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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
५१ जिनशासन में आधाकर्म भोजन अखाद्य और असम्मत है। आचार्य कुंदकुंद के अनुसार आधाकर्म आहार में रत मुनि मोक्षमार्ग को त्यक्त कर देता है।
___ आधाकर्म दोष की भयावहता इस बात से स्पष्ट है कि आधाकर्म भोजन ज्ञात होने पर मुनि तीन दिन तक उस घर में भोजन ग्रहण नहीं कर सकता। वह घर तीन दिन तक पूतिदोष युक्त होता है। भगवती सूत्र में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि आधाकर्म ग्रहण करता हुआ निर्ग्रन्थ आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म-प्रकृतियों को गाढ़ बंधन वाली, दीर्घकालिक स्थिति वाली, तीव्र अनुभाव वाली तथा बहुप्रदेश परिमाण वाली करता है। आचार्य वट्टकेर कहते हैं कि जो षट्काय जीवों के घात से निष्पन्न आधाकर्म भोजन ग्रहण करता है, वह अज्ञानी और जिह्वेन्द्रिय का लोभी मुनि श्रमण न होकर श्रावक के समान हो जाता है। मूलाचार के टीकाकार तो यहां तक कहते हैं कि वह धर्म से रहित होने के कारण श्रावक भी नहीं रहता। जो पचन-पाचन में अनुमोदन युक्त चित्त वाला साधु इनसे होने वाली हिंसा से नहीं डरता, वह आहार करते हुए भी स्वघाती है, उत्तमार्थ से भ्रष्ट उस मुनि का न इहलोक है और न ही परलोक । संयम से हीन उसका मुनिवेश धारण करना व्यर्थ होता है।
आधाकर्म दोष के भारीपन को इस बात से जाना जा सकता है कि यदि मानसिक रूप से भी साधु आधाकर्म की इच्छा कर लेता है तो वह प्रासुक द्रव्य लेता हुआ भी कर्मों का बंध कर लेता है। इस संदर्भ में सूत्रकृतांग में स्पष्ट उल्लेख है कि यदि साधु को ज्ञात हो जाए कि यह आधाकर्म आदि दोष से युक्त आहार है तो वह न उसे स्वयं खाए, न दूसरों को खिलाएं और न ही खाने वाले का अनुमोदन करे। आधाकर्म के द्वार
नियुक्तिकार ने नौ द्वारों के माध्यम से आधाकर्म शब्द की व्याख्या की है-१. आधाकर्म के नाम २. उसके एकार्थक ३. किसके लिए बनाया आधाकर्म? ४. आधाकर्म का स्वरूप ५. परपक्ष ६. स्वपक्ष ७. अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि चार भूमिकाएं ८. आधाकर्म का ग्रहण ९. आज्ञा-भंग आदि दोष।
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में भी नौ द्वारों का उल्लेख है लेकिन उनमें कुछ भिन्नता है। पिण्डनियुक्ति में प्रश्नवाचक रूप में द्वारों का संकेत है, जबकि पिण्डविशुद्धिप्रकरण में सर्वनाम के रूप में। वहां १. यत्जो (स्वरूप) २. यस्य-(जिसका) ३. यथा-जिस रूप में आधाकर्म दोष लगता है। ४. यादृश–वान्त
१. पिनि ८६/२।
स्यात् उभयधर्मरहितत्वात्। २. मोपा ७९; आधाकम्मम्मि रया, ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि। ६. मूला ९३०, ९३१ । ३. पिनि ११८ ; तिन्नि उ दिवसाणि पूइयं होति।
७. पिनि ९०। ४. भग १/४३६।
८. सू २/१/६५........ते चेतियं सिया तं णो सयं भंजइ, णो ५. मूला ९२९ टी पृ. १२८ ; अथवा न श्रमणो नापि श्रावकः अण्णेणं भुंजावेइ, अण्णं पि भुंजंतं ण समणुजाणइ...।
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