________________
५७
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण का विवेचन किया है। इस विवेचन को पढ़कर जाना जा सकता है कि प्राचीन आचार्यों ने कितनी गहराई से इस सम्बन्ध में विवेचन प्रस्तुत किया है। कृत और निष्ठित के आधार पर चतुर्भंगी इस प्रकार है
• साधु के लिए कृत, साधु के लिए निष्ठित। • साधु के लिए कृत, गृहस्थ के लिए निष्ठित । • गृहस्थ के लिए कृत, साधु के लिए निष्ठित। • गृहस्थ के लिए कृत, गृहस्थ के लिए निष्ठित।
चतुर्भगी में दूसरा और चौथा भंग शुद्ध है, इनमें साधु आहार ले सकता है। प्रथम और तृतीय भंग अशुद्ध है, इनमें साधु को आहार ग्रहण करना अकल्प्य है।
कृत और निष्ठित का स्वरूप अनेक रूपों में मिलता है। सामान्यतः जो प्रासुक किया जाता है अथवा रांधा जाता है, वह निष्ठित तथा इससे पूर्व की सारी क्रिया कृत है। कृत और निष्ठित की दूसरी व्याख्या यह मिलती है कि वपन से लेकर दो बार कंडन करना कृत तथा तीसरी बार कंडित करना निष्ठित
है।
जीतकल्पभाष्य में इन चारों भंगों की विस्तार से चर्चा की गई है। यदि कोई व्यक्ति साधु के लिए धान्य बोता है, तीन बार कंडित करता है और उन्हीं के लिए रांधता है तो उसे तीर्थंकरों ने दुगुना आधाकर्म माना है। प्रथम आधाकर्म तो कृतरूप तथा दूसरा आधाकर्म पाक क्रिया रूप निष्ठित तंडुल। इस प्रसंग में टीकाकार ने वृद्धसम्प्रदाय का उल्लेख किया है कि यदि तंडुल को एक या दो बार साधु के लिए कंडित किया, तीसरी बार गृहस्थ ने अपने लिए कंडित करके पकाया और उसे आत्मार्थीकृत कर लिया तो वे तंडुल साधु के लिए कल्प्य हैं। इस संदर्भ में टीकाकार ने अन्य भी अनेक विकल्प प्रस्ततु किए हैं।
खादिम के प्रसंग में ग्रंथकार ने मान्यता विशेष का उल्लेख किया है। कुछ आचार्यों की मान्यता है कि साधु के लिए बोए गए आधाकर्मिक वृक्ष की छाया का भी वर्जन करना चाहिए। इस संदर्भ में नियुक्तिकार का कथन है कि साधु के लिए बोए गए वृक्ष के फल तोड़ते समय यदि गृहस्थ ने उन्हें आत्मार्थीकृत कर लिया तो वे फल भी जब साधु के लिए कल्प्य हैं तो फिर छाया का वर्जन करना उचित
१. जीभा ११५७।
आम, ककड़ी आदि निष्पन्न करके टुकड़ों में काटना २. मवृ प. ६६ ; तत्र वपनादारभ्य यावद्वारद्वयं कण्डनं तावत् तथा जब तक वे प्रासुक नहीं हुए, तब तक कृत और कृतत्वं, तृतीयवारं तु कण्डनं निष्ठितत्वम्।
प्रासुक होने के बाद निष्ठित कहलाते हैं। इसी प्रकार पान के संदर्भ में यदि साधु के निमित्त कूप आदि स्वादिम को भी समझना चाहिए (मव प.६६)। का खनन करके उसमें से जल निकाला, जब तक वह ३. जीभा ११५८। सर्वथा प्रासुक नहीं हुआ, तब तक कृत तथा प्रासुक होने ४. पिनि ८०, मवृ प.६५। के बाद निष्ठित कहलाता है। इसी प्रकार खादिम में ५. मवृ प. ६५, ६६ ।
Jain Education International
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only