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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
६३ गुस्से में आकर यह कहती है कि आपको इसकी क्या चिन्ता है ? ऐसी स्थिति में आधाकर्म की आशंका नहीं रहती, मुनि निःशंक रूप से वह आहार ग्रहण कर सकता है। इन सब कारणों से भी आहार शुद्ध है या नहीं, यह ज्ञात न हो तो नियुक्तिकार ने समाधान दिया है कि यदि मुनि उपयुक्त होकर शुद्ध आहार की गवेषणा कर रहा है तो वह आधाकर्म भोजन ग्रहण करता हुआ भी शुद्ध है अर्थात् कर्मों का बंधन नहीं करता यदि वह अनुपयुक्त होकर वैचारिक दृष्टि से आधाकर्म आहार ग्रहण में परिणत है तो वह प्रासुक और एषणीय आहार ग्रहण करता हुआ भी अशुभ कर्मों का बंध करता है।
इस प्रसंग में नियुक्तिकार ने दो कथाओं का संकेत किया है, जिसमें एक मुनि शुद्ध आहार ग्रहण करता हुआ भी मानसिक रूप से आधाकर्मिक संघभक्त की बुद्धि से आहार ग्रहण करता है, जिससे वह कर्मों का बंध कर लेता है। दूसरा मासक्षपक मुनि शुद्ध आहार की गवेषणा में संलग्न आधाकर्मी खीर को ग्रहण करता हुआ भी कैवल्य को प्राप्त कर लेता है। इसका हेतु बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि प्रथम मुनि ने भगवान् की आज्ञा की विराधना की इसलिए शुद्ध आहार का भोग भी पाप बंध का कारण बन गया तथा दूसरे ने उनकी आज्ञा की आराधना की इसलिए अशुद्ध आहार करते हुए भी संसार-समुद्र से पार पा लिया। इस संदर्भ में ग्रंथकार ने सूर्योदय और चन्द्रोदय उद्यान का दृष्टान्त भी दिया है। तीर्थंकरों के काल में आधाकर्म ग्रहण का नियम
ऋजुप्राज्ञ साधु-साध्वियां होने के कारण प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़कर शेष बावीस तीर्थंकरों तथा महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों ने आधाकर्म पिण्ड में इतनी छूट दी है कि जिस साधु के लिए आधाकर्म बनाया गया है, उसके लिए वह आहार कल्प्य नहीं होता लेकिन शेष साधु उसे ग्रहण कर सकते हैं। इस प्रसंग की भाष्यकार ने विस्तृत चर्चा प्रस्तुत की है। यदि भगवान् ऋषभ और अजित का संघ एक साथ मिला हुआ है, उस समय यदि पूरे संघ को लक्ष्य करके कोई आधाकर्म भोजन बनाता है तो पंचयामिक और चातुर्यामिक-दोनों संघ के साधुओं के लिए वह आहार कल्प्य नहीं होता। यदि ऋषभ के साधुओं को उद्दिष्ट करके आधाकर्म आहार निष्पन्न किया जाता है तो अजित के चातुर्यामिक साधुओं के लिए वह आहार ग्राह्य होता है। यदि चातुर्यामिक साधुओं के लिए आधाकर्म आहार निष्पन्न होता है तो वह आहार दोनों के लिए अकल्प्य होता है।
यदि व्यक्तिगत रूप से ऋषभ के पंचयामिक साधु को उद्दिष्ट करके आधाकर्म निष्पन्न किया
१. पिनि ८९/८, मवृ प. ७३, ७४। २. पिनि ९०, मवृ प. ७४। ३. पिनि ९०/१-४, दोनों कथाओं के विस्तार हेतु देखें
परि ३, कथा सं. १३, १४ ।
४. पिनि ९१, कथा के विस्तार हेतु देखें परि ३, कथा सं. १५। ५. बृभा ३५४१, टी पृ. ९८६। ६. बृभा ५३४५, ५३४६, टी पृ. १४१९ ।
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