________________
३८
अप्काय
पानी में जीव होते हैं, इसे अनेक दार्शनिकों ने स्वीकार किया लेकिन महावीर ने एक नयी प्रस्थापना करते हुए कहा कि पानी स्वयं जीव है। नरकपृथ्वी का आधारभूत ठोस घनोदधि तथा नरक पृथ्वी के पार्श्ववर्ती वृत्ताकार जल वाला घनवलय, ओले, लवण आदि समुद्र तथा पद्मद्रह आदि के मध्यभाग का पानी नैश्चयिक रूप से सचित्त होता है। कूप, वापी और तालाब आदि का जल व्यवहारनय से सचित्त होता है। कभी-कभी पूरा तालाब का पानी अचित्त हो सकता है लेकिन सर्वज्ञ के अभाव में व्यावहारिक रूप से यह जानना संभव नहीं होता कि यह सचित्त है अथवा अचित्त । इसीलिए उदायन राजा को प्रव्रजित करने के लिए राजगृह से सिंधुसौवीर देश के वीतभय नगर में जाते हुए यात्रा के मध्य तालाब को अचित्त जानकर भी भगवान् महावीर ने उसके जल को पीने की अनुज्ञा नहीं दी। शुद्धोदक (अंतरिक्षजल), ओस, हरतनुक, (पृथ्वी को भेदकर निकलने वाले जलबिन्दु) महिका (धूंअर) और हिम - ये सचित्त अप्काय हैं।
केवल गर्म होने मात्र से जल अचित्त नहीं होता इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में 'तत्तफासुय' विशेषण का प्रयोग हुआ है। अन्यथा केवल ' तत्त' विशेषण से ही काम चल सकता था । तप्त होने पर भी प्रासुक हो, यह आवश्यक नहीं है। अग्नि पर चढ़े हुए पानी में जब तक तीन उबाल न आए, तब तक वह जल मिश्र होता है ।" प्रथम उबाले में वह जल कुछ मात्रा में अचित्त होता है । द्वितीय में अधिक मात्रा में तथा तीसरे उबाल में पूर्ण अचित्त हो जाता है। वर्षा का जल यदि मनुष्य और तिर्यञ्च के आवागमन वाले स्थान में गिरता है तो वह कुछ समय तक मिश्र रहता है। ग्राम और नगर के बाहर यदि वर्षा का जल गिरता है तो वह भी पृथ्वीकाय के सम्पर्क से जब तक अचित्त नहीं होता, तब तक मिश्र रहता है। यदि अधिक मात्रा में वर्षा होती है तो प्रारम्भ में पृथ्वीका के सम्पर्क से मिश्र हो जाता है लेकिन बाद में गिरने वाला जल सचित्त ही रहता है।
ग्रंथकार ने चावल के पानी के लिए तीन मान्यताओं का उल्लेख किया है। चावल धोने वाले बर्तन से अन्य बर्तनों में डालते हुए आसपास जो बिन्दु लग जाते हैं, वे जब तक विनष्ट नहीं होते, तब तक वह चावल का पानी मिश्र होता है। दूसरा अभिमत है कि तण्डुल - प्रक्षालन के बर्तन से दूसरे बर्तन में डालते समय पानी के ऊपर जो बुबुदे उत्पन्न होते हैं, वे जब तक शमित नहीं होते, तब तक तण्डुलोदक मिश्र कहलाता है। तीसरा अभिमत यह है कि चावल धोने के पश्चात् जब तक वे पक्व नहीं होते, तब तक तण्डुलोदक मिश्र होता है।
१. पिनि १६ ।
२. बृभा ९९९, टी पृ. ३१५ ।
३. मूलाचार की टीका में महासरोवर या समुद्र में उत्पन्न
जल को हरतनु कहा है (मूलाटी पृ. १७६) ।
४. उत्त ३६/८५, मूला २१० ।
५. (क) पिनि १७ ।
Jain Education International
पिंडनिर्युक्ति
(ख) दशजिचू पृ. ११४; अहवा तत्तमवि जाहे तिन्नि वाराणि न उव्वत्तं भवइ, ताहे तं अनिव्वुडं, सचित्तं तिवृत्तं भवइ ।
६. मवृ. प. १०।
७. पिनि १७/१, दशजिचू पृ. १८५ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org