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पिंडनियुक्ति
७. प्रादुष्करण
१२. उद्भिन्न ८. क्रीत
१३. मालापहृत ९. अपमित्य अथवा प्रामित्य १४. आच्छेद्य १०. परिवर्तित
१५. अनिसृष्ट ११. अभिहृत
१६. अध्यवपूरक १. आधाकर्म
उद्गम का प्रथम दोष आधाकर्म है। साधु को आधार मानकर प्राणियों का वध करके जो आहार आदि निष्पन्न किया जाता है, वह आधाकर्म है। नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि ने आधाकर्म को स्पष्ट करते हुए कहा है कि साधु को ध्यान में रखकर सचित्त वस्तु को अचित्त करना, गृह आदि बनाना तथा वस्त्र आदि बुनना आधाकर्म है। भाष्यकार के अनुसार जीवघात से निष्पन्न ही आधाकर्म नहीं होता। अचित्त वस्तु भी यदि साधु के लिए निष्पन्न की जाए तो वह आधाकर्म है। दशाश्रुतस्कन्ध में इक्कीस शबल दोषों में आधाकर्म आहार के भोग को चौथा शबल दोष माना है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार आधाकर्म दोष दो प्रकार का होता है-१. मूलगुण का उपघात करने वाला २. उत्तरगुणों का उपघात करने वाला।
जर्मन विद्वान् लायमन ने 'आहाकम्म' की संस्कृत छाया यथाकाम्य की है। इसके अनुसार साधु की इच्छा के अनुसार आहार निष्पन्न करना आधाकर्म है। इसी कल्पना के आधार पर भगवती भाष्य में आचार्य महाप्रज्ञ आधाकर्म शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यथाकाम्य आहार करने वाला मुनि पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकायों के प्रति निरनुकम्प होता है। इससे यह फलित होता है कि यथाकाम्य आहार का अर्थ है-गृहस्थ अपनी इच्छा के अनुसार मुनि के लिए कोई वस्तु बनाना चाहता है, मुनि उसके लिए स्वीकृति दे देता है अथवा मुनि अपनी इच्छानुकूल भोजन के लिए गृहस्थ को प्रेरित करता है।' .
उद्गम के सभी दोषों में आधाकर्म दोष अधिक सावध है। नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे वमन हो जाने के बाद वह भोजन अभोज्य बन जाता है, वैसे ही आधाकर्म, भोजन मुनि के लिए अनेषणीय और अभोज्य होता है। प्रकारान्तर से लौकिक उदाहरण देते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि जैसे वेद आदि धार्मिक ग्रंथों में भेड़ी, ऊंटनी का दूध, लहसुन, प्याज, मदिरा और गोमांस आदि अखाद्य और असम्मत हैं, वैसे ही
१. पिनि ६२। २. भटी भाग १ प.१०२; आधया-साधुप्रणिधानेन यत्सचेतन-
मचेतनं क्रियते अचेतनं वा पच्यते चीयते वा गृहादिकं
व्यूयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म। ३. बृभा १७६३।
४. दश्रु २/३। ५. बृभा १०८४; कम्मे आदेसदुर्ग, मूलुत्तरे। ६. Doctrine of Jainap.2721 ७. भग भा. १ पृ. १८५। ८. पिनि ८५।
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