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पिंडनियुक्ति दोष कहलाते हैं। ग्रंथकार ने उद्गम शब्द के तीन पर्यायों का उल्लेख किया है-उद्गम, उद्गोपना और मार्गणा। पंचाशक प्रकरण एवं पंचवस्तु में आचार्य हरिभद्र ने उद्गम, प्रसूति और प्रभव-इन तीन शब्दों को उद्गम का एकार्थक माना है। अविशोधि एवं विशोधि कोटि
नियुक्तिकार ने द्रव्य उद्गम में ज्योतिष्, तृण, ऋण आदि अनेक वस्तुओं के उद्गम के बारे में उल्लेख किया है। इस संदर्भ में लड्डुकप्रियकुमार के कथानक का वर्णन किया है। उद्गम के सोलह दोषों को दो कोटियों में विभक्त किया जा सकता है-अविशोधिकोटि और विशोधिकोटि । जिसके द्वारा गच्छ में अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, वह कोटि है। कोटि नौ प्रकार की होती है-स्वयं हनन करना, दूसरे से हनन करवाना तथा हनन का अनुमोदन, पचन, पाचन तथा पाचन का अनुमोदन-ये छह कोटियां अविशोधि कोटि के अन्तर्गत तथा अंतिम तीन-स्वयं क्रय करना, क्रय करवाना तथा क्रय का अनुमोदन करना-ये तीन विशोधि कोटि के अन्तर्गत हैं। इन नौ को राग-द्वेष से गुणा करने पर १८, मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति से गुणा करने पर २७ तथा २७ को राग-द्वेष से गुणा करने पर ५४ भेद होते हैं। प्रकारान्तर से मूल ९ भेदों का दशविध श्रमणधर्म से गुणा करने पर ९० भेद होते हैं। ९० का ज्ञान, दर्शन, चारित्र से गुणा करने पर २७० भेद होते हैं।
अविशोधिकोटि को उद्गमकोटि भी कहा जा सकता है। दोष से स्पृष्ट आहार को उतनी मात्रा में निकाल देने पर शेष आहार मुनि के लिए कल्पनीय हो जाता है, वह विशोधिकोटि कहलाता है तथा जो आहार जिस दोष से दूषित है, उस आहार को अलग करने पर भी जो आहार साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता, वह अविशोधिकोटि कहलाता है। आधाकर्म, औद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्रजात, बादर प्राभृतिका और अध्यवतर के अंतिम दो भेद-ये अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं। इसमें भी औदेशिक, मिश्रजात और अध्यवतर के कुछ भेद अविशोधिकोटि में तथा कुछ भेद विशोधिकोटि के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं। जैसे औद्देशिक के अन्तर्गत विभाग औद्देशिक के तीनों भेद अविशोधिकोटि के अन्तर्गत आते हैं। अध्यवपूरक के अंतिम दो भेद स्वगृहपाषंडिमिश्र तथा स्वगृहसाधुमिश्र-ये दो अविशोधिकोटि में तथा स्वगृहयावदर्थिकमिश्र विशोधिकोटि के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं।
१. पिनि ५६।
७. पिनि १९२/६। २. पंचा १३/४, पंव ७४०।
८. मवृ प. ११६; यद्दोषस्पृष्टभक्ते तावन्मात्रेऽपनीते सति शेषं ३. पिनि ५७/१।
कल्पते स दोषो विशोधिकोटिः, शेषस्त्वविशोधिकोटिः। ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.३, कथा सं. ३। ९. पिनि १९०। ५. जीभा १२८७ ; कोडिज्जंते जम्हा, बहवो दोसा उ सहियए १०. कुछ आचार्य विभाग के अन्तर्गत कर्म औद्देशिक के गच्छं। कोडि त्ति तेण भण्णति।
अंतिम तीन भेदों को अविशोधि कोटि में रखते हैं ६.जीभा १२८८-९२, पिनि १९२/७, मवृ प. ११९, १२०। (पिंप्रटी प. ४९)।
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