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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
भिक्षा देने हेतु वे अपने साथ ५०० शकटों में भक्तपान भरकर ले गए। उन्होंने भगवान् को भिक्षा के लिए निवेदन किया । भगवान् ने कहा- 'भरत ! आधाकर्म, अभ्याहत और राजपिंड आहार व्रत को पीड़ा देने वाला होता है अतः यह आहार साधुओं के लिए अकल्प्य है ।'
भगवान् के वचनों को सुनकर भरत को अत्यन्त दुःख हुआ । वे स्वयं को मंदभाग्य समझने लगे। उस समय देवेन्द्र भी वहां उपस्थित थे । उनके दुःख को जानकर उन्होंने भगवान् से अवग्रह के बारे में पूछा । भगवान् ने पंचविध अवग्रह की बात बताई । देवेन्द्र ने भगवान् को वंदना करके अपने अवग्रह में आनीत साधु प्रायोग्य आहार का वितरण किया । लाभ देखकर भरत चक्रवर्ती भी प्रसन्न हो गए । फिर भरत ने सम्पूर्ण भारत में साधु के प्रायोग्य आहार आदि का वितरण किया ।
बृहत्कल्पभाष्य में आधाकर्म आहार ग्रहण के अपवाद बताए गए हैं। दुर्भिक्ष की स्थिति में अथवा आचार्य, उपाध्याय या कोई भिक्षु ग्लान हो तो आधाकर्म आहार ग्रहण की भजना होती है। मार्ग में गहन अटवी में प्रवेश करने से पूर्व तीन बार शुद्ध आहार की गवेषणा करने पर भी यदि शुद्ध आहार प्राप्त न हो तो चौथे परिवर्त में आधाकर्म आहार ग्रहण किया जा सकता है।
आधाकर्म के सम्बन्ध में एक विचारणीय बिन्दु यह है कि क्रीत, औद्देशिक और आहृत का उल्लेख आगमों में अनेक स्थानों पर मिलता है लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि साधु की सम्पूर्ण आचार-संहिता को प्रस्तुत करने वाले दशवैकालिक जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ में आधाकर्म शब्द का उल्लेख कहीं भी प्राप्त नहीं होता है । यद्यपि वहां समणट्टा अर्थात् श्रमण के लिए बनाए गए आहार का निषेध है । आचार्य शय्यंभव ने आधाकर्म शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया, यह खोज का विषय है । २. औद्देशिक
श्रमण, माहण, अतिथि, कृपण आदि भिक्षाचरों के निमित्त से समुच्चय रूप में बनाया गया आहार औद्देशिक कहलाता है। मूलाचार के अनुसार देवता, पाषंडी - अन्यदर्शनी या कृपण आदि के निमित्त बनाया गया आहार औद्देशिक कहलाता है । वट्टकेर ने इसमें श्रमण का उल्लेख क्यों नहीं किया, यह विमर्शनीय है। दशवैकालिक सूत्र में शब्दभेद से इस दोष की व्याख्या की गई है। उसके अनुसार साधु को यह ज्ञात हो जाए कि यह आहार दान हेतु, पुण्य हेतु, याचकों के लिए या श्रमणों (पंचविध श्रमण) के लिए बनाया गया है तो साधु उस आहार का निषेध करे। वहां उल्लेख है कि जो साधु नित्याग्र ( प्रतिदिन
१. बृभा ४७७९-८६, टी पृ. १२८४, १२८५ ।
२. बृभा ५३५९, टी पृ. १४२३ ।
३. दश ५/१/५३ ।
४. (क) दशजिचू पृ. १११ ; उद्दिस्स कज्जइ तं उद्देसियं, साधु
निमित्तं आरंभ त्ति वृत्तं भवति ।
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(ख) पंव ७४४; उद्देसिय साहुमादी ओमच्चए भिक्खवियरणं जं च ।
५. मूला ४२५ ।
६. दश ५/१/४७-५४।
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