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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
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बना लेता है लेकिन जो मुनि मन, वचन और काया के योगों से अप्रमत्त होता है, वह बंधन को प्राप्त नहीं होता। यही बात मूलाचार में मत्स्य के दृष्टान्त से समझाई गई है, जैसे- मछलियों के लिए सरोवर में मादक पदार्थ डालने पर मछलियां ही उन्मत्त होती हैं, मेंढ़क नहीं। वैसे ही गृहस्थ द्वारा बनाए गए भोजन को विशुद्ध भाव से लेने वाला मुनि दोष से लिप्त नहीं होता ।
परकृत कर्म बंधन का कारण कैसे हो सकता है, इसे जीतकल्पभाष्य में दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है, जैसे परप्रयुक्त विष दूसरे के लिए मारक होता है, वैसे ही परकृत क्रिया भी जीव के भाव विशेष से बंधन का कारण बन जाती है।"
किसके लिए निर्मित आहार आधाकर्म
आधाकर्म से सम्बन्धित तीसरा द्वार है- 'कस्स' अर्थात् किसके लिए निर्मित आहार आधाकर्म कहलाता है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि नियमतः साधर्मिक के लिए निर्मित आहार ही आधाकर्मिक कहलाता है।"
इस संदर्भ में पिण्डनिर्युक्ति में साधर्मिक के १२ निक्षेप किए गए हैं, साथ ही २२ गाथाओं में उनकी विस्तार से व्याख्या भी है। यहां साधर्मिक से सम्बन्धित आधाकर्म के कुछ विशेष तथ्यों का उल्लेख किया जा रहा है
किसी व्यक्ति के पिता का नाम देवदत्त है। उसकी मृत्यु के बाद पुत्र यह संकल्प करे कि गृहस्थ हो या साधु, मैं देवदत्त नामक सभी व्यक्तियों को आहार दूंगा। ऐसी स्थिति में नाम साधर्मिक होने से देवदत्त नामक साधु के लिए वह आहार कल्प्य नहीं होता । यदि गृहस्थ यह संकल्प करे कि देवदत्त नामक सभी गृहस्थों को आहार करवाऊंगा तो इस संकल्प में देवदत्त नामक मुनि के लिए वह आहार कल्प्य होता है। यदि उसका संकल्प यह होता है कि देवदत्त नामक सभी साधुओं को आहार दूंगा तो इस मिश्र संकल्प में देवदत्त नामक साधु के लिए वह आहार अकल्प्य है लेकिन विसदृश नाम वाले चैत्र आदि सभी साधुओं के लिए वह आहार कल्पनीय है । यदि गृहस्थ का यह संकल्प होता है कि जितने अन्य दर्शनी देवदत्त नामक साधु हैं, उनको आहार दूंगा तो इस संकल्प में साधु को वह आहार लेना कल्प्य है। यदि गृहस्थ ने सभी श्रमणों के लिए संकल्प किया है तो यह संकल्प मिश्र होने से निर्ग्रन्थ साधु भी उसमें सम्मिलित होने से वह आहार साधु के लिए कल्प्य नहीं है। यदि संकल्प ऐसा होता है कि निर्ग्रन्थ साधुओं के अतिरिक्त सभी श्रमणों को आहार दूंगा तो साधु के लिए वह आहार कल्प्य है। टीकाकार के अनुसार यदि तीर्थंकर और
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१. जीभा ११२८ ।
२. जीभा ११२४, पिनि ६७ / २-४ मवृ प. ४४, ४५ । ३. मूला ४८६ ।
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४. जीभा ११२२ ।
५. पिनि ७२; नियमा साहम्मियस्स तं होति ।
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