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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
अविशोधिकोटि के अवयव से युक्त लेपकृद् या अलेपकृद् पदार्थ यदि विशुद्ध आहार के साथ मिल जाता है तो उस आहार को त्यक्त करने के पश्चात् भी पात्र को कल्पत्रय - तीन बार साफ करना आवश्यक है अन्यथा पूति दोष होता है। ग्रंथकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि कुछ व्यक्ति दौर्बल्य के कारण इस बात को स्वीकार करते हैं कि किसी ने आधाकर्मिक ओदन तैयार किया, वहां ओदन आधाकर्मिक है लेकिन शेष अवश्रावण, कांजी आदि आधाकर्मिक नहीं है क्योंकि वह साधु के लिए नहीं बनाया गया अतः उससे संस्पृष्ट आहार पूर्ति नहीं होता । भाष्यकार एवं टीकाकार ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि भद्रबाहु स्वामी मानते हैं कि ओदन यदि आधाकर्मिक है तो कांजिक और अवश्रावण भी आधाकर्मिक ही होगा ।"
शेष ओघ औद्देशिक, मिश्रजात का आद्य भेद ( यावदर्थिकमिश्र), उपकरणपूति, स्थापना, सूक्ष्म प्राभृतिका, प्रादुष्करण, क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, अभ्याहृत, उद्भिन्न, मालापहृत, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, अध्यवपूरक का आद्य भेद (स्वगृहयावदर्थिक ) – ये सब दोष अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं। अविशोधिकोटि आहार के स्पृष्ट होने पर कल्पत्रय से शोधन करने की आवश्यकता नहीं रहती ।
अविशोधि कोटि के संदर्भ में ग्रंथकार ने विवेक की विस्तार से व्याख्या की है । चतुर्भंगी के माध्यम से स्पष्ट करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि शुद्ध शुष्क चने आदि में यदि विशोधिकोटि शुष्क वल्ल आदि गिर जाएं तो बिना जल-प्रक्षेप के सुगमता से उनको अलग किया जा सकता । यदि शुद्ध शुष्क चने आदि में विशोधिकोटिक आर्द्र तीमन आदि गिर जाए तो उसमें कांजिक आदि डालकर अशुद्ध तीमन को बाहर निकाला जा सकता है। तीसरे भंग में यदि शुद्ध आर्द्र तीमन में विशोधिकोटिक शुष्क चने आदि का प्रक्षेप हो जाए तो हाथ डालकर चने आदि को निकाला जा सकता है तथा चतुर्थ भंग में यदि अशुद्ध आर्द्र तीन में विशोधिकोटि आर्द्र तीमन का मिश्रण हो जाए उस स्थिति में यदि दुर्लभ द्रव्य है, जिसकी पुनः प्राप्ति संभव नहीं है तो अशठ भाव से उतना अंश निकाल लिया जाए, शेष का परित्याग कर दिया जाए। यदि उसके बिना काम चलता हो तो सम्पूर्ण का परित्याग कर दिया जाए क्योंकि आर्द्र से आर्द्र को पृथक् करना संभव नहीं होता। उद्गम दोष के सोलह दोष इस प्रकार हैं
१. आधाकर्म
४. मिश्रजात
२. औद्देशिक ३. पूतिकर्म
१. जीभा १३०० - १३०२, मवृ प. ११७ । २. मवृ प. ११७ ।
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५. स्थापना
६. प्राभृतिका
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३. पिनि १९२ / २-५, मवृ प. ११८, ११९, जीभा १३०८-११ । ४. मवृ प. ११८; इह निर्वाहे सति विशोधिकोटिदोषसम्मिश्रं सकलमपि परित्यक्तव्यम्, अनिर्वाहे तु तावन्मात्रम् ।
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