________________
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
४३ प्राप्त होता है। आगम में मुनि के सब योगों में भिक्षाचर्या को प्रधान योग कहा गया है। व्यवहार भाष्य में उल्लेख मिलता है कि जो मुनि भिक्षाचर्या में आलस्य या प्रमाद का अनुभव करता है, वह मंदसंविग्न (मंद वैरागी) है तथा जो भिक्षाचर्या में उपयुक्त और उद्यमी है, वह तीव्रसंविग्न-तीव्र वैरागी होता है।'
जैन साधुओं की भिक्षा सामान्य भिक्षुओं से अलग होती है। वे निरवद्य और निरुपहत भिक्षा ग्रहण करते हैं। यदि मुनि अपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ रूप क्रिया से निष्पन्न आहार को ग्रहण करता है अथवा अनुमोदन करता है तो उसके उपवास, स्वाध्याय आदि योग खंडित बर्तन में भरे अमृत के समान नष्ट हो जाते हैं।
पूर्ण अहिंसा पर आधारित मुनि की भिक्षाचर्या अनेक नियम और उपनियमों से प्रतिबद्ध है। नवकोटी परिशुद्ध और ४२ दोषों से रहित भिक्षा-विधि का विधान न बौद्ध परम्परा में मिलता है और न ही वैदिक परम्परा में। भगवान् बुद्ध ने औद्देशिक, क्रीत और अभिहत आहार को कल्प्य माना है। जैन परम्परा का प्रसिद्ध ग्रंथ दशवैकालिक का प्रथम अध्ययन मुनि की अहिंसक भिक्षावृत्ति से प्रारम्भ होता है। साधु उत्तमपुरुष के भाषा में संकल्प करते हैं कि हम ऐसी आजीविका (भिक्षावृत्ति) प्राप्त करें, जिससे किसी को पीड़ा न पहुंचे। यह मुनि का स्वेच्छा से स्वीकृत व्रत है, किसी के द्वारा थोपा गया नहीं है।
साधु की भिक्षाचर्या को वृत्तिसंक्षेप भी कहा गया है। इसमें इच्छानुसार पदार्थ की उपलब्धि नहीं, अपितु जो कुछ मिल जाए, उसमें संतोष करने को वृत्तिसंक्षेप कहा गया है। निरवद्य भिक्षा का जो विधान सर्वज्ञों ने प्रस्तुत किया है, उसके प्रति अहोभाव प्रकट करते हुए आचार्य शय्यंभव दशवैकालिक सूत्र में कहते हैं-'अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण कप्पिया।'
. अष्टकप्रकरण में हरिभद्र ने भिक्षा से सबन्धित तीन प्रकरण लिखे हैं। भिक्षाष्टक प्रकरण में उन्होंने तीन प्रकार की भिक्षाचर्याओं का उल्लेख किया है-१. सर्वसम्पत्करी २. पौरुषघ्नी ३. वृत्तिभिक्षा। माधुकरी भिक्षा से दोषों को टालते हुए शुद्ध भिक्षा ग्रहण करना सर्वसम्पत्करी भिक्षा है। श्रमण वेश में श्रम न करके साधुत्व के प्रतिकूल आचरण द्वारा भिक्षा प्राप्त करना पौरुषघ्नी भिक्षा है तथा दीन, हीन, अपंग एवं निर्धन के द्वारा आजीविका के रूप में जिस भिक्षावृत्ति का सहारा लिया जाता है, वह वृत्तिभिक्षा है। निर्ग्रन्थ साधु न तो पौरुषघ्नी भिक्षा करता है और न ही वृत्तिभिक्षा। वह सर्वसम्पत्करी भिक्षा के द्वारा अपनी
१. उत्त २/२८ ; सव्वं से जाइयं होइ, नत्थि किंचि अजाइयं। ६. दश १/४ वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मई। २. मूला ९३९ ; जोगेसु मूलजोगं, भिक्खाचरियं च
७. सम ६/३। वणियं सुत्ते।
८. अष्टकप्रकरण ५/१; ३. व्यभा २४८४, २४८५।।
सर्वसम्पतकरी चैका, पौरुषघ्नी तथाऽपरा। ४.बृभा ४७८०; अणवज्जं निरुवहयं, भंजंति य साहणो भिक्खं ।
वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा त्रिधोदिता॥ ५. चा. सा. ६८/२।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org