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पिंडनियुक्ति अन्ये तु तद्गुणविकत्थनामेवं योजयन्ति-आधाकर्मभोजिनं कोऽपि....... । (मवृ प. ५०) केचिदाहुः-एकादशी प्रतिमां प्रतिपन्नाः साधुकल्प इति तस्याप्याय....... । (मवृ प. ६२)
टीकाकार ने प्रसंगवश पाणिनी के सूत्रों का उल्लेख करके व्याकरण-बोध तथा शब्दों की सिद्धि भी की है, जैसे मलिन शब्द नपुंसक होते हुए भी प्राकृत के कारण पुल्लिंग के रूप में प्रयुक्त है। टीकाकार कहते हैं-मलिनानीत्यत्र नपुंसकत्वे प्राप्तेऽपि सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतलक्षणवशात्, तथा चाह-पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-लिङ्ग व्यभिचार्यपीति।
इसी प्रकार निर्योग शब्द का निरुक्त करते हुए टीकाकार कहते हैं-निस्पूर्वो युजिरुपकारे वर्तते.... नियुज्यते-उपक्रियतेऽनेनेति निर्योग-उपकरणम्।
प्रसंगवश टीकाकार ने तत्त्वज्ञान का भी विवेचन किया है, जैसे षट्स्थानपतित, संयमश्रेणि एवं कण्डक आदि का विस्तृत विवेचन ३९ एवं ४०-इन दो पत्रों में किया है।
__ कहीं-कहीं उन्होंने आत्म-चिन्तन के रूप में उत्कृष्ट आध्यात्मिक रस का वर्णन भी किया है। ऐसे स्थलों में उनकी भाषा साहित्यिक होने पर भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। लड्डुकप्रियकुमार को कैवल्य की उत्पत्ति होने पर टीकाकार ने उसके आत्मचिन्तन को साहित्यिक शैली में प्रस्तुत किया है।
__नियुक्तिकार द्वारा संकेतित कथा का विस्तार आचार्य मलयगिरि ने किया है। बिना टीका की सहायता के उन कथाओं को समझना अत्यन्त कठिन है। कथाओं के माध्यम से टीकाकार ने अनेक सांस्कृतिक तथ्यों को भी सुरक्षित कर दिया है।
कहा जा सकता है कि पिण्डनियुक्ति के हार्द को समझने में टीका का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनेक स्थलों पर बिना टीका की सहायता के गाथाओं के हृदय को पकड़ना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। पिण्डनियुक्ति अवचूरि
पिंडनियुक्ति पर क्षमारत्नसूरिकृत अवचूरि भी मिलती है। अवचूरिकार ने संक्षेप में पिण्डनियुक्ति की व्याख्या की है। कहीं-कहीं जिस प्रसंग की व्याख्या आचार्य मलयगिरि ने नहीं की, उसकी व्याख्या आचार्य क्षमारत्नसूरि ने अवचूरि में की है। कहीं-कहीं अवचूरिकार ने मलयगिरि टीका को उद्धृत करते हुए 'वृत्तौ वृद्धसम्प्रदायो' का उल्लेख किया है, उदाहरणार्थ देखें अव प. १०२ । वीराचार्य कृत टीका
पिण्डनियुक्ति पर वीराचार्य कृत एक लघु टीका भी मिलती है। टीका के प्रारम्भ में उन्होंने उल्लेख
१. मवृ प. १२।
२. मवृ प. ३४।
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