________________
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण किया है कि हरिभद्र सूरि ने पिण्डनियुक्ति पर शिष्यहिता नामक वृत्ति लिखनी प्रारम्भ की लेकिन स्थापना दोष तक की टीका लिखकर वे दिवंगत हो गए।
यह टीका संक्षिप्त है लेकिन मूल शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करने वाली है। यह देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार द्वारा प्रकाशित अवचूरि के साथ पीछे नवम परिशिष्ट में प्रकाशित है।' माणिक्यशेखर कृत दीपिका
पिण्डनियुक्ति पर एक संक्षिप्त व्याख्या आचार्य माणक्यशेखर कृत दीपिका भी मिलती है। इसमें प्रारम्भ की लगभग १०० गाथाओं की व्याख्या है। बीच की सैकड़ों गाथाओं की व्याख्या नहीं है। पुनः दीपिकाकार ने दायक दोष से व्याख्या प्रारम्भ की है। यह दीपिका पिण्डनियुक्ति अवचूरि के साथ दशम परिशिष्ट में प्रकाशित है। पिण्डनियुक्ति पर पूर्ववर्ती ग्रंथों का प्रभाव
तीर्थंकर जितने अध्यात्मनिष्ठ थे, उतने ही आचारनिष्ठ भी, यही कारण है कि एक ओर अध्यात्म का उत्कृष्टतम निरूपण करने वाला आचारांग जैसा ग्रंथरत्न उपलब्ध होता है तो दूसरी ओर उसी का द्वितीय श्रुतस्कन्ध आचारचूला साध्वाचार का विशद निरूपण करने वाला है।
साधु की भिक्षाचर्या एवं उसके दोषों का संकेत प्रकीर्णक रूप से आचारचूला, सूत्रकृतांग, स्थानांग, भगवती एवं प्रश्नव्याकरण आदि अंग-साहित्य में मिलता है। विपाकश्रुत जैसे कथात्मक अंग-साहित्य में भिक्षाचर्या के सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं मिलती। छेदसूत्रों के अन्तर्गत निशीथ में भिक्षाचर्या से सम्बन्धित अनेक नियम-उपनियम तथा प्रायश्चित्तों का विधान है। मूलसूत्रों में दशवैकालिक का प्रथम तथा पांचवां अध्ययन भिक्षाचर्या से ही सम्बन्धित है। उत्तराध्ययन में प्रसंगवश उपदेश शैली में भिक्षाचर्या के दोषों के सम्बन्ध में निर्देश मिलता है।
कहा जा सकता है कि आगमों में विकीर्ण रूप से भिक्षाचर्या के प्रायः सभी दोषों का उल्लेख है। (देखें भूमिका पृ. ८९) नियुक्तिकार ने मालाकार की भांति उन्हें सुसम्बद्ध रूप से पिरोकर माला का रूप प्रदान किया है अत: निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि आगम-साहित्य से प्रभावित होने पर भी भिक्षाचर्या के ४२ या ४६ दोषों का क्रमबद्ध और व्यवस्थित वर्णन नियुक्तिकार का मौलिक अवदान है। पिण्डनियुक्ति का परवर्ती अन्य ग्रंथों पर प्रभाव
प्राचीन साहित्य की एक विशेषता रही है कि लेखक किसी भी ग्रंथ के किसी भी अंश को बिना किसी नामोल्लेख के अपने ग्रंथ का अंग बना लेते थे। उस समय यह साहित्यिक चोरी नहीं मानी जाती थी।
१.पिण्डनियुक्ति की गाथाओं एवं मलयगिरि की टीका का गुजराती अनुवाद मुनि हंससागर जी ने किया है। यह पुस्तक हंससागर शासन-कंटकोद्धार ज्ञानमंदिर भावनगर से प्रकाशित है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org