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पिंडनिर्युक्ति
कारण जल चिरकाल से अचित्त होता है। घृतकिट्ट और कच्चे मांस की गंध-ये दोनों जल के शस्त्र हैं लेकिन इनका रस मधुर और स्पर्श शीत है अतः इनके मिश्रण से जल चिरकाल से अचित्त होता है । चाउलोदक में कुक्कुस के द्वारा उत्पन्न अम्लता भी उदक का शस्त्र बनती है। फल के रस में यदि सचित्त जल डाल दिया जाए तो वह चिरकाल से अचित्त होता है।
तेजस्काय
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तेजस्काय के संदर्भ में निरूपण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि ईंट पकाने वाली विद्युत्, उल्का आदि का मध्य भाग निश्चय रूप से सचित्त तेजस्काय है।' आदि शब्द से टीकाकार के अनुसार कुम्भकार की घड़ा पकाने वाली अग्नि, ईक्षु रस पकाने हेतु जलाई गई चूल्हे की अग्नि का भी ग्रहण हो जाता है।" अंगारा, मुर्मुर, अग्नि, अर्चि, ज्वाला, उल्का, विद्युत् आदि व्यावहारिक सचित्त तेजस्काय हैं। अपराजित वज्र, विद्युत् एवं सूर्यकान्त मणि आदि से उत्पन्न अग्नि को सचित्त रूप में स्वीकार किया है । करीषाग्नि मिश्र तेजस्काय है ।
वायुकाय
सवलय घनवात, तनुवात, अत्यधिक हिमपात तथा मेघजन्य अंधकार होने पर जो वायु चलती है, वह वायु नैश्चयिक सचित्त होती है। पूर्व आदि दिशा में चलने वाली वायु व्यावहारिक सचित्त होती है। ' ग्रंथकार ने पांच प्रकार की अचित्त वायु का उल्लेख किया है
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• आक्रान्त - पैरों से आक्रान्त कर्दम आदि से निकलने वाली वायु ।
• ध्मात - धौंकनी तथा मुख की वायु से भरी दृति से निकलने वाली वायु ।
• घाण
ग- तिलपीड़न यंत्र से निकलने वाली वायु । ठाणं तथा ओघनिर्युक्ति की टीका में घाण के
स्थान पर सम्मूर्च्छि वायु का निर्देश है, जिसका अर्थ है तालवृंत आदि से उत्पन्न वायु ।'
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• देहानुगत - गुदा प्रदेश तथा उच्छ्वास - निःश्वास रूप से निकलने वाली वायु ।
पीलित - आर्द्र कपड़ों को निचोड़ने से निकलने वाली वायु ।
टीकाकार अभयदेवसूरि के अनुसार उत्पत्ति काल में ये पंचविध वायु अचित्त होती हैं लेकिन परिणामान्तर में सचित्त भी हो सकती है। "
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१. बृभा ५९१५, टी पृ. १५५९ ।
२. बृभा ५९१६, टी पृ. १५६० ।
३. बृभाटी पृ. १५६० ।
४. पिनि २४ ।
५. मवृ. प. १६ ।
६. मूला २११ टी पृ. १७७; शुद्धाग्नि : वज्राग्निर्विद्युत्सूर्यकान्ताद्युद्भवः ।
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७. पिनि २४ ।
८. पिनि २७ ।
९. स्था ५/१८३, ओनिटी प. १३३ ।
१०. स्थाटी पृ. २२४; एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना अपि भवंति ।
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