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पिंडनियुक्ति
आवश्यकता की पूर्ति करता है, जिसे माधुकरी भिक्षा या गोचरी भी कहा जाता है। जैसे भ्रमर फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता है, जिससे फूलों को पीड़ा नहीं होती है और उसकी तृप्ति भी हो जाती है, वैसे ही साधु भी गृहस्थ के लिए बनाए गए आहार में से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करे, जिससे गृहस्थों को कष्ट न हो और साधु की जीवन-यात्रा भी सम्यक् रूप से चलती रहे।
उत्तराध्ययन सूत्र एवं ऋषिभाषित' ग्रंथ में साधु की भिक्षा के लिए कापोती वृत्ति का उल्लेख भी मिलता है। जिस प्रकार कपोत धान्य कण को चुगते वक्त हर क्षण सशंक रहता है, उसी प्रकार भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनि एषणा के दोषों के प्रति सशंक रहता है। मुनि की भिक्षा का एक विशेषण है-अज्ञातउञ्छ। भिक्षु सामुदानिक रूप से अज्ञातकुलों से अर्थात् पहले निर्देश दिए बिना भिक्षा करता है।
मुनि नवकोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करता है, नवकोटि का तात्पर्य है कि साधु आहार हेतु न स्वयं वध करता है, न वध करवाता है और न ही वध करने वाले का अनुमोदन करता है। वह न स्वयं पकाता है, न पकवाता है और न ही पकाने का अनुमोदन करता है। मुनि न स्वयं क्रय करता है, न क्रय करवाता है
और न ही क्रीत का अनुमोदन करता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार मन, वचन और काया के द्वारा कृत, कारित और अनुमोदन नहीं करता। तीन को तीन का गुणन करने पर नवकोटि परिशुद्ध भिक्षा होती
पिण्डकल्पिक अर्थात् भिक्षा करने के योग्य कौन होता है, उसकी अर्हताएं क्या होती हैं, इसका आचार्यों ने विस्तार से विवेचन किया है। इसका कारण यह है जिस मुनि को भिक्षाविधि या उसके नियमों का ज्ञान नहीं होता, वह सम्यक् एषणा नहीं कर सकता। व्यवहारभाष्य के अनुसार प्राचीन काल में आचारांग के आमगंधी सूत्र को अर्थतः तथा सूत्रतः पढ़ लेने पर मुनि पिण्डकल्पिक होता था लेकिन वर्तमान में दशवैकालिक के पिण्डैषणा अध्ययन को पढ़ लेने पर पिण्डकल्पी हो जाता है। बृहत्कल्पभाष्य में स्पष्ट उल्लेख है कि जिसने आचारचूला गत पिण्डैषणा तथा दशवैकालिक का पांचवां पिण्डैषणा अध्ययन नहीं पढ़ा, उसको गोचरी भेजने पर आचार्य को चार गुरुमास (उपवास) का प्रायश्चित्त होता है। अर्थ बताए बिना भेजने पर, अर्थ बताने पर भी सामने वाले को अधिगत नहीं हुआ है अथवा श्रद्धा नहीं हुई है, उसको भेजने पर, श्रद्धा होने पर भी जिसकी परीक्षा नहीं हुई, उसको भेजने पर चार-चार लघुमास (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
१. दश १/२। २. इसि. १२/२। ३. उ. १९/३३, शांटी प. ४५६, ४५७। ४. दश.९/३/४ ; अन्नायउंछं चरई विसुद्ध,
जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं ।
५. स्था ९/३०, दशनि २१९ । ६. मूला ८१३, टी. पृ. ६१ । ७. व्यभा १५३२। ८. बृभा ५३१, टी पृ. १५४ ।
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