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पिंडनियुक्ति के अनुसार पिप्पली, खजूर, दाख तथा हरड़े आदि वनस्पति सौ योजन दूर ले जाने पर अचित्त हो जाती है। भाष्यकार ने इनके अचित्त होने के और भी कारण बताए हैं।
खाद्यान्न में यव, यवयव, गोधूम, शाल्योदन और ब्रीहि-इन धानों को कोठी में डालकर यदि उसे ऊपर से लीप कर ढक्कन बंद कर दिया जाए तो निर्वात होने के कारण वह धान्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट तीन वर्ष तक सचित्त रह सकता है। तिल, मूंग, मसूर, मटर, उड़द, चवला, कुलत्थ, अरहर, काले चने, वल्ल-निष्पाव आदि दालों को कोठे में रखकर भलीभांति मुद्रित और लांछित किया जाए, जिससे कोठे में हवा का प्रवेश न हो तो ये धान्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट पांच वर्ष तक सचित्त रह सकते हैं। तिलहन में अतसी, लट्ट-कुसुंभ, कंगु, कोडूसग – कोरदूषक, सन, वरट्ट-बरठ, सिद्धार्थसरसों, कोद्रव, रालक और मूली के बीज-इनको यदि कोठे में डालकर भलीभांति मुद्रित कर दिया जाए तो ये बीज जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट सात वर्ष तक सचित्त रह सकते हैं। इसके बाद ये अबीज हो जाते हैं। सामान्यतः सभी धान्य जघन्य रूप से अन्तमुहूर्त के पश्चात् अचित्त हो सकते हैं। उत्कृष्ट की स्थिति सबकी अलग-अलग है।
__ इस प्रकार नियुक्तिकार ने स्थावरकाय के सचित्त, अचित्त और मिश्र होने की स्थिति का सुंदर विवेचन प्रस्तुत किया है। जैन आगमों में भी प्रकीर्णक रूप से इसके बारे में कुछ सामग्री मिलती है। भिक्षाचर्या
आहार जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। इसके बिना लम्बे समय तक जीवन को नहीं चलाया जा सकता। मुनि संयम-यात्रा को निरबाध गति से चलाने के लिए आहार ग्रहण करते हैं। स्वाद के लिए खाना मुनि के लिए निषिद्ध है। ज्ञाताधर्मकथा में सेठ और चोर के कथानक के माध्यम से बहुत सुंदर शैली में इस तथ्य को प्रकट किया गया है कि मुनि वर्ण-सौन्दर्य, रूप-वृद्धि, बल-प्राप्ति और इंद्रिय विषय की तृप्ति हेतु नहीं अपितु ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विकास हेतु आहार ग्रहण करे। इन सबके लिए आहार करने वाला प्रासुकभोजी होने पर भी अप्रशस्त प्रतिसेवी होता है। मूलाचार में मुनि के लिए निर्देश है कि वह ठंडा-गर्म, रूखा-सूखा, स्निग्ध-अस्निग्ध, लवणसहित या लवणरहित आहार को बिना स्वाद लिए प्रयोग करे।
भिक्षाचर्या साधु की चर्या का अभिन्न अंग है। मुनि को जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब भिक्षा से १. बृभा ९७४।
७. ज्ञाता १/२/७६ ; णो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेउं २. बृभा ९७३, टी पृ. ३०६ ।
वा नो विसयहेउं वा..........णण्णत्थ णाणदंसणचरित्ताणं ३. भग ६/१२९, प्रसा ९९५, ९९६।
वहणट्ठाए । ४. भग ६/१३०, स्था ५/२०९, प्रसा ९९७, ९९८ । ८. निभा ४६९ ; बल-वण्ण-रूवहेतुं, ५. प्रसा ९९९, १०००।
फासुयभोई वि होइ अपसत्थो। ६. प्रसा १०००; होइ जहन्नेण पुणो अंतमुहत्तं समग्गाणं। ९. मूला ८१६ ।
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