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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण कण मात्र से संस्पृष्ट सहस्रान्तरित अर्थात् हजारवें व्यक्ति के पास जाने पर भी वह आहार साधु के संयमजीवन का नाश करने वाला होता है।
नियुक्तिकार ने अंतिम द्वार में आधाकर्म आहार ग्रहण करने से लगने वाले दोषों का विवेचन किया है। उसमें मुख्य चार प्रकार हैं-जिनेश्वर की आज्ञा का भंग २. अनवस्था दोष ३. मिथ्यात्व की प्राप्ति ४. विराधना।
भगवान् ने कहा है कि आणाए मामगं धम्म-आज्ञा पालन में मेरा धर्म है। आधाकर्म आहार ग्रहण करने वाला मुनि भगवान् की आज्ञा का लोप करता है। आज्ञा का अतिक्रमण करने वाला मुनि किसकी आज्ञा से साधुत्व के अन्य अनुष्ठानों को पूर्ण करता है ? इसी बात को प्रकारान्तर से मूलाचार में इस भाषा में व्यक्त किया गया है कि आधाकर्म आहार ग्रहण करने वाले मुनि की वनवास, शून्यगृह-निवास तथा वृक्षमूल में निवास आदि सभी क्रियाएं निरर्थक हैं।'
आधाकर्म ग्रहण का दूसरा दोष है-अनवस्था अर्थात् दोष की परम्परा चलना। पिंडविशुद्धिप्रकरण ग्रंथ में एक प्रश्न उठाया गया है कि जब मुनि आधाकर्म आहार न निष्पन्न करते हैं, न करवाते हैं और न ही उसका अनुमोदन करते हैं तो फिर त्रिकरण शुद्ध मुनि के लिए गृहस्थ द्वारा कृत आधाकर्म आहार ग्रहण करने में क्या दोष है?
इसका उत्तर देते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि यदि जानते हुए मुनि आधाकर्म आहार को ग्रहण करता है तो इसका तात्पर्य है कि वह आधाकर्म भोजन बनाने के प्रसंग को बढ़ावा देता है। जब एक मुनि किसी को आधाकर्म आहार ग्रहण करते देखता है तो उसके आलम्बन से दूसरा मुनि भी आधाकर्म आहार ग्रहण करने लगता है। उसे देखकर अन्य मुनि भी आधाकर्म आहार ग्रहण में प्रवृत्त हो जाते हैं। इस प्रकार साता बहुल मुनियों की परम्परा बढ़ने से संयम और तप का विच्छेद होने से तीर्थ का विच्छेद हो जाता है। तीर्थ का लोप करने वाला महान् आशातना का भागी होता है।
आधाकर्म ग्रहण का तीसरा दोष है-मिथ्यात्व-प्राप्ति। देश, काल और संहनन के अनुरूप अपनी शक्ति का गोपन नहीं करते हुए आगमोक्त विधि का पालन नहीं करने वाला साधु स्वयं दूसरों में शंका उत्पन्न पैदा करने के कारण महामिथ्यादृष्टि होता है। अन्य साधु सोचते हैं कि यह तत्त्व को जानते हुए भी आधाकर्म आहार ग्रहण करता है, तब प्रवचन में कथित बात मिथ्या होनी चाहिए, इस प्रकार शंका उत्पन्न
१. बृभाटी पृ. ११४२ ; यथा सहस्रानुपाति विषं भक्ष्यमाणं ४. मूला ९२५ ।
सहस्रान्तरितमपि पुरुषं मारयति, एवमाधाकर्माऽप्युपभुज्य- ५. पिंप्र २६;
मानं सहस्रान्तरितमपि साधु संयमजीविताद् व्यपरोपयतीति। नणु मुणिणा जं न कयं, न कारियं नाणुमोइयं तं से। २.पिनि८३।
गिहिणा कडमाइयओ, तिगरणसुद्धस्स को दोसो? | ३. पिनि ८३/१, जीभा ११८३।
६. पिनि ८३/२, मवृ प. ६९, जीभा ११८४।
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