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पिंडनियुक्ति होने पर वह मिथ्यात्व की परम्परा को आगे बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त वह रसलम्पट मुनि स्वयं की तथा दूसरों की आसक्ति को बढ़ावा देता हुआ निर्दयी बनकर सजीव पदार्थों को खाने में भी संकोच का अनुभव नहीं करता।
__ आधाकर्म ग्रहण करने का चौथा दोष है-विराधना। अत्यधिक मात्रा में स्निग्ध आहार करने से मुनि रुग्ण हो जाता है। रोग होने से उसकी तथा प्रतिचारकों की सूत्र और अर्थ की हानि होती है। रोगचिकित्सा में षट्काय की हिंसा होती है। प्रतिचारकों द्वारा सम्यक् सेवा न होने पर वह स्वयं क्लेश का अनुभव करता है तथा परिचारकों पर क्रोधित होने के कारण उनके मन में भी संक्लेश उत्पन्न करता है। इस प्रकार वह आत्मविराधना और संयमविराधना को प्राप्त करता है।
भगवती के पांचवें शतक में उल्लेख मिलता है कि आधाकर्म को मानसिक रूप से अनवद्य मानने वाला, उसे अनवद्य मानकर स्वयं उसका भोग करने वाला, आधाकर्म आहार को अनवद्य मानकर उसे दूसरों को खिलाने वाला तथा जनता के बीच आधाकर्म को अनवद्य प्ररूपित करने वाला मुनि यदि उस स्थान का प्रतिक्रमण किए बिना कालधर्म को प्राप्त हो जाता है तो वह विराधक हो जाता है।
आधाकर्म दोष को दृष्टान्त के माध्यम से स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे सुंदर उपहार, जिस पर नारियल फल का शिखर किया हुआ हो, यदि उस सुंदर उपहार से मल आदि अशुचि पदार्थ का एक कण भी स्पृष्ट हो जाए तो वह अभोज्य हो जाता है, वैसे ही निर्दोष आहार भी आधाकर्म आहार के कण मात्र से संस्पृष्ट होने पर अभोज्य हो जाता है। कल्पत्रय से आधाकर्म की शुद्धि
आधाकर्म आहार से युक्त पात्र को खाली करके भी जब तक कल्पत्रय नहीं किया जाता, तब तक वह आहार पूतिदोष युक्त होता है। नियुक्तिकार ने कल्पत्रय की दो प्रकार से व्याख्या की है। बर्तन में आधाकर्म भोजन पकाया, उसको किसी दूसरे बर्तन में निकालकर अंगुलि से पूरा साफ कर दिया, यह प्रथम लेप है। इसी प्रकार तीन बार साफ करने तक वह आहार पूतिदोष युक्त होता है। उस बर्तन में चौथी बार आहार पकाया जाए तो वह निर्दोष होता है अथवा उस बर्तन को तीन बार अच्छी तरह प्रक्षालित करके उसे कपड़े से पोंछने के बाद यदि आहार पकाया जाए तो वह आहार शुद्ध होता है। इसी प्रकार साधु के पात्र में यदि आधाकर्म आहार आ जाए तो उसे कल्पत्रय से प्रक्षालित करके ही दूसरा आहार ग्रहण किया जा सकता है अन्यथा शुद्ध आहार भी पूति दोष युक्त हो जाता है।
१. पिनि ८३/३, मवृ प. ६९, जीभा ११८५ । २. पिनि ८३/४। ३. पिनि ८३/५, जीभा ११८८।
४. (क) भग ५/१३९-१४५ ।
(ख) पिंप्र १९; तस्स आराहणा नत्थि। ५.पिनि ८७। ६. मवृ प. ८७१
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