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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण कर्म-विवाह में बचे हुए मोदक के चूर्ण को भिक्षाचरों को देने हेतु गुड़पाक आदि से पुनः मोदक करने को कर्म कहा जाता है। आधाकर्म और कर्म औद्देशिक में इतना ही अंतर है कि आधाकर्म में प्रारम्भ से ही साधु के निमित्त बनाया जाता है, जबकि कर्म औद्देशिक में गृहस्थ अपने बनाए हुए आहार में कुछ वृद्धि करता है अथवा संस्कारित करता है।
इन तीनों के भी चार-चार अवान्तर भेद होते हैं-१. उद्देश २. समुदेश ३. आदेश ४. समादेश। उद्देश-सभी भिक्षाचर, अन्यदर्शनी एवं श्रमणों के उद्देश्य से बनाया गया आहार। समुद्देश-सभी पाखंडी-अन्यदर्शनी साधुओं के लिए बनाया गया आहार। आदेश-श्रमणों के निमित्त बनाया गया आहार। समादेश-निर्ग्रन्थों के उद्देश्य से बनाया गया आहार।
उद्दिष्ट, कृत और कर्म को उपर्युक्त चार भेदों से गुणा करने पर १२ भेद हो जाते हैं। नियुक्तिकार ने इन १२ भेदों के अवान्तर भेद भी किए हैं। उद्दिष्ट औद्देशिक आदि प्रत्येक छिन्न और अच्छिन्न भेद से दो प्रकार का होता है। छिन्न का अर्थ है-नियमित और अच्छिन्न का अर्थ है-अनियमित । फिर उसके भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार भेद होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक के आठ भेद हो जाते हैं। १२ भेदों का ८ से गुणा करने पर औदेशिक दोष के ९६ भेद होते हैं।
सूत्रकृतांग के अनुसार औदेशिक भिक्षा ग्रहण करने से जीववध-हिंसा की संभावना रहती है अत: इसको अनेषणीय माना है। ३. पूतिकर्म दोष
पूति का अर्थ है-दुर्गन्धयुक्त या अपवित्र। इसके दो भेद हैं-द्रव्यपूति और भावपूति । सुगंधित या शुद्ध पदार्थ का अशुचि पदार्थ से युक्त होना द्रव्य पूति है। यहां ग्रंथकार ने छगणधार्मिक की कथा का संकेत किया है। शुद्ध आहार में आधाकर्म आदि उद्गम दोष के विभागों के अवयव मात्र का मिश्रण भी भावपूति है। भावपूति मुनि के निरतिचार चारित्र को भी अशुद्ध बना देती है। जैसे अशुद्ध पदार्थ का एक
१. मवृ प.७७; यत् पुनर्विवाहप्रकरणादावुद्धरितं मोदक- ५. सू१/९/१४।
चूण्यादि तद्भूयोऽपि भिक्षाचराणां दानाय गुड़पाकदाना- ६.पिनि १०७, १०८॥ दिना मोदकादिकृतं तत्कर्मेत्यभिधीयते।
७. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १७। २. मवृ प.८२ ; यत् प्रथमत एव साध्वर्थे निष्पादितं तदाधाकर्म, ८. म प ८३; यहां उद्गम दोष में आधाकर्म, औद्देशिक यत् प्रथमतः सद् भूयोऽपि पाककरणेन संस्क्रियते तत्कौं - आदि अविशोधि कोटि का ग्रहण किया गया है।
९. (क) पिनि १०९। ३. पिनि ९८, मूला ४२६ ।
(ख) पंव ७४५; ४. इन भेदों के विस्तार हेतु देखें पिनि ९९/१-१०१/२,
कम्मावयवसमेयं, संभाविज्जइ जयं तु तं पूई। मवृ प.८०,८१
देशिकम्।
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