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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में आधाकर्म से सम्बन्धित छठा द्वार 'तद्दाने दोष' पिण्डनियुक्ति के द्वारों से भिन्न है। यह द्वार गृहस्थों से सम्बन्धित है। आधाकर्म आहार देने वाला साधुओं के चारित्र का विघात करता है अतः गृहस्थ को उत्सर्ग मार्ग में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।'
ग्रंथकार ने भगवती के पांचवें शतक का एक प्रसंग उद्धृत किया है कि तीन कारणों से व्यक्ति अल्प आयुष्य का बंध करता है-१. हिंसा से २. झूठ बोलकर ३. तथारूप श्रमण को अप्रासुक और अनेषणीय आहार देकर। भगवती के आठवें शतक में दान, पात्र, देय और लाभ की अपेक्षा चतुर्भंगी मिलती हैसंयमी साधु शुद्ध आहार।
एकान्त निर्जरा। संयमी साधु अप्रासुक आहार।
बहुत निर्जरा, अल्प पाप। असंयत प्रासुक एषणीय आहार। एकान्त पाप, निर्जरा नहीं। असंयत अप्रासुक अनेषणीय आहार। एकान्त पाप, निर्जरा नहीं।
इसमें प्रथम भंग-सुपात्र और शुद्ध आहार देना शुद्ध है। दूसरे भंग में शुद्धि की भजना है। शेष दो भंग एकान्त पाप के हेतु हैं। इस चतुर्भंगी का दूसरा विकल्प संयमी साधु को अनेषणीय अप्रासुक आहार देना विमर्शणीय है। आधाकर्म के प्रसंग में आगम-साहित्य में इस प्रकार का उल्लेख और कहीं नहीं मिलता। इस आलापक की व्याख्या करते हुए टीकाकार अभयदेवसूरि ने कहा है कि यहां चारित्र का उपकारक होने के कारण निर्जरा तथा जीव-वध के कारण अल्पतर बंध को स्वीकार किया गया है। जयाचार्य ने भगवती की जोड़ में आचार्य भिक्षु के मत को उद्धृत करते हुए कहा है कि दाता यदि व्यवहार में शुद्ध जानकर अजानकारी में अनेषणीय आहार देता है तो उसके बहुत निर्जरा होती है, पापकर्म का बंध नहीं होता। यहां अल्प शब्द निषेध वाचक है फिर भी इस प्रसंग को अभयदेवसूरि और आचार्य भिक्षु दोनों ने केवलिगम्य किया है। आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवती भाष्य में इस सूत्र की विस्तृत व्याख्या की है।
___ इस प्रसंग को पिण्डशुद्धि प्रकरण में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग की अपेक्षा से व्याख्यायित किया गया है। यदि बिना अपेक्षा निर्वाह की स्थिति में गृहस्थ आधाकर्म आहार देता है और साधु लेता है तो यह स्थिति दोनों के लिए अहितकर और अनर्थकारक है। अपवाद में दुर्भिक्ष या ग्लानत्व की स्थिति में ग्राह्य है। इस प्रसंग में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा लिखित विस्तृत टिप्पण सूत्रकृतांग भाग २ पृ. ३०४ का नवां टिप्पण पठनीय एवं मननीय है।
१. पिंप्र २०। २. भग ५/१२६, पिंप्रटी प. २३ । ३. भग ८/२४५-२४७। ४. द्र भग भा. ३ पृ. ९४, ९५।
५. पिंप्र २१
संथरणमि असुद्धं, दोण्ह वि गेण्हत देंतयाणऽहियं । आउरदिटुंतेणं, तं चेव हियं असंथरणे॥
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