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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
है क्योंकि गाड़ी आदि के पहिए से उखड़ी हुई तथा हल से विदारित भूमि पहले सचित्त होती है फिर शीत वात आदि से कुछ अचित्त हो जाती है अतः मिश्र होती है। वर्षा का जल सचित्त पृथ्वी पर गिरता है तो प्रारम्भ में कुछ पृथ्वीकाय अचित्त हो जाती है, कुछ सचित्त रहती है । अन्तर्मुहूर्त्त के बाद दोनों एक दूसरे के शस्त्र होने के कारण अचित्त हो जाते हैं।
अधिक वर्षा होने पर जब तक वर्षा नहीं रुकती, तब तक पृथ्वीकाय मिश्र रूप में रहती है । वर्षा रुकने पर कभी-कभी सचित्त भी रहती है । गोबर आदि ईंधन सचित्त पृथ्वीकाय का शस्त्र है। जब तक पृथ्वी पूर्ण रूप से परिणत नहीं होती, तब तक सचित्त रहती है। यदि ईंधन (गोबर आदि) अधिक है और पृथ्वीकाय कम है एक प्रहर तक पृथ्वी मिश्र रूप में रहती है। मध्यम ईंधन होने पर दो प्रहर तक तथा स्वल्प ईंधन होने पर तीन प्रहर तक पृथ्वी सचित्त - सजीव रहती है।' ओघनिर्युक्ति के टीकाकार ने इसकी व्याख्या कुम्भकार द्वारा आनीत पानी सहित मिट्टी से की है।
लवण आदि अपने उत्पत्ति - स्थान से यदि सौ योजन दूर तक ले जाया जाता है तो वह अचित्त हो जाता है। कुछ आचार्य सौ योजन के स्थान पर सौ गव्यूत मानते हैं। इसके अचित्त होने का कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि उसे स्वयोग्य आहार नहीं मिलता। एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालते हुए तथा एक शकट से दूसरे शकट में रखा जाता हुआ वह अचित्त हो जाता है। वायु, अग्नि और धूम भी वह अचित्त हो जाता है। *
लवण आदि के अचित्त होने का एक अन्य कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि शकट की पीठ पर लदे नमक के थैलों पर मनुष्य के बैठने से तथा बैल आदि के शरीर की उष्मा से वह लवण अचित्त हो जाता है तथा भूमि से मिलने वाले आहार का विच्छेद होने पर भी क्रमशः वह अचित्त हो जाता है । " हरिताल, मनःशिला आदि पृथ्वीकाय भी सौ योजन से आगे ले जाने पर अचित्त हो जाते हैं। इसमें भी अचित्त होने के कारणों को लवण की भांति ही समझना चाहिए।
शीत शस्त्र, उष्ण शस्त्र (सूर्य आदि का तीव्र आतप ) क्षार, गोबर विशेष, अग्नि, लवण, उषऊषर क्षेत्र में उत्पन्न लवण आदि से युक्त रज, अम्लता, तैल आदि - ये सब पृथ्वीकाय के शस्त्र हैं । इनसे पृथ्वीकाय अचित्त होती है। पिण्डनिर्युक्ति के टीकाकार वीराचार्य ने भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से पृथ्वीका के अचित्त होने के संदर्भ में विस्तृत चर्चा की है।
१. पिनि ११, मवृ प. ८ ।
२. ओनिटी प. १२९ ।
३. प्रसाटी प. २९७ ; केचित्तु योजनशतस्थाने गव्यूतशतं पठंति । ४. बृभा ९७३, टी पृ. ३०६, प्रसागा १००१ ; वर्तमान में द्रुतगामी वाहन होने के कारण सौ योजन ले जाने पर
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अचित्त होने की संभावना कम रहती है।
५. बृभा ९७५, टी पृ. ३०७ ।
६. बृभा ९७४, टी पृ. ३०६ ।
७. पिनि १२ ।
८. वीवृप. १४४ ।
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