________________
८८
पिंडनियुक्ति होने के कारण निकृष्ट है अत: इसको अलग से रखा गया है। अनगारधर्मामृत में भी आधाकृत को उद्गम दोषों के साथ नहीं जोड़ा गया है।
दिगम्बर परम्परा में भिक्षाचर्या के दोषों के नाम एवं क्रम में अंतर मिलता है। यहां श्वेताम्बर तथा दिगम्बर ग्रंथों के आधार पर भिक्षाचर्या के दोषों का चार्ट प्रस्तुत किया जा रहा है
पिण्डनियुक्ति (गा. ५८,५९)
मूलाचार (गा. ४२२,४२३)
अनगारधर्मामृत (अनध ५/५,६)
१. आधाकर्म २. औद्देशिक ३. पूतिकर्म ४. मिश्रजात ५. स्थापना ६. प्राभृतिका ७. प्रादुष्करण ८. क्रीत ९. प्रामित्य १०. परिवर्तित ११. अभिहत १२. उद्भिन्न १३. मालापहृत १४. आच्छेद्य १५. अनिसृष्ट १६. अध्यवपूरक
१. औद्देशिक २. अध्यधि ३. पूति ४. मिश्र ५. स्थापित ६. बलि ७. प्रावर्तित ८. प्रादुष्कार ९. क्रीत १०. प्रामृष्य ११. परिवर्तक १२. अभिघट १३. उद्भिन्न १४. मालारोह १५. अच्छेद्य १६. अनिसृष्ट
१. उद्दिष्ट २. साधिक ३. पूति ४. मिश्र ५. प्राभृतक ६. बलि ७. न्यस्त ८. प्रादुष्कृत ९. क्रीत १०. प्रामित्य ११. परिवर्तित १२. निषिद्ध १३. अभिहृत १४. उद्भिन्न १५. आच्छेद्य १६. आरोह।
पंचाशक/पंचवस्तु (पंचाशक १३/५,६,
पंव ७४१, ७४२) १. आधाकर्म २. औद्देशिक ३. पूतिकर्म ४. मिश्रजात ५. स्थापना ६. प्राभृतिका ७. प्रादुष्कर ८. क्रीत ९. प्रामित्य १०. परिवर्तित ११. अभिहृत १२. उद्भिन्न १३. मालापहत १४. आच्छेद्य १५. अनिसृष्ट १६. अध्यवपूरक
इस चार्ट के आधार पर कुछ निष्कर्ष इस रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं• मूलाचार और अनगारधर्मामृत में अध्यवपूरक के स्थान पर अध्यधि या साधिक दोष है। • स्थापना दोष के स्थान पर मूलाचार में स्थापित दोष तथा अनगारधर्मामृत में न्यस्त दोष है।
१. मूलाटी पृ. ३३१ ; गृहस्थाश्रितं पंचसूनासमेतं तावत्- ३. उद्दिष्टं साधिकं पूति, मिश्रं प्राभृतकं बलिः।
सामान्यभूतमष्टविधपिण्डशुद्धिं बाह्यं महादोषरूपमधः- न्यस्तं प्रादुष्कृतं क्रीतं, प्रामित्यं परिवर्तितम्॥ कर्म कथ्यते।
निषिद्धाभिहतोद्भिन्नाच्छेद्यारोहास्तथोद्गमाः । २. अनध ५/५,६।
दोषा हिंसानादरान्यस्पर्शदैन्यादियोगतः ॥
अनध-५/५,६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org