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पिंडनियुक्ति नहीं है। इसका हेतु यह है कि वृक्ष आधाकर्मिक होने पर भी उसकी छाया आधाकर्मिक नहीं होती क्योंकि छाया सूर्यहेतुकी होती है, केवल वृक्षहेतुकी नहीं होती। जैसे माली वृक्ष को बढ़ाता है, वैसे छाया उसके द्वारा बढ़ायी नहीं जाती। नियुक्तिकार का तर्क यह है कि यदि वृक्ष की छाया को आधाकर्मिकी मानकर उसका वर्जन किया जाए तो मेघाच्छन्न आकाश से वृक्ष की छाया लुप्त हो जाने पर उसके नीचे बैठना कल्पनीय हो जाएगा। दूसरी बात वृक्ष की छाया अनेक घरों तथा आहार का स्पर्श करती है, इससे वे घर और आहार भी पूति दोष से युक्त हो जाएंगे। छाया सूर्य के द्वारा स्वतः होती है अतः वह आधाकर्मिकी नहीं होती। यदि वृक्ष के नीचे सचित्त कण बिखरे हों तो वह स्थान पूति होता है, वहां साधु का बैठना निषिद्ध है। आधाकर्म ग्रहण की भूमिकाएं
आधाकर्म आहार ग्रहण करने पर दोष लगने की चार भूमिकाएं हैं। जो मुनि आधाकर्म ग्रहण करके उसका परिभोग करता है, उसके अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार आदि चारों दोष लगते हैं। आधाकर्म के निमंत्रण को स्वीकार करके भिक्षार्थ गुरु की अनुमति लेना अतिक्रम, उसको लाने हेतु पैर उठाकर गृहस्थ के घर तक पहुंचना व्यतिक्रम, आधाकर्म आहार को पात्र में ग्रहण करना अतिचार तथा उसको निगलना अनाचार' दोष है।
प्रथम तीन भूमिकाओं तक व्रत का खंडन नहीं होता लेकिन अनाचार भूमिका में व्रत का विनाश हो जाता है। वहां से पुनः स्वस्थान में लौटने की भूमिका क्षीण हो जाती है। जैसे-नूपुरहारिका दृष्टान्त में छिन्न टंक वाले पर्वत शिखर पर स्थित हाथी के तीन पैर ऊपर आकाश में उठाने पर भी वह पुनः पृथ्वी पर स्थित हो गया लेकिन चारों पैर ऊपर होने पर उसका विनाश निश्चित था। व्यवहारभाष्य के अनुसार अतिक्रम, व्यतिक्रम तथा अतिचार तक दोष लगने पर तीनों में प्रत्येक का प्रायश्चित्त गुरुमास (एकासन) तथा अनाचार में चारगुरु (उपवास) की प्राप्ति होती है। आधाकर्म ग्रहण के दोष
आधाकर्म की हेयता का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है। आचार्य मलयगिरि कहते हैं कि जैसे सहस्रानुपाती विष के प्रभाव से हजारवां व्यक्ति भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही आधाकर्म आहार के
१. पिनि ८०/१-५, मवृ प. ६६,६७, जीभा ११६८-७२। सकता है, उस स्थिति में वह अनाचार नहीं माना जाएगा २. पिनि ८२/३, व्यभा ४३ ; कुछ आचार्य आधाकर्म आहार अत: निगलने पर अनाचार दोष होना चाहिए क्योंकि वहां
मुंह में रखने को अनाचार दोष मानते हैं लेकिन इस से पुनः लौटना संभव नहीं होता। (जीभा ११७८-११८०) संदर्भ में जीतकल्प भाष्यकार ने एक तर्क दिया है कि ३. मव प.६८। आहार को मुंह में रखने की क्रिया से साधु पुनः प्रतिनिवृत्त ४. व्यभा ४४। हो सकता है। वह उस कवल को श्लेष्मपात्र में थूक
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