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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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अपराध की दृष्टि से प्रतिसेवना सबसे गुरु है, शेष क्रमश: लघु, लघुतर और लघुतम हैं। प्रतिश्रवण को और अधिक स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि यदि आधाकर्म आहार की आलोचना करते समय आचार्य 'सुलब्ध'-तुमने अच्छा प्राप्त किया है, इस शब्द का प्रयोग करते हैं तो वे भी प्रतिश्रवण दोष के भागी होते हैं। संवास का अर्थ है-आधाकर्मभोजी के साथ रहना। संवास का निषेध क्यों किया गया, इसे स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि आधाकर्म भोजन का अवलोकन, उसकी गंध तथा परिचर्चा सुविहित एवं रूक्षभोगी मुनि को भी आकृष्ट कर देती है अतः आधाकर्मभोजी के साथ संवास भी दोष का कारण बन सकता है। अनुमोदन का अर्थ है प्रशंसा करना। आधाकर्म का उपभोग न करने पर भी यदि मुनि ऐसा कहता है कि ये मुनि धन्य हैं, जो ऋतु के अनुकूल, स्निग्ध, स्वादिष्ट और पर्याप्त आहार सम्मान के साथ प्राप्त करते हैं, यह अनुमोदना भी उसे आधाकर्म दोष का भागी बना देती है। अनुमोदन करने वाला यद्यपि उसका भोग नहीं करता फिर भी गलती का समर्थन करने के कारण उसका दृष्टिकोण मिथ्या होता है अतः उसको हेय माना है। सूत्रकृतांग सूत्र के समाधि अध्ययन में स्पष्ट उल्लेख है कि साधु किसी भी स्थिति में आधाकर्म आहार की कामना न करे और न ही आधाकर्म की इच्छा रखने वालों की प्रशंसा या समर्थन करे। नियुक्तिकार ने इन चारों को स्पष्ट करने के लिए चार दृष्टान्तों का संकेत किया है-प्रतिसेवना में चोर, प्रतिश्रवण में राजपुत्र, संवास में पल्ली में रहने वाले वणिक् तथा अनुमोदना में राजदुष्ट का। आधाकर्म के एकार्थक
___ग्रंथकार ने आधाकर्म के तीन एकार्थकों का उल्लेख किया है- १. अध:कर्म २. आत्मघ्न और आत्मकर्म। सूयगडो में इसके लिए आहाकड-आधाकृत शब्द का प्रयोग भी हुआ है।
____ अधःकर्म-आधाकर्म आहार का ग्रहण करने से संयमस्थान, संयमश्रेणी, लेश्या तथा शुभ कर्मों की स्थिति में वर्तमान शुभ अध्यवसाय हीन से हीनतर होते हैं अतः कारण में कार्य का उपचार करके आधाकर्म का एक नाम अध:कर्म रखा गया है। इस बात को समझाने के लिए ग्रंथकार ने उपशान्तमोह चारित्र वाले मुनि का उदाहरण दिया है। उनके अनुसार छठे प्रमत्त संयत गुणस्थान वाले साधु की बात तो दूर, ग्यारहवें उपशान्त मोह चारित्र वाला साधु भी यदि आधाकर्म आहार ग्रहण करता है तो वह अपनी
१. पिनि ६८। २. पिनि ६८/४, मवृ प. ४६ । ३. पिंप्र १५, संवासो सहवासो कम्मियभोइहिं। ४. पिनि ६९/२। ५. पिंप्र १५ ; तप्पसंसाओ अणुमोयण त्ति।
६. पिनि ६९/४। ७. सू १/१०/११। ८. पिनि ६८/६, कथाओं के विस्तार हेतु देखें परि ३,
कथा सं ४-७। ९. सू१/१०/८1
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