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पिंड
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आदि की उपमा द्वारा आधाकर्म की स्पष्टता ५. दोष ६. आधाकर्म आहार देने वाले श्रावक को दोष ७. यथापृच्छा - विधि - परिहार ८. छलना ९. शुद्धि |
आधाकर्म के नाम
इन नौ द्वारों में एक प्रश्न उपस्थित होता है कि ग्रंथकार ने नाम और एकार्थक – इन दो द्वारों का अलग-अलग निर्देश क्यों किया ? क्योंकि जो आधाकर्म के नाम हैं, वे ही एकार्थक हैं । इस प्रश्न के समाधान में यह कहा जा सकता है कि ग्रंथकार ने आधाकर्म के नाम में आठ शब्दों का उल्लेख किया है तथा एकार्थक में आधाकर्म, अधः कर्म आदि चार शब्दों का ही संकेत है। प्रतिसेवना आदि आधाकर्म के एकार्थक नहीं हो सकते लेकिन इनके द्वारा आधाकर्म का प्रयोग होता है अतः कारण में अभेद का उपचार करके प्रतिसेवना, प्रतिश्रवण, संवास और अनुमोदना को भी आधाकर्म नाम के अंतर्गत समाविष्ट कर दिया गया है।
अन्य साधु द्वारा आनीत आधाकर्म आहार को स्वयं खाने वाला तथा अन्य साधुओं को परोसने वाला साधु प्रतिसेवना दोष से युक्त होता है। जो साधु यह कहता है कि मैं आधाकर्म आहार नहीं लाया, मैं तो दूसरों द्वारा आनीत आहार का भोग कर रहा हूं अतः मैं शुद्ध हूं क्योंकि दूसरे के हाथ से अंगारे खींचने वाला व्यक्ति स्वयं दग्ध नहीं होता। इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि ऐसी उपमा देने वाला साधु शास्त्र के अर्थ को नहीं जानता, वह मूढ़ है। स्वयं न लाने पर भी वह साधु प्रतिसेवना दोष से दूषित होता है ।
प्रतिसेवना आदि चारों पदों का स्पष्टीकरण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि किसी मुनि ने चार साधुओं को आधाकर्म भोजन के लिए निमंत्रित किया। प्रथम मुनि ने निमंत्रण स्वीकार किया। दूसरे ने कहा कि मैं आधाकर्म आहार का भोग नहीं करूंगा, तुम लोग करो। तीसरा साधु उसको सुनकर मौन रहा लेकिन संवास उन्हीं के साथ किया और चौथे ने स्पष्ट रूप से प्रतिषेध करके उनके साथ रहना छोड़ दिया। प्रथम मुनि प्रतिसेवना दोष से दूषित हुआ, वह मन, वचन और काया - इन तीनों योगों से भी दूषित हुआ। दूसरे मुनि को प्रतिश्रवण का वाचिक दोष लगा, उपलक्षण से अनुमोदन रूप मानसिक दोष भी लगा। तीसरा मुनि, जो मौन रहा, उसको संवास के कारण मानसिक अनुमोदन का दोष लगा। चौथा मुनि इन सब दोषों से मुक्त
रहा।
आधाकर्म आहार का सेवन करने वाले के प्रतिसेवना आदि चारों दोष, प्रतिश्रवण करने वाले के तीन दोष, आधाकर्म भोजी के साथ रहने वाले के दो तथा अनुमोदन करने वाले के एक दोष लगता है। इनमें
१. पिनि ६८ / २, ३ ।
२. टीकाकार के अनुसार अन्य द्वारा आनीत आधाकर्म आहार
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को भी यदि साधु साधर्मिक मुनियों को परोसता है तो भी वह प्रतिसेवना दोष से युक्त होता है (मवृ प. ४७)।
३. पिनि ६८ / १०,११ मवृ प. ४८ ।
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