् ।
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५. मवृ प. ३५ ।
६. कौ २/३१/१५/१, पृ. १५८ ; तदेव प्रतिदानार्थमापमित्यकम् । ७. मूलाटी पृ. ३४२ ।
८. मूलाटी पृ. ३४२ ; तत्पुनर्द्विविधं सवृद्धिकमवृद्धिकं चापि । भिक्षौ चर्यायां प्रविष्टे दातान्यदीयं गृहं गत्वा भक्त्या भक्तादिकं याचते वृद्धिं समिष्य वृद्ध्या विना वा साधुहेतोः ।
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