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पिंडनियुक्ति आत्मा का अध:पतन कर लेता है। प्रकारान्तर से मूलाचार में इसी बात को दृष्टान्त द्वारा प्रकट किया गया है कि खड़े होकर वीरासन में कायोत्सर्ग, मौन, ध्यान करने वाला तथा उपवास, बेला आदि करने वाला साधु भी यदि आधाकर्म भोजन-ग्रहण में प्रवृत्त है तो उसके सभी योग निरर्थक हैं।
आधाकर्मग्राही अधोगति का तो आयुष्य बांधता ही है, अन्यान्य कर्मों को भी अधोगति के अभिमुख कर देता है। वह तीव्र-तीव्रतम भावों से बंधे हुए कर्मों का निधत्ति और निकाचना रूप में घनकरण करता हुआ प्रतिपल कर्मों का उपचय करता है, वे भारी कर्म उसे अधोगति में ले जाते हैं।' आत्मन
__ आधाकर्म आहार ग्रहण करने वाला प्राण और भूतों के हनन के साथ-साथ अपनी आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र का घात भी कर देता है इसलिए आधाकर्म का एक नाम आत्मघ्न है। ग्रंथकार के अनुसार निश्चयनय से चारित्र का घात होने से ज्ञान और दर्शन का घात होता है लेकिन व्यवहारनय की अपेक्षा से चारित्र का घात होने पर ज्ञान और दर्शन के घात की भजना है। आत्मकर्म
आधाकर्म ग्रहण करने वाला मुनि अशुभ भाव में परिणत होकर परकर्म अर्थात् गृहस्थ के पचनपाचन आदि कर्म से स्वयं को जोड़ लेता है। संक्लिष्ट परिणामों के कारण वह कर्मों का बंध करता है अतः आधाकर्म का एक नाम आत्मकर्म भी है।
आत्मकर्म के संदर्भ में एक प्रश्न उपस्थित होता है कि परक्रिया अन्यत्र कैसे संक्रान्त हो सकती है? यदि ऐसा संभव हो तब तो क्षपकश्रेणी में आरूढ़ मुनि करुणावश सबके कर्मों को अपने भीतर संक्रान्त करके उनका क्षय कर सकता है लेकिन ऐसा कभी संभव नहीं होता। इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य यशोभद्रसूरि ने मृग और कूट का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है, जिसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि जैसे दक्ष और अप्रमत्त मृग जाल से बचकर चलता है। यदि किसी कारणवश वह जाल में फंस भी जाता है तो जाल बंद होने से पूर्व वहां से बचकर निकल जाता है लेकिन प्रमत्त और अकुशल मृग वहां फंस जाता है अतः परप्रयुक्ति मात्र से कोई बंधनग्रस्त नहीं होता। इसी प्रकार केवल गृहस्थ द्वारा आधाकर्म आहार बनाने मात्र से साधु-पापकर्म का बंधन नहीं करता। जो मुनि प्रमत्त होकर अशुभ अध्यवसायों से आधाकर्म आहार को ग्रहण करता है, उसके बारे में प्रतिश्रवण करता है, आधाकर्मभोजी के साथ संवास करता है तथा उसकी अनुमोदना करता है, वह परकर्म-गृहस्थ के पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मकर्म
१. पिनि ६४/१, मवृ प. ४१। २. मूला ९२४। ३. पिनि ६४/२,३।
४. मवृ प. ३६, जीभा १११७। ५. पिनि ६६/१, मवृ प. ४२, ४३, जीभा १११८ । ६. पिनि ६७, मवृ प. ४३। ७. मवृ प. ४४।
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