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पिंडनियुक्ति
स्थावरकायों की सचित्तता-अचित्तता : एक विमर्श
___ वैदिक-परम्परा में पृथ्वी, जल, अग्नि आदि को देववाद के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। नास्तिक एवं कुछ अन्य दर्शनों में इन्हें पंचभूतों के रूप में स्वीकृत किया गया। महावीर ने अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से इन्हें सजीव रूप में प्रतिपादित करते हुए कहा-'पृथ्वी, अग्नि आदि स्वयं जीव हैं। इनके आश्रित अनेक त्रस और स्थावर जीव रहते हैं। शस्त्रपरिणति के बिना स्थावरजीव सचित्त होते हैं। स्थावर जीवों की हिंसा करने वाला, उनके आश्रित रहने वाले अनेक सूक्ष्म-बादर तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों की हिंसा करता है।'२ षड्जीवनिकाय के वैज्ञानिक प्रतिपादन को देखकर आचार्य सिद्धसेन ने भावविभोर होकर कहा'भगवन् ! आपकी सर्वज्ञता की सिद्धि में एक प्रमाण ही पर्याप्त है कि आपने षड्जीवनिकाय का प्रतिपादन किया। समूचे भारतीय दर्शन में षड्जीवनिकाय का निरूपण महावीर की मौलिक प्रस्थापना है। आचारांग नियुक्ति में नियुक्तिकार ने स्थावरकायों की जीवत्व-सिद्धि में अनेक तार्किक एवं व्यावहारिक हेतु प्रस्तुत किए हैं। उसका विस्तृत वर्णन 'नियुक्तिपंचक' की भूमिका में किया जा चुका है।'
पिण्डनियुक्ति में ग्रंथकार ने पिण्ड शब्द की व्याख्या के संदर्भ में पृथ्वी आदि स्थावरकायों के सचित्त-अचित्त और मिश्र रहने की स्थिति को बहुत नवीनता के साथ प्रस्तुत किया है। स्थावरकायों की चेतना सघन रहती है, वे सदैव स्त्यानर्द्धि निद्रा से प्रभावित रहते हैं अतः बाह्य किसी भी लक्षण से उनके सचित्त-अचित्त या मिश्र होने के बारे में जानना अत्यन्त कठिन है। कोई विशिष्ट ज्ञानी ही इसका वर्णन प्रस्तुत कर सकता है। सचित्त वस्तु में जीव की च्युति निश्चित काल के अनुसार अथवा विरोधी शस्त्र के प्रयोग से भी होती है। नियुक्तिकार ने निश्चय और व्यवहार-दोनों दृष्टियों से स्थावरकाय की सचित्तअचित्त आदि स्थिति को सूक्ष्मता से प्रतिपादित किया है। यहां उनके द्वारा निरूपित कुछ विशेष संदर्भो को प्रस्तुत किया जा रहा हैपृथ्वीकाय
__रत्नशर्करा आदि नरक पृथ्वियां तथा महापर्वत मेरु, हिमालय आदि के बहुमध्यभाग निश्चय रूप से सचित्त होते हैं। निराबाध अरण्य, जहां मनुष्य एवं पशु-पक्षी का आवागमन नहीं होता, गोबर आदि नहीं होता, वह पृथ्वीकाय व्यावहारिक रूप से सचित्त होती है। वट, अश्वत्थ आदि के वृक्ष क्षीरद्रुम कहलाते हैं। माधुर्य के कारण वहां शस्त्र का अभाव होता है। इन वृक्षों के नीचे शीत आदि शस्त्र के कारण कुछ पृथ्वी अचित्त हो जाती है तथा कुछ सचित्त रहती है। ग्राम या नगर के बाहर जो पृथ्वी है, वह भी मिश्र होती
१. दश ४/४ अन्नत्थसत्थपरिणएणं। २. आयारो १/२७, आनि १०२, १०३। ३. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका १/१३ ।
४. देखें नियुक्तिपंचक भूमिका पृ. ८८-९३ । ५. पिनि १०। ६. मवृ प. ८।
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