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અહો રતનાના
ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર
300
000000
1000000
-: સંયોજક :
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫. મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩
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“અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૧૦૮
ન્યાયસાર
: દ્રવ્ય સહાયક :
પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી રામચન્દ્ર-ભદ્રંકર-કુંદકુંદસૂરીશ્વરજી મહારાજાના શિષ્યરત્ન વર્ધમાન તપની ૧૦૦+૭૫ ઓળીના આરાધક પૂ. ગણિવર્ય શ્રી નયભદ્રવિજયજી મ.સા.ની શુભ પ્રેરણાથી
જૈન પંચ મહાજન - વાસા (રાજસ્થાન)
તરફથી સહયોગ મળેલ છે.
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૧
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"Aho Shrut Gyanam"
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પૃષ્ઠ
238
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯- સેટ નં-૧ ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકાસંપાદક 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
पू. विक्रमसूरिजीम.सा. 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
पू. जिनदासगणिचूर्णीकार । | 003 श्री अर्हद्रीता-भगवद्गीता
पू. मेघविजयजी गणिम.सा. 004 श्री अर्हच्चूडामणिसारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामीम.सा. 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
| पू. पद्मसागरजी गणिम.सा. 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजीम.सा. अपराजितपृच्छा
| श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्पस्मृति वास्तु विद्यायाम्
| श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा 009 शिल्परत्नम्भाग-१
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 010 | शिल्परत्नम्भाग-२
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 011 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे 013 प्रासादमञ्जरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारतीगोसाई 015 शिल्पदीपक
| श्री गंगाधरजी प्रणीत | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 017 दीपार्णव उत्तरार्ध
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई જિનપ્રાસાદમાર્તડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા | जैन ग्रंथावली
| श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स 020 હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ
શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની न्यायप्रवेशः भाग-१
| श्री आनंदशंकर बी.ध्रुव 022 | दीपार्णवपूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग
पू. मुनिचंद्रसूरिजीम.सा. | अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग२
| श्री एच. आर. कापडीआ 025 | प्राकृतव्याकरणभाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराजदोशी तत्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य | 027 शक्तिवादादर्शः
श्री सुदर्शनाचार्यशास्त्री
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| क्षीरार्णव
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર
| श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन
पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રસિહમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. | 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી જ્યોતિર્મહોદય
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
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પાદક | પૃષ્ઠ !
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અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦ - સેટ નં-૨ ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા કર્તા-ટીકાકા(સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वत्ति बूदन्यास अध्याय-६
पू. लावण्यसूरिजीम.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 | भारतीय हैन श्रम संस्कृति सने मना शु४. पू. पूण्यविजयजी म.सा.
164 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
| सं श्री धर्मदत्तसूरि
। 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि 0608न संगीत राजमाता
| . श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 306 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 | 063 चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पू. मेघविजयजी गणि
516 064 विवेक विलास
सं/J. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 सन्मतितत्त्वसोपानम्
|सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 0676शमादा ही गुशनुवाई | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
638 068 मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा.
192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/J. श्री अंबालाल प्रेमचंद | 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य |
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073| मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 0748न सामुद्रिनi iय jथी
J४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र इल्पद्र्भ साग-१
४४. श्री साराभाई नवाब
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076 | જન વિને
જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 7 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 7 | ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 079 | શિલ્પ ચિતામણિ ભાગ-૧
080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧
114
08 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083 આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 | કલ્યાણ કારક 085 | વિશ્વનયન વોશ 086 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 087
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 હસ્તસગ્નીવનમાં
| ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ
238 | ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવાવ
194 ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ
192 ગુજ. | શ્રી મનસુહાનાન્ન મુવમન | 254 ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારીમ
260 ગુજ. | શ્રી નાગનાથ મંવારમ
238 ગુજ. | શ્રી નવીન્નાથ મંવારમ
260 ગુજ. | પૂ. વરાન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પાર્શ્વનાથ શાસ્ત્રી
910 सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा
436 ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન કોશી
336 | ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન તોશી |
230 સં. | પૂ. મે વિનયની
પૂ.સવિનયન, પૂ.
पुण्यविजयजी | आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 560
088 .
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089 એ%ચતુર્વિશતિકા 090 સમ્મતિ તક મહાર્ણવાવતારિકા
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
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संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार-संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची।यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम पुस्तक नाम
कर्ता/टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक |91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यादवाद रत्नाकर भाग-३ वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना स्यावाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना 96 पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
सं./अं साराभाई नवाब 97 समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
| भोजदेवसं . टी. गणपति शास्त्री समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव
टी. गणपति शास्त्री 99 . | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
सं. वेंकटेश प्रेस | 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. सुखलालजी भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा हिन्दी मुन्शीराम मनोहरराम 102 शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर
ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी
आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मतितर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी सन्मतितर्क प्रकरण भाग-४,५ सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी
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जैन लेख संग्रह भाग - १
जैन लेख संग्रह भाग - २
जैन लेख संग्रह भाग - ३
जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
जैन प्रतिमा लेख संग्रह
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाह
कांतिसागरजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
प्राचिन लेख संग्रह - १
बीकानेर जैन लेख संग्रह
प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -२
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -३
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-१
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-४
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल
कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
विजयदेव माहात्म्यम्
पी. पीटरसन
जिनविजयजी
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं./गु
सं. गु
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं. गु
सं./गु
सं./गु
अं.
अं.
अं.
सं.
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
अरविन्द धामणिया
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक
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NYAYASARAH
A RARE BRAHMANIC WORK ON MEDIEVAL LOGIC
BY ÄCARYA BIĀSARVAJNA
Together with the commentary culler NYAYATÄTPARYADIPIKĀ
BY
JAYASIMHA SÜRI.
EDIIRD HY
MAHĀBAHOPADHYAYA SATIS CHANDRA VIDYA BHUSANA,
M.A., Pit.l), Professor of Sanskrit al Puli, Presidency Onley, Calenitu; Joint l'hivlogical Secretary, Asiatic Society of Dengal ,
and Fellow of the Calcutta University.
PRIXTED BY UPENDRA NATHA CSAKRAVARTI, AT THB SANSKRIT PRESS
No. 5, Nandakumar Chaudhury's 2nd Lane,
AND
PUBLISFED BY THE ASIATIC SOCIETY, 37, PARK STREET, CALCUTTA,
1910
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आचायभासर्व्वज्ञप्रणीत:
नवायसारः
जयसिंहसूरिविरचितया
नायतात्पर्यदीपिका
समाख्यया टोकया सहितः
महामहोपाध्याय
श्रीयुक्त सतीशचन्द्र विद्याभूषणेन परिशोधितः ।
कलिकाताराजधान्याम्
संस्कृतयन्त्रे
श्रीउपेन्द्रनाथचक्रवर्त्तिना मुद्रितः ।
शकाब्दाः १८३२ ।
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INTRODUCTION.
The text of Nyayasara and the commentary on it called
Mss. of Nyayatatparyadipika printed in this volume are based on the undermentioned manuscripts :
Nyayasarn
A. Nyayasara no. III. F. 305 belonging to the Asiatic Society of Bengal.
B. Nyayasara no. 821 belonging to the Asiatic Society of Bengal.
C. Nyayasara belonging to the Sanskrit college, Calcutta. D. Nyayatatparyadipika belonging to the Yasovijaya Jaina Pathasala, Benares.
E. Nyayatatparyadipika procured from Bombay through Sastravisarada Jainacarya Vijayadharma Sari and his pupil Indravijaya.
The Nyayasara occupies a remarkable position in the history of Indian Logic. I have stated elsewhere that the Nyayasutra (circa 500-300 B. C.) by the Brahmanic sively by the sage Aksapada Gautama is the first regular work on
Medieval Logie nourished exclu
Buddhists
and Jainas.
Aucient Logic while the Pramanasamuccaya (about 500
A. D.) by the Buddhist sage Dignaga and the Nyayavatara (about 533 A. D.) by the Jaina sage Siddhasena Divakara (Ksapanaka ) are the standard works on Medieval Logic. In the Nyayasutra Aksapada stated, defined and examined sixteen categories, viz. 1. means of right knowledge (##), 2. object of right knowledge (a), 3. doubt (a), 4. purpose (nate), 5. familiar instance (gr), 6. established tenets (før 1, 7. members of a syllogism (a), 8. hypothetical reasoning (a), 9. ascertainment (f), 10. discussion (1), 11. wrangling (), 12, cavil
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( FATTET), 13. fallacies (Barute ), 14. quibbic ( ar), 15. Siitility ( fe), and 16. occasion for rebuke (forma). Dignaga and Siddhasena on the other hand in their works took up only one of the sixteen categories, viz, pramana ( 14 ) and elaborated it in such a way that it might include other catogories as far as these were consistent with the science of general knowledge. Inference, a kind of pramana, which was very briefly noticed by Akmpada, received a full treatment at the hands of Dignaga and Siddhasena. Great subtleties were introduced by them into the theory of syllogism, definition of terms etc. They rejected prameya ( 2 ), in which Aksapada included sense-organs (free), objects of sense (), body (3), mind ( 4a:), soul ( ), birth ( 7 ), death (FRA, etc, on the ground that it was useless in Forks on Logic to specify the objects of knowledge. The science of Logic as modified in this way was called Medieval Logic which was almost entirely in the hands of the Buddhists and Jainas. During 500--1200 A 1), the Buddhist and Jaiva writers * produced numerous treatises on Logic in this new style while the Bralimavic writers suck as Vatsyayana, Udyotakara, Vacaspati and Udayana continued to follow the old system of Aksapada or whose Nyayasatra they wrote a series of glosses,
Among the Brahmanas there was only one person who imbibed the influence of the Buddhist and Jaina logiciars. This person was
Bhasarvaj itu the celebrated anthor of Nyarasara which Kyayasara, is published in this volume. Following the method a rare Brahmanie work current in his time Bhasarvajta treated in his Nyayaon Medieval Logic.
val sarı only one topic, viz. pramana which he divided
into three kinds--perception (ory!, inference ( T17 ) and verbal testimony (*** )---As a contrast to Aksa pada who recognised a fourth kind named comparison ( 3 7 ). This
* For the Jaina and Buddhist Logic vide my "History of the Medieval School of Indian Logic" published by the University of Caleutta, 1909.
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threefold division of pramana brought Bhasarvajna close to the Sankhyas and Jainas but distinguished hina from the Buddhists who recognised only two kinds, viz. perception and inference, Like the Buddhist and Jaina writers Bhasarvajšia divided inference into that for oud's self ( f ) and that for the sake of others
Tutqun ), and like them he gave an account of the fallacies of rumur term (YTHI ), the fallacies of example ( TETRIHTT) ctc. Quibble ( ), futility i ifa) ctc., which had been the prominent topics in the Vyayasútril, were not altogether overlooked by Bhusarvajña who dealt with them iu connection with the inference for the sake of others. Under inference there was also an elaborate treatment of discussion' (called in Sanskrit par or ) which was to be carried on between a disputant ( CET) and his opponent (afatet) in the presence of members (Tm or affe* questioners) under the guidance of a President ( r ufa). Salvation (13)* was defined by BhagarFajña as the soul's final deliverance from pain and attainment of eternal pleasure. In this respect he agreed with a certain class of Mimamsakas (e. g. Bhatta ) who affirmed that pleasuro could be eternal but differed from Afesapada who denied the oternality of pleasuce,
The Nyayasara contains extracts from the Brihadaranykop nisad, † Prasnopanisad † and Syctasvataropanisad. There are
* अमेन सुखेन विशिष्टा बास्यन्तिको दुखनिवृत्तिः पुरुषस्य मोक्ष रति
(Nyayasara, P. 41 ). + T ATT FT: Stan warait fafewarfedaafar ( Brihadaranyaka quoted in Nyayasara, P. 36 ).
* हे ब्रह्माणी वेदितव्ये परं चापरं चेति ( Prasnopanisad quoted in Nyayasura, P. 35).
AT TIETETT a fewf* 1997: 1 El frufe given tofau ( Svotasvataropa
pisaud quoted in Nyayasara, P. 39).
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passages from the Bhagavadgita * is also from the Mahabharata | already quoted by Sankara in the Vedautabbusya.
Nothing is definitely known about the age in which Bhasarvajnu flourished or the country which he adorned by his birth. As the
reputed author of Nyayasara he is mentioned by the Bhasarrajnn, Jaintu sages Gunaratha t (1409 A. D. ) and Rajahis age and birth place. sckhara ** ( 1348 A, D. ) ft. During their times there
were alrendy eighteen commentaries on the Nyayusara. One of them is named Nyayabhusana which I believe to be identical with the work of samo namo quoted by the Buddhist sage Ratna
सुखमान्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिपाहमतीन्द्रियम् ( Bhagavadgita
quoted in Vyayasara, P. 40 ). आत्मनो वै शरीराणि बइनि मनुजेश्वर । प्राप्य योगबलं कुर्यात् तै कलां महीं चरेत् ॥ भुञ्जीत विषयान् कश्चित् कैश्चिदुयं तपश्चरेत् ।
संहरेच पुनस्तानि सूर्य तेजोगणानिव ॥ ( Mahabharata quoted by Sankara in the Vedantabhasya and requoted in Nyayasara, P. 37 ).
* भासर्वज्ञप्रणीते न्यायमारेऽष्टादशटीकाः। तासु मुख्या टीका न्यायभूषणाख्या न्यायकलिका जयन्नरचिता न्यायकुसुमाञ्जलितर्कश्च ।
(Gunaratna's Salılarzana-vritti edited by Dr L. Sunli, l'. 94 ). भासर्वचो न्यायसारतर्कसूवधिधायकः । न्यायसाराभिधे तर्के टोका अष्टादश स्फटाः ॥
न्यायभूषणनाम्नी तु टीका तासु मिद्धिमाक । (Saddlilsinasamnccaya hny Maladbari Rajasekhara Suri pullished in the Yasovijaya Jaina graptbamala, Benares ;.
शरगगनमनुमिताब्दे ज्येष्ठामतीय धवल सप्तम्याम् । निष्पन्न मिदं शास्त्र श्रीलध्ये त्रोः सुखं तन्यात् ॥ . (Caturvimsatirabandu ly Maladhari Rajasekhara Suri. Prasasti).
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[ 5 ]
kirti,* preceptor of Ratnakara Santi who lived about 983 A. D. + This is therefore the latest date that we can assign to Bhasarvajna. The earliest limit may be fixed at 650 A. D. when there lived tho the Buddhist logicinu Dharmakirti whose controversy about the fallacy of "100-erroneous contradiction" (fotrafwortti seems to have been referred to in the Nyayasara. On various other considerations I ain inclined to believe that Bhasarvajna lived about 900 A. D.
Ile appears to me to have been a native of Kasmira. His name, which is very peculiar, bears close resemblance to that of Sarvajamitra who lived in Kasmira about 750 A. D., of Sarvajnadeva $ who lived about 899 A.D., and of Bhagvaniu who lived in Guzerat about 600 A. D. Bhasarvajna flourished at a time when the
* Ratnakirti observes :- 14 PIAVì Haifecyü 854कार्याशेषवस्तुराशियहणप्रसजनमुनं तदभिप्रायानवगाहन फलं तथा हि तन्मते rufaa *Tata Taraf:
(Ratnakirti's Apohasiddhi edited by M. M. Iara Prasad Sastri, P.11). + Vide my "History of the Mulieval School of Indian Logic" published by the University of Calcutta, P. 140.
Dharmakirti observes :-faturafwortt for m : TTF #Wahits wisata i
( Nyayalıindlu edited by Peterson, P. 115 ). Bhasarvajna writes :-**7 danafuastafaarat facer sufwerttal a faitą fania utafafal T
fanta AITĘ feriaugina ATOUTTAą u grafiratua amat safe antifuraffa
( Nyayapura, P. 12). 1 Vide my edition of Sragdharastotram published in the Bibliotheca Iudica kerier, lutsoduction, P- XXX. § Vile my "History of the Medieval School of Indian Logic Pr. 13. a.
Vide my "History of the Mediuval School of Indiau Logie", p. 22.
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[6]
Buddhist Logie * attained its highest developinent in Kasmira, and it is very suggestive that many of the manuscripts of Nyayasara and its commentaries have been recovered from Kasmira or its neighbouring provinces. About 900 A. D. Saivism and Buddhism Hourished there side loy side, and Bhasarvajia who was a Saivite opened his work with a salutation † to Siva and ended it with the conclusion that sillvatioy I could be attained only by seciug Siva. Comments of the eighteen commentaries 9 on Nyāyasāra enu
lies on Nyanyasura, merated by Jaina writers some are noticed below :
1. Nyayabhusana the oldest commentary mentioned by Maladhari Rajasekhara and Gunaratua and quoted by the Buddhist sage Ratnakirti in lnis Apobasiddhi ( about 983 A. D.) and by the Jaina suge Jayasimha Suri in his Nyayatatparyadipika. No manuscript of it has yet been recovered.
2. Nyayukalika ly Jayanta named by Gunaratna in the Saddarsanasamuccayavritti ( 1409 A. D. ). No manuscript of it has yet been recovered.
3. Nyayakusumanjalitarka mentioned by Gunaratna in the Saddarsanasamuccayavritti ( 1409 A, D.). No manuscript of it has yet been recovered.
4. Nyayasaratika hy Vijnyasimha Gani. A manuscript of it has been recovered from Bikaneer (Vide S. R. Bhandarkar's Catalogue of mss. in the Deccan College, 1888, p. 58 ).
* Vide my “Iristory of the Medicval School of Indian Lagio."
NA TA! 11: qfå ut
FITFT EHITT: 1 feguati wafariga
#v acayavi ( Nyayasara, p. 1. )
#f dam fai (Nyayasara, p. 39 ). . Vidu Rajasekhara's Saddarzana-samuccaya and Gunaratna's Saddarxanakainuccizavritti.
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[ 7 ]
5. Nyayasaratika by Jayatirtha. ( Vidc India office Catalogue, no. 213. 2412).
6. Nyayasurapudapujika by Vasudeva. A manuscript of it bas been recovered from Kasmira. ( Vide S. R. Bhandarkar's Catalogue of mss. in the Deccan college, 1885, p. 95. Another Manuscript of it written in Kasmiri character is to be found in the library of the Asiatic Society of Bengal bearing no. 1552. In the Opening lines *Vasudeva speaks of himself as the author of the work and in the colophon he is stated to be a native of Kasmira.
7. Nyayasaravicara by Bhatta Raghava. A manuscript of it dated t Saka 1174 or A. D. 1312 is contained in the library of the Queen's college, Beuares,
8. Nyayatatparyadipika by Jayasimha Suri printed in this volume. &c.
e.
&c. The Nyayatatparyadipika is a very learned commentary referr.
* The opening lines of the Nyayasarispadapanjika run as foilows :
देवदेवमभिवन्दा भाखरं योगिहन्दहृदयकमन्दिरम् । वासुदेवविदुषा विरथते
न्यायसारपदनिका मया ॥ † The Nyayasaravicara ens as follows :
शके चम्सप्ततिसंख्यके शतैः शताधिकैरभ्यधिके व पञ्चभिः । विधातितमल बसूब वारैः
भूर्व विचार: परिमाधि राधयः॥ इति सारंगसुतवाहीन्द्रमियन्यायनिपुणतर्कविचारचतरमहराधविरचिते
न्यायमारविचारे हतीया परिषदः समाप्तः ॥ The varse may be interpreted to give Saka 1174 ( A. D. 1252) rSaka 1274 1352 A. D.),
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[ 8 ]
ing frequently to the views of Bhusanakara whom I take to be the author of Nyayabhusana. There are also quotations Nyayatat- from Vacaspati Misra, author of Tattva Kaumudi paryadipika. (976 A. D. ),* Hemacandra Sûri, author of Yogasastra ( 1088-1172 A. D. ). Bhattacaryya (perhaps the same as Kumarila Bhatta) and others. I have not yet been able to identify the person designated as Laghunaiyayika ta light logician). There are references to Advaitavadiu, Aksapada, Aulukya, Kalidasa, Kanada, Sutrakara, Vartikakara, Prasastapada, Vyasa, Bharata and others a complete list of whom is to be found in the index of words at the end of the volume. Jayasimha Suri, author of Nyayatatparyadipika, was a Jaina Jayasimha of the Svetambara sect. He calls himself a disciple Suri, anthor of Nyayatatof Mahendra Suri of Krsnarsi Gaccha, and is menparyadipika. tioned by Nayacandra Suri in the Hammira mahakavya † as follows :
न्यायसूचीनिबन्धोसावकारि सुधियां मुदे | त्रोवाचस्पतिमिश्रेण वखङ्कवत्रसरे ॥
( Nyaynsucinibandha, p. 26, eulited by Pandit Vindhyesvari Prasad ). श्रीकृष्ण मि हे मुकुटको मन्महेन्द्रप्रभोः शिष्योजयसिंहरिरखिल प्रामाणिक ग्रामणीः 1 एतां निर्मितवान् परोपकृतये श्रीन्यायसाराश्रितां स्पष्टा विद्वतिं कृपापरश्यैः सेवा विशोध्या बुधैः ॥
( Nyayatatparyadipika, p. 295 ).
जयति जनितपृथ्वीसंमदः कृष्णगच्छो विकसितनवजाती गुच्वत् स्वच्छमूर्त्तिः । विविबुधजनाली भृङ्गसंगीतकीर्त्तिः लतवसतिरजस्त्र मौलिषु छेकिलानाम् ॥ २५ ॥ तस्मिन् विस्मयवासवेश्मचरित श्रीरिचके क्रमात् जज्ञे श्रोजयसिंहरिगुरुः प्रज्ञालचूड़ामणिः । षटभाषा कविचक्रशक्रमखिलप्रामाणिकाप्रेसरं सारणं सहसा विरङ्गमतनो यो वादविद्याविधौ ॥ २३ ॥ (Hammira mahakavya, Chap. XIV, P. 132, edited by N. J. Kirtane at Bombay).
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*Glory to Krsna Circcha, the delightener of the earth, whose person was transpirent like a blooming bunch of fresh Jati flowers, ashose fume was sung by series of learned men resembling humuing bees and who ever resided on the crowus of pious Jaivas. In the circle of Suris, whose actions were the homes of wonders, there was baru in course of time Jayasimha Suri, the crest-ren of the wise, who vamquished in disputation Saranga the foremost of authorities that shone as Imat in the circle of poets able to write in six Janguages."
Jayasinha Suri was in fact the spiritual yraud-father of Nayacantat the author of tumira mahakavya. So in chapter XIV of the mahakilvya * we read :
"Nayacandra Suri was in lineal descent the grand-son of poet Juyasimha Suri but iu respect of poetical compositious his son,"
Jayasimha Suri lived in the 14th contury t. D. is liis Kumarapelixcuritru ţ is dateci suruvat 1429 or A. D. 1363.
पौलोऽथयं कविगुरोर्जयसिंहसूरेः काव्येषु पुवतितमां नयचन्द्रसूरिः। tappearezza19245f3ffazidfacaulaTuHY
( IFaramira mahakavya, Chap. XIV, P. 138 ), श्रीविक्रमन्टपाद विवि मन्वन्देश्यमजायत । पन्थः समप्तत्रिशतोषटमहनाण्य नुष्टुभाम् ।
( K
arajlacaritra prasasti, Chap. X).
CALCUTTA, AUGUST, 1910.
SATIS CHANDRA VIDYABIIUSAX4.
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CONTENTS. प्रत्यक्ष परिच्छेदः।
विषयाः
नमस्कारः
प्रमाणम् प्रत्यक्षम् अयोगिप्रत्यक्षम् योगिप्रत्यक्षम्
पृष्ठाः न्याय सारस्य । न्याय तात्मयं दीपिकायाः।
४३~-५५ ... १-२ ५५---११ ... २-४
७१.८६
। ७२-८२ ३-४ ८२-८६ अनुमान परिच्छेदः।
अनुमानम् अन्वयव्यतिरेक भेद: ... स्वार्थपरार्थ भेदः সনিম্না हेतुः हेत्वाभासा: उदाहरणम् उदाहरणाभासाः उपनयः निगमनम् नियः
८७-८० ८०-८३ ८३-८५ ८६-८८
८८-११० ११०–१३५ १३५---१३८ १३८--१४४ १४५---१४७ १४०-१५१
१३ ....१४
१४८
कथा
१५-१६
वादः
१५१-१५८ १५३-१५७ १५८--१६०
जल्पः
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।।
वितण्डा
१६
छलम् जातिः निग्रहस्थानम्
१६०-१६१ १६१ ----१६६ १६७-१८१ १८१--२०८
१७---२३
२३-२८ आगम परिच्छेदः ।
भागमः दृष्टादृष्ट भेदः त्रीण्येव प्रमाणानि उपमानम् अर्थापत्तिः सम्भवः
२०८-२१० २१०-२२२ २२२ २२३-२३०
३२-३३
अभाव:
m mmmmmmmm IR
ऐतिह्यम्
२४२ २४२-२४६ २४० २४७-२४८ २४०-२५०
चेष्टा प्रमेयम् तस्य चातुर्विध्यम् हेयं ( दुःखम् ) तत्रिवर्तकम् हानम् तदुपाय: आत्मन् उपासनविधिः मोक्ष:
२५०
३४ ३४-३५ ३५
जEFocom AM
२५१-२५२ २५२-२५३ २५३ २५३-२५४ २५४-२७२ २०३-२८१ २८२-२६५
३८-३९
३८ - ४१
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नायसारः।
recome------
प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
गणपतये नमः।
प्रणम्य शम्भुं जगत: पतिम्परं समस्ततत्त्वार्थविदं स्वभावतः । शिशुप्रबोधाय मयाभिधास्यते
प्रमाणत दतदन्यलक्षणम् ॥ सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्। सम्यग्ग्रहणं संशयविपर्यायापोहार्थम्। तत्रानवधारणज्ञानं संशयः । स च समानधमानेकधर्मविप्रतिपत्त्युपलब्धानुपलब्धिकारणभेदात् पञ्चधा भिद्यते। तद्यथा । समानधर्मात् किमयं स्थाणुः स्यात् पुरुषो वेति। अनेकधर्मादाकाशविशेषगुणत्वात् किमयं शब्दो नित्यः
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न्यायसारः ।
स्यादनित्यो वेति । विप्रतिपत्तेरेके भौतिकानीन्द्रियाण्याहुः अन्येत्वभौतिकानीति । उपलब्धः किं सद्दकमुपलभ्यते उतासदिति । अनुपलब्धेः किं विद्यमानोऽपि पिशाचो नोपलभ्यते उताविद्यमान इति । अनवधारणत्वाविशेषादूहानध्यवसाययोर्न संशयादर्थान्तरभावः । तद्यथा । वाद्यालीप्रदेशे पुरुषेणानेन भवि तव्यमित्यूहः । किंसंज्ञकोऽयं वृक्ष इत्यनध्यवसायः । मिथ्याध्यवसायो विपर्ययः । तद्यथा । हौ चन्द्राविति सुप्तस्य गजादिदर्शनं चेति । स्मरणज्ञानव्यवच्छेदार्थमनुभवग्रहणम् । प्रमातृप्रमेयव्यवच्छेदार्थं फलादज्ञापनार्थञ्च साधनग्रहणम् । सम्यगनुभवः प्रमा | प्रमाश्रयः प्रमाता । प्रमाविषयः प्रमेयमिति ।
तत्रिविधं प्रमाणं प्रत्यक्षमनुमानमागमश्चेति । तत्र सम्यगपरोक्षानुभवसाधनं प्रत्यक्षम् । तद्दिविधम् योगिप्रत्यक्षमयोगिप्रत्यचञ्चेति । तत्रायोगिप्रत्यक्षं प्रकाशदेशकालधम्माद्यनुग्रहादिन्द्रियार्थ सम्बन्ध विशेषेण स्थूलार्थग्राहकम् । तद्यथा । चक्षुः स्पर्शनसंयोगाद् घटादिद्रव्यज्ञानम् । संयुक्तसमवायात्ताभ्यां घटत्वसंख्यापरिमाणादिज्ञानम् । चक्षुषैव रूपज्ञानम्
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः । रसनेनैव रसज्ञानम् । घ्राणेनैव गन्धज्ञानम्। स्पशनेनैव स्पर्शज्ञानम्। श्रोत्रेणैव शब्दज्ञानम् । मनसैव मुखादिज्ञानमिति। एतेषु संख्यादिष्वाश्रितानां सामान्यानां खाश्रयग्राहकैरिन्द्रियैः संयुक्तसमवेतसमवायाद्गहणम्। श्रोत्रसमवायाच्छब्दग्रहणम् । तदाश्रितसामान्य ग्रहणं समवेतसमवायादिति। तदेतत् पञ्चविधसम्बन्धसम्बन्धिविशेषण विशेष्यभावात् दृश्याभावसमवाययोग्रहणम् । तद्यथा । घटशून्यं भूतलम् । इह भूतले घटो नास्तीति । एवं सर्वत्रोदाहरणीयम् । समवायस्य तु क्वचिदेव ग्रहणाम् । यथा रूपसमवायवान् घटः। घटे रूपसमवाय इति ।
योगिप्रत्यक्षन्तु देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थग्राहकम्। तदिविधम् । युक्तावस्थायामयुक्तावस्थायाञ्चति । तत्र युक्तावस्थायामात्मान्त:करणसंयोगादेव धादिसहितादशेषार्थग्राहकम् । वियुक्तावस्थायाञ्चतुष्टयत्रयइयसन्निकर्षाद्गृहणम् । यथासम्भावनं योजनीयम् । अवैवार्षमप्यन्तर्भूतं प्रकृष्टधर्मजत्वाविशेषादिति। तच्च द्विविधं सविकल्पकं निर्विकल्पकं चैति। तत्र संज्ञादिसम्बन्धोल्लेखन ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं सविकल्प
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न्यायसारः ।
कम् । यथा देवदत्तोऽयं दण्डीत्यादि । वस्तुस्वरूपनिर्विकल्पकं यथा प्रथमाच
मात्रावभासकं
सन्निपातजं ज्ञानम् । युक्तावस्थायां योगिज्ञानञ्चेति इति प्रत्यचपरिच्छेदः ॥
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अनुमानपरिच्छेदः ।
@tow
सम्यगविनाभावेन परोक्षानुभवसाधनमनुमानम् ।
1
स्वभावत: साध्येन साधनस्य व्याप्तिरविनाभावः । स द्विविधः । अन्वयव्यतिरेकभेदात् । तत्र साध्यसामान्येन साधनसामान्यस्य व्याप्तिरन्वयः । साधनसामान्याभावेन साध्यसामान्याभावस्य व्याप्तिर्व्यतिरेकः । साधनं लिङ्गम् । तद्दिविधम् । दृष्टं सामान्यतोदृष्टञ्चेति । तत्र प्रत्यक्षयोग्यार्थीनुमापकं दृष्टम् । यथा धूमोऽग्नेरिति । स्वभावविप्रकृष्टार्थानुमापकं सामान्यतोदृष्टम् । यथा रूपादिज्ञानञ्चक्षुरादेरिति ।
1
तत् पुनः द्विविधम् । स्वार्थं परार्थं चेति । परोपदेशानपेक्षं खार्थम् । परोपदेशापेक्षं परार्थमिति परोपदेशस्तु पञ्चावयववाक्यम् । प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः । तत्र प्रतिपिपादयिषया पक्षवचनं प्रतिज्ञा यथा नित्यः शब्द इति । साधनत्वख्यापकं लिङ्गवचनं हेतुर्यथा तौत्रादिधम्मोपेतत्वादिति । स विविधः । अन्वयव्यतिरेकी केवलान्वयी केवल
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न्यायसारः।
व्यतिरको चेति। तत्र पञ्चरूपोऽन्वयव्यतिर की। रूपाणि तु प्रदर्श्यन्ते। ___ पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षाघात्तिरबाधित. विषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वं चेति । तत्र साध्यधर्मविशिष्टो धर्मों पक्षः। तत्र व्याप्यत्तित्वं हेतोः पक्षधर्मत्वम् । साध्यसमानधमा धर्मी सपक्षः। तत्र सर्वस्मिन्नेकदेश वा हेतोवृत्तिः सपक्षे सत्त्वम्। साध्यव्यावृत्तधर्मा धर्मी विपक्षः। तत्र सर्वस्मिन् विपक्षे हेतोरवृत्तिविपक्षाद्यावृत्तिः। प्रमाणाविरोधिनि प्रतिज्ञातार्थे हेतोवृत्तिरबाधितविषयत्वम्। साध्यतविपरीतयोः साधनस्याविरूपत्वमसत्प्रतिपक्षत्वमिति। स हिविधः सपक्षवृत्तिभेदात् । तद्यथा। अनित्यः शब्दः कार्यत्वादिति सपक्षव्यापकः । सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिवाद्येन्द्रियग्राह्यत्वादिति सपतैकदेशवृत्तिः । पक्षव्यापकः सपत्तिरविद्यमानविपक्षः केवलान्वयो। स च पूर्ववविविधः । तद्यथा। विवादास्पदीभूतान्यदृष्टादीनि कस्यचित्प्रत्यक्षाणि प्रमेयत्वात्करतलामलकवदिति सपक्षव्यापिका सैव प्रतिज्ञा। मौमांसकानां प्रत्यक्षत्वादरमत्मुखादिवदिति। सपक्षकदेश
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अनुमानपरिच्छेदः। वृत्तिः पक्षव्यापको विद्यमानसपक्षो विपक्षायावृत्तः । केवलव्यतिरेकी यथा सर्व कार्य सर्ववित्कर्तृपूर्वकं कादाचित्कत्वात् । यत् सर्ववित्कर्तृपूर्वक नं भवति तत्कादाचित्कमपि न भवति। यथा आकाशादि। प्रसङ्गहारेण वा यथा नंदं निरात्मकं जौवच्छरीरम् अप्राणादिमत्त्वप्रसङ्गात् लोष्ट्रवदिति । एतेन हेत्वाभासानामहेतुत्वमुक्तं भवति ।
हेतुलक्षणरहिता हेतुक्दवभासमाना हेत्वाभासाः । ते चानेकप्रकाराः । असिद्ध-विरुद्धानकान्तिकानध्यवसितकालात्ययोपदिष्टप्रकरणसमाः। तत्रानिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्धः । पक्षविपक्षयोरेव वर्तमानो हेतुविरुद्धः । पक्ष-सपक्ष-विपक्षवृत्तिरनैकान्तिकः। साध्यासाधकपक्षएव वर्तमानी हेतुरनध्यवसितः । प्रमाणबाधिते पक्षे वर्तमानी हेतुः कालात्ययोपदिष्टः । खपक्षपरपक्षसिद्धावपि विरूपो हेतुः प्रकरणसमः । यद्यपि चैषां सूक्ष्मो भेदोऽनन्तत्वान्न शक्यते वक्तुं तथापि स्थूलदृष्टिमाश्रित्य कियन्तो भेदाः प्रदश्यन्ते ।
असिद्धभेदास्तावत् । स्वरूपासिद्धो यथा अनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वात् । व्यधिकरणासिद्धो यथा । अनित्यः
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न्यायसारः।
शब्दः घटस्य कृतकत्वात् । विशेष्यासिद्धो यथा । अनित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सति चाक्षषत्वात । विशेषणासिद्धो यथा। अनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वे सति सामान्यवत्त्वात् । भागासिहो यथा । अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्। माश्रयासिद्धो यथा अस्ति प्रधानं विश्वपरिणामित्वात्। आश्रयैकदेशासिद्धो यथा। नित्याः प्रधानपुरुषश्वराः अकृतकत्वात् । व्यर्थविशेष्यासिद्धो यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वे सति सामान्यवत्त्वात् । व्यर्थविशेषणासिद्दी यथा। अनित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सति कृतकत्वात् । सन्दिग्धासिद्धो यथा धूमवाष्पाद्यविवेकनानिश्चये कश्चिदाह अग्निमानयं प्रदेशो धूमवत्त्वात् । सन्दिग्धविशेष्यासिद्धो यथा। अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः पुरुषत्वे सत्यनुत्पन्नतत्त्वज्ञानत्वात् । सन्दिग्धविशेषणासिद्धो यथा। अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः सर्वदा तत्त्वज्ञानरहितत्वे सति पुरुषत्वात्। विरुद्ध विशेष्यासिद्धो यथा अनित्यः शब्दः अमूर्त्तत्व सत्यकृतकत्वात्। विरुद्ध विशेषणासिद्धी यथा अनित्यः शब्दः अकृतकत्वे सत्यमूर्त्तत्वात्। एते ऽसिद्धभेदा यदोभय
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अनुमानपरिच्छेदः । वाद्यसिदत्वेन विवक्षितास्तदोभयासिद्धा भवन्ति । यदा त्वन्यतरवाद्यसिद्धत्वेन विवक्षितास्तदान्यतरासिद्धा भवन्ति ।
विरुद्धभेदास्तु सति सपक्षे चत्वारो विरुद्धाः । पक्षविपक्षव्यापको यथा। नित्यः शब्दः कार्यत्वात् । विपक्षकदेशवृत्तिः पक्षव्यापको यथा। नित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सत्यम्मदादिवाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात् । पक्षविपक्षकदेशत्तियथा। नित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात । पक्षकदेशवृत्तिविपक्षव्यापको यथा। नित्या पृथिवी कृतकत्वात्।
असति सपक्षे चत्वारो विरुद्धाः। पक्षविपक्षव्यापको यथा। आकाशविशेषगुणः शब्दः प्रमेयत्वात् । पक्षविपक्षकदेशवृत्तिर्यथा। आकाशविशेषगुणः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात। पक्षव्यापको विपक्षकदेशवृत्तियथा। आकाशविशेषगुणः शब्दो वाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात् । विपक्षव्यापकः पचैकदेशवृत्तियथा । आकाशविशेषगुणः शब्दः अपदात्मकत्वात् ।
ननु चत्वार एव विरुद्धभेदा नान्ये तेषामसिद्धलक्षणोपपन्नत्वात् । नैष दोषः। उभयलक्षणोपपन्न
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न्यायसारः ।
लेनोभयव्यवहारविषयत्वात्। तुलायां प्रमाणप्रमेयव्यवहारवत् ।
अनैकान्तिकभेदास्तु । पक्षत्रयव्यापको यथा । अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात्। पक्षव्यापको विपक्षसपलैकदेशवृत्तिर्यथा। अनित्यः शब्दः प्रत्यक्षत्वात् । पक्षसपक्षव्यापको विपतैकदेशवृत्तिर्यथा। अयं गौविषाणित्वात्। पक्षविपक्षव्यापकः सपक्षविपक्षकदेशवृत्तिर्यथा। नायं गौविषाणित्वात् । पक्षत्रयैकदेशत्तियथा। अनित्या पृथिवी प्रत्यक्षत्वात् । पक्षसपक्षकदेशत्तिर्विपक्षव्यापको यथा। द्रव्याणि दिक्कालमनांसि अमूर्तत्वात्। पक्षविपक्षैकदेशवृत्तिः सपक्षव्यापको यथा। न द्रव्याणि दिक्कालमनांसि अमूर्त्तत्वात्। सपक्षविपक्षव्यापकः पनैकदेशवृत्तियथा । न द्रव्याण्याकाशकालदिगात्ममनांसि क्षणिकविशेषगुणरहितत्वात् ।
अनध्यवसितभेदास्तु। अविद्यमानसपक्षविपक्षः पक्षव्यापको यथा। सर्वमनित्यं सत्त्वात् । अविद्यमानसपक्षविपक्षः पक्षकदेशत्तियंथा। सर्वमनित्यं कार्यत्वात्। विद्यमानसपक्षविपनः पक्षव्यापको
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अनुमानपरिच्छेदः । यथा । अनित्यः शब्दः आकाशविशेषगुणत्वात् । विद्यमानसपक्षविपक्षः पचैकदेशवृत्तिर्यथा । सर्व्वं द्रव्यमनित्य' क्रियावत्त्वात् । अविद्यमानविपक्षो विद्यमानसंपक्षः पक्षव्यापको यथा । सर्व्वं कार्य्यं नित्यं उत्पत्तिधर्मकत्वात् । अविद्यमानविपक्षो विद्यमानसपक्षः पचैकदेशवृत्तिर्यथा । सर्व्वं कार्य्यं नित्यं सावयवत्वात् । *[ अविद्यमानसपतो विद्यमानविपक्षः पचैकदेशवृत्तियथा । आकाशविशेषगुणः शब्दः अपदात्मकत्वात् । ]
कालात्ययोपदिष्टभेदास्तु | प्रत्यक्षविरुद्धो यथा । अनुष्णोऽयमग्निः कृतकत्वात् । अनुमानविरुद्धो यथा । अनित्याः परमाणवो मूर्त्तत्वात् । आगमविरुडो यथा । ब्राह्मणेन मुरा पेया द्रवद्रव्यत्वात् चौरादिवत् । प्रत्यचैकदेशविरुst यथा । सव्र्व्वं तेजोऽनुष्णां रूपित्वात् । अनुमानैकदेशविरुद्धो यथा । नित्याश्रयाः द्रवत्वरूपरसगन्धस्पर्शा नित्या: अप्रदेशवृत्तिसमानजात्यारम्भकत्वे सति परमाणुवृत्तित्वात् तद्गतैकत्ववदिति । चागमैकदेशविरुद्धो यथा । सर्व्वेषां देवर्षीणां शरीराणि पार्थिवानि शरीरत्वादस्मदादिशरीरवदिति ।
* The portion bracketed is omitted in mss. C
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न्यायसारः।
प्रकरगासमस्योदाहरणं यथा। नित्यः शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात् गगनवदिति । एकत्र तुल्यलक्षणविरुद्धहेतुद्दयोपनिपातो विरुडाव्यभिचारीव्येके। यथा नित्यमाकाशं अमूर्त्तद्रव्यत्वात् आत्मवदिति। एवमनित्यमाकाशमम्मदादिवाद्येन्द्रियग्राह्यविशेषगुणाधारत्वात् घटवत् । स खलु पुरुषविशेषमपेक्षमाणो हेत्वाभासो भवति अन्यतरासिद्धवदिति।
सम्यग्दृष्टान्ताभिधानमुदाहरणम् । तद्दिविधम् । साधोदाहरणं वैधयोदाहरणं चेति। तत्रान्वयमुखेन दृष्टान्ताभिधानं साधोदाहरणम् । यथा अनित्यः शब्दः तौवादिधर्मोपेतत्वात् । यद्यत्तीव्रादिधर्मोपेतं तत्तदनित्यं दृष्टं यथा मुखादि। व्यतिरेकमुखेन दृष्टान्ताभिधानं वैधयॊदाहरणम् । यथा यदनित्यं न भवति तत्तौबादिधर्मोपेतं न भवति । यथाकाशमिति । एतेनोदाहरणाभासानामनुदाहरणत्वमुक्तां भवति ।
* B reads: ---अनित्यः शब्दः पक्षपक्षयोरम्पतरस्थात् सपक्षदिति ।
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अनुमानपरिच्छेदः ।
उदाहरणलक्षणरहिता उदाहरणवदवभासमाना उदाहरणाभासाः । ते चानेकप्रकाराः । यथा अनित्यं मनो मूर्त्तत्वादित्यस्मिन् प्रयोगे सर्वे उदाहरणाभासा उच्यन्ते । यन्मूर्त्तं तदनित्यं दृष्टं यथा परमाणुरिति साध्यविकलः । यथा कर्मेति साधनविकलः । यथाकाशमित्युभय विकलः । यथा खरविषाणमित्याश्रयहीनः । घटवदित्यव्याप्ताभिधानम् । यदनित्यं तन्मूर्तं दृष्टमिति विपरीतव्याप्तग्रभिधानम् । यदनित्यं न भवति तन्मूर्त्तमपि न भवति यथा परमाणुरिति साध्याव्यावृत्तः । यथा कर्मेति साधनाव्यावृत्तः । यथा घट इत्युभयाव्यावृत्तः । यथाकाशपुष्पमित्याश्रयहीनः । यथाकाशमित्यव्याप्ताभिधानम् । यन्मूर्तं न भवति तदनित्यमपि न भवति यथाकाशमिति विपरीतव्याप्तप्रभिधानम् । इत्येतौ वचनदोषौ
१३
तत्राद्याः षट् साधर्म्यदाहरणाभासाः । इतरे वैधम्र्म्मोदाहरणाभासाः । अन्ये तु सन्देहद्वारेणापरानष्टावुदाहरणाभासान्वर्णयन्ति । सन्दिग्धसाध्यो यथा ।
* C. adds : - यथा साध्यविकलसाधनविलोभयविकलाश्रय होनाः ।
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न्यायसारः ।
माहाराज्यं करिष्यत्ययं सोमवंशोभूतत्वात् विवक्षितराजपुरुषवत् । सन्दिग्धसाधनो यथा नायं सर्वतो रागादिमत्त्वात् रथ्यापुरुषवत्। सन्दिग्धोभयो यथा । खगं गमिष्यत्ययं विवक्षितः पुरुषः समपार्जितशक्लधर्मवाद्देवदत्तवत् । सन्दिग्धाश्रयो यथा। नायं सर्वनो बहुवक्तृत्वात् भविष्यद्देवदत्तपुत्रवत् । सन्दिग्धसाध्याव्यात्तो यथा। यो माहाराज्यं न करिष्यति स सोमवंशोभूतो न भविष्यति यथाऽन्यो राजपुरुषः। सन्दिग्धसाधनाव्यात्तो यथा। यस्तु सर्वतः स रागादिरहितः यथा समस्तशास्वाभिजः । सन्दिग्धोभयाव्यात्तो यथा । यः स्वर्ग न गमिष्यति स समुपार्जितशुक्लधर्मोऽपि न भवति यथा दुःस्थः पुरुषः । सन्दिग्धाश्रयो यथा। यः सर्वजः स बहुवक्तापि न भवति यथा भविष्यद्देवदत्तपुत्रः ।
दृष्टान्ते प्रसिद्धाविनाभावस्य साधनस्य दृष्टान्तोपमानन पक्षे व्याप्तिख्यापकं वचनमुपनयः। स विविधः । साधोपनयो वैधोपनयश्चेति। तथाच तीव्रादिधर्मोपतः शब्द इति साधोपनयः । तथा तीवादिधर्मोपेतः शब्दो न भवति इति वैधोपनयः ।
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अनुमानपरिच्छेदः।
उपनयानन्तरं सहेतुकं प्रतिज्ञावचनं निगमनम् । तदपि विविधम् । साधर्म्यवैधय॑भेदात् । तस्मादनित्य एवेति साधयं निगमनम् । नचेदमनर्थकम् । साध्यविरुद्धार्थाभावप्रतिपादकप्रमाणसूचकत्वादस्य । न च तदन्तरेगा साध्यावधारणमुपपद्यते । ____ तथाचोक्तम् । विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय इति । निगमनाभिधानमसाधनाङ्गमभ्युपगम्य बाधक प्रमाणमभ्युपगच्छतो निग्रहस्थानं प्रसज्यते । निगमनाथत्वाबाधकस्य निगमनार्थविप्रतिपत्तौ बाधकप्रमाणोपन्यासो युक्तः । हेत्वर्थविप्रतिपत्ती तत्तत्माधकप्रमाणोपन्यासवदिति। सोऽयं परमो न्यायः विप्रतिपन्नपुरुषप्रतिपादकत्वात्कथाप्रवृत्तिहेतुत्वाच्च ।
वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः कथा। सा द्विविधा। वीतरागकथा विजिगीषुकथा चेति। यत्र वीतरागो वीतरागेगौव सह तत्त्वनिर्णयार्थ साधनोपालम्भौ करोति सा वीतरागकथा वादसंनयोच्यते। तथा चोक्तम्। प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो बादः । तं प्रतिपक्षहीनमपि वा कुर्य्यात् प्रयोजनार्थत्वेन । यथा
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न्यायसारः।
१६ शिष्यो गुरुणा सह प्रश्नहारेणैवेति। यत्र विजिगीषुविजिगीषुणा सह लाभपूजाख्यातिकामो जयपराजयार्थ प्रवर्त्तते सा विजिगीषुकथा। वीतरागो वा परानुग्रहार्थं ज्ञानामुरसंरक्षणार्थञ्च प्रवर्तते। सा चतुरङ्गा । वादिप्रतिवादिसभापतिप्रालिकाङ्गा । विजिगीषुकथा जल्पवितण्डासंज्ञोक्ता। तथाचाह । तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थं जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्षणार्थ कण्टकशाखावरणवदिति । ___ यथोक्तोपपन्नच्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः । स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डेति । वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्या छलम्। तत्तिविधम्। वाक्छलं सामान्यच्छलमुपचारच्छलं चेति। यथा अविशेषेणाभिहितेऽर्थे वक्तुरभिप्रायादर्थान्तरकल्पना वाक्छलम्। यथा नवकम्बलोऽयं माणवक इत्युक्ते छलकवाद्याह। कुतोऽस्य नव कम्बला इति। तस्याप्रतिपत्तिलक्षणं निग्रहस्थानं वाच्यम् । नवः कम्बलो यस्येति वक्तुरभिप्रायापरिज्ञानादुत्तरापरिज्ञानाहा *[विप्रतिपत्तिर्वा विपरीतपरिज्ञानादिति ।]
*
Portion bracketed is onnitted in msg C.
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अनुमानपरिच्छेदः ।
सम्भवतोऽर्थस्यातिसामान्ययोगादसङ्गतार्थकल्पना सामान्यच्छलम्। अहो नु खल्पसौ ब्राह्मणचतुर्वेदाभिन इत्युक्ते केनचित् न्यायवाद्याह । किमवाश्चर्यं सम्भवति ब्राह्मणे चतुर्वेदाभिज्ञत्वमिति । तव च्छलवाद्याह । न । व्रात्येनानैकान्तिकत्वात् । तस्यापि पूर्व्ववत् निग्रहस्थानं वाच्यम् । कस्माद्धेतुत्वेनाविवचितत्वात् । * किं तर्हि ब्राह्मणत्वे सति चतुर्वेदाभिज्ञत्वमाश्चर्यकारणं न भवतीत्यभिप्रायः । सुक्षेत्रे शालिसम्पत्तिवदिति । उपचारप्रयोगे मुख्यार्थकल्पनया प्रतिषेध उपचारच्छलम् । यथा मञ्च क्रोशन्तीत्युक्ते च्छलवाद्याह । पुरुषाः क्रोशन्ति न मञ्चास्तेषामचेतनत्वात् । तस्यापि पूर्व्ववन्निग्रहस्थानं वाच्यम् । उभयथा लोके शास्त्रे च शब्दप्रयोगदर्शनादिति ।
प्रयुक्ते हेतौ समीकरणाभिप्रायेण प्रसङ्गो जातिः । बहवश्वानयोः
पराजयनिमित्तं निग्रहस्थानमिति । सूक्ष्मा भेदास्तेषां कियन्तो भेदा लक्षणोदाहरणाभ्यां प्रदर्श्यन्त इति ।
*
Mss. Creads :-ब्राह्मणे चतुर्वेदाभिज्ञत्वाशङ्का कथं तर्हि ।
३
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न्यायसारः ।
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साधर्म्यवैधाभ्यामुपसंहारे तइर्मविपर्ययोपपत्तः साधर्म्यवैधर्म्यसमौ। यथाऽनित्यः शब्दः कृतकवाहटवदित्युक्ते जातिवाद्याह । यद्यनित्यघटसाधात्कृतकत्वादनित्यः शब्द इष्यते, तर्हि नित्याकाशसाधादमूर्तत्वान्नित्यः प्राप्नोति । यदिच नित्याकाशवैधात्कृतकत्वादनित्य इष्यते घटादिवत्, तर्हि अनित्यघटवैधादमूर्त्तत्वान्नित्यः प्राप्नोति। विशेषाभावादिति। अनयोमत्तरम्। अविनाभाविनः साधमास्य च वैधर्म्यस्य च हेतुत्वाभ्युपगमादप्रसङ्गो धमादिवदिति ।
साध्यदृष्टान्तयोधर्मविकल्याटुभयसाध्यत्वाच्चोत्कपिकर्षवर्ध्यावर्ण्य विकल्पसाध्यसमाः। साध्ये दृष्टान्तादनिष्टधर्मप्रसङ्ग उत्कर्षसमः। दृष्टधर्मनिवृत्तिरपकर्षसमः । यदि कृतकत्वाइटवदनित्यः शब्दः तहदेव सावयवः स्यात् । अथ नैवमनित्योऽपि तहिं न स्थादविशेषात् । अश्रावणश्च घटो दृष्टः शब्दोऽपि श्रावणो न स्यादविशेषादिति उत्कर्षापकर्षसमौ ।
* In ms.
Taig is omitted.
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अनुमानपरिच्छेदः । * [शब्दो यदि कृतकत्वानुमानेनानित्यो वर्ण्यते । तथा सति घटोऽपि कृतकत्वानुमाननानित्यो वण्यः स्यादिति वयसमः। अथानवस्थाभयाहटस्तेनैवानुमाननानित्यो वर्ण्यते। ततः शब्दोऽप्यवण्यः स्यादविशेषादिति वॉवर्ण्यसमौ ।] __ अथ विकल्पसमः। कृतकत्वाविशेषेऽपि यथा मूर्तत्वामूर्त्तत्वादिधर्मविकल्पस्तथा नित्यत्वानित्यत्वविकल्पोऽपि स्यादविशेषात् ।।
अथ साध्यसमः। यदि कृतकत्वादुभयोरनित्यत्वं तर्हि साध्यत्वमप्युभयोः स्यान्न वा कस्यचिदविशेषात् । एतेषामुत्तरम्। किञ्चित्साधादुपसंहारसिद्ध वैधादप्रतिषेधः । किञ्चित्साधर्म्यामवत्त्वादिलक्षणात् साध्यदृष्टान्तयोईगंविकल्पेऽपि व्यवस्था दृष्टा। तदपलाप लोकादिविरोध: सानुमानात् प्रामाण्यप्रसङ्गश्च ।
प्राप्य साध्यमप्राप्य वा हेतोः प्राप्ताविशिष्टत्वादप्राप्यासाधकत्वाच्च प्राप्तामाप्तिसमौ। यद्ययं हेतुः प्राप्यसाध्यं साधयेदुभयोः प्राप्तयविशिष्टत्वादगुल्योरिव
- -..-...-- The portion bracketed is omitteil in ust.
*
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न्यायसारः।
किं कस्य साधनं साध्यञ्चेति। अप्राप्यसाधनको नास्ति । काष्ठाग्निवदिति * । घटादिनिष्पत्तिदर्शनात्योड़ने चाभिचारादप्रतिषेधः। प्राप्ताप्राप्ति विशेषेऽपि प्रतिनियतार्थवृत्तय एवैते साध्यसाधनत्वादयो धर्मा दृष्टाः ते निराकर्तुमशक्याः। सर्वप्रमाणविरोधादिति ।
प्रागुत्पत्तेः कारणाभावादनुत्पत्तिममः। अनित्यः शब्दः कार्यवादित्युक्ते प्रागुक्तरनित्यत्वे कारणं नास्तीति +नित्यः । प्रसक्तस्योपपत्तिरनुपपन्नेति तथा भावादुत्पनस्य कारणत्वोपपत्तेरप्रतिषेधः । अनुत्पन्नः शब्द एवं नास्तीति कस्य नित्यवादिधर्माश्चिन्त्यन्ते।
वैकाल्यासिद्धिंतोरहेतुसमः। यदि पूर्व साधनं असति साध्ये कस्य साधनम् । अथ पश्चादविद्यमानं कथं साधनम् । अथ युगपत्तथापि किं कस्य साधनं साध्यञ्चेति । इयोस्तुल्यकालत्वादिति । अस्योत्तरम् । न हेतुत: साध्यसिद्धेः प्रवृत्त्यादिविरोधः सूवार्थः ।
* MA, C. adiis her: अनयोरुत्तरम् । +11. C. reutis नित्यः प्रसनः। अलोत्सरम ।
s. C, adds here मध्ये तरविषाणयोरिव ।
i
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अनुमानपरिच्छेदः । प्रतिषेधानुपपत्तिश्च बैकाल्यासिद्धः स्ववचनेनैव प्रतिषेधासिद्धौ हेतुसिद्धिरिति सूत्रार्थः ।
एकधर्मोपपत्तेरविशेषे स विशेषप्रसङ्गात् सद्भाघोपपत्तेरविशेषसमः । यदि घटशब्दयोरेकस्य कार्यत्वस्योपपत्तेरनित्यत्वेनाविशेष दृष्यते। सर्वभावानां तर्हि सद्भावोपपत्तेरविशेषः प्रसज्येत । तवेदमुच्यते । सर्वथा विशेषे प्रत्यक्षादिविरोधः । अनित्यत्वेनाविशेषे अनुमानागमविरोधः । केनचिदविशेषे प्रमेयत्वादिना सिद्धसाधनमिति।
निर्दिष्ट कारणाभावेऽप्युपलम्भाटुपलब्धिसमः । पृथिव्यादिषु कार्य्यवसिद्धये निर्दिष्टस्य सावयवत्वस्याभावेऽपि बुद्ध्यादौ कार्यत्वमुपलब्धमिति । * सपक्षेकदेशस्यापि धूमादेर्गमकत्वदर्शनादप्रतिषेधः । कथं तर्हि बुद्ध्यादेः कार्य्यवसिद्धिरित्यत आह । कारणान्तरादपि तद्धर्मोपपत्तेरप्रतिषेधः। प्रमाणान्तरादपि कार्यत्वसिद्धेरित्यर्थः ।
प्रमाणञ्चानुपलब्धिकारणेष्वसत्म प्रागूईचानुप
•
Ms. C. ackls here अवोत्तरम् ।
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न्यायसारः।
लम्भात् घटादिवत् । तदनुपलब्धरनुपलम्भादभावसिद्दी तबिपरीतोपलापपत्तेरनुपलब्धिसमः। तस्य बुद्ध्यादेः कार्यत्वस्यानुपलब्धेरनुपलम्भादभावसिद्धौ तविपरीतोपलब्धापपत्तेः । प्रागूढमपि सद्भावः सेत्स्यतीत्यभिप्रायः। * अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलधेरहेतुः । नास्तीतिज्ञानमनुपलब्धिः । सा च तत्स्वभावतया प्रत्यात्मकसंवेद्या। तदनुपलब्धिरसिद्धेत्यभिप्रायः ।
नित्यमनित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्तनित्यसमः । अनित्यत्वधर्मस्य नित्यं सर्वदा सद्भावे धर्मिण: शब्दस्य सर्वदा सद्भावः । अथानित्यत्वं सर्वदा नास्ति तथाप्यनित्यत्वाभावानित्य इति । अनित्यत्वस्य सर्वदाभ्युपगमानित्यत्वविरोधः । अनभ्युपगमे चासिद्धो हेतुः । प्रध्वंसश्चानित्यत्वम्। न च तस्मिन् सति शब्दसद्भाव इति । एतेनान्यत्वस्यात्मनोऽनन्यत्वादन्यत्वन्नास्तीत्यादौन्यसदुत्तराणि प्रत्युक्तानि। निमित्तान्तरात् संज्ञान्तरे योज्यमानेऽप्यर्थे तथा भावस्थ निराकर्तुमशक्यत्वात्। आनल्यात् सर्वाणि जात्युत्तराण्युदाहर्तु
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..
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Is C. adds here अलोन्सरम् ।
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अनुमानपरिच्छेदः । न शक्यन्ते। सूत्राणामप्युदाहरणार्थत्वादिति । उक्ता जातिभेदाः ।
अथेदानौं निग्रहस्थानान्युच्यन्ते । तान्यपि विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्त्योर्विकल्पानन्त्यादसंख्यातानीत्यतः सङ्घपतो व्युत्पाद्यन्ते । *[ तथाच सूत्रम् । प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरमित्यादि हेत्वाआसाश्चेत्यन्तम् । साध्ये प्रतिदृष्टान्तधमाभ्यनुज्ञा प्रतिजाहानिः । यदि कृतकत्वादनित्यः शब्द दृष्यते तहि नित्याकाशवदमूर्तत्वानित्यः किं नेष्यन्ते । एवं प्रतिवादिनोक्त वाद्याह । भवतु किं नो बाध्यते। तस्य नित्यत्वाभ्युपगमेनानित्यत्वप्रतिता होयत इत्यतः प्रतिज्ञाहानिर्नाम निग्रहस्थानं भवति ।
+ [प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधेऽप्युत्पन्ने] धर्मो विवादास्पदीभूतत्वलक्षणस्तस्य विकल्पः । प्रतिज्ञातार्थविशेषगा त्वेन योजनं तदर्थ इति प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थः । यथा
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-.--.-.-..---
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* The portion bracketed is omitted in is. ('.
+ Is. (. roads प्रतिज्ञातार्थ प्रतिषेधे धर्माविकल्पात्तदनिर्देशः प्रतिज्ञान्तरम् । समनित्यं सत्त्वादि त्यत्व दृष्टान्नामावेन प्रतिज्ञात ईस्य प्रतिषेधः। ins. tead of the portion bracketed,
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न्यायसार;
मशकार्थोऽयं धूम इति निर्देशः । विवादास्पदीभूतं सर्वमनित्यमित्येतत्प्रतिज्ञान्तरं निग्रहस्थानम् । हेवन्तरवदिति ।
प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोध: प्रतिनाविरोधः। यथा गुणव्यतिरिक्तं ट्रव्यं भेदेनानुपलम्भादिति।
पक्षप्रतिषधे प्रतिज्ञापनयनं प्रतिज्ञासन्यासः । यथानुष्णोऽयमग्निरित्यस्य प्रतिषेधे वाद्याह । सस्यश्वध्वमहो मध्यस्थाः साक्षिणो नाहमनुष्णमग्निं ब्रवौमौत्यनुलोपालम्भोऽयमित्येतव्यतितासन्यासलक्षणं निग्रहस्थानमिति।
अविशेषोक्त हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम्। यथा नित्या वेदाः अस्मयमाणकर्तृकत्वादित्यस्य जीर्णकूपारामादिभिरनैकान्तिकत्वेन प्रतिषधे सम्प्रदायाविच्छेदे सतीति विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरं* पूर्वस्यासाधकस्योपादानात् ।
प्रकृतादादप्रतिसंबदार्थमर्थान्तरम् । यथा शब्दो नित्यः प्रमेयत्वादिति हेतुः । हेतुश्च हिनोवेर्दातोस्तुन् प्रत्यये कृते कृदन्तं पदमित्यादि प्रसक्तानुप्रसक्त्या
*
Ms. C. realis here निग्रहस्थानम् ।
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अनुमानपरिच्छेदः ।
२५
प्रकृतार्थानुपयोगिशास्त्रान्तरमुपदिशतोऽर्थान्तरं निग्रह
स्थानमिति ।
वर्णक्रमनिर्देशवन्निरर्थकम् । यथा शब्दोऽनित्यः ।
कचटतपानां गजडदबत्वात् ।
भघटधवदिति ।
परिषत्प्रतिवादिभ्यां चिरभिहितमपि अविज्ञातमविज्ञातार्थम् । यद्वाक्यं वादिना चिरभिहितमप्यप्रतौतप्रयोगादतितोच्चारणादिना निमित्तेन परिषत्प्रतिवादिभ्यां न ज्ञायते तदज्ञानसंवरणायोक्तं निग्रहस्थानमिति । पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्बद्धार्थम पार्थकम् । यथा दशदाडिमानि षट् पूपाः कुण्डमजाजिनमित्येवमादि ।
अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् । प्रतिज्ञादी-
नामवशात्क्रमस्तेषां विपर्ययेणाभिधानमप्राप्तकालं
नाम
हीनमन्यतमेनाप्यवयवेन
निग्रहस्थानम् । न्यूनम् । साधनाभावेन साध्यस्यासिद्धेः * । हेतूदाहरणाधिकमधिकम् । एकेन कृतार्थत्वादि
तरानर्थ क्यात् ।
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न्यायसारः।
___ शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तम्। अन्यत्रानुवादात् । सार्थकं पुनरभिधानमनुवादः । तातिरेकेण पुनरभिधानं पुनरुक्तम् । यथा नित्यः शब्दो नित्यः शब्द इति शब्दपुनरुक्तम् । नित्यो ध्वनिरविनाशी शब्द इत्यर्थ पुनरुतम् । अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं पुनरुतम्। साधोदाहरगोऽभिहिते वैधोदाहरगामिति। कथं पुनस्तन्निग्रहस्थानम् । *कथावसानविरोधित्वादेकेन कृतकत्वादितरानर्थक्यादिति।
विज्ञातार्थस्य परिषदा बिरभिहितस्याप्रत्युच्चारगामननुभाषणं प्रतिवादिनो निग्रहस्थानम् । अप्रत्यचारयन् किमाश्रयः परयक्षप्रतिषेधं कुर्यादिति । अविजातार्थञ्चाजानम्। यहाक्यं त्रिरभिहितमपि परिषदवगतार्थं प्रतिवादी प्रत्युच्चारयन्नपि नार्थतः सम्यगधिगच्छति, तदज्ञानं नाम प्रतिवादिनो निग्रहस्थानम् । कथामभ्युपगम्य तूशीभावः प्रतिभावादिप्रतिवादिनी. निग्रहम्थानम् ।
* Hy. ('. reutis कथावसानविरोधित्वादित रानर्थक्यादिति ।
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अनुमानपरिच्छेदः । कार्यव्यासंगात् कथाविच्छेदो विक्षेपः। कथामभ्युपगम्य सभ्येषु मिलितेषु बोत्यद्य मे महत् प्रयोजनमस्ति तस्मिन्नवसिते पश्चात् * कथयिष्यामीति कथाविच्छेदो विक्षेपः । स्वपक्षे दोषाभ्युपगमात्परपक्षे दोषप्रसङ्गो मतानुज्ञा। यः स्वपने मनागपि दोषं न परिहरति केवलं परपक्षे दोषं प्रसञ्जयति। भवांश्चोर इत्युक्ते त्वमपि चोर इति तस्येदं निग्रहस्थानम् । स्वयं दोषाभ्युपगमात्परेणानभ्युपगमादिति निग्रहं प्राप्तस्यानिग्रह: पर्य्यनुयोज्योपेक्षणम्। [पर्यनुयोज्यो नाम निग्रहोपपत्त्या चोदनीयः। तस्योपक्षणं निग्रहं प्राप्तोऽसौत्यननुयोगः । एतदुभाभ्यामनुक्तया परिषदा वक्तव्यम् । ___अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयोज्यानुयोगः गा । यथा सावयवत्वेन पृथिव्यादेः कार्यत्वसिद्धी
* Ms. B. reads करिष्यामीति । + S. C. omits tinee | Myticoin कथाविच्छेदो विक्षेपः ।
The portion brackcted is omitted it ex. "'. Ms. c. alls here निग्रहस्थानम ।
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२८
न्यायसारः ।
परो ब्रूते यावदप्रयोजकोऽयं हेत्वाभास इति । तस्येदं
निग्रहस्थानम् ।
सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात्कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्तः । यथा मीमांसामभ्युपेत्य कश्चिदग्निहोत्रं वर्ग साधनमित्याह । कथं पुनरग्निहोत्रक्रिया ध्वस्ता सती स्वर्गसाधिका भवतीत्यनुयुक्तः प्राह । तया क्रियया आराधितः परमेश्वरः फलं ददाति । राजादिवत् । तस्येश्वराभ्युपगमादप सिद्धान्तो नाम निग्रहस्थानम् ।
प्रतिज्ञातार्थविपर्य्ययस्तु प्रतिज्ञाहानिर्नाप सिद्धान्तः । हेत्वाभासाश्च यथोक्ताः हेत्वाभासलक्षणेनैव यथोक्तेन लक्षिताः । हेत्वाभासा निग्रहस्थानानौत्यर्थः । एतेन दुर्वचनकपोलवादिवादीनां साधनानुपयोगित्वेन
निग्रहस्थानत्वं वेदितव्यम् । नियमकथायान्त्वपशब्दा
दौनामपीति ॥
इति [ श्रोभासर्वज्ञविरचिते न्यायसा ]* अनुमानपरिच्छेदः ||
५.
MsAmmits the portion bracketed.
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आगम परिच्छेदः ।
अवमितमनुमानमागमस्येदानी लक्षणमेवोच्यते । समयबलेन सम्यक्परोक्षानुभवसाधनमागमः । स विविध: । दृष्टादृष्टार्थभेदात् । तत्र दृष्टार्थानां वाक्यानां प्रायेण प्रवृत्तिसामर्थ्यात्यामाण्यमवगम्यते । अदृष्टार्थानां पुनराप्तोनात्वेनेति। कथं पुत्रकामो यजेतेत्यादिवाक्यानां प्रवृत्तिसामर्थ्यात्यामाण्यमनुमाय तत्प्रणेतुरतीन्द्रियार्थदर्शित्वेन परमाप्तत्वमवधार्य तत्पणीतानां वाक्यानामप्रामाण्ये कारणाभावात्प्रामाण्य मनुमीयते। न नित्यत्वेन । वाक्यानां नित्यत्वे प्रमागाभावात् । अनित्यत्वेन पुनर्वाच्यत्वाद्यनेकमनुमानम् । सर्वदोपलब्धानुपलब्धिप्रसङ्गश्च । विपर्ययानियामकाभावात्। अभिव्यञ्जकाभावादनुपलब्धिरिति चेत् । न। तदनिर्देशात् । वायुसंयोगविभागाविति चेत् । न। सर्वशब्दानां युगपद्ग्रहणप्रसङ्गात् ।
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न्यायसारः।
____ कथं श्रोत्रं तावत्ममानेन्द्रियग्राह्यसमानदेशसमानधर्मापन्नार्थानां ग्रहणाय प्रतिनियतसंस्कारसंस्कार्यं न भवति। इन्द्रियत्वाच्चक्षुर्वत् । शब्दा वा प्रतिनियतसंस्कारसंस्कार्या न भवन्ति । समानेन्द्रियग्राह्यसमानधर्मापनत्वे सति युगपदिन्द्रियसंबद्दत्वात् । घटादिवत् । उत्पत्तिपक्षेऽम्ययं समानो दोष इति चेत् । न । मृत्पिण्डप्रदीपदृष्टान्ताभ्यां संस्कारव्यञ्जक वैधर्मसिद्धेरित्यलमलमतिप्रसङ्गेन। एवमेतानि त्रीण्येव प्रमाणानि । " एज्वेवोपमानार्थापत्तिसम्भवाभावैतिह्यादीनामन्तभावः । तत्र गौरिव गवय इत्युपमानं शब्देऽन्तर्भूतम् । अनेन सदृशी मदीया गौरित्युपमानमिति चेन्न। तस्य म्मृतित्वात् । पूर्वमेव हि सादृश्यविशिष्ट उपलब्धो गोपिण्डः । कस्मात् उपलब्धियोग्यत्वात् । अयोग्यत्वे वा न कदाचिदुपलभ्येतादृष्टवत् । निर्विकल्पकेन प्रत्यक्षेण पूर्व सादृश्यमुपलब्धम् । तेन तदुपलब्ध्यमि मानो न भवति। निर्विकल्पकोपलम्भेऽपि संस्कार. सहकारिसामर्थ्यादभावादिषु सविकल्पका स्मृतिदृष्टेति। संज्ञासंनिसंबद्धप्रतिपक्तिगप्तवचनकाऱ्यां ।
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श्रागमपरिच्छेदः ।
तथा
तथा प्रश्नोत्तराभिधानादन्यप्रमाण निर्देशाच्च । अस्य गवयशब्दः संज्ञेति प्रतिपत्तावुपमानसिद्धिः । शब्दाश्च श्रावणादिति चेत् । एवं तर्हि गौरयमित्येवं सङ्केतेऽस्य गोशब्दः संज्ञेति प्रतिपत्तौ प्रमाणान्तरं वाच्यम् । समानन्यायत्वात् गोपिण्डान्तरेऽपि सङ्केतग्रहणे प्रमाणान्तराभिधानप्रसङ्ग इति । तथा शब्दानभिधानेऽपि प्रतिपादकप्रतिपत्तोरेवमेवाभिप्रायः ।
३१
शस्य सर्वस्य गोशब्दः संज्ञेति सामर्थ्यादेवं प्रतिपत्तिरिति चेत् समानमेतदत्रापि गोसदृशो गवय इति शब्दादुभयोरेवमेवाभिप्रायो गोसदृशार्थस्य गवयशब्दः संज्ञेति सामर्थ्यादेवं प्रतिपत्तिः । न च प्रत्यक्षएवार्थे संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतीतिदर्शनात् सूवविरोध इति चेत् । न । प्रमाणनिग्रहस्थानाभ्यां दृष्टान्त हेत्वाभासादीनामिव प्रयोजनवशेन पृथग्विधानात् ।
तर्हि प्रयोजनं वाच्यम् । उच्यते । शब्दप्रामाण्यसमर्थनं प्रयोजनम् । कथं केचिदाहुः प्रत्यक्षानुमानविषयत्वे शब्दस्यानुवादकत्वम् । तदविषयत्वे संबन्धापदार्थस्याप्रसिडत्वान्न पदेन
ग्रहणादवाचकत्वम् । संबन्धग्रहणमितरेतराश्रयत्वात् । वाक्यार्थस्तु प्रसिद्धानां
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३२
न्यायसारः।
पदार्थानामन्वयमात्रमिति। *[वाक्यं तु पदानामन्वयमात्रमिति ] । तन्निराकरणार्थमुपमानं निदर्शनार्थत्वेन पृथगुतम्।
यथा कार्यार्थिनोऽप्रसिद्धगवयस्य प्रसिद्धगोसादृश्यमुपादायोपमानाख्येन वाच्चैन संज्ञासंत्तिसंवन्धप्रतिपत्तिः क्रियते। तथा किञ्चिन्निमित्तमुपादाय शक्रादिपदपदार्थयोरपौति । तस्मादन्यार्थत्वान्न सूत्रविरोधः । परीक्षात्वर्थापत्तिवत्प्रमाणस्य सतः प्रमाणेष्वन्तर्भावज्ञापनार्थम् । अन्तर्भावस्त्वनुमानएवास्य निराकृतो नागमे । चतुष्टाभिधानं सूत्रेषु पञ्चत्वादिनिराकरणार्थं न त्रित्वप्रतिषेधार्थम् । प्रमाणसिद्धत्वादन्तर्भावस्य । त्रित्वानभिधानादयुक्तमिति चेन्नास्य सूचकारस्यैवं स्वभावात् । यत् खसिद्धान्तमपि क्वचिन्नाभिधत्ते । यथा कृत्स्नैकदेशविकल्पादिना अवयविनिराकरण शिष्याणामूहातिशययुक्तानामवावाधिकार इति ज्ञापनार्थम् । तस्मादपमानं शब्देऽन्तर्भूतम् । __ अर्थापत्तेरप्यनुमान एवान्तर्भावोऽविनाभावबले-- नाघप्रतिपत्तिसाधनत्वात् । अन्यथा नोपपद्यत इत्युक्ते
*
The portion bracketed is omitted in as C
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आगमपरिच्छदः ।
सत्येवोपपद्यत इति लभ्यते। अयमेवाविनाभाव इति। यत्र सामान्याकारेगााप्यन्वयग्रहणं नास्ति यथा मुख्यकारणत्वाप्रतिबद्धशक्त्योस्तवार्थापत्तिः पृथक् प्रमाणमिति चेन्न। तत्रापि केवलयतिरेक्यनुमानाव्यतिरेकात् । केवलव्यतिरेक्यर्थापत्तिरिति संज्ञाभेदमात्रम्। अन्वयाभावान्नैतदनुमानमिति चेन्न । केवलान्वयिनो व्यतिरेकाभावन प्रमाणान्तरप्रसङ्गात् । अपिच। प्रत्यक्षादिभेदानां केनचिधर्येण प्रमाणान्तरत्वप्रसङ्गस्तस्मादविनाभावबलेनार्थप्रतिपादकत्वाविशेषादर्थापत्तिरनुमानमिति स्पष्टम् ।
अल्पसंख्याविषयत्वे सति बहुत्वसंख्याविषयत्वस्य सर्वत्रोपलब्धत्वान्नानुमानात् सम्भवो भिद्यते। अभावस्य विष्वपि यथासम्भवमन्तर्भावः। तथाहि । कौरव्याद्यभावप्रतिपत्तिरागमात् । आत्मादिषु रूपाद्यभावप्रतिपत्तिरनुमानात्। भूतलादिषु घटाद्यभावप्रतिपत्तिः प्रत्यक्षादिन्द्रियव्यापारभावमावित्वात् । अन्यत्र तद्भावभावित्वं पर्यवसितमिति चेन्न। रूपादिष्विव बाधकाभावात् । संबन्धाभावो बाधक इति चेन्न । खपरपक्षयोरसिद्धत्वात्। स्वपक्षे तावपादिष्विवा
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न्यायसारः।
परोक्षानुभवकार्यानुमेयो योग्यताख्यः संबन्धः । परपक्षेऽपि संयुक्तविशेषणविशेष्यभावादिरिति। संयोगसमवायरहितस्य विशेषणविशेष्यभावानुपपत्तिरिति चेन्न। विशिष्टप्रत्ययवशेन तत्सिरिति। अनिर्दिष्टप्रवक्तृकं प्रवादपारंपर्यमैतिहमागमेऽन्तर्भूतम् । यथेह वटे यक्ष: प्रतिवसतीति ।
प्रयत्नजनिता शरीरतदवयवक्रिया चेष्टा। सा त्वनाद्यशास्त्रादिप्रसिद्धसमयबलेन पुरुषाभिप्रायमर्थविशेषं गमयतीति नागमाद्भिद्यते। लिप्यक्षरादर्थप्रतिपत्तिवदिति। तदेवं व्यवस्थितम् । एवमेतानि त्रीण्येव प्रमाणानि ।
किं पुनरीभिः प्रमाणै: प्रमातव्यमिति। उच्यते । प्रमेयम्। किं लक्षणम् । यहिषयं ज्ञानमन्यज्ञानानुपयोगित्वेन निःश्रेयसाङ्गं भवति तत्प्रमेयम् । तदेव तत्त्वतो ज्ञातव्यम् । सर्वदा भावयितव्यञ्च। नच कीटसंख्यादि तद्नानस्यानुपयोगित्वात् । तच्चतुर्विधम् । हेयं तस्य निर्वर्तकं हानमात्यन्तिकं तस्योपाय इति ।
तत्र हेयं दुःखमनागतमेकविंशतिप्रकारम् । शरीरं षडिन्द्रियाणि षविषयाः षड़बुद्धयः सुखं दुःखं
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आगमपरिच्छेदः ।
चेति । तव शरीरं aa शरीरं दुःखायतनत्वाद्दुःखं इन्द्रियाणि विषया बुयश्च तत्साधनभावात् सुखमपि दुःखानुषङ्गाद्दुःखम् । दुःखन्तु बाधा पौड़ासन्ताषात्मकं मुख्यत - यैवेति । तस्य निर्वर्त्तकमसाधारणकारणम् । श्रविद्याधर्माधर्मौ चेति सम्यगध्यात्मविह्निः प्रदर्शितार्थे । विपरीतज्ञानमविद्या सह संस्कारेणेति । पुनर्भवप्रार्थना तृष्णा । सुखदुःखयोरसाधारणौ हेतू धर्माधर्माविति च । हानं दुःखविच्छेदः । आत्यन्तिकमिति न कदाचित्कथञ्चित् दुःखसंबन्ध इत्यर्थः । तस्योपायस्तत्त्वज्ञानमात्मविषयम् ।
तथाचोक्तम् । आत्मा वारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यश्चेति ।
श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः । मत्वा च सततं ध्येय एते दर्शनहेतवः ॥
३५
तरति शोकमात्मविदिति ।
1
स च विविधः । परश्चापरश्चेति । तथाचोक्तम् । “हे ब्रह्मणी वेदितव्ये परं चापरं चेति" । तचैश्वय्यादिविशिष्ट: संसारधम्मैरीषदप्यसंसृष्टः परो भगवान्महेश्वरः सर्वज्ञः सकलजगद्दिधाता । स कथं ज्ञातव्यः ।
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न्यायसारः।
अनुमानादागमाञ्च। तथाहि विवादाध्यासितमुपलब्धिमत्कारणपूर्वकं अभूत्वाभाविवाहस्वादिवदिति सामान्यव्याप्टरनवद्यत्वेन निराकर्त्तमशक्यत्वात्तत्मामान्यसिद्धौ पारिशेष्यात्कार्य्यत्वाच्च कर्तृविशेषसिद्धिश्चित्रादिकार्यविशेषात्कर्तृविशेषसिद्धिवत् । एको रुट्रो न द्वितीयोऽथ तस्थे सूर्य्य दूब दूमाल्लोकानीशते ईशनीभिरित्यागमाञ्चेति। संसारफलोपभोक्तानन्तो जीवोऽपरः। ___स खलु बुद्ध्यादिगुणानामाश्रयभूतोऽनुमातव्यः । न हि कार्य्यमनाधारं किञ्चिदुपलब्धमिति । न चेन्द्रियाणामाश्रयत्वं युक्तमुपहतेन्द्रियस्य विषयस्मरणायोगात् । अन्यानुभूतेऽर्थेऽन्यस्य स्मरणायोगात् । अतएव शरीरस्यापि बालकौमारादिभेदेन भिन्नत्वान्न स्मरणमेतेन पूर्वबुद्दानुभूतेऽर्थे उत्तरबुद्धेः कार्यकारणाभावात् स्मरणमपास्तम्। अन्यत्वाविशेषादिति । कार्पासरक्ततावदिति चेन्न। साधनदूषणासम्भवात् । अन्वयाद्यभावान्न साधनत्वमसिद्धत्वाद्यनुभावनान्न दूषणम्। . न च कार्यासेऽपि निरन्वयविनाशोत्पाद रक्ततोप
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आगमपरिच्छेदः। पद्यते कार्पासान्तरवदिति । एतेनैव क्षणिकत्वमपास्तम् । प्रत्यभिज्ञानाख्येन प्रत्यक्षेण स्फटिकादिष्वक्षणिकरवं गृह्यते। प्रदीपादिष्विव भान्तमिति चेत् । न। एकत्र बाध्यत्वेन भ्रान्तत्वे सर्वत्र भ्रान्तत्वकल्पनायामतिप्रसङ्गादनभ्युपगमाच्च। सादृश्यस्य क्षणिकत्वे भान्तिबीजाभाव इति।
तत्सिदमेतच्छरौरादिव्यतिरिक्त आत्मा नित्यो व्यापक इति। नित्यत्वं कुत इति चेदनादित्वात् । तदेव कथम्। जातमात्रे जन्मान्तरानुभवसूचकस्मरणलिङ्गस्य हर्षभयशोकमोहस्तन्यादेरुपलम्भात् । धमादेराश्रयसंयोगापेक्षस्य गुरुत्वादिवदाश्रयान्तर वाय्वादी क्रियाकर्तृत्वात्। अणिमाद्युपतस्य युगपदनेकशरीराधिष्ठाटवायापकत्वसिद्धिः । तथाचोक्तम् ।
आत्मनो वै शरीराणि बहूनि मनुजेश्वर । प्राप्य योगबलं कुर्यात् तैश्च कृत्स्नां महीं चरेत् ॥ भुञ्जीत विषयान् कैश्चिकैश्चिदुग्रं तपश्चरेत् ।
संहरेच्च पुनस्तानि सूर्यास्तेजोगणानिव ॥ तदेवमपरात्मतत्त्वज्ञानं परलोकसद्भावन परलोकप्रत्त्य पयोगित्वादधर्मक्षयहेतुत्वाच्च निःश्रेयसाङ्गमिति ।
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न्यायसारः।
३८ . ____ आत्मतत्त्वज्ञानं तदुपासनाङ्गत्वेनापवर्गसाधनम् । स चोपासनविधि: क्लेशकर्मक्षयसमाधिलाभार्थमनुष्ठानम् । तथाचोक्तम् । तमास्वाध्यायश्वरप्रणिधानादिक्रियायोगः क्लेशतनूकरणार्थं समाधिलाभश्चेति । ततोनमादकामादिव्यपोहार्थमाध्यात्मिकादिदुःखसहिष्णुत्व-- न्तपः । प्रशान्तमन्त्रस्य दरवाचिनोऽभ्यासः खाध्यायः । परमेश्वरतत्त्वस्य प्रबन्धेनानुचिन्तनमौश्वरप्रणिधानम्।* समासतो रागदेषमोहा: क्लेशा: समाधिप्रत्यनौकाः संसारापत्तिहारण क्लेशहतुवात् । इति ॥
तथा यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाङ्गानि। तत्र देशकालव्यवस्थाभिरभिनियता बुद्धिशुदिहेतवी यमाः । अहिंसासत्यमस्तयादयो देशकालव्यवस्थापक्षिण: पुण्यहेतवः क्रियाविशेषा नियमाः देवताप्रदक्षिणसम्ध्योपासनजपादय इति । योगकर्माविरोधिलेशजया) करणबन्ध आसनम् । पद्मक खस्तिकादि। कौष्ठस्य वायोर्गतिविच्छेदः प्राणायामो रेचकपूरककुम्भकप्रकारः । स च
* Ms. C. reads :- अनुचिन्ननं पालोचनं प्रणिधानम् अरस्य ।
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आगमपरिच्छेदः ।
३८
शनैर्जेतव्यो वनगजेन्द्रवत्। समाधिनत्यनीकार्थेभ्यः समन्ताच्चेतसो व्यावर्तनं प्रत्याहारः । चित्तस्य देशबन्धो धारणा । तत्रैकतानता ध्यानम् । तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः। ध्यानोत्कर्षात् निर्वाताचलप्रदीपावस्थानमिवैकव चेतसो व्यवस्थानं समाधिरभिधीयते।
एवमेतानि योगाङ्गानि मुमुक्षुभिः सर्वेषु ब्रह्मादिस्थानेष्वनेकप्रकारदुःखभावनयानभिरतिसजितं परं वैराग्यं महेश्वरे च परां भक्तिमाश्रित्यात्यन्ताभियोगेन सेवितव्यानि। ततोऽचिरेणैव कालेन भगवन्तमनौपम्यखभावं शिवमवितथं प्रत्यक्षतः पश्यति। तं दृष्ट्रा निरतिशयं श्रेयः प्राप्नोति। तथाचोक्तम् ।
यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः ।
तदा शिवमयं ज्ञात्वा दुःखस्यान्तो भविष्यति ॥ तमेव विदित्वातिमृत्युमेतीत्यादि च। तस्माच्छिव दर्शनान्मोक्ष इति ।
कः पुनरयं मोक्ष इति । एके तावदर्णयन्ति । समस्तगुणोच्छेद संहारावस्थायामाकाशवदात्मनोऽ
* (:. reads देशसम्बन्धो।
Ms. C. rends :-विज्ञाय ।
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४०
न्यायसारः।
त्यन्तावस्थानं मोक्ष इति । कस्मात् सुखदुःखयोरविनाभाविवाद्विवेकहानानुपपत्तेः । न च मुखार्थे च प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः कण्टकादिपरिदुःखपरिहानार्थत्वेनापि प्रवृत्तेरुपलम्भात् । इति मोहावस्थामूर्छादावस्थावदत्र विवैकिनां प्रवृत्तिर्नेत्याहुः ।
अन्ये दुःखे सति सुखोपभोगस्यासम्भवात् कण्टकादिदुःखपरिहारोऽपि मुखोपभोग एवेत्यन्यसमो दृष्टान्तः। कुतो मुक्तस्य सुखोपभोग इति चेत् । आगमात् । उत्तं हि । मुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्विग्राह्यमतौन्द्रियम् ।
तच्च मोक्षं विजानीयात् दुष्पापमकृतात्मभिः ॥ तथा आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षऽभिलक्ष्यते । विज्ञानमानन्दं ब्रह्मति । - मुख्यार्थे बाधकाभावान्नोपचारकल्पनान्यथासुखसंवेदनयोर्नित्यत्वात् मुक्तसंसारावस्थयोरविशेषप्रसङ्गः । इति चेन्न । न चक्षुर्घटयो: कुड्यादेरिव सुखसंवेदनयों सम्बन्धो भवतीत्यतो नाविशेष्यः । तस्य कृतकत्वेन कदाचिन्नाशप्रसङ्ग इति चेन्न । न प्रध्वंसोऽनैकान्त्यात्। वस्तुतत्त्वे सतीति चेन्न । द्रव्यादिष्वनन्तर्भाव तदसिद्ध
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आगमपरिच्छेदः ।
त्वात् । अन्तर्भावे समवायादिभिः सह तत्संवेदन
सम्बन्धो न स्यात् । अष्टादिवशात् कारकं विषयः तज्जनितं ज्ञानं विषयोति चेत् न । ईश्वरज्ञानस्य नित्यायैः सह सम्बन्धाभावप्रसङ्गात् । तस्मात् कृतकत्वेऽपि सुखसंवेदनसम्बन्धस्य विनाशकारणत्वाभावान्नित्यत्वं स्थितम् । तत्सिद्दमेतत् नित्यसंवेद्यम् । अनेन मुखेन विशिष्टा आत्यन्तिको दुःखनिवृत्तिः पुरुषस्य मोक्ष
इति । *
इति [ श्रीभासर्वज्ञविरचिते न्यायसारे ] + आगमपरिच्छेदः ।
समाप्तोऽयं न्यायसारः ।
शुभमस्तु ।
* Ms. C. adds here :--
जिताः समुद्रा गुरुभिर्मदीयैः रख ददद्भिस्त्रिदशैरलभ्यम् 1 ग्रहीयमाणं सततं द्विजेभ्यः प्रवर्द्धते चैव करोति मुक्तिम् ॥ प्राचार्य्यमारभ्य मयापि लब्धं तन्त्रा । यरत्वं स्वपरोपकारि । उत्सर्गितं स्वल्पपदैर्नित्रध्य संसारमुक्त्यै खलु मज्जनानाम् ॥ 4 B. adds the portion | racketed,
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४१
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नायतात्पर्यादीपिका।
प्रत्यक्ष परिच्छेदः ।
ॐ नमः परमात्मने।
यत्सत्त्वं ध्वनयत्यनक्षविषयं चित्तारतम्यानुमा प्रत्यात्मप्रतिभासभासुरतनुर्निर्दोषतोत्कर्षिणी । चक्षुःप्राग्रहर हृषीकनिकर रूपादिलब्धियथा तं सर्वज्ञमपास्तदुस्तरतम:स्तोमं जिनेन्द्रं स्तुमः ॥ १ ॥
न्यायग्रन्थिसहस्रदुग्रेहमिमं श्रीन्यायसारं स्फुटाशेषोल्लेखविशेषतो यदपि न व्यक्तुं क्षमः कश्चन । श्रद्धावांस्तनुधीप्रबुद्धिविधये किञ्चित्तथाप्युच्चकैवाग्देवीस्वगुरुप्रसादविशदो व्याख्यातुमिच्छाम्यहम् ॥ २ ॥
यद्यप्यत्र पवित्रसूत्रघटिताष्टीका: पटूष्मच्छिदो दोव्यन्त्यच्छपटौनिभाः प्रकरणे श्रीन्यायसाराहये । तत्त्वन्यायपदार्थसार्थघटयत्याटच्चरांशस्फुटा सेयं जाड्यहरी तथापि भविता महाक्य कन्या तृणाम् ॥३॥
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न्यायतात्पय्यदीपिका ।
शास्त्रारम्भे दुरपोहप्रत्यूहव्यूहव्यपोहेन प्रचिकीर्षितन्यायसाराख्यतर्कप्रकरणपारोगतायै शिष्टाचारसमाचरणाय च समुचितेष्टदेवतानमस्कारसारं प्रेक्षावत्प्रवृत्तिनिमित्तं सम्बन्धप्रयोजनानवद्यं शास्त्रप्रतिपाद्यं शास्त्रकारचक्रचक्रवर्ती श्रोभासर्वज्ञाचार्य: प्रथमपद्येन प्रतिजानीते ।
४४
प्रणम्य शम्भुं जगतः पतिं परम् समस्ततत्त्वार्थविदं स्वभावतः ।
शिशुप्रबोधाय मयाभिधास्यते
प्रमाणतद्भेदतदन्यलक्षणम् ॥
अत्राह परः ।
ननु प्रकृतप्रकरणकरणमवगणय्यादावेव किमर्थं देवतानमस्काराविष्करणम् । विघ्नोपशमार्थमिति चेत् न ।
स्कारादेव विघ्नोपशम उतान्यस्मादपि । यद्याद्यः कल्पस्तर्हि किं यत्र यत्र नमस्कारस्तत्र तत्र विघ्नोपशमः । किंवा यत्र यत्र विघ्नोपशमस्तत्र तत्र नमस्कार इति । तत्राद्यो न निरवद्यः । कादम्बय्यादौ नमस्कारे सत्यप्यपरिसमाप्ता तदनुपलम्भात् । तर्कप्रकरणेष्वेवायं नियम इति चेन्न । तेष्वपि केषुचिनमस्कारपुरस्कारेऽप्यपरिसमाप्तुप्रपपत्तेः । न द्वितीय: मीमांसाभाष्यादी विघ्नोपशमोपालम्भेऽपि तत्प्रारम्भे नमस्कारानाविष्कारात् । तस्य तु तत्समासेव निर्णीतत्वात् ।
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
किञ्च नमस्कारादेवेत्यचैवकारो नमस्कारेण समं विघ्नोपशमस्यान्ययोगं व्यवच्छिनत्ति । स च प्रागुक्तत्र्यभिचारयुक्त्या न प्रमाणकोटिमाटोकिष्ट । नाप्यन्यस्मादपीति पच: सूपक्षेपः । अत्रापि नियमेन तदुपादानस्यैव दृश्यमानत्वात् ।
यद्दान्यस्मादपि साध्यसिद्धी प्रेमा तस्यैवोपादानं बाललीलायितं कल्पयेत् ।
अपिच । नमस्कारादित्यचापादानोपादानं विघ्नोपशमं प्रति नमस्कारस्य निमित्तत्वं जनकत्वेन व्यञ्जकत्वेन वा व्यनक्ति । जनकत्वेन चेत्तर्हि किं नित्योऽनित्यो नित्यानित्यो वा स तज्जनकतयाभिप्रयागः । नित्यश्वेन नित्यस्य जनकत्वानुपपत्तिः । प्रशश्वदेकस्वाभाव्यात् । प्राक् पश्चाञ्चातज्जनकत्वे शास्त्रारम्भ एव तज्जनकत्वे चैकस्वभावहान्या नित्योऽप्यनित्यतां सत्यापयेत् । अप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकरूपं नित्यमिति नित्यलक्षणात् । सहकारिकारणजनितसाहाय्यात् तज्जनको भविष्यतीति चेन्न । सहकारिकारणस्य तसाहाय्यकारित्वेनाद्याप्यप्रसिद्धत्वात् । प्रसिद्धत्वे वा तत्माहाय्यस्य भेदाभेदोभयोर्भेत्तुं शक्यत्वात् ।
न च नमस्कारो नित्यं शास्त्रारभे शास्त्रकारैरवश्यं क्रियत इति भवताप्यभ्युपेतत्वात् । अनित्यस्तज्जनक इति चेन्न । अनित्य: किं कतिपयक्षणावस्थायो क्षणस्थायी वा । आयक्रियारूपत्वान्नमस्कारस्य तथात्वं प्रतिपत्तुमशक्तिः क्रियायाः क्षणप्रध्वंसित्वात् । द्वितीये स्वोत्पत्तिमात्रं व्यग्रस्य क्षणिकस्य तज्जननं प्रत्यप्रभविष्णुतैव । खोत्पत्तेः प्राक् पश्चादुत्पत्तिसमसमयएव वा
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४५
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४६
न्यायतात्पर्यदीपिका।
क्षणिका ( क्रिया) कार्यं कुर्यादिति विकल्पजालेन प्रत्यवस्थातुं शक्यत्वात् । कथं वा क्षणिको नमस्कारः कालभूयस्त्वभाविनों शास्त्रसमाप्तिं यावत्तिष्ठेत् तत्प्रत्यूह व्यपोहेच्च । नापि नित्यानित्यः परस्परपक्षोपक्षिप्तदूषणगणावकीर्णत्वात् । तदुक्तम् ।
प्रत्येकं यो भवेहोषो यो वे कथं न सः ।
इति। नापि व्यञ्जकलेन तस्य तद्दाञ्जकतया त्वयाद्याप्यप्रसाधितत्वात् ।
किञ्च नमस्कारात् कस्य प्रत्यूहस्य व्यपोहः। किम्भूतस्य भविष्यतो वर्तमानस्य वा। न तावद्भतभविष्यतोस्तयोरतीता. नागतत्वेन व्यपोहितुमशक्यत्वात्। वर्तमानस्य किं सतोऽसतो वा । न तावत्सतस्तस्य भोग्यतयोपसेदुषः परःशताभिरपि नमस्या. भिर्दुरपोहत्वात् ! असतस्त्वसत्त्वादेव तदपोहानुपपत्तेः ।
अन्यच्च। यदि नमस्कियैव प्रत्यूहव्यपोहिका स्यात्तदा प्रत्यूहदन्दह्यमानो जनो नमस्कियाभिस्तं व्यपास्य को न वं सुखवित्कुयात्। तस्माविघ्नोपशमा) नमस्कार इति यत्किञ्चिदेतत् ।
अत्र प्रतिविधीयते। यत्तावदवादि प्रक्कतप्रकरणकरणमवगणय्य नमस्कारकरणं किमर्थमित्यादि । तदेतत्सर्वं तवाप्रामाणिकत्वमेव प्रवीणयति। न खलु प्रामाणिकीभूय कश्चिद्विपश्चिच्छास्त्रारम्भसम्भावितं नमस्कारं तिरस्कर्वीत । शास्त्रारम्भे शास्त्रकारस्तस्यैव प्रस्तुतत्वात् ।
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
यच्चावाचि किं नमस्कारादेव विघ्नोपशम इत्यादि तदप्य. हृद्यम् । यतो नमस्कारादेव न वयं विघ्नोपशममभिदध्महे । किन्तु तज्जनितनिर्मलधर्मादेव । स चाभीष्टदेवताप्रणिधानाअनेक-सविवेकव्यापारसाध्यः । अतएव यत्र कापि विघ्नोपशमस्तनावश्यं मानसप्रणिधानाद्युत्पन्नधर्मस्यैव हेतुत्वम्। कार्यवैशिष्ट्यगम्यत्वात्कारणवैशिष्ट्यस्य । यत्र तु तत्सद्भावेऽपि विघ्नसद्भावस्तत्र धर्माधर्मयोरल्पीयस्त्वबलीयस्वी हेतू। बलीयसा चाल्पोयसो धर्षणात् ।
एतेन नित्यानित्याद्यनल्पविकल्पजालमपि निरस्तं ज्ञेयम् । यतः क्रियारूपत्वेनानित्योऽपि नमस्कारो धर्म निर्माय विनश्यति । स चाशेषविघ्नविधातनिघ्नो भवति। तथाच प्रतिपादयाञ्चकार श्रीकन्दलौकारः। स हि धर्मोत्यादकस्तिरयत्यन्तरायबीजमिति। व्यञ्चकपक्षस्य त्वस्वीकार एव परीहारः । __यदण्याचचक्षे दक्षेण नमस्कारात् कस्य प्रत्यूहस्य व्यपोह इति। तदप्यल्पम् । वर्तमानस्यैव तस्य धर्मेण तिरस्करणात् । न च वाच्यं वर्तमानस्तिरस्कियत इति । उहण्डमुद्गरदण्डादिना विद्यमानस्यैव घटादेविघटनोपलम्भात् । धर्मस्येदभेव चालङ्कर्मीणत्वं यदुपेतमपि प्रत्यूह व्यपोहति । अन्यथा तेन किमुपकतं स्यात् । वरं ततश्चावश्यं शास्त्रारम्भे देवतानमस्कारोऽन्वेष्टव्यः प्रमाणप्रतिष्ठितत्वात् ।
तथाहि विवादाध्यस्तो नमस्कारः शास्त्रारम्भे ऽवश्यं विधेयो विघ्नोपशमफलत्वात् त्रिपुरादिमन्वजापवदित्यलं कुचर्चया ।
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
अथाद्यपद्यव्याख्या । सा च पदवाक्यविषया । सदुताम् ।
शास्त्रप्रकरणादीनां यथार्थावगमः कुतः । व्याख्यां विहाय तत्त्वजैः सा चोक्ता पदवाक्ययोः ॥ इति ।
तत्रापि पदकदम्बकात्मकत्वादाक्यस्यादौ पदार्थगमनिका युक्ता। सा च पदविच्छेदपूर्विकेत्यतः प्राक् पदविच्छेदः ।
प्रणम्य शम्भुं जगतः पतिं परं समस्ततत्त्वार्थविदं स्वभावतः । शिशुप्रबोधाय मयाभिधास्यते प्रमाणत दतदन्यलक्षणम् ॥
एवं पदविच्छेदो ग्रन्थसमाप्तिं यावत् स्वयमेवाभ्यूह्यः ।
अधुना पदार्थः । अभिधास्यते वक्ष्यते । अभिधास्यत इत्यस्याः क्रियायाः सकर्मकत्वात् किमपेक्षायां कर्माह। प्रमाणे त्यादि । प्रमीयते परिच्छिद्यते संशयादिव्यवच्छेदेन वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणं प्रत्यक्षानुमानागमरूपम् । तद्भेदा योगिप्रत्यक्षादयस्तदन्यत्प्रमयादिकम् । प्रमाणञ्च तज्दाश्च तदन्यच्च प्रमाणत दतदन्यानि तेषां लक्षणं स्वपरजातीयव्यावर्त्तको धर्मः। खनिश्चयसामर्थ्यात् पदार्थानां परस्परासायेण निश्चायको धर्मो वा तत् । ___ ननु प्रमाणत दादीनां किमेकं लक्षणमनकं वा। यद्येकं तहि तेषामेक्यापत्तिरेकलक्षणनिष्ठत्वादैक्यस्य । सा च विरुद्धा । प्रमाणत दादीनामाबालगोपालं भेदेन प्रतीतत्वात् ।
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ÷ ।
अथानेकं तदा लक्षणानां भूयस्त्वाल्लचणमित्यत्र बहुवचनं न्याय्यमिति चेत् सत्यम् । किन्तु एकैकस्मादेव लक्षणात् प्रमाबादि परिच्छेत्तव्यमिति प्रतिपत्त्यर्थमेकवचनं चक्रे । अन्यथा बहुत्वे ह्येकैकं बहुभिर्लक्षणैर्लक्ष्यमिति भ्रान्तेर्लक्षणं वान्योन्यलक्षणतो लक्ष्यमित्यनवस्था दौस्थ्यस्य च सम्भवात् ।
केनाभिधास्यत इत्याह । मया भासर्वज्ञेन 1 क्रियाबलादेव कर्त्तरि प्राप्ते मयेति पदं कर्तुः स्वातन्त्रयामन्त्रणार्थं स्वातन्वा स्यैव परमतत्वामृतोपदेशं प्रति धुर्यत्वात् ।
प्रेक्षावत्प्रवृत्तेः प्रयोजननिष्ठत्वेनात्वापि मित्याकाङ्गायामाह । शिशुप्रबोधायेति । अनधीततर्कशास्त्राचेह शिवो न पुनः स्तनन्धयास्तेषां तर्क प्रवेष्टुमनधिकृतत्वात् । तेन वर्षीयसा न व्यभिचारः । कदाचि
!
तस्यापि व्युत्पाद्यत्वात् । तेषां प्रकृष्टो बोधस्तत्त्वज्ञानं तस्मै प्रबोधेत्यत्र प्रथब्दोपादानेनान्यप्रकरणेभ्यः स्वप्रकरणस्य कर्त्ता वैशिष्ट्यमाचष्टे । बोधमात्रकारित्वात् तेषामस्य तु प्रबोधकारि त्वात् ।
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प्रयोजनं वाच्य -
अधीतान्यशास्त्रा
सर्वापि क्रिया इष्टदेवतानमस्यापूर्वा भवतीति तामाचष्टे प्रणम्येति । केवलेनापि नमा नमस्याया लब्धत्वादव प्रशब्दो भक्तिश्रद्धातिशायितया नमस्यां विशिनष्टि । तमेव विशिनष्ट्चन्य इति वचनात् । तादृश्या एव तस्या धर्मनिर्माणं प्रति हेतुत्वात् । कमित्यपेचायामाह । शम्भुमिति । शं सुखं भवत्यस्मादिति शम्भुस्तं महेश्वरमित्यर्थः ।
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
ननु शम्भोरभावानिराश्रया तबमस्येति चेन्न । तार्तीयिकपरिच्छेदे शास्त्रकारेणैव तस्य साधयिष्यमाणत्वात् । तथाप्यनुयोक्तव्यस्त्वम् । कुतः सा निराशया तदभावादिति चेन्न । अभावेनैव तत्सद्भावविभावनात् । कथमिदमिति चेत् । अभावस्य भावप्रतियोगित्वात् यस्यैव भावस्तस्यैवाभाव इति वचनाञ्च ।
तथाहि । स प्रमितोऽप्रमितो वा प्रतिषिध्यते । प्रमितश्चेत् तद्ब्राहिणैव प्रमाणन बाधः । अप्रमितश्चेत्तय तिप्रसङ्गः। नयाप्रमितो घटादिरपि प्रतिषेधुं शक्यः । तदुक्ताम् ।
लब्धरूप क्वचित्किञ्चित्तागेव निषिध्यते । विधानमन्तरेणातो न निषेधस्य सम्भवः ।
इत्यलं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः ॥
ननु जगतः पत्यादीनि पदानि किं स्वरूपपराणि व्यवच्छेदकानि वा। आदो तानि वैयर्थमास्तिवीरन् । एकनापि खरूपस्य प्रतिपादितत्वात्। हितोये किं व्यवच्छेद्यमत्रोच्यते । शं सुखं भवत्यस्मादिति व्युत्पत्त्या स्रक्चन्द नवनितादिभ्योऽपि जायमानसुखत्वेन तेषां नमस्या स्यात् । न च तन्नमस्या प्रशस्येति तन्निवृत्त्वर्थमाह। पतिमिति। स्वस्वग्रहापेक्षया सर्वेषां पतित्वमस्ति ! पातोति व्युत्पत्तेस्त हुादासाथ जगत इति । जगत इत्यत्र कवचनं जात्या। अन्यथा तेषां बहुत्वादत्र बहुवचनं न्याय्यं स्यात्ततो जगत: स्वामिनमित्यर्थः । जगत्पतित्वं देवेन्द्राणामस्तीति तावच्छेदाय परमिति । उत्कृष्टमन्याप्रेय॑मिति यावत् ।
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः।
५१ ईखरप्रेयत्वेनेन्द्रादीनामपरत्वात् । आत्मनोऽन्यत्वेन परत्वं सांख्याभिमते प्रकृत्यपरपर्याये प्रधानेऽप्यस्तीति तयाहत्त्यर्थं समस्ततत्त्वार्थविदमिति । यस्य वस्तुनः प्रमाणोपपन्नं यत्स्वरूपं तत्तस्य तत्त्वम् । नेत्र विशिष्टा अर्थास्तत्त्वार्थाः समस्ताश्च ते तत्त्वार्थाश्च समस्ततत्त्वार्थास्तान् वेत्ति समस्ततत्त्वार्थवित् तं सर्वनमित्यर्थः । समस्ततत्त्वार्थवित्त्वं योगिवष्यस्तौति तदधनुत्त्यै प्राइ। स्वभावत इति । योगिनो ह्यष्टाङ्गयोगैश्वर्य जनितज्ञानेन समस्ततत्त्वार्थविदः स्यरसौ भमवांस्तु योगादिलेशं विनैव नित्यज्ञानवानिति तात्पर्य्यम् ॥
इह प्रमाणप्रमेय संशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतकनिर्णयबादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानात्रिशेयसाधिगम इति। श्रीअक्षपादप्रतिपादितमूलसूत्रापेक्षया विपर्यस्ता अप्येतएव प्रमाणादय: षोड़शपदार्थाः प्रमाणत द. तदन्यलक्षणमिति पदेनाभिधेयतयोताः। अभधेयञ्च विधा प्रधानाप्रधानभेदात् । तत्र प्रधानं प्रमाणादयः पदार्थाः । अप्रधानं तल्लक्षणम् । न च वाच्यं तत्पुरुषस्योत्तरपदप्राधान्याल्लक्षणमेव प्रधानं प्राप्नोति । छात्रशतं भोजितमित्यादौ पूर्वपदप्राधान्यस्यापि दृष्टत्वात् । सम्बन्धः पुनः सामर्थ्यगम्यः स च कार्यकारणलक्षणः । तत्र कायं प्रकरणार्थपरिज्ञानम् । कारणं वचनरूपापन्न प्रकरणम् । तथा शिशुप्रबोधायेति पदेन प्रयोजनमुपन्यस्तम् । तच्चानन्तरपरम्परभेदात् वेधा। तत्र श्रोतुरनन्तरं प्रकरणार्थपरिज्ञानम् । परम्परं तु तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसावाप्तिः । परम्परप्रयोजनं सूत्रे कस्मान्त्रोक्तमिति चेन्न। प्रबोधाख्यप्रयोजनाभिधानादेव तस्त्र
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न्यायतात्पर्य दीपिका।
लब्धत्वात्तदर्थत्वात् प्रबोधस्य । ततश्च जगत्पत्याद्यसाधारणगुणविशिष्टं महेश्वरं प्रणम्य शिशुप्रबोधनिमित्तं मया भासर्वज्ञेन प्रमाणत दतदन्यलक्षणं यक्ष्यत इति वाक्यार्थः ॥ १ ॥
इह न्यायशास्त्रे चतुर्धा प्रहत्तिरुद्देशी लक्षणं परीक्षा विभागश्वेति । तत्र नाना पदार्थानां सझेपेणाभिधानमुद्देशः । उद्दिष्ट स्य स्वपरजातीयव्यावर्तको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथालक्षणं विचारः परीक्षा । उद्दिष्टस्यैवावान्तरभेदप्रकटनं विभागः। तत्र प्रमाणत देत्यादिपदेनोद्दिष्टस्य प्रमाणस्यैव यथोद्देशं निर्देश इति न्यायात् प्राक् लक्षणमाह।
सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणमिति ।
अत्र प्रमाणमिति लक्ष्यं शेषं तु लक्षणं भवति । किं प्रमाणम् । प्रागुक्तशब्दार्थः । किं तत् । सम्यगनुभवसाधनम्। सम्यगव्यभिचारी योऽसावनुभवो वस्तुपरिच्छेदः प्रात्यक्षिकानुमानिकशाब्दरूपः । तस्य साधनं करणमिन्द्रियलिङ्गशब्दरूपमिति । ___सम्यगित्यादिपदानि स्वयमेव व्यवच्छेत्स्यत्याचार्यस्तथापि किञ्चिदुयते । प्रमाणमित्युक्तो किं प्रमाणमिति साकांक्षं वचो व्यर्थ स्यालक्ष्यलक्षणानुपपत्तिश्च । तडावच्छित्तये साधनमिति पदम् । तथापि विद्यादिक्रियासाधनत्वेन दाबादावतिव्याप्तिस्त निवृत्तये अनुभवेति पदम्। एवमपि प्रमाणाभासेऽति. प्रसक्तिस्तंदपनुत्त्य सम्यगिति पदम् । ततः संशयादिरहितस्यार्थपरिच्छेदस्य यत्साधनं करणं तत्प्रमाणं भवतीत्यर्थः । अनेन
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
लक्षणेन स्वरूपेण सिद्धस्यापि प्रमाणस्य समानासमानजातीयप्रमाणाभासप्रमेयादिभ्यो व्यावृत्तिर्व्यवहारादिव साध्यते । अन्यथा सिद्धे साधनवैयर्थ्यात् । तथाहि । प्रमाणमितरेभ्यो व्यवच्छिद्यते । प्रमाणत्वाभिसम्बन्धात् । यश्वेतरेभ्यो व्यवच्छिद्यते तत्र प्रमाणत्वाभिसम्बद्धम् । यथा संशयादि । न च तथा नेदं तस्मादितरेभ्यो व्यवच्छिद्यत इति । यद्दा विमतं प्रमाणमिति व्यवहर्त्तव्यं प्रमाणत्वाभिसम्बन्धात् । न यदेवं न तदेवं यथा संशयादि । न च तथा नेदं तस्मात्प्रमाणमिति व्यवहर्त्तव्यमेव । यो वा प्रमाणमिति शृणोति लोके न जानाति च तस्य स्वरूपं कोहगिति तं प्रति खपरजातीयव्यवच्छेदः क्रियत इति ।
ननु प्रमेयाणां स्वरूपज्ञानं प्रमाणाधीनम् । प्रमाणस्य तु स्वरूपज्ञानं किं तस्मात्परस्माद्दा । तस्माचेन । असम्भवात् । न हि सुतीक्ष्णापि कृपाणी स्वयं खं हिन्दीत स्वाश्रयापत्तेश्च । परस्माश्चेत् किं प्रमाणादप्रमाणादा । प्रमाणाश्चेत्तस्यापि स्वरूपपरिच्छित्तिस्तस्मात्परस्माद्दा । तस्मश्चेित् स एव प्रागुक्तो दोषः । परस्मादपि प्रमाणादप्रमाणादा । प्रमाणञ्चित्तस्यापि ज्ञानम् । तस्मात्परआहेत्यनत्पविकल्पावर्त्ते गर्त्ते निपातः । अप्रमाणात्संशयादेव लक्षणाद्दा । श्रद्ये कल्पे विरोधी न खल्वज्ञानरूपात्संशयादेर्ज्ञानरूपप्रमाणपरिच्छित्तिः स्यात् । द्वितीये ज्ञातादज्ञाताद्दा | ज्ञाताचेत् ज्ञातत्वं तस्मादेव लक्षणान्तरादा । श्रद्ये स्वाश्रयः । द्वितीये लक्षणान्तरस्यापि ज्ञातत्वं लक्षणान्तराद्दाच्यम् । तस्यापि
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५४
न्यायतात्पर्यदीपिका। लक्षणान्तरादित्यनवस्थास्वरूपदौख्यम् । अज्ञाताचेत्तीतिप्रसक्तिरज्ञातः कथमवगमक इति ।
अनोच्यते । न वयं प्रमाणस्वरूपपरिज्ञानं तस्मादेव प्रमाणाप्रमाणान्तराहा ब्रमो येन त्वदुक्तः स्वाश्रयादिदोषोपनिपातः स्यात् । किन्तु लक्षणादेव । न च वाच्यं लक्षणस्यापि लक्षणा. न्तरान्निर्णयेऽनवस्थेति । अप्रतीतो लक्षणापेक्षणात् । न च विश्ववाप्यप्रतीतिः। तथाद्यप्रतीताग्निः पुमान् धूमादग्निं ज्ञाप्यते । न च स धूममप्यन्यस्माद्धेतोः प्रतीविषति । यस्तु धूममात्रेऽव्युत्पन्नो न तं प्रत्युपदेशस्तस्थ बालमूकवदनधिकारात् । ततो लक्षणात् प्रमाणस्वरूपप्रतीतिर्भवत्येव । तथाच प्रयोग: विवादास्पदं प्रमाणं सम्यगनुभवसाधनत्वात् । यत् प्रमाणं न भवति तत् सम्यगनुभवसाधनं न भवति । यथा संशयादि । सम्यगनुभवसाधनं चेदम् । तस्मात् प्रमाण मेवेति । अत्रासिद्धतादिदूषणोद्दारः खयमभ्यू ह्यः। तस्मात् स्वव्यक्त्यव्याप्तपा परव्यक्तिव्याप्तयाऽसम्भवितया च अव्यापकत्वमतिव्यापकत्वमसम्भवित्वञ्च लक्षणदोषाः । तत्र यल्लक्षणं न व्याप्नोति तदव्यापकम् । यथा वेदवित् ब्राह्मणः । इत्यत्र माणवके व्यभिचारः । यच्च लक्ष्यादतिरिके वर्तते तदतिव्यापकं यथोपवीतभृत् द्विजः। अत्र क्षत्रियादावतिव्याप्तिः । यन्न सम्भवत्येतदसम्भवि। यथा सुरापो हिजोऽत्र सुरापायित्वमसम्भवि। एतद्दोषत्रयाभावे सुस्थं लक्षणम् । तथाच सम्यगनु भवमाधनं प्रमाणमिति सुस्थं लक्षणम् ।
नन्वीश्वरज्ञाने अव्यापकमिदं लक्षणं तस्यानभवरूपत्वात ।
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
अस्य सम्यगनुभव साधनरूपत्वादिति चेन्न । लौकिकप्रमाणोद्देशेनास्य प्रवृत्तत्वात्तद्यायकत्वे सतीश्वरज्ञानाव्यापकत्वेऽपि न दोषः । कथमेतदिति चेत् । पुरो लौकिकानामेव संशयादीनां प्रस्तूय
५५
मानत्वात् ।
ननु प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानीति प्रमाणविशेषलक्षणेनैव प्रवृत्तैर्मूलसूत्रैः सहास्य प्रकरणस्य विरोधः प्रमाणसामान्यलक्षणस्याप्यत्र प्रस्तुतत्वात् । न । प्रकरणत्वादेवास्य विरोधाभावात् । प्रकरणं हि मूलसूत्रातिरिक्तार्थमपि भवति । तदुक्तम् ।
शास्त्रेदेश सम्बद्धं शास्त्रकाय्यान्तर स्थितम् ।
आहुः प्रकरणं नाम ज्ञास्त्रभेदं विपश्चितः ।
यहा सामान्यलक्षणं विना विशेषलक्षणस्य वक्तुमशक्यत्वात् अत्र प्रमाणसामान्यलक्षणप्रणयनम् । सामान्यं विना विशेषाणां खरविषाणायमानत्वात् । तदप्युक्तम् |
सामान्यलक्षणञ्चोक्ता विशेषस्यैव लक्षणम् ।
न शक्यं केवलं वक्तुमतोऽप्यस्य न वाच्यता ॥ इति ॥ २ ॥ अथ स्वप्रणीते प्रमाणलक्षणे सम्यगिति पदं व्यवच्छेत्तुमाह ।
सम्यग्ग्रहणं संशयविपर्ययापोहार्थमिति ।
संशयविपर्ययौ वच्यमाणस्वरूपौ । तयोः प्रमाणफलत्वेन निराकरणमपोहस्तदर्थम् । यहा संशयविपर्ययाभ्यां सकाशा दपोहो व्यावृत्तिरनुभवस्य तदर्थमित्यर्थः ।
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
ततस्तत्साधनानामपि प्रमाणत्वं व्यवच्छिन्नं भवति । फलस्य हि सम्यतासम्यक्त्वाभ्यां प्रमाणतदाभासयोः सम्यक्तासम्यो निर्णी येते। तेन सम्यगित्येतत्पदं फलविशेषणत्वेन व्याख्येयम् । सम्यक् चासावनुभवश्चेति ।
ननु किमिदं सम्यक्त्रं नाम येन तदपोहः । स्वस्वरूपावस्था. यित्वमिति चेत्र। संशयविपर्यययोरपि स्वस्वरूपनिष्ठतया प्रमाणखापत्तेः। अविसंवादकत्वमिति चेन्न । यथोतस्वस्खविषयज्ञापनेन तयोरप्यविसंवादकत्वाभ्युपगमात् । अन्यथा तत्खरूपमेव न स्यात् । ज्ञानान्तरेणाबाध्यमानविषयत्वमिति चेत् । तत् किं तस्मिन्नेव क्षणे क्षणान्तरे वा। नाद्यः पक्ष: अनुभवक्षणे संशयविपर्यययोरपि तथाभावात्। न द्वितीयः सत्यज्ञानस्थापि जानान्तरेण बाध्यमानत्वात् । तत्कथमेतादृशेन सम्यक् न तदपोहः स्यात् । अत्रोचते।
विशिष्टवस्तुस्वरूपपरिच्छेदकत्वं सम्य लम् ।
तेन च संशयस्य निर्विशिष्ट विषयतया विपर्ययस्य च मिथ्यारूपविषयतया व्यपोहः सिद्धः ।
भूषणकारस्तु तथाभूतार्थनिश्चयस्वभावत्वं सम्यक्त्वम्, तहिप रीतानुभवस्वभावत्वमसम्यक्वामिति सम्यवासम्यक्त्वाखरूपमाह ।
एतेनेतदपि प्रत्युक्तम् । यदुक्तं केनचित्, स्थाणुत्वपुंस्त्वयोः शुक्तिकाशकलकलधौतयोश्च स्वस्वक्षणे सत्यत्वात् क्वचिदर्तमानवाच्च संशयविपर्ययज्ञानयोः सत्यति ।
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
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तथाहि । तदु ज्ञानं किं निश्चितं अनिश्चितं वा । आधे कथं ज्ञानान्तरेण बाधः । द्वितीये कथं सत्यता स्यादनिश्चित
त्वादिति ॥ ३ ॥
श्रज्ञातस्वरूपयोः संशय विपर्य्यययोरपोहितुमशक्यत्वादादौ
संशयं लक्षयति ।
तत्रानवधारणज्ञानं संशयः ॥
अत्र तत्र शब्दो निर्द्धारणार्थः । तत्र तयोः संशयविपर्यययोमध्ये । संशयस्तावन्निर्द्धार्य्यते । निर्धारणं च जातिगुणक्रियानिमित्तमित्यत्र संशयस्य जीवगुणत्वाद् गुणनिमित्तं निर्द्धारणं विज्ञेयम् । संशेरते मुह्यन्तीन्द्रियाण्यस्मित्रिति संशयः ।
न विद्यतेऽवधारणा यस्य तदनवधारणं तच्च तद् ज्ञानञ्चानवधारणज्ञानमनिचितज्ञानमित्यर्थः । संशय इत्युक्ते किमपेक्षा स्वात्तनिवृत्त्यै, ज्ञानमिति पदम् ।
तथापि घटोऽयमिति सत्यज्ञानेऽप्यतिव्याप्तिस्तत्परिहृत्यै अनवधारणमिति । अनवधारणमित्युक्ते विशेषणं विशेष्यापेक्षमिति ज्ञानपदम् । न चैतद्दाच्चम् | अनवधारणं च तत् ज्ञानं चेति । मिथो व्याघातान्न युक्तमिति । गोशब्दादिवद् ज्ञानशब्दस्य । जातिनिमित्तत्वात् । सा च ज्ञानत्वजातिर्निषयानिश्चयस्वभावासु व्यक्तिषु वर्त्तत इति न मियो व्याघातः । तस्मादनिश्चितज्ञानं संशयो भवतीति तात्पर्य्यम् ॥ ४ ॥
अथ लक्षितस्य संशयस्यावान्तरितभेदमाह ।
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
___स च समानधर्मानेकधम्मविप्रतिपत्त्युपलब्धानुपलब्धिकारणभेदात् पञ्चधा भिद्यते ॥
तच्छन्दस्य प्राकरणिकापरामर्शित्वात् स पूर्वोत्ता: संशयः पञ्चधा भिद्यत इति संबन्धः । कस्मादित्याह। समानधर्मेत्यादि समानश्चासौ धम्मश्चेति कम्मधारये समानः परिमाणादिरूपी धम्मः प्रत्याश्रयं भिन्नो लभ्यते। समानस्य धम्म इति षष्ठीतत्पुरुषे तु प्रत्याश्रयमभिन्नोऽपि धम्मः सामान्यावयविसंयोगादिरूपो लभ्यते । अनेकस्मात् सजातीयविजातीयाह्यावर्त्तको धर्मोऽनेकस्यासंबन्धी वा अनेकस्मिन् प्रतिषिद्धो वा अनेकप्रत्ययहेतुर्वा भेदसाधकलेनेत्यतोऽनेकधम्म इति । सर्वत्र मध्यपदलोपिसमासात् सर्वथाप्यसाधारणो धम्म इत्यर्थः । व्याहत: प्रवादो विप्रतिपत्तिः । प्राप्तिरुपलब्धिरप्राप्तिरनुपलब्धिः। पश्चाइन्हस्ता एव यान्यसाधारणानि कारणानि अझुक्यादीनि तेषां भेदः पार्थक्यं तस्मात् ।
कोऽर्थः । समानधर्मादिरूपात् कारणपञ्चकात् संशयः पञ्चविधो भवति। ततो विशेषापेक्षसामग्रंत:पतितात् समानधर्मादसाधारणकारणाद्यदनवधारणं ज्ञानं स्फुरति तदनेकधम्माद्युपलक्षितसामग्रीजनितेभ्यः संशयेभ्योऽर्थान्तरं भवतीत्येवमन्येष्वपि संशयेषु वाच्यम् ।
यद्यपि सूत्रकारवार्तिककारमत समानानकधर्मोपपत्ते. विप्रतिपत्तेरुपलब्धानुपलब्धाव्यवस्थातोऽविशेषापेक्षो विमर्श; संशय इति वचनात् संशयस्त्रेधा। तथाप्यसो भाथकारमतेन संशयस्य पाञ्चविष्यमभिहितवान् ।
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
ननु संशयएव नास्ति। कुतः तत्याञ्चविध्यचिन्ता। यत: संशयज्ञाने किं धर्मी धर्मो वा प्रतिभाति । यदि धर्मी स किं तात्त्विकोऽतात्त्विको वा। यदि तात्त्विकः कथं तर्हि तडुः संशयत्वं तात्त्विकार्थग्रहणात् । अथातात्त्विकः तमुतात्त्विकार्थविषयत्वाद्धान्तिरेव न संशयः ।
अथ धम्मः किं स्थाणुल्वरूपः पुंस्त्वरूप उभयरूपो वा । पक्षत्रयेऽपि तात्त्विकत्वातात्त्विकत्वविकल्पाभ्यां प्राग्वदोषः । अधैक तात्त्विकमन्यदतात्त्विकं तर्हि ज्ञानं तदेकमेवाधान्तं भ्रान्तं च स्यात् । मैवं संशयः खलु सर्वेषामनवधारणप्रत्ययात्मकत्वेन स्वात्मसंवेद्यः। स धर्मिविषयो धर्मविषयो वा नोच्छेत्तुं शक्यः प्रमाणसिदत्वादिति।
ननु लक्षणभेदाम्लक्ष्यभेदस्तत्कथमत्र लक्षणस्यैक्यात् संशयस्य पाञ्चविध्यं मंगच्छते। मैवमुभयथा भेदो वस्तूनां लक्षणभेदात् कारणभेदाच। तदुक्तम् ।। ___ अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्यहिरुडधम्माध्यास: कारणभेदश्चेति ॥ ५ ॥ क्रमेणोदाहरति । तद्यथा समानधर्मात् किमयं स्थाणुः स्यात्पुरुषो वेति ॥
दिग्विशेषावस्थिते दीर्घद्रव्ये अर्द्धप्रत्ययनिमित्तमूर्खत्वम् । तच्च परिमाणं वा सामान्यं वा। तस्मात् कारणभूतात् स्थाणुपुरुषयोः समानात् धम्मादयं पुरःस्थितो भावः किं स्थाणुरुत पुरुषो वा स्थादित्युभयविमर्शात्मकः संशयः प्रादुर्भवति। अयं भावः ।
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
ग्राम्याः ग्रामसीमापरिज्ञानाथं सुधाधवलितमूईस्थापितस्थालीकम् स्थाणुमारोपयन्ति। तच्च पान्यो विभातप्रायायां क्षपायां दृष्ट्वा हयोस्तुल्याङ्घाकारविलोकनात् किमयं स्थाणुः स्यादुत पुरुषो वेति संशयीत। वक्तत्वकोटरवादीनां करचरणादौनां च विशेषणानामनीक्षणात् ।
न च वाच्यं समानधर्मस्य संशयजनकत्वे तन्मूलत्वात् प्रत्यभिज्ञोपमानयोरपि संशयत्वापत्तिरिति । तयोः समानधम्मस्यैकत्र निश्चितत्वादनयोस्त्वनिश्चितत्वात् । अयं च प्रत्यक्षविषयत्वात् प्रात्यक्षिक: संशय इति ॥ ६ ॥ द्वितीयं संशयभेदं निदर्शयति ।
अनेकधम्मादाकाशविशेषगुणत्वात् किमयं शब्दो नित्यः स्यादनित्यो वेति ॥ __ अत्र शब्दं प्रति वादिनां नित्यानित्यतया हे विप्रतिपत्ती। तत्र शाब्दे स्वेसितधर्मसाधनाय यदि कश्चिदाकाशविशेषगुणत्वं हेतुत्वेन प्रयुञ्जीत तदा पारिषद्याः संशयोरन् ।
ननु नित्येभ्यो व्यावृत्तस्वरूपोऽनित्यो दृष्टोऽनित्वेभ्यस्तु व्यावृत्त खरूपो नित्यो दृष्टः । ___ शब्दस्तु नित्यानित्यव्यावृत्तेनाकाशविशेषगुणत्वेन युक्तः तत् किं नित्येभ्यो व्यावृत्तत्वात् घटादिवदनित्यः स्यादुतानित्वेभ्यो व्यावृत्तवादात्मादिवन्नित्य इति । न च नित्यत्वानित्यत्वे एकत्र स्तो मिथो विरुद्धत्वात् ।
यद्दा अनेकश्चासौ धम्मश्चेति कर्मधारये एकत्र विरुद्धार्थ
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
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ग
हयाविनाभूतादपि धर्मात् संशयः स्यात् । यथा किं क्रियावत्त्वाच्छरवन्मूतं मनः स्यादुतास्पर्शवत्त्वादाकाशवदमूर्त्तमिति ।
नन्वसाधारणधम्मस्य स्वधर्मिणां विशेषरूपत्वाद्विशेषदर्शनस्य च. प्रत्युत संशयनाशकत्वात् कथं संशयजनकत्वमिति चेत् । सर्वव्यावृत्तत्वायतिरेकमुखेनेति ब्रूमः । तदुक्तम् भट्टाचार्यैः ।
यस्त्वसाधारणो धर्मस्तदभावमुखेन तु । इयो: सत्त्वविरोधाच्च स नः संशयकारणमिति ॥
ननु शब्दस्याकाशविशेषगुगात्वं कुत इति चेत् । अनुमानादिति ब्रूमः। शब्दो गुण: सामान्यवत्वास्पर्शवत्त्वे सति बा केन्द्रिय प्रत्यक्षत्वाद्रूपादिवदिति । एतेन गुणत्वे सिद्धे गुणस्य च साश्रयत्वे पृथिव्यादिषु निषत्स्यमानत्वेन पारिशेष्यादाकाशमाश्रयः ।
तथाहि । शब्द: स्पर्शवतां गुणो न भवत्ययावयभावित्वादिच्छादिवत् । नात्म मनसोर्गण: शब्दोऽस्मदादिबाह्येन्द्रिय ग्राह्यत्वात् रूपादिवत् । नापि दिक्कालयोगुण: शब्दो विशेषगुणात्वाद्रूपादिवत् । अतः पृथिव्याद्यष्टट्यव्यतिरिक्ताशयाश्रित: शब्दस्त हत्तिबाधकप्रमाणवत्त्वे सति गुणत्वात् । यस्त्वेवं न भवति नासौ तथा यथा रूपादि। न च तथा न शब्दस्तस्मात्तातिरिक्ताश्रयाश्रित इति । यदाश्रितश्चायं तदाकाशमेव ।
अयञ्च संशयोऽनुमानानन्तरोत्पदिष्णुत्वादानमानिक इति ॥७॥ तृतीयं संशयभदमुदाहरति । विप्रतिपत्तेरेके भौतिकानौन्द्रियाण्याहुरन्येत्वभौतिकानोति ॥
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
इन्द्रियाणां भौतिकवाभौतिकवभेदेन हैविध्यम् । तत्र एके इति न्यायवादिन: संगिरन्ति । ___ इन्द्रियाणि भौतिकानि पृथिव्यादिपञ्चभूतेभ्यो घ्राणाद्यनुक्रमेण जातानीति। कथमेषां भौतिकत्वमिति चेत्। उच्यते इन्द्रियाणि भौतिकानि करणत्वाहावादिवदिति। यद्देन्द्रियाणि भौतिकानि भूतगुणप्रकाशकत्वात्प्रदीपवत् ।
किञ्च एकाहङ्कारप्रकृतित्वेत्वेकं वा सर्वार्थमिन्द्रियं सर्वाणि वा सर्वार्थानि स्युः । विषयनियमादप्येषां प्रततिनियमोऽनुमीयते । पञ्चत्वमपि तत्पञ्चत्वात् । इत्यमिन्द्रियाणां भौतिकत्वे साधिते अन्ये इति सांख्या: समाख्यान्ति। इन्द्रियाण्याहङ्गारिकाणि तत्सत्त्वञ्च रूपादिज्ञानकाऱ्यांन्यथानुपपत्तिगम्यम्। ततश्चेन्द्रियाण्याहङ्गारिकाणि । मदर्थी एवामी इत्यभिमानेन विषयपरिच्छेत्तवात् । व्यतिरेके दात्रादिवदिति । तदुक्तं तत्त्वकौमुद्याम् ।
प्रततेमहांस्ततोऽहङ्कारस्तस्मागणश्च षोड़शकः । तस्मादपि षोड़शकात् पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ॥ अभिमानोऽहङ्कारस्तस्माद्विविधः प्रवर्तते सर्गः ।
एकादशकश्च गणस्तन्मात्र: पञ्चकश्चैव ॥ अनयोरुपयोग्यर्थलेशः । मदर्था एवामी विषयाः मत्ती नान्योंऽधिक्कतोऽत्र कश्चिदहो अहमस्मीत्यभिमानरूपादहङ्काराविधा सर्गः स्थादक इन्द्रियाय एकादशको गण: पञ्चकस्तन्मात्रश्च । सत्त्वाधिकाहङ्कारोपादानत्वमिन्द्रियत्वम् । तद्दिधा बुद्धिकम्मभेदात् । तत्व प्राणादीनि पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि वागादीनि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
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एकादशं मन इति । एवं सांख्येनेन्द्रियाणामाहङ्गारिकत्वे समर्थित सभ्याः सन्दिहोरन् । स्वस्खागमसमर्थाया मिथो विरुद्धायाः प्रतिपत्तेरिन्द्रियाणि किं भौतिकानि स्युरभौतिकानि वा। एकत्र विरुद्धधर्मदयाघटनात् । एकस्यापि स्वरूपस्यानिश्चितत्वात् । अयच्चागममूलत्वादागमिकः संशय इति ॥ ८॥ चतुर्थं संशयभेदं समर्थयति ।
उपलब्धेः किं सदुदकमुपलभ्यते उतासदिति ॥ विधिमुखेन ज्ञानप्रवृत्तिरुपलब्धिस्तस्था एवं संशयः । कापि कूपखननानन्तरं जलोपलब्धौ तदुपलब्धा संशेते तटाकादौ जलं सदुपलब्धं मरुमरीचिकाचक्रे चासत् । इदानीमत्र जलं यदुपलब्ध तत् किं सदसद्देति । ___ ननु सतएवोपलम्भादयं संशय एव न भवतीति चेन्न । मरुमरीचिकाचक्रादावसतोऽप्युपलम्भात् । भ्रान्तस्तदुपलम्भ इति चेन्न । उपलम्भक्षणे चान्ताभ्रान्तत्वव्यवस्थादौस्थयात् । उत्तरक्षण तहाध इति चेत्र। इदमन्यसंशयेऽपि सममिति ॥ ८ ॥ संशयस्य पञ्चमं भेदं प्रपञ्चयति ।
*अनुपलब्ध: किमविद्यमानः पिशाचो नोपलभ्यते । किं वा विद्यमान इति ॥
प्रतिषेधमुखेन प्रवृत्तं ज्ञानम् । ज्ञानानुत्यादश्चानुपलब्धिः ।
* The reading adopted by the commentictor bere differs somewhat from our text ( Vide p, 2. liuc 3. ]
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६४
न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
तस्या इस्थं संशयः। श्मशाने पिशाचोऽस्तीति कश्चित् प्रसिद्धिमाकलय्य तत्र गत्वा तमदृष्ट्वा सन्दिग्धे ।
ननु घटादिकं कायसनोपलभ्यते । नियादिकं क्वापि सदपिच नोपलभ्यते। तदव पिशाचो यत्रोपलभ्यते तत् किं विद्यमानोऽविद्यमानो वेति। नचोपलब्धिमात्रमनुपलब्धिमात्रं वा संशयहेतुर्यनातिप्रसङ्गः । किंतपलब्धानुपलश्याव्यवस्थासहितं विशेषायेक्षञ्च । अतएव मूलसूत्रे तयोरेवं लक्षणं कृतम्। उपलब्धुपपत्तेरुपलब्धानुपलब्धव्यवस्थातोऽविशेषापेक्षो विमर्शः संशयोऽनुपलब्धपपत्तेरुपलब्धानुपलब्धाव्यवस्थातोऽविशेषापेक्षो विमर्शः संशय इति ।
ननूपलब्धित्वमनुपलब्धित्वच्च सामान्यं ततः समानधर्मानानयोभद इति चेन्न । समानधर्मस्य ज्ञेयस्थत्वादनयोश्च ज्ञाटस्थत्वान्महान् भेदः ।
भूषणकारस्तु ये उपलब्धिमात्रेण शब्द स्थायित्वमनुपलब्धिमात्रेण स्वर्गवरादीनामसत्त्वञ्च्छन्ति । तन्मतप्रतिक्षेपार्थमुपलब्धानुपलब्धयोः पृथक् संशयहेतुखमित्यूचिवान् । संशयस्य त्वतत्त्वरूपस्यापि यत् षोड़शपदाऱ्या तत्त्वतया भणनं तद्दिचाराङ्गलेन संशय्य तत्त्वनियाथं प्रवर्तनात् ॥ १० ॥
ननहानध्यवसायावप्यप्रमाणस्वरूपत्वादस्मालक्षणात् व्यवच्छेत्तव्यौ तौ च कथं व्यवच्छेत्स्यते। तनिषिद्ध पदानुपादानादित्याशायाह ।
अनवधारणत्वाविशेषादूहानध्यवसाययोन संशयादर्थान्तरभाव इति ॥
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
अत्र संशयादर्थान्तरभावः पार्थक्यं न भवतीत्यन्वयः ।
कयोरित्याह। जहानध्यवसाययोरिति । जहानध्यवसायौ वक्ष्यमाणस्वरूपो तयोः । कस्मादित्याह। अनवधारणेत्यादि । अनव. धारणत्वं नामानिश्चितज्ञानत्वं तेनाविशेषस्तौल्यं तस्मात् । अयमर्थः । अहानध्यवसायावनवधारणरूपैकलक्षणाक्रान्तत्वात् संशयान्न भिद्येयातामैक्यस्यैकलक्षणवान खलु वैधय॑मात्रात्यार्थक्यं युक्त मृहलक्षण्यात् पाषाणस्थापि पृथ्वीतोऽर्थान्तरभावापत्तेः। तथाच प्रयोगः जहानध्यवसायी संशयान पृथग् अनवधारणरूपक लक्षणा. कान्तत्वात् । न यावेवं न तावेवं यथा विपर्यय इति ॥ ११ ॥ तयोः स्वरूपमाह।
*बाह्यालीप्रदेशे पुरुषणानेन भवितव्यमित्यूहः इति ॥ यत्र वाहा बाह्यन्ते तत् क्षेत्र बाह्यालीत्युच्यते । तत्र तु प्रायेण स्थावाटेरसम्भवात् कमप्यूई दविष्ठं दृष्ट्वा द्रष्टे त्यूहते मन्येऽहमवानेन केनापि अड्डेदमेन पुरुषण भवितव्यम् । अस्यैवं रूपत्वात् मंशयत्वमेव ।
ननु मूलसूत्रे जहस्य पृथगुक्ती किं प्रयोजनमिति चेत् । प्रमाणानुग्राहकत्वमिति ब्रूमः। तर्कविविक्ते विषये प्रवर्तमानानि प्रमाणानि तर्केरणानुगृह्यन्त इति पूर्जाचार्यवचनात् । भूषणकारस्तु बादादिप्रहत्तिविशेषणार्थं तकः पृथगुपदिष्ट इत्याचष्टेति ॥ १२ ॥
37" before the reading adopted here,
* In our text is added | Lite pp. :). L. 6.1
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न्यायतात्पय्यदीपिका ।
अध्यवसाय स्वरूपं निरूपयति ।
किंसंज्ञकोऽयं वृक्ष इत्यनध्यवसाय इति ॥
न विद्यतेऽध्यवसायो निश्चयो यस्मिन् । असावनध्यवसायः । कश्चित् कमपि वृक्षं पुरः प्रेच्य लक्षितवृक्षत्वोऽपि तत्संज्ञामनध्यवस्यन् विमृशति कोऽस्य वृक्षस्य संज्ञेति । अयं भावः । वृक्षसंज्ञाविषयो हि योऽर्थः सोऽपरसंज्ञाविषयोऽपि दृष्टो यथावादिरित्येवं सामान्येन विशेषसंज्ञामनुमाय तद्भेदमाम्रादिवदनुसारन् सन्दिग्धे किंसंज्ञोऽयं वृक्ष इति ॥ १३ ॥
पूर्व सम्यग्ग्रहणं संशयविपर्य्ययापोहार्थमित्युक्तम् । तत्र संशयं व्यवच्छिद्यविपय्यैयं व्यवच्छेत्तुं लत्तयति ।
मियाध्यवसाय विपर्यय इति ॥
विपरियन्तीन्द्रियाण्यस्मिन्निति विपर्य्ययः ।
मिथ्येत्यादि । मिथ्या
अतस्मिंस्तदितिरूपोऽध्यवसायो
निश्चयो मिध्याध्यवसायः । विपर्यय इति लक्षणे कृते किमपेक्षास्यात्तनिवृत्त्यर्थ मध्यवसाय इति । श्रध्यवसायः सम्यक् । ज्ञानेऽप्यस्तीति प्रासार्थं मिथ्येति । मिथ्याविपर्यय इति कृते तस्व तत्त्वं मिथ्यात्वं तच्च संशयेऽप्यस्तीति तन्निरासार्थमध्यवसाय इति । विपरीतज्ञानं विपय्य इत्यर्थः ॥ १४ ॥
विपर्य्ययो हिषानुभूयमानारोपः स्मर्यमाणारोपश्च । तत्वा
दावनुभूयमानारोपमुदाहरति ।
तद्यथा । हौ चन्द्राविति ॥
अत्र पूर्वक्षणे एकत्वेनानुभूय तन्या कनीनिकानिष्पीड़
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प्रत्यक्षपरिच्छदः ।
नात्तिमिरातिशयाहा हो चन्द्रावनुभूयेते। तदपसारणे पुनरेकएव। तत: प्राक्तनेन पाश्चात्येन च चन्ट्रैक्यग्राहिणा ज्ञानेन चन्द्रहित्वज्ञानस्य बाध्यमानत्वादिपर्यस्तत्वं स्यादिति ॥ १५ ॥ स्मय॑माणारोपमाह।
सुप्तस्य गजादिदर्शनं चेतीति । अत्र वादिनां विवेकख्यात्यख्यात्यसत्ख्यातिप्रसिद्धार्थख्यात्यामख्यातिसदसत्त्वाद्यनिर्वचनीयार्थख्यात्यलौकिकार्थख्यातिविपरीतख्यातिरूपा अष्टौ विप्रतिपत्तयः सन्ति। तासु सप्त व्यपासितुं खमते विपरीतार्थख्याति ख्यापयितुं इदमुदाहरणम् । भूषणकारस्तु ये स्वप्नज्ञान प्रमाणफलस्मृतिसंशयादिभ्योऽर्थान्तरमिच्छन्ति तन्मतप्रतिक्षेपार्थ सकलविपर्ययसंग्रहार्थञ्च हितीयमुदाहरणमित्युदाहार्षीत् । स्वप्नज्ञानस्य कथं विपर्ययत्वमिति चेत् । गजादीनां प्रागनुभूतानां स्वप्ने देशकालावस्थावैपरीत्येनानुभवनात् । अन्यत्रानुभूतमन्यत्र कम्यं स्मर्य्यत इति चेत् । अनुभवोऽनुयुज्यताम् । न खल्वनुभवेऽप्यप्रतीतिर्नाम । तदुक्त
जन्मन्येकत्र भिन्ने वा तथा कालान्तरेऽपि वा। तद्देशे वा ऽन्यदेश वा स्वप्रज्ञानस्य गोचरः ॥ अननुभूतप्रतिभासाङ्गीकारे च षष्ठभूतप्रतिभासानुषङ्गात् । देशादिवपरीत्यन्वनुभवसिद्धम् । तदेवं नैयायिकमते विपरीत ख्यातिव्यवस्थापिता। इतरख्यातिमिरासो भूषणादिशास्तेभ्यो जेयः ॥ १६ ॥
अथानुभवपदं व्यवच्छेत्तुमाह ।
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__ न्यायतात्पर्य दौपिका। स्मरणज्ञानव्यवच्छेदार्थमनुभवग्रहणमिति ॥ स्मरणञ्च तत् ज्ञानञ्चेति विग्रहः। इह ज्ञानं पञ्चधा संशयज्ञानं विपर्ययज्ञानं स्मरणज्ञानं धारणाज्ञानमनुभवज्ञान ञ्चेति । तत: स्वविषयं प्रति सम्यक् साधनत्वेन स्मरणज्ञानस्यापि जायमानं प्रामाण्यमनुभवपदेन व्यावय॑ते । स्मरणस्याननुभवरूपत्वात्। कस्मात् स्मरणज्ञानमप्रमाणमिति चेत् । रज्जुसर्यादि. ज्ञानवत् भ्रान्तत्वादिति ब्रूमः । दत्तग्रहादिव्यवहारः कथमिति चेन्न मानसप्रत्यक्षेणेव तस्य सिद्धत्वात् ।
एतेनाक्षपादपचे स्मरणमप्रमाणमित्यावदितम्। प्रयोगशात्रस्मरणमप्रमाणं भ्रान्तज्ञानत्वात्। रज्जमर्पज्ञानवदिति। यत्र तु स्मरणाज्ञानेति पाठस्तत्राज्ञानपदेन स्वर्गसाधनस्य यागादेयंवच्छेदः ॥ १७ ॥ साधनपदव्यवच्छेदमाह।
प्रमाटप्रमेयव्यवच्छेदार्थ फलाद्भेदज्ञापनार्थं च साधनग्रहणमिति ॥
साध्यते अनेनेति करणाभिधायिना साधनपदेन प्रमाटप्रमेययोः कर्तृकम्मणोः फलस्य च प्रमारूपस्य प्रामाण्यं व्यवच्छिद्यते। करणस्य माधकतमत्वात् । प्रमात्रादीनां चासाधंकतमसात् ।
ननु कथं प्रमाबादीनां प्रामाण्यप्रसक्तियन्निवृत्त्यै साधनपदोपादानमिति चेत् । व्युत्पत्तिबलादित्याचक्ष्महे । तथाहि । अनुभवतीति कत्र्तव्युत्पत्त्या प्रमातुरनुभूयत इति कम्मव्युत्पत्त्या प्रमेय
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
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स्यानुभूतिरिति भावव्युत्पत्त्या प्रमायाश्च प्रामाण्यं स्यात्तच्चानिष्टं तेषां प्रमाणाझेदेन सर्वत्र प्रसिद्धत्वात् । तथा साधनपदेन प्रमाणफलयोर्भेदं ज्ञापयता तदपि प्रत्युक्तम् । यदुन बौद्धैः । ___ परिच्छेदरूपमेव ज्ञानमुत्पद्यते । न च परिच्छेदाते ज्ञानमन्यत् फलं प्रसूते । भेदे तु यथा प्रमाता सह संबध्यते तथा तदितरेणापि सम्बड्यतां निर्विशेषादित्यादि। भेटे सति हि प्रमाणफलव्यवस्थानात् । न खलु दीपएव प्रकाशी दात्रमेव वा छिदिक्रिया करणत्वेन क्रियात्वेन च तयोर्लोकेऽपि भेदेनोपलम्भात् । प्रयोगश्चात्र प्रमाणफले भिद्येते करणक्रियात्वात् । ये एवं ते एवं यथा दानच्छिदिक्रिये अभेदे तु प्रमाणाभावो वा फलाभावो वा स्यादिति ॥ १८ ॥
प्राक प्रमात्रादीनां प्रामाण्यनिवृत्त्यर्थं साधनग्रहणमित्युक्तम् । ततोऽविज्ञातस्वरूपाणां तेषां तत् दुरुच्छेदमिति प्रमातुः प्रमाधारत्वेन प्रमां लक्षयति ।
सम्यगनुभवः प्रमेति ॥ सम्यक् पदं प्राग्वत् संशयादिनिरासार्थमनुभवमात्रस्य तत्रापि सत्त्वात् । प्रमिति: प्रमाणफलमिति यावत् ॥ १८ ॥ प्रमातारमाह।
प्रमाश्रय: प्रमातेति ॥ प्रागुक्तायाः प्रमायाः आश्रयः । समवायिकारणं प्रमाता भवतीत्यर्थः ॥ २० ॥
प्रमेयमाह ।
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
प्रमाविषयः प्रमेयमिति ॥ प्रमायां योऽर्थः प्रतिभाति स प्रमेयं विषयोऽर्थ इति यावत् । एतेन सद्रूपमसद्रूपं वा न किञ्चिदनानुद्दिष्टं प्रमाविषयत्वेन सर्वस्य प्रमेयत्वादिति । इतौति । इतिशब्दः प्रमाण सामान्यलक्षणसमाप्तार्थः ॥ २१॥ प्रमाणं सामान्येन लक्षयित्वा विशेषलक्षणाय नदिभजते ।
*त्रिविध प्रमाणं प्रत्यक्षमनुमानमागम इति ॥ तिस्रो विधाः प्रकारा यस्येति त्रिविधं विप्रकारं प्रमाणं भवतीत्यर्थः । कथमित्याह प्रत्यक्षमित्यादि। अक्षमिन्द्रियं ततः, प्रतिगतमक्ष प्रत्यक्षमिति गतिवन्यस्तत्पुरुष इत्यनेन तत्पुरुषसमासो ऽव्ययीभावे तु प्रत्यक्षो घटः प्रत्यक्षा स्त्रीति व्यपदेशो न स्यात् । ___ ननु यथेन्द्रिय सामर्थात् ज्ञानं जायते तथाऽर्थसामर्थ्यादपि तत् कस्मादणेव व्यवदेशो नार्थेनेति चेन्न। अक्षस्थासाधारणत्वादर्थस्य च साधारणत्वात् । इन्द्रियं स्वविज्ञानस्यैव हेतुरर्थस्तु मनोज्ञानस्यापोति । व्यपदेशस्य चासाधारण्यमूलत्वात् । प्रतिगतमक्ष प्रत्यक्षमिति व्युत्पत्तिनिमित्तम् । प्रतिनिमित्तं तु साक्षाकारिवलक्षण: शब्दार्थएवान्यथा मानसप्रत्यक्षादेरसम्भवात् । अनु लिङ्गदर्शनस्य पश्चान्मीयतेऽननेत्यनुमानम् । आगम्यन्ते मयादयाँऽवबुध्यन्तेऽर्था अनेनेत्यागमः । त्रिविधग्रहणमवधारणार्थं सर्व
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* In our text the word aa is added before the realing uluptel here. [ Viden 1, 13.!
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः।
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प्रमाणव्यक्तीनां प्रत्यक्षादिभिस्त्रिभिरेव संग्रहीतत्वात् । उपमानादयश्चात्रैव पुरोऽन्तर्भावयिष्यन्ते ।
प्रत्यक्षपरोक्षभेदेन द्विविधमेव प्रमाणमिति चेन्न । परोक्षणाई वेद्यौति प्रसिद्दयभावात् । परोक्षशब्देनानुमानागमाविवोच्यते । इति चेत्तह्यस्मटुक्त वैविध्ये को देषः । प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा: प्रमाणानोति मूलविभागसूत्रेण वैविध्यविरोध इति चेत्र । विभागस्थात्राधिक संख्याव्यवच्छेदफलत्वात्। अन्यथा लक्षणचतुष्टयाभिधानादेव चतुष्वसिडेविभागोऽप्यनर्थकः स्यात् । ___ ननु प्रत्यक्षमनुमानमागम इति क्रमोपन्यासे को हेतुरिति चेदुयते। स्पष्टत्वात् सर्वप्रमाणश्रेष्ठत्वाच्च प्राक प्रत्यक्षस्य तदुपजीव्यप्रवर्त्तमानत्वात्ततोऽनुमानस्य तहड्दमूलस्वात् ततोऽप्यागमस्थोपन्यासः। तथा प्रत्यक्षमनुमानमागम इति व्यस्ताभिधानम् । प्रत्येकं स्वविषयज्ञप्ती स्वप्राधान्यार्थम् । इतिशब्द उक्त प्रकारावधारणार्थ उक्त प्रकारेणेव त्रिविधं नान्यथेत्यर्थः ॥ २२ ॥ अथ प्रत्यक्षं लक्षयति ।
तत्र सम्यगपरोक्षानुभवसाधनं प्रत्यक्षमिति ॥ अत्र तत्र शब्द स्त्रयाणां मध्ये प्रत्यक्षनिहारणार्थः । प्रत्यक्षमिति लक्ष्यं शेषन्तु लक्षणम् । प्रत्यक्षशब्दार्थः पूर्ववत् ! अपरोक्षघासावनुभवश्चेति कर्मधारयः । तस्य साधनं करणं घ्राणादौन्द्रियपञ्चकं मनश्चेति । अत्र प्रत्यक्षमिति लक्षणे कृते किमपेक्षा स्यात्तनिवृत्त्यै साधनमित्युक्तम् । तथापि स्वर्गादिसाधनत्वेन यागादावतिव्याप्तिव्यावृत्त्यै अनुभवेति पदम् । एवमप्यनुभव
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
साधनवादनुमानेऽतिप्रसङ्गापनुत्त्ये अपरोक्षेति पदम् । इस्थमपि प्रत्यक्षाभासेऽतिप्रसत्यपास्तये सम्यगिति पदम् । ततः सम्यगपरोक्षानुभवो ययार्थार्थसाक्षात्कागे येन साध्यते तत्प्रत्यक्षप्रमाणमित्यर्थः ॥ २३ ॥ तद्भेदमाह ।
तविविधं योगिप्रत्यक्षमयोगिप्रत्यक्षञ्चेति ॥ विविधग्रहणं चातुर्विध्यनिषेधार्थम् । तेन मानसप्रत्यक्षं स्व. संवेदनप्रत्यक्षञ्च पृथग न युक्तम् । योग्ययोगिप्रत्य चयोरेवान्तभूतत्वात्। अष्टाङ्गयोगयुक्ता ये ते योगिनस्तविपरीता अयोगिनः चकारात् सविकल्पकनिर्विकल्पकाभ्यामपि विविधमित्यर्थः ॥२४॥
अत्यत्कृष्टत्वात् प्रागुद्दिष्टस्यापि योगिप्रत्यक्षस्यायोगिप्रत्यक्षपूर्वत्वात्तदेवादी लक्षयति ।
तत्रायोगिप्रत्यक्ष प्रकाशदेशकालधर्माद्यनुग्रहादिन्द्रियार्थसंबन्धविशेषेण स्थलार्थ ग्राहकमिति ॥
अत्र सूत्रकारच्छावचित्रमात् पूर्वनिपतितमप्ययोगिप्रत्यक्षपदं व्याख्यानादावन्ते वाच्यम् । लक्षणमभिधायैव लक्ष्यमभिधातुमुचितत्वात् । एवमन्यत्रापि ज्ञेयम् । तत्रशब्दो निर्झरणार्थः स्थनार्थानां यद्ग्राहक प्रमाणं तदयोगिप्रत्यक्ष भवतीत्यन्वयः ।
केनेत्याह । इन्द्रियेत्यादि । इन्द्रियाणि चक्षुरादौनि अर्थाः पृथिव्यादयो रूपादयश्च तेषां मिथः संबन्धविशेषः संयोगसंयुक्त समवायादिस्तेनासाधारणकारीन । कस्मात् प्रकाशेत्यादि । प्रकाशो दीपाद्यालोको देशः पुरोवत्यादि कालो वर्तमानादिः
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
धर्मोऽभीष्टज्ञाने आदिशब्दादधर्मोऽनिष्टज्ञान सर्वनिमित्तत्वादीखरादिश्च तेषामनुग्रहः सन्त्रिकर्षस्तस्मात् । अत्रार्थग्राहकमित्युक्ते परमावादेरप्युपलब्धिः स्यात्तदसितुं स्थू लेति पदम् । स्थूलत्वञ्च परमाण्वपेक्षया। सूक्ष्मरूपादेरपि ग्टह्यमाणत्वात् । ___ तथाप्यनुमानेऽतिव्याप्तिस्तामपोहितुमिन्द्रियेत्यादि । तथापि कस्याप्यर्थस्य केनापि संबन्धन राह्यमाणत्वात् संबन्धविशेष इति । तथापि योगिप्रत्यक्षेऽपि प्रसक्ति स्तानिषेधुं प्रकाशैत्यादि । योगिप्रत्यक्षस्य केवलधम्मजनितमाहाय्यापेक्षितत्वात्। ततोऽयमर्थः प्रकाशाद्यनुग्रहमपोन्ट्रियाथै संबन्धवैशिध्येन स्थूलाद्यर्थपरिच्छेदक यत्प्रमाणं तदयोगिप्रत्यक्ष भवति ।
ननु प्राणरसनस्पर्शनानामस्त्वथसंबन्धस्तत्कृतानुग्रहोपघातदर्शनाचक्षुःश्रोत्रयोस्तु कथमग्न्यादिप्रसङ्गेन दहनादिप्रसङ्गात् । शब्द प्रत्यगमनाच्च । तथाच प्रयोगः । चक्षुःश्रोत्रे न प्राप्यकारिणौ सान्तरग्रहणात् । प्राप्यकारित्वे हि चक्षुरर्थयोः श्रोत्रशब्दयोश्चान्तरालग्रहणं न स्यात्परशुवृक्षवदिति युक्तिसद्भावादिति चेत् । उच्यते प्रमाणात् तथाहि चक्षुःश्रोत्र प्राप्यार्थं परिच्छिन्दात बाह्येन्द्रियत्वात् । खगिन्द्रियवदिति । प्राप्ताभावे सर्वार्थोपलम्भ: स्यान्न हि प्राप्तिं विनाऽन्या काचिद्योग्यतास्ति । यया योग्यदेशावस्थितस्यैव ग्रहणं नान्यस्येति । अत्र बहु वक्तव्य तत्तु नोचते । ग्रन्थविस्तरभयात् ॥ २५ ॥
इन्द्रियार्थसंबन्धविशेषेण स्थूलार्थ ग्राहकमयोभिप्रत्यक्षमित्युक्तं तत्र येन संबन्धेन यस्य ग्रहणन्तमाह ।
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न्यायतात्पर्यदीपिका।
तद्यथा । चक्षुःस्पर्शनसंयोगात् घटादिव्यज्ञानमिति । चक्षुः स्यगने प्रतीते तयोः संयोगोऽप्राप्तिपूर्विका प्राप्तिस्ततो घटादिव्यज्ञानं भवति। आदिशब्दात्पटादिद्रव्यानेपः । दिवा चक्षुःसंयोगात्तमिस्रावाञ्चक्षुरगोचरत्वे स्पर्शनसंयोगाच्च घटादिद्रव्यज्ञानं भवतीत्यर्थः ।
ननु यदि संबन्धवशादेवार्थग्रहणं तर्हि तेन सर्वात्मनार्थस्य संबद्धत्वात्। सर्वात्मनाथग्रहणं प्रमज्ये तेति चेन। करणस्य नियतविषये समर्थत्वान्न हि परशुः संबद्धोऽपि द्रुमवत्तहतं व्योमापि च्छिनत्ति ॥ २६ ॥ एवं द्रव्यविषयं प्रत्यक्षमुक्ता गुणविषयं तदाह ।
*संयुक्त समवायात्ताभ्यां घटत्वादिसंख्यापरिमाणादिज्ञानमिति॥ ___ चतुःस्पर्शनसंयुक्ते घटाटिद्रव्ये समवायो यत् समवेतत्वं तस्मात् संबन्धात् । ताभ्यामिति चक्षुःस्पर्शनाभ्याम् । घटत्वादीनां सामान्यानां संख्यादीनाञ्च विशेषाणां ज्ञानं भवति । परिमाणमिति अणुमहदादि। प्रथमादिशब्दात् सत्त्वपृथिवीत्वग्रहः । हितीयादिशब्दात् पृथक्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वद्रवत्वस्नेहवेगकम्मग्रहः। कोऽर्थः। संयुक्त ममवायसंबन्धाच्चक्षुषा संयुक्त घटादिद्रव्ये समवेतानां घटत्वादीनां संख्यादौनाञ्च चाक्षुषं झानं भवति । स्पर्शनेन संयुक्ते द्रव्ये तेषामेव स्पार्शनं ज्ञानं भवति । कम्मणां कथं
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
७५ प्रत्यचत्वमिति चेत् । प्रमाणात्। हस्तचलनादिकम्मप्रत्यक्ष प्रगुणले सत्यम्मदादिवायेन्द्रियप्रत्यक्षाश्रयाश्रितत्वाद्रूपादिवदिति । एतेन ट्रव्यादीनां कमान्तानां हौन्द्रियग्राह्यत्व मुक्तम् ॥ २७ ॥
अथ संयुक्तसमवायसंबन्धादेवैकेन्द्रियग्राह्याणां रूपादीनां ग्रहणमाह ।
चक्षुषैव रूपज्ञानमिति ॥ चक्षुषैवेत्यवधारणं रूपज्ञान त्यान्यन्द्रियजन्यत्वप्रतिषेधार्थम् । स च बहिःकरणापेक्षयान्तःकरणस्य रूयादिषु सर्वेष्वपि व्याप्रिय. माणत्वात् । एवमग्रेऽपि योज्यम् । चक्षुःसंयुक्तं द्रव्यं तत्र समवायो रूपस्य समवेतत्वं यत्तस्मात् संयुक्त समवायसंबन्धाच्चक्षुषैव रूपज्ञानं भवति । न च रूपज्ञानमेव चक्षुषा रूपत्वसामान्यस्यापि तेन ग्रहणात् पञ्चखिन्द्रियेषु चक्षुधैव रूपज्ञानं कुत इति चेत् ।
तैजसत्वादिति ब्रूमः । तथापि न तनियम इति चेत् । न । यो यस्य द्रव्यस्य गुण: स तेनैव गृह्यत इति व्यवस्थायां रूपस्य तेजोगुणत्वात् । तेजसले च प्रमाणमेतत् चक्षुस्तेजमं रूपादीनां मध्ये नियमेन रूपस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् प्रदीपवदिति ॥ २८॥ गन्धज्ञानमाह।
वाण नैव गन्धज्ञानमिति ॥ घ्राणेन संयुक्त कर्पूरादिद्रव्यं तत्र यः समवायो गन्धसमवेतत्वं तस्मात्संयुक्तसमवायसंबन्धात् धाणे नैष गन्धज्ञानं भवति । न च
___ * This uphorisily is plate:ert in iku text aft.cr the inst aphorism dopted by the commentator. ( Vido page :%, Line !!
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७६
न्यायतात्पर्य दीपिका।
गन्ध ज्ञानमेव प्राणन गन्यत्वस्यापि तेन ग्रहणात् । प्राणस्य गन्धं प्रत्येवाभिव्यञ्जकत्वं तु पार्थिवत्वात् । घ्राणं पार्थिवं रूपादौनां मध्ये गन्धस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् । कुखुमगन्धाभिव्यजककृतवत् ॥ २८ ॥ रसज्ञानमभिधत्ते।
रसनेनैव रसज्ञानमिति ॥ रसनसंयुक्तं क्षौरादिद्रव्यं तत्र यः ससवायो रमसमवेतलं तस्मात्संयुक्त समवायसंबन्धासनेनैव रसज्ञानं भवति। न च रमज्ञानमेव रमनेन रसत्वस्यापि तेन ग्रहणात् । रमनस्य रसग्रहणं त्वाम्यत्वात्। रसनमाप्यं रूपादीनां मध्ये रसस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् मुखशोषिणां लालादिद्रव्यवदिति ॥ ३० ॥ स्पर्शज्ञानमाचष्टे ।
स्पर्शनेनैव स्पर्शज्ञानमिति ॥ स्पर्शनेन संयुक्तं दुकूलादि तत्र यः ममवायः स्पर्शसमवेतत्वं तस्मात् संयुक्तसमवायसम्बन्धात् स्पर्शनेनैव स्पर्शज्ञानं भवति । नतु स्पर्शज्ञानमेव स्पर्शनेन स्पर्शत्वस्यापि तेन ग्रहणात् । स्पर्शनस्य स्पर्शव्यञ्जकत्वे वायवीयत्वं हेतुस्तसिद्धिश्चैवम् । स्पर्शनं वायवीयं रूपादीनां मध्ये स्पर्शस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात् । अङ्गसङ्गिसलिलशैत्याभिव्यञ्जकममोरणवदिति ॥ ३१ ॥
संबन्धान्तरेण पुरो वक्ष्यमाणत्वात् शब्दग्रहणमुपेत्य सुखादिज्ञानमाह *
__ * 'The commientiat... did not aclept the aphoristu "नोलेगौव शब्दज्ञानम्" here. ( Sce isxc :;, Live .)
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः।
मनसैव सुखादिज्ञानमिति ॥ सुखमनुग्रहरूपं आदिशब्दादुपधातरूपदुःखमिच्छाहेषप्रय. नाश्च । मनः संयुक्त आत्मा तत्र सुखादीनां समवायस्तहुणलात्तत: संयुक्तसमवायसम्बन्धान्मनसैव सुखादीनां ज्ञानं भवति । न च सुखादिज्ञानमेव मनमा सुखादित्वस्यापि तेन संवदनात् । अत्रैवकारो बाह्येन्द्रियनिरासार्थः । मनःसद्भावे किं प्रमाणमिति चेत् । उच्यते युगपत्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमिति । ___ यहा आत्मनो विभुत्वात्सर्वेन्द्रियाणां सर्वार्थसम्बन्धे सत्यपि यहिना न परिच्छित्तिकदेति तदन्तःकरणम् । आत्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षाः करणान्तरापेक्षाः। सत्वपि तद्भाव कार्यानुत्पादक त्वात् तन्वादिवत् । तथा सुखादिप्रतीतिरिन्द्रियजा अपरोक्षप्रतीतित्वाद्रूपादिप्रतीतिवत्। यच्च तदिन्द्रियं तन्मनश्चक्षुरादीनां तत्र व्यापाराभावात् ॥ ३२ ॥ सम्बन्धान्तरात् संख्यादिगतसामान्यज्ञानमाह ।
एतेषु संख्यादिष्वाश्रितानां सामान्यानां स्वाश्रयग्राहकैरिन्द्रियैः संयुक्त समवेतसमवायाद्रहणमिति ॥
अत्र संख्यादीति पदं घटत्वादिव्युदासार्थम् । प्राक्तनसम्बन्धेन तस्य गृहीतवात् । आदिशब्दात् सुखपर्यन्तं ग्राह्यते । सामान्यानामिति संख्यात्वपरिमाणत्वरूपत्वादीनाम् । स्वाश्रयग्राहकरिति । संख्यादिषु समवेतानां चक्षुषा स्पर्शनेन वा रूपादिसमवेतानां सामान्यानां चक्षुराये कैनेन्द्रियेण च ग्रहणात् स्वस्वविषयवैदिभिः इन्द्रिय रिति बहुत्वम्। सर्वेन्द्रिये मनःप्रतिपत्त्यर्थं
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७८
न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
संयुक्तासमवतेत्यादि। इन्द्रियसंयुक्तं यत् द्रव्यं तत्र समवेता ये संख्यादयः तत्र यः समवायः संख्यावादिसामान्यानां तस्मासंयुक्तसमवेतसमवायसम्बन्धात् । स्वाश्रयग्राहकैः स्वस्व विषयपरिच्छेत्तभिश्चक्षुरादिभिरिन्द्रियः संख्यादिषु स्थितानां सामान्यानां ग्रहणं भवतीत्यर्थः ॥ ३३ ॥ सम्बन्धान्तरात् शब्दज्ञानोपायमाह ।
योनसमवायाच्छ्रवणेनैव शब्दज्ञानमिति ॥ शब्दोपभोगप्रापकधर्माधर्मोपनिबद्धः श्रवणविवरसंज्ञितो नभोदेशः श्रोत्रम् । तत्र श्रोत्रे स्वहेतुभ्यः समुत्पन्नादाद्यशब्दाहोचीतरङ्गन्यायेनान्यान्यशब्दोत्पत्तौ सत्यां प्राप्तस्यान्तिमशब्दस्य यः समवायस्तस्माच्छब्दज्ञानं भवति । नतु शब्दज्ञानमेव श्रोत्रेण शब्दत्वस्यापि तेन ग्रहणात् । ननु कथं श्रोत्रे शब्दसमवाय इति चेन्न। श्रोत्रस्य नमस्त्वाच्छब्दस्य च तहणत्वात्। यो हि यगणं स तत्र पृथिव्यां गन्धवत्समर्वतीति ॥ ३४ ॥ शब्दसामान्यज्ञानमाह।
तदाश्रितमामान्य ज्ञानं समर्वतसमवायादिति ॥ तत्र शब्दे आश्रितानि यानि सामान्यानि शब्दत्वकत्वादीनि तेषां श्रोत्रेन्द्रिये समवेता ये शब्दास्तषु यः समवायः शब्दत्वादीनां तस्मात्समवेतसमवायागृहणं भवति ॥ ३५ ॥ अथ षष्ठं सम्बन्धमाह।
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
* एतत्पञ्च सम्बन्ध सम्बद्ध विशेषणविशेष्यभावात् दृश्याभावसम
वायोर्ग्रहणमिति ॥
एतदिति पूर्वोक्ताः संयोगः, संयुक्तसमवायः, संयुक्त सममेतसमवायः, समवायः, समवेतसमवायचेति पञ्चसम्बन्धास्तैः सम्बद्धा अर्थाद येऽर्थास्तैः महाभावस्य समवायस्य च यो विशेषणविशेष्यभाव इतरसम्बन्धवैधर्म्येण सन्निधिविशेषोऽन्यथा तस्य प्रतिनियताश्रयवर्त्तित्वेन द्विष्टरूपत्वानुपपत्तिः तस्मादभावसमवाययोर्ज्ञानं भवति । दृश्येति पिशाचाद्यभावव्यवच्छेदार्थम् । समवाय इति सम्बन्धः । ततः पञ्चसम्बन्धसम्बद्ध विशेषणविशेष्यभावसम्बन्धादभावसमवाययोर्ग्रहणं भवतीत्यर्थः ॥ ३६ ॥
संयुक्तविशेषणभावेनाभावग्रहणमाह ।
तद्यथा घटशून्यं भूतलमिति ॥
अत्रेन्द्रियसंयुक्तं भूतलं विशेष्यं तस्य घटशून्यमिति विशेषणम् । घटाभावस्य तत्र स्थितत्वात् । तत इन्द्रियसंयुक्तभूतलविशेषणतया घटाभावो गृह्यत इति ॥ ३७ ॥ संयुक्तविशेष्यभावेनाभावग्रहणं दर्शयति ।
02
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इह भूतले घटो नास्तीति ॥
अनेह भूतल इति विशेषणस्य घटाभावो विशेष्यः । नन्वयमाधाराधेयभावो विशेषणविशेष्यभावः सामानाधिकरण्याभावादिति चेत् । न । विशेषणविशेष्यभावस्यात्र सनिधिमात्र
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** The reading adopted by the commentator bere differs somewhat from our text (See page 3. Line 6-8.)
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न्यायतात्पय्यदीपिका ।
पय्र्यवसितत्वमिति प्रागुक्तत्वात् । भूषणकारस्तु विशेषणविशेष्यभावस्यानियतत्वात् । उभयथाप्युदाहरणं युक्तमित्याह ॥ ३८ ॥
संयुक्त विशेषणविशेष्यतयाऽभावग्रहणमुक्का संयुक्तसमवेतविशेषणविशेष्यभावादिनाऽभावग्रहणं स्वयमभ्युह्यमित्याह ।
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एवं सर्वत्रोदाहरणीयमिति ॥
अस्यायमर्थः । इन्द्रियसंयुक्ते घटे समवेतमशक्तं कृष्णरूपं कृष्णरूपे शुक्लरूपं नास्तोति संयुक्तसमवेतविशेषणविशेष्यतया कृष्णरूपे शुक्लरूपाभावस्य ज्ञानम् । तथा इन्द्रियसंयुक्तघटसमतमशौक्कं कृष्णत्वसामान्यं कृष्णत्वं शोध नास्तीति संयुक्तसमवेतसमवेतविशेषणविशेष्यभावात् कृष्णत्वे शौक्लप्राभावस्य ज्ञानम् । अतीव्रो वेणुशब्दो वेणुशब्दे तीव्रत्वं नास्ति । श्रोत्रसमवेतशब्द विशेषणविशेष्यभावात् शब्दे तीव्रत्वाभावज्ञानम् । भेदशून्यं शब्दवं शब्दत्वे भेदो नास्तीति श्रोत्रसमवेतशब्दसम - वेतशब्द त्वविशेषणविशेष्यभावात् शब्दत्वे भेदाभावस्य ज्ञानमिति ॥ ३८ ॥
समवायग्रहणं दर्शयति ।
*समवायस्य तु क्वचिदेव यथा घटे रूपसमवाय इति ॥ तुशब्दोऽभावात्समवायं व्यवच्छिनत्ति | अभावो हि नावश्यमुभयज्ञानमपेक्षते । अधिष्ठानज्ञानं विनापि प्रतियोगिस्मृतिमात्रान्महान्धकारे प्रदीपाभावावभासवदभावप्रतिभासात् । सम
* The reading adopted by the commmentator here, differs souewhat from our text (See page 3. Line 10)
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः । वायस्य तूभयज्ञानापेक्षणादभावाहिशेषः । अतएव क्वचिदित्युतम् । कोऽर्थः । यत्र सम्बन्धिद्वयमपि प्रत्यक्षं तत्रैव समवायप्रत्यक्षी यथा तन्तुपटयो न्यत्र। वाणुकादी हाणुकस्यानुपलम्भात् । अथवा क्वचिदेवेति स्थानत्रयेऽपि ग्रहणम् । यथा घटे रूपसमवायः रूपे रूपत्वसमवायः शब्दे शब्दत्वसमवायः इति । यहा क्वचिदिति। स्वदर्शन एव समवायस्य प्रत्यक्षत्वं नान्यदर्शनात्। कथं तस्य प्रत्यक्षत्वमिति चेत् । समवायप्रत्ययः प्रत्यक्षवत्तिः सम्बन्धप्रत्ययवात्संयोगप्रत्ययबदित्यनुमानात् ।
ननु सम्बन्धान्तरग्रहणऽनवस्थादोषादसम्बद्धः समवायः कथं ग्राह्यत इति चेन्न। अदृष्टादिसहितात् प्रत्यक्षयोग्योभयसम्बन्धीन्द्रियसन्त्रिकर्षादेव समवायग्रहणोपपत्तेः । सत्तायां सत्तान्तरवत्मम्बन्धान्तरं नेष्यते । स च समवायः समवायिनोरिन्द्रियसनिकृष्टयोविशेषणविशेष्यप्रतीतिहेतुत्वात्संयुक्तविशेषणभावादीनामन्यतमव्यपदेशयोग्यश्च स्यात् । तत: समवाय: समवायिनोविशेषणत्वेन विशेष्यत्वेन वा गृह्यत इति । यथा घटे इत्युदाहरणम् । अत्र घट इति विशेषणम् । रूपसमवाय इति विशेष्यम्। संयुक्तविशेषणविशेष्यतया समवायग्रहणं भवतीत्यर्थः । समवायस्य किं स्वरूपमिति चेत् । अयुतसिद्धानामाधा-धारभूतानां यः सम्बन्ध इह प्रत्ययहेतुः स समवायः ।
अस्य व्याख्या। युतसिद्धिरुभयोरपि सम्बन्धिनोः परस्परपरिहारण पृथगान्ययावयित्वम् । सा ययोर्नास्ति तावयुतसिद्धौ तयोः सम्बन्धः समवायः। यथा तन्तुपटयोः। नित्यानां त
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
युतमिद्धिः पृथगव्यवस्थितिः पृथगजननयोग्यता सा ययोर्नास्ति तावयुतसिद्धौ तयोः सम्बन्धः समवायः । यथाकाशव्यत्वयोः । आत्मैकाश्रितयोधम्मसुखयोः कार्यकारणभावेऽतिव्याप्तिनिवृत्त्यर्थमाधा-धारभूतानामिति पदम् । न त्वाकाशपक्षिसम्बन्धव्यवच्छित्त्यै तस्यायुतपदेनैव निवर्तितत्वात् । आकाशतत्पदयोर्वाचवाचकभावेऽतिप्रसक्तिव्यपोहार्थमिहेति पदम्। संयोगेऽतिप्रसङ्गभङ्गायायुतसिद्देति पदमिति ॥ ४० ॥ अथ योगिप्रत्यक्ष लक्षयति ।
योगिप्रत्यक्षन्तु देशकालस्वभावविप्रतिष्टार्थग्राहकमिति । देशविप्रकष्टा मेर्वादयः। कालविप्रकृष्टास्त्वतीतानागताः । स्वभावविप्रकष्टाः परमाण्वादयस्तेषां समस्तानां व्यस्तानां वा ग्राहकं यत्प्रत्यक्षं तद्योगिप्रत्यक्षं भवति । अर्थग्राहकमित्युक्तेऽयोगिप्रत्यक्षेऽतिव्याप्तिस्तदपोहा) देशेत्यादिपदम्। तु शब्दोऽयोगिप्रत्यक्षाद्योगिप्रत्यक्षव्यतिरितार्थः । न च वाच्यं योगिप्रत्यक्षं नास्तीति प्रमाणसिद्धत्वात्। ज्ञानतारतम्यं कचित् सातिशयं तारतम्यत्वात् परिमाण तारतम्यवदिति। न च ताप्यमानास्वप्सु औषणातारतम्ये वह्निरूपतापत्त्यतिशयादर्शनाद् व्यभिचारी हेतुः हेग्नि पुटपाकप्रबन्धाहितविशुद्धिवत् स्थिराश्रयेऽतिशयोपपत्तेः तस्मादाश्रयस्थयादात्मनि जानातिशय उपपद्यते ॥ ११ ॥
तत् युक्तावस्थावियुक्तावस्थाभेदेन द्विधा भवतीति प्राक् युक्तावस्थायां योगिप्रत्यक्षमाह ।
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
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*तत्र युक्तावस्थायामात्मान्तःकरणसंयोगादेव धर्ममादिसहितादशेषार्थग्रहणमिति ॥
समाधिसहितावस्था युक्तावस्था। आत्मान्तःकरणसंयोगादेवेत्यवधारणं बाह्यार्थसंयोगनिषेधार्थम् । धर्मादीति प्रष्टयोगजनितं पुण्यं धम्मः । आदिशब्दादीश्वरादिग्रहः ।
अयमथः । योगजनितधर्मेश्वरादिसहकतादात्ममनःसन्निकर्षादिप्रकष्टार्थग्राहकं यत् प्रत्यक्षं तयुक्तावस्थावस्थितयोगिप्रत्यक्ष भवति। एतच्चोत्कृष्टयोग्यपेक्षया, योगिमात्रस्य तदसम्भवात् ॥ ४२ ॥ हितीयं भेदं वक्ति।
वियुक्तावस्थायां चतुष्टयत्रयहयस निकांग्रहणं यथासम्भावनं योजनीयमिति ॥
असमाध्यवस्था वियुक्तावस्था। चमुष्ट येत्यादि अामा मनसा संयुज्यते मन इन्द्रियेणेन्द्रियमर्थेनेति चतुष्टयम् । आत्ममन:श्रोत्रसंयोगस्वयम्। आत्ममनोयोगो दयम् । यथासम्भवेनेति । यत्र यावत्सम्भवति तत्र तदनतिक्रमेण | कोऽर्थः । घाणरसनचक्षुस्त्वचामन्यतमेनार्थग्रहणेन। चतुर्णामात्मान्तःकरणबाह्येन्द्रियगन्धाद्याश्रयाणां योगः। शब्दग्रहणे आत्ममनः श्रोत्राणां त्रयाणां योगः । सुखादीनां ग्रहले आत्ममनसोईयोर्योगः ॥ ४३ ॥
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* In the text, the reading "तत् विविधम् । युक्लावस्थायामयुनाव
tiğfa" preceiles the reading adopted here by the commentator { tide p. L. 13}.
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न्यायतात्पय्यदीपिका ।
प्रत्यक्ष लैङ्गिक स्मृत्यार्षलक्षणा विद्येति वचनात्कश्विदार्षं पृथक् प्रमाणं प्रतिपेदे तदन्तर्भावायाह ।
अत्रैवार्णमन्तर्भूतं प्रकृष्टधम्प्रजत्वाविशेषादिति ॥
८४
ऋषीणां व्यासादीनामिदमाषं विशिष्टतपोलब्धिसमुत्यं ज्ञानमत्रैव योगिप्रत्यक्षेऽन्तर्भूतम् । अत्र हेतुः प्रकृष्टेत्यादि । इदं तत्त्वम् । योगिप्रत्यक्षे आर्षज्ञाने च विशिष्टोध एव हेतुः । स योगजनितस्तपोजनितो वास्तु न तेन भेदो द्वयोरपि धीहेतोरैक्यात् ॥ ४४ ॥
प्रत्यक्षसामान्यस्य पुनर्द्वैविध्यमाह ।
तच्च द्विविधं सविकल्पकं निर्विकल्पकञ्चेति ॥
सदिति योगिप्रत्यक्षं सविकल्पकं निर्विकल्पकं च सहिभेद
भवतीत्यर्थः ॥ ४५ ॥
aarat सविकल्पक प्रत्यक्षं लक्षयति ।
तत्र संज्ञादिसम्बन्धोल्लेखेन ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं सविकल्पकमिति ||
संज्ञा देवदत्तादिका । आदिशब्दात् द्रव्यगुणकर्मादयस्तेषां सम्बन्धस्योल्लेखः तद्विषयज्ञानोत्पादस्तेन सहकारिणा विशिष्टज्ञानोत्पत्तौ यत्कारणं तत्सविकल्पकं प्रत्यक्षं भवति । जात्या लेखो विकल्पः । उत्पत्तिनिमित्तमित्युक्ते मृदादेर्घटोत्पत्तिं प्रति निमित्तत्वात्तत्रातिव्याप्तिस्तदव्युदासार्थं ज्ञानेति पदम् । तथापि निर्विकल्पकेऽतिप्रसक्तिस्तद्यावृत्त्यर्थं संज्ञेत्यादिपदम् | अनेन च लक्षणेन " प्रत्यक्षं कल्पनापोढ़मभ्रान्तमिति”
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प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
भाक्योक्तं प्रत्यक्षलक्षणं प्रतिक्षिप्तं ज्ञेयम् । संज्ञादिज्ञानस्य तन्मूलवात् । प्रत्यक्षस्य सविकल्पक वाभावे अनुमानानुत्थानप्रसङ्गाच्च । सविकल्पक स्थिरप्रत्यक्षोपात्तधूमाग्निव्याप्ति-स्मरणनान्तरोयकत्वात् तस्थेति ॥ ४६॥ प्रत्यक्षस्यातीन्द्रियत्वात् तत्फलमुदाहरति ।
यथा देवदत्तो दण्डोत्यादि ॥ अत्र देवदत्त इति ज्ञानं केवलसंज्ञासम्बन्धोल्लेखेन । दण्डीति विशेषणसम्बन्धोल्लेखेन । ननु किं प्राग विशेषणज्ञानं विशेष्यज्ञानमुभयज्ञानं वा युगपत् । उच्यते संज्ञादण्डादिविशेषणज्ञाने प्रागुत्यने सति तत्महकारिणेन्द्रियेण विशेषणविशेष्यविषयकज्ञानोत्पत्तिरिति। संज्ञायाश्च विशेषणत्वं व्यावर्तकत्वात् । आदिशब्दाद्रतो घट इत्यादि। इदं च संज्ञादिसम्बन्धोल्लेखिज्ञानं प्रत्यक्षम् । इन्द्रियव्यापारभावभावित्वात् । प्रथमाक्षसन्निकर्पोत्पन्ननिर्विकल्पकज्ञानवदिति ॥ ४७ ॥ निर्विकल्पकं लक्षयति ।
वस्तुस्वरूपमात्रावभासकं निर्विकल्पक मिति ॥ किमपीदमस्तौति वस्तुस्वरूपमात्रं येन जानेनावभास्यते सन्निर्विकल्पकं प्रत्यक्षं भवति । मात्रग्रहण संज्ञादिसम्बन्धनिवृत्त्यर्थ तेन सविकल्पक नातिव्याप्तिः ॥ ४८ ॥ तत्फलमुदाहरति ।
यथा प्रथमाक्षसनिपातजं ज्ञानमिति ॥ अक्षाणीन्द्रियाणि तेषां प्रथमे सन्निपाते सति ममयस्मरण
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८६
न्यायतात्पर्यदीपिका।
विशेषग्रहणनिरपेक्षं यदज्ञानमुत्पद्यते तनिर्विकल्पकं प्रत्यक्षं भवति । नन्वनुभवक्षणे प्रागेव सविकल्प कोदयात्तन्नास्तीति चेन्न । अभ्यामदशायां सविकल्पकस्याशूत्पादित्वानिर्विकल्पकानुपलम्भेऽप्यनभ्यासदशायां तस्य स्फुटोपलम्भात् । तदुक्तम् ।
अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथम निर्विकल्पकम् ।
बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्धवस्तुजम् ॥ इति ॥ तस्मादेतदस्त्येवान्यथा सविकल्पकस्याप्यनुत्थानप्रसङ्गात् ॥ ८ ॥
ननु योगिज्ञानं निर्विकल्पकं सविकल्पकं वेत्याशङ्का तावस्थामाह।
युक्तावस्थायां योगिज्ञानञ्चेतीति ॥ समाधेरैकाग्रंा युक्तावस्था तस्यां योगिनो ज्ञानं प्रत्यक्ष निर्विकल्पकमेव भवति । विकल्पतः समाध्यैकाग्रगानुपपत्तेः । न च वाच्यं योगिप्रत्यक्षस्य निर्विकल्पकत्वे वस्तुस्वरूपमात्रावभासकलान किञ्जिशिष्ट्यमिति। युगपत्समस्तवस्तुविस्तारसाक्षाकारस्यैव वैशिष्ट्यात् । अत्र युक्तावस्थाग्रहणेन वियुक्तावस्थायां योगिप्रत्यक्ष निर्विकल्पकं सविकल्पकञ्चेति प्रतिपत्तव्यमिति ।
इति श्रीकृष्णर्षिगच्छमण्डनश्रीमन्महेन्द्रसूरिशिष्यश्रीजयसिंह सूरिविरचितायां ज्ञानतात्पर्य दीपिकाभिधानायां श्रीन्यायसारटोकायां प्रत्यक्षपरिच्छेदः समाप्तः ।
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अनुमानपरिच्छेदः।
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प्रथमपरिच्छेदे सभेदं प्रत्यक्षं लक्षयित्वा तत्पृष्ठभावित्वादिदानीमनुमानं लक्षयति ।
सम्यगविनाभावेन परोक्षानुभवसाधनममुमानमिति ।
असन्दिग्धधूमादिदर्शनात् साहचर्यानुस्मरणाच्चानुमौयते जायते सम्यगविनाभाविलिङ्गबलेन परोक्षोऽप्यर्थोऽनेनेत्यनुमानम् । परोक्षेति । परोक्षोऽक्षाणां परो योऽनुभवस्तस्य साधनं करणम् । सम्यगिति। सम्यग् भिन्नाधिकरणत्वप्रतीतिरहितः । स चासावविनाभावश्च तेन। अव्यभिचारि-नान्तरीयकत्वेन । अत्रानुभवसाधनपदे प्राग्वत् । परोक्षपदं प्रत्यक्षव्यवच्छेदार्थम् । तस्याप्यनुभवसाधनत्वात्।
कश्चित्त्वविनाभावेनैव प्रत्यक्षस्य व्यवच्छेदे सिद्धे परोक्षपदं मिलितयो माग्न्यो योग्रहणेनाग्यविनाभूतो धूम इति ज्ञानस्य मानसप्रत्यक्षत्वनिवृत्त्यर्थं तस्थाम्य विनाभावमूलवादित्याह । आगमेऽतिव्याप्तिनिवृत्त्यर्थं अविनाभावति पदम् । तस्य समयबलेनार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वात् । यत्र काकस्तत्र मैत्रग्रहमित्याद्यविनाभावाभासभिदे सम्यगिति पदम् ।
भूषणकारस्तु भ्रान्तिरप्यर्थसम्बन्धत: प्रमति शाक्यमतब्युदासाय सम्यगिति पदं भ्रान्तः प्रमाणवायोगादित्याह । सकलमपि
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८८
न्यायतात्पर्यदौपिका।
लक्षणं तु प्रत्यक्षकप्रमाणवादिन चार्वाकं प्रत्यनुमानस्य प्रामाण्यदृढ़नार्थम् । स हि शक्रमूडादौ धूमदर्शनेऽपि धूमध्वजाभावात् यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वहिरिति व्याप्तेर्व्यभिचारित्वेन तादृग्व्याप्तिमूलत्वादनुमानमप्रमाणमिति ब्रूते । स चेत्थं रारटहिकल्पतः प्रतिक्षेतव्यः ।
तथाहि । शक्रमूर्द्धा किमग्निस्वभावोऽन्यथा वा। यद्यग्निस्वभावः तावश्यमग्निमानेव महानसादौ कोटिशस्तथा दृष्टत्वात् । अथान्यथा तदा तनाग्निं विना कथं धूम: स्यात् । तदुक्तम् ।
अग्निस्वभावः शक्रस्य मूर्दा चेदग्निरेष सः ।
अथानग्निखभावोऽसौ धूमस्तत्र कथं भवेदिति ॥ किं चासावनुमानं विना विप्रतिपबं प्रति प्रत्यक्षस्यापि प्रामाण्यं कथं दृढ़येत्। अविसंवादकत्वादिनेति चेत्तन। तेन तत्प्रामाण्यसाधने बलादप्यनुमानापत्तिः स्यात् । तस्मात्प्रत्यक्षस्य प्रामाण्य मभिलाषुकेण चार्वाकणानुमान प्रमाणत्वेनैष्टव्यमेवान्यथाऽप्रामाणिकत्वापत्तेः। कुतोऽनुमानस्य सिद्धिरिति चेत् । प्रमाणत्वाप्रमाणत्वसामान्यव्यवस्थानादन्यबुद्धे नात् । स्वर्गादेः प्रतिषेधाच्च प्रत्यक्षादन्यत्प्रमाणं स्वभावकार्यानुपलब्धिलिङ्गकमनुमानं सिद्ध तौति ब्रूमः । तदुक्तम् ।
प्रमाणेतरमामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः ।
प्रमाणान्तरसद्भाव: प्रतिषेधाच्च कस्यचिद् ॥ इति ॥ तस्मात्सम्यगविनाभावेन परोक्षानुभवो येन साध्यते तदनुमानमित्यर्थः । अन्यत्राप्युक्तम् । यथा--
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अनुमानपरिच्छेदः ।
८८ पञ्चलक्षणकालिङ्गाद् गृहीतात्रियमस्मतेः । परोक्षे लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानं प्रचक्ष्यत इति ॥ सम्यगविनाभावेन परोक्षानुभवसाधनमनुमानमित्यनुमानं लक्षितम् ॥ १ ॥
न चाविनाभावज्ञानं विना तदवगन्तुं शक्यम् । तन्मूलत्वात्तस्येत्यविनाभावं लक्षयति ।
स्वभावतः साध्येन साधनस्य व्याप्तिरविनाभाव इति । विनाशब्द ऋतेवदभावार्थोऽव्ययम् । ततो विना भवनं विना. भावः न विनाभावोऽविनाभावो नान्तरीयकवमित्यर्थः। साध्य साधनयोर्वक्ष्यमाणलक्षणयोः स्वभावादनुपाधियोगाद्या व्याप्तिनियमः सोऽविनाभावो भवति। कोऽर्थः । यत्र यत्र धूमादिस्तत्र तत्र वद्यादिरभाव न धूमादिरिति साध्यस्य वादे. यद्यापकत्वं सोऽविनाभाव इति । अत्र स्वभावत इति पदं सोपाधीनां हेतूनां प्रतिक्षेपार्थ तैः साध्यसिद्धेरयोगात् । तदुक्तम् ।
अन्ये परप्रयुत्तानां व्याप्तीनामुपजीवकाः । तैर्दष्टैरपि नष्टव्या व्यापकाशावधारणति ॥ ननूपाधिः किंलक्षणः क्व च भवतीति चेत् उच्यते। साधमाव्यापक: साध्येन समव्याप्तिकच खलूपाधिरभिधीयते। उपाधिद्विधा निश्चित: शशितश्च । तत्र निश्चितोभयविशेषणवानिश्चितो यथा खलु हिंसाऽधर्मो हिंसात्वात्। अत्र निषिद्धत्वं निश्चित उपाधिः । साध्यस्य व्याप्तया साधनस्य चाव्याप्तयोपाधिविशेषणयोः साध्यव्यापकत्वसाधनाव्यापकवरूपयोनिश्चितत्वात् । उक्तयोरेव
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
विशेषणयोरन्यतरसदसद्भावशङ्कायां तु शङ्गित उपाधिर्यथा स श्यामस्तत्पुत्रत्वादत्र शाकाद्याहारपरिणाम उपाधिस्तत्त्वले शाकाद्याहारपरिणतेरभावानिश्चयात्माधनाव्यापकत्वं सन्दिग्धमिति। तस्मात्सोपाधिर्हेतुर्न श्रेयानिति स्वभावपदेनोच्यत इति ॥२॥ तद्भेदमाह।
स विविधोऽन्वयव्यतिरकभेदादिति ॥ अस्तित्वमुखेन प्रतीयमाना व्याप्तिरन्वयः । नास्तित्वमुखेन प्रतीयमाना व्याप्तियतिरेकः । तद्भेदात् स इत्यविनाभावो द्विधा भवति ॥ ३ ॥ अथान्वयाविनाभावं लक्षयति ।
*साध्यसामान्येन साधनसामान्यस्य व्याप्तिरन्वय इति ॥ अविवक्षितावान्तरविशेषं वह्निमात्रं यत्साध्यसामान्यं तेन कर्तृभूतेन अविवक्षितावान्तरविशेषं धूममात्रं यत्साधनसामान्य तस्य कर्मभूतस्य या व्याप्तिनियमः सोऽन्वयाविनाभावो भवति अत्र सामान्यपदं विशेषैः सह व्याप्तिप्रतिक्षेपार्थम् । विशेषेष्वनुः गमाभावेन व्याप्रयोगात् । न हि य: पासधूमवान् स पार्सवह्निमानिति व्याप्तिरस्ति । दृष्टान्तेऽन्यजातीयसद्भावेन व्यभि चारात्। न च वाच्यं विशेषेषु व्याप्ताभावात् सामान्यव्याप्त सिद्धसाध्यत्वानुषङ्ग इति। व्याप्ताग्निमात्रं संसाध्य नियतः तदनु तत्साधनात् । अन्वयव्याप्तौ च साध्यसामान्यं व्यापक
____ * 'The word "तत्र' is adled in the tixc before the reading adopted there (See p. 5. L. 3 }.
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१
साधनसामान्य व्याप्यम् । तत्र व्यापकं बहुविषयं व्याप्यं त्वल्पविषयम् । धूमाभावेऽप्यङ्गारावस्थायामग्निसद्भावात् । तदुक्तम् ।
व्यापकं तदतनिष्ठं व्याप्यं तनिष्ठमेव च।
व्याप्यङ्गमकमादिष्टं व्यापकं गम्यमिष्यते ॥ इति ॥ ४ ॥ व्यतिरेकाविनाभावमाह ।
साधनसामान्याभावेन साध्यसामान्याभावस्य व्याप्तिव्य तिरेक इति ॥
प्रागुक्तलक्षणमाधनसामान्याभावेन प्रागुक्त लक्षणसाध्यसामान्याभावस्य या व्याप्तिर्नियमः स व्यतिरेकाविनाभावो भवति । प्रवाभावपदमन्वयाविनाभावातिव्याप्तिव्यपोहार्थम् । व्यतिरेकाविनाभावे च साध्यसामान्याभावो व्याप्यः साधनसामान्याभावश्च व्यापकः ततोऽन्वयायतिरेकस्य वैपरीत्यं ज्ञेयम् । तदुक्तम् ।
नियम्यत्वनियन्त्रत्वे भावयोर्यादृशी मते। विपरीत प्रतीयेते तएव तदभावयोः ॥ साध्यं व्यापकमित्याहुः साधनं व्याप्यमुच्यते ।
प्रयोगेऽन्वयवत्येवं व्यतिरेके विपर्यायः ॥ इति ॥ ५ ॥ माधनं लक्षयति ।
साधनं लिङ्गमिति ॥ अत्र साधनं लक्ष्य लिङ्गमिति लक्षमाम् । लिङ्गयते चिहाते दूरतोऽपि लिङ्गी अनेनेति लिङ्गम् । यदनुमेयेनार्थेन देशविशेषे कालविशेषे वा सहचरितमनुमेयधम्मान्विते चान्यत्र सर्वस्मिन्नेकदेशे वा प्रसिद्धमनुमेय विपरीते च सर्वस्मिन् प्रमाणतोऽसदेव तद
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका ।
प्रसिद्धस्यार्थस्यानुमापकं लिङ्गम् । साध्यतेऽनेनेति साधनमुच्यते
तदुक्तम् ।
८२
अनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते ।
विपरीते च नास्त्येव तल्लिङ्गमनुमापकमिति ॥ ६ ॥
तदावाह |
afविधं दृष्टं सामान्यतो दृष्टश्वेति ||
अत्र द्विविधपदमुक्तप्रकारावधारणार्थम् । महानसादौ दृष्ट दहनादिसाजात्येन द्रष्टुं योग्ये साध्ये प्रवर्त्तमानं साधनं दृष्टमुच्यते । दृष्टार्थविषयत्वात् । व्याप्तिग्रहणक्षणे सामान्यवृत्त्या दृष्टस्यार्थस्य पश्चादनुमापकं यसाधनं तत्सामान्यतो दृष्टमुच्यते ।
यद्यपि सर्वं साधनं सामान्यतो दृष्टमेव तथापि दहनाद्यनुमितौ धूमाद्यनुमार्पिते वयादेः प्रत्यक्षीकर्त्तुं योग्यत्वेन तद्दिषयत्वात् तत्साधनं दृष्टमेव । इतरत्तु तद्विपय्यैस्ततया सामान्यतो दृष्टमिति । च शब्दः स्वार्थपरार्थभेदेनापि देविध्यसूचनार्थः ॥ ७ ॥ तत्र दृष्टसाधनमाचष्टे ।
तत्र प्रत्यक्ष योग्यार्थानुमापकं दृष्टमिति ॥
प्रत्यक्षग्रहणयोग्यः स चासावर्थच तस्यानुमापकं यत्साधनं तत् दृष्टं भवति । सामान्यतोदृष्टेऽतिव्याप्तिनिवृत्त्ये प्रत्यक्ष योग्येति पदम् । प्रत्यक्षग्रहणयोग्यतात्वव साध्यस्य दृष्टचरत्वेनानुमितेरन
द्रष्टुमौचित्येन वा सेया ॥ ८ ॥
उदाहरति ।
यथा धूमोऽग्नेरिति ॥
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अनुमानपरिच्छेदः । दृष्टसजातीयस्य द्रष्टुं योग्यस्य वाग्नेरनुमापकत्वेन प्रवर्त्तमानो धूमो दृष्टं साधनं भवतीत्यर्थः ॥ ८ ॥ सामान्यतो दृष्टं साधनमाह।
स्वभावविप्रकष्टार्थानुमापकं सामान्यतो दृष्टमिति ॥ स्वभावविप्रकष्टार्थाः परमाखादयस्तेषां सामान्यव्याप्तिर्विशेष पर्यवसानाद्यदनुमायकं लिङ्ग तसामान्यतो दृष्टं भवति । दृष्टसाधनेऽतिव्याप्तिव्याहत्त्ये स्वभावविप्रकष्टेति पदम् |॥ १० ॥ तविदर्शयति ।
यथा रूपादिज्ञानं चक्षुरादेरिति । चक्षुरादीन्द्रियमतिसूक्ष्मत्वात् स्वभावविप्रष्टम् । तच्च क्रिया करणपूर्विकेति सामान्यव्याप्तमा क्रियायाः करणपूर्वकल्वे सिद्धे रूपाद्युपलब्धिः करण साध्या क्रियावात् छिदिक्रियावदिति मामान्यतो दृष्टाद्रूपादिज्ञानसाधनादन्यकरणासम्भवे सति पारिशेष्याञ्चक्षुराद्यनुमीयत इति ॥ ११ ॥ पुनः साधनभेदमाह।
तत्पुनहि विधं स्वाध परार्थञ्चेति ॥ दृष्टसामान्यतोदृष्टभेदात् विविधमपि साधनं पुनईिभेदं भवति । कथमित्याह । स्वार्थमिति । स्वस्मै प्रात्मने इदं स्वार्थम् । कोऽभिप्रायः । महानसादौ भूयोदर्शनसहायेन प्रत्यक्षेण धूमधूमध्वजयोनिश्चितव्याप्तिकस्य पुंसो लोचनगोचरीभवद्यत्साधनं दृष्टान्ताव्यं विनापि परोक्षं लिङ्गिनमवगमयति । तत् स्वस्यैव प्रतिपत्तिभूतत्वात् स्वार्थमित्युच्यते । परार्थमिति । परस्मै व्युत्पा
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१४
न्यायतात्पर्यदीपिका। द्यायेदं परार्थम् । कोऽर्थः । यत्साधनं व्युत्पादकेन स्वयं साध्यनान्तरीयकत्वेन निर्मीय पञ्चावयववाक्यप्रयोगेण प्रतिपाद्यमान मन्दिग्धादीनां परोक्षमथं लक्षयति तत्परार्थमिति व्यपदिश्यते । न चात्र वाक्यादेव साध्यावगतिरनुमानस्य शाब्दत्वप्रसङ्गात् । किन्तु पञ्चावयववाक्यप्रतिपादिताल्लिङ्गादेव।
ननु परार्थमनुमानमिति न सङ्गच्छते। यतो लिङ्गं वा लिङ्गसमुद्भूतं ज्ञानं वानुमानम् । न च तयोः वापि पारायं प्रसिद्धमस्ति । अथानुमानाभिधायकस्य शब्दस्य पारायादमुमानं परार्थत्वेन समर्थते तहिं प्रत्यक्षाभिधायकस्यापि शब्दस्य पारार्थ्या. प्रत्यक्षमपि तथोच्यतामविशेषात् । तदुक्तम् ।
ज्ञानाहा ज्ञानहेतोर्वा नान्यस्यास्त्यनुमानता । तयोश्च न परार्थत्वं प्रसिद्ध लोकवेदयोः ॥ वचनस्य परार्थत्वादनुमानपरार्थता ।
प्रत्यक्षस्यापि पाराय तत् हारं किं न कल्पाते ॥ प्रतीयते । न वयं शब्दस्य पारायात्तदभिधेयमनुमानमपि परार्थमिति समर्थयेमहि किन्तु पराधं यः पञ्चावयववाक्यप्रयोगस्तं लिङ्गप्रतीत्युत्पादकत्वेनानुमितिहेतुत्वादनुमानमित्याचक्ष्म है। न चैवं प्रत्यक्ष स्थापि पारार्थ्यम् । घट: वास्तौति पृष्टे प्रत्यक्षोऽयमित्यु स्तरस्य शाब्दकार्यत्वात् ।
एतेन वाक्यस्य साक्षादनुमितिमाधनाभावादौपचारिकममु. मापकत्वं तस्य समर्थहेतुप्रतिपादनेनैव कृतार्थत्वादिति ॥ १२ ॥
तत्र स्वार्थ समर्थयते ।
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अनुमानपरिच्छेदः ।
८५
परोपदेशानपेक्षं स्वार्थमिति ॥ परोपदेशो वक्ष्यमाणलक्षणं पञ्चावयवं वाक्यम् । तदनपेक्षं यत्साधनं तत् स्वार्थ भवति । परार्थानुमानेऽतिव्याप्तिनिवृत्त्यर्थमन्तनसमासः। प्रतिपत्तुः पौन:पुन्यानुभूतचरलिङ्गलिङ्गिसाह. चयंस्मरणात् परोपदेशं विनापि निश्चिताविनामावस्य साधनस्य दर्शनात् यत्साध्यविज्ञानं तदनुमानं स्वार्थमित्यर्थः ॥ १३ ॥ पराध लक्षयति।
परोपदेशापेक्षं परार्थमिति ॥ परोपदेशं पञ्चावयवप्रयोगं परप्रतिपत्तौ यत्साधनमपेक्षते तत् पराथं भवति । यत्साधनं पञ्चावयवप्रयोगेन प्रतिपाद्यमानं सन्दिग्धविपर्यस्तादीनां साध्यविज्ञानं जनयति । तत्यरार्थममुमानं भवतीति तात्पर्य्यम् ॥ १४ ॥ अथ परोपदेशं लक्षयति ।
परोपदेशस्त पञ्चावयववाक्यमिति ॥ परो विपर्यस्तादिरुपदिश्यते प्रबोध्यते येन स परोपदेशः । पञ्चावयवा वक्ष्यमाणा: प्रतिज्ञादयः। सामान्य वाक्येऽतिप्रसक्तिनिषेधार्थमक्यवेति पदम् । शवयवमेव नावयवमेव वाक्यमिति तथागतभामतप्रतिक्षेपार्थ पञ्चेति पदम् । सर्वे वाक्यं सावधारणमिति न्यायादन्यथानियतार्थप्रदर्शकत्वेन निराकाइप्रवृत्तानियतार्थसिद्दे स्तदुच्चारणवैयर्थात् पञ्चावयवमेव वाक्यं परोपदेशं मवति ! पञ्चावयवं हि वाक्यं यावत्सु रूपेषु लिङ्गस्याविनाभावः माध्येन सह समाप्यते तावद्रूपं लिङ्ग प्रतिपादयत्परं प्रबोधयतीत्यर्थः ॥ १५ ॥
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न्यायतात्पर्य्यदौयिका।
परोपदेशः पञ्चावयवं वाक्यमित्यक्तमतस्तानेव पञ्चावयवान् व्यनक्ति । __ प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवा इति ॥
प्रतिज्ञादिपदानामथ: स्वस्वस्थाने वक्ष्यते । प्रतिज्ञा च हेतुश्चेत्यादि इन्दः । अवयवा इति। अवयवा इव अवयवाः प्रतिज्ञादीनामुपचारेणावयवत्वात्। मुख्यवृत्त्वा तु द्रव्यारम्भका एवावयवाः । अवयवा इत्युक्ते हस्तपादाद्यवयवेवतियाप्तिः स्यात्तनिवृत्त्यर्थ प्रतिज्ञादौनि पदानि। प्रतिज्ञादीनां चावयवत्वं पञ्चावयवमहावाक्यापेक्षया जेयमन्यथा तेषामपि पदकदम्बात्मकेन वाक्यत्वादिति ॥ १६ ॥
प्रतिज्ञादयोऽवयवा इत्युक्तं तत्र यथोद्देशं प्राक प्रतिज्ञा प्रज्ञापयति ।
तत्र प्रतिपिपादयिषया पक्षवचनं प्रतिसेति ॥ तोति निर्धारणार्थः । प्रतिज्ञायते परं प्रत्यङ्गीक्रियते इति प्रतिज्ञा। परं प्रति हेतुत: प्रतिपादयितुमिच्छा प्रतिपिपादयिषा सिसाधयिषा। तया हेतुभूतया वक्ष्यमाणस्वरूपः साध्यधर्मविशिष्टो धर्मी पक्षस्तस्य वचनं भणनं प्रतिज्ञा भवति । अत्र वचनं प्रतिज्ञत्युक्ते यत्किञ्चिद्दचनं प्रतिज्ञा स्यात्तदुपदासाथ पक्षेति पदम् । तथापि निगमनेऽतिव्याप्तिः स्यात्तस्थापि पक्षवचनत्वात् । तनित्य | प्रतिपिपादयिषयेति पदम् । धातूनामनेकार्थत्वादत प्रतिपिपादयिषा सिसाधयिषात्वेन व्याख्ये यान्यथा हेत्वादीनामपि प्रतिपिपादयिषया भणनात् प्रतिज्ञात्वापत्तिः स्यादिति ॥ १७ ॥
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अनुमानपरिच्छेदः ।
のん
प्रतिज्ञामुदाहरति । यथानित्यः शब्द इति ॥
अत्र सूत्रकारेच्छा वैचित्रयात् विपय्वस्तनिर्देशेऽपि शब्दोऽनित्य इति प्रतिज्ञा विधेया । अन्यथा प्रागेवानुपन्यस्ते धर्मिणि कुड्याभावे चित्रमिवानित्यत्व निरालम्बं स्यात् ।
ननु केवल हेतुनेव साध्यसिद्धौ प्रतिज्ञाप्रज्ञापनं व्यर्थम् । ततः साक्षात्पारम्पर्येण वा सिद्धासम्भवात् । साक्षात्तावन किञ्चिद्दचनं साधनाङ्गम् । यस्मादिति
अर्थादर्थगतेः शक्तिः पक्षहेत्वभिधानयोः ।
नार्थतो न तयोर्नास्ति स्वतः साधनसंस्थितिः ॥
नापि पारम्पय्र्येण यतो हेतुवचो बहिरर्थाप्रामाण्याश्रयमशक्तमपि साध्यसिद्धौं शक्तस्य धूमाद्यर्थस्य सूचकं भवति । प्रतिज्ञोक्तिः पुन: साध्यमेवाभिधत्ते न पुनः सिद्धम् । साध्यञ्च न गमकं व्यभिचारादतो न तत्सूचकं पारम्पर्येणापि । तदुक्तम् । शक्तस्य सूचकं हेतुवचोऽशक्तमपि स्वयम् । साध्याभिधानात् पक्षोक्तिः पारम्पर्येण नाप्यलम् ॥ इति ॥ नैवम् । न खलु यत्र क्वचन साध्यसाधनाय हेतुप्रयोगस्तस्य प्रागपि सिडत्वात् । किं तर्हि कस्मिंश्चिप्रतिनियते धर्मिणि I तस्मिंश्चानुपन्यस्ते निराधारो हेतुः क प्रवर्त्तेत । तदप्रवृत्ती साध्यसिद्धिरेव | ततो धर्मिग्राहकं प्रमाणं प्रगुणयन्त्या प्रतिज्ञया हेतोराधारः सन्निधाप्यत इति साध्यसिद्धाङ्गत्वात्प्रतिज्ञा स्वीकार्येव । तस्याः प्रागपि सिद्धत्वाहार्थं तदुपादानमिति चेन्न ।
१३
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८
न्यायतात्पय्य दौपिका।
तहाच्यस्थ धर्मिणः स्वरूपण सिद्धस्यापि प्रतिपाद्यधर्मविशिष्टत्वाप्रसिद्धस्य तेन रूपेण पठ्यमानत्वमम्भवात्। पक्षधर्मातापि हतोरित्यमेव । यदि केवलमेवानित्यत्वं माध्यते तदा शब्दधम्मस्य कृतकत्वस्थापक्षधम्मतैव स्यात् । शब्द एव त्वनित्ये माध्ये नायं दोषः । तदुताम् ।
स एव चोभयात्मायं गम्यो गमक एव च ।
अमिद्धेनैकदेशेन गम्य: मिद्देन बो वकः ॥ इति ॥ १८ ॥ द्वितीयावयवं व्यनक्ति ।
साधनवख्यापकं लिङ्गवचनं हेतुरिति ॥ हिनोति गमयति लिङ्गलक्षणमर्थमिति हेतुः । येन लिङ्गस्य साध्यसिद्धौ पञ्चम्यन्तं हतीयान्तं वा साधनत्वं साध्यनान्तरीयकत्वं ख्याप्यत तहचनं हेतुरित्युपर्यत । मुख्यतस्तु लिङ्गमेव हेतुस्तस्यैव पक्षधम्मत्वादिसद्भावात् । वचनं हेतुरित्युक्ते यत्किञ्चिद्दचनं हेतुः स्मात्तत्रिवृत्त्यै लिङ्गेति पदम् । उपनयेऽतिव्याप्तापनुत्त्यै साधनादिपदमिति ॥ १८ ॥ पूर्वोक्तायां प्रतिज्ञायां हेतुमुदाहरति ।
यथा तीव्रादिधर्मोपेतत्वादिति ।
तोवस्तीक्षाः । आदिशब्दान्मदुमधुरादिधम्मपरिग्रहः । तदु. पतत्वं तहत्त्वम् । अयसर्थः। शब्दोऽनित्यः। कस्मात्तीवादिधर्मोपेतत्वात् । तीवादया हि धम्माः शब्दस्यैव तान् हेतु ब्रुवता मूत्रकृता किमुक्तम् । पक्षस्यैव धर्मों हेतुः कार्यो नान्यस्तस्य पक्षधम्म त्वाभावात् ॥ २० ॥
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अनुमानपरिच्छेदः ।
हेतुभेदमाह।
स विविधोऽन्वयव्यतिरेको केवलान्वयौ केवलव्यतिरेकी चेति ॥
स पूर्वोतो हेतुस्वि विधः विप्रकारी भवति। कथमित्याह । अन्वयव्यतिरेकीत्यादि। साध्यमामान्धेन माधनसामान्यस्य व्याप्ति रन्वयः । साधनसामान्याभावेन साध्यसामान्याभावस्य व्याप्तिव्यतिरेकस्तहान् हेतुरन्वयव्यतिरेकी। व्यतिरेकव्यामिरहितः केवलान्वयो। अन्वयव्याप्तिरहितः केवन्नव्यतिरेकी। चकारो मूल सूत्रोत पूर्ववदादिहेतुत्रविष्यबोधनार्थः । पूर्ववदादीनां अन्वयव्यतिरेक्यादीनाच नाम्नेव भेदो नत्वर्थेन न्यायसंग्रहे युक्त्यन्तरेण तथा व्याख्यानात् । तथाच तत्र त्या व्याख्या। अथवा पूर्ववदिति केवलान्वय्यनुमानम् । शेषवदिति केवलव्यतिरेकि । सामान्यतो दृष्टमिति अन्वयव्यतिरको ति । कथं पूर्वशब्दे नान्वयो व्यपदिश्यते । प्रागध्यवसीयमानत्वात् । न हि यावन्नाग्निभावे धूमभावोऽध्यवसीयत तावदग्न्यभावे धूमाभावो दृष्टोऽप्यध्यवसातुं शक्यते विध्यध्यवसायपूर्वकत्वात्तनिषधाध्यवमायस्य ।
पूर्वमेव विद्यत अन्वय एवास्ति यस्यानुमानस्य तत्पूर्ववत् । शेषो व्यतिरेकः स एवास्ति यस्य तच्छेषवत् । अन्वयव्यतिरेकयोः साधनाङ्गयोः सामान्येन यदनुमानं दृष्टं तत्सामान्यतो दृष्टमिति । तत्र कारणात् कायानुमानं पूर्ववत् । यथा दृष्टिविति तादृशाब्ददर्शनात् । कार्याकारणानुमानं शेषवत्। यथोपरि अष्टिजने तादृशनदीपूग्दर्शनात् ।
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१००
न्यायतात्पर्यदीपिका। सामान्यतोदृष्टं यथा देशान्तरमाप्तित्वादादित्यगत्य नुमानमिति। अन्वयव्यतिरेक्यादिपदेष्वव्वयव्यतिरेकावस्येति बहुव्रीहिणेव चरितार्थत्वे नित्ययोगख्यापनाथं मत्वर्थीयोपादानम् । नित्ययोगेऽतिशायन इति वचनात् । अयमर्थः । लिङ्गस्यान्वयव्यतिरेकादिद्वारेण तवैविध्याभिधायक: शब्दोऽप्युपचारात् विधा हेतुभवति।
ननु शब्दस्य हेतुले स्वार्थप्रतिपादनाविनामावित्वेन कश्चि. हेत्वाभासो न स्यादिति चेत् । न। हेत्वाभासस्य लिङ्गदौष्ट्यादिमूलत्वात् शब्द स्य दोषाभाव एव ॥ २१ ॥ तनान्वयव्यतिरेकिणं हेतुं लक्षयति ।
तत्र पञ्चरूपोऽन्वयव्यतिरेकीति || त्रिषु हेतुषु मध्ये प्रपञ्चष्यमाण: पञ्चरूपो हेतुरन्वयव्यतिरेकी भवतीत्यर्थः ॥ २२ ॥ पचरूपाणि दर्शयति ।
रूपाणि तु पक्षधम्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विषक्षाद्यावत्तिरबाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वञ्चेति ॥
तु शब्देन पराभिमतं रूप्यं व्यपाकरोति । पक्षधर्मवादीमा त्रयाणामर्थः स्वधिगमः। अबाधितविषयत्वमिति । अबाधित: प्रत्यक्षादिप्रमाणाविरुद्दो विषयः साध्यार्थो यस्य स तद्भावस्तत्त्वम् । असन्प्रतिपक्षत्वमिति। न सन् प्रतिपक्ष: साध्यत्वेन सह यस्य म नहावस्तत्त्वम् । एतेषां स्वरूपं स्वयमेव वक्ष्यति । पक्षधर्म
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१०१
अनुमानपरिच्छेदः । लादीनि ततः पञ्चरूपाणि यस्मिन् हेतो भवन्ति सोऽन्वयव्यतिरेको भवति ॥ २३ ॥ आद्यं रूपं निरूपयति ।
तत्र साध्यधर्मविशिष्टो धर्मों पक्षस्तत्र व्याप्यत्तित्वं हेतोः पक्षधर्मवमिति ॥
तत्रेति निर्धारणम्। साध्यश्वासो धर्मश्च साध्यधर्म इति कर्मधारयस्तत्पुरुषे हि धम्मिणि विप्रतिपत्त्यभावेन धम्मस्यैष साध्यत्वे धर्म धर्मान्तरानुषङ्गः स्यात् । तेन विशेष्यीभूतो यो धर्मी पर्वतादिः सः ।
पचते व्यक्तीक्रियतेऽर्थोऽनेनेति व्युत्पत्त्या पक्षो भवति । वैशिष्ट्यस्य हिनिष्ठतया धर्मिण्याक्षिप्तेऽपि यत् धर्मिपदं तत्माक्षादाख्यातएव धर्मों पक्षो यथा स्यान्त्र पुनः सौगतमतवत् पारम्पर्याप्त इति प्रतिपत्त्यर्थम् । पक्षव्यवस्था त्वेवम् ।
ज्ञातव्ये पक्षधर्मत्वे पक्षो धर्माभिधीयते ।
व्याप्तिकाले भवेदम: साध्यसिद्धी पुनयमिति । तत्र पने व्याप्य समन्तात्तमधिष्ठाय हेतोर्या वृत्तिः सा पक्षधर्मस्वं भवति । हेतोः समस्तपक्षव्यापकत्वं पक्षधर्मवमित्यर्थः ॥ २४ ॥ द्वितीयं रूपमाह।
साध्यसमानधर्मा धर्मी सपक्षस्तत्र सर्वस्मिन्नेकदेश वा हेतोधतिः सपक्षे सत्त्वमिति ॥
समानो धर्मों यस्यासी समानधर्मा । द्विपदाइमादन्निति सूत्रेण बहुप्रीहिसमासान्तादन् । ततः माध्यपदेन सह तत्पुरुषः ।
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१०२
न्यायतात्पर्य्यदीपिका। ततः माध्येन मह यस्तुल्यधर्मा म सपक्षो भवति। तवेति सपने समस्ते एकदेशे वा हेतोर्या वृत्तिः सा सपक्षे सत्त्वं भवति ॥ २५ ॥ टतीयं रूपं याचष्ट।
साध्ययावृत्तधर्मा धर्मी विपक्षः तत्र सर्वस्मिन् विपक्षे हेतोरवृत्तिविपक्षाह्यावृत्तिरिति ॥
साध्यायावत्तधर्मा साध्ययावृत्तधर्मा साध्यशून्य इत्यर्थः। स तादृशो विपक्ष इत्युच्यते। तत्र समस्तेऽपि विपक्षे हेतोरवृत्तिविपक्षाघात्तिर्भवति।
अत्र धर्मीति पदं व्यतिरेक दृष्टान्तं विनापि तदभाव तन्नेति वचनादेव व्याप्ति: सिद्यतीति सुगतमतप्रतिक्षेपार्थम् । धर्मिणं विना वचनमात्रेण साध्यसिद्धाभावात् । अन्यथा वह्निसगाई धम सद्भाव इति वचनादेव व्याप्तिसिद्धावन्वयदृष्टान्तस्याप्यनभ्युप गमप्रसङ्ग इति ॥ २६ ॥ चतुर्थे रूपं समर्थयते ।
प्रमाणाविरोधिनि प्रतिज्ञातार्थ हेतोर्वतिरबाधितविषयव. मिति ॥
प्रमाणानि प्रत्यक्षादीनि तैरविरोधः प्रमाणाविरोधस्त हति प्रतिज्ञातार्थे नित्यत्वादिधम्मके शब्दादौ हेतोर्या वृत्तिः माऽबाधित-" विषयत्वं भवति । इदं च रूपं रूप्यवादिभिरवश्यमभ्युपगन्तव्यमन्यथा हेतोबांधवैधुर्यजर्जरत्यापातात् । अविनाभूतस्य हेती: कथं बाध इति चेत् । यदि रूप्यमान मेवाविनाभावस्तदास्त्येव बाधो यथानुश्णोऽयमग्निः कृतकवादित्यस्यैव । अथान्यत् किञ्चिद
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१०३ विनाभावस्तदा रूप्यान्न किञ्चिदन्यदुक्त मिति हेतोर्बाधस्तदवस्थ एव।
ननु प्रत्यक्षादिविरोधः किं पक्षस्य दोषः किं वा हेतोः । उच्यते । न पक्षस्य दोषोऽनुमेयस्य तादवख्यात् । नापि हेतोः । खविषये तस्य सामात् विषयान्तर सर्वस्यवासामात् । किन्तु प्रतिपादयितुरिदं दूषणम् यः साधनमविषये प्रयुक्ती । यदि प्रतिज्ञातार्थप्रतीतियोग्यताविरहः प्रतिज्ञातार्थ प्रतिपादनयोग्यताविरहश्च दोषोऽभिमतस्तदा कर्मकरणयोरपि स स्यादिति हेतोर्बावविध्वंसार्थमबाधितविषयत्वमङ्गीकार्यमिति ॥ २७ ॥ पञ्चमं रूपं प्रपञ्चयति । साध्यतविपरीतयो: साधनस्यात्रिरूपत्वमसत्प्रतिपक्षत्वमिति ॥
साध्यं शब्दादेनित्यवादिकं तहियरीतमनित्यत्वादिकं तयोः । साधनस्य कृतकलादेयत्पक्षधमत्वमपक्षेसत्त्वविपक्षाघात्तिलक्षणविरूपत्वराहित्यं तदसत्प्रतिपक्षत्वं भवति। विदुषा स्वमाध्यसाधनाय स हेतुर्न वक्तव्यो य: परस्यापि वदतस्तथैव त्रिरूपो भूत्वा परपक्षसिद्धा कल्पात । यथा यहे दाध्ययनं तहेदाध्ययनपूर्वक वेदाध्ययनत्वादिदानीन्तनवेदाध्ययनवत् । एतादृशो हेतुः परपक्ष तिरूप: स्यात् । यथा यद्देदाध्ययनं तद् गुर्वध्ययनपूर्वकं वेदा. ध्ययनत्वादिदानीन्तनवेदाध्ययनवत् इति ॥ २८ ॥ अन्वयव्यतिरेकेणावान्तरभेदावाह।
स विविधः सपक्षवृत्तिभेदादिति ॥
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका। ___सएक्ष इति दृष्टान्तस्तत्र सर्वस्मिन्नेकदेशे वा या वृत्तिस्तद्भेदात् सर्वसपक्षव्यापकसपक्षकदेशव्यापकभेदादन्वयव्यतिरेको द्विधा भिद्यत इत्यर्थः ॥ २८ ॥ तत्राद्यं भेदमुदाहरति । तद्यथानित्यः शब्दः कार्यवादिति सर्वसपक्षव्यापक इति ॥*
अत्र शब्दस्यानित्यत्वे साध्येऽनित्यत्वाकान्तो य: स सर्वोऽपि मपक्षस्तत्व घटादौ सर्वत्र कार्यत्वमस्तीति असौ कार्यत्वहेतुः सर्वसपक्षव्यापकोऽन्वयव्यतिरेकी।
अनित्यत्वन्त्वन वस्तुत्वे सति कारणाधीनः स्वरूपनाशो विवक्षितन्तेन ।
प्रागभावस्य नश्वरस्थापि कार्यवाभावेनासौ हेतुः सर्वसपक्षव्यापको न भवतीति न वाच्यम् । तस्य प्रागुतानित्यत्वलक्षणवाभात्। तथा कार्यवमपि वस्तुत्वे सति कारणाधीन: स्वामलाभस्तेन कार्यत्वेऽप्यनित्यत्वशून्येन प्रध्वंसेन प्रस्तुतहेतो नैकान्ति कत्वं तस्यावस्तुलादिति ॥ ३० ॥ हितोयं भेदमाद।
मामान्यवत्वे सत्वस्मदादिबायेन्द्रियग्राम्हात्वादिति सपकदेशत्तिरिति ।
अन शब्दोऽनित्य इति प्राच्येव प्रतिज्ञा। सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादीत्यादि हेतुः। ततेन्द्रियग्राह्यत्वादियुक्त मनइन्द्रिय
--------...---
. ...--- ..-..--.
___ * The word सय in सर्व पक्ष व्यापकः is oinitted in our test [ Vide p. 6. L. 13.
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१०५
ग्राह्येण नित्येनात्मनानैकान्तिकत्वं स्यात्तनिवृत्त्यै च बाह्येतिपदम् । तथापि योगिनां बाह्येन्द्रियग्राह्येर्नित्यैः परमाणुभिर्व्यभिचार स्तदपत्ये अस्मदादीति पदम् । न च तेऽस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्याः । एवमप्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्येण नित्येन सामान्येनातिव्याप्तिस्तदपास्त्ये सामान्यवत्त्वे सतीति पदम् । न च सामान्येऽन्यकामान्यं अनवस्थादौस्थ्यानुषङ्गात् । ग्रव शब्दस्यानित्यत्वं साध्ये यावाननित्यः पक्षस्तावान् सर्वोऽपि सपक्षस्तत्र घटादावयं हेतुरस्ति सुखादौ नास्ति तस्यान्तः करणवेद्यत्वात् । ततः सपक्षेकदेशत्तित्वं हेतोः । अनयोर्डयोरपि हेत्वोरन्वयव्यतिरेकित्वाहयतिरेक:
स्वयमभ्यूह्यः
ः ।
सपक
ननु पक्षे भागासिद्धत्ववत् सपचैकदेशवर्त्तित्वमपि हेतोर्दोष इति चेत् । न । भागासिद्धत्वे हेतोः स्वरूपमेव न स्यात् देशवृत्तित्वे तु को दोषः । किं स्वरूपहानिः साध्यासाधकत्वं वा । नाद्यः कल्पः पक्षधर्मत्वेनैव तस्य निपतत्वात् । न द्वितीयोऽविनाभावेनैव तस्य व्यवच्छिनत्वात् । किञ्च यदि सपक्षैकदेशवृत्तिरपि दोषस्तदा यस्य सर्वथा सपक्षएव नास्ति स केवलव्यतिरेकी कथं प्रामाण्यसङ्कटमाटोकतेति यत्किञ्चिदेतत् ॥ २१ ॥ अथ केवलान्वयिनं लक्षयति ।
*पक्षव्यापकः सपक्षवृत्तिरविद्यमानविपक्ष: केवलान्वयो पूर्ववविध इति ॥
In our text the word "सच" is added before the word qfafafau: ( Vide page 6, Line 16 ).
१४
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका। केवलान्वयौति शब्दार्थः पूर्ववत् । यो हेतु: पक्षं व्याप्नोति सपक्षे च वर्तते विपक्षो यस्य नास्त्येव स व्यतिरेक व्याप्ताभावात् केवलान्वयीत्युच्यते । पक्षव्यापक: केवलान्वयोति कृते व्यतिरेकिणि अतिव्याप्तिस्तावच्छित्त्यै सपक्षवृत्तिरिति पदम् । अन्वयव्यतिरेकिण्यतिप्रसक्तिप्रतिषिा अविद्यमानविपक्षेति पदम् । तथानुक्त मपि कालात्ययोपदिष्ट त्वादिदोषापनुत्त्यै अबाधितविषयत्वासत्प्रतिपक्षत्वे सतीति विशेषणमिह केवलव्यतिरेकिणि च विज्ञेयम् । केवलान्वयीत्यनेन ये न विना केनचित् कस्यचिदभावो ह्यविनाभाव इति व्युत्पत्तिबलमवलम्बमाना व्यतिरेकव्याप्तिमेव मन्वते तान्निराचष्ट। अभावस्य भावपूर्वकत्वेन व्यतिरेकव्याप्तेरन्वयपूर्वकत्वात् । ततो विपक्षाद्यावृत्तिविकलचातूरूप्यशाली केवला. न्वयीत्युक्तम् । स च पूर्ववदिति अन्वयव्यतिरेकिवत् सर्वसपञ्चव्यापकमपक्षकदेशवृत्तिभंदाधा भवति ॥ ३२ ॥ तत्राद्यं भेदमुदाहरति ।
*तद्यथा विवादास्पदीभृतान्यदृष्टादीनि कस्यचित्प्रत्यक्षाणि प्रमेयत्वात् करतलादिवदिति सर्वपक्षव्यापक इति ॥
पुण्यपापस्वर्गेश्वरादौनामदृष्टानां प्रत्यक्ष त्वं मोमांसका न मन्वते । तान् प्रति नैयायिकोऽनुमानयति विवादेत्यादि । अत्रा. दृष्टादीनां प्रमेयत्वाडेतोः कस्यचिद् योग्यादेः प्रत्यक्ष साध्यते ।
* The reading adopter loy the comtuen taller lucre, diller's suni what from our text (Sec pe 0, Ling 18).
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अनुमानपरिच्छंदः। यथा करतलादीनि प्रमेयत्वात् कस्यचित्प्रत्यक्षाणि तथा अदृष्टादौन्यपि योग्यादेः प्रत्यक्षाणि भवन्तीत्यर्थः । अयच हेतुः समस्तवस्तु स्तोमस्य प्रमेयत्वाकान्या सर्वसपक्षव्यापकस्तथा कस्यचित्प्रत्यक्षत्वे भाध्ये अप्रत्यक्षस्य कस्यापि वस्तुनोऽभावादेवाविद्यमानविपनश्च केवलान्वयिनः प्रथमो भेदो जेयः ॥ ३३ ॥
द्वितीयं भेदमुदाहरति।
सैव प्रतिज्ञा मीमांसकानामप्रत्यक्षत्वात् अस्मत्सखादिवदिति सपक्षकदेशत्तिरिति ॥
अत्र विवादास्पदोभूतान्यदृष्टादौनोत्यादि प्रायेव प्रतिज्ञातानि मौमांसकानामप्रत्यक्षवादिति हेतुना कस्यचित्प्रत्यक्षाणि साध्यन्ते । यथास्मत्सुखानि मौमांसकानामप्रत्यक्षाण्यपि अस्मत्प्रत्यक्षाणि तथादृष्टादौनि मौमांसकाप्रत्यक्षाणि कस्यचिद् योग्यादेः प्रत्यक्षाणि भवन्तीत्यर्थः। कस्य चित् प्रत्यक्षवस्थ सर्वत्रापि विद्यमानत्वात् अविद्यमानविपक्षी घटादी मीमांसकानामप्रत्यक्षत्वस्य हेतोरभावात् सपक्षकदेशवी केवलान्वयिमो ऽयं द्वितीयो भेदः । मीमांसकानामप्रत्यक्षत्वन्त्वत्र मौमांसकप्रत्यक्षातिरिक्तप्रमाख ग्राह्यलं विवक्षितमन्यथा मीमांसकानां प्रत्यक्षत्वनिषेधेन तद्यतिरिक्तपुरुषप्रत्यक्षत्वस्य हेतुत्वे साध्यवैशिध्य स्यानिषेधमात्रस्य च हेतुले शविषाणादिना व्यभिचारी भवेत्तस्त्र मीमांसकाप्रत्यक्षवेऽपि कस्यचिदप्रत्यक्षत्वात् । न च केवलान्वयो न प्रमाण मिति वाचम् । व्यतिरेकव्याप्ताभावेऽपि तस्य प्रमाण
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
प्रतिष्ठितत्वात् । तथाहि केवलान्वयो प्रमाणं सम्यगविनाभाव बलेनार्थप्रतिपादकत्वात् । अन्वयव्यतिरैकिवदिति ॥ ३४ ॥ केवलव्यतिरेकिणं लक्षयति ।
पचव्यापकोऽविद्यमानसपक्षो विपक्षाद्यावृत्तः केवलव्यति. रेकौति ॥
यो हेतुः पक्षं व्याप्नोति यश्च सपक्षविकलो यश्च विपनाया. वृत्तः स केवलव्यतिरेकी भवति । पक्षव्यापकः केवलव्यतिरेकौति लक्षणे ते केवलान्वय्यादावतियाप्तिस्तनिवृत्त्यै अविद्यमान. सपक्षेतिपदम्। तथापि विरुद्धेऽतिव्याप्तिस्तदपोहाथै विपक्षाद्याहत्त इति पदम् । एतेन केवलयतिरको सपक्षे सत्त्वलक्षणेकरूपविकलचातूरूप्यभाग्भवतीत्युक्तम् ॥ ३५ ॥
केवलयतिरेको देधा प्रसङ्गोन्नेयो अप्रमङ्गोब्रेयो च। तत्र प्रागप्रसङ्गोत्रेयिनमाह। ___ यथा सर्ववित्कर्नुपूर्वकं सर्व कार्ये कादाचित्कत्वात् । यत्सर्वविकत्तपूर्वकं न भवति तन्न कादाचित्कं यथाकाशादीति ॥
यः सृष्टिमीश्वरककां न मनुते तं प्रतोदमनुमानम् । अत्र क्षियादेः सर्वस्य कार्यस्य मर्ववित्कर्तपूर्वक त्वं सर्वज्ञहेतुकत्वं साध्यं तत्र भगवत: सिसृक्षासनिहोर्षाभ्यां भवनाभवनरूपं कादाचित्कत्वं व्यक्तमेव । यत्मवविकतपूर्वकं न भवति तन्त्र
* The ruling itlopted by the commentator bere differ's suthewhat from our text ( Scell*T. line 3-5
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अनुमानपरिच्छेदः ।
कादाचित्कमिति साध्याभावपूर्वकः साधनाभावो व्यतिरेकव्याप्तिः । आकाशादीति व्यतिरेकदृष्टान्तः ।
अत्र सर्वस्य काय्र्यस्य पचीकृतत्वादेव सपक्षाभावादन्वयव्याप्तिन भवत्येव ।
१०८
ननूदकाद्याहरणकार्य्यस्यासर्व विदस्मदादिकर्तृपूर्व्वकस्य प्रत्यक्षेणोपलम्भात्प्रत्यक्षबाधितः पच इति चेन्न । तत्प्रति तस्थापि सवित्त्वादन्यथा यदि तत्तेन न ज्ञायेत तर्हि न क्रियेत क्रियाया जतिपूर्वकत्वात् ।
न चैवं यत्किञ्चित्कर्त्तृपूर्वकं साध्यं स्याद्दिपचे बाधकसहितस्यैव केवलव्यतिरेकिण: माध्यमाधकत्वाभ्युपगमात् ।
aara शशविषाणादिपूर्वकत्वमपि साध्यं निरस्तं ज्ञेयम् | तदभावे तदुत्पाद्यस्य कस्याप्यभावात् । सर्व्वविदभावे तु काय - चित्रामेव न स्यात् । एतेन केवलव्यतिरेको तर्कसहित एव प्रमाणं भवतीत्युक्तम् । अन्वयाभावात् केवलव्यतिरेकाप्रमाणमिति चेन्न । व्यतिरेकाभावे केवलान्वयिनोऽप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात् । ततः केवलव्यतिरेकी प्रमाणमवाधितविषयत्वात् प्रतिपतत्वे सति सर्व्वविपक्षाद्यावृत्तत्वादन्वयव्यतिरेकिवदिति ॥ २६ ॥
प्रसङ्गोत्रेयिनमाह |
प्रसङ्गदारेण वा यथा नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरमप्राणादिप्रसङ्गाल्लोष्टवदतीति ॥
प्रसङ्गशब्द एव द्वारमुपायस्तेन प्रसङ्गशब्दोपादानेनेत्यर्थः । इदमनुमानं नैरात्मावादिनं प्रति । यदि जीवतां शरीरं निरात्मकं
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न्यायतात्पर्यदीपिका ।
स्यात्तर्हि लोटवदप्राणादिमङ्गवेदप्राणादिमत्त्वेन लोट्रस्य निरामकस्य दर्शनादिति तात्पर्यार्थः ।
जीवदिति पदं शवत्वपरिहारार्थम् । प्रयोगस्त्वित्थम् । इदं जीवच्छरीरं सात्मकं प्राणादिमत्त्वात् यत्र सात्मकं तत्र प्राणादिमद्यथा लोष्टमिति ॥ ३७ ॥
अधुना सम्यगधेतुस्वरूपप्रतिपत्त्यै हेत्वाभासान् व्याचिख्यासुस्तान् प्रस्तावयति ।
एतेन हेत्वाभासानामहेतुत्वमुक्तं भवतीति ॥
एतेन हेतुस्वरूपभयनेन हेत्वाभासानाम हेतुत्वमुक्तम् । हेतुलक्षणरहितत्वादिति भावः ॥ ३८ ॥
तेषां लक्षणमाह ।
हेतुलक्षणरहिता हेतुवदवभासमाना हेत्वाभासा इति ॥
तेन
हेतुलक्षणं प्रागुपवर्णितं पाञ्चरूप्यं चातुरूप्यं वा । त्रिकलाः पञ्चम्यन्तत्वेन तृतीयान्तत्वेन वा हेतुवत् स्फुरन्तो तव हेत्वाभासा भवन्तीत्यर्थः । हेत्वाभासा इति लक्ष कृते साकाङ्गं वचस्तनिवृत्त्यर्थं हेतुवदवभासमाना इति पदम् । सम्यग्वेतावतिव्याप्तिच्छिदे हेतुलक्षणरहिता इति पदम् ।
हेतुलक्षणरहितत्वं तु हेतुव्यतिरिक्ते सर्व्ववाप्यस्तीति तत्र हेत्वाभासत्वभिदे हेतुवदवभासमाना इति पदम् ॥ ३८ ॥
अथ तान्नाम्रा साम्नायं निर्दिशति ।
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अनुमानपरिच्छेदः ।
असिद्धविरुद्धानैकान्तिकानध्यवसितकालात्ययापदिष्टप्रकरण
समा इति ॥
असिद्धश्च विरुद्धथेत्यादिवन्दः । एषां पदार्थों निजलक्षणे अक्ष्यते । असिद्धादिनामानः षट् हेत्वाभासा भवन्तीत्यर्थः ॥ ४० ॥
I
सिद्धं लचयति ।
तत्रानिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्ध इति ॥
तत्रेति षट्सु हेत्वाभासेषु । सिद्धयति यः स सिद्धो न सिद्धोऽसिद्धः | अनिश्चिता सन्दिग्धा विप्रतिपन्ना वा पते वृत्तिर्यस्य स हेतुरसिनामा हेत्वाभासो भवति । पक्षवृत्तिरसिद्ध इत्युक्त सम्यग्वेतावस्यसिद्धत्वं स्यात्तनिवृत्त्यै अनिश्चितेति पदम् । यस्य हेतोः पक्षधम्मत्वं सन्दिग्धं सोऽसिद्ध इत्यर्थः ॥ ४१ ॥
विरुद्धं लचयति ।
१११
+ पक्षविपक्षयोरेव वर्त्तमानो विरुद्ध इति ॥
साध्यं विरुणडीति विरुद्धः । यो हेतुः सपक्षे सत्यसति वा पक्षे विपक्षे एव च प्रवर्त्तते स विरुद्धनामा हेत्वाभासो भवति । यक्ष एव वर्त्तमानी विरुद्ध इत्युक्तेऽनध्यवसितेऽपि विरुद्धत्वं स्यात्तदपोहाय विपक्षेति पदम् । एवकारः सपक्षव्यावृत्तिपक्षविपक्षप्रवृत्तिप्रतिपत्त्यर्थः ॥ ४२ ॥
* The reading “ते चानेकप्रकाराः " is added in our text before the reading adopted by the commentator here. [ See }" 7. LO].
!"
+ In our text the word " हेतु: is added before the word "विरुङ्गः " P. 7. Line 11 ),
(See
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११२
न्यायतात्पर्य दीपिका।
अनेकान्तिकं प्रकटयति।
पक्षमपक्षविपक्षवृत्तिरनैकान्तिक इति ॥ एकस्मिन्नन्ते साध्ये नियत ऐकान्तिकस्तहिपर्यस्तोऽनकान्तिको यो हेतुः पक्षत्रयं व्यानोति सोऽनेकान्तिको भवति । पक्षवृत्तिरिति कृतेऽनध्यवमितत्वं स्यात्तबिकृत्त्य सपक्षेति पदम् । सम्यगधेतावतिव्याप्तिव्यवच्छित्त्यै विपक्षेति पदम् ॥ ४३ ॥ अनध्यवसितं प्रकाशयति ।
साध्यासाधकः पक्ष एव वर्तमानोऽनध्यवसित इति ॥ यो हेतुः सपक्षविपक्षयोः सतोरसतोर्वा न भवति । केवलं पक्षं व्याप्नोति स सजातीयविजातीयव्यावृत्तित्वेनानिश्चितोऽनध्यवसितनामको हेवाभासो भवति। पक्ष एव वर्तमान इत्यत केवलव्यतिरेक्यप्यनध्यवसितः स्यात्तदपास्तु साध्यासाधक इति पदम् ॥ ४४ ॥ कालात्ययापदिष्टमाचष्टे । प्रमाण बाधिते पक्षे वर्तमानो हेतुः कालात्ययापदिष्ट इति ॥
प्रमाणानुपहतपक्षोपन्यासानन्तरं हेतूपन्यासस्य समय: कालस्तदत्यये तदतिक्रमे सत्यपदिष्टः कालात्ययापदिष्टः प्रत्यक्षादिप्रमाण बाधिते पक्षे यो हेतुर्वर्तते स कालात्ययापदिष्टो भवति । सम्यगधेतो: कालात्ययापदिष्टवानिवृत्त्यर्थं प्रमाणबाधितंति पदम् ॥ ४५ ॥ प्रकरणसमं लक्षयति ।
स्वपरपक्षसिद्धावपि विरूपो हेतुः प्रकरणसम इति ॥
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अनुमानपरिच्छेदः ।
प्रकरणे पक्षे प्रतिपक्षे च विशेषानुपलम्भात् समः प्रकरणसमः। समत्वं तु पनधत्व-सयक्षेसत्त्व-विपक्षागात्तिलक्षण
रूम्येण विज्ञेयम् । यो हेतुः स्वपक्षपरपक्षयोः साधनाय रूप्यवान् स प्रकरणसमो भवति । ___ ननु यदि प्राक्तनस्य हेतोयथोक्तलक्षणत्वमवगतं तदा तेन योऽर्थः समर्थित: स तथैवेति न द्वितीयस्य प्रयोगः प्राप्नोति प्रतिपत्तिबाधितत्वात्।
अथ प्राक्तनो यथोक्तलक्षणो न भवति तदानीमसिद्धत्वादि. दोषः स्यान्न प्रकरणसमसमिति चेत्र। साध्यतदिपरौते प्रति
रूप्यवत्तया साध्यासाधकत्वेन तस्य हेलाभासत्वात् । स चा. सिद्धादिभ्यः पृथगेवानिश्चितपक्षवत्तित्वादिलक्षणानाक्रान्तत्वादिति ॥ ४६॥
संप्रत्येषां कतिपयनिदर्शननिदर्शनार्थं कार्मेन वक्तमशक्यत्वमावेदयति।
यद्यपि चैषां सूक्ष्मा भेदा अनन्तत्वान शक्यन्ते वक्त्रं तथापि स्थूला दृष्टिमाश्रित्य कियन्तो भेदाः प्रदर्श्यन्त इति ।
आनन्त्यात्म-भेदान् वक्तमपदिष्टतया शिष्यसेमुषोडा कतिपयान् भेदान् निदर्शयिष्यामीति भावः ॥ ४७ ॥ तत्रासिद्धभेदानाह।
अमितभेदास्तावत् । स्वरूपासिद्धी यथानित्यः शब्दः चाक्षुषवादिति ॥ वरूपणा सिद्धः स्वरूपासिद्धः । अत्र शब्दस्यानित्यत्वे साध्ये
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
चाक्षुषत्वं स्वरूपेणासिहं शब्दस्याचाक्षुषत्वात् । हेतुश्च निश्चित. धम्भिधम्मलेन प्रसिद्ध एव गवेष्यते ॥ ४८ ॥ द्वितीयं भेदमाह। व्यधिकरणासिडो यथानित्यः शब्दः पटस्य कृतकत्वादिति ॥
पक्षाहिसदृतमधिकरणं यस्यासौ व्यधिकरण: व्यधिकरणश्चासावसिदश्चेति व्यधिकरणासिद्धः । पक्षव्यतिरिक्ताधार इत्यर्थः । अत्र पटस्य कृतकवे शब्दस्य किमायातं नान्यक्कतकत्वेनान्योऽ नित्यो भवति । चैवभुक्तौ मित्रस्य सप्तिप्रसङ्गात् ॥ ४ ॥ तौयं भेदं भणति ।
विशेष्यासिडो यथानित्यः शब्दः सामान्यवत्वे सति चाक्षुषत्वादिति ॥
विशेष्येण चाक्षुषत्वलक्षणेनासिद्धो विशेष्यासिद्धः। यद्यपि चाक्षुषत्वं शब्दे स्वरूपत एवासिई तथाप्यत्र विशेष्यतया तदुपादानाविशेष्यासिद्धत्वं हेतोः। सामान्यं चाक्षुषमस्ति न च तदनित्यं तद्दावच्छेदार्थ सामान्ववत्त्व सतौति पदग्रहणम् ॥ ५० ॥ चतुर्थ भेदं समर्थयति ।
विशेषणासिनी यथानित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वे सति सामान्य स्वात् ॥
चाक्षुषत्त्वे सतौति विशेषणेनासिद्धो विशेषणासिद्धः सामान्यवत्त्वादिति पदं प्राग्वत् ॥ ५१ ॥ पञ्चमं भेदं प्रपञ्चयति। भागासिद्धो यथानित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति ॥
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अनुमानपरिच्छेदः । भागे पक्षकदेशेऽसिद्धो भागासिद्धः । प्रयत्नः शब्दजनको व्यापारस्तदनन्तरं भवः प्रयत्नानन्तरीयकस्तगावात् । कः प्रयत्नः शब्दोत्पत्ताविति चेत् । उच्यते । .. शब्दो वर्णावर्णात्मकतया हेधा। अकारादिवर्णात्मकस्तदितरः शङ्खादिहेतुरवर्णात्मकः। तत्र वर्णात्मकस्योत्पत्तिरवम् । प्रात्ममनसोः संयोगात् स्मृत्यपेक्षा वर्णोच्चारणेच्छास्तदनु प्रयत्नस्तमयेक्ष्यमाणादात्मवायुसंयोगाहायुकर्म म चोड़े गच्छन् कण्ठादौनभिहन्ति । ततः स्थानवायुसंयोगापेक्षात् स्थानाकाशसंयोगात् वर्णोत्पत्तिः। अवर्णात्मकस्तु भेरौदण्डसंयोगाद्यपेक्षा र्याकाशसंयोगाहेणुपर्व विभागापेक्षात्पर्वाकाशविभागाञ्चोत्पद्यते इति । ईदृशं प्रयत्नानन्तरीयकत्वमाद्य एव शब्दे विद्यते न हितोयटतीयशब्दादौ तेषां शब्दजत्वात् ।
तथाच प्रशस्तपादभाष्यम् । “शब्दाच संयोगविभागनिष्पवाहोचीसन्तानवच्छब्दसन्तान इति” । यथा जलवीच्यास्तदव्यवहिते देशे वोच्थन्तरमुपजायते ततोऽन्यत्ततोऽप्यन्यदित्यनेन क्रमेण वौचीसन्तानो भवति । तथा शब्दादुत्पन्नात्तदव्यवहित देशे शब्दान्तरं ततोऽन्यत्ततोऽप्यन्यदित्यनेन क्रमेण शब्दसन्तानो भवतीत्यर्थः ।
शब्दात्कथं शब्दोत्पत्तिरिति चेत् । श्रोत्रशब्दयोनिस्कियत्वेन गमनागमनाभावादिन्द्रियाणां प्राप्यकारिवात् प्रकारान्तरेण चानुपलम्भाहीचौसन्ताने स्वोत्पत्तिदेशे विनश्यन्तीनामपि वीचीनां खामन्त्रदेशे स्वसदृशकार्यारम्भपरम्परयान्य देशप्राप्तिदर्शनाच्छब्दो. त्यवः शब्दसन्तानः परिकल्पाते। न चानवस्था यावनिमित्त
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
कारणभूतकोष्ठवातानुवर्तनं शब्दसन्तानोपलम्भात् । अतएव प्रतिवातं न शब्दोपलम्भः । कोष्ठवायुप्रतिघातादिति ॥ ५२ ॥ षष्ठं भेदं व्याचष्टे ।
प्रायासिद्धो यथास्ति प्रधानं विश्वपरिणामित्वादिति ॥
आश्रयेणासिद्धः आश्रयासिद्धः। सांख्यमते इदं विश्वं प्रधानात्मकं प्रधानं च सुखदुःखमोहस्वभावानां सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रक्ततिरुच्यते । प्रधानस्य स्वरूपं चैतत् ।
त्रिगुणमविवेकि विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि ।
व्यक्त तथा प्रधानं तद्दिपरीतस्तथा च पुमान् ॥ विखं परिणामोऽस्त्यस्य विश्वपरिणामि तद्भावस्तत्त्वं तस्मादिखपरिणामित्वावेतोरस्य प्रधानस्यास्तित्वं यदा सांख्येन माध्यते तदा नैयायिकमते तस्यासिडलात् तनिष्ठो हेतुराश्रयासिद्धः स्यादिति ॥ ५३ ॥ सप्तमं भेदमभिधत्ते।
आश्रयैकदेशासिद्धो यथा नित्याः प्रधानपुरुषेवरा अकृतकत्वादिति ॥ ___ अत्र पक्षीकतानां प्रधामादीनां मध्ये प्रधानस्यैकदेशस्य नैयायिकमते असिद्धत्वादाश्रयैकदेशासिद्धत्वं हेतोः ॥ ५४ ॥ अष्टमं भेदं व्याचष्टे ।
व्यर्थविशेष्या सिद्धो यथानित्यः शब्दः कतकत्वे सति सामान्यबत्त्वादिति ॥
व्यर्थविशेष्यश्वासावसिदश्चेति विग्रहः। अव शब्दस्य कतक
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अनुमानपरिच्छेदः ।
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त्वेनैवानित्यत्वसिड सामान्यवत्त्वमिति विशेष्यं व्यर्थम् । अवीत्तरत्र च व्यर्थमिति पदं विशेष्यासिद्धविशेषणा सिद्धव्यव च्छेदार्थम् ॥ ५५ ॥
'नवमं भेदं भगति |
व्यर्थविशेषणासिद्धो यथा अनित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सति कृतकत्वादिति ॥
व्यर्थविशेषणचासावसिद्धश्चेति समासः । अत्रापि सामान्यवत्त्वमिति विशेषणं व्यर्थम् । इह पूर्च्छत्र च कृतकत्वस्यासिडत्वं नित्यत्ववाद्यपेचयान्यथा व्यर्थविशेष्यत्वं व्यर्थविशेषणत्वं च स्यात्र
त्वसिद्धत्वमिति ॥ ५६ ॥
दशमं भेदं दिशति ।
*सन्दिग्धासिडो यथा धूमवाष्पादिविवेकानिश्वये कचिदाहाम्निमानयं प्रदेशो धूमवत्त्वादिति ॥
किमयं धूमो बाष्पो वेत्येवं साधनेऽनिश्विते सत्यत्त्र प्रयुक्तं धूमवत्त्वं हेतुः सन्दिग्धासिडो भवति । एतेन साधनं निश्चितमेव प्रयोक्तव्यं नान्यथेत्युक्तम् ॥ ५७ ॥
एकादशं भेदं प्रकाशयति । सन्दिग्धविशेष्यासिद्धो
यथाद्यापि रागादियुक्तः कपिल:
पुरुषत्वे सत्यद्याप्यनुत्पन्नतत्त्वज्ञानत्वादिति ॥
*
The reading adopted by the commentator here differs somewhnt from the text ( See page 8, Line 11 ).
The word af is omitted in the text (See p 8, L 141.
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११८
न्यायतात्पर्य्यदीपिका। ___ अत्र कपिलस्य रागादियुक्तत्वं साध्यम् । कपिलोऽपि कईि. चिनीराग: स्यात्तत: सिद्धसाध्यत्वं भवेत्तदपोहाथं पोऽद्यापीति पदम्। घटादिना व्यभिचारनिहत्त्व पुरुषत्वे सति पदम् । सथानुत्पत्रतत्त्वज्ञानवादित्युक्ते महायोगिनामनुत्पन्नतत्त्वज्ञानत्वेऽपि नौरागत्वात्तैव्यभिचारः स्यात्तनिवृत्त्य हेतावष्यद्यापति पदम्। अत्रानुत्पन्नतत्त्वज्ञानत्वं विनव्यं सन्दिग्धं को वेदाद्यापि कपिल उत्पत्रितत्त्वज्ञानोऽन्यथा वेति सन्दिग्धविशथासिडो हे तुः ॥ ५८ ॥ द्वादशं भेदं व्यनक्ति । __ सन्दिग्धविशेषणासिद्धी यथाद्यापि रागादियुक्तः कपिल सर्वदा तत्त्वज्ञानरहितत्वे सति पुरुषत्वादिति ॥
अत्राप्यद्यापीति प्राग्वत् । तत्त्वज्ञानरहितत्वस्य कादाचिकत्वे रागादियुक्तवं न सिद्धेदिति सर्वदेति पदम् । अत्र सर्वदा तत्त्वज्ञानरहितत्वं विशेषणं सन्दिग्धम् । को वैद कपिलः सर्वदा तत्त्वज्ञानरहितोऽन्यथा वेति ॥ ५८ ॥
ननु परैरुभयासिद्धान्यतरासिहतयाऽसिद्धस्य देविध्यमभिहित तदत्र कस्मात्रीच्यत इत्याह ।
*एतेऽसिद्धभेदा यदोभयवाद्यसिद्धत्वेन विवक्षितास्तदोभया सिद्धा भवन्ति । यदावन्यतरवाद्यसिद्धवेन विवक्षितास्तदान्यतरा. सिडा भवन्तीति ॥
* The commentator his it given cxamples of forefatura and विश्वविशेषणामिड which are mentioned in the text (Sce pages Line 16-19),
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अनुमानपरिच्छेदः ।
प्रागुक्ता एते दादशासिडभेदा अनित्यः शब्दः चाचुषत्वादित्यादिवद्यदा वादिप्रतिवादिनोरसिद्धत्वेन वक्तुमिष्टास्तदोभयासिद्धा भवन्ति । यदा तु वादिप्रतिवादिनो रेकतरासिडत्वेन मोमांसकं प्रति शब्दोऽनित्यः कृतकत्वादित्यादिवद्दिमणिषितास्तदान्यतरसिद्धा भवन्तीत्यर्थः । अनयोर्मध्ये अन्यतरासिद्धः प्रतिकार्य्यो भवति । हेत्वन्तरेण तस्य साधयितुं शक्यत्वात् । तदुक्तम् । योऽपि तावत् स्वयं सिद्धः परासिडोऽभिधीयते ।
भवेत्तत्र प्रतीकारः ततोऽसिद्धेऽपि का क्रिया ॥ ६० ॥ एवं दादशासिद्धभेदानभिधाय विरुद्धभेदानाह ।
११८.
विरुद्धभेदास्तु सति सपक्षे चत्वारो विरुद्धाः । पक्षविपक्षव्यापको यथा नित्यः शब्दः कार्य्यत्वादिति ॥
विरुद्धभेदा उच्यन्ते इति शेषः । तु शब्दोऽसिद्धाद्विरुद्धव्यवच्छेदकः । विरुद्धभेदास्तु सपने सत्यसति च भवन्ति । ततः प्राक् प्राचो भेदान् व्याचष्टे सति सपचे इत्यादि । अन काय - लक्षणो हेतुः पचे शब्दे विपचे घटादी च वर्त्तते । आत्मादौ सपक्षे सत्यपि न वर्त्तत इति विरुडो हेतुः । कार्यत्वं तु प्रागसतः सत्तासमवायः । तच्च प्रध्वंसादिषु नास्तीति कार्यत्वहेतोर्विरुद्धत्वमेवान्यथाकारणात् स्वात्मलाभः कार्य्यत्वमिति कार्यत्वलचणे कृते प्रध्वंसादिषु तत्सत्त्वेनानैकान्तिकत्वं स्यात् ॥ ६१ ॥
द्वितीयं भेदमाह ।
विपक्षैकदेशवृत्तिः पचव्यापको यथा नित्यः शब्दः सामान्य
वत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वादिति ॥
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१२०
न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
____ अत्र वाह्येन्द्रियग्राह्यत्वादित्युक्ते योगिबाह्येन्द्रियग्राह्यः पर माणभिः सपक्षवृत्तित्वाविरुद्धत्वं न स्यादित्यस्मदादिग्रहणम् । अस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वं सामान्येऽप्यस्तीति सामान्यवत्त्वे सतीति पदम् । अयं हेतुर्विपक्षे घटादावस्ति सुखादो नास्ति तस्यान्तःकरणग्राह्यत्वादिति वियतैकदेशवर्ती ॥ ६२ ॥ तृतीयं भेदं व्यनक्ति।
पक्षविपक्षकदेशत्तिय॑था। नित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकवादिति ॥
पक्षीकृतेषु सर्वशब्देषु प्राये एव शब्दे प्रयत्नानम्तरीयकत्वं प्रयत्नतारतम्यानुविधायित्वमस्ति न द्वितीयवतीयादिशब्देषु तेषां शब्दजत्वादिति पक्षकदेशत्तित्वं हेतोः। तथा विपक्षे घटादी सद्भावात् तृणादावसद्भावाच्च विपक्षकदेशहत्तित्वं चेति ॥ ६३ ॥ चतुर्थ भेदं समर्थयते।
पक्षकदेशत्तिविपक्षव्यापको यथा नित्या पृथिवी अतकवादिति ॥
पृथिवी हिधा परमाणु कार्यरूपभेदात् । तथाच प्रशस्तपाद भाथम् । सा बिधा नित्या चानित्या च । परमाणुलक्षणा नित्या कार्यलक्षणावनित्येति ।
तत्र परमाणुरूपायां पृथिव्यां कतकत्वं नास्ति कार्यरूपायामस्तीति पक्षकदेशवृत्तित्वम्। विपक्षेऽनित्ये सर्वत्रापि कृतकत्वमस्त्येव । एषु चतुर्वपि भेदेषु आत्मादौ नित्ये सपक्षे सत्यपि हेवत्तिय॑तति ॥ ६४ ॥
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अनुमानपरिच्छेदः।
१२१ सति सपने चतुरो विरुद्धभेदानभिधायासति सपक्षे तानाह । __ असति सपक्षे चत्वारो विरुद्धाः । पक्षविपक्षव्यापको यथा आकाशविशेषगुण: शब्दः प्रमेयत्वादिति ॥
सपक्षेत्वसति चत्वारो विरुद्धभेदा अभिधीयन्त इति वाक्योपस्कारः। अत्राकाशविशेषगुणत्वं साध्यं तच्च शब्दव्यतिरिक्तोऽन्यत्र कापि नास्तीति सघनाभावः । एवमुत्तरेषु विष्वपि हेतुषु जेयम् । हेतोः पक्षविपक्षव्यापकत्वं प्रतीतमेव ॥ ६५ ॥ द्वितीयं भेदं भणति।
पक्षविपक्षकदेशत्तियथा । आकाशविशेषगुण: शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति ॥
प्रयत्नानन्तरीयकस्य हेती: पक्षे प्रथमशब्दे मद्भावाच्छब्दज. शब्देष्वसद्भावात् आकाशविशेषगुणव्यतिरिक्त विपक्षे घटादावस्तिवादात्मादावनस्तित्वाच्च पक्षविपक्षकदेशत्तित्वम् ॥ ६६ ॥ तृतीयं भेदं व्याचष्टे ।
पक्षव्यापको विपक्षकदेशत्तिर्यथा आकाशविशेषगुणः शब्दो बाधेन्द्रियग्राह्यत्वादिति ॥
ग्राह्यत्वं ग्रहणयोग्यत्वं तत्यक्षीकृतेषु सर्वेष्वपि शब्देवस्तीति पक्षव्यापकत्वं विपक्षे आकाशविशेषगुणत्वव्यतिरिक्त घटादौ बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वमस्ति सुखादौ नास्ति इति विपक्षेकदेशवत्तित्वम् ॥ ६ ॥ चतुर्थभेदमभिदधाति ।
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१२२
न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
विपक्षव्यापक: पक्षकदेशत्तियथा आकाशविशेषगुण: शब्दोऽ पदात्मकत्वादिति ॥
शब्दो विधा पदात्मकोऽपदात्मकश्चेति । पदं तु सुप्तिङन्तम् । तत्रापदात्मकलं भेर्यादिशब्देवस्ति न तदितरेष्वपि इति पक्षकदेशत्तित्वम् । विपक्षे आकाशविशेषगुणव्यतिरिक्त सर्वत्रापदात्मकत्वं व्यक्तमस्तीति विपक्षव्यापकलम् ॥ ६८ ॥
ननु ये पक्षव्यापकास्त एव विरुद्धभेदा। न पक्षकदेशहत्तय इति परं शकते।
ननु चत्वार एव विरुद्धभेदा नान्ये तेषामसिद्धलक्षणोपपन्न त्वादिति ॥ __ ये सकलं पक्षमक्षणुवन्ति त एव विरुद्धभेदा भवन्ति । नान्ये पक्षकदेशवृत्तयस्तेषामसिद्धलक्षणोपपत्रत्वादनिश्चितपक्षहत्तित्वेन असिद्धवं विरुद्धत्वञ्च मिथो विरुद्धमेकस्य न स्यादिति तात्पर्य्यार्थः ॥ ३८ ॥ परिहरति ।
नैष दोष उभयलक्षणोपपत्रत्वे नोभयव्यवहारविषयत्वात् तुलायां प्रमाणप्रमेयव्यवहारवदिति ।
असिद्धविरुद्धलक्षणोपपनत्वेनोभयव्यवहारविषयत्वात् एष त्वदुक्तो दोषो न भवतीत्यर्थः । अत्र दृष्टान्तं स्पष्टयति तुलाया. मिति। यथा एकैव तुला हेमादिद्रव्येयत्ताहेतुत्वात्प्रमीयते अनयेति प्रमाणं भवति । इयं शुद्धाशुद्धा वेति यदा परीक्ष्यते तदा
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अनुमानपरिच्छेदः ।
२२३ प्रमाविषयत्वात् सैव प्रमेयं भवति । तहदेषामप्युभयव्यवहारविषयत्वमिति ॥ ७० ॥ इत्यं विरुद्धभेदानष्टौ स्पष्टीकत्य संप्रत्यनै कान्तिकमैदानाह ।
अनैकान्तिकभेदास्त्विति । पक्षत्रयव्यापको यथानित्यः शब्दः प्रमेयत्वादिति।
तु शब्दो विरुद्धादनकान्तिकभेदार्थः । अनैकान्तिकभेदा उच्यन्ते इति वाक्यशेषः । प्रमेयत्वं पक्षे विपक्षे सपक्षे चास्तीति पक्षवयव्यापकत्वम् ॥ ७१ ॥ द्वितीयं भेदं भणति।
पक्षव्यापकः सपक्षविपक्षकदेशत्तिर्यथानित्यः शब्दः प्रत्यक्षवादिति ॥
अत्र प्रत्यक्षत्वमस्मदादीन्द्रियग्रहणयोग्यत्वं विवक्षितमन्यथा योगिप्रत्यक्षत्वेन पक्षत्रयौव्याप्तप्रायत्तेः। तत्पक्षे सर्वत्राप्यस्ति श्रवणग्राह्यत्वात् । सपने घटादी प्रत्यक्षत्वमस्ति न हाणुकादौ विषक्षे सामान्यादावस्ति न व्योमादाविति सपक्षविपक्ष कदेशवृत्तिलम् ॥ ७२ ॥ तृतीयं भेदमभिधत्ते ।
पक्षसपक्षव्यापको विपक्षकदेशत्तियथा गौरयं विषाणिवादिति ॥
विषाणिन एवार्थस्य पक्षीकतत्वात्य विधाणित्वम् । सपने च गोवर्गे मनास्ति नर्सकस्थापि विषाणोत्यत्तियोग्यत्वात् ;
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१२४
न्यायतात्पय्यदीपिका ।
विपक्षे महिषादिष्वस्ति न हयादिष्विति विपचैकदेशवत्ति
त्वम् ॥ ७३ ॥
तु भेदं व्यनक्ति ।
*पचविपक्षव्यापकः सपचैकदेशवत्तिर्यथा नायं गौर्विषाणित्वादिति ॥
अत्र पुर: स्यस्य विषाणिनः पिण्डस्यागोत्वे साध्ये पक्षे विप च गोवर्गे सर्व्वत्राप्यस्ति विषाणित्वं सपक्षे तु महिषादावस्ति न हयादाविति सपचैकदेशहत्तित्वम् ॥ ७४ ॥
पञ्चमं भेदमाह ।
पचत्रयैकदेशवृत्तिर्यधानित्या पृथिवी प्रत्यक्षत्वादिति ॥ प्रत्यक्षत्वमत्राप्यस्मदादीन्द्रियग्राह्यत्वं ज्ञेयमन्यथा पचत्त्रयैकदेशवृत्त्ययोगात् तच्च प्रत्यचत्वं पचे पृथिव्यां कार्यरूपायामस्ति न परमाणुरूपाय सपक्षे घटादावस्ति न इणुकादो विप सामान्यादावस्ति नाकाशादाविति पचत्रयैकदेशे वृत्तित्वम् ॥७५॥
षष्ठं भेदमाह ।
पक्षपक्षेकदेशतिर्विपचव्यापको यथा द्रव्याणि दिकाल मनांस्य मूर्त्तत्वादिति ॥
अर्वाच्छन्नपरिमाणयोगित्वं मूर्त्तत्वं तदभावोऽमूर्त्तत्वं तत्पये दिक्कालयोरस्ति न मनसि । तस्याणुपरिमाणत्वेन मूर्त्तत्वात्। तथा द्रव्यत्वे साध्ये सपने आत्मव्यो मोरमूर्त्तत्वमस्ति ।
The reading of the text is "सपञ्चत्रिप चैकदेशवृत्तिः " but tha commentator adopted ' सपचैकदेशदृत्ति" ( Vide page lo. Line 7 ).
*
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१२५
पृथिव्यादिषु चतुर्विति पक्षमपक्षकदेशवृत्तित्वम् । विपक्षे द्रव्यरूपगुणकर्ममादियदार्थपञ्चकेऽप्यस्तीति विपक्षव्यापकत्वम् ॥ ७६ ॥ सप्तमं भेदं वक्ति।
पक्षविपक्षकदेशहत्तिः सपक्षव्यापको यथा न द्रव्याणि दिकाल. मनांस्यमूर्त्तत्वादिति ॥
अत्राप्यमूर्तवं पक्षे दिकालयोरस्ति न मनसि मूर्तत्वात् । अट्रव्यत्वे साध्ये विपक्षे द्रव्ये आत्मव्योनोरमूर्त्तत्वमस्ति न पृथिव्यादिष्विति पक्षविपक्षकदेशत्तित्वम् । अट्रव्यत्वेन सपचे गुणादौ सर्वत्रास्त्यमूर्तत्वमिति सपक्षव्यापकत्वम् ॥ ७७ ॥ अष्टम भेदमाचष्टे।
सपक्षविपक्षव्यापक; पनकदेशत्तियथा न द्रव्याख्याकाशकालदिगात्ममनांसि क्षणिकविशेषगुणरहितत्वादिति ॥
आश्रये सत्याशुतरविनाशिनः क्षणिकाः। विशेष्यन्ते इतरेभ्यः खाश्रया व्यवच्छिद्यन्ते यैस्ते विशेषाः । क्षणिकाश्च ते विशेषगुणाश्च क्षणिकविशेषगुणास्तैरहितत्वं वियुक्त त्वमिति यावत् । अयं हेतुः पक्षे दिकालमन:स्वेवास्ति न व्योमात्मनोस्तयो; शब्दबुद्धादिभिः क्षणिकविशेषगुणवत्त्वात् । तथाच प्रशस्त पादभाष्यं आकाशामनां क्षणिकैकदेशवत्तिविशेषगुणवत्त्वमिति। तथा अद्रव्यत्वे साध्ये गुण कम्मादयः पञ्च सपक्षा: पृथिव्यादयो विपक्षास्तेष्वयं हेतुरस्ति तेषां क्षणिकविशेषगुणरहितत्वादिति हेतौ कृते पृथिव्यादीनां विशेषगुणरहितत्वाभावेन तदव्यापनादिपर कदेशवृत्तिव स्याडेतोस्तविकृत्यै चणि केति पदम् ॥ ७० ॥
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१२६
न्यायतात्पर्य्यदीपिका। इत्यष्टावनैकान्तिकभेदानभिधायाधुनानध्यवसितभेदानभिधित्सुराह।
अनध्यवसितभेदास्त्वविद्यमानसपक्षविपक्षः पक्षव्यापको यथा सर्वमनित्यं सत्त्वादिति ॥
अनध्यवसितभेदा उदाह्रियन्त इति वाक्यशेषः । अनध्यवसितस्त्रेधा अविद्यमानसपक्षविपक्षतया विद्यमानसपक्षविपक्षतया अविद्यमान विपक्षविद्यमानसपक्षतया च । त्रिविधोऽपि पक्षसर्वेक. देशव्याप्तिभ्यां पुनर्वेधा । एवं भेदाः षट् भवन्ति । तत्राद्यं भेदमाह। अविद्यमानेत्यादि । अत्र सर्वशब्देन सर्वस्य पक्षीकतत्वादेव हेतोरविद्यमानसपक्षविपज्ञत्वम् । पक्षे तु सत्त्वादिति हेतुरस्त्येव ।
ननु यदि सपक्षविपक्षयोरभावादेव सत्र हेतुर्नास्ति तर्हि तस्य को दोष इति चेत् न। सपक्षविपक्षाभाव एव दोषः । यतो हेतः सपक्षे सन् विपक्षाह्यावर्त्तमानश्च सम्यग् हेतुतामास्तिध्रुते। अयन्तु तदभावादेव सपशे सत्त्वविपक्षाशावृत्तिवैकल्येन साध्यसाधकत्वादनध्यवसितत्वमध्यवस्थतीति ॥ ७८ ॥ द्वितीयं भेदमाविर्भावयति ।
अविद्यमानसपक्षविपक्षः पर्तकदेशवृत्तिर्यथा सर्वम नित्यं कार्यत्वादिति ॥ ___ अत्रापि सर्वस्य पक्षीकतत्वादेव सपक्षविपक्षयोरभावः । कार्यत्वं पक्षान्तरनित्येष्वस्ति म नित्येषिति पक्षकदेशवृत्तित्वम् ॥ १० ॥
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अनुमानपरिच्छेदः।
तार्तीयं भेदं व्यनक्ति ।
विद्यमानसपक्षविपक्ष: पक्षव्यापको यथा अनित्यः शब्दः पाकाशविशेषगुणत्वादिति ॥ ___ शब्दस्यानित्यत्वे साध्ये यद्यप्यनित्यनित्यौ सपक्षविपक्षी विद्यते। तथापि शब्दादन्यस्य कस्यचिदपि साकाशविशेषगुणस्य वस्तुनोऽभावात् हेतोः सपक्षविपक्षाव्यापकत्वम् । पक्षव्यापकत्वं तु व्यक्तमेव ॥ ८१॥ चतुर्थे भेदं प्रथयति।
विद्यमानसपक्षविपक्षः पकदेशत्तियथा सर्व द्रव्यमनित्यं क्रियावत्त्वादिति ॥
अब सर्वद्रव्यस्थानित्यत्वे साध्ये नित्यत्वेन गुणकम्माणि सपक्षाः । नित्यत्वेन सामान्य विशेषसमवाया विपक्षास्तत्रोभयत्रापि नास्ति क्रियावत्त्वं तेषां निष्क्रियत्वात् । तदुक्तम् ।
गुणादीनां पञ्चानामपि निर्गुणत्वनिष्क्रियत्वे इति । सपक्षविपक्षयोः सतोरपि हेतोरव्याप्ति: तथा पक्षीकृतेषु सर्च द्रव्येषु पृथिव्यादौ क्रियावत्त्वमस्ति नाकागादौ मून्नामेव क्रियावत्त्वेन व्योमादीनां निष्क्रियत्वात् । तदप्युक्तम् । क्षितिजलज्योतिरनिलमनसां क्रियावत्त्वमूतत्वपरवापरत्ववेगवत्त्वानीति पक्षकदेशवृत्तित्वम् ॥ ८२ ॥ पञ्चमं भेदमाह।
अविद्यमानविपक्षो विद्यमानमपक्ष: पक्षव्यायको यथा सर्च कार्य नित्यमुत्पत्तिधर्मकत्वादिति ||
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१२८ न्यायतात्पर्य्यदीपिका। ___ अत्र सर्चस्य कार्य्यस्य पक्षीकरणान्न कश्चिद्विपक्षः। सपक्षास्त्वाकायादयस्त बोत्पत्तिधम्मकत्वाभाव एव तेषां नित्यत्वात् । पक्ष कार्योऽयं हेतुः प्रतीत एव ॥ ८३ ॥ षष्ठं भेदं व्याचष्टे ।
अविद्यमानविपक्षी विद्यमानसपक्ष: पक्षकदेशत्तियथा सर्व कायं नित्यं सावयवत्वादिति ॥ ___ अवयवैरारभ्यमाणत्वं सावयवत्वं ग्राह्यं न खवयवैः सह वर्तत इति विग्रहस्तदङ्गीकारे व्योमादि सावयवं स्यात्तस्यापि घटाद्यवयवै: सह वर्तमानत्वात् । तच्च सावयवत्वं पक्षे घटादावस्ति न बुद्ध्यादौ तस्य निरवयवत्वात् । सर्वस्य कार्यस्य पक्षीकाराद्विपक्षो नास्त्येव सपक्षे सत्यपि व्योमादौ न सावयवत्वममूर्तत्वात् ॥ ८४ ॥ *
इति षड़नध्यवसितभेदान् व्याख्याय कालात्ययापदिष्टभेदान् व्याचष्टे ।
कालात्ययापदिष्टभेदास्तु । प्रत्यक्षविरुद्धो यथानुषणोऽयमग्निः शतकत्वादिति ॥
कालात्ययापदिष्टभेदा दयन्त इति शेषः । अत्रानुमाने यद्यपि पक्षेऽग्नौ कृतकत्वं प्रमाण प्रसिद्ध मस्ति । तथाप्यौष्णाग्राहिणा स्पर्शनप्रत्यक्षेण बाधितं धर्मिणि स्थायुकतया हेतुः कालात्ययापदिष्टो भवति । प्रत्यक्षेणानुमानविषयबाधात् ।
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* The commentitor does not explain the brackuted portion of the text ( Soepinge, 11, lines 7-).
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१२८
तथा ह्यज्ञातस्य निषेडुमशक्यत्वात्तथाविधौष्णास्य चाग्नेरन्यवानुपलम्भादग्नावपि प्रत्यक्षेण प्रतीतत्वात् । अन्यथास्यानुमानस्याप्रवृत्तस्ततः प्रत्यक्षप्रामाण्याभ्युपगमे मति प्रत्यक्षप्रतीतप्रतिषेधे प्रवर्त्तमानमनुमानं तहिपरीत वृत्तिना तेनेवाग्न्यौष्णाग्राहिमा प्रत्यक्षेण बाध्यते विषयापहारात् । तस्मिन् सत्यनुमानस्याभाव एव स्यात् । तदुतम् ।
वैपरीत्यपरिच्छेदे नावकाशः परस्य तु ।
मूले तस्य ह्यनुत्पन्ने पूर्वण विषयो हतः ॥ इति । नन्वयं पक्षाभासो न हेत्वाभासः। पक्षस्यैव दुष्टत्वादिति चेन्न । आश्रयस्य दौथ्येनाथितस्यापि दुष्टत्वमम्भवात् । अन्यथा यस्य कस्यापि हेतोः स्वरूपासियभावे मति हेत्वाभासत्वं क्वापि न स्यात् । ततो दुष्टपक्षवर्तिष्णुतयायं हेतुर्हेत्वाभास एवेति ॥ ८५॥
हितीयं भेदमाह !
अनुमानविरुद्धो यथा परमाणवोऽनित्या मूर्त्तवादिति ॥ अवच्छिन्त्रपरिमाणयोगित्वं मूतत्वं तद्यद्यपि परमाणुष्वस्ति तथापि तेषां नित्यत्वसाधनानुमानेनैतदनुमानं बाध्यते मूर्त्तवेऽपि परमाणू नां नित्यत्वात्। नित्यत्वसाधक किमनुमानमिति चेत् । उच्यते । परमाणवो नित्या अकार्यत्वादाकाशवदिति । नन्वस्यानुमानस्य को विशेषो बेनेदं तहाधकमिति
चेत् ।
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१३०
न्यायतात्पर्य दीपिका ।
यस्मादणुतरो नास्ति सक्रियो नित्य एव वा । नित्यत्वे सत्यजन्यो यः परमाणुः स लक्षित इति ॥
आगमबद्दमूलत्वेन बलीयस्त्वमिति ब्रूमः | ततो बलवता दुर्बलं बाध्यते इति सार्वत्रिकन्यायादेतत्ताधकं भवति । परमाणुसत्त्वे चाणुपरिमाणतारतम्यं कचिद्विश्रान्तं परिमाणतारतम्यान्महापरिमाणतारतम्यवदिति प्रमाणम् । परमाणूनाम
कार्यत्वं चोपादानकारणाभावात् । यतः कार्यद्रव्यात्पटस्य तन्तुवदल्पपरिमाणमेवोपादानकारणं प्रसिद्धम् । न च परमाणुभ्योऽन्यदल्पपरिमाणं किञ्चिदस्तीति ॥ ८६ ॥
तृतीयं भेदमुपन्यस्यतीति ।
आगमविरुद्धो यथा ब्राह्मणेन पेयं सुरादि द्रवद्रव्यत्वात् चीरवदिति ॥
अत्र हेतुत्रैरूप्ये सत्यपि सुरादिपाननिषेधकेनागमेन बाध्यते । आगमः क इति चेत् ।
गौड़ी पैष्टौ च माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा । यथैवेका तथैवान्या न पातव्या द्विजोत्तमैः ॥
सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवसीं सुरां पिवेत् । तया स्वकाये निर्दग्धे मुच्यते किल्विषात्ततः ॥
इत्यागमादिति ब्रूमः । ब्राह्मणस्य पानार्हा सुरा पोता सती पापसाधनं न भवतीति प्रतिज्ञातात्पर्य्यार्थः । तत्र क्षीरं निदर्शनं तस्य च पावसाधनत्वाभावः श्रुतिस्मृत्यागमै कसमधिगम्यः । येन
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अनुमानपरिच्छेदः ।
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चागमेन क्षीरयानस्य पापसाधनत्वाभाव उक्तस्तेनैव सुरापानस्य पापसाधनत्वमुक्तमिति । प्रतिज्ञाया दृष्टान्तग्राहकप्रमाणेनेति विरोधः ॥ ८७ ॥ चतुर्थ भेदमाह।
प्रत्यक्षेकदेशविरुडी यथा सच तेजोऽभुष्णं रूपित्वादिति ॥ अत्र सर्वस्य तेजसोऽनुष्णवं साध्यं तच्चानुमानस्य प्रत्यक्ष पूर्वकत्वात् प्राक्प्रवृत्तप्रत्यक्षेण वगाहपत्यादावौष्णाग्राहिणा चन्द्ररत्नादावनौष्णाग्राहिणा विरुध्यते इति प्रत्यक्षेणैकदेशे विरुडो हेतुर्भवति ॥ ८८ ॥ पञ्चमं भेदमभिधत्ते।
अनुमानैकदेशविरुद्यो यथा नित्याश्रया द्रवत्वरसरूपगन्धस्पर्शा नित्या अप्रदेशवृत्तिसमानजात्यारम्भकले सति परमाणवृत्तित्वातहतैकत्ववदिति ॥
अत्र परमाणुवतिनो द्रवत्वादयः पञ्च धम्मिणः नित्या इति माध्यम् । अप्रदेशवृत्त्यादिहेतुः । परमाणुवयंकत्वसंख्यावदिति दृष्टान्तः । अत्रानित्याश्रयाश्रितानां द्रवत्वादीनामनित्यत्वमस्ति । तावच्छेदाथं पक्षे नित्याश्रया इति पदम् । तथा परमाणु वृत्तिवादित्यु के हेतौ तहत्तिना संयोगन व्यभिचारः स्यातनिहत्त्यर्थमप्रदेशत्तिपदम् । संयोगस्य प्रदेशवृत्तित्वात् । तथा च सूत्रम् । संयोगविभागशब्दात्मविशेषगुणानां प्रदेशवृत्तित्वमिति ।
ट्रवत्वादयस्तु न तथा । अप्रदेशवृत्तिपरमाणुहत्तित्वादित्युक्तेपि घग्माण गत द्वित्वादिभिरनै कान्तिकत्वं स्यात्तदपोहार्थमारम्भ
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१३२
न्यायतात्पर्य दीपिका। केति। एवं हित्वादीनामप्रदेशवृत्तिपरमाणु वृत्तित्वेऽपि सूत्रे परत्वापरत्वदित्वपृथकत्वादीनामकारणत्वमिति वचनादनारम्भकत्वात् । अनारम्भकत्वमप्यमीषां बुद्धापेक्षत्वात् । तथाप्यप्रदेशवृत्त्यारम्भकपरमाणु उत्तिकमाणातिव्याप्तिः स्यात्तावच्छित्त्यै समानजातीयेतिपदम् । कम्मणः समानजातीयानारम्भक त्वात् । एव. मध्यप्रदेशकृत्त्यादिविशेषगाजुबा प्रणुकेनातिप्रसङ्गस्तत्परिहाराय गुणत्वे सतीति पदं स्वयमभ्याम् ।
अस्मिंश्वानुमाने पार्थिवपरमाणुरूपादिष्वेव नित्यत्वमनित्यत्व साधकेन प्रत्यनुमानन विरुध्यते संहारावस्थायां चतुर्जातीयानां परमाणूनां मिथः संयोग सति पार्थिवपरमाणुरूपादयस्तैजसाणुभिः पच्यन्त इति पार्थिवाणुरूपादौनामनित्यत्वात् । प्रत्यनुमानञ्जेदम् । पार्थिवपरमाणरूपादयोऽनित्या: पार्थिवपरमाणुरूपादित्वात् । घटगतरूपादिवदिति ॥ ८८ ॥ घष्ठं भेदमाचष्टे ।
आगमैकदेशविरुद्धो यथा सर्वेषां टेवर्षीणां शरीराणि पार्थिवानि शरीरत्वादम्मदादिशरीरवदिति ॥
आगमे देवर्षीणां गरीराणि पार्थिवाम्यतैजसवायवीयतया व्यावर्ण्यन्ते। अत्र तेषां सब्वेषामपि शरीरेषु पार्थिवत्वे साध्यमाने हेतोरेकदेश आगमन विरुध्यते ॥ ८ ॥
इत्यं षटकालात्ययापदिष्टभेदानुत्ता संप्रति प्रकरणसममुदाहरति ।
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१३३ प्रकरणसमस्योदाहरणं यथाऽनित्यः शब्दः पक्षसपक्षयोरन्धतरत्वात् सपक्षवदिति ॥ *
पक्षसपक्षयोरिति पक्षः शब्दः सपक्षश्चानित्यत्वेन घटादिस्तयोरन्यतरत्वमेकतरत्वं पक्षत्वं सपक्षत्वञ्चेति यावत् । अयञ्चक एव हेतुरनित्यत्वे व नित्यः शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात् सपक्षवदिति नित्यत्वेऽपि त्रिरूपतया वर्तमानः प्रकरणसमो भवति ॥ ८१ ॥ ___ आयविरुद्याव्यभिचारी प्रकरणसमत्वेन संग्रहीतोऽस्ति तदपाक माह !
एकत्र तुल्यलक्षणविरुद्धहेतुहयोपनिपातो विरुद्धाव्यभिचारीत्येके इति ॥ ___ एके इति वयमित्यर्थः । एकत्रेति एकस्मिन्नेव धर्मिणि तुल्यलक्षणं च तहिरुडहेतुद्दयञ्च तुल्यलक्षणविरुद्धहेतुहयं तस्योपनिपात उपन्यासः । विरुवं न व्यभिचरतीति विरुद्धाव्यमिचारी। भिन्नधम्मिणोरपि हेत्वोः सत्रिपाती विरुद्धाव्यभिचारी स्यात् तन्नि. वृत्त्यर्थमेकत्रेति पदम् । तथापि नित्यः शब्दः प्रमेयखादनित्य: शब्दः कार्यत्वादनयोविरुडाव्यभिचारित्वं स्यात्तनिषेधाय तुल्यलक्षणेति पदम् । एवमप्यनित्यः शब्दस्तीवादिधर्मोपेतत्वाच्छब्दो
*
The comentator adoute the reliur of the uis B. which is
printed in the futute of 12th rage. But the reading of other niss is (Juitc tiifferent ! See an 1:'. I. 1-: !
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१३४
न्यायतात्पर्य दीपिका।
गुण: सामान्ययत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वादित्येतयोरपि तथावं स्थात् तन्नित्त्यै विरुचेति पदम् । यत्रैकस्मिन्नेव धर्मिणि
रूप्यादिना समलक्षणं मिथो विरुद्धच्च हेतु यमुपनिपतति स विरुडाव्यभिचारी नामास्य शास्त्रकारस्य मते हेत्वाभासो भवतीत्यर्थः ॥ ४२ ॥ इदमुदाहरति ।
यथा नित्यमाकाशममूर्तद्रव्यत्वादात्मपदनित्य माकाशमस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यगुणाधारत्वात् घटवदिति ॥ ____ अनोभयसिन्नप्यनुमाने व्योमैव धर्मि साध्यत्वन्तु नित्यानित्यत्वं तत्र नित्यत्वे साध्ये अमूलद्रव्यत्वादिति हेतुः। अमूर्तत्वादियुक्त बुयादिभिर्द्रव्यत्वादित्युक्ते पृथिव्यादिभिश्च व्यभिचारः स्यात्त. निवृत्त्यर्थममूर्तद्रव्यत्वादियुक्तम् । तथानित्यत्वे साध्येऽस्मदादौति हेतुः । अत्रापि योगिनायैः परमाणु भिरन्तःकरणप्रत्यक्षेण चात्मना नैकान्तिकत्वव्यदासायास्मदादिबाह्यपदे । पक्षेऽसिद्धत्वापोहाय गुणाधारतिपदम् । गुणश्वान शब्दः ।
अत्र इयोरपि हेत्वो?नि प्रयुक्तत्वेनकाधारत्वम् । रूप्येण तौल्यलक्षण्यं नित्येतरत्वसाधकत्वेन विरुद्धत्वम् । नह्यत्रोभयोरपि साधकलं वस्तुनो हात्मकत्वासम्भवात्। नापि परस्परविरोधादुभयोरप्यसाधकत्वं नित्यत्वानित्य स्वशतिरेकेण प्रकारान्तरासम्भ
* The reading adopted by the commentator here differs somewhat from the text ! See page 12. Line 4-5 },
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१३५ वात्। न चान्यतरस्य हेतोविशेषोऽवगम्यते । येने कपक्षावधारणं स्यात्ततोऽयं तुल्यलक्षणविरुइहेतुहयोपनिपातो विरुद्धाव्यभिचारी भवति। स च प्रकरण समात् पृथगेव हेतुहयात्मकत्वात् । प्रकरणसमस्य तु स्वपरयक्षसिहावेकहेवात्मकत्वादिति ॥ ८३ ॥
नन्वयम सिद्धादिवद्धत्वाभास एव किंवा हेतुरपि स्यादित्याशवयाह ।
स खलु पुरुषविशेषमपेक्षमाणो हेवाभामो भवत्यन्यतरासिद्धादिवदिति ॥
यथा परं प्रत्यसिदो हेतुः स्वप्रयोक्तारमसमर्थमपेक्ष्य तेनासाध्यमानो हेवाभासो भवति। यथा स इति विरुद्धा व्यभिचारी। पुरुषविशेषमिति। स्वप्रयोक्तारं दुर्बलमपेक्ष्य हेवाभासो भवेत्। यदा बन्यतरानुमाने धर्मिग्राहकप्रमाणबाधादिक दोषमुद्भावयेत् । तदैक कालात्ययापदिष्टादिदोषग्रस्तं स्यादन्यच्च प्रमाणम् ।।
अत्र तु व्योनो व्यायकत्वेनात्मवत्तदुत्पादक कारणाभावात् प्रामाणिक्यां नित्यत्व सिद्धी सत्यां धर्मिग्राहकप्रमाणबाधितत्वादनित्यत्वसाधकमेवानुमानं कालात्ययापदिष्टं भवतीति । विरुद्धाव्यभिचारी न सर्वथा हेत्वाभास इत्यलम् ॥ ८४ ॥
हेतुप्रसङ्गेन हेत्वाभासान् सोदाहरणानुदाहृत्य संप्रत्युदाहरणाख्यं वतीयमवयवं व्याचष्टे।
सम्यग्दृष्टान्ताभिधानमुदाहरणमिति ॥ अनोटाहरणमिति लक्ष्यं शेषन्तु लक्षणम् । उदाहियेते
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१३६
न्यायतात्पर्य दीपिका।
निर्दिश्यते साध्यसाधने अस्मिन्नित्युदाहरणं निदर्शन मिति । कि तदित्याह मम्य गित्यादि। दृष्ट्योः साध्यसाधन योरन्तोऽवसानं यस्मिन्नसौ दृष्टान्तस्तदभिधानं कथन मिति । सम्यक्पदं दृष्टान्ताभासव्युदासाथैम् । दृष्टान्तपदं यत्किञ्चिदभिधानस्योदाहरणत्वव्यवच्छेदाय ।
न चेदमुदाहरणं व्यर्थमिति बौद्धैः प्रत्यवस्थेयम् । हेतुवद स्यापि प्रतिपाद्यप्रतिपत्त्यङ्गभूतत्वात् । हेतुरेवैकस्तत्र समर्थ इति चेन्न । विप्रतिपन्न प्रति तत्प्रयोगेऽपि प्रतिपत्त्यदर्शनात् । संप्रतिपन्न प्रति तु तदभावेऽपि तदोक्षगात् । तत्राग्निरस्तीति निश्चिताप्तत्वपुरुषप्रणीतवचनादपि साध्यसिद्धी हेतोरप्यनपक्षणीयत्वप्रसङ्गात्। अथ परप्रतिपत्त्यर्थ हेतुरपेक्ष्यत एवेति चेत्तख़ुदाहरणमण्यपेक्षणीयमेव तहिना तदयोगादित्यलं प्रसङ्गेन ॥ ८५ ॥ तद्भेदमाह ।
तविविधं साधयवैधर्म्यभेदादिति ॥ समानो धर्मो यस्य स मधर्मा। विरुद्धो विसदृशो वा धर्मो यस्य स विधर्मा तयोर्भावी साधर्म्यवैधयें तयोर्भेदात्तविभेदमित्यर्थः ॥ ६ ॥ तत्राद्यमुदाहरति ।
अन्वयमुखेन दृष्टान्ताभिधानं साधोदाहरणं यथानित्यः शब्दस्तीवादिधर्मोपेतत्वात् यद्यत्तीवादिधर्मोपेतं तत्तदनित्यं दृष्टं यथा सुखादीति ॥
अन्वयमुखेनेति । साध्यसामान्येन साधनसामान्यस्य व्याप्ति
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अनुमानपरिच्छेदः।
१३७ रन्वयस्तद्वारा निदर्शनं साधोदाहरणं भवति । तौवादिधर्मोपेतत्वमिति तीव्रत्वमुच्चैस्वं आदिशब्दात्तीव्रतरत्वतीव्रतमत्वादिपरिग्रहः। तीव्रत्वादिधमरुपेतः शब्द एव तस्य भाव इत्यर्थः । यद्यत्तीवादिधर्मोपेतमित्यादि अन्वयव्याप्तिप्रदर्शनम् । - सुखादीति दृष्टान्तः । आदिगन्दाहुःखादिपरिग्रहः । तारसम्येनानुभवनात् सुखादौ तौवादिधर्मोपेतत्वमस्त्येव तस्मादनित्य त्वमस्तीति साध्यसाधनवत्त्वम् ।
ननु तोबादिधर्मोपेतत्वादित्ययं हेतुर्भागासिद्धः यतोऽन्त्यशब्द एवानुभूयते। तौवादिधर्मोपेतत्वं न शब्दजनितशब्दान्तरेष्विति चेत् । नेवम् । पूर्वशब्दानां यदि तीवादिधर्मोपेतत्वं न स्यात्तदास्येऽपि शब्दे न स्यात्यूवशब्दजनितत्वादन्त्यशब्दस्य । तथाच सति समानजातीयारम्भकत्वमपि भज्येत तस्मादस्त्येव पूर्वशब्देश्वपि तौबादिधर्मोपेतत्वम्। अवानुमानम् । विवादाध्यासिताः शब्दाः नोवादिधर्मीपेता: शदवादन्त्यशब्दवदिति ॥ ८७ ॥ वैधयॊदाहरणमाह।
व्यतिरेकमुखेन दृष्टान्ताभिधानं वैधोदाहरणं यथा यदनित्यं न भवति तत्तोबादिधर्मोपेतमपि न भवति यथाकाशमिति ॥ * व्यतिरेकमुखेनेति । साधनसामान्याभावेन साध्यसामान्या
* The Cutting "एते नोदाहरणाभासानामुदाहरणत्वमुन्नं भवति" is sdded fiere in the text ( Vide pace 12, Line 16).
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१३८
न्यायतात्पर्यदीपिका ।
भावस्य व्याप्तिर्व्यतिरेकस्तद्वारा दृष्टान्तभगनं वैधम्र्योदाहरणं
भवति । यदनित्यं न भवतीत्यादि व्यतिरेकव्याप्तिप्रकटनम् । आकाशमिति दृष्टान्तः । तत्रानित्यत्वाभावात्तीव्रादिधर्मोपेतत्व: वैधदृष्टान्तस्य च प्रमासिद्धत्वात् । यदुक्तं
स्याप्यभावः ।
बौद्ध:
ः ।
तस्मात् वैधर्म्यदृष्टान्तोनेष्टोऽवश्य मिहाश्रयः ।
तदभावेऽपि तन्नेति वचनादपि तद्वतेरिति ॥
तत्प्रत्युक्तं ज्ञेयम् । व्यतिरेकदृष्टान्तं विना यवेदं नास्ति तत्रेदमपि नास्ति इति वचनादेव साध्यव्यावृत्त्या साधनव्यावृत्तिप्रतीतेरसम्भवादित्यर्थः ॥ ८८ ॥
उदाहरणलक्षणप्रण्य नेनोदाहरणाभासाः प्रतिक्षिप्ता भवन्त्यतस्तेषां लक्षणं सोदाहरणमाह ।
*उदाहरणलक्षणरहिता उदाहरणवदाभासमाना उदाहरणा भासास्ते चानकप्रकारास्तथाचानित्यं मनो मूर्त्तत्वादित्येतस्मिन प्रयोगे सर्वेऽपि उदाहरणाभासा उच्यन्ते इति ॥
अत्रोदाहरणाभासा इति लक्ष्यम् । शेषं लक्षणम् । उदाहरण लक्षणं साध्यसाधनक्रोडीकृतत्वं तेन रहिताः । वतिनोदाहरण तौल्येनाभासमानाः स्वार्थासाधकत्वादुदाहरणाभासा भवन्ति उदाहरणाभासा इति लक्षणं कृते किमपेक्षा स्यात्तवृत्तं
The reading adopted by the commentator here differs som what from the text ( See page 13, Line 1),
*
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अनुमानपरिच्छेदः ।
तेच बहुधा
उदाहरणवदाभासमाना इति पदम् । सम्यगुदाहरणेष्वतिव्याप्तिनिवृत्त्यर्थमुदाहरणलक्षणरहिता इति पदम् । भवन्तीत्याह । अनेकप्रकारा इति । उदाहरणानां बाहुविध्यादिति शेषः । तथाचेति प्रयोगोपदर्शनार्थं प्रयोगानन्तरं निदर्शनस्य दर्शयितुमुचितत्वेन । अनित्यं मनो मूर्त्तत्वात् इत्यत्रानुमाने उदाहरणणभासोदाहरणनि कथ्यन्त इत्युक्तम् ।
ननु मनसि कथं मूर्त्तत्वमिति चेत् । अनुमानादिति ब्रूमः । मनोऽणुपरिमाणं आत्मसंयोगित्वे सति निरवयवत्वात् परमाणुवदिति ॥ ६८ ॥
उदाहरणाभासानेव दर्शयति ।
१३८
यन्मूत्तं तदनित्यं दृष्टं यथा परमाणुरिति साध्यविकल इति ॥ यन्मूर्त्तमित्याद्यन्वयव्याप्तिः । अत्र साध्यस्यानित्यत्वस्य परमाणावभावात् दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्यं मूर्त्तत्वेऽपि परमाणोर्नित्यत्वात् ॥ १०० ॥
यथा कर्मेति साधन विकल इति ॥
sa साधनस्य मूर्त्तत्वस्य कम्मण्यभावात् साधनवैकल्यम् । मूर्तभावस्तु कणोवासनारूपत्वात् ॥ १०१ ॥
यथाकाशमिद्युभयविकल इति ॥ अनित्यत्वमूर्त्तत्वयोराकाशेऽभावादुभयवैकल्यम् ॥ १०२ ॥ यथा शशविषाणमित्याश्रयहीन इति ॥
शशविषाणस्याभावादृष्टान्तस्याश्रयवैकल्यम् । अयञ्च महान् दोषो व्याप्ते निरधिकरणाया निश्चेतुमशक्यत्वात् ॥ १०३ ॥
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१४०
न्यायतात्पर्यदीपिका। घटवदित्यव्याप्ताभिधानमिति ॥ न व्याप्तेरभिधानमव्याप्ताभिधानं नाम दोषो भवति । यन्मूतं तदनित्यं दृष्टमिति व्याप्तिमविरचर्येव घटदृष्टान्तोपादानात् व्याप्तिनिश्चयार्थमेव दृष्टान्ताभ्युपगमात् ॥ १०४ ॥
यदनित्यं तन्मूतं दृष्टमिति विपरीतव्याप्ताभिधानमिति ॥ यन्मूतं तदनित्यं दृष्टमिति वाये यदन्यथाभणनं तहिपरीत. व्याप्ताभिधानं नाम दोषः ॥ १०५ ॥ किमेतो दृष्टान्तदोषावन्यथा वेत्याह ।
एतौ तु वचनदोषाविति ॥ * एतावव्याप्ताभिधानविपरीतव्याप्ताभिधानरूपी वचनदोषी वक्तदोषावित्यर्थो न वस्तुदोषी वक्तप्रमादोत्पन्नत्वात् । एतेन प्राच्याश्चवारो वस्तुदोषा इत्यावेदितम् ॥ १०६ ॥
षट् साधर्योदाहरणाभासान् व्यावण्यं वैधर्योदाहरणाभासान वमयति ।
नयन्नित्यं तन्मूर्तमपि न भवति यथा परमाणुरिति साधनाः व्यावृत्त इति ॥
साधनादव्यावृत्त: साधनाव्यावृत्तो नाम वैधम्मदृष्टान्तदोवो भवति। एवं साध्याव्यावृत्तादिपदेष्वपि विग्रहः स्वयं कार्य:
* This aphorism uloptal by the commentator is not in e Test ( Scc page 13 ).
The text readsefarz" instead of "afori" Sce p 13, L9
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१४१ यनित्यं तन्मर्त्तमपि न भवतीति व्यतिरकव्याप्तिः। परमाणु रिति दृष्टान्तः । तस्य मूर्तवान्भूतत्वसाधनादव्यावृत्तत्वम् ॥ १०७ ॥
__ यथा कर्मेति साध्याव्यावृत्त इति ॥ कम्मणोऽनित्यत्वेन साध्याव्यावृत्तत्वं जेयम् ॥ १०८ ॥
यथा घट इत्युभयाव्यावृत्त इति ॥ घटस्थानित्यत्वान्मूतत्वाञ्च साध्यसाधनहयादन्यावृत्तत्वम् ॥१०८
यथा खपुष्यमित्याश्रयहीन इति ॥ खपुष्पस्यासत्त्वादृष्टान्तस्याश्रयहीनत्वम् ॥ ११० ॥
आकाशदित्यव्याप्तात्यभिधानमिति ॥ यनित्यं तन्मूर्तमपि न भवतीति व्यतिरेकव्याप्तिमक्कत्वैवाकाशस्य दृष्टान्तीकरणाद व्याप्ताभिधानत्वम् ॥ १११ ॥
यदमूत्तं तदनित्यं न भवति यथाकाशमिति विपरीतव्याप्त भिधानमिति॥
यनित्यं तन्मर्तमेव न भवतीति वक्तव्येऽन्यथाकथमं विपरीतव्याप्ताभिधानं दोषः ॥ ११२ ॥ अनयोरपि वचनदोषत्वं न वस्तुदोषत्वमित्याह ।
एतौ वचनदोषाविति ॥ एताविति अव्याप्ताभिधानविपरीतव्याप्ताभिधानलक्षणो दृष्टान्त. दोषौ न भवत इत्यर्थः ।
* The reading adopted by the commercetator here «lifters some. what from the text ( Sve payu 13, Liuc 13 ).
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१४२
चायतात्पर्यदीपिका। ननु दृष्टान्ते वक्त कौशलमप्यपेक्ष्यत इति अन्वये व्यतिरेके चाव्याप्ताभिधानविपरीतव्याप्ताभिधाने दृष्टान्तदोषाविति चेछ । करणयाटवादीनामपि तत्रापेक्षणीयत्वेन तदभावे तेषामपि दृष्टान्तदोषापत्त्या दृष्टान्ताभासानामियत्ताभङ्गप्रसङ्गात् ततो वचनदोषावेतौ ॥ ११३ ॥ एतेषु विभागमाह।
अनाद्याः षट् साधोदाहरणाभासा इतरे षट् वैधोदाहरणाभासा इति ॥ ___ व्यक्तमेतत् ॥ ११४ ॥ केषाञ्चिन्मतेऽन्येप्युदाहरणाभासा: सन्तोत्याह। अन्ये तु सन्देहदारेणापरानष्टावुदाहरणाभासान् वर्मयन्तीति ॥
साध्यादौनां यः सन्देहोऽर्थात् दृष्टान्ते स एव हारमुपायस्ते नेत्यर्थः ॥ ११५ ॥ तानुदाहरति ।
मन्दिग्धसाध्यो यथा महाराज्यं करिष्यत्ययं सोमवंशोद्भूतत्वात् विवक्षितराजपुरुषवदिति ॥
अत्र सोमवंशस्य कस्यापि महाराज्य करणं साध्यं सोमवंशोतत्वं हेतु: दृष्टान्तः। सोमवंश एव कश्चिद्राजपुत्रस्तत्र साधनं निश्चितं परं राज्यं करिष्यति न वेति साध्यस्य सन्दिग्धत्वात् सन्दिग्धसाध्यो दृष्टान्ताभासोऽयम् ॥ ११६ ॥
सन्दिग्धसाधनोऽपि यथा नायं सर्वज्ञो रागादिमत्त्वाद्रध्यापुरुषवदिति ॥
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१४३
अत्रापि दृष्टान्तीकृते रथ्यापुरुषे येन केनाप्युपायेन निश्चिता सर्वज्ञत्वे रागादिमत्त्वं सन्दिग्धम् । नन्वसर्वज्ञत्वस्य रागादिमत्त्वेन सहा विनाभावित्वादसर्वज्ञत्वं निश्चित्यैव तन्निश्वितौ सन्दिग्धो भयोऽयं स्यान्र सन्दिग्धसाधन इति चेत् । सत्यं परमनुदरा कन्येति प्रदपि तदसर्वज्ञत्वं सन्दिग्धत्वेनाविवक्षित्वाद् रागादिमत्त्वं विवचितम् । तत्सन्दिग्धमस्तीति सन्दिग्धसाधनत्वम् ॥ ११७ ॥
सन्दिग्धो भयो यथा गमिष्यत्ययं स्वर्गं विवक्षितः पुरुषः समुपार्जितशुक्लधत्वाद्देवदत्तवदिति ॥
अत्र दृष्टान्तीकृते देवदत्ते उभयं सन्दिग्धम् । कोवेद देवदत्तः समुपार्जितशुक्लत्वो न वा स्वर्यास्यति न वेत्युभयस्य साधनस्य साध्यस्य च सन्दिग्धत्वात् ॥ ११८ ॥
सन्दिग्धाश्रयो यथा नायं सर्वज्ञोऽवयवक्तृत्वात् भविष्यद्देवदत्तपुत्रवदिति ||
अत्र दृष्टान्तोकते भविष्यति देवदत्तपुत्रे प्रमाणाभावादाश्रयस्य सन्दिग्धत्वम् ॥ ११८ ॥
एवं साधर्म्येण चतुरो दृष्टान्ताभासान् प्रकाश्य वैधर्म्येण
तानाह ।
सन्दिग्धसाध्या व्यावृत्तो यथा यो महाराज्यं न करिष्यति स सोमवंशोद्भूतोऽपि न भवति यथाऽन्यो राजपुरुष इति ॥
* The Text reads “बद्धवक्तत्वात्" instead of 'श्रवद्यवक्तृत्वात् " ( See p 14, Line 6 ).
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१४४
न्यायतात्पर्यदीपिका।
सन्दिग्धसाध्यादश्यावृत्तः सन्दिग्धसाध्याव्यात्तः । एवं पुरोऽपि विग्रहः स्वयमभ्यू ह्यः । यो महाराज्यं न करिष्यतीत्यादि व्यतिरेकव्याप्ति:। अन्यस्मिन् राजपुरुष सोमवंशादन्यत्रोत्यादिषणा. वपि राज्य करणं प्रमाणाभावात् सन्दिग्धं ततो दृष्टान्तस्य सन्दिग्धसाध्याव्यावृत्तखम् ॥ १२० ॥
सन्दिग्धसाधनाव्याहत्तो यथा यस्तु सर्वज्ञः स रागादिरहितो यथा समस्तशास्त्राभिन्न इति ॥
अत्र समस्तशास्त्राभिन्न रागादिमत्त्वं साधनं सन्दिग्धम् । कहि चित्तस्यापि रागादिमत्त्वादिति सन्दिग्धसाधनाव्यात्तत्वं दृष्टान्तस्य ॥ १२१ ॥
सन्दिग्धोभयाव्यात्तो यथा यः स्वर्ग न गमिष्यति स समुपार्जित शुक्लधर्मोऽपि न भवति यथा दुःस्थः पुरुष इति ॥ ___ अत्र दुःस्थे पुंसि स्वर्गतः समुपार्जित शुक्लधमत्वस्य च प्रमाणाभावात्र निर्णयः। कर्हिचिःस्थोऽपि स्वर्गामौ समुपार्जित शुक्लधर्मश्च स्यादिति सन्दिग्धसाध्यसाधनत्वम् ॥ १२२ ॥
सन्दिग्धाश्रयो यथा यः सर्वज्ञः सोऽवद्यवक्तापि न भवति यथा भविष्यद्देवदत्तपुत्र इति ॥
अत्र दृष्टान्तीकृतस्य देवदत्तपुत्रस्य भविष्यत्त्वादेव मन्दिग्धाश्रयत्वम् । को वेद पुत्रो वा पुत्री वा भविष्यति ॥ १२३ ॥
* The text rends “बजवक्तापि" instend of "अवधवक्तापि" ( See Page 11, Line 139.
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१४५
अनुमानपरिच्छेदः । इत्यं दृष्टान्तं साभामं स्पष्टयित्वोपनयं लक्षयति ।
दृष्टान्ते प्रसिद्धा विनाभावस्य साधनस्य दृष्टान्तीपमानेन पटे व्याप्तिख्यापकं वचनमुपनय इति । . अनोपनय इति लक्ष्यं शषं तु लक्षणं उपनीयतें प्राप्यते दृष्टान्त प्रसिद्धाविनाभावं साधनं साध्यकोटिमनेनेत्युपनयः । किं तत् व्याप्तिख्यापकं वचनमिति साध्यसाधनयोः क्रोडीकरणं व्याप्तिः । सा ख्याध्यते येन तत्तथा। क पचे प्रतिज्ञायाम् । कस्येत्याह साधनस्य हेतोः। कीदृशः प्रसिद्धेत्यादि । क दृष्टान्ते । केन दृष्टान्तीपमानेनेति । दृष्टान्तस्योपमा तथाचेति रूपं वचनं तेन ।
वचनभुपनय इत्यु तो यत्किञ्चिदचनमुपनयः स्यात्तनिवत्यै व्याप्तिख्यापकमिति पदम् । कस्येत्यपेक्षाप्रतिक्षेपार्थ साधनस्येति पदम् । साधनाभासस्यापि व्याप्तिख्यापकं वचनमुपनयः स्यात्तनिवृत्त्यर्थं दृष्टान्ते प्रसिद्धाविनाभावस्येति पदम् । यत्र क्वापि व्याप्तिख्यापकवचनस्थोपनयत्वापनुत्त्यै पक्षे इति पदम् । हेतुवचने चातिव्याप्तिव्यवच्छित्यै दृष्टान्तोपमानेनेति पदम्। उपमानेनेति विशेषणमुपलक्षणं तेन वैधयेणाप्युपनयः स्यादिति तात्पर्यम् ॥ १२४ ॥ उपनयः साधर्म्यवैधय॑भेदाद् द्विधा भवति तवाद्यं भेदं दर्शयति ।
* तथाच तीव्रादिधौंपेतः शब्द इति माधोपनय इति ।
___ * 'The reading “म विविधः साधम्मोपनयो वैधम्मो पन यति" is added in the text before the aphurism adopted by the commentator hiere, ( Scopage 14. Line 17).
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न्यायतात्पय्यदीपिका ।
तथेति शब्दो दृष्टान्तोपमानद्योतनार्थः यथा सुखादि तीव्रादिधर्मोपेतं तथा शब्दोऽपीत्यर्थः । सुखादिसधर्मगततोत्रादिधर्मोपेतत्वोपनयादयं साधयोपनय इति कथ्यते ॥ १२५ ॥ द्वितीयं भेदं दर्शयति ।
१४६
* न च तथा तीव्रादिधर्मोपेतः शब्दो न भवतीति वैधयोंपनय इति ॥
अत्रापि तथेति वैधर्म्यदृष्टान्तोपप्रदर्शनार्थः । यथाकाशं तीव्रादिधर्मोपेतं न भवति तथाकाशवन्न | न तीव्रादिधर्मोपेतः शब्दोऽपितु तौत्रादिधर्मोपेत एव । आका गवैधर्म्यव्यावृत्ततीव्रादिधर्मोपेतत्वोपनयनाद्वैधर्म्यापनयोऽयमुच्यते । यद्यपि नव्हयेन न कश्चिदर्थभेदस्तथाप्युक्तिभेदोऽस्तीति नानयोरैक्यमिति । साधनाभिधानस्य सामर्थ्यादेव पक्षधर्मत्वप्रतीतिसिद्धेर्व्यधिकरणस्य चासाधकत्वात् द्विधाप्युपनयोऽसौ व्यर्थ इति चेन्न हेत्वभिधानसामथ्र्याप्राप्तिसिद्धावनन्वितस्य च तदयोगे दृष्टान्तोऽपि न वाच्यः स्यात् । असिद्धस्यापि हेतोर्भ्रान्त्या हेतुत्वसंभवात्ततो निश्चितान्वयप्रतिपत्तिर्न स्यादिति दृष्टान्तेन सा हढ़ीक्रियते इति चेत् । अत्रापि अपक्षधर्मस्यापि हेतोर्भ्रान्त्या हेतुत्वदर्शनात्र ततः पक्षधर्मत्वसिद्धिरस्तीति दृष्टान्तस्थहेतोः पतेऽस्तित्वख्यापक उपनयोऽभ्युपेतव्यः । असिद्धस्यापि हेतोरुपनयो दृश्यते इति कथं ततः पक्षधर्मत्व सिद्धिरिति चेन्न । विनाभूतस्यापि हेतोर्हेतुत्वं दृश्यते ।
*
The word is omitted in the text. (See page 14. Line 18}
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१४७
कथं ततो नान्वयसिद्धिरित्यलं प्रतिबन्ध्या। ततो हेतोः पक्षधर्मव. निश्चित्यै उपनयोऽङ्गीकर्तव्य एवेति ॥ १२६ ॥ इत्युपनयं व्याख्याय निगमनमवगमयति ।
उपनयानन्तरं सहेतुकं प्रतिज्ञावचनं निगमनमिति ॥ अत्र निगमनमिति लक्ष्यं शेषं तु लक्षणम् । निगम्यते नियम्यते साध्यलक्षणार्थोऽननेति निगमनम्। किं तदित्याह सहेतुकं प्रतिज्ञावचनमिति हेतुसहित: पक्षनिर्देश इत्यर्थः । कदा उपनयानन्तरमिति । प्रतिज्ञावचनं निगमनमित्युक्त शब्दोऽनित्य इत्यस्थामपि प्रतिज्ञायां निगमनत्वं स्यात्तापोहाथं सहेतुकसिति । तथाप्य नित्यः शब्दः कृतकत्वादित्येतदनि निगमनं स्यात्तनिवृत्त्यै उपनयानन्तरमिति । उपनय मुक्त्वा हेतुयुक्तं पुनः प्रतिज्ञावचनं यनिर्दिश्यते तनिगमनमित्यर्थः ॥ १२७ ॥ उदाहरति ।
* तम्मादनित्यएवेति ॥ तस्मादिति तीव्रादिधर्मोपेतत्वात् । शब्दोऽनित्यएव भवतीति निगमनम् ॥ १२८ ॥
ननु स्वार्थानुमानं यथा लिङ्गसामादुट्टीकते तथा परार्थानमानमपि । इयांस्तु विशेष: स्वप्रतीतो स्वयमिदमनुसन्धीयते । पर
* The reading “तदपि विविधं साधर्मवैधभवनेदात्" is ackied in tire text before the uphorism adoptel here, and the realing H T farhat" is added after the aphorism (See paye 15. Line 23).
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१४८
न्यायतात्पर्यदीपिका।
प्रतीतौ तहाक्येनोच्यते। परं प्रत्यपि वाचकत्वं लिङ्गस्यैव । वाक्यन्तु तटुपक्षेपमात्रे चरितार्धम् । लिङ्गं तच्च हेत्वादिभिरेवावयवैरन्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रत्यपादि। तावतैव साध्यसिद्धेयर्थं निगमनस्येति पराभिप्रायं मनमिकल्य तदपोहायाह । ___ न चेदमनर्थकं साध्यविरुद्धाभावप्रतिपादकप्रमाणसूचकवादस्यति ।
इदं निगमनं व्यर्थं न भवति । किन्तु सार्थकम् । अत्र हेतुः साध्येत्यादि। साध्यमनित्यत्वादि तस्य विरुद्धं नित्यत्वादि तन्नास्तित्ववाचकप्रमाणपिशुनत्वात् । अस्येति निगमस्य । कोऽभिप्रायः । यद्यपि वाक्यं लिङ्गसामर्थ्य भेव बोधयति न साध्यम् । तथापि लिङ्गस्य सामर्थ्य न बहिर्व्याप्तिपक्षधर्मतामात्रम् । तस्मिन् सत्यपि प्रकरणसमकालात्ययापदिष्टयोरसाधक ल्वात्। किन्लसप्रतिपक्षत्वमबाधितविषयलमपि तत्सामर्थ्यम् । तच्चोभयं यावप्रमाणे न न प्रतिपाद्यते तावत्प्रतिपक्ष समावशङ्काया अनिवृत्तेः साधने धर्मिणि संहृतेऽपि साध्यसिद्धरयोग इति साध्यविरुद्धाभावप्रतिपादकप्रमाणसूचनायें निगम नमेष्टव्यम्। अनेन हि विपरीतप्रमाणाभावसाधकं प्रमाणमुपदश्यं प्रकरगासमत्वाद्यभावे निर्माते साधनं विदितसामर्थ माध्यं साधयतीति निगम सार्थकमिति। ततो या नुनामपि सामर्थ्य मालभ्यते इति तत् व्यर्थमुच्येत। तदा दृष्टान्नादिकमपि व्यर्थं वाच्यं स्यात्प्रतिज्ञानन्तरं हेलभिधानादेव धीमतां स्वयमेवान्वयव्य तिरेकस्मारगेन साध्यावममादिति ॥ १२६ ॥
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अनुमानपरिच्छेदः ।
ननु किमर्थं विपक्षे बाधकप्रमाणान्वेषणमित्याह ।
न च तदन्तरेण साध्यावधारणमुपपद्यत इति ॥ तदन्तरेणेति । साध्यविरुद्धाभावप्रतिपादक प्रमाणमन्तरेण । साध्यस्यावधारणं निर्णयो न घटामटाट्यते प्रतिपक्षस्थापक प्रमाणशङ्काया अनिवर्त्तनात् । न च निगमनादन्यत्किञ्चिद्दाधकम् । तस्यैव प्रतिपतीत्यापक प्रमाणाभावावेदकत्वादिति प्रागप्युक्तत्वात् ॥ १३० ॥
अत्रार्थे सूत्रसम्मतिं दर्शयति ।
१४६
तथाचोक्तं विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय
इति ॥
विमृश्येति अनित्यः शब्दो नित्यो वेति संदि । अर्थस्य साध्यस्यानित्य एवायं कृतकत्वादित्यवधारणं निर्भयः क्रियत इत्यन्वयः काभ्यामित्याह । पक्षप्रतिपक्षाभ्यामिति । अत्र पक्षप्रतिपक्षशब्देनोपचारात्पचविषयं साधनं प्रतिपक्षविषयं साधनदूषणमुच्यतेऽन्यथा निर्णयायोगात् । कोऽर्थः । निगमनेन प्रतिपक्षसाधनं प्रतिक्षिप्य साध्यनिर्णयः कर्त्तव्य इति ॥ १३१ ॥
किश्च यो निगमनं साधनाङ्गमित्यनभ्युपगम्य बाधकं प्रमाणमभ्युपगच्छति । स निग्टहीतः स्यादित्यावेदयितुमाह ।
निगमनाभिधानमसाधनाङ्गमभ्युपगम्य बाधकं प्रमाणमभ्युप
गच्छतो निग्रहस्थानं प्रसज्येतेति ॥
बौद्धो हि निगमनं साधनाङ्गं न भवतीति प्रतिशृणेति । स यदा सर्वे क्षणिक सत्त्वादित्यादावनुमानेऽर्थक्रियाकारित्वमेक
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
सत्त्वं तच्चाक्षणिकेषु क्रमाक्रमाभ्यामनुपपद्यमानं स्वव्याप्यामर्थक्रियामादाय निवर्तते ततो क्षणिक खरविषाणप्रायं स्यादिति विपक्षे बाधकमुपन्यस्यति । तदा प्रतिज्ञासंन्यासनाम्ना निग्रहस्थानेन निगृहीतो भवति। निगमनं नाभ्युपगच्छामोति प्रतिज्ञाया विपक्षे बाधकप्रमाणाभ्युपगत्या सव्यासात् ॥१३२॥ नन्वन्यत्त्यजतोऽन्यहहतश्च कथं निग्रहीति: स्थादित्याह ।
निगमनार्थ वादाधकस्येति ॥ बाधकस्य विपक्षक्षेपकप्रमाणस्य निगमनप्रयोजनत्वात् । निगमनार्थमेव बाधकमुपन्यस्यत इत्यर्थः ॥ १३३ ॥ __ननु निगमनाभिधानेऽपि कदाचित्यरस्य विप्रतिपत्तिन व्यपैति ततो विपक्षे बाधकमेवोपन्य स्यते किमनेनान्तर्गडुनेत्याह ।
निगमनार्थ विप्रतिपत्तौ हि बाधक प्रमाणोपन्यासो युक्ती हत्वयविप्रतिपत्तौ तत्साधकप्रमाणोपन्यासवदितीति ।
ननु बाधकं त्वया कदोपन्यस्यते किं प्रारीव उत निगमनार्थविप्रतिपत्तौ। यदि प्रागैव तदा व्यर्थम् । अथ निगमनाविप्रतिपत्तौ तदा भिगमनमेवोपन्यास्यं तस्य तडूपत्वात्। इदमुक्तं स्यात्यरार्थानुमानं न मंप्रतिपन्न प्रति वैयात् । विप्रतिपन्न प्रति तु यावता हेतोः साधकत्वं वस्तु व्रत्त्योपपद्यते तावानर्थो वचनैन"" प्रतिपादनीयो न प्रतिपत्त विशेषानुरोधेन तितव्यं प्रतिपत्तुणां विचित्रशक्तिकत्वात् तच्चित्तवृत्तेर्दुरन्वयवाच्च। तदुक्तम् ।
वस्तु प्रत्यभिधातव्य: सिद्धान्तो न नरान् प्रति । को हि विप्रतिपनार्थस्सङ्घ डोरनुधावतीति ॥
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· अनुमानपरिच्छेदः ।
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तत आकाक्षायां वाक्यं प्रयोकव्यम् । तथा हि शब्दः कि नित्यः किं वाऽनित्य इत्याकाङ्क्षायां शब्दोऽनित्य इति प्रतिज्ञावचनेनानिश्चितानित्यमानविशिष्टः शब्दः कथ्यते । कस्मादित्याकाबायां तोबादिधर्मोपेतत्वादित्यनेन साधनधर्ममात्रमुच्यते । यदि तीव्रादिधर्मोपेतः शब्दस्तत: किमित्याकाङ्कायां यदिह तोवादिधर्मोपेतं तदनित्यं दृष्टं यथा सुखादीत्यनेन साध्य. सामान्येन साधनसामान्य स्यान्वयमात्रमुच्यते । नित्यं न तीव्रादिधर्मोपेतं यथा व्योमेत्यनेन साध्याभावे साधनाभावो दश्यते । तथाच शब्दो न च तथेत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां दृष्ट सामर्थ्यस्य साधनस्थोपन योऽभिधीयते। ततो यथा यत्कृतकं तदनुष्णं दृष्टं यथा घट इति बहिर्व्याप्तिसम्भवेऽपि कृतकस्तेजोऽवयव्यनुषणो न भवति प्रत्यक्षविरोधात्। तथा यत्तीवादिधर्मोपितं तदनित्यमिति बहिर्याप्ती सत्यामपि तीव्रादिधर्मोपेतोऽपि शब्दोऽनित्यो न भविष्यतीति विपक्षशङ्कायां तस्मादनित्य एव शब्दो भवतीति निगमनेनार्थपरिसमाप्तिः क्रियते । अत्र दृष्टान्तः हेत्वर्थेत्यादि । यथानित्यः शब्दः कृतकत्वादित्यस्य हेतोर्मीमांसकं प्रति विप्रतिपत्तौ सत्यां शब्दः कतकस्तीवादिधर्मोपेतत्वात् सुखादिवदिति तत्साधकप्रमाणोपन्यासो भवति । तथा निगमनार्थविप्रतिपत्तौ बाधकप्रमाणोपन्यासोऽपि स्यात् । ततो बाधक प्रमाणस्य निगमनार्थत्वान्निगमनमेवेष्टव्यं किं तावता क्लेशेनेत्य लम् ॥१३४ ॥
अथ पञ्चावयवनयोगस्य परमन्यायत्वं प्रकाशयन् कथालक्षणं प्रस्तौति ।
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१५२
न्यायतात्पर्यदीपिका।
सोयं परमो न्यायो विप्रतिपनपुरुषप्रतिपादकत्वात् कथाप्रवृत्तिहेतुत्वाञ्चेति ॥ ___ स इति पूर्व व्याचिख्यासितोऽयमितीदानी परिसमाप्तः । पञ्चावयवरूपो न्यायः । परम इति पक्षः कस्मादित्याह । विप्रतिपन्नेत्यादि । विरुद्धज्ञानो विप्रतिपन्नः ।। ___ अत्र विप्रतिपन्नेति च पदमुपलक्षणम् । तेन सन्दिग्धाव्युत्पन्नादयोऽप्युपलक्ष्यास्तेषामपि प्रतिपाद्यमानत्वात् । अन्योऽपि राज्ञो न्यायः । कलहायमानजनप्रतिबोधकत्वेन परमो भवत्येव । तथा कथेत्यादि द्वितीयो हेतुः । कथा तु वक्ष्यमाणलक्षणा । एतेन कथा पञ्चावयवप्रयोगपूर्व कर्तव्येत्यावदितम् ॥ १३५ ॥ अथ कयां लक्षयति ।
वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः कथेति ॥ अत्र कथेति लक्ष्यं शेषं तु लक्षणम् । कथ्यते स्वाभिमतार्थोऽनयेति कथा। पक्षेत्यादि पनोऽनित्यत्वादिस्त प्रतिपक्षो नित्यवादिस्तयोः परिग्रहः स्वीकार इति । कयोरित्याह वादीत्यादि । साधनदूषणवादिनोः परिग्रहो वाद इत्युक्ते यः कश्चिद्दादः कथा स्यात्तनिवृत्त्यै पक्ष प्रतिपक्षेति पदम् । तथापि साधनदूषणरहितं पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहमात्रं कथा स्यात्तदपोहा) वादिप्रतिवादिनोरिति पदम् । वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षकक्षीकारेण वचनोपन्यास: कथेत्यर्थः ॥ १३६ ॥ तद्भेदमभिधत्ते।
सा दिविधा वीतरागकथा विजिगीषुकथा चेति ॥
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१५३
अनुमानपरिच्छेदः । स्वयमुपनतेष्वपि विषयेषु वशित्वाद्य: परामुखः स वीतरागस्तस्य कथा एका सा विजेतुमिच्छु विजिगीषुस्तस्य कथा द्वितीया च ॥ १३०॥
तैवाद्याया लक्षणमाह ।
यत्र वीतरागो वीतरागणैव सह तत्त्वनिर्णयार्थ साधनोपालम्भौ करोति सा वीतरागकथा वादसंज्ञयवोच्यत इति ॥
वीतराग: पूर्वोक्ता स्वरूपो वीतरागण व सह यत्र साधनोपालम्भी करोति सा वीतरागकथा भवतीति संटङ्गः । साधनोपालम्भाविति साधनं स्वपक्षे उपालम्भश्च परपक्षेऽनुमानदूषणम् । तत्त्वेत्यादि । यस्य वस्तुनो यः स्वरूपं तत्तस्य तत्त्वमुच्यते । यत्न करोति मा वीतरागकथेत्युक्त किं करोतीति कम्मापेक्षा स्यात्तद पनोदाय साधनोपालम्भाविति पदे। कः करोतीति करीपेक्षा. प्रतिक्षेपाय वीतराग इति पदम् । विजिगीषुकथायामपि वौतरागः परानुग्रहार्थं ज्ञानाङ्गरसंरक्षणार्थञ्च विजिगीषुणा सह वादे प्रवर्त्तते तत्रातिव्याप्तिनिवृत्त्यर्थं वीतरागेणेति पदम् । एवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदार्थः । किमर्थं करोतीत्यपक्षाव्यावृत्त्यै तत्त्वनिस यार्थमिति पदम् । कोऽर्थः । यत्र वीतरागस्तत्त्वनिर्मिनीषया वीतरागणे व सह न तु विजिगीषुणा स्वपक्षप्रतिपक्षी अनुमानदूषण उपन्यस्यति सा वीतरागकथा भवति । सा च वादसंज्ञयैवोच्यते । न पुनर्वीतरागकथातो वादः पृथक् पदार्थः । किन्तु वीतरागकथैव वाद इति ॥ १३८ ॥
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न्यायतात्पर्य दीपिका।
वीतरागकथा वादसंजयवोच्यत इत्यत्र मूत्रकारसम्पति दर्शयति ।
तथाचोक्तम्। प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रही वाद इति ॥
प्रमाणतत्यादिविशेषणविशिष्टः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादी भवतीत्यन्वयः । प्रमाणत्यादि। प्रमाणं प्रत्यक्षादि । प्रमाणानुग्राहकः स्वपक्षेऽनुकूल: परपक्षे प्रतिकूलो युक्तिविशेषस्तकः । साध्यतेऽनेन पक्ष इति माधनमनुमानम् । उपलभ्यते दृश्यते प्रतिपक्षोऽनेनेत्युपालम्भो दूषणम् । प्रमाणैस्तर्केगा च गोचरीकतसामर्थ्यो साधनोपालम्भौ यत्र स तथा। सिद्धान्ताविरुद्ध इति । प्रमाणतोऽभ्युपगम्यमानः सामान्य विशेषयानर्थः सिद्धान्तः । तन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थिति: सिद्धान्त इति सूत्रकारवचनात् । तन्त्र शास्त्रमधिकरणं येषामर्थानां ते तत्राधिकरणास्तेषामभ्युपगमसंस्थितिरिस्थम्भावनियम: सिद्धान्त इत्यर्थः ।
स चतुविधः मर्वत पतित त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थित्यर्थान्तरभावात् । तत्र सर्वत त्राविरुई स्वतन्त्रेऽधिकृतोऽर्थः सर्वतन्त्रमिद्धान्त: सर्वेषां संप्रतिपत्तिविषयो यथा प्रमाणानि प्रमेयमाधनानि घ्राणादीन्द्रियाणि गन्धादयस्तदर्था इत्यादि। समानतन्त्र प्रसिद्धः परतन्तासिद्धः । प्रतित चसिद्धान्तो यथा भौतिकानीन्द्रियाणि योगानां अभौतिकानि सांख्यानाम् । यत्सिद्धावन्यप्रकरणमिद्धिः सोऽधिकरणसिद्धान्तः । हेतोयस्य सिद्धावन्यस्य प्रतिक्रियमाण स्य प्रतिज्ञार्थस्य सिद्धिः सोऽधिकरण सिद्धान्तः । यथा कार्यत्वादेः क्षित्यादौ वुद्धि
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१५५
मत्कारणसामान्य मिद्धावन्यस्य तत्करणसमर्थस्य नित्य ज्ञानेच्छाप्नयत्नाधारस्य तत्कारणस्य सिद्धिरिति । अपरीक्षिताभ्युपगमात्तविशेषपरो. क्षणमभ्युपगमसिद्धान्तः । यत्किञ्चिदस्तु अपरीक्षितमभ्युपगम्य विशेषः परीक्ष्यते मोऽभ्युपगमसिद्धान्तो यथास्तु ट्रय शब्दः स तु किं नित्यो नित्यो वेति शब्दस्य द्रव्यत्वमनिष्टमभ्युपगम्य नित्यानित्यत्व विशेषः परीक्ष्यते । एवं चतुर्विधमिद्धान्तमध्ये स्वीकृत सिद्धान्तेनाविरुद्धो दुष्ट इति पञ्चावयवीपपन्न इति । पचावयवाः प्रतिज्ञादयः ।
कश्चित्तु पञ्चावयवैति पदं स्वपक्षमाधनं १ प्रतिपक्षसाधन दूषणम् २ माधनसमर्थनं ३ दूषणाममर्थनं ४ अतिद्रुतोच्चारणाप्रसिद्ध प्रयोगादिशब्ददोषवर्जन मित्यतैः पञ्चावयवरुपपत्र इति व्याख्याति । परिग्रहो वाद इत्यु ते यः कश्चित्परिग्रही वादः स्यात् तहमहत्यधं पक्ष प्रतिपक्षेति पदम् । बौद्धाद्यभिप्रेहिवाद्यवयव वादेऽतित्र्याप्तिव्यपोहाथ पञ्चावयवोपपन्न इति पदम् । विनायवयव. वादस्य परप्रतिपत्तेर तङ्गत्वात् । अपमिदान्तध्वस्ते वादेऽतिप्रसत्यपनोदाय सिद्धान्ताविरुडेति पदम् । अनेन कारणेन चारगृहयालु - नाघि सिद्धान्तानुरोवेन्द्र वादः कत्तयो न स्वाच्छन्देनेति शिक्षित भवति। जल्पवितण्डयोरतिव्याप्तिनिषेधार्थ प्रमाणतर्कमाधनोपालम्भ इति पदम् । तत्र हि यथाकथञ्चित्परपराजिगीषया कलादीनामप्यनुज्ञातत्वात् । न च छलादीनां प्रमादन तर्केण वा निर्णीतसामर्थ्य साधनोपालमत्वं परवान्त्यापादनमात्रफलत्वात्तेषाम् ।
अत्रायमभिटायः । वतधर्मावेकाधिकरणौ विरुदावेककालाव नवमितो पन्न प्रतिपनों वस्तुधौं वस्तु नो विशे पौ। यथा
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
स्त्यात्मा नास्त्यात्मेति वा। अधिकरणमाश्रय एकमधिकरणं ययोस्तौ। विचारं प्रयोजयतो न नानाधिकरणौ विरुद्धावपि यथानित्य आत्मा अनित्या बुद्धिरिति । अविरुद्धावपि विचारं न प्रयोजयतो यथा क्रियावद्रव्यं गुणवञ्चेति । भिन्नकालावपि न विचाराही इयोः प्रमाणोपपत्तेः यथा क्रियावद्रव्यं नि:क्रियञ्च । कालभेदेन तथावसितो विचारं न प्रयोजयतो निर्मयोत्तरकाल विवादाभावात् । तावेवंविधविशेषणी धर्मों पक्षप्रतिपक्षी तयोः परिग्रह इत्यम्भावनियम एवंधर्मायं धर्मी नैवंधर्मति च रूपी वादो भवति । तथा प्रमाणशब्देन प्रमाणमूला: प्रतिज्ञाद्यवयवा व्यपदिश्यन्ते। ततो वादे प्रमाणबुद्धिपरिग्रहीतावेव साधनोपालम्भी प्रयोत यौ। तर्कशब्देन च भूतपूर्वगतिज्ञानेन वीतरागकथावज्ञापनादुद्भावननियमो लभ्यते । तेन वादे प्रमाणबुद्धा परेण प्रयुक्तानि च्छलजातिनिग्रहस्थानानि न निग्रहबुद्दयोद्भाव्यन्ते किन्तु निवारणबुद्दया। तत्त्वज्ञानायावयोः प्रवृत्तिनै च साधना. भासो दूषणाभासो वा तत्त्वज्ञाननिमित्तमतो न तत्प्रयोगो युक्तः उपालम्भश्रवणात् । समस्त निग्रहस्थानानुषङ्ग इति चेन्न । उत्तरयोः पदयोर्नियमार्थत्वात् । तथाहि सिद्धान्ताविरुद्ध इत्यनेनापसिद्धान्तः पञ्चावयवोपपन्न इत्यनेन च पञ्चग्रहणात् न्यूनाधिके अवयवग्रहणानेवाभास पञ्चकञ्चल्यष्टावेव निग्रहस्थानानि वादे नियम्यन्ते। कस्मादिति चेत् । गुर्वादिना सह वादोपदेशत्वात् । यतस्तत्त्व बुभुत्सुरेव गुर्वादिना सह सन्देहविच्छेदानातार्थावबोधा. ध्यवमिताभ्यनुज्ञा आकाजन् वादं करोति । ततोऽसी यावता
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अनुमानपरिच्छेदः ।
साधनेन तत्त्वं प्रतिपद्यते तावद्दतव्यम् । नाधिकमप्रतिद्वन्द्वि
त्वात् ॥ १३८ ॥
स वादः कश्चिदप्रतिपक्षोऽपि भवतीत्यत्रापि सूत्रक्वसम्मति दर्शयति ।
तं प्रतिपक्ष होनमपि वा कुय्यात् प्रयोजनार्थित्वेनेति ॥ अत्र प्रतिपक्षशब्देन प्रतिपक्षविषयं साधनमुच्यते उपचारात् । तेन रहितमपि तमिति वादं विदध्यात्। अभ्यर्थात्तेन सहित -
मपि वा । केनेत्याह । प्रयोजनेत्यादि तत्त्वबुभुत्सापरतये
त्यर्थः
१४० ॥
अस्यैव सूत्रस्य तात्पर्थमाह ।
यथा शिष्यो गुरुणा सह प्रश्नद्वारेणैवेत्यर्थः इति
अत्र वादं विधत्ते न तु प्रतिपक्षसाधनमभिधत्त इति वाक्य
शेषः ॥ १४१ ॥
अथ विजिगीषुकथां लचयति ।
१५७
"
यत्र तु विजिगीषुः विजिगीषुणा सह लाभपूजाख्यातिकामो जयपराजयार्थं प्रवर्त्तते सा विजिगीषुकथा । वीतरागो वा परानुग्रहार्थं ज्ञानाङ्करसंरक्षणार्थञ्च प्रवर्त्तत । सा चतुरङ्गा वादिप्रतिवादि- सभापति- प्राश्निकाङ्गा । विजिगीषुकथा जल्पवितण्डासंनोक्तेति ॥
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यत्र विजिगीषुर्वीतरागो वा विजिगीषुणा सह जयपराजयाद्यर्थं प्रवर्त्तते सा पुरुषशक्तिपरीक्षणफला विजिगीषुकथा भवतीति संटङ्गः । लाभेत्यादि । लाभ द्रव्यादिप्राप्तिः । पूजा
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१५८
न्यायतात्पर्यदीपिका।
लोकेष्वादरः । ख्यातिः कौतिः । ताः कामयते वाञ्छति यः स तथोक्तः । जयेत्यादिस्तस्य जयः परस्य पराजयश्च । परानुग्रहार्थमिति परस्य शियादेः तत्त्वज्ञान प्रति निश्चयोत्पादनहारेणानुग्रहः प्रसादः। यहा परस्य बौहादेरज्ञानान्धतमसमलीमस. लोचना अमी नरकान्धकुहरे मा पतन्निति कृपया तत्त्वप्रकाशाद्योऽनुग्रहस्तदथं वा । ज्ञानाझरेत्यादि ज्ञानाङ्गरः स्वात्मस्थ: शिष्यादिस्थो वा तस्य बौद्धादिमृगेभ्यो रक्षणार्थं वा ।
वादिप्रतिवादीत्यादि। प्रारम्भको वादी। प्रत्यारम्भकः प्रतिवादी। क्षमामाध्यस्थ्यैश्वर्यबाहुश्रुत्यादिगुणग्रामाभिराम: सभापतिः । प्राशिकाः पुनः
स्वसमयपरसमयज्ञाः कुलजाः यक्षहयेमिता: क्षमिणः । वादपथेवभियुक्तास्तुलासमाः प्राश्निका: प्रोक्ताः ॥ इति लक्षणलक्षिताः। ते अझं शरीरं यस्याः सा तथोक्ता । अल्पेत्यादि सा च जल्पमंज्ञा वितण्डासंज्ञा च प्रोक्ता प्राच्यप्रामागिकैरिति शेषः । अत्र विजिगोधुकथालक्षणे विजिगीषुपदइयेन वादलक्षणोक्त वीतरागपदद्दयव्यवच्छेदः । लाभेत्यादि जयेत्यादि वाक्यद्दयेन च विजिगीषोः प्रयोजनकथनम् । परानुग्रहपदेन ज्ञानारीत्यादिपदेन च वीतरागविजिगीष्वोः फलकथनम् । चतुरङ्गेत्यादिपदेन त्राङ्गत्वादिव्यवच्छेदः । तेन चतुरङ्गैव विजिगीषुकथा कर्तव्येत्यावदितमन्यथा जयपराजयव्यवस्थादौथ्यात् जल्प इति वितण्डेति वक्ष्यमाणस्वरूप विजिगीषुकथाया एव विशेषसंज्ञायम् ॥ १४२ ॥
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अनुमानपरिच्छंदः ।
१५८
अत्रापि सूत्रसंवादं दर्शयति ।
तथा चाह तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थं जल्पवितण्डे बौज प्ररोहसंरक्षणार्थ कण्ट कशाखावरणवदितीति ॥
तथा चाहेत्यत्र सूत्रकार इति शेषः । तत्त्वेत्यादि । तत्त्वानि प्रमाणादीनि तेषामध्यवसायो निश्चयः तस्य तत्त्वविप्लावकबौडादिभ्यो रक्षणाय जल्पवितण्डे प्रयोक्तव्ये। कोऽर्थः । तत्त्वमुपपोलयमानं बौद्धादिवादिदुर्दुरुढं जल्पवितण्डाभ्यां खण्डयित्वा तत्रातव्यमिति । अत्र दृष्टान्तः । यथा बोजाङ्गुरः कण्टकितशाखाहतिकरणात् त्रायते तथेति ॥ १४३ ॥
प्राविजिगीषुकथा जल्पवितण्डासंजोता तत्र जल्पलक्षणं लक्ष्यति।
यथोक्तलक्षणोपपत्रच्छलजातिनि ग्रहस्थानमाधनोपालम्भो जल्प इति ॥
यथोक त्यादिविशेषणविशिष्टो जल्पो भवतीत्यन्वयः । यथोतोत्यादि। यथोतं यल्लक्षणं प्रमाणतर्कमात्रमहादस्य तेनोपपत्रो यः स तथोक्तः। छलजातीत्यादि। अर्थविकल्पोपपत्त्या वचनविघातः छलम् । स्वव्याघातकरमुत्तरं जाति: । पराजयनिमित्तं निग्रहस्थानम् । छलादिभिः स्वपक्षपरपक्षयोः साधनोपालम्भौ यत्र म तथा । छलादिपदोपादानं जल्पस्य वीतरागकथात्वव्यव. च्छेदार्थम् । अयमर्थः । अत्र यथोक्तालक्षणोपपन्नग्रहणेन प्रमाण तर्कमात्रमुपलक्ष्यते। न सब्जे वादलक्षणम् । सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चा
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका ।
वयवोपपन्न्र इत्युत्तरपदद्वयस्य निग्रहस्थाननियम निबन्धनस्यात्त्राभि. संबन्धासम्भवात् जल्पे समग्रनिग्रहस्थानानां सम्भवाच्च ।
ननु कलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भ इत्ययुक्तं कलादोनामसदुत्तरत्वेन साधनदूषणानुपपत्तेः । तदयुक्तं प्रमाणे: क्रियभाणयोः साधनोपालम्भयोः छलादीनामङ्गभावो रक्षणार्थत्वान स्वतन्त्राणां साधनदूषणभावः । न हि तानि स्वयं साधनत्वेन दूषणत्वेन वा प्रयुज्यन्ते । किन्तु सम्यक् साधने प्रयुक्ते । परश्छलजात्यादिना प्रत्यवतिष्ठमानश्छलं जातिर्निग्रहस्थानं वा त्वया प्रयुक्तमित्येवं तदुद्भावनहारेण निरस्यति । निरस्ते च तस्मिन् स्वपचः परिरक्षितो भवति । परेण वा साधने प्रयुक्ते सहसा दोषमपश्यन् स्वयं जात्यादिना प्रत्यवतिष्ठते । याकुलितश्च प्रतिवाद्युत्तरमप्रतिपद्यमानो जीयते । जिते तस्मिन प्रतिपक्षा खपक्षसिद्धिरिति । तथा क्वचिद्दीतरागस्यापि प्रमाणोपपनतत्त्वत्राणाय च्छलादीन्युपयुज्यन्ते । अन्यथा स प्राञ्जलमतिart कक्लृप्तदूषणाम्बरेण तत्त्वाध्यवसायात् प्रचाल्येतेत्यलं
जात्या
प्रसङ्गेन ॥ १४४ ॥
अथ वितण्डालक्षणं ताण्डवयति ।
१६०
स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डेति ॥
स यथोक्तो जल्पः । प्रतिपक्षस्थापनाहीनतया विशेषितो वितण्डात्वं प्रतिपद्यते । प्रतिपक्षस्थापनाहीनेति पदं जल्पेऽतिव्याप्तिनिषेधार्थम् । कोऽर्थः । वैतण्डिकस्य स्वपक्ष एव साधनवादिपक्षापेक्षया प्रतिपक्षो हस्तिप्रतिहस्तिन्यायेन तस्मिन् प्रतिपत्ते
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अनुमानपरिच्छेदः ।
वितण्डिके न साधनं वक्ति नवरं परपक्षप्रतिषेधायैव प्रवर्तत इति तत्कथा वितण्डा भवति । ___कश्चित् स इत्यनेन वादं परामृति । तत: प्रतिपक्षः स्वपक्षः स्थाप्यते येन तत्प्रतिपक्षस्थापनं प्रमाणं तेन आ समन्तात् हीनो वादो बितण्डा भवतीत्येवं व्याचष्टे च ।।
ततो वितण्डायां प्रतिपक्षस्थापनाहीने ति लक्षणस्य तं प्रति. पक्षहीनमपि वा कुर्यादिति वीतरागकथालक्ष गणस्य च मिथः संवादाहीतरागकथायामपि वितण्डा प्रतिपत्तव्येति यत् केनाप्युक्त तदयुक्तम् । वीतरागकथायां वितण्डाश्रयणे तत्त्वनिर्मीत्यभावापत्तिस्तदर्थमेव तदारम्भादिति ॥ १४५ ॥ ____ अलक्षितानि छलादीनि प्रयोक्तुं भक्त वा न शक्यन्त इति प्राक् छन्नं लक्ष्यति।
वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या छन्न मिति ॥ छल्यते परोऽनेनेति छलम् । किं तदित्याह। वचनविघातः परप्रयुक्त वचःखण्डनम् । कयार्थस्य वाच्यस्य विरुद्धत्वेन विकल्पनमर्थविकल्पम्त हटनया उल्लण्ठतया । वचनव्याघातेऽतिव्याप्तिनिषेधार्थ विकल्पोपपत्त्येति पदम् । अयमर्थः । वचनविघातो न मुखपिधानेनापित्वर्थविकल्पोपपत्त्या । वक्तुरनभिप्रेतमथं तदुक्त वचस्यारोप्य छलवादी यत्त निषेधं करोति तच्छ लं भवति ॥ १४६ ॥ इत्थं मामान्यन च्छलं लक्षयित्वा तहिमजते ।
तत् त्रिविधं वाकछलं सामान्यच्छलमुपचारच्छल चेति ॥
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१६२
न्यायतात्पर्य दीपिका
I
तमामान्यलक्षणलक्षितं कुलं वाक्क्कलादिमेदेन त्रिधा भवति तत्र वानिमित्तमस्येति वाक्छलम् । एवं सामान्यच्छलादावपि विग्रहश्चिन्त्यः |
ननु यथा वाक्क्कलं वाग्निमित्तं तथेतरदपि च्छलद्दयं वाग्निमित्तमस्तीति तदपि तथैवोच्यतामिति चेत् । सत्यं परं तत्र सामान्योपचारयोः प्रधानत्वेन ताभ्यामेव व्यपदेशो न वाचा | व्यपदेशस्य प्रधान मूलत्वादिति ॥ १४७ ॥
पदम् ॥ १४८ ॥
उदाहरति ।
तत्र वाक्कलमाह ।
यथा अविशेषाभिहितायें वक्तुरभिप्रायापरिज्ञानादर्थान्तरकल्पना वाक्छलमिति ॥
अनेकार्थवाचकं पदं वाक्यं वा अविशेषस्तस्यार्थाभिधानाय प्रयोगोऽप्युपचारादविशेषः । यदा यस्य पदस्य वाक्यस्य वा एकतरार्था निर्धारणेन यत्प्रतिपादनं
सोऽविशेषस्तेनार्थेऽभिष्ठितं
सति । वक्तुरभिप्रायो विवचितः कश्विदेकोऽर्थः । तदनवबोधाद्यान्यार्थरचना सा वाकुच्छलं भवति । अर्थान्तरकल्पना वाक्च्छलमित्युक्ते परोक्तार्थपरिज्ञानादनु यार्थान्तरकल्पना सापि वाक्च्छलं स्यात्तनिवृत्त्यर्थं वक्तुरभिप्रायापरिज्ञानादिति पदम् । निर्द्धायप्रतिपादितेऽर्थेऽतिव्याप्तिनिषेधार्थं अविशेषाभिहित इतिं
* The text roads “वक्तरभिप्रायादर्थान्तर" [ see p. 10. I. 43 ].
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१६३
*नवकम्बलोऽयं माणवक इति उक्त छलवाद्याह। कुतोऽस्य नवकम्बला इति ॥ ____ अयं माणवको बटुर्नवकम्बल इति वाद्युक्ते वाक्ये नवः कम्बलोऽस्य नव कम्बला अस्येति च समासपदमर्थहयेऽप्यविशिष्टं तत्राभिनवकम्बलयोगं वक्तुरभिप्रेतं प्रमाणोपपन्नं च परिज्ञाय नवसंख्यासंबन्धमध्यारोप्य तत्प्रतिषेधेन परः प्रत्यवतिष्ठते । कुतोऽस्य नवसंख्य का: कम्बला इति । इत्थं ब्रुवारणेन चानेन वाक्छलमुद्भावितं भवति ॥ १४८ ।। परिहरति ।
तस्याप्रतिपत्तिलक्षणं निग्रहस्थानं वाच्यम् । नवः कम्बलीऽस्येति वक्तरभिप्रायापरिज्ञानादिति ॥
कुतोऽस्य नवकम्बला इति यो वाक्च्छ लमुदबीभवत्तस्य अप्रतिपत्तिरित्यज्ञानलक्षणं निग्रहस्थानं कथ्यम् । नवः कम्बल इति वक्तगशयानवबोधादिति ॥ १५० ॥ निग्रहस्थानदान हेत्वन्तरमाह ।
उत्तरापरिज्ञानाहा विप्रतिपत्तेर्वा विपरीतनानादिति । वादिप्रतिपादितस्य वाक्यस्योत्तरानवगमात् प्रागुक्तमप्रतिपत्तिलक्षणं निग्रहस्थानं वाच्यम् । यहा वाद्युक्तस्य विप्रतिपत्ते. विपरीतज्ञानानिग्रहस्थानं वाच्यम् । वाकारौ प्रागुतानिग्रहहेत.
* The woril "TT" iš vidled lefuse this in the text (Sec paye a G. I.ine 11 )
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१६४
न्यायतात्पय्यैदीपिका ।
समुच्चये । विपरीतज्ञानादिति पदं विप्रतिपत्तेरित्यस्यैव विवरण
रूपम् ॥ १५१ ॥
सामान्यच्छलमाह ।
संभवतोऽर्थस्थातिसामान्ययोगादसद्भूतार्थकल्पना सामान्य
उच्छलमिति ॥
अति व्यापकं सामान्य मतिसामान्यं तद्योगात् कचिदाक्तावर्धस्य कस्यचित् सम्भवतो व्यक्त्यन्तरेऽसंभाव्यमान निष्पत्तेर्वक्लामिहितस्य सतो यदसद्भूतार्थकल्पनया प्रत्यवस्थानं तत्सामान्यच्छलं भवति । वाक्च्छ संऽतिव्याप्तिनिषेधार्थमसद्धतेति विशे
-
षणम् ॥ १५२ ॥ एतदुदाहरति ।
अहो नु खल्वयं ब्राह्मणञ्चतुर्वेदाभिज्ञ इत्युक्त केनचित् न्यायवाद्याह । किमत्राश्रयं संभवति खलु ब्राह्मणे चतुर्वेदाभिज्ञत्वमिति । अत्र च्छलवाद्याह । न । व्रात्येनानैकान्तिकत्वादिति ॥
व्रात्येनेति । व्रात्यः संस्कारवर्जितो द्विजस्तेनानैकान्ताद्यभिचारात् । शेषोऽक्षराथैः सुगमः । भावार्थत्वेवम् । चतुर्वेदाभिज्ञत्वं प्रति ब्राह्मणत्वं न्यायवादिना साधनं विवक्षितमिति मत्वा कूल वादी अनेकान्तिकतासुद्भावयति । व्रात्ये ब्राह्मणत्वे सत्यपि चतुवेदाभिज्ञत्वाभावात् त्वदुक्तोऽयं हेतुरनेकान्तिक इति । अयमिति निर्दिष्टपत्रेऽन्यस्मिन् ब्राह्मणवृन्दे सपने व्रात्ये विपक्षे च ब्राह्मत्वहेतोर्गतत्वात् । पचचयवृत्तेरनैकान्तिकत्वाच्च । यस्मिन् कस्मिंश्रि
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अनुमानपरिच्छेदः ।
ब्राह्मणे चतुर्वेदाभिन्नत्वं भवतीत्यतिव्यापकसामान्ययोगात्संभावितं पुरोवत्तिहिजे चतुर्वेदाभिन्नत्वं ब्रात्येऽसद्भावकल्पनया व्याहतमिति सामान्यच्छलमिदम् ॥ १५३ ॥ - परिहरति ।
तस्थापि पूर्ववन्निग्रहस्थानं वाच्यम् । कस्माद्धेतुत्वस्याविवक्षितलात् । किं तर्हि ब्राह्मणत्वे मति चतुर्वेदाभिन्नत्वमाश्चर्यकारणं न भवतीत्यभिप्रेतं सुनेत्रे शालिसम्पत्तिवदितीति ॥
तस्येति सामान्यच्छलवादिनः । न केवलं वाक्च्छलवादिन इथपरयः । पूर्ववदिति । वक्त्रभिप्रायापरिज्ञानादुत्तरापरिज्ञानाहा अप्रतिपत्तिलक्षणं निग्रहस्थानं वाच्यम् । कस्मादिति शिष्यप्रश्नः । हेतुत्वस्येति । यदि ब्राह्मणत्वं चतुर्वेदाभिनत्वे हेतुलेनोपन्यस्तं भवेत्तदानकान्तिकतोद्भावयितुं न्याय्या स्थानान्यथा । तर्हि ब्राह्मणावं किं विवक्षितमित्याह। किं तौति । सम्भावनापूर्वक: प्रशंसावादोऽयमिति भावः । शालिदृष्टान्तः सुबोध एव ॥ १५४ ॥ उपचारच्छलमाह।
उपचारप्रयोग मुख्यार्थकल्पनया प्रतिषेध उपचारच्छलमिति ॥ __वाहीको गौरग्निर्माणवक इत्यादि लक्षणाप्रयोग उपचारः । तदुक्तं
मुख्यार्थबाध तद्योग रूढितोऽर्थप्रयोजनात् । अन्योऽर्यो लक्ष्यते यत् सा लक्षणारोपिता क्रियेति ॥ तत्प्रयोग मति यस्य वनेयः साक्षाहाच्यः स तस्य मुख्यो
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न्यायतात्पर्यदीपिका। यथा वृक्षशब्दस्य शाखादिमानर्थस्तत्कल्पनया तदवतारेण उपचार प्रयोगस्य यः प्रतिषेधः स उपचारच्छल भवति । अर्थ कल्पनया प्रतिषेध उपचारच्छलमित्युक्ते वाकच्छलादावतिव्याप्तिस्तत्परिहृत्त्यै मुख्येति पदम् । मुख्यार्थ कल्पना च गौणप्रयोग विना न भवतीति उपचार प्रयोग इति पदम् ॥ १५५ ॥ तन्निदर्शयति ।
*मञ्चाः क्रोशन्तीत्युक्ते छलवाद्याह पुरुषा: क्रोशन्ति न मञ्चास्तेषामचेतनत्वादिति ॥
क्षेत्रे धान्यरक्षणार्थ काष्ठघटिताश्चतुःस्तम्भरूपा मञ्चाः । कोशन्तीति शब्दायन्ते। शेषं सुगमम् ॥ १५६ ॥ छलवादिनो दूषणं वक्ति ।
पतस्यापि निग्रहस्थानं पूर्ववत् । उभयथापि लोके शास्त्रे च शब्दप्रयोगदर्शनादिति ॥
तस्योपचारच्छन्नवादिनः पूर्ववत्पराभिप्रायापरिज्ञानादुत्तरा. परिज्ञानाविपरीतज्ञानाडा विप्रतिपत्तिलक्षणं निग्रहस्थानं वाच्यं भवति। अत्र हेतुः उभयर्थत्यादि। मुख्यार्थतया खुरक कुदसानादिमति गोशब्दवत् । लक्षणया चायुधुतमिव प्रकारहयेम लोके श्रुते च शब्दे प्रवृत्तिदर्शनाल्लक्षणाप्रयोग मुख्यार्थेन निषेधों न युक्त इत्यर्थः ॥ १५७ ।।
* The word "यथा' is alled theitute this in the test (See p. 17. Ji 1() ).
t Tie roding loptul ly the crimementistar livre differs some. what from the test i ser pilge 17. luc 12 ).
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अनुमानपरिच्छेदः ।
अथ क्रमप्राप्त जातिलक्षणं प्रकटयति ।
प्रयुक्त हेतौ समीकरणाभिप्रायेण प्रसङ्गो जातिरिति ॥ वादिना हेती साधने प्रयुक्तो युक्त्या व्यवस्थापित सति समीकरणाभिप्रायेण परेण सहात्मन: साम्यापादनसंकल्पेन यः प्रसङ्गः प्रतिषेधोऽनिष्ठापादनं वा सा जातिभवति । प्रसङ्गो जातिरित्युत प्रत्यक्षाभासादावपि प्रसङ्गोऽस्ति न चासौ जातिस्ततो व्यावृत्त्यथें प्रयुक्त हेताविति पदम् । प्रत्यक्षाभासादौ न खलु हेतो प्रयुक्ते प्रसङ्गो भवति । तथाप्यसिद्धत्वादिप्रसङ्गः प्रयुक्त हेती भवतीति तत्परिहत्त्यै समीकरणाभिप्रायेणति पदम् । असिद्धत्वाद्यापादनं हि परपक्षप्रतिक्षेपाय न पुन: स्वपक्षस्य परपक्षेण सह समीकरणाय । इदं तु जातेलक्षणं प्रायिकं प्राप्ताप्राप्तपादिजातिष्वभावात् । व्यापकं लक्षणन्विदं हेतुप्रतिबिम्बनप्रायं किमपि प्रत्यवस्थानं जाति:। तथाच मूल मूत्रं साधयंवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः। वादिना हेतौ व्यवस्थापिते सति साधर्म्यण वैधम्र्येण वा यत् प्रतिकूलमवस्थानं सा जातिरित्यर्थः ॥ १५८ ॥ निग्रहस्थानं लक्षयति ।
पराजयनिमित्तं निग्रहस्थानमिति ॥ पराजयो हारिस्तस्य निमित्तं यदर्थाद्विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिर्वा तन्निग्रहस्थानं भवति। तथाच सूत्रम् । विप्रतिपत्तिरप्रति. पत्तिश्च निग्रहस्थानम् । विरुड्डा कुत्मिता वा प्रतिपत्तिविप्रतिपत्तिस्तत्त्वप्रतिपत्तेरभावोऽप्रतिपत्तिरिति । सकलनिग्रहस्थानानां सामान्य लक्षणमिदम्। निमित्तं निग्रहस्थानमित्युक्त किमपेक्षा
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१६८
न्यायतात्पर्य्यदीपिका। स्यात्तत्रिहत्त्यर्थं पराजयेति पदम् । येन परः पराजीयते तन्निग्रहस्थानमित्यर्थः ॥ १५८ ॥
अथानयोरशेषविशेषाभिधाने सामर्थाभावात् कतिपये भेदा भण्यन्त इत्याह ।
बहवश्वानयोः सूक्ष्मा भेदास्तेषां कियन्तो भेदा लक्षणोदा. हरणाभ्यां प्रदर्श्यन्त इति ॥
जातिनिग्रहस्थानयोरानन्त्यात् सर्व भेदा वक्तुं न शक्यन्ते । ततः सूत्रोक्ता एव चतुर्विंशतिजातिभेदा हाविंशतिनिग्रहस्थानभेदाथ लक्षयिष्यन्ते उदाहरिष्यन्ते च । __ तत्र जातिसूत्रमेतत् । साधर्म्य १ वैधर्यो २ कर्ष ३ अपकर्ष ४ वण्ये ५ अवर्ण्य ६ विकल्प ७ साध्य ८ प्राप्ति । अप्राप्ति १० प्रसङ्ग ११ प्रतिदृष्टान्त १२ अनुत्पत्ति १३ संशय १४ प्रकरण १५ अहेतु १६ अर्यापत्ति १७ अविशेष १८ उपपत्ति १८ उपलब्धि २० अनुपलब्धि २१ नित्य २२ अनित्य २३ कार्य-- समाः २४ ।
निग्रहस्थानसूत्रञ्चेदम् । प्रतिज्ञाहानि १ प्रतिज्ञान्तर २ प्रतिज्ञाविरोध ३ प्रतिज्ञासंन्यास ४ हेवन्तर ५ अर्थान्तर ६ निरर्थक ७ अविज्ञातार्थ ८ अपार्थक 2 अप्राप्तकाल १० न्यून ११ अधिक १२ पुनरुक्त १३ अननुभाषण १४ अज्ञान १५ अप्रतिभा १६ विक्षेप १७ मतानुज्ञा १८ पर्यनुयोज्योपेक्षण १८ निरनुयोज्यानु योग. २० अपमिद्धान्त २१ हेत्वाभासा २२ निग्रहस्थानानि ।।
तत्राननुभाषणा १ ज्ञाना २ प्रतिभा ३ विक्षेप ४ पर्यनु
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१६८
योज्यापेक्षणानि ५ अप्रतिपत्त्या संग्रहीतानि शेषाणि विप्रतिपत्त्या ॥ १६० ॥ तत्र प्राक्साधर्म्यवैधय॑समौ लक्षयति ।
* साधबवैधाभ्यामुपसंहारे मिद्धे तडम्मविपर्ययोपपत्तेः माधयंवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानं साधर्म्यवैधर्म्यसमाविति ।
साधर्मेण अन्वयेन वैधर्येण व्यतिरेकेण वा। साधनमभिधाय सिषाधयिषितपक्षोपसंहारे सिद्धे साधनवादिना लत साध्यधम्मस्थानित्यत्वादेविपर्यस्ततोपपादनार्थ साधर्म्यण वैधयेण वा यत्प्रत्यवस्थानं तो साधर्म्यवैधयंसमौ जाती भवतः ॥ १६१ ॥ एतावुदाहरति ।
यथा अनित्यः शब्दः कृतकलात् घटवदित्युक्ते जातिवाद्याह । यद्यनित्यघटसाधात् कृतकत्वादनित्यः शब्द इष्यते नित्याकाशमाधादमूर्तत्वानित्यस्तहि प्राप्नोति। यदि च नित्याकाशवैधात् कृतकत्वादनित्य इष्यते घटाद्यनित्यवैधादमूर्तत्वातहि नित्यः प्राप्नोति विशेषाभावादिति ॥
न्यायवादिनाऽनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदिति साधयेण हेतो प्रयुक्त जातिवादी माधयेणैव प्रत्यवतिष्ठते ।
ननु यथा कृतकत्वेन शब्दस्य घटस्य च साधयं तथा अमूर्तत्वेन शब्दस्याकाशस्य च साधर्म्यमस्ति ततो यदि लतकत्वात्
__ * 'The Works सिद्धे । साधर्मवैधम्माभ्यां प्रत्यवस्थानं ure omitted in the text [ Set page 1s. Line ] ].
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न्यायतात्पय्यदीपिका ।
घटवदनित्यः शब्दोऽभिलष्यते तमूर्त्तत्वादाकाशवत्रित्यः स्यात् । तथाहि शब्दो नित्योऽमूर्त्तत्खादाकाशवदिति । न चात्र विशेष: कविद्येन घटसाधर्म्यात् कृतकत्वादनित्यः शब्दो न पुनराकाशसाधर्म्यादमूर्त्तत्वानित्य इति । एष साधर्म्यसमः प्रतिषेधः । यदि च नित्येत्यादि-साधर्म्येण प्रतिषेधे कृतं वादिनाऽनित्यः शब्द: कृतकत्वात् यत् पुनर्नित्यं तदक्कतकं दृष्टं यथाकाशमिति वैधम्र्म्येण साधने प्रयुक्ते च वैधर्म्येण परः प्रत्यवतिष्ठते । यदि त्वया शब्दो नित्याकाशवैधर्म्यात् कृतकत्वादनित्योऽभिप्रेयते तर्हि घटाद्यनित्यवैधर्म्यादमूर्त्तत्वात्रित्यः स्यात् । तथाहि नित्यः शब्दोमूर्त्तत्वाद्यत् पुनरनित्यं तन्मूत्तें दृष्टं यथा घट इति । चात्रापि कश्चिद्दिशेषो येन नित्याकाशवैधर्म्यात् कृतकत्वादनित्यः शब्दो न पुनर्घटाद्यनित्य वैधर्म्यादमूर्त्तत्वान्नित्य इति । एष वैधर्म्य - समः प्रतिषेधः | कश्चित्तु साधर्म्यसमे वैधर्म्यसमे च प्रत्येकं साधवेधस्याभ्यां प्रतिषेधमिच्छति ॥ १६२ ॥
। न
अनयोरुत्तरमुत्तरङ्गयति ।
१००
अनयोरुत्तरमविनाभाविनः साधर्म्यस्य वैधर्म्यस्य च हेतुत्वाभ्युपगमादप्रसङ्गो धूमादिवदिति ॥
भी जातिवादिन्न खलु साधर्म्यमात्राद् वैधर्म्यमानादा साध्यसिद्धिर्भवति । किं त्वविनाभाविनः साधर्म्याधर्म्याच्च । अत्र यत् कृतकत्वं हेतुत्वेन विवचितं तदनित्यत्वेनाविनाभूतमेव । न हि कश्चिदर्थस्त्रिजगत्यपि सोऽस्ति यः कृतकः सन्नानित्यः । ततो यः कृतकः सोऽनित्य एव । यः पुनर्नानित्यः स कृतक एव नास्ती
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१७१
त्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां अनित्यत्वेन सहाविनाभूतस्य कृतकत्वस्य साधनत्व स्वीकारात् साधयंवैधयं कृतोऽयं प्रतिषेधो न भवति । अत्र धूमादिवदिति दृष्टान्तः। यथाग्निमत्माधर्म्यानग्निमदै धाभ्यां निशिताविनाभावस्य धूमसाधनस्थ प्रतिबंधो न भवति । तथावापोति दृष्टान्ताथैः । किं च त्वया नित्याकाशसाधर्म्यात् घटादनित्य वैधादभूतत्वात् प्राब्दस्य नित्य त्वं साध्यते । तदमूर्त्तवं नित्यत्वेन सह किं विनाभूतमविनाभूतं बा। यदि विनाभूतं तह्यतिप्रसङ्गः। काकस्य काणप्राइवलः प्रासाद इत्यादीनामपि सम्यग्हेतुत्वानुषङ्गात् । अथाविनाभूतं तदयुक्तम् । अमूर्तत्वस्य नित्यत्वेन महाविनाभावाभावात्। नह्येवमस्ति योऽमूर्तः स नित्य एव। यस्तु न नित्यः सोऽमूर्त एव न भवतीत्यन्वयव्यतिरेको बुयादावमूक्तत्वेऽपि नित्यत्वाभावा. दिति ॥ १६३ ॥ उत्कर्षादीनां षमा जातीनां एक लक्षणमाह ।
साध्यदृष्टान्तयोईविकल्याटुभयमाध्यत्वाचोत्कर्षापकर्षवणावधिकल्प साध्यसमा इति ॥
साध्यदृष्टान्ती प्रतीतो तयोः सावयवत्वादिधन्म कल्पनात् उत्कर्षापकर्षवस्व मग्र विकल्पसमा जातयो भवन्ति । तथा उभयोः साध्यदृष्टान्तयोः माध्यत्वापादनेन माध्यममा जातिभवति । प्रयमर्थः साध्यम्मिण्यमन्तमपि दृष्टान्तधर्ममारोप्योत्कर्षे गए प्रत्यवस्थानमुत्कर्षममा। दृष्टान्त धम्म विकल्पनेनैव साध्यम्मिणि सिद्धस्थापि धम्मस्थापकर्षण प्रत्यवस्थानमपकर्षसमा। वर्मयः ख्याप.
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१०२
न्याय तात्प यदीपिका।
नीयः साध्यम्भिधम्मस्त द्विपर्ययादवमर्को दृष्टान्तधर्मास्तयोवावसांप्रयोः परस्परसमीकरणे न प्रत्यवस्थानं वावर्णयसमे जाती। धर्मान्तरविकल्येन प्रत्यवस्थानं विकल्पसमा। साध्यदृष्टान्तयोः साध्यत्वापादनेन प्रत्यवस्थानं साध्यममा ॥ १६४ ॥ अथेदमेव सूत्रं विवरीतुमेकैक मूत्रलक्षणमाह ।
माध्ये दृष्टान्तादनिष्टधम्मप्रसङ्ग उत्कर्षसम इष्टधमनिवृत्तिरपकर्षसम इति ॥
साध्ये धम्मिणि अनिष्टस्य वाद्यनभिप्रेतस्य धर्मस्य दृष्टान्ताद्यत्प्रसन्ननं सोत्कर्षसमा जातिभवति। तथा दृष्टान्तात् साध्ये या इष्टस्य सिद्धस्य धम्मस्य निवृत्तिः सा अपकर्षसमा भवति ॥ १६५ ॥ एते उदाहरति ।
यदि कतकत्वाद् घटवदनित्यः शब्दः तदा घटवदेव सावयवः स्थादथ नैवमनित्योऽपि तर्हि न स्यादविशेषात् । अशावणाश्च घटो दृष्टः शब्दोऽपि श्रावणो न स्यादविशेषादिति ॥
अक्षरार्थः सुबोधः । भावार्थस्त्वयम् । घटः सावयवः शब्दस्तु निरवयवः ततो घटे यत् सावयवत्वं तच्छन्देऽनिष्टं तस्मिंश्च तत्रारोप्यमाणे उत्कर्षसमा जातिः। तथा अश्रावणात् घटात् शब्दस्य श्रावण त्वेऽपवष्यमाणे ऽपकर्षसमा जातिभवति ॥ १६६ ॥ वर्यावर्सयसमे उदाहरति ।
* The reading alopted in the commentator here «liffers somewhat from the text ( See page 18, Line 14-17 ).
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१७३
*शब्दो यदि कतकत्वानुमानेनानियो वसंगत तथा सति घटोऽपि कतकत्वानुमानेनानित्यो वसंघ इति वर्णसमा। अथानवस्थाभयात् घटो नानुमाननानित्यो वसंत ततः शब्दोऽप्यवर्मयः स्यादविशेषादिति ॥
वत इति साध्येत। अनवस्थाभयादिति दृष्टान्तीकतो घटो यदि कतकत्वादनुमानेन वर्मत तदा तत्र यो दृष्टान्तः साऽपि तथा वनाः स्यात्तवर्णने चान्यो दृष्टान्तो वर्य इत्यनवस्थादौख्यं स्यात् । शेषं स्पष्टम् ॥ १६७ ॥ विकल्पसमामुदाहरति । __ अथ विकल्पसमा । कतकत्वाविशेषऽपि यथा मूतत्वामूर्तवादिधर्मविकल्पस्तथा नित्यत्वानित्यत्वविकल्योऽपि स्यादविशेषादिति ॥ __ साध्यदृष्टान्तयोः शब्दघटयो: शतकत्वेन तौल्येऽपि यथा मूर्तत्वामूतत्वे अङ्गीकृत तथा शब्द नित्यत्वं घटेऽनित्यत्वं चाङ्गीक्रियताम् । न खलु कोऽपि विशेषोऽस्ति येनकमङ्गोक्रियतेऽपर बज्यते इति ॥ १६८ ॥ साध्यसमोदाहरणं दर्शयति ।
अथ साध्यसमा। यदि सतकत्वादुभयोरनित्यत्वं तर्हि साध्यत्वमुभयोः स्यात्। न वा कस्यचिदविशेषादिति ॥
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* The reading adopted by the commentator here differs sonicwhat from the text (See page 19, Line 1-:) ).
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१०४
न्यायतात्पर्यदीपिका।
उभयोरपि साध्यदृष्टान्तयोः शब्दघटयोः। अयमर्थः । यदि यया घटस्तथा शब्दस्तहि यथा शब्दस्तथा घटोऽस्तु शब्दशा नित्यतया साध्य इति घटोऽपि साध्य एव स्यात् । कथमन्यथा तन तुल्यता ॥ १६८ ॥ षसां जातीनामे कमेवोत्तरमाह ।
एतेषामुत्तरम् । किञ्चित्माधर्म्यादुपसंहारे सिड़े वैधादप्रतिषेध इति ॥
किञ्चित्माधर्म्याट्टमवत्त्वादिरूपात् साध्यस्य वह्निमत्त्वादेरुप. संहार उपनये दृष्टान्ते वा मिद्धे वैधान्महानसे दृष्ट स्थाल्यादि. मत्त्वलक्षणादयं प्रतिषेधो न भवति । सर्बधा साधर्म्यस्य दृष्टान्तदार्शन्तिकव्यवस्थाभञ्जकत्वात् ॥ १७० ॥ एतदेव सूत्रं स्वयं विकृणोति ।
किञ्चि माधयांडूमवत्त्वादिलक्षणासाध्यदृष्टान्तयोर्धम्म विकल्पेऽपि व्यवस्था दृष्टा तदपलाप लोकादिविरोधः । *सबानुमानानामप्रामाण्य प्रसङ्ग चेतौति ॥
साध्यदृष्टान्तयोरिति वह्निमत्त्वमहानसयोर्धम्म विकल्प पोति भासुरवतेजसत्व दाहकत्वा परिवर्तिष्णुत्व-स्थाल्यादिमत्त्व भूमिष्ठ त्वादि-तुल्यातुल्यधर्मसम्भवेऽपि व्यवस्थेति । वह्निमत्त्वस्यैव सिद्धि ईष्टा । न तु सर्वेषां दृष्टान्तधर्माणाम् । नापि दृष्टान्तमञ्बधन्मासिद्धौ प्रस्तुतस्यापि वह्निमत्त्वस्यामिहिर्लोक शास्त्रविरोधात् । एतदेवाह ।
___* 11th 'T's1. 11:rks सर्वानुमानात प्रामाण्यमसङ्गच (See page 19. Linel.14).
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१७५
अनुमानपरिच्छेदः । तदपलापेत्यादि। तदपलापे किञ्चित्माधामाध्यसिद्धिव्यवस्थायह्नवे । लोकस्यादिशब्दात् प्रमाणशास्त्रस्य च विरोध: । दोषान्तरमयाह । सर्वानुमानेत्यादि। किञ्चित्माधर्म्यात्माध्यमिवानभ्युपगुमे तन्मूलानां सर्वेषामनु मानानामप्रामाण्यमासज्येत । साध्यधम्मिणि सर्वेषां दृष्टान्तधम्माणां असम्भवात् । __ किञ्च त्वयापि जात्यस्थापनं किञ्चित्माधात् सर्वथा साधाद् वा क्रियते । यद्याद्यः पक्षस्तहिं कथमम्मत्यक्ष प्रतिक्षिपसि । अथ द्वितीयः तर्हि जातेरनुस्थानमेव कस्यचिदपि सर्वथा साधाभावात् ॥ १७१ ॥ प्राप्ताप्राप्तिसमे जाती आह ।
प्राप्य माध्यमप्राप्य वा हेतोः प्राप्ताविशिष्टत्वाद प्राप्यासाधकत्वाच्च प्राप्तयप्राप्तिसमाविति ॥
वादिना हेतौ प्रयुक्त जातिवाद्याह। अयं हेतुः प्राप्य साध्य साधयेदप्राप्य वा। यदि प्राध्य तर्हि दयोलचस्वरूपयोयंगपत्मम्भवात् कथमेकस्य साध्यतान्यस्य हेतुता विशेषाभावादिति प्राप्तिसमा जातिः। अथानाम्य हेतुः साध्यं साधयेतहि सर्व साध्यं कि नासौ साधयेदविशेषात् । नाप्राप्य प्रदीपः प्रकाश्यं प्रकाशयतीत्य प्राप्तिसमा जातिर्भवति ॥ १७२ ॥ सूत्रस्यामुमेवार्थमाह।
यद्ययं हेतुः प्राप्य साध्यं साधयेदुभयोः प्राप्स्यविशिष्टत्वादझाल्योरिव किं कस्य साधनं माध्यञ्चति । अप्राप्यसाधको नास्ति काष्ठाग्निवदिति ॥
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१७६
न्यायतात्पर्य दीपिका।
हेतुः प्राप्य माध्यं साधयत्य प्राप्य वेति पक्षद्वयम् । तत्राद्यं पक्षं व्याख्याति यद्ययं हेतुरित्यादिना । उभयोरिति साध्यसाधनयोः । प्राप्ति: संयोगरूपा तयाऽविशिष्टत्वं योरे कोभावेन तुल्यत्वं तस्मात् । अङ्गल्योरिवेति यथाङ्गल्योरकत्रमिलितयोः माध्यसाधनभावो न स्यात्तथा साध्यहेत्वोरपौत्यर्थः ।
हितीयं पक्षं व्याख्याति । अप्राप्येत्यादिना। अयं भावः । यदि प्राप्तिपक्षोऽभ्युपगम्यते तदा न साध्यसाधनभावो योरगुल्योरिवैकत्र मिलितत्वात् । अथाप्राप्तिपक्षस्तथापि न साध्य - साधनभावो वह्नयादीनां काष्ठादि प्राप्यैव दाहकत्वादिदर्शना. दिति ॥ १७३ ॥ अनयोः परिहारमाह।
घटादिनिष्यत्तिदर्शनात् पोड़ने चाभिचारादपतिषेध इति ॥
प्राक् प्राप्तिपक्षदोषं परिहरति घटादीत्यादिना। प्रासाविशेषेऽपि चक्रचीवरादयो मृत्पिण्डं प्राप्यैव घटादिकमुत्यादयन्तो दशिर नाप्राप्य । घटादौत्यत्रादिशब्दाहीपादिग्रहस्तेषामपि घटादिकं प्राप्यैव प्रकाशकत्वात् । अप्राप्तिपक्षदोषं प्रतिक्षिपति । पौड़नेत्यादि। अभिचारादिकम्माप्राप्यापि दविष्ठं दुष्टं पौड़यत् दृश्यते । ततो नायं प्रसङ्गः। अयं भावः । नायमेकान्तो यत् हेतुः प्राप्यैव साध्यमप्राप्यैव वा साधय तौति किन्तु दीपादिक किञ्चित्प्राप्य काम्मेणादिकमप्राप्य च साध्यं साधयति । ततस्त्वदुलो प्रसङ्गो न स्याताम् ॥ १७४ ॥ अस्यैवोत्तरसूत्रस्य रहस्यमाह ।
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१७७ *प्राप्तप्राप्त विशेषेऽपि प्रतिनियतार्थतत्तय एवैत साध्यसाधन त्वादयो धम्मा दृष्टास्ते निराकर्त्तमशक्या: । सर्वप्रमाणविरोधादिति
यद्यपि के चन हेतवः प्राप्य साधका: केचिदप्राप्य तथाप्यमी साध्यसाधनत्वादयो वह्निमत्त्वधूमवत्त्वादयो धर्मा: प्रतिनियतार्थवृत्तयो निश्चितस्वाश्रयव्यापारा दृष्टा यथा धूमवत्त्व सत्येव वह्निमत्त्वं कृतकत्वे सत्सवानित्यत्वं वा ते च ताक्षाः प्रतिक्षप्तुं न क्षम्यन्ते । सर्वेषां प्रत्यक्षादिप्रमाणानां विरोधात्। प्रत्यक्षादिप्रमाणेहि हेतुः कोऽपि माध्यं प्राप्य कोऽप्यप्राप्य साधको दृष्टः। ततो योकान्तोऽभ्युपगम्यते तदा प्रत्यक्षादिविरोधी भवत्येव । दृष्टापलापश्च । किं चायं प्रतिषेधो हेतुं प्राप्याप्राप्य वा प्रतिषेधयति । यदि प्राप्य तर्हि इयोरे कीभूतयोः किं कस्य प्रतिषेध्यं प्रतिषेधकञ्च स्यादविशिष्टत्वात् । अथाप्राप्य तहि अप्राप्यसाधको नास्तीति कथमयं प्रतिषेधस्तावको भवति ॥ १७५ ॥ अनुत्पत्तिसमां लक्षयति ।
प्रागुत्पत्तेः कारणाभावादनुत्पत्तिसम इति ॥ शब्दस्योत्यत्तेः प्रागनित्यत्वे कारणाभावात् तस्य चोत्पत्त्ययोगादनुत्पत्त्या प्रत्यवस्थानमनुत्पत्तिसमा जातिभवति ॥ १७६ । अस्येव सूत्रस्य सोदाहरण विवरणमाह ।
* 'The text reaks "प्राप्तसमातिविशेषेपि' (See nagc 20. Lines).
२३
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न्यायतात्पय्य दीपिका ।
* अनित्यः शब्दः कार्य्यत्वादित्युक्ते प्रागुत्पत्तेरनित्यत्वे कारणं नास्तीति नित्यः प्रसक्तस्तस्योत्पत्तिरनुपपन्नेति ॥
१७८
शब्दोऽनित्यः कार्य्यत्वादिति वादिना प्रोक्ते जातिवादी प्रत्यवतिष्ठते । शब्दो यद्यनित्यः तर्हि शब्दोत्पत्तेः प्रागनित्यत्वे किमपि कारणमस्ति नो वा । न तावदस्तीति वक्तुं शक्यमनित्यत्वं प्रत्युत्पत्तेरेव कारणत्वादुत्पत्तेः प्राक विचार्यमाणत्वात् । नास्तीति चेत्तह्यनित्यत्वे कारणस्य काय्र्यत्वरूपस्याभावात् शब्दो नित्यः प्रसजति ।
ननुत्पन्नः सन् शब्दोऽनित्यो भविष्यतीत्याह । तस्य शब्दस्योत्पत्तिरयुक्तैव नित्यत्वात् ॥ २७७ ॥ एतद्दोषपरिजिहीर्षया प्राह ।
तथाभावादुत्पन्नस्य शब्दस्य कारणोपपत्तेरप्रतिषेध इति ॥ तथाभावादनित्यभावादुत्पन्नस्य शब्दस्य कारणमनित्यत्वसाधको हेतुरथादुत्पत्तिस्तद्दटनातोऽयं प्रसङ्गो न भवति । कोऽर्थः । शब्दः समुत्पद्यमानोऽनित्यत्वेनैवोत्पद्यते । ततोऽनित्यो भवत्येव । कश्चिदिमं ग्रन्थमन्यथा योजयति । उत्पन्नस्य शब्दस्य तथाभावादुत्पत्तिसद्भावात् कारणापपत्तेरनित्यत्वसाधक हेतूपपत्तेरयं प्रतिषेधो न भवतीति ॥ १७८ ॥
I
ननु तथापि उत्पत्तेः प्राक् शब्दस्यानित्यत्वे न कश्चिदेतुरस्तौति । शब्दो नित्य एवेत्याशङ्कयाह ।
तस्येति ।
* The text reads arg: instead of agaà; and guetufa instead of “प्रसक्तस्तस्योत्पत्तिः" [ Soe page 20. Lines 8-9 ].
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१७८ अनुत्पन्नः शब्द एव नास्ति कस्य नित्यत्वादिधर्मशिन्यते इति ॥
नन्वनित्यत्वं नाम शब्दस्य धर्मः स च शब्दे सति सम्भवति । तान्यथा। शब्दश्वोत्पन्न एव भवत्यत उत्पत्तेः प्रागनुत्पन्नः शब्द एव नास्ति । नित्यत्वादिधम्मः कस्य चिन्त्यत । धर्मिणं विना धर्मास्यासम्भवात् । किञ्च । हेतूपन्यासात् प्राक् प्रसङ्गस्योत्पत्तेः कारणाभावादस्याप्यनुत्पत्तिरेव । तथाहि हेतूत्यत्तेः प्राक प्रसङ्गो नास्त्येव हेतावुत्पन्ने तु तस्योत्पत्तिरनुपपन्न वति ॥ १८ ॥ अहेतुममा जातिमाह।
काल्यासिद्धेहेंतोरहेतुसम इति ॥ हेतोः साधनस्य त्रैकाल्यै वृत्ते वय॑ति वर्तमाने छ काले सिद्धेरनुपपत्तत्वभावेन प्रत्यवस्थानमहेतुसमा जातिभवति ॥ १८० ॥ एतदेव विवृणोति ।
यदि पूर्व साधनमसति साध्ये कस्य साधनमथ पश्चादविद्यमानं कथं माधनमथ युगपत्तथापि किं कस्य साधनं साध्यं वा हयोमतुल्य कालत्वादिति ॥
मम्यक् साधने प्रयुक्त दूषगमपश्यन् जातिवाद्याह । साधनं साध्यात् पूर्व मुत पश्चादथ युगपति । यदि पूर्वमिति साध्याप्राक । अविद्यमानमिति साध्यकाले इति शेषः । योरिति यो: साध्यसाधनयोरेकीभूतयोः सतो: सह्यविन्ध्ययोरिव साध्यसाधमभावा. सम्भव इत्यर्थः ॥ १८१ ॥
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१८०
न्याय तात्पर्य्यदीपिका।
परिहरति ।
शन हेतुतः साध्यसिद्धेः प्रवृत्त्यादिविरोधः मूत्रार्थ इति ॥ साध्यस्य कायस्य हेतुत एव मिनिष्पत्तेरयं प्रतिषेधो न भवति ।
ननु यदि हेतोः साध्यसिद्धिर्न भवेत्तर्हि को दोषः स्यादित्याह प्रवृत्त्यादीति । यदि हेतुतः साध्यसि डिर्न स्वीक्रियते । तदा प्रहत्तेरादिशब्दानिवृत्तिव्यवहारादेव विरोध: स्यात् । लोको हि मृदादिहेतुत: कुटादिनिष्पत्तिं निीय तहणाय प्रवर्तते तदव्यस्माविवर्त्ततं च । ततो हेतुतः साध्यसिद्धास्वीकार प्रवृत्तिनिवृत्ती मर्वथा विरुध्येयाताम् । मूत्रार्थ इति हेतुत: साध्य. सिद्धिरिति सूत्रस्यायमर्थ इत्यर्थः ॥ १८२ ॥ इतोऽपि हेतुप्रतिषेधो न भवतीत्याह ।
प्रतिषेधानुत्पत्तिय वैकाल्यसिद्धेरिति ॥ त्रैकाल्येऽपि जातिवाद्यक्त प्रतिषेधासि हेतुप्रतिषेधस्यानुपपत्तिरेव । तथाहि।
ननु जातिवादिन् यस्त्वयायं प्रतिषेधोऽभिधीयते । स प्रति षेध्यात् पूर्व मुत पश्चादाहोखिद्युगपद्धेति । तत्र नाद्यः कल्पः । यदि पूर्वममति प्रतिषेध्ये क स्यायं प्रतिषेधः स्यामिण विना धर्मस्यानुप' पत्तेः। अथ पत्रात्तामति प्रतिषेधे कथं प्रतिषेध्यं प्रतिषेधाधि
__* The texr. ankls अस्योत्तरम। before the aphorism adopted by the commentator here. See page :(. Line 151.
+ नुत्पत्तिश्च । नुपपत्तश्च :
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अनुमानपरिच्छेदः।
१८१
ठितत्वात् प्रतिषेध्यस्थ । अथ युगपत्तथापि सव्येतरगोविषाणयोरिव किं कस्य प्रतिषेध्यं प्रतिषेधकञ्च स्यात् । एककालत्वेनाविशेषात् प्रतिषेध्यप्रतिषेधक योश्च भिन्नकालत्वात् । इति प्रतिषेधस्य त्रैकाल्यामि हेतु प्रतिषेधो न स्यादित्यर्थः ॥ १८३ ।।
ननु यद्यपि काल्यापि प्रतिषेधासिद्धिस्तथापि तव हेतुमिद्धिर्नास्तीत्याशङ्कयाह ।
स्ववचनेनैव प्रतिषेधासिद्धौ हेतुमिद्धिरिति सूत्रार्थ इति ॥ पूर्वोक्त युक्त्या त्वदुक्तवचनेनैव त्रैकाल्येऽपि प्रतिषेधानिष्पत्ती हेतुसिर्जाितव । मूत्रार्थ इति। प्रतिषेधानुपपत्तीत्यादि सूत्रस्यायमर्थ इत्यर्थः ॥ १८४ ॥ अविशेषसमां जातिमाह।
एकधर्मोपपत्तेरविशेष सर्वाविशेषप्रसङ्गात् सद्भावोपपत्तरविशेषसम इति ॥
एकस्य कार्यत्वादिलक्षणस्य धम्मस्योपयत्तेघटनातो यदि घटशब्दयोरविशेषस्तौल्यमिथते तदा सर्वभावानां सद्भावस्य सस्वधम्मस्योपपत्तेः सर्वाविशेषेण प्रत्यवस्थानमविशेषसमा जातिभवति ॥ १८५ ॥ एतदेव मूत्र विकृणोति ।
यदि घटशब्दयोरकस्य कार्यत्वस्योपपत्तेरनित्यत्वेनाविशेष इष्यते । तदा सर्वभावानां सद्भावोपपत्तेर विशेषः प्रसज्यत इति ।
प्रारीव व्याख्यातपायमेतत् ॥ १८६ ॥ एतत्यरिहरति ।
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१८२
न्यायतात्पर्य दीपिका।
*तवेदमुच्यते । सर्वथाविशेषे प्रत्यक्षविरोधः । अनित्यत्वेना. विशेष त्वनुमानविरोधः । केनचिदविशेषे प्रमयत्वादिना सिद्धसाधनमिति ॥
भो जातिवादिन् यस्त्वयास्मडेतोरविशेष: समापाद्यते स किं सर्वथा उतानित्यत्वेन आहोस्वित् केनचिद्धर्मेण । तत्राद्ये कल्ये प्रत्यक्षप्रमाणविरोधः। प्रत्यक्षेण घटपटादीनां भेदोपलम्भात् । द्वितीय कल्येऽनुमान विरोधम्तेनात्मादीनां नित्यत्वेन बुयादीनामनित्यत्वेन च साधितत्वात् । तथा ह्यान्मादिनित्यो अनादिनिधनत्वाहातिरेक घटादिवत् ।
हतीये कल्पे प्रमेयत्वादिना यद्यविशेषः ज्ञाध्यते। तहि सिकस्यैव साधनम् । प्रमेयत्वेनादिशब्दात् सत्त्वसपक्षत्वादिना च सर्वाविशेषस्यष्टत्वात् ॥ १८७ ॥ उपलब्धिसमामाह।
निर्दिष्ट कारणाभावेऽप्युपन्लम्भादुपलब्धिसम इति ॥ निर्दिष्टस्य साध्यधम्ममिडिकारणरूपस्याभावेऽपि साध्यधर्मोपलब्धपा प्रत्यवस्थानमुपलब्धिसमा जातिभवति ॥ १८८ ॥ एतदेव सूत्रं व्याचष्टे ।
पृथिव्यादिषु कार्य त्वसिद्धये निर्दिष्टस्य मावयवत्वस्याभावेऽपि बुद्धवादी कार्यत्वमुपलश्चमिति ॥
__ * ''ie 'Test needs अनुमानागमविरोधः insteariot अनुमानविरोभा ( ce sage 1. Linc 8 ).
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१८३
पृथिव्यादिकं कायं सावयवत्वात् घटवदिति वादिना प्रोक्ते । जातिवाद्याह । पृथिव्यादी कार्यत्व सिद्धार्थ हेतुतयोपन्यस्तं यत् सावयवलं तदभावेऽपि बुद्धौ प्रादिशब्दात् सुखे दुःखे च कार्यत्वं दृष्ट बुयादीनाममूर्तत्वात् कार्यत्वाच्च । ततोऽप्रयोजकोऽयं मावयवत्व हेतुः । पृथिव्यादेः कार्यत्वमिहावित्यपलब्धया प्रतिषेध उप. लश्चिममो भवति ॥ १८८ ॥ परिहरति ।
सपक्षैकदेशस्यापि धूमार्गमकत्वदर्शनादप्रतिषेध इति ॥ हेतुबिधा सर्वपक्षव्यापी सपक्षकदेशवृत्तिश्च । अत्र सपक्षकदेशे वर्तमानो हेतुः सपक्ष कदेश इत्युक्त उपचारात् । यहा मपक्षस्यको देशो यस्यासी सपक्षकदेश इति भिन्नाधिकरणो बहुव्रीहिः । तत: सपक्षकदेशव्यापकस्यापि धूमादेः माधनस्य साध्यगमक. त्वावलोकनादयं भावयवत्वहेतुप्रतिषेधो न भवति । कोऽर्थः । यथा पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमवत्त्वान्महानमवदित्यत्र धूमानुमान न खलु धूमवत्त्वं सपक्षभूतं समस्तमपि महानसस्तोममास्तिनुते कि महान मकतिपयानि तथापि वह्निमत्त्वगमकं भवत्येव । तथा भावयवत्वं कार्यत्वेन सपक्षभूत बुद्ध्यादौ च प्रवर्त्तमानमपि पृथिव्यादौ काय्यत्वसाधकं भविष्यति दोषाभावात् । किञ्च यदि सर्वसपक्षव्याप्येव हेतुर्गमकोऽभिलष्येत तदा एकदेशव्यापिनां धूमादिहेतू नामगमकत्वे सति तन्मूलवानुमानोच्छेदोऽनुषज्येत । ततो यथैकदेशव्यापिनो धूमार्गमकत्वं तथा सावयवत्वस्यापि ॥ १८ ॥
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१८४
न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
आशङ्कापुरःसरं सूत्रोक्ता विवृणोति ।
कथं तर्हि बयादेः कार्यत्वसिडिरत आह कारणान्तरादपि तद्धर्मोपपत्तेरप्रतिषेध इति ॥
यदि सावयवत्वं बुद्ध्यादौ न प्रवर्तते । तहि साधनं विना साध्यसिययोगात् बुद्ध्यादेः कथं कार्यवसिद्धिरित्याशङ्कार्थः । अत अाहेति ग्रन्थकारः। कारणान्तरात् सावयवत्वादन्यस्माद्धेतोः कार्यत्वधर्मोपपत्तेरयं प्रतिषेधो न भवति ॥ १८१ ॥ कारणान्तरादिति पदं व्याचष्टे ।
प्रमाणान्तगदपि कार्यवसिद्धेरित्यर्थ इति ॥
यथाङ्गारावस्थायां धूमाभावेऽपि प्रमाणान्तराह्रिसिद्धिस्तथानापि काय्यवसिद्धिर्भविष्यतीति ॥ १८२ ॥ प्रमाणान्तरमेव दर्शयति । प्रमाणं चानुपलब्धिकारणेष्व सत्सु प्रागडं चानुपलम्भादिति ॥*
प्रमाणमिति बुद्धेः कार्यवसाधकमनुमानम् । उपलब्धिकारणानि बुडेप्तिनिमित्तानि हानोपादानादौनि । न उपलब्धिकारणान्यनुपलब्धिकारणानि । तेष्वसत्स्वविद्यमानेषु । हौ नो प्रकृतमयं गमयत इति न्यायात् । यद्यनुपलब्धिकारणानि न सन्ति तर्घपलश्चिकारणानि सन्तीत्यर्थः । स्यात्तत उपलब्धिकारणेषु सत्सु उपलश्चिकालात् प्रागूई चानुपलम्भात् बुद्धयादिकं कायं --- ------ ... ... ... ....... . -- -.. ..- . .. .- ..
* Tic text ulds zitata to tio iphorisan ziopted by the conumentator here (See giage D". Line ] }.
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अनुमानपरिच्छेदः ।
भवतीति शेषः । प्रयोगस्त्वेवं बुझादि कार्यमुपलब्धिकारणेषु मत्सु प्रागूर्द्धमनुपलभ्यमानत्वात् । उपलब्धिकारणेषु मम प्रागू यत्रोपलभ्यते तत्कार्य्यम् । यथा घटादि तथा चेदम् । तस्मात्का कार्य्यमिति । उपलब्धिकारणाभावे मदपि वस्तु नोपलभ्यत इत्युपलब्धिकारणेषु सत्विति पदम् । ततो यथा कुड्याद्यभावे प्रागूई चानुपलभ्यमानत्वात् घटादिकं कार्य्यं तथा बुद्यात्रपीत्यर्थः ॥ १६३ ॥ अस्मिन्नेव बुद्धादिकाय्र्यत्वसाधके हती अनुपलकिसमामुद्भावयितुमाह ।
तदनुपलब्धेरनुपलम्भादभावसिद्धौ तद्विपरीतोपपत्तेरनुपलब्धि
१८५
सम इति ॥
तस्य बुझादिकाय्र्यस्य प्रागू यानुपलब्धिः सा तदनुपलब्धिस्तस्या अनुपलम्भादप्राग्भावमिद्धो नास्तित्वसद्भावे तद्विपरीतानुपलब्धिविपरीता उपलब्धि: प्रागूईमपि बुझादिसद्भाव स्तदुपपत्तेरनुपलब्धा प्रत्यवस्थानमनुपलब्धिममा जातिर्भवति I
अयं भावः | बुद्ध्यादेः प्रागू यानुपलब्धिः मा स्वात्मनि वर्त्तते न वा । वर्त्तते चेत्तदा यत्र विषयेऽनुपलब्धिर्वर्त्तते तस्य यथानुपलम्भस्तथानुपलब्धेरप्यनुपलम्भः स्यात् । अनुपलब्धेयानु पलम्भ उपलब्धिरूपो भावाभावयोरभावस्य विरुद्धात्मकत्वात् । भावस्याभावोऽभावः अभावस्याभावो भावः । तथाच या बुझादिकास्य प्राईमनुपलब्धिरुक्ता तस्याश्चेदनुपलब्धिस्तर्हि तहिपरातोपलब्धिः प्राप्ता । यत्न चोपलब्धिस्तत्रोपलम्भस्तती बुयादेः काव्यस्य प्रागूइमप्यस्तित्वं स्यात् । अनुपलब्धिः स्वात्मनि न वर्त्तते
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न्यायतात्पर्यदीपिका।
चेत्तानुपलब्धिस्वरूपेणापि नास्ति । तथाप्यनुपलब्धेरभाव उपलब्धिरूपस्ततोऽपि बुधादिकार्यस्य प्रागूईमप्यस्तित्वं स्यात् इति ॥ १८४ ॥ अमुमेवा, मनसिकृत्य सूत्रं व्याचष्टे ।
*तस्य बुयादि कार्यस्यानुपलब्धेरनुपलम्भादभावसिद्धौ अनुपलब्धेविपरीतोपलचापपत्तेः। प्रागूर्द्धमपि बुबादेः सद्भावः सेत्स्यतीत्यभिप्राय इति ॥
मूत्रव्याख्यानादिदं व्याख्यातग्रायम् । अनुपलब्धेरनुपलब्धिरुपलम्भरूपो भवन् प्राक् पश्चाच्च बुद्धयादिकमस्तीति व्यनक्ति । ततो बद्यादेः कार्यत्वसाधको हेतुरसिद्ध इत्यर्थः ॥ १८५ ॥ एतदुत्तरमाह।
अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्धेरहेतुरिति ॥ अनुपलब्धेरनुपलम्भात्मकत्वान्नास्तित्वरूपवेद्यत्वादियं बुद्याद्यनुपलब्धेरभावसाधिकानुपलचिरहेतुबादः कार्यत्वनिषेध हेतुर्न भवति । अयं भावः। अनुपलब्धिरनुपलम्भात्मिका न च तस्या अनुपलब्धेः स्वरूपमेव विषयः । यद्यनुपलब्धेः स्वरूपमघि विषयः स्यात्तर्हि यतार्थेऽनुपलब्धिस्तस्य यथाऽसत्त्वं तथानुलब्धेरपि स्वरूपनाशादसत्त्वं स्थान च तयास्ति किन्तु वस्त्वनुपलम्भ विषया। ततो बुद्धयादेः कार्यत्वनिषेधेऽसौ हेतुर्न भवति ।
* The reading adopted loy the counyentacor here: differs somewhat from the text (See page 22, Line 3-+).
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अनुमानपरिच्छेदः ।
२८७
किञ्च निषेधक प्रमाणे नोपलभ्यं नास्तीत्यवधार्यते । न चानुपलब्धिः स्वस्मिन्निषेधक प्रमाणम्। तथाच स्वविषये सामर्थ्य सति खात्मनिषेधत्वमामर्थेऽपि न काचित् क्षतिः ॥ १८६ ॥ -'अमुमेवा) ममर्थयते ।
नास्तीति ज्ञानमनुपलब्धिः। सा तत्म्वभावतया प्रत्याकावेद्या। तदनुपलब्धिरसिद्दे त्यभिप्राय इति ॥ ___ भो जातिवादिन् अनुपलब्धिः स्वात्मनि वर्तते न वेति यदिक पदयं पर्यकल्पि तदत्यल्पम् । यतो नास्तीति ज्ञानमभावरूपो बोधोऽनुपलब्धिः । सा चानुपलब्धिः तत्स्वभावतया नास्तीति रूपतया प्रत्यात्मवेद्या प्रतिप्राणिजेया। न पुनः सा स्वस्मिन् घर्तित्वा स्वस्था एव विनाशिका। येन तस्याः स्वरूपमेव न स्यात् । ततो यथोपलश्चिर्विधिमुखेन तथानुपलचिनिषेधमुखेन विद्यत इति अनुपलब्धिरसिडेव ।
कि दमस्मडे तुप्रतिषेधकं भवदच: स्वस्मिन् वर्तते न वा । वर्त्तते चेत्तहि यत्र विषये प्रतिषेधकवचस्तस्य यथा प्रतिषेध. स्तथा स्वात्मनोऽपि प्रतिषेधः। ततो हेतुप्रतिषेधकवचःप्रतिषेधे हेतुसिद्धिः सुस्थैव । न वर्त्तते चेत्तदा स्वरूपमपि प्रतिषेधकवचसो नास्तीति हेतुमिद्धिस्तदवस्था ॥ १८७ ॥ नित्यसमां जातिमाह। नित्यमनित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्ते नित्यत्वमम इति ॥
नित्यमनियभावात् सर्वदाऽनित्यत्वाख्यधम्मास्तित्वादमित्यत्व. योगादनित्ये शन्दे नित्यत्वोपपत्तनित्यत्वेन प्रत्यवस्थानं नित्यसमा
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न्यायतात्पर्य दीपिका।
जातिभवति । अयमर्थः। अनित्यः शब्द इत्यु हो जातिवादी अनित्यत्वाख्यमाध्यधम्म स्वरूपविकल्पनेन शब्दस्य नित्यत्वमापादयति। तथाहि किमिदमनित्यत्वं शब्दम्य निलमनित्यं वा । यदि नित्यं तहि धर्मास्य नित्यत्वात्तदाश्रयस्यापि शब्दस्य नित्यभावादनित्यधर्माधारतया सत्त्वात्रियत्वम् । अथानित्यं तत्राप्यनित्यत्वे नित्ये सिद्धं नित्यत्वं शब्द म्यति ॥ १८८ ॥ इदमेव सूत्रं व्याख्याति ।
__ अनित्यत्वधर्मस्थ नित्यं सर्वदा मड़ावार्मिगोऽपि शस्य सर्वदा सद्भावः । अथानित्य त्वं सर्वदा नास्ति तथाप्यनित्यत्वानित्यः शब्द इति ॥
अनित्यत्वधर्मो यदि नित्यस्तदा धर्मिगर: शब्दस्यापि नित्यत्वं स्यादनित्यत्वस्य धम्म त्वाम्मस्य च धर्मिणं विनावस्थानाभावादिति शेषः । अथानित्यत्वं धर्मी यदि मर्वदा नास्ति तथाप्यनित्यत्वस्यानित्यत्वाच्छब्दो नित्य एव ॥ १८८ ॥ अस्योत्तरमाह।
अनित्यत्वस्य सर्वदाभ्यपगमे नित्यत्वविरोधः । अनभ्युपगमे चामिद्धा हेतुरिति ॥
भी जातिवादिन्ननित्यत्वं नित्यम नित्यं वति प्रनयतम्तव कोऽभिप्राय: । किमनित्यत्वं सर्वदाभ्युपगच्छामि। अथ सर्वथा नाभ्युपगच्छसि वा।
नाद्यः कल्यः । अनित्यत्वस्य सर्वदा स्वीकारे नित्यत्वं विरुध्येत । नित्यानित्य यो: परस्पर विरुद्धत्वादेक सद्भावेऽन्यस्या
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१८८
भावाच । न द्वितीयः अनित्यत्वस्य सर्वथानभ्यपगमे नित्यमनित्यभावादिति भवदुक्तो हेतुरमिद्धो नित्यत्वस्य मूलत एवास्त्री कारात् । ततः शब्द स्यानित्यत्वं तदव स्थमवेत्यर्थः ॥ २०० ॥
अधुना धर्मस्यावस्थानाडमिंगोऽप्यवस्थानमिति यदुक्तं तत् परिहरति ।
प्रध्वंम यानित्य त्वं न तस्मिन् सति शब्द मद्भाव इति । नित्यम नित्यत्वभावाद नित्यत्वाधारस्य शब्दस्य नित्यत्वं तदा भवेत् यद्यनित्यत्वं भावात्मकं भवेदनित्य त्वं तु प्रध्वं मरूपं तस्मिन् सति कथं शब्दमद्भावः स्यात् । किञ्च त्वां प्रत्य प्येवं वक्तं शकाम् । त्वदभिप्रतं यन्नित्य त्वं तत् किं नित्यम नित्यं वा । यदि नित्यं तहि नित्यत्वे यनित्यत्वं तदपि किं नित्यमनित्यं वेति । पुन: पुनरावर्तन नवस्था । अथानित्यं तदा नित्यत्वस्य स्वरूपहान्याऽनित्यत्वमेव जय श्रीसुभगं भावुकं बभूव ॥ २०१ ॥
नन्वन्या अपि सूत्रोक्ता जातयः मन्ति ता: किमिति नोक्ता
इत्याह ।
एतेनान्यत्व स्यात्मनोऽनन्यत्वादन्य त्वं नास्तोत्यादौन्ट' सदुत्तरागिए प्रत्युक्तानीति ॥
आत्मा पृथि यादिभ्योऽन्य इच्छाद्यधिकरणवादातिरके घटवदित्यते आतिवाद्याह। किमन्यत्वमात्मनोऽन्यत् उतानन्य त् । प्राचि पन्ने प्रा मान्य त्वयोर्मध्ये अन्यदन्य त्वं वाच्यम् । येनात्मान्यत्वयोरन्य त्वं भवति । तस्मिन्न प्यन्यत्वेऽन्धत्वान्तरं वाच्यम् । तथाच सत्यनवस्था इति प्राच्यं पक्ष बहिरेव भंवा तौयिकं भक्तमाहान्य
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१८०
न्यायतात्पर्यदीपिका।
त्वस्येत्यादि। अन्यत्वस्यात्मनः सकाशादन्यत्वादभिन्नत्वादन्यत्वं न भवतीत्यनन्यसमादीन्यमदुत्तराणि । एतेन कतिपयजातिस्वरूपनिरूपणेनोत्तराभिधानेन च प्रत्याख्यातानि नेयानि । तथा मूलसूत्रोक्त चतुर्विशतिजातीनां मध्ये प्रसङ्गप्रतिष्ठान्तसंशयप्रकरणापत्त्युपपत्त्यनित्य कार्य समानामष्टजातीनां यदव लक्षणोत्तरे न व्याचख्याते तदासामावेवान्तर्भावादित्यूह्यम् ।। २०२ ॥ अन्येषां जात्युत्तराणां निराकरणहेतुमाह ।
निमित्तान्तरात् संज्ञान्तर योज्यमानेऽर्थे तथाभावस्य निरा. कतमशक्यत्वादिति ॥
निमित्तान्तरादृष्टान्तादिकपात् । संज्ञान्तरे नित्यत्वादिरूपे । योज्यमाने परेणापाद्यमाने अर्थे । तथा भावस्य शब्दस्वाभाविकानित्यत्वादेः प्रतिक्षेप्नुमक्षमत्वादन्यान्यपि जात्युत्तराणि निरा. क्तानि । कोऽर्थः । यानि कानिचिज्जात्युत्तराणि तानि किञ्चिमाधादिनिमित्तमादृत्य नित्यत्वादौ यत्र तत्रोद्भाव्यन्ते । तानि च न सत्यानि न च तैर्वस्तुस्वभाव भक्त प्रभूयते । ततो वस्तु स्वभावसामर्थ्य अबलम्बधान्यान्यप्यसदुत्तराणि निराकर्तव्यानि ॥ २०३ ॥ ननु सर्वाणि जात्युत्तराणि कुतो नोक्तानीत्याह । ___ अानन्यान सर्वाणि जात्युत्तराण्युदाहत्तुं शक्यन्त इति ॥
वाचो युक्तीनामानन्त्याज्जातीनामानन्त्यं ज्ञेयम् । शेष सुगमम् ॥ २०४ ॥
ननु यद्यनन्तानि जात्युत्तराणि कथं तहि सूत्रकता चतुविंशतिसंख्यया नियमितानीत्याह ।
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१९१ सूचाणामन्यदाहरणार्थत्वादिति ॥ सूत्रकृता चतुर्विशतिर्जातय इति यदुक्तं तज्जात्युदाहरण. मख्यानार्थम्। न पुनर्जातिसंख्यार्थम् । कथमेतदवसीयत इति चेत् । स्थलान्तरेऽनन्यसमादीनां जातीनां लक्षणोदाहरण निरीक्षग्णात् ॥ २०५ ॥ उपसंहरति ।
उता जातिभेदा इति ॥ २०६ ॥ अथ निग्रहस्थानान्याह ।
अधेदानों निग्रहस्थानान्युच्यन्ते। तान्यपि विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्त्योर्विकल्पादसंख्यानीत्यत: संक्षेपतो व्युत्पाद्यन्ते इति ॥
अथ जातिकथनानन्तरं निग्रहस्थानान्युच्यन्त इति संटङ्गः । तानि च निग्रहस्थानानि विप्रतिपत्तेविरुद्धज्ञानस्य विपरीतज्ञानस्य वा अप्रतिपत्तेरन्नानस्य च वैचित्राादसंख्यातानि भवन्त्यत: समासात् कतिपयानि लक्षणोदाहरणाभ्यां प्ररूपयिष्यन्तेऽत्र ॥ २०७॥ तत्र प्राक् प्रतिज्ञाहानि लक्षयति ।
साध्ये प्रतिदृष्टान्तधर्मानुज्ञा प्रतिज्ञाहानिरिति ॥ प्रतिज्ञासिद्धये वादिना साधनेऽभिहिते प्रतिवादिना च तत्र दूषण प्रोक्त तीये वचसि वर्तमानो वादी यदि खसाध्ये प्रतिपक्षदृष्टान्तधम्ममनुजानाति । तदाऽस्य प्रतिज्ञाहानिभवति ॥ २०८॥ एतामुदाहरति ।
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१८२
न्यायतात्पर्यदीपिका।
यदि कतकात्वात् घटवदनित्य : शब्द इथते ताकाशवदमूर्तवाहित्य: किं नेष्यते । एवं प्रतिवादिनोक्ते वाद्याह । भवतु किं नो बाध्यते तस्य नित्यत्वाभ्युपगमेनानित्यत्वप्रतिज्ञा होयत इत्यतः प्रतिज्ञाहानिर्नाम निग्रहस्थानं भवतीति ॥
नित्यत्व स्वीकारात् तस्यानित्यत्वप्रतिज्ञा व्यपेयादिति भावः । तथा प्रतिज्ञाहानिरित्युपलक्षणम् । तेन हेतु विशेषण हान्यादयोऽपि निग्रहाय स्वधियाभ्य ह्याः ॥ २०८ ॥ प्रतिज्ञान्तरं नक्षयति।
प्रतिज्ञातार्य प्रतिषेधे धमविकल्पात्तदनिर्देशः प्रतिज्ञान्तरमिति ॥
प्रतिज्ञातार्थस्यानित्यः शब्द इत्यादेहतुव्यभिचारादिना परेण प्रतिषेधे कृतं तं दोषमनुडल्य धम्म विकल्पाइम्मान्तरयोजनाद्यस्तदर्थनिर्देश: प्रतिषेधानवृत्त्यय प्रतिज्ञान्तरभणनं स प्रतिज्ञान्तरं निग्रहस्थानं भवति ॥ २१० ॥ लक्षणसूत्रं निदर्शनदर्शनद्वारा ब्याचष्टे ।
सवमनित्यं सत्त्वादित्यस्य दृष्टान्ताभावन प्रतिज्ञानार्थ स्य प्रतिषेधे धर्मो विवादास्पदीभूतलक्षणस्तस्य विकल्पः प्रतिज्ञातार्थविशेषगवन योजनं तदर्थ इति प्रतिषेवनिवृत्त्यर्थो यथा मगकाओं
* The reading botter by the commentator here differs someurhit from the test (Se pily , Lince R.10 ).
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१८३ धूम इति निर्देशो यथा विवादास्पदीभूतं सर्वमनित्यमित्येत. प्रतिज्ञान्तरं निग्रहस्थानं हेवन्तरवदिति || * __प्राक् सव्वं पक्षी कृत्य दृष्टान्ताभावेन परेण प्रतिषेधे कते सति तैत्रिहत्त्यर्थं विमृश्य यत्यक्षान्तरोपादानं विवादास्पदीभूतं सर्वमनित्यमित्येतद्रूपं तत्प्रतिज्ञान्तरं नाम निग्रहस्थानं भवतीति भावः। यथैक हेतूपन्यासे तत्प्रतिषेधे चान्यहेतुमुपन्यस्यतो हेत्वन्तरं निग्रहस्थानं तहदिदमपि।
ननु प्रतिज्ञाहानेः प्रतिज्ञान्तरस्य च को विशेष इति चेत् । उच्यते । प्रतिज्ञाहानो सर्वथा प्रतिज्ञात्वागः प्रतिज्ञान्तरे तु तस्या एव प्रतिज्ञाया विशेषणान्तरेण योजनमित्येकदेशपरावर्ताबानयो. रैक्यं युक्तमिति ॥ २११ ॥ प्रतिज्ञाविरोधमभिधत्ते ।
प्रतिज्ञाहेलोविरोधः प्रतिज्ञाविरोध इति ॥ यत्र प्रतिज्ञा हेतुना विरुध्यते हेतुर्वा प्रतिज्ञया स प्रतिज्ञाविरोधो भवति ॥ २१२ ॥ एनमुदाहरति ।
यथा गुण व्यतिरिक्तं द्रव्यं भेदेनानुपलम्भादिति ॥ यदि द्रव्यं गुण व्यतिरिक्त तदा भेदोपलम्भ एव भवेन्नत्वभेदोप
* The commentator adopted the reuling of the nis rarked C. which has been mentioned in the Foot note of paye 33 ( See page 23, Line 13).
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१८४
न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
लम्भः। अत्र तु द्रव्यं गुणव्यतिरिक्त प्रतिज्ञाय भेदेनानुपलम्भ हेतूकुवतः प्रतिज्ञाहे वोविरोधात् प्रतिज्ञाविरोधो नाम निग्रहस्थानं भवति ।
नवयं विरुडो हेत्वाभासो न पुन: प्रतिज्ञाविरोध इति चेत् न। विरुद्धहेत्वाभासे याप्तिस्मरणाहिरोधोऽवधार्यते। अत्र तु प्रतिज्ञाहेतुवचनश्रवणमात्रादेवेति महान् भेदः ॥ २१३ ॥ प्रतिज्ञासंन्यासं लक्षयति ।
पक्षप्रतिषधे प्रतिज्ञातार्थापनयनं प्रतिज्ञासंन्यास इति । प्रमाणादिविरुद्धपक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थस्य योऽपङ्गवः स प्रतिज्ञासंन्यासी भवति । २१४ ॥ एतदुदाहरणमाह।
* अनुष्णोऽयमग्निः कृतकवादित्यस्य प्रतिषेधे वाद्याह । संपश्यध्वमहो मध्यस्थाः साक्षिणो नाहमनुष्णमग्निं ब्रवीमोत्यनुक्कोपालम्भोऽयमित्येतत्तस्य प्रतिज्ञासंन्यासलक्षणं निग्रहस्थानमिति ॥
अग्निरनुषण इति वादिना पक्षे कक्षीकृते स्पर्शन प्रत्यक्षबाधितत्वादयं कालात्ययापदिष्ट इति परेण प्रतिषिद्धे च यदा वादी आत्मप्रत्यायनाथं संपश्यनमहो मध्यस्था इत्यादि वक्ति तदा तस्याग्निरनुषण इति स्वीकृतप्रतिज्ञापह्नवात् प्रतिज्ञासंन्यासो नाम
* 'The Text reuls 'यथानुष्योऽयमम्निरित्यय Line 7).
Sct puge
4
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१८५ निग्रहस्थानं भवति । तथा पक्षशब्दस्योपलक्षणत्वाद्देवादिसंन्यासा अपि निग्रहहेतवः प्रतिपत्तव्या इति । ___ ननु प्रतिज्ञाहानेरस्य च को विशेष इति चेदुच्यते । प्रतिज्ञाहानौ परोक्षधम्मस्वीकारात्प्रतिज्ञात्यागोऽत्र तु परमतिषेधात् स्वयं खप्रतिज्ञात्यागः ॥ २१५ ॥ हेत्वन्तरं निरूपयति ।
अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेवन्तरमिति ।
विशिष्यते येनासौ विशेषो विशेषणं तेन रहित हेतौ प्रोक्त परेण च तद्दूषणे समुद्भाविते तदन सविशेषणं हेतुं ब्रुवती हेत्वन्तरं भवति ॥ २१६ ॥ एतविदर्शयति ।
यथा नित्या वेदा अस्मयंमाण क क त्वादित्यस्य जोर्सकूपारामादिभिरने कान्तिकत्वेन प्रतिषेधे संप्रदायाविच्छेदे सतीति विशेषण मिच्छतो हेवन्तरमिति ॥
मीमांसको नैयायिक प्रति वेदानामपौरुषेयत्वं साधयति । यथा वेदा नित्या अस्मयमाणकर्तकत्वादिति । अत्र जोमकूपारामादयश्चिरत्नत्वादस्मय॑माणकका अपि न नित्या इति तैः हेतोः परेणानै कान्तिकत्वे उद्भावित संप्रदायाविच्छेदै सत्तीति हेतोविशेषणं काइतो हेत्वन्तरं नाम निग्रहस्थानं भवति ॥२१७१ हेत्वन्तरं कथं निग्रहस्थानं भवतीत्याह ।
पूर्वस्यासाधकस्योपादानादिति ॥ पूर्वस्येति अस्मय॑माण ककत्वस्य हेतोः असाधकत्वमने
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१८६
न्यायतात्पर्य दौपिका।
कान्तिकत्वात्। यद्यपि प्रतिज्ञाहान्या हेतुहान्यादीनामुपलक्षणवत्प्रतिज्ञान्तरेगा हेत्वन्तरस्याप्युपलक्षणं भवत्यन्यथोदाहरणान्तरादीनामपि पृथगभिधानं प्रसज्येत । तथापि हेवन्तरस्य यत् पृथगभिधानं तत्परार्थानुमानवाक्यस्य साध्यसाधनभावन भेद व्यवेक्षणार्थ तेनोपनयान्तरं निगमनान्तरञ्च प्रतिज्ञान्तरशब्देन उदाहरणान्तरं दूषणान्तरं च हेत्वन्तरेण संग्गृहीतं भवतीत्यर्थः ॥ २१८ ॥ अर्थान्तरमाह।
प्रकृतादर्थांदप्रतिसंबद्धार्थमर्थान्तरमिति ॥ यथोक्तलक्षण पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहे हेतुत: साध्यसिद्धौ प्रकृतायां प्रकृतं हेतुं प्रमाणसामर्थ्येन समर्थयितुमसमर्थोऽहमित्यध्यवस्यन्नपि कथामपरित्यजन् वादी यत्रार्थान्तरं ब्रवीति तदर्यान्तरं भवति ॥ २१ ॥ उदाहरति ।
* यथा नित्य: शब्दोऽस्पर्शवत्त्वादिति हेतुः । हेतुश्च हिनोतेहतोस्तुन् प्रत्यये सति वदन्तं पदमित्यादि प्रसक्तानुप्रसक्त्या प्रकृतार्थानुपयोगिशास्त्रान्तरमुपदिशतोऽर्थान्तरं नाम निग्रहस्थानमितीति । __ शब्दस्य नित्यत्व सिद्धेय अस्पर्शवत्वादिति हेतुं प्रागज्ञानात् प्रयुज्य पश्चादनकान्तिकं मत्वा तदोषाच्छादनाय प्रतामुप
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* 'The Test rends यथा शब्दो नित्यः प्रमेयत्वादिति हेतुः" (Sec
Page
+
Line 17-13).
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अनुमानपरिच्छेदः । योगिनों हेतुशब्दनिष्पत्तिमुपदिशतोऽर्थान्तरं नाम निग्रहस्थानं भवतीति भावः ॥ २२० ॥ निरर्थकं निग्रहस्थानमाह।
वर्म क्रमनिर्देशवनिरर्थकमिति ॥ अभिधेयरहितकेवलवानुपूर्वीमात्र निरर्थकं निग्रहस्थान भवति ॥ २२१ ॥ इदं निदर्शयति ।
यथाऽनित्य शब्द: कचटतपानां गजडदबत्वात् धझढधभवदितौति ॥
अत्र कचटतपानां शब्दोऽनित्य एतावान् पक्षः। शेषं सुगमम् ॥ २२२ ॥ अविनातार्थमाह।
परिषत्प्रतिवादिभ्यां विरभिहितमप्यप्रतीतमविज्ञातार्थमिति ॥
यत्माधनवाक्यं दूषणवाक्यं वा त्रिः कथितमप्य प्रसिद्धप्रयोगादि. निमित्तेन परिषदा प्रतिवादिना च न ज्ञायते। तदविज्ञातार्थ निग्रहस्थानं भवति ॥ २२३ ॥ एतदेव याचष्टे।
यदाक्यं * त्रिरभिहितमप्यप्रतीतप्रयोगातिद्रुतीञ्चारितादिना
* 'The Test articls there “वादिना" : Sue puge 25. Line i).
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१८.८
न्यायतात्पय्यदीपिका ।
निमित्तेन पर्षत्प्रतिवादिभ्यां न ज्ञायते तदज्ञानसंवरणायोक्तमविज्ञातार्थं नाम निग्रहस्थानमितीति ॥
अप्रतीतप्रयोगा
अजढदचोक्रोडजर्थाभिरटाटंकिष्ठा इत्या
दयः । यद्दाऽयं त्रिनयन भ्रूसमाननामधेयवांस्त केतुमत्त्वाद्रसिनीवदित्यादयः । एतेन रूढैरेव प्रयोगः कथा प्रवर्त्तनीयेति
दर्शितम् ॥ २२४ ॥
अपार्थकमाचष्टे ।
पौर्वापर्या योगादप्रतिसंबद्धार्थ स्पार्थक मिति
पूव्वं विशेषणमपदं विशेष्यं तयोर्भावः पौर्वापर्यं विशेषणविशेष्यभावः तस्यायोगोऽसंबन्धस्तस्माद संबद्धार्थमनन्वितार्थं यद्वाक्यं तदपार्थकं नाम निग्रहस्थानं भवति ॥ २२५ ॥
उदाहरति ।
यथा दशदाडिमानि षडपूपा कुण्डमजाजिनं पललपिण्डं इति ॥
अनन्वितं वाक्यपदाभ्यां देवा । तत्र वाक्यानन्वितत्त्वे दशदाडिमानि षडपूपा इत्युदाहरणम् । अत्र दशदाडिमानां षडपूपानां न कश्चिदन्वयः संबन्धाभावात् । आकाङ्क्षासविधियोग्यतावादेव हि वाक्यानां मिथोऽन्वयो भवेन्न चार्य आकाशादियोग्यमस्ति । पदान्वितत्वे कुण्डमजाजिनं पललपिण्डमित्यु. दाहरणम् । अत्रापि संबन्धाभावादनन्वितत्वम् || २२६ ॥
श्रप्राप्तकालमाह ।
saraविपर्यासवचनमप्राप्तकालमिति ॥
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अनुमानपरिच्छेदः ।
१६८
अवयवानां प्रतिज्ञादीनां विपर्यामेन यथाक्रमोल धनेन प्रयुज्यमानमनुमानवाक्यम प्राप्तकालं नाम निग्रहस्थानं भवति ॥ २२७ ॥ एतदेवाह ।
प्रतिज्ञादीनामर्थवशात् क्रमस्तेषां विपर्ययेणाभिधानं निग्रहस्थानमिति ॥ स्पष्टम् ।
इदं च निग्रहस्थानं नियमकथायामेव नवनियमकथायाम् ॥ २२८ ॥ न्यून व्यनक्ति। __+होनमप्यन्तिमेनाप्यवयवेन न्यूनमिति ॥
पञ्चावयवे वाक्ये प्रयोक्तव्येऽन्तिमेनापि निगमनादिनाप्य. वयवेन होनं प्रयुञ्जानस्थ न्यूनं नाम निग्रहस्थानं भवति । अपिशब्दावुभयत्रापि स्वखार्थट्रढ को द्रष्टव्यौ ॥ २२८ ॥ हीनस्य निग्रहस्थानत्वे हेतुमाह ।
साधनाभावे साध्यसिद्धेरयोगादिति ॥ अत्र साधनं पञ्चावयवं वाक्यं तेन विना साध्यसिडिर्न भवत्यतस्तदेकतमेनाप्यवयवेन होनं सत् न्यूनं नाम निग्रहस्थानं भवत्येव ॥ २३० ॥
* The text tatas there "अप्राप्तकालं" ! Hee nage 5. live13).
+ The Text reaks “अन्यतमेन" insteart of "अन्तिमेन" (Ves paye 27, Line 15 ),
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२००
अधिकमभिधत्ते ।
न्यायात्पदीपिका ।
हेतूदाहरणाधिकमधिकमिति ॥
एकेनैव हेतुना दृष्टान्तेन वा प्रतिपादितेऽर्थे हेत्वन्तरं दृष्टान्तान्तरं वा प्रयुञ्जानस्याधिकं नाम निग्रहस्थानं भवति । अत्र हेतूदाहरणग्रहणं सर्व्वाधिकोपलक्षणार्थम् । तेनोपनयनिगमनाधिकामपि निग्रहाय वेदितव्यम् । इदं तु निग्रहस्थानमेक एव हेतु - दृष्टान्तो वा मयाऽभिधेय इति नियमकथायामेव नान्यत्र ॥२३१॥ अधिकस्य निग्रहस्थानत्वे हेतुमाह ।
* एकेन कृतकत्वादितरानर्थक्यादिति ॥
स्पष्टमेतत् ॥ २३२ ॥
पुनरुक्तं व्यनक्ति ।
शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादादिति ॥ शब्दस्यार्थस्य चाभिहितस्य पुनरभिधानं पुनरुक्तं नाम निग्रह
स्थानं भवत्यनुवादादन्यत्र ॥ २३३ ॥
एतदेव व्याचष्टे ।
सार्थकं पुनर्वचनमनुवादस्तद्यतिरेकेण पुनरभिधानं नित्य: शब्दो नित्यः शब्द इति शब्दपुनरुक्तम् । नित्यो ध्वनिरविनाशी शब्द इत्यर्थपुनरुक्तमिति ॥
उक्तमपि वचो यत्र स्वार्थेन पुनरुच्यते सोऽनुवादस्तत्र पौनरुक्त्यं
*
The Text reads ""ततार्थत्वात्" instead of "कतकस्वात्" [ Sce page 25. Line 16 ].
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अनुमानपरिच्छेदः । न दोषाय। यथा हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनमिति । शेषं व्यक्तम् ॥ २३४ ॥
पुनरुतान्तरमाह।
अर्थादापत्रस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्त मिति । प्रागुक्तशब्दसामर्थरूपादादापत्रयार्थस्य तदर्थप्रतिपादकेन शब्देन यत्पुनर्भणनं तदपि पुनरुक्तं निग्रहस्थानं भवतीत्यर्थः ॥२३५॥ एतनिदर्शयति ।
यथा साधोदाहरणेऽभिहित वधोदाहरणाभिधानमिति ॥
अयं भावः। दृष्टान्तो हि व्याप्तिनिश्चित्यै निदर्श्यते । सा चेदे केनैव सिद्धा तदा द्वितीयो बन्लादपि पौनरुत्यकुक्षिनिक्षिप्तः स्यात् ।
ननु हेतोरन्वयव्यतिरेकावगमाथं उभयमभिधेयमिति चेन्न । अन्वयव्यतिरकिणोऽन्यत्र साधम्यवैधयॊदाहरणयोरवश्यम्भावाभावात् । अन्वयव्यतिरेकिण्यपि परापेक्षां विना यदि इयमभिधीयते तदा पौनरुक्त्यमेवमपेक्षायां तु न कश्चिद्दोषः ॥ २३६ ॥ आशङ्कयोत्तरयति ।
कथं तत् निग्रहस्थानमिति कथावसानविरोधित्वादेकेन लतकवादितरानर्थक्यादिति ॥
कथावसानेति प्रसतानुप्रसत्या कथान्तं न यायादिति । पेषं स्पष्टम् । इदमपि निग्रहस्थानं नियतकथायां नान्यत्र विरोधा
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२०२
न्यायतात्पर्यदीपिका ।
भावात् । यद्यप्यधिकात् पुनरुक्तं न भिद्यते तथापि शिष्यधी
भङ्गा पुनरुक्तं पृथगुक्तम् ॥ २३७ ॥
अननुभाषणमाभाषते ।
विज्ञातस्य परिषदा विरभिहितस्याप्यप्रत्यच्चारणमननुभाषणं प्रतिवादिनो निग्रहस्थानमिति ॥
परिषदादिविदितस्य वादिना विरुच्चरितस्यापि वाक्यस्य यदप्रत्युच्चारणं तदननुभाषणं नाम प्रतिवादिनो निग्रहस्थानं भवति । प्रतिवादिन इति चोपलचणं तेन प्रतिवादिप्रतिपादितदूषणस्यानुच्चारणे वादिनोऽपि निग्रहो ज्ञेयः ॥ २३८ ॥
अत्र युक्तिमाह ।
अप्रत्युच्चारयन् किमाश्रयः परपक्षप्रतिषेधं ब्रूयादिति अप्रत्युच्चारयन् वाद्युक्तमननुवदन् किमाश्रयः किमाधारः सन् परपक्षनिषेधमभिदध्यात् । अयमर्थः । यदि प्रतिवादी परोक्तं नानुवदेत्तर्हि कथं स प्रतिपक्षं दूषयेत् । यतः सर्वोऽपि परोक्तमनूद्यैव दूषयति । एतेन दूष्यमात्रस्याम्यनुवदनं प्रत्यसमर्थस्येदं दूषणमुक्तम् । न सर्वानुवादासमर्थं प्रति । तस्य व्यर्थत्वात् ॥ २३८ ॥ अज्ञानं प्रज्ञापयति ।
अविज्ञातार्थं चाज्ञानम् ॥ परिषदावगतार्थमपि वाक्यं यत्त्र प्रतिवादी स्वयं प्रति
*
The Test reads कुर्य्यात् instead of ब्रूयात् (See page 25,
Lius 12.
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अनुमानपरिच्छेदः ।
तः सम्यक् नावगच्छति तदज्ञानं नाम निग्रहस्थानं
वदन्रप्यर्थतः
भवति ॥ २४० ॥
एतदेवाह ।
यच्च वाक्यं विरभिहितमपि परिषदावगतार्थं प्रतिवादी प्रत्युच्चारयनार्थतः सम्यगधिगच्छति तदज्ञानं नाम * निग्रहस्थानमिति ॥
स्पष्टमेतत् ॥ २४१ ॥
अप्रतिम विभावयति ।
२०३
कथामभ्युपगम्य तृष्णौभावोऽप्रतिभा वादिप्रतिवादिनोर्निग्रहस्थानमिति ॥
त्वया सह मया वीतरागकथा विजिगीषुकथा वा कर्त्तव्येस्वभ्युपगम्य वादी प्रतिवादी वा यदि तूष्णीमासीत त प्रतिभा नाम तयोईयोरपि निग्रहस्थानं भवति ॥ २४२ ॥
विक्षेपमाह ।
कार्यव्यासङ्गात् कथाविच्छेदो वित्रेप इति ॥
वादमुपक्रम्य सिसाधयिषितस्यार्थस्य दौष्कयें पर्यालोच्च कालयापनार्थं यत्र कार्यं व्यासज्य कथा विच्छिद्यते स विक्षेपो नाम निग्रहस्थानं वादिप्रतिवादिनोभवति ॥ २४३ ॥
एतदेव वदति ।
The Text adds here प्रतिवादिनो ( See page 26. Lie 15 ).
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न्याय तात्पर्यदीपिका। कयामभ्युपगम्य सभ्येषु मिलितषु ब्रवीत्यद्य मे महत्प्रयोजनमस्ति । तस्मिन्नवसिते पश्चात्कथयिष्यामोति ॥
स्पष्टम् । तत्रायं वक्तव्य शेषः। यदि तत्प्रयोजनं सभ्या अभ्युपपद्यरंस्तदा कथां विच्छिन्दतोऽपि न निग्रहोऽन्यथा निग्रह एव ॥ २४४ ॥ मतानुज्ञां प्रज्ञापयति । __ स्वपक्षे दोषाभ्युपगमात् परपक्षे दोषप्रमङ्गो मतानुजेति ॥
यः परेणापादितं दोषम नुहत्याभ्युपगम्य च ब्रवीति भवत्यक्षेऽप्ययं दोषः समान दूति म परमतानुज्ञानान्मतानुज्ञा नाम निग्रहस्थानमापद्यते ॥ २४५ ॥ एतदेव व्याचष्टं। __ यः स्वपक्षे मनागपि दोषं न परिहरति । केवलं परपक्षे दूषणं प्रसञ्जयति । भवांचौर इत्युक्त त्वमपि चौर इति । तस्येदं निग्रहस्थानम् । स्वयं दोषाभ्युपगमात् परेणानभ्युपगमादिति ॥
परेण चौरी भवान् पुरुषत्वाविशेषात् प्रसिद्धचौरवदित्युक्ते स आह। भवानपि चौरः पुरुषत्वाविशेषादिल्य प्रतिषिद्धमनुमतमिति न्यायादहं चोरोऽस्मोति स्वयमनभ्युपगच्छन्नपि चौरो भवतीति भावः ॥ १६ ॥ पर्यनुयोज्योपक्षणमाख्याति ।
निग्रहं प्राप्तस्यानिग्रह: पर्यनुयोज्योपेक्ष गमिति ॥ पर्यनुयोज्योपेक्षणं नामेदं तब निग्रहस्थानमायातमतो निगृहीतोऽसौति निग्रहोपपत्त्या चोदनीयस्तं य उपेक्षते नानुयुक्त
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। अनुमानपरिच्छेदः ।
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स पर्यनुयोज्योपेक्षणात् पयनुयोज्योपेक्षणं नाम निग्रहस्थानमास्तिघ्नते ॥ २४७॥ इदमेवाह ।
पर्यनुयोज्यो नाम निग्रहीपपत्त्या चोदनीयस्तस्योपेक्षणं निग्रहप्राप्तौ सत्यामननुयोग इति ॥
स्पतम्।
एतच्च निग्रहस्थानं कस्यात्र निग्रह इति पृष्टैः सभ्यरुद्भावनीयम् । न खलु निग्रहप्राप्तोऽपि स्वनिग्गृहीतं कोऽपि ब्रूयात् ॥ २४८ ॥ निरनुयोज्यानुयोगं लक्षयति । ____ अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयो ज्यानुयोग इति ॥
अनिग्रहस्थानेऽनुद्भाव्यदोषे यो निग्रहस्थानानुयोगो दोषोद्भावनं स निरनुयोज्य स्यानिग्रहीतव्यस्यानुयोगाद्दोषोद्भावनान्निरनुयोज्या. नुयोगो नाम निग्रहस्थानं भवति ॥ २४८ ॥ उदाहरणाद्वारे गौतधनति ।
यथा सावयवत्वेन पृथिव्यादी कार्यत्व सिद्धौ परो ब्रूयादप्रयोजकोऽयं हेत्वाभास इति तस्यदं मिथ्याभियोगलक्षणं निग्रह. स्थानमिति ॥ *
पृधिव्यादिक कायं सावयवत्वात् घटवदिति हेतुना पृथिव्यादौ
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
कार्यत्व सिद्धौ कृतायां परोऽभिधत्ते । बुद्धादौ सावयवत्वाभावेऽपि कार्यत्वोएलभाद् व्याप्ताभावनाप्रयोजकोऽयं हेत्वाभास इति । तस्य मिथ्याभियोगलक्षणमनिग्रहे निग्रहाभियोगरूपं निग्रहस्थानं भवति। सपक्षकदेशव्यापिनोऽपि धमादेर्गमकत्वदर्शनात् ॥२५॥ अपमिद्धान्तं लक्षति ।
सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात् कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्त इति ॥ स्वस्वदर्शनाभिप्रायेणाप्तप्रणीत भागम: सिद्धान्तः । यस्तं सिद्धान्तमभ्युपगत्य कथायां प्रवृत्तः सिसाधयिषितार्थसमर्थनरभमेन दूषणोद्धरण रभसेन वा स्वसिद्धान्तविरुद्धमभिधत्ते । सोऽपसिद्धान्तेन निग्राह्यते ॥ २५१ ॥ सूत्रं विवरीषुराह।
यथा मीमांसामभ्युपगम्य कश्चिदग्निहोत्रं स्वर्गसाधनमित्याह । कथं पुनरग्निहोत्रक्रिया ध्वम्ता सती वर्गसाधिका भवतीत्यनुयुक्तः प्राह । तया क्रिययाऽराधितः परमेश्वर: फलं ददाति राजादिअत् । तस्येश्वरानभ्युपगमादपसिद्धान्तो निग्रहस्थानमिति ॥
मीमांसामते ईश्वरो देवता नास्ति । अग्निहोत्रं स्वर्गमाधनमिति । ततो यदा मीमांसावादी क्रतुक्रियातुष्टः शम्भुः फल ददातीति वक्ति तदा तस्य मीमांसानभिमतेखरस्वीकारादप-' सिद्धान्तो निग्रहस्थाने भवति ॥ २५२ ॥
केषाञ्चिन्मते प्रतिज्ञार्थविपर्यासोऽपसिद्धान्त इत्यपसिद्धान्त लक्षणं लक्षितमस्ति तन्मतं कुट्टयितुमाह।
प्रतिज्ञाताविपर्ययस्तु प्रतिज्ञाहानि पसिद्धान्त इति ॥
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अनुमानपरिच्छेदः ।
प्रतिज्ञातार्थस्य यो विपर्य्ययः स प्रतिज्ञाहानिरेव अपसिद्दान्तो न भवति । श्रयं भावः । स्वसाध्ये प्रतिदृष्टान्तधर्माभ्यनुज्ञा हि प्रतिज्ञाहानिः । अपसिद्धान्तस्तु सिद्धान्तमभ्युपगत्य स्वेच्छया कथाकरणं ततो न खल्वत्र प्रतिज्ञातार्थविपय्यैयः । किन्तु स्वसिद्धान्त विरुद्धाभिधानम् । तस्मात् प्रतिज्ञाहा नेरपसिद्धान्तः पृथगेव ॥ २५३ ॥
हेत्वाभासानां निग्रहस्थानत्वमाह ।
हेत्वाभासाश्च यथोक्ता इति ॥
यथोक्ताः पूर्वोक्तलचणैर्लक्षिताः । असिडविरुद्धानैकान्तिका - नध्यवसितकालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाः षट् हेत्वाभासा निग्रहस्थानानि भवन्ति । चकारो दृष्टान्ताभासानन्वयविपरोतान्वयादिसमुच्चये । तेषामपि निग्रहस्थाननिमित्तत्वात् ॥ २५४ ॥ एतदेव स्वयमाह ।
हेत्वाभासलक्षणेनैव यथोक्तेन हेत्वाभाखा नियहस्थानानी
त्यर्थः ॥
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स्पष्टम् ॥ २५५ ॥
सूत्रे द्वाविंशतिर्निग्रहस्थानानीति यदुक्तं तन्त्र नियमार्थं किं तूपलक्षणार्थमित्याह ।
एतेन दुर्वचनकपोलताडनवादित्रादीनां साधनानुपयोगि त्वेन निग्रहस्थानत्वं वेदितव्यमिति ॥
एतेन कतिपयनिग्रहस्थानलक्षणोदाहरण निरूपणेन आदिशब्दात् कुचेष्टादिग्रहः । शेषं स्पष्टम् ॥ २५६ ॥
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
नन्वन्यैरपशब्दादीनामपि निग्रहस्थानत्वमुक्त तत् किं नोचत इत्याह।
नियमकथायां त्वपशब्दादीनामपि इति ॥ नियमकथा नाम मंस्कृतैरेव शब्दैः श्लोकबन्धन वा पञ्चवर्गत्यागेन वा वक्तव्यमित्येवंरूपा । तस्यामपशब्दानामादिशब्दाद्देशादीनां च निग्रह स्थानत्वं ज्ञेयम् । एतनानियतकथायां पक्षत्यागादेव निग्रहो नान्यथा । इति शब्दो निग्रहस्थानपरिसमास्यर्थः ॥ २५॥
इति श्रीकृष्णर्षिगच्छमगडनश्रीमन्महेन्द्रसूरिशिष्य श्रीजयसिंह सूरिविरचितायां न्यायतात्पर्य
दीपिकाभिधानायां न्यायसारटोकायामनुमानपरिच्छेदो
हितीयः समाप्तः ॥
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आगमपरिच्छेदः ।
हैतीयिकपरिजेदे सभेदमनुमानं प्रपञ्चा संप्रत्यागमलक्षणं सूचयति ।
अवसितमनुमानमागमस्येदानी लक्षणमुच्यत इति ॥ अनुमानं नाम प्रमाणमवसितं समाप्तमिदानीमनुमानसमात्यनन्तरमागमलक्षणं कथ्यते ।
ये काणादाद्याः शब्दोऽनुमानं व्याप्तिब लेनाथं प्रत्यायकत्वात् धूमानुमानवदित्यनुमाननानुमाने शब्दमन्तर्भावयन्ति तन्मतयुदामायावसित मिति । कूटाकूटकार्षापणपरीक्षण प्रवणप्रत्यक्षा प्रस्तुत हेतोय भिचारात्। तत्प्रत्यक्षस्यापोदृक्षस्वरूप: कार्षापण: सर्वोऽपि सत्यस्तदन्यस्त्वसत्य इति त्रैकाल्याकलितव्याप्तमा बद्दमूल. त्वात् । अन्यथा सत्यासत्यत्वप्रतीत्यनुपपत्तेः। तथा चात्र सावकाशं प्रत्यनुमानमेतत् । शब्दो नानुमानं विभिन्न कारण प्रभवत्वात् प्रत्यक्षवत् । ततो व्याप्तिमूलात् सामान्यार्थनिष्ठावानुमानाव्याप्ताभावेऽपि परीक्षार्थप्रमापकत्वाद्यक्तिमानार्थगोचरत्वाच्च शाब्दप्रमाणं पृथगेव । तदुक्तं
परोक्षप्रमितिं कुर्वद्याप्तादिविरहेऽप्यतः । पदं पृथक् प्रमाणं स्यात् व्यक्तिमात्रार्थगोचरम् ॥ १ ॥
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ता
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
आगमं लक्षयति।
समयबलेन सम्यक् परोक्षानुभवसाधनमागम इति । अत्रागम इति लक्ष्यं शेषं तु लक्षणम् । आगम्यन्ते मर्यादयावबुध्यन्ते पदार्था अनेनेत्यागमः । किमागम इत्याह । सम्यगित्यादि। सम्यगिल्यादिपदानां समासो व्यवच्छेदश्च प्राग्वत् । केनेत्याह। समयबलेनेति । समयः पुरुषकतः सङ्केतो न पुनरविनाभाववत् स्वाभाविकः । स्वाभाविकत्वे ह्यविनाभाविधूमादिलिङ्गवच्छब्दा अपि नियतमेवार्थ प्रत्याययेरन्न तु पुरुष सङ्केतवशादनियतम् । प्रत्याययन्ते च देशनैयत्येन सबैतिताः शब्दाः सर्वानप्यास्ततोऽविनाभावादन्य एव समयस्तस्य बलं ग्रहणस्मरणलक्षणं तेन। अत्र समयबलेनेति पदमागमस्यानुमानत्व. ब्युदासार्थमनुमानस्य व्याप्तिमूलत्वात् । न च वाच्यं व्याप्तिरव समयो व्याप्तेरनुमेयाविनाभावितया समयस्य पुरुषेच्छाधीनतया च मियः पार्थक्यात् । ततः समयजनितसाहाय्यात् संशयादिरहितपरोक्षानुभवस्य यत् साधनं शब्दरूपमशब्दरूपं चेष्टालिप्यक्षरादि वा तत्सर्वमागमप्रमाणं भवति ॥ २ ॥ तस्य भेदमाह।
म द्विविधो दृष्टादृष्टार्थभेदादिति ॥ अत्रार्थशब्देन प्रयोजनं ज्ञेयम् । तत्र दृष्टार्थों यथा नद्यास्तर सन्ति परिपाककमाण्याम्राणीत्यादि। तत्र गतस्य दर्शनात् । अदृष्टार्थो यथा स्वर्गकामी यजेतत्यादि । इह भवे ह्यामुभिकसगफलादर्शनादिति ॥ ३ ॥
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आगमपरिच्छेदः।
तादात्मातदुत्पत्त्यादिसम्बन्धासंबद्धतया अर्थानभिधायकत्वेन सर्वशब्दाप्रामाण्यवादिन शाक्यमाशय दृष्टानां प्राक् प्रामाण्यमाह।
तत्र दृष्टार्थानां वाक्यानां प्रायेण प्रवृत्तिसामर्थ्यात्प्रामाण्य गम्यत इति । ___ तत्रेति दृष्टार्थवाक्यनिरिण। दृष्टार्थानि वाक्यानि पुत्र कामो यजेदित्यादीनि । प्रायेणेति कर्बाद्यवैगुण्ये सतीति ज्ञापनार्थम् । सदगुण्येन मतोऽपि फलस्य नाशात् । प्रवत्तिरिष्टानिष्टादानहानरूप: शारीरो व्यापारः। सामर्थ्य प्रेमितयथोक्तवस्त्वाप्तिः । अयमर्थः । पुत्रकामो यजेत् कारोरों निर्वदृष्टिकाम इत्यादि । दृष्टार्थवाक्यानां पुत्त्रेष्टौ वर्षे वर्षेऽशौचनिर्वृत्तायां पुत्रदृष्टफल. दर्शनात् प्रामाण्यमवगम्यते । यद्येतानि वाक्यानि सत्यानि न घटेरंस्तदा पुष्कलद्रव्यव्ययसाध्ये लेशावहे तदुक्तं कम्मणि न प्रवीणाः प्रवर्त्तरन्न च प्रेप्सितफलानास्तिघ्नुवोरंस्ततो यथा प्रत्यक्षादिक स्वप्रत्यायितमय प्रापयत्प्रमाणत्वेन स्वीचक्रे तथा शब्दोऽपि स्वोतमर्थ प्रापयन् प्रमाणत्वेन स्वीकार्यः । स्वार्थप्रापकत्वेन इयोस्तुल्यत्वात् । अन्यथा शब्दानामर्थसम्बन्धाभावात् व्यर्थवाकत्वेन सूणौकत्वापातात्। अर्थस्थमाचक्षीथा: प्रत्यक्षादि प्रमाणमयसम्बद्धत्वात् । शब्दो न तदभावात् । तन्न । शब्दोऽपि प्रमाणमर्थमम्बद्धत्वादेव । ननु शब्दस्यार्थेन मह कः सम्बन्ध इति चेत् प्रत्यक्षस्यापि स क इति वाच्यम् । ग्राह्यग्राहकभाव इति चेत् । अत्रापि वाच्यवाचकभावी भविष्यति । ततः शब्दः प्रमाण त्वेन स्वीकार्य एव ।
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२१२
न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
तथाच प्रयोगः । शब्दः प्रमाणं स्ववाच्यार्थप्रापणसमर्थत्वात् । प्रत्यक्षवत् । तथा पुत्रकामो यजेदित्यादि दृष्टार्यवाक्यानि प्रमाणानि । काद्यवैगुण्वे सति समर्थप्रवृत्तिजनकत्वात् प्रत्यक्षवदिति ॥ ४॥ अदृष्टार्थानां प्रामाण्यमाचष्टे ।
अदृष्टार्थानां पुनराप्तोक्तत्वेनति ॥ अष्टार्थानि स्वर्गकामो यतेत्यादीनि । पुनः शब्दो दृष्टार्थप्रामाण्यव्यतिरेके । आप्तोक्तत्वेनेति यो यत्रावञ्चकः स तत्राप्तः । यहा प्राप्ती रागद्देषक्षयः सा यस्यास्ति। अभ्रादित्वात् अप्रत्यये स आप्तस्तदुक्तत्वेन प्रामाण्यं गम्यत इति शेषः । अयं भावः । अदृष्टार्थवाक्यानां साक्षादर्थदर्शनाभावादाप्तोतत्वेन प्रामाण्यं गम्यते । नान्यथा । न चाप्तोऽवृतं वक्ति । तद्धेतुरागादिदोषाभावादाप्तत्व हानेश्च | तदुक्तम् ।
आगमो ह्याप्तवचनमाप्तिं दोषक्षयं विदुः ।
क्षीणदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूया त्वसम्भवात् ॥ ५ ॥ परं शत।
कमिति ॥ अत्र कथसिति परप्रश्नः स चैवं प्रश्नयति । ननु यागादौं निष्ठितेऽपि तदात्वेन स्वर्गादिफलानुपलम्भे आप्तोक्तस्य सुतरां दुरवधारणत्वाददृष्टार्थवाक्यानां कथं प्रामाण्यं ज्ञेयमिति ॥ ६ ॥ परिहरति । पुत्रकामी यतत्यादि वाक्यानां प्रवृत्तिसामयात् प्रामाण्य
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२१३
मनुमाय तत्प्रणेतुरतीन्द्रियार्थदर्शित्वेन परमातत्वमवधार्य तमणीतानां सर्ववाक्यानामप्रामाण्ये कारणाभावात् प्रामाण्यमनुमीयत
इति ॥
आगमपरिच्छेदः ।
अदृष्टार्थवाक्यानां प्रायेण प्रवृत्तिसामथ्र्यात् प्रामाख्यं दुर्ज्ञानमिति पुत्रकामो यजेदित्यादिवाक्यानां प्रवृत्तिसामर्थ्यात् प्राक् प्रामाण्यमनुमेयम् । यथा विवादास्पदानि दृष्टार्थवाक्यानि प्रमाणानि । कर्चाद्यवैगुण्ये सति प्रेक्षावत्प्रवत्तेकत्वात् प्रत्यक्षवत् । दृष्टिपूर्त्तावपि कादाचित्कफलवैफल्येन प्रकृतितोर्व्यभिचारनिवृत्त्यर्थं कर्त्ताद्यवैगुण्ये सतीति पदम् । वैगुण्याभावे शान्तिकपौष्टिकादिकम्मैस्वनेकशः फलोपलम्भात् । ततस्तत्प्रीतुदृष्टार्थ वाक्यपणे तुरतीन्द्रिया अचातिक्रान्ता ये इष्टिनिष्पत्त्यनन्तरभविष्णुपुत्रजन्मशान्तिकपौष्टिकादयोऽर्थास्तद्दर्शित्वेन हेतुना परमाप्तत्वमतिसाहाद्यवञ्चकत्वं सर्वज्ञत्वं वा ज्ञेयम् । तथाहि पुत्रकामो यजेदित्यादि वाक्यप्रणेता परमाप्तोऽतीन्द्रियार्थदर्शित्वाहातिरेकेऽस्मदादिवत् । वाक्यानां दृष्टादृष्टार्थानामैककर्त्तृकत्वेन प्रामाण्यमनुमानविषयीक्रियते । यथा दृष्टादृष्टार्थानि सर्व्ववाक्यानि प्रमाणान्यासोक्तत्वात् पित्रादिवाक्यवत् । न चातोक्तत्वमसिद्धम् । विवादास्पदानि वाक्यान्यातप्रणीतानि समर्थप्रवृत्तिजनकत्वे सति वाक्यत्वात् पित्रादिबाक्यवत् । प्रामाण्ये हेतुः अप्रामाण्येत्यादि । बौद्धादिराचान्ताना
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ततस्तत्प्रणीतानामाप्तप्रणीतानां सर्व
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२१४
न्यायतात्पर्यदीपिका। मेकदेशसंवादेऽपि नैरात्माक्षणिकत्वादिकमप्रामाण्य कारणमस्त्यत्र तु प्रमाणोपपनस मस्तवम्तुदेशकत्वेनाप्रामाण्ये न किञ्चित्कारणमस्तीति सर्वाणि वेदवाक्यानि प्रमाणत्वेन स्वीकार्याणि । तथाच प्रयोगः। वेदवाक्यानि प्रमाणत्वेन स्वीकार्याणि अप्रामाण्य - कारणरहितत्वात् पुत्र प्रत्युक्तपित्रादिवाक्यवहातिरेके वञ्चकवाक्यवहा । तदेवं कचित्प्रवृत्तिसामर्थ्यात् क्वचिदाप्तोतत्वात् कारणं त प्रामाण्यं वदता प्रकरणकारेण स्वमते परतः प्रामाण्यं समर्थितं स्वतो निरामि ॥ ७ ॥
ननु पुरुषाणां रागादिदोषकलुषितान्तःकरणत्वेन पौरुषेयत्वाद्देदवाक्यानां प्रामाण्यं न युक्तं किन्तु नित्यत्वात् युक्त मिति जल्पकं परं निराकरोति । ___न नित्यत्वेन वाक्यानां हि नित्यत्वे प्रमाणाभावादिति ॥
न हि वेदः प्रमाणं नित्यत्वादिति वक्तुं शक्यम् । वाक्यानां नित्यत्वे प्रमाणाभावात् । प्रमाणं विना च साध्यसिद्धेरयोगात् । तथाहि तनित्यत्वं प्रत्यक्षेण प्रतीयते अनुमानम वा। न तात्रप्रत्यक्षेण । तस्य विद्यमानेन्द्रिय कवम्तवृत्तित्वेनानादिकालाकलितवस्त्वनवगमात् । न च योगिप्रत्यक्षेणेति वाच्यं तदनभ्युपगमादन्यथा वेदवादिना निर्विवादं सर्वविहादाभ्युपगमः स्यात् । नाप्यनुमानेन' तदविनामावि लिङ्गाभावात् । कर्चस्मरणादिलिङ्गस्यानैकान्तिक - त्वात् ।
अथ नित्या वेदाः संप्रदायाविच्छेदे सत्यस्मयं माणकर्तकत्वादाकाशवदित्यनुमानं नित्यत्वेऽस्तौति चेन्न । विशेषणस्थ
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आगमपरिच्छेदः ।
सन्दिग्धासिडत्वेनास्य हेत्वाभासत्वात् । तथाहि यचादिमतामपि प्रासादादीनां संप्रदायो व्यवच्छिद्यते तदानादीनां वेदानामव्यवच्छेदौ संप्रदायोऽद्यापि विद्यत इत्यस्य दुःश्रवानत्वाद्विशेषणं सन्दिग्धासिद्धम् । विशेष्यमप्येकतरासिद्धं प्रतिवादिनी वेदकर्त्तुः स्मरणात् । यथा ततो यो हि वै वेदांश्च प्रहिणोति इति । प्रजापतिः सोमं राजानमन्वसृजन्त्ततस्त्रयो वेदा अन्वसृजतेति । बृद्धपारम्पर्येत्
संप्रदायाविच्छेदश्व
यथावत्पाठस्तादृशश्चाकाशे
नास्तीति साधनवैकल्यं दृष्टान्तस्य ।
किञ्च वेदकर्षस्मरणं प्रत्यक्षेणानुमानेन वा । यदि प्रत्यक्षेण तर्हि कुमारसम्भवादीनामपि कर्त्तुः प्रत्यक्षास्मरणन्नित्यत्वापत्तिः । नाप्यनुमानेन तस्य वेदकर्चनुभवसाधकत्वात् । तद्यथा यद्येनासम्भवद्विशेषं तत्तेन समानहेतुकं यथा सम्भवहिशेषो घटो घटान्तरेण । असम्भवद्विशेषाणि नित्यवाक्यान्यनित्यवाक्यैरिति । न चायं हेतुरसिद्धस्तद्विशेषस्य कापि केनाप्यप्रतीतत्वात् । दुर्भणत्वादिस्तद्विशेषोऽस्तीति चेत्र । तस्य दुर्वाक्येष्वपि भावात् । शान्तिकहिंस्रादिकर्माविसंवादः सोऽस्तीति चेत् न । तस्यापि क्वापि व्यभिचारेणानैकान्तिकत्वात् ।
।
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अन्यच अपौरुषेयत्वेन नित्यत्वं साध्यते । स चासौ अपौरुषेय: किं सम्बन्ध उत वर्षा उत वाक्यम् । तत्र तादात्मातदुत्पत्तिसंयोगसमवायसंबन्धाः शब्दार्थयोरसम्भवादेव निरस्ताः । वाच्यवाचकभावस्तु चेत् साङ्केतिकस्तदा सङ्केतस्य पुरुषजन्यत्वादपौरुषेयत्वं कथं स्यात् । अथ नित्यः सोऽपि संबन्धिनोः शब्दार्थयोर्नित्यत्वेऽनित्यत्वे वा
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२१६
न्यायतात्पर्यदीपिका। स्यानित्यत्वे सर्वदा सर्वत्र सर्वशब्दार्थप्रतीतिः स्यादपेक्षणीयाभावात्। अनित्यत्वे तु संबन्धस्याप्यनित्यत्वं आधारनाशे सत्याधेयनाशात् । नापि वात्मके वेदे च भेदाप्रतिभामात् य एवं वेदे ककारः स एव लोके प्रतिभातीति भेदाप्रतिभासे प्रत्यभिज्ञाया एवालं. कर्मीणत्वात् । नापि वाक्यं तस्य वर्मव्यूहात्मकत्वात् वर्मानां चोक्तीयुक्तरपौरुषेयत्वाघटनात्। किञ्च ।
ताल्वादिजन्मा ननु वर्मवर्गो वात्मको वेद इति स्फुटच्च । पुंसन ताल्वादिरत: कथं स्यादपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः ॥
यच
वेदस्याध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा ॥ अतीतानागतो कालो वेदकारविवर्जिती।
कालत्वात्तद्यथा कालो वर्तमानः समीक्ष्यते ॥ इत्याद्यं नित्यत्वसाधनम् । तद्यस्मिंस्तस्मिंश्च वाक्ये प्रयोग शक्यमित्युपेक्षणीयमेव ॥ ८॥
ननु यदि नित्यत्वे प्रमाणं नास्ति तमु नित्यत्वे किं प्रमाणमिति परं शशित्वाह।
अनित्यत्वे पुनर्वाक्यत्वाद्यनकमनुमानमिति ॥ अनेकमनुमानमित्यत्र जात्यैकवचनं वाक्यत्वाद्यनुमानानि यथा वेदवाक्यान्यनित्यानि वाक्यत्वाल्लौकिकवाक्यवत् । पौरुषे. याणि वेदवाक्यानि विचित्ररचनात्वात् कालिदासादिवाक्य वत् ।
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आगमपरिच्छेदः ।
वेदसंप्रदायो व्यवच्छिद्यते संग्रदायवाद्याकरणादिसंप्रदायवदित्यादीनि ॥ ८ ॥
प्रसङ्गान्तरमाह । — सर्वदोपलब्धानुपलब्धिप्रसङ्गश्च विपर्यये नियामकाभावादिति ॥
यदि वेदवाक्यानां नित्यत्वं भवेत्तहि नित्यवाह्यापकत्वे सति सर्वदोपलम्भोऽनुपलम्भो वा प्रमज्येतान्यानपेक्षणात् । अयं भावः । किं शब्दानामिन्द्रियग्रहणयोग्यतास्ति न वा । आद्ये कल्ये सर्वशब्दानां नित्यत्वाद्यापकत्वेन सार्वदिक इन्द्रिय सम्बन्धे सति सर्वदा सर्वशब्दोपलब्धिः केन वार्येत । द्वितीयस्मिन् कल्ये त्वनुपलब्धिः सार्वदिक्यापद्येत ग्रहणायोग्यत्वात् । ततोऽपेक्षणीयाभावाद्युक्ते एव सर्वशब्दानां सर्वदोयलब्धानुपलब्धी। तदुक्तम् ।
नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात् ।
अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्व सम्भवः ॥ विपर्यये कदाचिदुपलब्धावनुपलब्धी नियामक स्य व्यवस्थापक स्थाभावात् कदाचिदुपलभ्यते कदाचिनेत्यत्र नियामकं किञ्चिबास्तीत्यर्थः ॥ १० ॥
परमाशङ्कतं ।
अभिव्यञ्जकाभावात् तदनुपलब्धिरिति चेदिति ॥ अभिव्यञ्जकः शब्दप्रकाशको वायुस्तदभावाच्छन्दानुपलब्धिन त्खनित्यभावाकृतेति शेषः ॥ ११ ॥
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२१८
न्यायतात्पर्य दीपिका।
परिहरति ।
न तदनिर्देशादिति ॥ तस्य शब्दाभिव्यञ्जकवायोरनिर्देशो वैशिष्ट्येनाकथनं तम्मा. दभिव्यञकाभावात् कृता तदनुपलब्धिर्भवतीत्यर्थः ॥ १२ ॥ पुनः परं शकते।
वायुसंयोगविभागाविति चेदिति ॥ वक्तः कोष्ठयस्य वायोस्ताल्वोष्ठ पुटादिसम्पर्कः संयोगः । तद्दिश्लेषो विभागस्तौ शब्दोपलब्धानुपलब्धी प्रति हेतूभवतः । कोऽर्थः । यदा वक्त: कोष्ठयो वायुम्ताल्वोष्ठपुटादिष्वभिहन्यते तदा शब्दा अभिव्यज्यन्ते तदभावे नाभिव्यज्यन्त इति ॥ १३ ॥ पुन: प्रसङ्गापादनेन परिहरति ।
न । सर्वशब्दानां युगपद्हणप्रसङ्गादिति ॥ यदि वायुसंयोग एवाभिव्यञ्जकस्तदा युगपत्सर्वशब्दोपलब्धिः प्रसज्येत । व्यञ्जकस्य सर्वशब्दान् प्रति तुल्यत्वात् । यथाऽभिव्यञ्जक प्रदीपसगावे चक्षुरिन्द्रिय ग्राह्याणां घटादीनां युगपदुपन्तम्भस्तथा शब्दाभित्र्यचकवायुसद्भावे श्रोत्रग्रायाणां सर्वशब्दानां युगपटुप. लम्भः स्थादित्यर्थः ॥ १४ ॥ परः प्रश्यति ।
कथमिति ॥ अयमभिसन्धिः परप्रश्नस्य । न हि मया सर्वशब्दामामिक एवाभिव्यनकोऽभ्युपगम्यते । किं तु यावहा शब्दास्तावहाभि
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आगमपरिच्छदः ।
व्यञ्जका इत्यस्माकं सिद्धान्तस्ततो यस्यैव शब्द स्याभिव्यञ्जकस्तस्यैवाभिव्यक्तिर्न मर्वशब्दानां तेन नातिप्रसङ्ग इति ॥ १५ ॥ पूर्वोत युक्त्या पराभिप्रेतं व्यञ्जकनानात्वं विषयिणि निर्लोठयति ।
थोत्रं तावत्समानेन्द्रियग्राह्यममानदेशसमानधर्मापन्नानामर्थानां ग्रहणाय प्रतिनियतसंस्कारकसंस्कायं न भवतीन्द्रियत्वाचक्षुर्वदिति ॥
अभिव्यञ्जकनानात्वखण्डनायेदमनुमानम् । तत्र श्रोत्रं तावदित्यादिः संस्कायं न भवतीति पर्यन्त: पक्षः। इन्द्रियत्वादिति हेतुः । चक्षुर्वदिति दृष्टान्तः। प्रतिनियतेत्यादि । प्रतिनियता एकैकव्यङ्ग्यं प्रति निश्चिताः संस्कारका वायवस्तः । संस्कार्य शब्दग्रहणायाभिमुखीकार्यमिति । समानेन्द्रियग्राह्यादिविशेषण त्रयमर्थानाम् । तेषां च व्यवच्छेदामेवम् । श्रोत्रमर्थानां ग्रहणाय प्रतिनियतसंस्कार कसंस्कायं न भवतीन्द्रियवादित्य ते चतुरादि तत्तमहकारिसहकृतरूपरसाटिग्रहणप्रतिष्णुचित्तेन व्यभिचारस्तन्निवृत्त्यर्थं समानेन्द्रिय ग्राह्येति पदम् । भिन्न देशस्थानुरूपादिग्रह णाय प्रतिनियतदीपादिसंस्कारकसंस्कृतेन चक्षुषानैकान्तापनोदाय समानदेशति पदम् । इदञ्च युगपदिन्ट्रियसंबन्ध मियर्थ द्रवीभूतमिश्रितकृततैलयोः स्वरूपन्नानाय। प्रतिनियतसंस्कारकसंस्कृतन चक्षुषातियाप्तिविच्छित्तये समानधर्मेतिपदम्। अयं भावः । ये समानेन्द्रियग्राह्याः समानदेशाः समानधर्मापनाच शब्दास्तेषां ग्रहणाय प्रतिशब्द मे कैक संस्कारकसंस्काय्यं श्रोत्रं न भवति किंत्वे कसंस्कारकसंस्कृतमेव तान् तथाविधान् शब्दान् युगपड हाति ।
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका |
यथा चक्षुरेकप्रदीपसंस्कृतं समानेन्द्रियग्राह्यसमानदेश समानधर्मापत्रान् घटादीन् युगपदृह्णाति तथानेनानुमानेन परप्रयुक्तं व्यञ्जकनानात्वं खण्डयित्वा युगपत्सर्वशब्दग्रहणं समर्थितम् ॥ १६ ॥ यावन्तः शब्दास्तावन्तोऽभिव्यञ्जका इति पराभिप्रेतश्रोत्रविषयभूतशब्दव्यज्ञ्जकनानात्वं निराचष्टे I
शब्दा वा प्रतिनियत संस्कारक संस्काया न भवन्ति । समानेन्द्रियग्राह्यसमानदेश समानधर्मापन्नत्वे सति युगपदिन्द्रियसंबद्धवाटादिवदिति ॥
२२०
अवानुमाने शब्दाः प्रतिनियत संस्कारक संस्काया न भवन्तीति पक्षः । समानेन्द्रियेत्यादि संबद्धत्वादिति पय्र्यन्तो हेतुः । घटादिवदिति दृष्टान्तः । प्रतिनियतेत्यादि । प्रतिनियता एकेक शब्दं प्रति निश्चिताः । संस्कारका इत्यभिव्यञ्जकाः । समानेन्द्रियादिपदानां व्यवच्छेद्यन्त्वेवम् । युगपदिन्द्रियसंबत्वादित्युक्त हेत एकद्रव्यसमवेतत्वादु युगपञ्चक्षुरादिमंबद्दत्वेऽपि प्रदीपादिप्रतिनियत संस्कारक संस्काय्यै रूपादिभिर्व्यभिचारः स्यात्तनिवृत्त्यर्थं समानेन्द्रियग्राह्मेति पदम् । समानेन्द्रियग्राह्या अपि भिन्नदेशस्था: प्रतिनियत संस्कारक संस्काय्र्या भवन्तौति तत्परिहाराय समानदेशति पदम् । समानेन्द्रियग्राहो समानदेशस्येऽपि द्रवी भूतमिश्रितष्टततेले प्रतिनियतसंस्कारक संस्कायें एवेति तावच्छेदाय समानधर्मेति पदम् । कोऽर्थः । यथा समानेन्द्रियग्राह्य
* The word "समानदेश" is omitted in the text { See page 30.
Lane 5
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आगमपरिच्छेदः ।
२२१
समानदेशसमानधर्मापत्रा घटादयश्चक्षुः प्रति प्रतिनियतसंस्कारकसंस्कार्य्या न भवन्ति किन्वेकप्रदीपसंस्कृताः तहोचरीभवन्ति । तथा समानेन्द्रियग्राह्यसमानदेशसमानधर्मापन्नाः शब्दा अपि श्रोत्रं प्रति प्रतिनियतसंस्कारकसंस्काया न भवन्ति किन्वेकाभि. व्यञ्जकवाय्वभिव्यक्तास्तेन ते सर्वे ग्राहियन्त इति। तदेवमनुमानहयेन वियि विषययोव्यंजक नानात्वनिरासे पूर्वनात्र च समानधर्मेति पदं कैचित्र मन्यन्ते। सर्वथा साधाभावात् । कथञ्चित्साधयं तु युज्यते ॥ १७ ॥
परमतमाशङ्कते।
उत्पत्तिपक्षेऽप्ययं ममानो दोष इति चेदिति ॥
अभिव्यक्तिपक्षे एकव्यञ्जकसद्भावे युगपत्सर्वशब्दग्रहण मिति. यो दोषः प्रोक्तः स भवदभिमत उत्पत्तिपक्षऽपि समानः। एकशब्दोत्पादकवायुसम्पर्के युगपत्सर्वशब्दोत्पादन सर्वशब्दग्रहणप्रसङ्गात् । अथान्योत्यादनेऽलंकर्मीणोऽपि यदर्थ प्रेरितो वायु. स्तमेव करोति नान्यमिति वक्ति तो तदभिव्यक्तिपक्षेऽपि समानम् । तदुक्तम् ।
अन्यार्थ प्रेरितो वायुयधाऽन्यं न करोति सः । तथाऽन्यवर्मसंस्कारशक्तोऽन्यं न करिष्यति ॥ १८ ॥
एतत्परिहरति ।
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२२२.
न्यायतात्पर्य्यदीपिका। न। मृत्पिण्ड प्रदीपदृष्टान्ताभ्यां *कारकव्यनकवैधर्म्यसिद्धेरित्यलमतिप्रसङ्गे नेति ॥
मृत्पिण्डेन प्रदीपन च कारकव्यञ्जकयोमहधर्म्यम् । तेनी त्यत्तिपक्षे त्वदुक्तो दोषो न भवतीति शेषः । अयं भावः । कारकं हि नियतं व्यञ्जकं त्वनियतम् । तथा ह्येको घटोत्पादको मृत्यिण्डो घटमेव घटयति न पटादि । व्यञ्जकश्चैकः प्रदीप: पटायें प्रकाशितोऽपि घटादौनपि प्रकाशयति । ततः कारकव्यञ्जकयोमंत्पिण्ड प्रदीपदृष्टान्ताभ्यां वैधयेसिडेनॆयत्यानयत्वनिष्पत्तेरुत्यत्तिपक्षे युगपत्सर्वशब्दग्रहणप्रसङ्गो न भवतीति ॥ १८ ॥
अथ प्रागुद्दिष्टप्रमाणत्रित्वसंख्यासमर्थन पूर्व पूर्वोकेषु विषु प्रमाणिषु उपमानादिप्रमाणान्यन्तर्भावयति ।
एवमेतानि त्रीण्येव प्रमाणान्येष्वेवोपमानार्थापत्तिमम्भवा भावैतिह्यादौनामन्तर्भाव इति ॥
वीण्ये वेत्य वैवकार: प्रमाण चतुष्वनिरासार्थः । ननूपमानादीनि कि प्रमाणान्य प्रमाणानि वा । आद्य कल्पे तान्यपि लक्षयितव्यानि स्युस्तल्लक्षणोक्तौ च प्रागुक्तप्रमाणवित्वसंख्या विशी येत । हितीये कथं परेषां तानि प्रमाणत्वेन प्रमिडानीत्याशङ्कयाह । ए वेवेत्यादि । अत्राप्येवकारस्त्रित्वान्तर्भावावधारणार्थः। उप .. मानादीनां लक्षणं यथास्थानं वक्ष्यते । श्रादिशब्दाचेष्टालिप्यादीनां परिग्रहः ॥ २० ॥
_ * The totals "संस्कारव्यञ्जक' istori vi कारकव्यक" {St: pite :50. Liller
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आगमपरिच्छेदः ।
२२३ शब्दे उपमानमन्तर्भावयति ।
यथा गौरेवं गवय इत्यपमानं शब्देऽन्तर्भूतमिति ॥ अस्यैवमथैधटना। अप्रेक्षितगवयेन केनापि नागरिकण कोहक गवय इति पृष्टो वनेचरो यथा गौरवं गवय इत्याचष्टे । ततः प्रष्टनिष्टसिताप्तभावस्य वनेचरस्य वचनात्परोक्षेऽपि गवयपिण्डे यादृग्गोस्तादृग्गवय इत्युपमितिप्रमितिरुदेति वनविहारे गवयप्रेक्षणात्साक्षाइवति च । आमवनेचरवचनादुघमानविषयभूत गवयपिण्डे संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतिपत्तेः सम्पन्नत्वादागमस्याप्तवचनरूप. त्वादागमान्तरुपमानमन्तबभूव। तथाच प्रयोगः। यादृग्गीस्तादृग्गवय इत्युपमानं शाब्दमाप्तवचनत्वात् स्वर्गकामो यजेदित्यादिवाक्य वत्। न चैतहाच्यं यादृगौस्तादृग्गवय इति वाक्यं गोसादृश्येन गवयं ज्ञापयत् पृथक्प्रमाण मिति। पृथबुनोदराकारं वृत्तं कुम्भं विभावयेरित्यादिवाक्यानामपि पृथक प्रमाण वापत्तेः । तथाच प्रमाणेय त्तापि विशीर्थे तेत्यलम् ॥ २१ ॥ मीमांसकोक्तमुपमानमपमानर्यात ।
अनेन सदृशौ गौरित्युपमानमिति चेदिति ॥ अरण्यानी विहरमाणस्य पुंसो गोसवर्मपिण्डनिवर्सनामामिका गौरनेन सदृशौति यत् ज्ञानमुन्मोलति तहोपिण्डवदिष्ट
* The reading lopte si ly the contentator here, differs somewhat from the text (Sue page 30, Line 11 ).
1 'The text adds here "मदीया" {See page 30. line 1:21.
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२२४
न्यायतात्पर्य दीपिका।
त्वादिहेतुना प्रत्यक्षादिष्वनन्तर्भवदुपमानमिति पृथक् प्रामाण्यमास्तिघ्नत। ततः कथमस्य शब्देऽन्तर्भाव इति भावः । अत्र प्रयोगः । गवयमादृश्य विषयं गोविज्ञानं पृथक्प्रमाणं प्रत्यक्षाद्यविषयत्वादापत्त्यादिसाध्यार्थवत्। व्यतिरेके घटज्ञानवञ्चेति ॥२२॥ परिहरति ।
न। तस्य स्मृतित्वादिति ॥ अनेन सदृशी मदीया गौरिति परेण यदुपमानमूचे तदुपमानं न भवति । किन्तु स्मरणं गवयदर्शनादनेन गवयेन सदृशी मामिका गेहानुभूता गौरिति ज्ञानस्य स्मृतिरूपत्वात् ॥ २३ ॥ स्मरणमेव समर्थयते ।
पूर्वमेव हि सादृश्यविशिष्ट उपलब्धो गोपिण्डः । कस्मादुपलश्चियोग्यत्वादयोग्य त्वे वा न कदाचिदुपलभ्येतादृष्टवदिति ॥
भूयोऽवयवसामान्ययोग: सादृश्यम् । तच्च गवि गवयेऽप्येकमेव । तेन सादृश्य न विशिष्टो गोपिण्डः पूर्वमेवाश्रय ग्रहणकाले गृहीतः। कस्मादिति परप्रश्नायङ्का सादृश्य विशिष्टगोपिण्डोपलम्भे हेतुः । उपलब्धियोग्यत्वादिन्द्रियग्रहणयोग्यत्वादित्यर्थः । अयं भावः । सादृश्यविशिष्टो गोपिण्डः किमुपलब्धेर्योग्योऽयोग्यो वा । योग्यत्वे उपलब्धियोग्यत्वादेव प्रागप्युपलब्धस्त विशिष्टो गोपिण्डः । प्रयोगयात्र गोनिष्ठं गवय सादृश्यमनुपलब्धगवयोऽपि गोत्वोपलम्भकाले लभते। तदानी इन्द्रियसंबद्दत्वे सत्यपालम्भयोग्यत्वाहीत्ववदिति । अयोग्यत्वे उपलब्धानुचितत्वेऽदृष्टवधर्माधर्मादिवत्र कर्हि चिदुपलभ्येत । उपलभ्यते चावश्यम् । तस्मात् स प्रागप्युपलब्ध एवेति
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प्रागमपरिच्छेदः ।
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प्रतियोगिगवयग्रहणोपस्कृतसंस्कारात् गोस्मरणमेवेदं नोपमानमिति ॥ २४ ॥
ननु यदि प्रागेव गवयमादृश्यविशिष्टो गोपिण्ड: समुपलब्धस्तदा तत्रिर्णयः कुतो नाभूदित्याशङ्कयाह ।
निर्विकल्पकेन तु प्रत्यक्षेण पूर्व सादृश्यमुपलब्धं तेन तदोपलब्धाभिमानो न भवतीति ॥
विकल्पो निश्चयः । स च प्रतियोग्यदर्शनानो जुम्भते । ततः सादृश्यग्रहण काले प्रतियोगिगवयाभावानिर्विकल्यकमेव प्रत्यक्ष प्रावर्त्तिष्ट। तेन च सादृश्यं जगह। तेन हेतुना। तदा गोग्रहणकाले। उपलब्धाभिमानो मया सादृश्यं गृहीतमेवेत्येवं रूपो नोल्लमतीति सादृश्यग्रहणं प्राक् निर्विकल्पकं जातमेवेत्यर्थः ॥ २५ ॥ ___ यदि निर्विकल्पक प्रत्यक्षेण सादृश्यप्रत्यक्षेण सादृश्यमुपलब्ध तहि तस्य संस्काराकरणात् पश्चात्तनिश्वायिका स्मृतिः कथं स्थादित्याशङ्कयाह ।
निर्विकल्पकोपलम्भेऽपि सहकारिमामयादभावादिषु सविकल्पिका स्मृतिर्दृष्टेति ॥
निर्विकल्पक प्रत्यक्षग्रहणेऽपि सहकारिसामयादाश्यादिकरणमाहात्मवादभाव आदिशब्दात् सामान्ये च मविकल्पिका निश्चायिका स्मृति: प्रेक्षाञ्चक्र । अयं भावः । कस्यापि दिदृक्षया
* The test. indas hire “मस्कार" | Sarg
Line 171.
२८
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२२६
न्यायतात्पर्य दीपिका ।
देवकुलं गत्वा तच्चन्यं प्रेच्य व्यावृत्तं कञ्चित्कञ्चिदप्राक्षीत् । अत्रामुकोऽस्ति न वेति । ततस्तस्य निर्विकल्पक प्रत्यक्षग्गृहीताभावस्यापि तद्दर्शनसामर्थ्यात्तत्प्रनाञ्च तत्र नास्त्येवेत्यभावप्रतिपत्तौ सविकल्पका स्मृतिर्जायते । तथा निर्विकल्पक प्रत्यक्षेण गोवग्रहणकाले सादृश्यग्रहणेऽपि गवयदर्शन सहकारिसामध्यात् स्मृतिनिचयात्मिका भविष्यतीत्यनेन सदृशी मदीया गौरिति ज्ञानं स्मरणमेव नतूपमानम् ॥ २६ ॥
लघु नैयायिकमते आप्तवाक्यश्रवणादनु गवये दृष्टे या संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतिपत्तिः सोपमानम् । पृथक् प्रमाणत्वेन खोचक्राणा साम्यागमात्र भिद्यत इति वक्तुमाह ।
संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतिपत्तिरप्याप्तवचनकार्येति ॥
अटव्यामटाट्यमानस्य पुंसो वनेचरवचः श्रवणादनन्तरं गोमन्त्रभे पिण्ड़े प्रेचितंऽस्य गवय इति संज्ञायां गवयसंज्ञया वाच्यः पिण्ड इति या संज्ञासंज्ञिसंबन्धघटना साध्याप्तवचोजन्या तन्मूलत्वान्न तूपमानकार्य्यम् । आप्तवाक्यातिदेशात्परोक्षे गवयपिण्डे कथं संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतिपत्तिरिति चेत् । सादृश्ये सङ्केतकरणात् सादृश्यस्य च गोगवययोरेकत्वात् । अन्यथा व्यक्तीनामानन्त्यासङ्केत करणे सति संज्ञाव्यवहारलोपापत्तेः ॥ २७ ॥
पूर्वोऽर्थे युक्तिमाह ।
तथा प्रश्नोत्तराभिधानादन्यप्रमाणा निर्देशाच्चेति ॥ यथा नागरिकेणाटविको वाचा पृष्ट: कोहग्गवय इति । तथैवाटविकेन म याहग्गोरिति वाचैवोत्तरयाञ्चक्रे ! तत एव च
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आगमपरिच्छेदः।
तस्य संज्ञासंनिसंबन्धप्रतिपत्तिजन्ने। न केवलमेतत् । तथा स्वमुपमाननेदं जानीया इत्यन्यस्य प्रमाणस्याप्रतिपादनाच्च । संज्ञासंज्ञिसंबन्धज्ञानार्थमपि नोपमानं पृथक् प्रमाणत्वेनेष्टव्यम् । तैरर्धक्यादित्यर्थः ॥ २८॥ परमतमाशयन्ते।
अस्य गवयशब्दः संतेति प्रतिपत्तावुपमानसिद्धिस्तथा शब्दाश्रवणादिति चेदिति ॥
न ह्याप्तवाक्यपवणकाले इदन्तया गवयपिण्डे संज्ञासंजिसंबन्धज्ञप्तिरस्ति। अपि तु गोतुल्य स्य कस्यचिदर्थस्य गवय. शब्दो वाचक इति सामान्यत: प्रतीतिस्तत: श्रोता तहाक्यात् सामान्येन गृहीतसंबन्धोऽरण्यानों पर्यटन् गोसक्षं पिण्डं प्रेक्ष्य स्मताप्तवाक्यार्थोऽस्य गवयशब्दः संज्ञेति यदा प्रतिपद्यतं तदीयमानं पृथक् प्रमाणं भवति । अत्र हेतुः। तथेत्यादि । यथा प्रश्नकाले यादृग्गौस्तादृग्गवय इति शब्दथवणं तथा गवयवीक्षणक्षणेऽस्य गवयशब्दः संज्ञेति शब्दानाकर्मनात् ॥ २६ ॥ परिहरति ।
एवं तर्हि गौरमित्येवं सङ्केतऽस्य गोशब्दः संज्ञेति प्रतिपत्तों प्रमाणान्तरं वाच्यं समानन्यायत्वादिति ॥ ___ एवमिति प्राप्तवाक्यादेव संज्ञासंनिसंबन्धप्रतियत्तौ जातायां यदि प्रमाणान्तरमुपमानं स्वीक्रियसे तर्हि केनाप्याप्तेन पुरो
___ * 'The Text reils "सवा शब्दास श्रावणादिति " (Sce page 32. Line :3 1.
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२२८
न्यायतात्पर्यदीपिका।
वर्तिनि गोपिण्डे गौरयमित्येवं सङ्कत ग्राहिते यदाऽस्य गोपिण्डस्य गोशब्दः संन्नेति प्रतिपत्तिस्तदापि प्रमाणान्तरं वाच्यं स्यात् । गोपिण्डे गवयपिगड़े च मजासंनिसंबन्धस्य समानन्यायत्वात् ॥३०॥ प्रसङ्गापादनेन पुन: परिहरति ।
गोपिण्डान्तरेऽपि सङ्केतग्रहणे प्रमाणान्तराभिधानप्रसङ्ग इति ॥
यथै कस्मिन् गोपिण्ड गौरिति सङ्कतग्रहेऽस्य गोशब्दः संसति प्रतिपत्त्यर्थं प्रमाणान्तरमिष्यते । तथा गोपिण्डान्तरेऽपि शब्दादन्यान्य गोपिण्डे च प्रमाणान्तरं वाच्यं भवेत् । तथाचानवस्थादिदोषापत्तिः ॥ ३१ ॥ पुनः परमतं शकते।
तथाशब्दानभिधानऽपि प्रतिपादकप्रतिपाद्ययोरेवमभिप्राय इंटशस्य सर्वस्य गोशब्दः संज्ञेति सामर्थ्याधं प्रतिपत्तिरिति चेदिति ॥
तयेत्यादि तथाशब्दोऽस्य गोशब्दः संज्ञेति शब्दस्त स्याप्रतिपादनेऽपि । प्रतिपादक इति संप्रतिपन्नो वक्ता। प्रतिपाद्य इति सन्दिग्धो विप्रतिपन्नो वा। सामर्थ्यमिति दयोरप्यूहनशक्तिविशेषः। केवलव्यतिरेकी वा । यथा गोशब्दोऽस्य सानादिमतो वाचक:। सति वृत्त्यन्तरे डैरत्र प्रयुक्तावान यदेवं न तदेवं यथा घट इति। है धमिति प्रतिपादकगतलेन प्रतिपाद्यगतत्वेन च । अथवा वैधमिति पुरोवर्तिगोपिण्डगतत्वेन तज्जातीय गोपिण्डगतखेन च। अयमर्थः । अयं पिण्डो गौरिति सङ्केतग्रहणक्षोऽस्य
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प्रागमपरिच्छेदः ।
२२८
गोशब्दः संज्ञेति वाक्यानुच्चापि सतग्राहकस्यायमाशयो यन्मयायं प्रतिपाद्यः । सर्वस्यापीदृशस्य सानादिमतः पिण्डस्य गौरिति सङ्केतः ग्राहितोऽस्ति पिण्डान्तरे स्वयमेव ज्ञास्यतीति प्रतियाद्य स्याप्ययमाशयो यदह प्रतिपादकेनेदृक्षस्य मात्रादिमत: सर्वस्यापि पिण्डस्य गौरिति सङ्केतं ज्ञापितोस्मोहगन्धोऽपि मया गोशब्देन वाच्य इति ।
इत्युभयोः सामर्थ्यात् जहशक्तिविशेषात् प्रागुक्त केवलयतिरेकिणोऽपि विधा प्रतिपत्तिभवति । तत: प्रमाणान्तराभिधानप्रसङ्गोऽयुक्त इति भावः ॥ ३२ ॥ परोक्षपरिहार स्वपक्षेऽपि प्रेक्षयति ।
समानमेतदत्रापि गोमहशो गवय इति शब्दादुभयोरेवमभिप्रायो गोसदृशस्यार्थस्य गवयशब्दः संज्ञेति सामयादेवं प्रतिपत्तिरिति॥
अत्रापीति यादृग्गीस्तादृग्गवय इति स्थलेऽपि । उभयोरिति प्रतिपादक प्रतिपाद्ययोः। एवमिति यथा त्वन्मते प्रतिपाद्यप्रतिपादकाभिप्रायवशात् प्रमाणं विनापि संज्ञासंनिसबन्धप्रतिपत्तिस्तथास्मन्मतेऽपि । शेषं व्यक्तम् ॥ ३३ ॥
नवाप्तवाक्यादप्रत्यचे गवये कथं संज्ञासंनिसबन्धघटनेत्याशय परिहरति ।
न च प्रत्यक्ष एवार्थे संज्ञासंज्ञिमंबन्ध प्रतिपत्तिरप्रत्यक्षेऽपि शक्रादौ संज्ञासंनिसंबन्धप्रतिपत्तिदर्शनादिति ॥
शकादाविति । य: सुराणामधीशः स्वाराज्यभोक्ता च स
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२३०
न्यायतात्पर्यदीपिका। शक्र इत्यनया प्रक्रियया प्रत्यक्षवदप्रत्यक्षेऽप्यर्थे संज्ञासंज्ञिसंबन्धघटना सुघटैव । न चैवं प्रत्यक्षं संज्ञाकर्मेत्यस्य मुख्य सूत्रस्य विरोधः । अत्र प्रत्यक्षशब्दस्य संज्ञानिवेशयोग्यवस्तुनि दृढ़प्रमाणावगमार्थखात् ॥ ३४॥
अथ प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा: प्रमाणानौत्यक्षपादप्रणीत. प्रमाणभेदाभिधाटसूत्रविरोधं शन्ते ।
सूत्रविरोध इति चेदिति ॥ इहागमे उपमानान्तर्भावेन प्रमाणत्रित्वाभिधानात् मुख्यसूत्रेषपमानपार्थक्येन प्रमाणचतुष्वाभिधानात् विरोध: सम्पन्न इत्यर्थः ॥ ३५॥ मूत्रविरोधं परिहरति ।
न। प्रमाणनिग्रहस्थानाभ्यां दृष्टान्तहेवाभासादीनामिव प्रयोजनवशेन पृथगभिधानादिति ॥
प्रमाणेत्यादि । यथा प्रमाणनिग्रहस्थानाभ्यां कृत्वा लब्धाना. मपि दृष्टान्तहेत्वाभासादीनां मूलसूत्रे प्रयोजनवशात् पृथगभिधानं कृतं तथागमान्तर्भूतस्याप्युपमानस्य पृथभिधानम् । अयं भावः । प्रमाण प्रमेयसंशयप्रयोजनेत्याद्यक्षपादोतामूलसूत्रे प्रमाणान्तर्गतो. ऽपि दृष्टान्तो निग्रहस्थानान्तर्गता अपि हेवाभासा: शिष्यशे मुषोसमुन्मेष कार्यवशाद्यथा पृथगुक्तास्तथागमान्तर्गतमप्युपमानं मूलसूत्रे पृथगुक्तमिति ॥ ३६ ॥ परोऽमुयुक्त।
तहि प्रयोजनं वाचमिति ॥
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पागमपरिच्छेदः ।
२३१
उपमान पृथगभिधानस्येति शेषः ॥ ३७॥ प्रयोजनं व्यनक्ति ।
*शब्दप्रामाण्यसमर्थनमिति ॥ उपमानपृथक्थनस्य प्रयोजनमिति वाक्यशेषः ॥ ३८॥ परः पृच्छति।
कथमिति ॥ कथं शब्दप्रामाण्यसमर्थन मिति शब्दार्थः ॥ ३८ ॥ अथ समर्थनं पराक्षेपपूर्वं भवतीति प्राक् पराक्षेपमुपक्षिपति ।
केचिदाहुः प्रत्यक्षानुमानविषयत्वे शब्दस्यानुवादकत्वं तदविषयत्वे संबन्धाग्रहणादवाचकत्वमिति ॥
केचिदिति ताथागताः। प्रत्यक्षेत्यादि प्रत्यक्षानुमानयो ? विषयः सोऽम्युपचारात् प्रत्यक्षानुमान ते विषयो यस्यासौ प्रत्यक्षा. नुमानविषयः । यहा प्रत्यक्षानुमानयोविषय एव विषयो यस्ये. त्यष्टमुखादय इति सूत्रेणैक विषयपदलीपो समासः। तद्भाव: प्रत्यक्षानुमानविषयत्वं तस्मिन् । अनुवादकत्वमिति अन्यप्रमाणग्टहीतेक विषयत्वम् । तदविषयत्वे इति प्रत्यक्षानुमानविषयाविषयत्वे। संबन्धेति शब्दस्य विषयेण सह वाच्यवाचकभावसंबन्धस्तद्ग्रहणम् । प्रत्यक्षानुमानाविषयत्वादेव । अवाचकत्वमिति प्रर्थाप्रत्यायकत्वम् । अयमर्थः। प्रमाणेन हि विषयवतैव भाव्यम् । विषयश्च दृश्यादृश्यरूपः प्रत्यक्षानुमानगम्यः । ततः
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__ * 'The Text_rculy "उच्चते शब्दप्रामाण्यसमर्थनं प्रयोजनम्" ( See page 31. Line 15 );
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२३२
न्यायतात्पर्यदौपिका।
शब्दः प्रमाणं भवन् कि प्रत्यक्षानुमानविषयस्तदविषयविषयो वा। तत्र नाद्यः कल्प: सुजल्पः । प्रत्यक्षानुमानप्रमितार्थप्रमापकवेन शब्द स्यानुवादकत्वात् । प्रमाणान्तरगृहीतकविषयत्वस्यैवानुवादक लक्षणात् । अनुवादकस्य तु स्मृतरिवाप्रामाण्यभूमित्वात् । प्रयोगश्चात् । शब्दोऽप्रमाणं प्रमाणान्तरप्रमितार्थप्रमापकत्वात् स्मृतिवदिति। द्वितीये तु प्रत्यक्षानुमानाविषयत्वेन वाच्यवाचकभावसंबन्धाग्रहणाच्छब्दस्यावाचकत्वं स्यात् । यतः शब्दार्थयोः संबन्धी वाच्यवाचकभाव: स प्रत्यक्षगम्योऽनुमानगम्यो वा स्यात् । न च तद्विषयं स्वीकृतमिति ॥ ४० ॥
पदेनैवार्थ: प्रतिपाद्यः । तत्र पदं सङ्केत्यतामित्यागका पर: प्राह ।
पदार्थस्याप्रसिद्धत्वान्न पदेन संबन्धग्रहण मितरेतराश्रयत्वादिति ॥ . पदं सुप्तिङन्तं तस्यार्थोऽभिधेयस्तस्यान्यप्रमाणाविषयत्वेनाजातत्वात्यदेनार्थस्य संबन्धग्रहणं न जाघव्यते । अत्र हेतुः । इतरेतराश्रयत्वादन्योन्याश्रयदोषापातादित्यर्थः । तथाहि पदेन पदार्थे प्रसिडे सति संबन्धग्रहणं संबन्धग्रहणे च सिद्दे पदेन पदार्थस्य प्रसिद्धिरित्यन्योन्याश्रय स्य प्रकटदोषत्वात् ॥ ४१ ॥ . ननु पदैन पदार्थसंबन्धग्रहणं मा म्म घटिष्ट वाक्यार्थेन तु पदार्थसंबन्धो ग्रहीष्यत इत्येतदपि निराचष्टे ।
वाक्यार्थस्तु प्रसिद्धानां पदानामन्वयमात्रमिति ॥ उचते स्वोचितोऽर्थोऽनेनेति वाक्यम् । पदानामन्योन्यापेक्षाणां
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पागमपरिच्छेदः ।
२३३
संहतिर्वाक्य मिति वाक्य ल म । तस्यार्थो वाचः । प्रमिदानामिति केनापि प्रमाणन पूर्व रूढ़ानाम् । पढार्थानामिति स्पष्टम् । अयमर्थः । केनापि प्रमाणेन प्रसिद्धा ये पदार्थास्तेषामाकाहासविधियोग्यतावशाद्यदन्वयमात्रं मिथो मेलमात्र म बाक्मार्यो भवति । तस्माच कथं संबचावबोधस्त त्रामामात् । एवं च वाक्यार्थासंबन्धाग्रहणे पदार्थाप्रसिद्धिस्तदप्रसिद्धौ च वाक्यार्थाप्रसिद्धिरिति कथं शब्दस्य प्रामाण्यम्। एतत्य यन्तं केचिदाहुरित्यनेन संबन्धः ॥ ४२ ॥ एवं पराक्षेपमुपक्षिप्य तत्परिहारायोपमानोपायमाह ।
तविराकरणार्थमुपमानं निदर्शनार्थत्वेन पृथगुक्तम् । यथा कायार्थिनोऽप्रसिद्धगवयस्य प्रमिहगोमादृश्यं उपादायोपमाना. खेन वाक्येन मनासनिमंबन्धप्रतिपत्तिः क्रियते तथा किञ्चिनिमित्तमुपादाय शक्रादिपदपदार्थयोरपौति । तस्मादन्यार्थत्वात् न सूत्रविरोध इति ।
तविराकरणामिति परोक्षशब्दाप्रामाण्यापास्तये। निदर्शनार्थत्वेनेति दृष्टान्तप्रयोजनत्वेन । कायार्थिन इति गवयस्वरूपं जिज्ञासोः । किञ्चित्रिमित्तमिति सुरेश्वरत्वसहस्राक्षत्वादिकम् । गद्यान्तःस्र्थनापीतिशब्देन सत्तासंझिसम्बन्ध प्रतिपत्तिः क्रियत इत्यनुवर्तनीयम् । अयमर्थः । यथा केनाप्याप्तेनाविज्ञातगवयस्य स्वरूपं जिज्ञासमानस्य पुंसस्तत् ज्ञातं गोसादृश्यं गृहीत्वा यादृग्गीस्ता. दृग्गवय इत्युपमानवाक्येन परोचेऽपि मववे संज्ञासंत्रिमंबन्धी
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२३४
न्यायतात्पर्य दीपिका। जाप्यते। तथा प्रसिद्ध क्रादिपदार्थस्य शक्रादिपदार्थ जिज्ञामोस्तज्ज्ञानन देवेश्वरत्वसहस्राक्षत्वादिना निमित्तेन परोक्षेऽपि शकादो मंज्ञासंज्ञिसंबन्धी बोध्यते । न च वाच्यं यस्य निमित्तमध्यप्रसिद्धं तस्य कथं संज्ञासंज्ञिसंबन्धो बोध्यत इति। तस्य सर्वथा विप्रतिपन्नस्योपदेशं प्रति बालमूकवदनधिकारात्। ततश्च मूलसूत्रे प्रागुक्त युक्त्वा परोक्तशब्दाप्रामाण्यानिम्तहणायोपमान स्य पृथक्कथनादत्रागमान्तर्भावेऽपि न मूत्रविरोधः। तथा प्रत्यक्षानुमानविषयत्वे शब्दस्यानुवादकत्वाद्यदप्रामाण्यमुक्तं तन्त्र युक्तम् । तथाभ्युपगमात्। अन्यथा तवापि प्रत्यक्षानुमानयोमिथो विषयपरिच्छेत्तृत्वेनाप्रामाण्यापातात्। शब्दप्रामाण्यस्य प्रागपि समर्थितत्वाञ्च ॥ १३ ॥
ननु यदि मूल सूत्रकरुपमानं पृथक् प्रमाणमिति नेष्टं तर्वाक्षेपपूर्व परोक्षाचक्रे किमितीत्याह।
परीक्षा त्वर्थापत्तिवत्प्रमाणस्य सतः प्रमाणेष्वन्तर्भावज्ञापनार्थमिति ॥
यथा पृथक् प्रमाणत्वेनानिष्टाप्यापत्तिः प्रमाणत्वेन परीक्षानुमानेऽन्तरभावि तथोपमानमपि प्रमाणतया परीक्षागमेन्तर. भावीति भावः ॥ ४४॥
ननु मूलसूत्रे उपमानान्तर्भावो निषिद्धस्तत: सूबविरोधः तदवस्थ एवेति परिहरति ।
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आगमपरिच्छेदः ।
२३५
अन्तर्भावस्त्वनुमान एवास्य यथाश्रुतोऽपि निराकतो नागमे इति। ___ यथाश्रुत इति यथा पूर्वावर्णितः। अयं भावः । उपमान परार्थानुमानं सादृश्य लिङ्गेन परोक्षार्थानुमापकत्वात् धूमानुमानवदित्यनुमानेन परार्थानुमान उयमानस्य योऽन्तर्भावः स प्रतिषिडो मूलसूत्रे नवागमे। कथमनुमानेऽस्यान्तर्भावनिषेध इति चेत् । उच्यते । ___ नन्वनुमानं लिङ्गलिङ्गिभावेन दृष्टम् । तत उपमाने सादृश्यं चेल्लिङ्गं तर्हि लिङ्गी कः । गोश्चेत्र । तस्य प्राक् परिच्छिनत्वात् । गवयश्चेन्न । तस्य प्रत्यक्षविषयत्वात् । सादृश्यं चेन्न । तस्य प्रागपि लिङ्गत्वेनोक्तत्वात् । अतोऽनुमानलक्षणाभावादुपमानस्यानुमानान्तर्भावो न युक्तः । प्रयोगशात्र । उपमानं नानुमानमाप्तवाक्येनार्थप्रतिपादकत्वात् पुत्रकामो यजेदित्यादि वाक्यवदिति ॥ ४५ ॥
ननु मूलसूत्रे चतुष्वाभिधानादिह त्रित्वाभिधानं विरुडमित्याशङ्का परिहरति ।
चतुष्ट्वाभिधानं सूत्रेषु पञ्चत्वादिनिराकरणार्थं न त्रिस्वनिषेधार्थ प्रमाणसिद्धत्वादन्तर्भावस्येति ।
चतुमी प्रमाणानां भावश्चतुष्वम्। मूलसूत्र प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानौति यन्त्रमाणचतुवमुक्तं तद्यथा प्रमाणानि
__* The word "यथाम्मूतोऽपि" is smitted in the text (See nuge 32,
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२३६
न्यायतात्पर्यदीपिका।
पञ्च षड़ा न भवन्ति तदर्थम् । न पुन: प्रमाणत्रित्वनिवृत्त्यर्थम् । अत्र हेतुः। श्रागमे उपमानान्तर्भावस्य प्रमाणसिहत्वात् । अन्तर्भावकं च प्रमाणं प्रारीवोपन्यस्तम् ॥ ४६ ॥ परमतं शकते।
त्रित्वानभिधानादयुक्तमिति चेदिति ॥ मूलसूत्रे चतुष्टं पञ्चत्वादिनिषेधार्थ मुक्तं न बित्वनिषेधार्थमिति यदुच्यते । तदयुक्तम् । सूत्रान्तः शापि त्रित्वानभिधानात् यदि सूत्रकारस्त्रित्वमेवाभ्यल षिष्यहि तदेव काप्यभपियन चाभामोत्तस्मात्सूत्र विरोधस्तदवस्थ इति भावः ॥ ४७ ॥ परिहरति ।
न । अस्य सूत्रकारस्यैवं स्वभावत्वाद्यत् सिद्धान्तमपि क्वचि. नाभिधत्ते यथा कृत्स्नैकदेशविकल्पादिनाऽक्यविनिराकरण इति ।
सूत्रकारः प्रमाणवित्वाभिलाषुकोऽपि यत्रित्वं नाचख्यो। तन्नायुक्तमस्य मूत्र कत्तुरेवंप्रतिकत्वात् । एवं कथमित्याह । यसिद्धान्तेत्यादि। यदसौ कचिमिडान्तमपि स्वपक्षस्थापनमपि नाचष्टे। कुत्रेदं दृष्टमित्याह। यथा कस्नेकदेशेत्यादि । क्वचिदक्षपादाचार्यस्य शास्त्रे आत्मवादे प्रस्तुते शाक्य कप्त: करस्यैकदेशविकल्पादिनाऽक्यविनो निरासोऽस्ति । तथाहि । किमवयव्यवयवेषु वर्तते न वा। आये कल्पे किं काभ्रानैकदेशेन वा । कात्नेन वृत्तावकस्मिन्नेवावयवे परिसमाप्तत्वात्तदने कावयव. हत्तित्वं न स्यात् । एकदेशन वृत्तौ निरंशत्वं तस्योपनतं विरुध्येत ।
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आगमपरिच्छेदः ।
सांशत्वे वा तेऽप्यंशस्ततो मिश्रा अभिन्ना वा भवेयुः । भिन्नत्वे पुनरप्यनेकांशवृत्तेरेकस्य का सोक देश विकल्पनानतिक्रमादनवस्थादौस्थानुषङ्गः । अभिन्नत्वे न केचिदशाः स्युः । द्वितीयेऽवयव्येव न स्यादवयव संबन्धाभावादित्यवयविनि निराकृतेऽपि सूत्रकारः शाकां प्रत्यवयविव्यवस्थापनाय स्वसिद्धान्तं नावातीतरमौलाशीलत्वात् । अवयवस्थापने सिद्धान्तश्चैवं काकदेशादिविकल्पानां स्वपरसिद्धान्तयोरसिद्धत्वादखोकार एव परोहारः । तर्हि कथं तत्र स वर्त्तत इति चेत् । स्वरूपेणाश्रयाश्रितभावलक्षण्या वृत्त्या व वर्त्तत तथाच क भवदुक्त विकल्प जल्पावकाशः ॥ ४८ ॥
1
किमर्थं स्वसिद्धान्तानभिधानमित्याह ।
शिष्याणामूहादिशत्यतिशययुक्तानामेवात्राधिकारज्ञापनार्थ
मिति ॥
जह: स्वबुद्ध्या सिद्धान्तावबोधः । श्रादिशब्दादा क्षेपक्षमस्वादि । तच्छक्तिवैभवभासुराणामेव च्छात्राणामत्र स्वन्यायशास्त्रेऽध्ययनाधिकार प्रबोधनार्थ स्वसिद्धान्तानभिधानम् । तैरेवमस्मच्छास्त्रमध्ये तुमधिकर्त्तव्यं ये खबुद्याक्षिपसमाधी विदधीरनिति
भावः ॥ ४८ ॥
उपसंहरति ।
तस्मात् स्थितमुपमानं शब्देऽन्तर्भूतमिति 11
स्पष्टम् ॥ ५० ॥
अथार्थापत्तिमनुमानेऽन्तर्भावयति ।
२३७
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका। अर्थापत्तेरप्यनुमानेऽन्तर्भावोऽविनाभावबलेनाथप्रतिपत्तिसाध. नत्वादिति ॥
दृष्टः श्रुतो वार्थो येन विना नोपपद्यते तस्यार्थस्य परि. कल्पनमपत्तिस्तस्या अप्यनुमानेऽन्तर्भावो भवति । न केवलं आगमे उपमानान्तर्भाव इत्यपेरर्थः । अत्र हेतुः। अविनाभावत्यादि। अविनाभावः स्वभावत: साध्येन साधनस्य व्याप्तिः । सहलेन तसामर्थ्य न माध्यार्थ नप्तिहेतुत्वात्। अयं भावः । प्रत्यक्षादिप्रमाणषटकपरिच्छिन्नः पौनवाद्यर्थी रात्रीभोजनादि विनान्यथा असम्भवजन्यमदृष्टं रात्रिभोजनादिरूपमई यत्र कल्पयेत् सार्थापत्ति: प्रमाणं स्यात् । तदुक्तं
प्रमाणषटकविज्ञातो यत्रार्थोऽनन्यधाभवन् ।
अदृष्टं कल्पये टन्यं सार्थापत्तिरु दाहता ॥ एतादृश्यर्थापत्तिरविनाभावव लेनार्थं गमयन्त्यनुमानमेव । तथा हर्यापत्त्यस्यापकोऽर्थोऽन्यथानुपपद्यमानत्वेनानवगतोऽवगती वा अदृष्टार्थकल्पकः स्यात् । आये कल्येऽतिप्रमङ्गः। द्वितीयेऽन्यथानुपपद्यमानत्वावगमोऽर्थापत्तेः प्रमाणान्तरादा। प्राचि पनेऽन्योन्याश्रयोऽन्यथानुपपद्यमानत्वेन ज्ञातादर्थादर्थापत्तिरीपत्तेरन्यथानुपपद्यमानत्वज्ञप्तिरिति । हितीये साध्यधर्मिणि भूयो. दर्शनं विपक्षेऽनुपलम्भो वा। प्रश्रमपक्षे भूयो दर्शनादेव साध्यज्ञप्तावापतर्वैयर्थम् । हितोयेऽनिश्चितो निश्चितो वा माग्विकल्पे तत्पत्रादेरपि गमकत्वापत्तिः । तोयिकेऽनुमानमेवाथोपत्तिनिश्चितान्यथामुपपन्नत्वस्यानुमानरूपत्वात् । प्रयोगशवम् ।
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प्रागमपरिच्छेदः ।
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अर्थापत्तिरनुमानं अविनाभावबलेनार्थ प्रतिपत्तिसाधनबाड़मादि. वदिति ॥ ५१ ॥ अविनाभावमेव दर्शयति । __ अन्यथा नोपपद्यत इत्युक्ते सत्येवोपपद्यत इति लभ्यते । अय. मेवाविनाभाव इति ॥
एतदर्थो दृष्टान्तेन स्पष्टोक्रियते । यथा पोनो देवदत्तो दिवा न भक्त तावश्यं रात्रौ भुक्त। भोजनं विना पौनत्वस्यान्यथानुपपत्तेरिति । कश्चिद्देवदत्तं पीनं दृष्ट्वा किनिदाह । अहो देवदत्तः पोनः परं दिवा न भुंक्त । तेनोक्तं यदि दिवा न भुंक्त तह्मवश्यं रात्री भुक्त तहिना पीनत्वस्यायोगात् । अत्र पोनत्वं साधनं रात्रिभोजनं च साध्यम् । पीनत्वं च रात्रिभोजने सत्यैवोपपद्यमानमन्यथानुपपद्यमानं रात्रिभोजनेन सहाविनाभाव्येव । ततोऽविनाभावविभावितस्वभावार्थापत्तिरनुमानम्। तथा जीवन् देवदत्तो रहे नास्ति । तवश्यं बहिरस्ति जीवत्त्वस्थान्यथानुपपत्तेरियाद्यर्थापत्त्युदाहरणानि स्वयमूह्यानि ॥ ५२ ॥ परमतं शकते।
यत्र सामान्याकारणान्वयग्रहणं नास्ति । यथा मुख्यकारणवाप्रतिबद्धशत्योस्तवार्थापत्तिः पृथक् प्रमागामिति चेदिति ॥
अन्वयेति । साध्यसामान्येन साधनसामान्यस्य व्याप्तिरन्वयः । कारणत्वमिति। मुख्य कारणानि समवाय्यादीनि त्रीणि यदनन्तरमेव कार्यनिष्पत्तिस्तत्र समवायिकारणं द्रव्यमेव । समवायि
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२४०
न्यायतात्पर्यदीपिका।
कारण प्रत्यासत्रमेव धृतसामर्थ्यमसमवायिकारणम् । साहाय्यमात्रे व्याप्रियमाणं निमित्तकारणम्। तेषां भावो मुख्यकारणत्वम् । अप्रतिबद्धशक्ति रिति। न प्रतिबद्या मणिमन्त्रादिभिः शक्तिर्यस्ये त्यप्रतिबद्धशतिरन्यादिः । अयमर्थः । कार्य निष्पत्ति: मकलकारणसाकल्यात् दृष्टादृष्टभेदेन कारणानां भूयस्त्वात् । न च कारणसाकल्यं कचिदस्मदादिप्रत्यक्षं किन्तु कार्यनिष्यत्त्युबेयम् । तथाऽप्रतिबद्वशक्तिर्वयादिः स्फोटादिकार्यमर्जति । अप्रतिबडशक्ति त्वमपि च दुर्लक्ष्यम् । प्रतिबन्धकानां मणिमन्त्रादीनामनन्तत्वात् । ततो यत्र मुख्य कारणत्वस्याप्रतिबद्धशक्तेश्च वयादर्जप्ती प्रत्यक्षाप्रवृत्त्या सामान्याकारणाप्यन्वयव्याप्तिग्रहणं नास्ति तत्रान्वयाभावादनुमानानुत्थानेऽपत्तिः पृथक् प्रमाणं भविष्यति । यथा अत्र सन्ति सकलसहकारिकारणानि कार्योत्पत्त्यन्यथानुपपत्तेस्तथा अनास्त्य प्रतिबद्धशक्तिवाटिः स्फोटादिकार्यान्यथानुपपत्तेश्च ततोऽर्थापत्त्यन्तर्भावोऽनुमान न युक्त इति भावः ॥ ५३ ॥
परिहरति ।
न। तत्रापि केवलव्यतिरेक्यनुमानाव्यतिरेकात् । केवलव्यतिरेक्यर्थापत्तिरिति संज्ञाभेदमानमिति ॥
केवलव्यतिरेकी ति । पक्षव्यापकोऽविद्यमानसपक्षो विपक्षायावृत्ती हेतुः केवलव्यतिरेकी। अव्यतिरेके ति अनधिकत्वम् । केवलव्यतिरेक्यनुमानेनैवार्थापत्तिसाध्यमिद्धावपत्तिप्रमाणाधिक्यं न भवतीत्यर्थः । कथं केवल व्यतिरेकीति चेदुच्यते । कार्योत्पत्ति
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प्राममपरिच्छेदः ।
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पूर्व क्षण कारणानि सकलमहकारिसमेतानि समस्त प्रतिबन्धक शून्यानि वा अनन्तरमेव कार्योत्यादकत्वान्न यदेवं न तदेवं यथा केवल मृन्मणिप्रतिबद्धो वहिर्वेति । तत: केवलव्यतिरेक्यांपत्त्योनामैव भेदो न वस्तुत इति भावः ॥ ५४ ॥ पुनः परमतं शकते।
अन्वयाभावात्र तदनुमानमिति चेदिति ॥ यदेवान्वयव्याप्तिमत्तदेवानुमानम् । केवलव्यतिरेकी त्वन्वया भावादनुमानं न भवति । किन्त्वपत्तिरित्यर्थः ॥ ५५ ॥ परिहरति ।
न। केवलान्वयिनो व्यतिरेकाभावेन प्रमाणान्तरत्वप्रसङ्गा. दिति ॥
यद्यन्वयाभावात् केवलयतिरेको नानुमानमियत । तहि केवलान्वय्यपि नानुमानं किं तु प्रमाणान्तरं स्यात्तल्य न्याय. त्वात् ॥ ५६ ॥ प्रसङ्गान्तरमप्याह ।
अपिच प्रत्यक्षादिभेदानां किञ्चिधात् प्रमाणान्तरवप्रसङ्ग इति ॥
यद्यन्वयव्याप्ताभावात् केवलव्यतिरेको पृथक् प्रमाणमियत तदा निर्विकल्पकस विकल्प कयोग्ययोगिरूपाणां प्रत्यक्षभेदानां कार्यकरणानुभयात्मनामनुमानभेदानां दृष्टादृष्टरूपयोः शब्दभेदयोश्व किञ्चिदै सदृश्यात् पृथक् पृथक् प्रामाण्यमनुषज्येतेति ॥ ५७॥
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२४३
न्यायतात्पर्य दीपिका।
उपमहरति ।
तस्मादविनाभावबलेनार्थप्रतिपादकत्वादपत्तिरनुमानमिति ॥
स्पष्टम् ॥ ५८ ॥ ___ अथ सहस्रे पातं सम्भवतीति ज्ञाने मम्भवः पृथक प्रमाणं परैः स्त्रीचक्रे तदप्यनुमानेऽन्तर्भावयति । ___ बहुत्वसंख्याविषयत्वे सत्यल्पसंख्याविषयस्य सर्वत्रीपलब्धत्वान्ना. नुमानासम्भवो भिद्यत इति ॥
सम्भवति बहुवे त्वल्पत्वमिति सम्भवः । समुदायेन समुदायिनोऽवगमः सम्भव इति सम्भवलक्षणम् । बहुत्वसंख्याविषयल्वे सहस्रादिसंख्यागोचरत्वे सत्यल्पसंख्याविषयस्य शतादिद्रव्यरूपस्य सर्वत्र संख्यादौ प्राप्तत्वादनुमानात् सम्भवो न पृथग्भवति । समुदायममुदायिनोरविनाभावत्वेनानुमानरूपत्वात् । तथाहि विवादास्पदं सहस्रं स्वसमुदायिशतवत्महत्वात् पूर्वगणितसहस्रवदिति । एवं खायां द्रोण इत्याद्यपि ॥ ५८ ॥ अथाभावमागमादि प्रमाणत्रितये यथासम्भवमन्तर्भावयति ।
अभावस्य तु विष्वपि यथासम्भवनान्तर्भावस्तथाहि कौरवाद्य. भावप्रतिपत्तिरागमादिति ।
प्रत्यक्षादिप्रमाणानुत्पत्तिरभाव इत्यभावलक्षणम् । तदुक्तम् ।
___* The test reads • प्रतिपादकत्वाविशेषा 9-10).
: Sec page 33. Line
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भागमपरिच्छेदः ।
२४३
२४३
प्रत्यक्षादेरनुत्पत्ति: प्रमाणाभाव उच्यते । मात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वान्यवन्तुनि । प्रभावस्य प्रामाण्यस्थल मिदम् । प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते । वस्त्वसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमागतंति ॥ प्रत्यक्षादिक्रमणान्तर्भावे वक्तुं युक्त प्रत्यक्षाभावस्य बहुवक्तव्यत्वा परोत्ये नाभिधानं कृतम् । त्रिविति । प्रत्यक्षानुमाना. गमिषु । आगमादिति व्यामवचनात् ॥ ६० ॥ अनुमान भावान्तर्भाव विभावयति ।
आत्मादिषु रूपाद्यभाषप्रतिपक्तिरनुमानादिति ॥ आत्मादी त्यत्रादिशब्दारमादिग्रहः । रूपादीत्यत्रादिशब्दाद्रसादिग्रहः । अनुमानं यथा । आत्मा रूपादिमुक्तो विभुत्वे सत्यमूर्तद्रव्यत्वात् । व्योमादिवदिति । व्योम रूपरसगन्धशून्यमस्पर्शयत्त्वादिगादिवदिति ॥ ६१ ॥ प्रत्यक्षेऽन्तर्भावमाह।
भूतलादिषु घटाद्यभावप्रतिपत्तिः प्रत्यचादिन्द्रिय व्यापारभावभावित्वादिति
घटशून्यं भूतलमिह भूतले घटो नास्ति वेत्यादिरूपा घटादिवस्त्वभावज्ञप्तिः प्रत्यक्ष प्रमाणात् भवति । अत्र हेतुः । इन्द्रियेत्यादि। इन्द्रिय व्यापारभावे एव भवतीत्येवं शौला इन्द्रियघ्यापारभावभाविनी तद्भाबस्तत्त्वं तस्मरदिन्द्रिय प्रकृत्तिपूर्वकत्वादित्यर्थः ।
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न्यायतात्पय्यदीपिका ।
ननु प्रत्यक्षेण क्ष्मातलमुपलक्ष्य प्रतियोगिनं संस्मृत्याख्यानपेक्षं
मानसमभावज्ञानमुल्लालसौति । तदुक्तम् ।
२४४
गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् ।
मानसं नास्तिताज्ञानं जायते ज्ञानपेक्षया ॥ इति चेत् । न । विकल्पा महत्वात् । तथाहि । प्रत्यक्षेण ज्ञातलादिवस्तु घटादिप्रतियोगिभिः संसृष्टमसंसृष्टं वा गृह्यते । नायः कल्पः । प्रतियोगिसृष्टस्य भूतलादिवस्तुन: प्रत्यक्षेण ग्रहणे तत्र प्रतियोग्य भावग्राहकत्वेनाभावप्रमाणस्य प्रवृत्तिविरोधात् । प्रवृत्ती वा न प्रामाण्यम् । प्रतियोगिनः सत्त्वेऽपि तत्प्रवृत्तेः । द्वितीये त्वभावप्रमाणवैयथ्र्यम् । प्रत्य ने गाँव प्रतियोगिनां घटादीनामभावप्रतिपत्तेः । तथाच प्रयोगः । निर्घटं भूतलमित्यादिज्ञानमिन्द्रियजमिन्द्रियान्वय- व्यतिरेकानुविधायित्वाद्रूपादिज्ञान
वदिति ॥ ६२ ॥
परमतं शङ्कते ।
अन्यत्र तज्ञावभावित्वं पय्र्यवसितमिति चेदिति ॥ अन्यत्रेति भूतलाद्यधिकरणे । तद्भावभावित्वमिति इन्द्रियव्यापारभावभावित्वम् । सम्बद्धं वर्त्तमानं च ग्टह्यते चक्षुरादिना इति न्यायादिन्द्रियसम्बन्धो धरातल एव स्थितो नाभावग्रहर्णे
इत्यर्थः ॥ ६३ ॥
परिहरति ।
न । रूपादिष्विव बाधकाभावादिति ॥
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आगमपरिच्छेदः ।
इन्द्रियव्यापारो नान्यत्र पर्यवसितो रूपे इत्यादिशब्दाद्रसादिवित्राभावेऽपि बाधकाभावात् । कोऽर्थः 1 यथा चक्षुरादीन्द्रियव्यापार सितं रूपं मधुरो रस इत्यादि ज्ञानमुज्जृम्भते । न तत्र किञ्चिद्वाधकं न चान्यत्रेन्द्रियव्यापारस्तथाऽभावग्रहणेऽपीति इन्द्रिय
जनितमेवाभावज्ञानम् ॥ ६४ ॥
पुनः परं शङ्कते ।
सम्बन्धाभावो बाधक इति चेदिति ॥
इन्द्रियाणां संयोगः समवायो वा सम्बन्धो वस्तुना सहीजमति । अभावस्य तु तुच्छरूपत्वात् संयोगः समवायो वा न
सम्भवतीत्यर्थः ॥ ६५ ॥
परिहरति ।
२४५
न | स्वपरपक्षयोरमित्वादिति ॥
यस्त्वया सम्बन्धाभावो बाधक उक्तः स स्वपक्षे त्वत्पक्षे परपक्षे मत्पक्षे चासि इति ॥ ६६ ॥
सम्बन्धाभावस्यासिडत्वं दर्शयति
1
स्वपक्षे तावद्रूपादिविवापरोक्षानुभवकाय्र्यामु मेयो योग्यतायः सम्बन्धः । परपचेऽपि संयुक्तविशेषणविशेष्यभावादिरिति ॥ स्वपक्षे इति मीमांसकपक्षे । रूपादिष्वित्यवादिशब्दाद्रसादिपरिग्रहः । अपरोक्षानुभवेति साक्षात्कारिज्ञानम् । अनुमेय इति । अनुमानशेयः । योग्यतेति स्वस्वविषयग्रहणोश्चितता । अयमर्थः । त्वत्पचे इन्द्रियाणां अतिसौक्ष्पाद प्रत्यक्षत्वे इन्द्रियार्थयोर्योग्य
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२४६
न्यायतात्पय्य दीपिका ।
ताख्यः सम्बन्धोऽस्ति । माचादनुभावान्यथानुपपत्तेरित्यनुमानानुमितः । स च योग्यताख्यः सम्बन्धो यथा रूपादिष्वस्ति तथा भावानुभवेऽपि । तथा परपक्षेऽपि मत्पक्षे चक्षुः संयुक्तं भूतलं विशेष्यन्तस्य घटाभावो विशेषणमिति स्वरूपः । संयुक्तविशेषणविशेष्यभाषादिः सम्बन्धोऽभावग्रहणेऽस्त्येव । चादिशब्दात् संयुक्तसमवाय संयुक्तसमवेतसमवाय समवाय समवेतसमवायसम्बन्धचतुष्ट संबद्ध विशेषणविशेष्यभावग्रहः । तथाच प्रयोगः । प्रभावानुभव इन्द्रियसम्बन्धपुरस्सरोऽपरोक्षानुभव कार्य्यत्वात् घटाद्यपरोक्षानुभववदिति । ततः त्वदुक्तः सम्बन्धाभावोऽसिद्ध इत्यर्थः ॥ ६७ ॥
पुनः परमतमाशङ्कते ।
संयोगसमवायरहितस्य विशेषणविशेष्यभाषानुपपत्तिरिति
चेदिति ॥
अभावस्यावस्तुत्वात्संयोगसमवायराहित्यम् । तेन विशेषण
विशेष्यभावाघटनेति भावः ॥ ६८ ॥
परिहरति ।
न । विशिष्टप्रत्ययवशेन तत्सिद्धिरितौति ॥
यद्यप्यभावस्य कुत्मरूपत्वात्संयोगः समवायो वा नोपपद्यते । तथापि भूतलं घटाभावविशिष्टमिति विशिष्टप्रत्ययबलेन विशेष विशेष्यभावसम्बन्धसिद्धिर्भवति । यथा गोमानिति । गोमा
नित्यत्र हि संयोगसमवायसम्बन्धाभावेऽपि विशिष्टप्रत्ययवशेन
सिद्धा घटाद्यभावप्रतिपत्तिः
--
गवास्तित्वसम्बन्धसिद्धिरस्तौति
प्रत्यक्षादिति ॥ ६६ ॥
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आगमपरिच्छेदः ।
अथेतिहामागमेऽन्तर्भावयति । अनिर्हिष्टप्रवक्तृकं
•
२४७
प्रवादपारम्पर्य में तिह्यमागमेऽन्तर्भूत
मिति ॥
अत्रेतिह्यमिति लक्ष्यम् । शेषन्तु लक्षणम् । इतिहशब्दः सम्प्रदायवाचकोऽव्ययः । इतिहैव ऐतिह्यम् । अनिर्दिष्टप्रवक्तृकमिति । अनिर्दिष्टो न निर्णीतः स्वयं दृष्टत्वेन प्रवक्ता यस्येत्यनिर्दिष्टप्रवक्तकम् । प्रवादपारम्पर्य्यमिति वृद्धपरम्परायातो वाक्यप्रघोषः । अनिर्दिष्टवक्तृकं यत्प्रवादपारम्पयें तदैतिह्यं नाम प्रमाणमागमेऽन्तर्भवति । कोऽर्थः । इदमैतिह्यं सत्यमसत्यं वा यदि सत्यं सातवाक्यत्वादागम एव । तथाच प्रयोगः । ऐतिह्यमागम श्रतिवाक्यवात् पुत्रकामो यजेदित्यादिवाक्यवदिति । अथासत्यं तर्ह्य प्रमाण
मेवेति ॥ ७० ॥
उदाहरति ।
यथेह वटे यक्षः प्रतिवसतीति ॥
स्पष्टम् ॥ ७१ ॥
कैविचेष्टा पृथक् प्रमाणत्वेन स्वीकृतास्ति तामभ्यागमेऽन्त
भवियति ।
* प्रयत्नजनिता शरीरतदवयवक्रिया चेष्टा नाद्यशास्त्रादिसमयबलेन पुरुषाभिप्रायविशेषमर्थविशेषञ्च गमयन्ती नागमाद्भिद्यते लिप्यतरादर्यप्रतिपत्तिवदिति ॥
-
Aho ! Shrutgyanam
* The reading adopted by the commentator here, ditliers somer what from the text ( Sve page 34, Live 8-11 ),
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२४८
न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
प्रयत्नजनिता शरीरतदवयवक्रिया चेष्टेति चेष्टालक्षणम् । चेष्टते विविधक्रियया प्राणी अस्यामिति चेष्टा। प्रयत्नेति । इच्छापूर्वको हस्तादिव्यापारः प्रयत्नः । इदं च पदं वातप्रकोपोत्पन्नवाक्यादिकपदव्यवच्छेदार्थम् । तदवयवेति करादयः शरीरावयवाः । नाद्यशास्त्र भरतकविप्रणीतो ग्रन्थः । आदिशब्दालोकचेष्टादिग्रहः। समयबलेनेति सङ्केतवशेन। अभिप्रायविशेषमिति अाह्वानविसर्जनादिकम् । अर्थविशेषमिति व्यङ्ग्यरूपम् । इच्छापूर्विका देहतदवयवकरादिचेष्टा सङ्केत वशादाशयविशेषं व्यङ्ग्यरूपमधे वावबोधयन्त्यागम एव भवति । न पृथक् प्रमाण मित्यर्थः । लिप्यक्षरादौति दृष्टान्तः । यथा पुरुषाभिप्रायविशेषमर्थविशेषञ्चावगमयतो लिपिरूपाद. काराद्यक्षरादर्थज्ञप्तिांगमाद्भिद्यते । तथा चेष्टापि। यदि चेष्टायाः पृथक् प्रामाण्यमिष्यते। तहि लिप्यक्षरादीनामपि पृथक् प्रामाण्य मेष्टव्यं स्यात्तुल्य न्यायत्वात् । ततश्चेष्टा नागमा द्भियते । समयब लेनाथप्रतिपादकत्वालिप्यक्षरादर्थप्रतिपत्तिवदिति ॥ ७२ ॥
उपसंहरति ।
तदेवं व्यवस्थितमेतत्वोण्येव प्रमाणानीति ॥ व्यवस्थितमिति प्रमाणतर्कयुक्त्या निष्टङ्गितम् । बोण्यवेत्येव. कारचतुवादिनिरासार्थः । एतेन तत्समर्थितं यदुक्तमाद्यपरिच्छेद विविधं प्रत्यक्षमनुमानमागम इति ॥ ७३ ॥
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आगमपरिच्छेदः।
२४८
प्रमाणं प्रमेयनिष्ठं भवतीति मनसिकत्य शिष्यः प्रमेयं पृच्छति ।
किं पुनरेभिः प्रमाणे प्रमातव्यमिति ॥ प्रमातव्यमिति ज्ञातव्यम् ॥ ७४ ॥ प्रत्युत्तरयति।
उच्यते । प्रमेयमिति ॥ प्रमीयते ज्ञायते इति प्रमेयम् । विषयो गोचर इति धावत् ॥ ७५॥ पुन: पृच्छति ।
किं लक्षणामिति ॥ स्वपरजातीयव्यावर्तको धर्मो लक्षणम्। किं स्वरूप मित्यर्थः ॥ ७६ ॥ पुनरुत्तरयति ।
यहिषयं ज्ञानमन्यज्ञानानुपयोगित्वेनैव नि:श्रेयसाङ्गं भवति तत्प्रमेयमिति ।।
यहिषयमिति यहोचरम् । अन्य ज्ञानेत्यादि । विवक्षितप्रमे यात् वस्त्वन्तरज्ञानान्यन्यज्ञानानि तेषामनुपयोगित्वेनानपेक्षित्वेन । निःश्रेयसमिति मोक्षः । अत्रान्यज्ञानत्यादि विशेषणेन प्रमाणज्ञानस्यात्मादिज्ञानोपयोगित्वेन मोक्षाङ्गत्वात्प्रमाण व्यवच्छेदः । कोऽर्थः । यस्य ज्ञानमज्ञानमनपेक्ष्यैव मोक्ष साधयति तपमेयं भवति । इदं तु प्रमेयस्य विशेषलक्षणमन्यथाद्यपरिच्छेदे प्रमा विषयः प्रमेयमिति सामान्यलक्षणस्योक्तत्वात्पोनरुत्यापत्तेः ॥ ७७ ॥
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न्याय तात्पर्यटोपिका।
तेन किं कार्यमित्याह ।
तदेव तत्त्वतो ज्ञातव्यं सर्वदा भावयितव्यञ्च । न कोटसंख्यादि तज्ज्ञानस्यानुपयोगादितीति ॥
तदेवेति प्रागुक्तलक्षणलक्षितं प्रमेयम् । तत्त्वत इति परमार्थतः । भावयितव्यमिति पुन: पुनश्चेतसि चिन्तनीयम् । अनुपयोगादिति । अमोक्षाङ्गत्वेनेति शेषः । तदेव प्रमेयं तवतो ज्ञेयं यन्मोक्षाङ्गं भवति। न कोटिकोटिकोटकाः सन्त्य त्रेत्यादि ज्ञानममोक्षाङ्गत्वेन तस्य व्यर्थत्वात् । तदुक्तम् ।
मवं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टन्तु पश्यतु ।
कोटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ॥ ७८ ॥ प्रमेयभेदमाह।
तच्चतुर्विधं हेयं १ तस्य निर्वर्त्तक २ हानमात्यन्तिकं ३ तस्थी. पाय ४ इतौति ॥
हेयमिति। हीयतेऽवश्यं परित्यज्यत इति हेयमेकं प्रमेयम् । तस्येति । तस्य हेयस्य निवर्तकं जनकं द्वितीयम्। हानमिति । तस्येति पद स्यात्राम्यनुवर्तनात्तस्य हेयस्यात्यन्तिकं हानं सर्वथा त्यागस्तुतीयम् । तस्येति । तस्यात्यन्तिकहानस्थोपायो हेतुश्चतुर्थे प्रमेयं भवति । __ ननु सूत्रकतामशरोरेन्द्रियार्थबुद्धिमन:प्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्त प्रमेयमिति द्वादविधं प्रमेयमुक्तम् । तन्मध्ये प्राद्यन्त्यौ हावुपादेयो शेषा दश हेयाः ।
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आगमपरिच्छेदः ।
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त्वयात्वत्र तच्चतुर्विधमुक्तमतोऽत्र सूत्र विरोध इति चेन्न । हादविधस्यापि प्रमेयस्य चतुष्टयेन भाव्यमानस्य मोक्षाङ्गता भवतीति न विरोधः ॥ ७८ ॥ अथ हेयस्वरूपं निरूपति ।
अत्र हेयं दुःखमनागतमेकविंशतिप्रकारमिति ॥ अत्र ग्रन्थत्वादक्रमेऽप्यनागतं दुःखं हेयमिति हेयस्वरूपं ज्ञेयम् । अनागतमिति। अतीतस्योपभुक्तत्वावर्त्तमानस्योपभोगं विना दुस्त्यजत्वादनागतमेव दुःखं हेयं भवति ॥ ८० ॥ तत् प्रकारानाह।
शरीरं डिन्द्रियाणि षट् विषयाः षट् बुडयः सुखं दुःखजति ॥
तत्र शरीरं प्रतीतम् । षडिन्द्रियाणि घाणरमनचक्षुस्त्वक्श्रोत्रमनांसि। षट्विषयाः गन्धरूपरसस्पर्शशब्द स्मृतिसङ्कल्पाः । षट्बुद्धयः षड़िन्द्रियाणाम् । विषयाः जप्तयः । श्राहादरूपं सुखम्। तहिपरीतं दुःखम् । एवं दुःखमकविंशतिप्रकार भवति ॥ ८१ ॥ शारीरादीनां दुःखत्व हेतुमाइ ।
तत्र शरीरं दुःखायतमत्वाइःखम् । इन्द्रियाणि विषया बुद्धयश्च तत्साधनभावात्सुखमपि दुःखानुषङ्गाहुःखम् । दुःखम्तु बाधनापीड़ासन्तापात्मकं मुख्यत एवेति ॥
शरीरं मुख्यं दुःखं न भवति । किन्तु दुःखस्यायतनत्वादृहत्वात् दुःखम् । देहावच्छिन्नस्यैवात्मनो दुःखानुभवात् । इन्द्रि
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न्यायतात्पर्य्यदीपिका।
याणि विषया बुद्धयथ प्रागुक्तस्वरूपास्त्रयोऽपि दुःखनिवर्तकवाहुःख मिन्द्रियादिवशंवदानामवश्यं दुःखीभवनात् । सुखं तु वैषयिकादिकं दुःखप्रसञ्जनाडुःखं सुखस्य दुःखाविनाभावित्वात् । मुख्यं दुःखं तु बाधनाद्यात्मकम् । लोक शास्त्रे च तस्यैव मुख्यवृत्त्या दुःखशब्दवाच्यत्वात् । एतन शरोरादौनामोपचारिक दुःखत्वमावेदितम् । तेषामपि दुःखहेतुत्वादिति ॥ २ ॥ हितीयं प्रमेयमाह।
तस्य निर्वर्तकमसाधारगं कारगमविद्यालो धर्माधर्माविति || ____ तस्येति हेयस्यैकविंशतिविधदुःखस्य । निवर्तकमित्यस्य पदस्य व्याख्या असाधारणं कारणमिति । यहा। किञ्चित्रिवर्तकं साधारणमपि भवति तद्दावच्छेदार्थमसाधारण कारणमिति पदम् ! किं निवर्त्तकमित्याह । अविद्येत्यादि। अविद्यादीनां स्वरूपं स्वयमेव वक्ष्यत्यत्र नोच्यते। यद्यपि धर्मः सुखस्य हेतुस्तथापि सुखस्य दुःखाविनाभावित्वात् दुःखहेतुरेदोक्तः ॥८३॥ अविद्यादीनां स्वरूपमाह।
सम्यगध्यात्मविद्भिः प्रदर्शितार्थविपरीतज्ञानमविद्या मह संकारणेति ।
सम्यगध्यात्मविद्भिरिति। तत्त्वज्ञों यथार्थो दर्शितस्तस्य विपर्यस्ततया अनित्ये वस्तुनि नित्यत्वेनानात्मत्वेन यत् सानं सा सुखदुःख हेतुभूतेन वासनापरप-येण संस्कारेण सहिताऽविद्या भवति । मिथ्याज्ञानमविद्येत्यर्थः । तदुक्तम् ।
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आगमपरिच्छेदः ।
श्रनित्ये नित्यबुद्धिर्या याशुचौ शुचिवासना ।
अनात्मन्यात्मधी येयमविद्योक्ता शरीरिणामिति ॥ ८४ ॥
तृष्णां लचयति ।
पुनर्भवप्रार्थनं तृष्णेति ॥
पुनर्नवो विशिष्टदेहभोगादिस्तकार्थना पुनः पुनर्याचा तृष्णा
भवति ॥ ८५ ॥
धर्माधर्मावाह |
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सुखदुःखयोरसाधारणी हेतु धमाधम्माविति #
सुखदुःखे प्रतोते । तयोरसाधारणवसामान्यौ यो हेतू तौ धर्माधर्मौ भवतः । सुखहेतुर्द्धर्मः दुःखहेतुरधम्मं इत्यर्थः ॥ ८६ ॥
तृतीयं प्रमेयं प्ररूपयति ।
हानं दुःख विच्छेदः । श्रात्यन्तिकमिति न कदाचित्कथञ्चिहुःखसम्बन्ध इत्यर्थ द्वाँत ॥
हानमित्येतस्य दुःखविच्छेद इति व्याख्या । आत्यन्तिकमिति पदस्य न कदाचिदित्यादि व्याख्या | आत्यन्तिकपदेन कादाचित्कसुखजनितो दुःखोच्छेदो व्यवच्छिद्यते ॥ ८७ ॥
चतुर्थं प्रमेवमाह ।
तस्योपायस्तत्त्वज्ञानमानविषयमिति ॥
तस्यात्यन्तिकदुःखानस्यात्मविषयं क्षेत्रज्ञसम्बन्धि तत्वज्ञानमुपायो हेतुर्भवति । तत्वज्ञानमित्युक्ते यस्य वस्तुनो यो भावस्तत्तस्य तत्खमिति वचनात् सामान्यवस्तुतत्त्वज्ञानमपि तदुपायः
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२५४
न्यायतात्पश्यदीपिका।
स्यात्तावच्छेदायात्मविषयमित्युक्तम् । तात्त्विकमात्मज्ञानमात्यतिकदुःखत्यागहेतु रित्यर्थः ॥ ८८ ॥
आत्मतत्त्वज्ञानमन्तबुंयात्मनः सम्यक् श्रवणादिभिः सम्पद्यते नान्यथेत्यनार्थे श्रुतिं दर्शयति । तथाचोक्तम् । प्रात्मा वा रे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यामितव्यः । श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्वोपपत्तिभिः । ज्ञात्वा च सततं ध्येय एते दर्शनहेतव इति ॥
आत्मेति क्षेत्रज्ञः । वा एवार्थे । रे इति वक्तः स्त्रिया: सम्बोधनम् । द्रष्टव्य इति बहिरनुमानादिना। देहान्तश्च सुख्यह दुःख्यहमित्यादि प्रत्ययेन ! निदिध्यासितव्य इति निध्यातुमेष्टव्यो दिक्षितव्य इति यावत् । उपपत्तिभिरिति तर्कसम्पर्कककेशाभिर्यक्तिभिर्युतायच पुरो वक्ष्यन्ते । एते श्रुतिश्रवणमननध्यानादयः क्षेत्रज्ञमाक्षात्कार हेतवो भवन्ति । श्रुतिवाक्यादिभिः सम्यक ज्ञात्वात्मा ध्यातव्य इत्यर्थः ॥ ८ ॥ नन्वात्मज्ञानात् किं फलं भवतीत्याह ।
तरति शोकमात्मविदिति ॥ शोकमिति संसारलेशरूपम् । आत्मानं विदित्वा संसारावार पारं तरतीति भावः ॥ ८ ॥ ___ एक एव हि भूतात्मा देहे देहे व्यवस्थितः ।
एकधा बहुधाचैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ इत्यादिवचनात् एकएवात्मेत्य तवादिमतमपाकरोति ।
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आगमपरिच्छेदः ।
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स हिविधः । परश्चापरश्चेति ॥ स इत्यात्मा। पर इति परमात्मा। अपर इति संसारी। अनयोः स्वरूपं स्वयमेव वक्ष्यति पुरः ॥ १ ॥ आमद्वैत श्रुतिसंवादमाह।
तथाचोक्तम् । हे ब्रह्मणी वैदितव्ये परञ्चापरञ्चेत्यादीनि ॥ ब्रह्मणी इति । प्रात्मानी। एतेन ब्रह्माइतं निरस्तं जेयम् ।
ननु तात्त्विकं ब्रह्मैव केवलमस्ति स वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चनेति न्यायात्तद्दतिरिक्तः सर्वः प्रपञ्चो मिथ्या प्रतीयमानत्वात् शक्तिशकले कलधौतज्ञानवदिति चेन्न । विकल्पाचमत्वात् । तथाहि मिथ्यात्वं किमत्यन्तासत्त्वमुतातत्त्वेन तत्त्वमनिर्वाच्यत्वं वा। प्राच्थे पक्षहयेऽसत्त्वख्यातिविपरीतख्यातिप्रसङ्गः । तार्तीयिकपक्षेत्वनिर्वायत्वं किं निरुक्तिराहित्यं प्रतीत्यगोचरवं वा। नाद्यः । घटोऽयं पटोऽयमिति निीतोतः सर्वत्र सद्भावात् । न द्वितीयः । प्रत्यक्षेण नियतसंस्थानतया समस्तवस्तुप्रतिभासात् । यथा प्रतिभासते न तथेति चेन्न। विपरीतख्यातिप्रसक्तेरित्यलम् ॥ ४२ ॥ तत्र परं लक्षयति ।
तखर्यविशिष्टः संसारधर्मरोषदप्यसंस्पृष्टः परो भगवान् महेश्वरः सर्वज्ञः सकलजगद्विधाततीति ॥
ऐश्वर्यमप्रतिहतच्छत्वं तेन युक्तः । ऐखयमिन्द्रादिष्वप्यस्तीति तावच्छेदाय संसारधमैरीषदप्यसंस्पृष्ट इति । संसारधर्मा रागद्वेषमोहादयस्तरस्पृष्टः। संसारधर्मास्कृष्टत्वं लयस्थयोगिष्वध्यस्तीति
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न्यायतात्पर्य दीपिका ।
तन्निरासाय पर इति । परः श्रेष्ठः । परत्वं सांख्याभिमते प्रधानेऽप्यस्तीति तदपास्तये भगवानिति । भगवान् पूज्यः । भगवत्त्वमु त्तमेष्वन्यस्तीति तत्परिहाराय महेश्वर इति । महेश्वरो महानधिपतिः । महेश्वरत्वर्वाचीनेष्वपि सम्भवतीति तद्विनिवृत्तये सर्वज्ञ इति । सर्वज्ञो विश्ववेदी । सर्वज्ञत्वं योगिष्वपि भवतीति तदपास्तये सकलजगद्दिधाता विश्वस्स्रष्टा । एवमैश्वय्यादिगुणविशिष्टः परमात्मा पर: क्षेत्रज्ञो भवति । कश्चिवैश्वय्र्यविशिष्ट इति १ संसारधमैरीषदप्यस्पृष्ट इति २ परो भगवान् महेश्वरः सर्वज्ञ इति ३ सकलजगद्विधार्तति : चतुर्लक्षणों परमात्मनो मन्यते । यथायुक्तमर्थी ग्राह्यः सुधीभिः ॥ ८३ ॥ शिष्यः पृच्छति ।
स कथं ज्ञातव्य इति ॥
प्रत्यक्षत्वाभावात् केन प्रकारेण ज्ञेय इत्यर्थः ॥ ८४ ॥
प्रत्युत्तरयति ।
अनुमानादागमाच्चेति ||
स्पष्टम् ॥ ८.५ ॥
तत्रानुमानं दर्शयति ।
तथाहि विवादाध्यासितमुपलब्धिमत्कारणकमभूत्वाभावित्वा-. हस्तादिवदिति ॥
विवादाध्यासितमिति भूभूधरादिकम् । उपलब्धीत्यादि । उपलब्धिमान् बुद्धिमान् कारणं निदानं यस्य तदुपलब्धिमत्कारएकं बुद्धिमत्पूर्वकमित्यर्थः । अभूत्वेत्यादि । प्रागभूत्वा अनुराध
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प्रागमपरिच्छेदः ।
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पद्याद्भवतीत्येवं शीलमभूत्वाभावि तद्भावस्तत्वं तस्मात् । अत्र व्याप्तिः स्वयमेव काया। अयमर्थः । यथा वस्त्रादिकं प्रागभूत्वा पश्चाद्भवत् बुद्धिमत्तन्तुवायपूर्वकम् । तथा भूभूधरादिकमपि प्रलयकाले भूत्वा पवात् प्रादुःषत् बुद्धिमत्पूर्वकं सिद्धातीति कर्तसिद्धिः । न चाहासिद्धताबन्धको सम्बन्धचिन्त्यः । पक्षे हेतोनिश्चितकृत्तित्वात् । अन्धतरासिद्धोऽयं हेतुरिति चेत् । न । हेत्वन्तरण साध्यमानत्वात् । तथाहि विवादाध्यासितमभूत्वाभावि विशिष्टरचनावत्त्वात् ग्रामादादिवदिति । नापि विरुद्धता व्योमा. दिभ्यो निहत्तत्वात् । नाप्यने कान्तिकता विपक्षादत्यन्तव्यावृत्तेः । नापि कालात्ययापदिष्टता प्रत्यक्षाद्यबाधितधर्मिणि वृत्तत्वात् । नापि प्रकरणसमता स्वपरपक्षमिडौ हेतोम्रुप्याभावात् । ___ अथ भूभूधरादिकं बुद्धिमत्पूर्वकं न भवति । सशरीराजन्यवाघोमवदिति प्रत्यनुमानवाधितोऽसौ हेतुरिति चेन्न। अङ्गुरादिभिरने कान्तिकत्वात् ॥ ८६ ॥
नन्वस्मिन्ननुमान व्याप्तिजलात्कामात्रस्यैव सिद्धिर्न पुनविशिष्ट कर्तरित्याशङ्कयाह ।
सामान्य व्याप्तेरनवद्यत्वेन निराकर्तमशक्यत्वात्ततः सामान्यसिद्धौ पारिगेष्षात्कार्यविशेषाच कर्तृविशेषसिद्धिशिनादिकार्यविशेषात्तत्कर्त्तविशेषसिद्धिवदिति ।
सामान्यव्याप्ते रिति यदभूत्वाभावि तदुपलश्चिमत्कारणकमिति सामान्यव्याप्तेः । अनवद्यत्वेने ति असि त्वादिदोषशून्यत्वेन । पारिशेप्यादिति प्रमक्तप्रतिषेधेऽन्यत्र प्रसङ्गात् शिष्यमाणः
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न्यायतात्पर्यदीपिका। प्रत्ययः पारिशेणं तस्मात् । कार्यविशेषादिति क्षित्यादिकार्यवैशेष्यात् । अयमर्थः । प्रागुता सामान्यव्याप्तिस्तावनिर्दोषत्वात् केनापि प्रतिहन्तुं न शक्यते । तत: सामान्यव्याप्ते: सामान्येन कर्तसिद्धौ जातायामम्मदादिषु कत्तृत्वप्रसक्तावस्मदादिभिः क्षित्यादेजनयितुमशक्तत्वेन पारिशेष्यात् क्षित्यादि कार्यवैशेष्याच कर्तविशेषसिद्धिर्भवति । चित्रादिदृष्टान्तेन यथा विशिष्टचित्रादिदर्शनाद्विशिष्टचिन कदादितत्क-सिद्धिस्तथेति। तथाच प्रयोगः। क्षित्यादिकं विशिष्ट कर्तजन्य विशिष्ट कार्यवाहिशिष्टचित्रादिवदिति ।
ननु कवैशिष्ट्यसिद्धावपि शरीयेव कर्त्ता सिद्धयति । न तद्विलक्षणः। तथाहि ईश्वरः शरीरी कर्तृत्वादम्मदादिवदिति । शरीरित्वे च कथं तस्य क्षिल्यादिकम्मनिष्णत्वम् । तथाच प्रयोगः । ईश्वरः क्षित्यादिकर्ता न भवति शरीरित्वादस्मदादिवदिति चेन्न । हेतोराश्रयासिद्धत्वात् । सिद्धौ वा शरीरित्वकर्तृत्वसाधकप्रमाणाभ्यां बाधः। ननु कत्तुरशरीरत्वं चेदभिप्रेतं तश्वर, कर्त्ता न भवत्य शरीरित्वान्मुक्तात्मवदिति न कर्तुत्वसिद्धिरिति चेन्न। शरीरप्रेरकेणात्मनानकान्तिकत्वात् ॥ २७॥ अथ परात्मसद्भावे आगमं दर्शयति ।
*एको रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे य इमाल्लोकानीशते ईशनोभि रित्यागमाञ्चेति ॥
* The Text rends o हितीयोऽथ तस्थे सूर्य दूब मां ० (Sce nge 36 [ine 6).
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श्रागमपरिच्छेदः ।
२५६.
एक एव रुद्रः परमात्मास्ति । द्वितीयो नावतस्ये न स्थितः । ईशते प्रभवन्तौतीमिन्यः शक्तय इच्छाज्ञानक्रियारूपास्ताभिर्य इमांल्लोकान् जगन्ति ईशते स्वखजनितक फलोपभोक्तृत्वेन निय मयति । ईशत इत्यत्र वैदिकत्वादेकवचने शक् । क्वापि न द्वितीयाय तस्थे इति पाठः । तत्र द्वितीयायेति सहार्थे तृतीया - स्थाने चतुर्थी । ततो द्वितीयेन सह न तस्थे किन्त्वेक एवेत्यर्थः । तस्थे इत्यात्मनेपदं वैदिकत्वात् । चशब्दादन्योऽप्यागमो ज्ञेयः ॥८८॥
अपरात्मस्वरूपमाह ।
संसारफलोपभोक्तानन्तोऽपर इति ॥
संसारफलं सुखदुःखादिकं तदाखादकोऽनन्तोऽनेकविधोऽपरः संसार्यात्मा भवति । संसारे फलोपभोक्तेत्यनेन परमात्मन्यतिव्याप्तिनिवृत्तिः । अनन्त इत्यनेन ब्रह्माद्वैतव्यवच्छित्तिः ॥ ८८ तस्यातिसौक्ष्मप्रादप्रत्यचत्वे तत्साधकमनुमानमाह
म खलु बुझादिकार्य्याणां आश्रयभूतोऽनुमातव्य इति ॥ स इत्यात्मा । बुझादीत्यत्रादिशब्दात् सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मादिग्रहः | श्राश्रय इत्याधारः । आत्मा बुद्धप्रादिकार्याणामाधारतयानुमानेन ज्ञेय इत्यर्थः । अनुमानं यथा । बुयादयः कचिदाश्रिताः कार्य्यत्वाहुणत्वात् चापादिवदिति । पुरस्तादिन्द्रियादीनां निषेत्यमानत्वेन पारिशेष्यादात्माधार
इति ॥ १०० ॥
*
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The text reads “जीवोऽपरः" (See page 36, line 8 ).
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न्यायतात्पय्यदीपिका।
कार्यमपि किमपि निराधारं भविष्यतीत्याशङ्कयाह ।
न हि कार्यमनाधारं विञ्चिदुपलब्धमिति ॥ यत् कायं तत्सर्व साधारमिति भावः ॥ १०१ ॥
नन्विन्द्रियाणि विषया वा बुद्दयादीनामाधारो भविष्यति । न त्वात्मत्याशङ्कयाह ।
न चेन्द्रियाणामाश्रयलं युनमुपहन्द्रि यस्य विषयस्मरण. योगादिति ॥
इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां बनाताधावत्वं युक्तं न भवति । अत्र हेतुः उपहतेत्यादि । उपहतमिन्द्रियं यस्य । विषयस्मल्यघटनात् यदि इन्द्रियं बुयाद्याधारी भवेत् तदोपहतेन्द्रियो न किञ्चित् सारेदाधारविनाश आधेयस्यापि विनाशात् । अस्ति च स्मरगामुपहतेन्द्रियस्यापि । तत इन्द्रियं तदाधारो न भवतीत्यर्थः ॥१०२॥
नन्वेकस्मिन्निन्द्रिय उपहते पौन्द्रियान्तरेण स्मर भविष्यती. न्यायाह।
अन्यानुभूतेऽर्थेऽन्य रय सारण प्रदर्शनादिति ॥ अन्येन्द्रियेणानुभूने न्य बेन्द्रियस्य सत्यवोचणात् । न खलु नेत्रानुभूतं नासा स्मयते। अत्र प्रयोगः। इन्द्रियं नानुभावकं । करणलाहाबादिवदिति। अन्येन्ट्रियानुभूतमन्येन्द्रियं न सारत्यन्यानुभूतत्वात् चैवानुभूतं मरवदिति ॥ १०३ ॥
नम् मा भूवनिन्द्रियाणि बुयाद्याधार; किन्तु शरीर 'वरिष्यत इत्याशङ्कया।
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आगमपरिच्छेदः ।
श्रतएव शरीरस्थापि बाल्यकौमारादिभेदभिन्नत्वादस्मरणमिति ।।
अन्यानुभूतमन्यो न स्मरतीत्यत एव न्यायात् शरीरस्यापि स्मरणं नोपपद्यते न केवलमिन्द्रियाणामित्य परर्थः । कुत इत्याह । बाल्ये त्यादि । आदिशब्दात्तारुण्यवाई क्यभेदग्रहः। अयमर्थः । अल्पपरिमाणावच्छिन्ने महापरिमाण स्यासम्भवादालशरीरात्कौमार. साकण्यवाई कशरीराणि भिन्नानि । तेन यदि शरीराश्रयं चैतन्य स्यात्तदा येन बालशरीरेणानुभूतं तन्नष्टं ततस्तरुणादिशरीराणां स्मरणं न स्यादन्यानुभूतेऽन्यस्मरणाभावादस्ति च स्मरणं तस्मान्न शरीराश्रयं चैतन्यम् । प्रयोगो प्रागवत् । बालशरीरवदिति । यथा शरीरं नानुभूतभातुक करणत्वाहासादिवत् । तथा बालशरीरानुभूतं तरुणगरीरं न स्मरति । अन्यानुभूतत्वाञ्चैत्रानुभूतं मैत्रवदिति प्रयोगः । बालशरीरात् कौमारशरीरं पृर्थागत्यत्र किं प्रमाणमिति चेदुच्यते। विवादाध्यामिते परिमाणे भिन्नाश्रये होनाधिकपरिमाणत्वात् घटशवपरिभाणवदिति । परिमाणमेव विनंत्यति न तु शरीरमिति चेन्न । विवादास्पदं परिमाणमाश्रयविनाशादेव विनश्यति परिमाणत्वात् मुहराभिहसविनष्टघटपरिमागावदिति ॥ १०४ ॥ उक्तन्यायातिभेन बोइमतऽपि स्मरणं नीय पद्यत इत्याह ।
एतेन पूर्वबुद्धानुभूतऽर्थे उत्तरबुद्धेः कार्यकारणभावात् स्मरणमपास्तमन्य त्ववचनादितिः ।
* The Text reads "Raiatutafa" ( See page 36. Line 15 ).
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न्यायतात्पय्य दीपिका ।
एतेनेति अन्यानुभूतेऽन्यस्य स्मरणं न भवतीति वचनेन । पूर्व बुडानुभूतेत्यादि बौद्धरादान्ते नैरामेोऽपि पूर्वानुभूतमर्थ - मुत्तरबुद्धिः स्मरति कार्य्यकारणभावात् । स चैवम्। पूर्वबुद्धिर्वस्वनु भवति तदनु खसगौमुत्तरबुद्धिमुत्पाद्यात्म संस्कारं तत्र निवेश्य क्षणिकत्वाद्दिनश्यति । तत्र पूर्वबुद्धिः कारणमुत्तरबुद्धिः कायैमेवं पूर्वोत्तरबुद्योः काय्र्यकारणभावेन स्मरणं यदुक्तं तदपि निरस्तम् । इयोर्बुझोर्मिंथो भेदेन कथनात् । अयं भावः । पूर्वोत्तरबुद्धः कार्य्यकारणभावेऽपि भेदोऽस्ति न वा । नास्तीति चेत् कथं कार्य्यकारणभावस्तस्य भेदनिबन्धनत्वात् । अस्तीति चेतर्हि यथा चैत्रमैत्रयोरन्यत्वेन चैत्रानुभूतं मैत्रो न स्मरति । तथा पूर्वबुद्धानुभूतमुत्तरबुद्धिर्न मरिष्यति । अन्यत्वेनाविशे
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षात् ॥ १०५ ॥
भेदेऽपि यदि पूर्वानुभूतं कार्य्यकारणभावादुत्तरबुद्धि: स्मरति । तदाचाय्यानुभूतं शिष्यः स्मरेदत्रापि कार्यकारणभावस्य विद्यमानत्वादित्याशङ्का परः परिहरति ।
कार्पासे रक्ततावदिति चेदिति ॥
यथा कर्पासबोजे लाक्षादिरज्जकद्रव्यनिष्यादिता रक्तता भेदसाम्येऽपि रक्तबीज सन्तान एव पुष्पादी रक्ततां व्यनक्ति । न बीजान्तर सन्ताने । तदुपाध्यायबुद्धिजन्मा संस्कारोऽपि सन्तान एव स्मृतिमुद्धावयति । न शिष्यादौ भिन्नसन्तानत्वात् । तदुक्तम् । यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना ।
फलं तत्रैव सन्धते कार्पासे रक्तता यथा ॥
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आगमपरिच्छेदः ।
२६३ ततश्चाचार्यानुभूतं शिष्यः स्मरेदिति त्वयोक्तो दोषो नात्र सावकाश इत्यर्थः ॥ १०६ ॥ परोक्तं परिहरति ।
न। साधनदूषणाभावादिति ॥ स्वपक्षस्य साधनम् । परपक्षस्य दूषणम् । तयोरभावान युक्त एष कर्यासरतताख्यो दृष्टान्तः ॥ १०७ ॥ तमेव साधनदूषणाभावं विभावयति । अन्वयाद्यभावान्न साधनमसिद्धत्वाद्यनुद्भावनान दूषणमिति ॥
अन्वयेति । सति सद्भावोऽन्वयव्याप्तिरादिशब्दादसत्यसद्भावी व्यतिरेकव्याप्तिः । असिद्धबादौति। अनिश्चितपक्षवृत्तित्वमसिद्धत्वमादिशब्दाविरुद्धत्वादिपरिग्रहः । अयमर्थः। दृष्टान्तो हि स्वपक्षसाधनाय परपक्षदूषणाय वा प्रयुज्यते। कार्पासे रक्ततावदिति त्वदुक्तो यो दृष्टान्तः स न स्वपक्षसाधनाय पूर्वज्ञानानुभूतमुत्तरज्ञानं स्मरति। कार्यकारणभावापत्रखात् कापास रततावदिति भवदनुमाने दृष्टान्तदा न्तिकयोवैषम्येनान्वयव्याप्ताजनकत्वात् । यतो बौद्धमते कारणभूतायाः पूर्वबुडेनिरन्वयविनाशाङ्गोकारात् तदुपरागो नोत्तरबुद्धौ संक्रामति । दृष्टान्ते च कार्पासे लाक्षारमरतिमा बोजविनाशात्परमाणषु संक्रम्य हाणुकादिव्याप्तमा कार्य भवतीति दृष्टान्तदान्तिकयोवैषम्यं स्पष्टम् । तथा यत्र न स्मृतिस्तत्र न कार्यकारणभावापनत्वमिति व्यतिरकव्याप्तिरघि नास्ति । नापि परपक्षदूषणाय पूर्वज्ञानानुभूतार्यमुत्तरजानं न स्मरति। ततो विभिनत्वादन्य सन्तानबुद्धिवदित्यत्र पर
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न्यायतात्पर्थदीपिका।
पक्षे हेतोरसिद्धत्वादिदोषानुसावनात् । तस्मादयुक्त एष दृष्टान्त इति साधूक्तम् ॥ १०८ ॥
किञ्च कार्पासरततापि दृष्टान्तत्व नाद्रियेत यदि त्वमते कार्यासे रक्तातोपपद्येत । सापि नोपपद्यत इत्याह ।
न च कार्यासे निरन्वयविनाशोत्यादे रक्ततोत्यद्यते । कार्पासान्तरवदिति ॥
निरन्वयविनाश इति । निर्गतोऽन्वयो मुद्गरादिहेतयंत्रासौ निरन्वयः स चासौ विनाशश्चेति निरन्वयविनाशस्तदुत्पादे तत्सम्भवे । अयमर्थः। कार्पासबोजे रक्तता तदोत्पद्यते यदि कतिपयक्षणावस्थायित्वं स्यात्। त्वमते तु सर्ववस्तु विनाशक कारणाभावेऽपि विनश्यति । ततो यस्मिन् कार्पासबोजे रक्त तोत्पादिता तत्तदानोमेव काकनाशं नष्ट क्षणिकत्वात् । तत्सन्तानभूते कार्पासबोज सन्तानान्तरका सबोज इव रक्तता कोतस्कुत्युत्पद्येत । अथ कार्पासबौजरक्तता स्वसन्तानबीजान्तर रक्ततां जनयतीति चेन्न । विकल्पैर्भङ्गरत्वात् । तथाहि । क्षणिका कार्पासरक्तता स्व. क्षण पूर्व पवाडा कार्यमर्जेत् । नान्यः कल्पः । समसमयभाविनि क्षणे व्यापाराभावात् । व्यापार वा सव्येतरगोविषाणयोरिव कार्यकारणभावो विशोटात । तस्य पौर्वापर्यधुर्यत्वात् । न दैतोयिकः। स्वरूपगास त्यास्तस्थाः समुत्पादकत्वायोगात् । अन्यथानुत्पन्नः पिता पुत्रमुत्पादयेदविशेषात् । नापि तार्तीयिक ख क्षणादूद्धं स्वयं विनष्टत्वात् । तदेवं क्षणिकलपक्षे रक्तातोत्पत्तिवत्
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आगमपरिच्छेदः ।
२६५
पूर्व बुझेरुत्तरबुद्धप्रत्पादस्यापि दुरुपपादत्वात् स्मरणं न कथञ्चित् सङ्गतिमङ्गति ॥ १०८ ॥ अथोक्तन्यायेनैव बोडाभिमतं क्षणिकत्वमपि कुयितुमाह ।
एतेनैव क्षणिकत्वं निरस्तं शेयमिति ॥ एतेनेति । बुद्ध्यात्मनोराश्रयायिभावव्यवस्थापनन । यत्सत्तत् क्षणिक संश्च घटादिरित्यादिसाधनसाधितं क्षणिकत्वं व्यपास्तं जेयम् । तथाहि । क्षणिकले सत्त्वं हेतुस्तत्सत्त्वं किं प्रमेयत्वमर्थक्रियाकारित्वं वा । नायः पक्ष: । प्रमेयत्वस्य नित्यपक्षेऽपि विद्यमानत्वेनानैकान्तिकत्वात् । सर्ववस्तूनां क्षणिकलानित्यपक्ष एव नास्तौति चेन्न । क्षणिक त्वसाधकस्य हेतोरसिद्धत्वेन क्षणिकत्वस्थाद्याप्यप्रसिद्धत्वात् । नापि द्वितीयः । क्षणिकत्वे क्रमयोगपद्या. भ्यामर्थ क्रियाकारित्वस्य दुर्घटत्वात्। तथाहि । क्षणिकोऽर्थ: स्वामर्थकियां क्रमेण कु•द्योगपद्येनोभयरू पण वा। नाद्य:कल्पस्तस्याक्रमत्वात् । क्रमवत्त्वेऽपि वा कतिपयक्षणस्थायकत्वेन क्षणिकत्व भङ्गात्। न द्वितीयः । योगपद्येनै कस्मिन्नेव क्षणे सकलकलाकलापयाधिकाय्यैकदम्बकस्य नियादितत्वात् द्वितीयादिक्षणे क्षणिकत्वेन तस्यासत्त्वात् सकलशून्यतापत्तेः । न रतीय उभयपक्षोपक्षिप्तदोषानुषङ्गात् । इति सत्त्वहेतोरसिद्धत्वात् नत एव क्षणिकलपक्षः। तथाच प्रयोगः। नास्ति क्षणिकै कान्तोऽर्थक्रियाकारित्व विरहाइह्माहेतवदिति ॥ ११० ॥ एवं क्षणिकत्वस्य युक्तिबाधानुबोध्य प्रत्यक्षबाधान् दर्शयति ।
३४
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न्यायतात्पर्यदीपिका ।
प्रत्यभिज्ञाख्येन च प्रत्यक्षेण स्फटिकादिष्वक्षणिकत्वं च गृह्यत इति ॥
प्रत्यभिजेति । दर्शनस्मरणप्रभवं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञाख्यं प्रत्यक्षम् । स एवायं स्फटिको यो मया पूर्वमदर्शीति । पूर्वोत्तरविवर्त्तवयैकद्रव्यव्यवसायि प्रत्यभिज्ञाख्य प्रत्यक्षज्ञानेन स्फटिकादिपदार्थष्वक्षणिकत्वमुपलच्यते । यदि सर्वं क्षणिक भविष्यत्तर्हि स एवायं स्फटिक इति प्रत्यभिज्ञा भगवतो न प्रोदजृम्भिष्यत । प्रोज्जृम्भते चेयं तस्मात् क्षणिकत्वं नास्तीत्यर्थः ॥ १११ ॥
परमतमाशङ्कते ।
२६६
प्रदीपादिष्विव भ्रान्तमिति चेदिति ||
कम प्रदोपे कृते तस्मिन् प्रनष्टे प्रदीपान्तरे च रचिते स एवायं प्रदीप इति प्रत्यभिज्ञा भ्रान्ता तथा स्फटिकादिष्वक्षणिकत्वग्राहिणी प्रत्यभिज्ञा स्वान्तेत्यर्थः । प्रदीपादीत्यत्वादिशब्दाल्लनपुनर्जातनखकेशादिग्रहः ॥ ११२ ॥
परिहरति ।
न । एकत्र बाध्यत्वेन भ्रान्तत्वे सर्वत्र भ्रान्तत्वकल्पनायामति प्रसङ्गादितीति ॥
एकचेति प्रदीपादौ । सर्वचेति त्वदभिप्रेत नीलादिपरिज्ञानऽपि । अयमर्थः । यदि प्रदीपाद्येकत्वग्राहिणि प्रत्यभिज्ञाख्य प्रत्यक्षेऽयं स प्रदोषो न भवति भित्रकालजनितत्वात् प्रदीपान्तरवदित्यनुमानबाधात् भ्रान्ते सति स्फटिकादिष्वपि तान्तमित्युच्यते । तर्हि तत्राप्येकच नीलादिज्ञाने प्रमाणबाधाङ्कान्ते सति
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आगमपरिच्छेदः ।
नोलादिनानं सर्वमपि भ्रान्तं स्थादित्यतिप्रसङ्गस्ततो लाभमिच्छतो मूलक्षतिरेव तथेति ॥ ११३ ॥
किञ्च क्षणिकत्ववादिनो मते भ्रान्तमपि प्रत्यभिज्ञाज्ञानं न सम्भवतीत्याह।
अनभ्युपगमाच्च सादृश्यस्य णिकत्वे भ्रान्तिबीजाभाव इति ॥
क्षणिकत्वे क्षणिकवादिमत सादृश्यस्याखोकारात् प्रत्यभिज्ञाया भ्रान्तिबीजं सादृश्यं तस्याभाव एद। अयं भावः । प्रदीपादौ प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य भ्रान्तवं यदुच्यते। तत् पूर्वोत्तरप्रदीपक्षणानां स्थैर्यरूपं मादृश्यमादृत्य । तत् सादृश्यं त्वयाभ्युपमम्यते न वा। यद्यभ्युपगम्यते तर्हि क्षणिकत्वपक्षक्षतिः । सादृश्यस्य नित्यत्वात्। नाभ्युपगम्यते चेतर्हि सादृश्यस्यास्वीकारात् त्वन्मते भ्रान्तिबीजमेव न स्यात्तत: प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षेण स्फटिकादिष्वक्षणिकत्वं गृह्यत इति युहामुक्तम् ॥ ११४ ॥ अथ प्रमेयमुपसंहरति ।
तदेतत्समेतत् शरीरादिव्यतिरिक्त आत्मा व्यापकी नित्य इति ।
शरीरादौत्यत्रादिशब्दादिन्द्रियग्रहः । शरीरादिव्यतिरिक्तइत्यनेन विशेषणेन तत् प्रत्यताम् । यदुत वाचस्पतिना । पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि । तत्समुदाये शरीरविषयेन्द्रिय संज्ञास्तेभ्यश्चैतन्यम् । तथा प्रत्ये कम दृश्यमानचैतन्यान्यपि च भूतानि
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न्यायतात्पर्य्य दीपिका ।
समुदितावस्थानि चैतन्यं व्यनन्ति । मदशक्तिवदिति । शरीरादोनामात्मत्वनिषेधकयुक्तीनामुक्तत्वात् ।
२६८
ननु कायाकारपरिणतानि भूतान्येव स्वव्यतिरेकिण चेतनां विरचयन्ति । सा च कायाकारपरिणतेषु तेष्ववतिष्ठते । तदभावे तु तेष्वेव विलोयते । अतस्तद्दातिरिक्तो न कश्चिदात्मेति चेन्न । विचारासहत्वात् । तथाहि । किम्भूतानि भूतानि चेतनारचनायां व्याप्रियेरन् । किं सचैतन्यानि निश्चैतन्यानि वा । यद्याद्यः कल्पस्तर्हि तचैतन्यं तभ्यो व्यत्यरैचीनवा । व्यत्यरक्षोत् चेत्तर्हि भूतघटितदेहे सन्तिष्ठमानमपि तद्भूतविमदृशं स्वकारणमनुमापयतीत्यात्मा सिद्धप्रति । न व्यत्यरेचीञ्चेत् । तर्हि सर्वभूतानामैक्यं स्यादेक चैतन्याभिन्नत्वात्तत्स्वरूपवत् । स्वस्वचैतन्या भिन्नानि भूतानि तेनायं दोषो न भवतीति चेन्न । तनिष्पाद्यदेहेऽपि तज्जन्य वतुश्चैतन्यप्रसङ्गात् । चत्वापि संयुज्यातिमहचैतन्यमारभत इति चेत् । न । चैतन्यानामन्योऽन्यं मिश्रीभावाभादेन संयोगविरोधात् । अन्यथा बह्वात्मचैतन्यानि संयुज्य महत्तमं चैतन्यं निर्वर्तेरन् । तन्त्र सचैतन्यानि भूतानि चेतनाविरचने व्यापर्नुमर्हन्ति । नापि निश्येतन्यानि । तेषां नितान्तं वैलक्षण्येन चैतन्योत्पादायोगात् । अन्यथा कोरदूषकाः शाल्युत्पादने, व्याप्रियेरन् । व्यापकत्वं नित्यत्वं च पुरो वच्यति ॥ ११५ ॥ परः प्रश्नयति ।
नित्यत्वं कुत इति चेदिति ॥
यद्यप्युक्तानुक्रमेण प्राग् व्यापकत्वं प्रश्नयितुं युक्तम् । तथापि
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आगमपरिच्छेदः ।
२६८
यत्रित्यत्वं प्रश्रितं तन्नित्यत्वाद्यापकत्वं सेत्स्यतीति प्रश्नयिचभि
प्रायः । कुत इति हेतोः ॥ ११६ ॥
प्रत्युत्तरयति ।
अनादित्वादिति ॥
अनादित्वमुत्पत्त्यादिराहित्यम् । तस्मादात्मनो
सिद्धाति । प्रयोगश्चैवं आत्मा नित्यो भावत्वे सत्यनादित्वाद्वरोमवदिति । भावत्वे सतीति विशेषणं प्रागभावेऽपि व्याप्तिपरि
हारार्थम् ॥ ११७ ॥ अनादित्वमेवानुयुङ्क्ते ।
तदेव कथमिति ॥
नित्यत्वं
तदेवेत्यनादित्वम् । कथमिति केन प्रकारेत्यर्थः ॥ ११८ ॥ अनादित्वं साधयति ।
जातमात्रे प्राणिनि जन्मान्तरानुभव सूचकस्म रग लिङ्ग स्य हर्षभयशोक स्तन्याभिलाषादेरुपलम्भादिति ॥
तत्कालोत्पन्ने देहिनि । जन्मान्तरेऽनुभवो जन्मान्तरानुभवस्तसूचकं यत् स्मरणं तलिङ्गस्य तचिह्नस्य हर्षादेर्दर्शनादालाऽनादिभवति । अयमर्थः । जातमात्रेऽपि प्राणिनि यर्षभयशोकस्तन्याभिलाषादि चेष्टितमुपलभ्यते तदेहभविकं न भवति । तदात्वजातत्वेन तदामीपननुभवात् । किं तु पारभविकम् । तेन च पूर्वभवानु स्मरणमनुमीयते | तद्यथा । जातमात्रप्राणिनो हर्षादिस्मरणं पूर्वभवानुभवपूर्वक स्मरणत्वात् संप्रतिपन्नस्मरणवदिति । चेह भवे प्राग्भवानुभूतं हर्षादि मय्यते । तथा पूर्वपूर्व्वभवे
यथा
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२७०
न्यायतात्पर्यदौपिका।
पूर्वपूर्वभवानुभूतमित्यनन्तभवपारम्पयेणात्मनो व्यक्तमनादित्वं सिद्धाति । अन्यत्राप्युक्तम् ।
तदहर्जस्तनहातो रक्षोदृष्टेभयस्मृतेः ।
भूतानन्वयनामिद्धः प्रकृतिज्ञः सनातन: ॥ प्रयोगस्त्वेवम् । आत्मानादिः पूर्वानुभूतमूचकस्मरणलिङ्गहर्षभयशोकादिमत्त्वात् । न य एवं न स एवं यथा घट इति व्यतिरेको । ११८ ॥ एवमनादित्वं प्रसाध्य व्यापकत्वं प्रसाधयति ।
धर्मादेराश्रयसंयोगापेक्षस्य गुरुत्वादिवदाश्रयान्तरे वायादौ क्रियाकर्तृत्वदर्शनादणिमाद्युपेतस्य युगपदसंख्यातशरोराधिष्ठालत्वाच्चात्मनो व्यापकत्व सिद्धिः ॥
भवतौति सम्बन्धः । धर्मादेरिति । शुभहेतु ईमः आदिशब्दादशुभहेतोरधम्मस्य ग्रहः । आश्रयेत्यादि। आश्रयो निजाधार आत्मा तत्मयोगमपेक्षते य: म तथा तस्य। इदं धर्मादेविशेषणम् । गुरुत्वादिवदिति दृष्टान्तः। अत्रादिशब्दाद्रवत्वादिग्रहः । आश्रयान्तर इति । धर्माधर्मयोराश्रयः क्षेलजः तस्मादन्यत्राश्रये । इदं वाय्वादावित्यस्थ विशेषणम् । वावादावित्यनादिशब्दादग्निग्रहः । अणिमादी. त्यादि। अणिम महिम लधिम-यत्र कामावसायित्वेशित्व-वशित्वप्राप्ति प्राकाम्य रूपमणिमाद्यष्टकम् । तदुपेतस्य प्रकरणापनत्वादा. मन: । अयमर्थः। वातः मर्वदा वाति ज्वलनश्चोई ज्वलति । तयो
तोईज्वलनक्रिया क्रियावादवश्यं महेतुका । हेतुश्च धर्माधर्माव. वान्यासम्भवात् । तथाच प्रयोगः । वाय्यादिक्रिया धर्माधमजमिता
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प्रागमपरिच्छेदः।
२०१
क्रियात्वासं प्रतिपत्रक्रियावदिति । धर्माधर्मी च निजाश्रयादन्यत्र वाबादौ गुणत्वागुरुत्वादिवनिजाश्रयसंयुक्तावेव क्रियां कुर्बोयातां नान्यथा । यथा गुरुत्वं द्रवत्वं वा स्वाश्रय संयुक्त मेवाश्रयान्तरे पतनादिक्रियां करोति तथा। प्रयोगमात्र धर्मादिः स्वाश्रय संयोगापेक्ष एव वाय्वादिक्रियाजनको गुणत्वागुरुवादिवत् । धर्माधर्मों त्वात्मनो गुणौ । गुणौ च गुणिनं विहाय न क्वापि तिष्ठतः । ततः सार्वत्रिक्या वाव्यादिक्रियाया धर्माधर्मापेक्षित्वे धर्माधर्मयोश्च स्वाश्रयसंयुक्तयोरेव क्रियाकलानिजाश्रय स्यात्मनोऽपेक्षितयात्मा व्यापकः सिद्धयति । तथाचार्थापत्तिः। श्रात्मा व्यापकः सर्वत्र वाय्वादिक्रियाजनकधर्माधर्मसद्भावान्यथानुपपत्तेरिति । तथायमात्माष्टाङ्गयोगजुष्ट पुण्यनैपुण्यवशात्प्राप्ताणि. मादिसिवाष्टको ह्यायुषि स्तोके सति भोग्यभूरिकर्म निर्मूलनाय युगपदसंख्यानि शरीराण्य धितिष्ठति। तच्च युगपबहुशरीराधिठानं व्योमवद्ध्यापकलं विना नोपपद्यते । ततो युगपदसंख्यातदेहाधिष्ठानादण्यात्मा व्यापको भवति। अत्रापि प्रयोगः । आत्मा व्यापको युगपदसंख्यातशरीराधिष्ठाटत्वात् व्योमवदिति । सिद्धः क्षेत्रन्नो व्यापकः ॥ १२० ॥
अणिमादिसियष्टकजुष्टस्य क्षेत्रज्ञस्य युगपदहुदेहाधिष्ठात्वे पुराणोक्तिं च दर्शयति । तथाचोक्तम् । पुराणादिषु ।
आत्मनो वै शरीराणि बहूनि मनुजेश्वर । प्राप्य योगबल कुर्यात्तैश्च सवी महौं चरेत् ॥ १ ॥
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२७२
न्यायतात्पर्य दीपिका।
भुञ्जीत विषयान् कश्चित्कश्चिदुग्रं तपश्चरेत् । संहरेच्च पुनस्तानि सूर्य्यस्तेजोगणानिव ॥ इति यदा क्षेत्रज्ञस्य पुरुषायुषात्क माण्य धिकानि भवन्ति । तदा विशिष्टाङ्गयोगबलेन युगपद्दनि शरीराणि सृष्ट्वा तैश्च कश्चिद्भोगान् भुक्ता कैश्चित्तपस्तावा च प्रक्षीणेषु सर्वकर्मसु तानि पुनरात्मा मंहरति । यथा सूर्य: स्वतेजांसि प्रसार्य पुनः संहरति । तथेत्यर्थः ॥ १२१ ॥ उपसंहरति ।
तदेवमपरात्मतत्त्वज्ञानपरलोकसदावन परलोके प्रवृत्त्य्पयोगित्वाधर्मक्षयहेतुत्वाच्च निःश्रेयसाङ्गमितीति ॥
तदेवं पूर्वोक्तयुक्त्या व्यवस्थापितमपरमात्मनो जीवस्य तत्त्वज्ञानं यथावस्थित स्वरूपावबोधः। स्वर्गापवर्गरूपपरलोकास्तिखेन परलोके स्वर्गादिविषये तपःसंयमनियमोपासनलक्षणप्रवृत्त्यपकारित्वात्। अधर्मः पापं तत्क्षय हतुवाच नि:थेयसस्य मोक्षस्थोपायो भवति । परलोकसहावेनेति पदं परलोकार्टतपःसंयमादिप्रवृत्तिनिमित्तार्थम् । यदि प्राक् परलोकोऽस्तौति न प्रतिपद्येत तर्हि तपस्याप्रवृत्तिभिः कष्टैः कः वञ्चिक्लिश्येतात्मतत्त्वज्ञाने स्फुरिते स्वर्गादिपरलोके स्वीकृत तप:संयमादिना यामनि प्रलीने मोक्षो भवतीत्यर्थः ॥ १२२ ॥ अथ परमात्मज्ञानस्य मोक्षाङ्गत्वं लक्षयति ।
परमात्मज्ञानं च तदुपासनाङ्गत्वेनापवर्गसाधनमितीति ॥ तस्य परमात्मन उपासनाङ्गमाराधनोपायस्तावेन परमात्म
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भागमपरिच्छेदः।
२७३
साधनं ज्ञानं मोनसाधनं भवति। परमात्मानं सम्यग्विज्ञायोपास्य च संसारी मुच्यत इति भावः ॥ १२३ ॥ उपासनस्वरूपं निरूपयति ।
स चोपासनविधिः । केशक्षयसमाधिलाभार्थमनुष्ठानमिति ॥ क्लेशा रागद्वेषमोहाभिनिवेशास्तत्क्षयाय यः समाधिः परमामनि चित्तैकतानता तप्राप्ताथं यदनुष्ठानं तप:स्वाध्यायादि विधेयम् । तदुपासनविधिर्भवति। एतेन यत् क्लेशविनाशकसमाधिसिद्धार्थ न भवति तत्कष्टमात्रमित्युक्तम् ॥ १२४ ॥ अनाध्यात्मशास्त्रसम्मतिं दर्शयति ।
तथाचोत्तम् । तपःस्वाध्यायेखरप्रणिधानामिका क्रिया योगः । केगतन करणार्थः समाधिलाभार्थश्चेति ॥
तपःप्रभृतीनि वक्ष्यमाणलक्षणानि । तदारिमका क्रिया कायवामनोव्यापारः। सा योगहेतुत्वाद्योग इत्युच्यते। स च राग. हेषमोहरूपलेशलाघवाय चित्तैकतानतामकसमाधिसिद्धेय च भवति। तपःप्रभृतिभिः लेशांस्तनकल्य समाधिमास्तिनुत इत्यर्थः ॥ १२५ ॥ तपो लक्षयति ।
तत्रोमादकामादिव्यपोहार्थमाध्यामिकादिदुःखसहिष्णुत्वं तप इति ॥
कामादीत्यवादिशब्दात् क्रोधादिपरिग्रहः । प्राध्यामिकादीत्यादि। दुःखं विधाध्यामिकाधिभौतिकाधिदैविकभेदात् । तत्रा मानमधिकृत्य जातमाध्यात्मिक व्याध्यादि। भूतान्यधिकत्य
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२७४
न्यायतात्पर्य्यदौपिका।
जातमाधिभौतिक मानवपश्वादिभूतजनितप्रहारादि। देवमधिकृत्य जातमाधिदैविकं शीतवातातपादि। स्वेच्छया तत्त्रिविध- . दुःखमहिणुत्वं चान्द्रायणादिरूपं तप इत्युच्यते ॥ १२६ ॥ स्वाध्यायं निरूपयति।
प्रशान्तमन्त्रस्येश्वरवाचिनोऽभ्यास: स्वाध्याय इति ॥ पौन:पुन्येन परिशीलनमभ्यामः। कार्मणादिक्षुट्रकर्मकररौद्रमन्त्र निवारणार्थ प्रशान्तेत्युक्तम् । शेषं स्पष्टम् ॥ १२७ ॥ ईखरप्रणिधानं बोधयति ।
परमेश्वरतत्त्वस्य प्रबन्धनानुचिन्तनमीश्वरप्रणिधानमिति ॥ परमेश्वर तत्त्वस्य परमात्मस्वरूपस्य प्रबन्धेन नैरन्तर्येण यदनुचिन्तनं पालोचनं तदीश्वरप्रणिधानं शिवध्यानं भवति ॥ १२८ ।
पूर्व तपःप्रभृतिको योगः क्लेशतनूकरणार्थों भवतीत्युक्तमासीदतः क्लेशानाह।
समामतो रागद्देषमोहा: क्लेशा: ममाधिप्रत्यनोकाः । संसारापत्तिहारेण क्लेश हेतुत्वादिति ॥ ___समासत इति। यद्यपि व्यासाइहवस्तथापि सपात् लेशा रागाद्यास्त्रय एव । क्लंशानां त्रित्वप्रतिपादनेन तत्प्रत्युक्तम् । यदुक्तं सांख्यः सांख्य सप्तत्याम् ।
पञ्चविपर्ययभेदा दशधा शक्तिश्च करणवैकल्यात् ।
अष्टाविंशतिभेदा तुष्टिनवधाष्टधासिद्धिरिति ॥ कारिकायाम् । अविद्यास्मितारागद्देषाभिनिवेशा यथासंख्यं तमोमहामोहमोहतामियान्धतामिस्रसंज्ञाः पञ्चविपर्ययाः केशा
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आगमपरिच्छेदः ।
२७५ परनामान इति । आत्मज्ञोक्तार्थविपरीतज्ञानमविद्या। पुरुष. बुयोर कात्मतवास्मिता। स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूढ़ः कदाग्रहोऽभिनिवेश इति । स्वरूपाणामविद्यास्मित्ताभिनिवेशानां मोहस्वभावत्वात् । रागेत्यादि । प्रोत्यात्मको रागः । अप्रोत्यात्मको हेषः। विपर्यस्तज्ञानं मोहः । समाधिप्रत्यनीका इति परब्रह्मणि चित्तैकतानत्वविनाशका: । रागादौनां प्रोत्याद्यात्मक वात् कथं क्लेशत्वभित्याह संसारेत्यादि। भवतापायेन । अयमर्थः । यद्यपि रागादया मुख्य हत्त्या लेशशब्दवाच्या न भवन्ति तथापि समाधिप्रतिकूलत्वेन दुःखभारापारसंसारकारणत्वात् क्लेशा भवन्ति ॥ १२६ ॥
यथा तपः प्रभृतयः केशविनाशकास्तथाष्टाङ्गोऽपि भवतीति तदङ्गाष्टकमाचष्टे ।
तथा यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानौति ॥ __ यमादीनां लक्षणं प्रत्येक स्वयमेव वक्ष्यति । अष्टावङ्गानीत्यत्र योगस्येति शेषः ॥ १३० ॥ तत्रादौ यमाल्लक्ष यति ।
तत्र देशकालावस्थाभिरनियताः पुरुषस्य शुद्धिहितवी यमा अहिंसाब्रह्मचर्यास्तेयादय इति ॥
.* The realing adopted by the commentator hiere differs some what from the text (sce page 38 Line 11-12). .
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न्यायतात्पय्यदीपिका ।
तत्रेति निर्धारणे । अवस्थेति बालत्वादिलक्षणा । श्रनियता इति असङ्कोचिताः । शुद्धिः कल्मषक्षत्रयः । वृद्धि: पुण्योपचयः । यमा इति यम्यते बाध्यतेऽनर्गलं चलचित्तमेभिरिति यमाः । अस्तेयादय इत्यत्रादिशब्दात्सत्यादिपरिग्रहः । श्रयमर्थः । देशादिभिरनियताः सर्वस्मिन् देशे सर्वस्मिन् काले सर्वस्थां बाल्या. व्यवस्थायां न हिंसिष्यामि, ब्रह्म चरिष्यामि, न चोरयिष्यामि, नासत्यं वक्ष्यामि न परिग्रहीष्यामि इति स्वरूपाः पापापचायकाः पुण्योपचायकाचा हिंसा ब्रह्मचर्यास्तेय सत्यापरिग्रहा यमा
भवन्ति ।
अहिंसासूनृतास्तेयब्रह्माकिञ्चनता
यमा इति
२७६
देशकालावस्थाभिरनियता इति पदं नियमेष्वति
वचनात् ।
व्याप्तिनिषेधार्थम् ॥ १३१ ॥
नियमानभिधत्ते ।
देशकालावस्थापेक्षिणः पुण्यहेतवः क्रियाविशेषा नियमा
देवताप्रदक्षिणसन्ध्योपासनजपादय इति ॥
नियम्यते चित्तमेभिरिति नियमाः । देशकालावस्थापेक्षिण इति पदं यमेष्वतिव्याप्तिव्यवच्छेदार्थम् । तत्र देशापेक्षि देवताप्रदक्षिणं दक्षिणे भ्रान्त्वा वामदिग्गमनात् । कालापेक्षि सन्ध्योपासनं प्रातर्मध्यासायंकालेषु सन्ध्योपासनात् । अवस्थापेक्षी जपः परिणतावस्थायां जपानुज्ञानात् । जपादय इत्यत्रादि. शब्दात्तपःप्रभृतयोऽन्येऽपि व्रतविशेषा ग्राह्याः । ततो देशाद्यपेक्षिणः पुण्यप्रवर्त्तका देवताप्रदक्षिणादयः क्रियाविशेषा नियमा भवन्ति ॥ १२२ ॥
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आगमपरिच्छेदः।
प्रासनं लक्षयति।
योगकर्मविरोधिक्लेशजयार्थ: करणबन्ध प्रासनं पद्मक स्वस्तिकादति ॥
अस्य तेनिने त्यासनम् । योगकाष्टाङ्गक्रिया तहिरोधिनी ये नशा अर्थात् लेशावहा व्याध्यादयस्तज्जयनिमित्तं करणानां शरोरावयवानां करचरणादीनां बन्धः संयमनमासनं भवति । तच्च पद्मकस्वस्तिकादिकम् । आदिशब्दाहोरवज्रासनादिग्रहः। पाका. दोनां लक्षणं शास्त्रान्तरात् नेयम् । अत्र ग्रन्यगौरवभयाबोयते ॥ १३३ ॥ प्राणायाम ज्ञापयति ।
कौष्ठात्य वायागतिविच्छेदः प्राणायामो रेचकपूर ककुम्भकाप्रकार इति ॥
प्राणस्यायम: प्राणायाम:। कोष्ठे भवः कौष्ठयस्तस्य वायो: श्वासप्रश्वासरूपस्य योगविच्छेदः प्रचाररोधः । स प्राणायामो भवति। स च रेचकपूरककुम्भ कभेदाचेधा। तत्र शरीरस्य वायोवहिविरेचनाद्रेचकः। बाह्यस्य वायोः शरीरान्त:पूरणात् पूरकः। पूरितस्य वायोदेहान्तनिश्चलीकरणात् कुम्भकः । तदुतम् । श्रीयोगशास्त्रे।
प्राणायामी गतिच्छेदः श्वासप्रश्वासयोर्मत: । रेचक: पूरकश्चैव कुम्भकश्चेति स विधा ॥ १ ॥ यत्कोष्ठादतियनेन नासाब्रह्मपुराननैः ।। बहिःप्रक्षेपणं वायोः स रचक इति समृतः ॥ २ ॥
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न्यायतात्पर्य दीपिका ।
समाकृष्य यदापानात् पूरणं स तु पूरकः ।
नाभिपद्मे स्थिरौलत्याराधनं स तु कुम्भकः ॥ ३ ॥ १३४ ॥ अथ वायुजयोपायमाह।
स च शनैः शनैर्जेतव्यो वनगजेन्द्रवदिति ॥ म त्रिप्रकारोऽपि वायुमन्दं मन्दं वशं नयो यथा वनगजेन्द्रः । मत्तो हि वनगज; शनःशनैजायमानोऽत्यन्तमुपकुरुते बलाच्च विकुरुते । एवं वायुरपीत्यर्थः ॥ १३५ ॥ प्रत्याहारस्वरूपं प्ररूपयति ।
समाधिप्रत्यनौकार्थेभ्यः समन्ताच्चेतसो व्यावर्तनं प्रत्याहार रति ।
प्रतीपमाहरणं विषयेभ्य इन्द्रियाणां प्रत्याहारः। समाधि परमब्रह्मणि चेतःस्थेमा तस्य प्रत्य नौकाः प्रतिकूला येऽर्था विषया. दयस्तेभ्यः सर्वथा यञ्चित्तस्य व्यावर्तनमिन्द्रियनिहत्तेश्चित्तनिहत्त्य धीनत्वात् । स प्रत्याहारो भवति। प्रत्याहारस्त्विन्द्रियाणां विषयेभ्यः समातिरिति वचनात् ॥ १३६ ॥ धारणां लक्षयति।
चित्तस्य देशसम्बन्धी धारणति ॥ धारणं धारगा। देश हृत्प्रदेश परमात्मनि वा चित्तस्य यः सम्बन्धः तनिष्ठता सा धारणा भवति ॥ १३ ॥ ध्यानमभिधत्ते।
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आगमपरिच्छेदः ।
*तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानमिति ॥
ध्यायते ध्यानम् । तत्र परमात्मादौ ध्येये हृत्प्रदेशे वा । प्रत्ययस्य ध्येयालम्बनस्य एकतानता प्रत्ययान्तरेणापरामृष्टस्तुल्यः ध्यानन्तु विषये तस्मिनेकप्रत्यय सन्तति
प्रवाहो ध्यानं भवति । रिति भणनात् ॥ १३८ ॥
समाधिस्वरूपं बोधयति ।
तदेवार्थनिर्भासमाचं स्वरूपशून्यमिव समाधिरिति ॥
सम्यगाधीयत इति समाधिः । तदेव ध्यानमेव । अर्थनिर्भासमात्रं ध्येयाकारमात्रावलम्वनमिदं ध्येयमहं ध्यायामीति मिथो भेदप्रत्ययात्मकेन स्वरूपेण शून्यमिव रहितमिव समाधिर्भवति । निखिलं विकल्पजालमुन्मूल्य यत्र चेतः परब्रह्मणि निलोयते स समाधिरित्यर्थः । निरस्तसमस्त विकल्पजालं परमानन्दलीनं च
चित्तं योगमार्गे सुलोनमित्युच्यते । तदुक्तं श्री योगशास्त्रे इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्टं तथा सुलोनञ्च ! चेतश्चतुःप्रकारन्तञ्च चमत्कारकारि भवेत् ॥ विक्षिप्तञ्चलमिष्टं यातायातञ्च किमपि सानन्दम् | प्रथमाभ्यासे इयमपि विकल्पविषयग्रहं तत् स्यात् ॥ निष्टं स्थिरमानन्दं सुलोनमिति निखलं परानन्दम् । तन्मात्रक विषयग्रहमुभयमपि बुधैस्तदानातमिति ॥ १३८ ॥
*
२७८
6 The Text rends 'तबैकतानता ध्यानमिति" ( Sec page 39,
Line 3 ).
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२८०
न्यायतात्पर्यदीपिका।
समाधिस्वरूपं स्वयमेव किञ्चिहिगोति ।
ध्यानोत्कर्षानिर्वाताचलप्रदौपावस्थानमिवैकत्रैव चेतसोऽवस्थानं समाधिरभिधीयते इति ॥
यथा निर्तिनाचनस्य प्रदीपस्यावस्थानं स्थिरं भवति । तयात्यन्तध्यानाभ्यासवशादे क व ध्येय एव चित्तस्य यत् स्थिरमव. स्थानं तत्समाधिरुच्यत इत्यर्थः ॥ १४० ॥ उपसंहरति ।
एवमेतानि योगाङ्गानि सर्वषु ब्रह्मादिषु स्थानेष्वनेकप्रकारदुःखभावनयानभिरतिसंजितं परं वैराग्यं महेश्वरे च परां भक्ति माथित्यायन्साभियोगेन मुमुक्षुणा सेवितव्यानोति ॥
एतानीति पूर्वोत्तानि । मुमुक्षुणेति मोक्षकामेन। अनभिर. तोति अनपेक्षारूपम् । परमिति सर्वकालीनम् । शेषं व्यक्तम् । अयमर्थः । समग्रमपि जगदुग्रदुःखार्तमिति वासनया सर्वत्राप्य रतिरूपं गाद वराग्यमारा परमात्मनि परां भतिं च धृत्वा मोक्षमाणन पुंसाष्टावपि योगाङ्गान्यपास्यानि ॥ १४१ ॥ योगानसेवाफलमाह।
ततोऽचिरेणेव कालेन भगवन्तमनौपम्यस्वभावं शिवमवितथं प्रत्यक्षतः पश्यति । तं दृष्ट्वा निरत्ययं श्रयः प्रामोतीति । ___ तत इति । अष्टाङ्गयोगसेवातः । अनौपम्येति । उपमैवोपम्यं जगविलक्षणत्वादनौपम्य उपमारहितः स्वभावी यस्य स तथा तम्। लोकोत्तरस्वरूपमित्यर्थः । अवितमिति सत्यम् । वितथत्वहंतुरागादिदोषादूषितत्वात्। निरतिशयमिति । निश्चितानुभावं
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आगमपरिच्छेदः ।
तारतम्यरहितं वा अष्टाङ्गयोगवैशिट्यात् सर्वोत्कृष्टगुणविशिष्ट शिवं मा नात्कृत्य निःश्रेयममाघीयत इत्यर्थः ॥ १४२ ॥ अथ शिववीक्षणादेव मोक्षो भवतीत्याख्याति ।
यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः ।
तदा शिवमविज्ञाय दुःख स्यान्तो भविष्यति ॥ तमेव विदित्वातिमृत्युमति इत्यादि च ॥ ___ अविज्ञायेत्य स्याग्रे वर्तमानपुरुषस्येत्वध्याहार्यमन्यथैककर्तकवाभावात् त्वाप्रत्ययस्यासम्भवः स्यात् । दुःखस्यान्त इति मोक्षः । तमेवेति शिवम् । अति मृत्युमिति । अतिक्रान्तो मृत्यर्यत्र सोऽति. मृत्युर्मोक्षस्तम् । शिवदर्शनादेव मोक्ष इत्यत्र तमव विदित्वेत्यादिरागमः प्रमाण मुक्तम् । शेषं स्पष्टम् ।
अयं भावः । यथाकाशस्य चर्मवद्देष्टनं दुर्घटम् । तथा शिव. मविज्ञाय मानवानां मोक्षोऽपि दुर्घट इति । अत्र व्योमदृष्टान्ती व्यतिरेकेण विज्ञेयः । ___ ननु शिवदर्शनादेव मुक्तिश्चेतर्हि तप:क्लेशादिसहनं व्यर्थमिति चेन्न । तप:क्लेशादीनां पापक्षयहेतुत्वात् । क्षीणपाप्मनां च शिवदर्शनात् ॥ १४३ ॥ उपसंहरति ।
तस्माच्छिवदर्शनादेव मोक्ष इति ॥
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* The reading "ÍTHz pier' is mentioned in the fint notu wi Page 39.
३६
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२८३
न्यायतात्पर्य दीपिका।
एव कारोऽन्ययोगव्यवच्छेदार्थः ॥ १४४ ॥ अथ मोक्षविप्रतिपत्तिनिराचिकोषया प्रश्नमुत्थापयति ।
कः पुनरयं मोक्ष इति ॥ क इति। कोहक स्वरूपः । अयमिति । इदमा निर्देश: प्राक् प्रत्यासन्नभणनात्। अन्यथा तस्य परोक्षत्वात् तन्निर्देशो ऽनुचितः स्यादिति ॥ १४५ ॥
निराचिकौर्षयो लोक्यमोक्षस्वरूपं दर्शयति ।
एके तावदसायन्ति । समस्त विशेषगुणोच्छेदे संहारावस्थाया. माकाशवदात्मनोऽत्यन्तावस्थानं मोक्ष इति ॥
एके इति औलुक्या: । समस्त विशेषगुणोच्छ दे इति । समस्ताश्च ते विशेषगुणाश्च समस्त विशेषगुणा बद्धिसुखदुःखेच्छाहेषप्रयत्न धर्माधम्मसंस्काररूपा नवसंख्य कास्तेषामुच्छेदः सर्वथा प्रलय स्तस्मिन् । संसारावस्थायामिति प्रलयावस्थायाम् । आकाशवदिति आकाशस्येव । अत्यन्तावस्थानमिति सार्वदिको स्थितिः । प्रलयकालौना. मावस्थितिव्यपोहाधमत्यन्तावस्थानमित्युक्तम् । अयमर्थः । वैशषिकाणां मत चतुर्दशगुणाधिकरण आत्मा। तत्र चतुर्दशानां गुणानां मध्ये पञ्च गुणाः सामान्या बुद्धवादयो नव विशिष्टाः । यहि बुद्दादयो नव विशिष्टा गुणा: समुच्छिद्यन्ते तदा शिला शकलकल्पस्यात्मनोऽत्यन्तावस्थानं मोक्षो भवति । यथा प्रलयकाले विशिष्टगुणशब्दोच्छेदात् केवल स्थाकाशस्यावस्थानं भवति तथेत्यर्थः । तथाचानुमानं नवानामात्म विशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमच्छिद्यते सन्तानत्वात् प्रदीपसन्तानवदिति । तथागमोऽपि ।
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आगमपरिच्छेदः।
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न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति । अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशत इत्यादि। अन्न प्रियाप्रियशब्देन सुखदुःखे । नहवैशब्दो निषेधार्थे । वाशब्द एवार्थे ।
त्तदेवं धिषणादीनां नवानामपि मूलतः ।
गुणानामात्मनो ध्वंस: मोऽपवर्ग: प्रकीर्तितः ॥ तस्याश्चावस्थायाम्।
स्वरूपैकप्रतिष्ठान: परित्यक्तोऽखिलेंगणैः ।
ऊर्मिषट्कान्तिमं रूपं तदस्थामनीषिण: ॥ अम्मयस्तु कामक्रोधमदगवलोभदम्भा इति ॥ १४६ ॥ सुख म्याप्यच्छेदः कुतोऽभिमत इति शिष्यः संपृच्छते ।
कस्मादिति ॥ प्रेक्षावत्प्रवृत्तः सुखमूलत्वात् मुखोच्छेदोऽनुचित इति भाव: ॥ १४७॥ प्रत्युत्तरयति ।
सुखदुःखयोरविनाभावित्वेन विवेक हानानुपपत्तरिति ॥ अस्त्र सुखदुःखशब्दावुपचारात् सुखदुःखहेतुवाच की। तयोवाविनाभावित्वात् सुखहेतूनां सद्भावेऽवश्यंभावन दुःखहेतुसद्भावाद्विवेकहानम् । सुखमादृत्य दुःखत्यागस्याघटनात् । अयमर्थः । मांसारिकमङ्गनाङ्ग परिषङ्गादि यत्सुखं तत्मचं दुःखानुपक्तम् । ततः सुखेऽनुभूत विषसंपृक्तामधुवहुःखं दुस्त्य जम् । सुखहेतूनामवश्यं दु:ख जनकले नाविनाभूतत्वात् । तथाहि सुखं दुःखानु.
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न्यायतात्पय्यदीपिका ।
षक्तं तदविनाभूतत्वात् । धूमवह्निवदिति । तथा सुखानुभवें दुःख दुस्त्यजं मिश्रः सम्बद्धत्वात् विषमंपृक्तमधुवदिति ॥ १४८ ॥
आत्यन्तिकबुद्ध्याद्युच्छेदात् शिलाशकलकल्पे मोत्रे प्रेचावन्तो न प्रवर्यन्तीत्याशङ्कयाह ।
न च सुखायैव प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः । कण्टकादिदुःखपरि हारार्थत्वेनापि प्रवृत्तेरुपलम्भादिति ॥
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प्रेक्षावन्तो बुद्धिमन्तस्ते सुखार्थमेव प्रवर्त्तन्त इति न । किं तु दुःखत्यागायापि प्रवर्त्तन्ते । तेवं विवञ्चते । दुःखस्पर्शशून्यशश्वत्सुखाभावात् दुःखस्य चावश्य हातव्यत्वात् विवेकहीनस्य च दुःशकत्वात् विषसंपृक्तमधुवदुभे अपि सुखदुःखे त्यज्येयातामतो भवन्मातः श्रेष्ठोऽत्र नेतावान् दुःखविप्लव इति । ततः सुखप्रार्थमिक दुःखत्यागार्थमपि प्रेक्षावग्रहवत्तेरुपलम्भीऽस्ति । तथाच प्रयोगः । पेचावतां प्रवृत्तिर्दुःखपरिहारार्थपि प्रवृत्तित्वात् तमोऽत्यन्त दुःखोच्छेदायैताह नेऽपि
कटको द्वारप्रवृत्तिवदिति ।
माने दक्षाः प्रवर्त्तिष्यन्त इत्यर्थः ॥ १४८ ॥
अथ स्वमोक्षं प्रमाणयितुमोल कामीनमधिक्षिपति । मोहावस्थात्वान्मर्च्छाद्यवस्थावदत्र विवेकिनां प्रवृत्तिने युक्तत्याहुरन्य इति ॥
अन्धे इति काणादापेक्षया नैयायिकनायका एवं प्राहुः । यदत्र पराभिमतं मोचे विदेकिनां प्रेचावतां प्रवृत्तियुक्ता न भवति । मोहावस्थात्वात् शून्यावस्थाभावादित्यर्थः । यथा मूर्च्छा गुरुतरगरी र्मिनिर्मिता घूर्णा । श्रादिशब्दात् चैव्यादिग्रहः । तत्र
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आगमपरिच्छेदः ।
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भू द्यवस्थायां न कोऽपि प्रवरौवर्ति तथा । अयं भावः । भवदभिमतो मोक्षो मोहावस्थामनुकरोति । सर्वथा बुद्धिसुखयोरुच्छेदाहरणात् । ततो यथाहं मूर्खाद्यवस्थायां भूयाममिति मनीषया कमिदपि प्रेक्षावान् मूर्खाद्यवस्थायां न प्रवर्तते । तथा भवदुक्ते मोक्षे न कोऽपि प्रवति । चैतन्य शून्यलेन इयोस्तुल्यत्वादन्यथा प्रेक्षावत्ताक्षतः । तथा चानुमानम् । विवादाध्यामित मोने प्रेक्षावन्तो न प्रवत्स्यन्ति। मोहावस्थात्वात् मूछाद्यवस्थावदिति ॥ १५० ॥ कण्ट कोडारवदिति परोक्तदृष्टान्तस्य वैषम्यं स्पष्टयितुमाचष्टे ।
दुःखे सति सुखोपभोगस्यासम्भवात् कण्टकादिदुःखपरिहारोऽपि सुखोपभोगार्थ एवेत्यसमो दृष्टान्त इति ॥ __सुखाभावेऽपि कण्टकादिदुःखपरिहाराय प्रेक्षावान् प्रवर्तत इति यः परीतो दृष्टान्तः । सोऽसमो विषमो दुःखे सत्यवश्यं सुखोपभोगाभावात् । अतएव दुःखपरिहारे पि या प्रवृत्तिः सा सुखप्राप्तार्थव। अयमर्थः। कण्टकादिभङ्गदुःखे सुखं तावत्र भवति। सुखदुःखयोमियो विरोधव्याघ्रामातत्वात् । ततो यदा तदुःखपरिहाराय प्रेक्षावान् प्रवर्तते तदा तदपहारे किञ्चित्सुखमस्ति न वा । नास्तीति तावह तमशक्यं सुखानुभूत्या प्रतीतिविरोधापत्तेः । अस्तीति चेत्कथं दुःखपरिहारार्थैव प्रवृत्तिनं सुखार्था । तथाच प्रयोगः । प्रेक्षावत्प्रवत्तिर्दःखपरिहारार्थापि सुखायैव प्रेक्षावत्प्रवत्तिवाहिच जितरक्त निष्काशनप्रवत्तिवदिति ।
ननु कण्टकभङ्गप्रागवस्थाया एव कण्ट को हार व्यज्यमान
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न्यायतात्पर्य्यदौपिका |
त्वात् कुतः सुखमिति चेन्न । सा प्रागवस्था किं सुखमयो दुःखमयो था । प्रकारान्तराभावात् । न तावद्दुःखमयौ दुःखहेतुकण्टकादि शल्यस्यासत्त्वात् । सुखमयो चेन्तर्हि सुखायैव प्रवृत्तिरित्याया
तम् ॥ १५१ ॥
परमाशङ्कते ।
कुतो मुक्तस्य सुखोपभोगसिद्धिरिति चेदिति ॥ चेदिति । कुतः प्रमाणदिति प्रश्नार्थः ॥ १५२ ॥ भागमादुक्तं हि ।
सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयात् दुष्प्रापमक्कतात्मभिः ॥
तथा आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोत्रेऽभिव्यज्यते । विज्ञानमा नन्दं ब्रह्मेति ॥
आत्यन्तिकमिति अतिशायि । बुद्धिग्राह्यमिति ज्ञानवेद्यमती एभिस्त्रिभिर्विशेषणैः सांसारिक
अपरि
न्द्रियमिति आत्म प्रत्यक्षम् ।
दुःखव्युदासस्तस्य नैतद्रूपत्वात् । अकृतात्मभिरिति । कर्मितक्षेत्रज्ञतत्त्वैः । कोऽर्थः ।
अनिन्द्रियप्रभवत्वादतिशाख
विशिष्टज्ञानसंवेद्यं नेचज्ञप्रत्यक्षं मौख्यं यत्र साक्षाद्भवति तम अनात्मतत्त्वतैरतिदुर्लभं मोक्षं विद्वान् विवादिति । तथानन्द मित्यादि । श्रनन्दनिति व्युत्पत्त्या सर्वदाप्यानन्दकं ब्रह्मण परमात्मनो रूपं स्वरूपं तच्च मोऽभिव्यक्तिमेति । विज्ञान विशिष्टज्ञानजुष्टमानन्दमाह्लादकम् । ब्रह्म परमात्मखरूपञ्चापि मोक्षेऽभिव्यज्यते । एवं मुक्तस्य सौख्यसद्भावं श्रागमप्रमाणमुक्तम् ।
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श्रागमपरिच्छेदः ।
ननु नवानां विशिष्टगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात् प्रदीपसन्तानवदिति प्रागुक्तेनानुमानेनायमागमी बाधियत इति चेन्न । विकल्पाक्षमत्वात् । तथाहि किमिदं सन्तानत्वं नाम । किं काय्र्यकारणभावेन प्रवृत्तिरेकाधारापरापरोत्पत्तिर्वा । नाचः पक्षस्ताहचसन्तानस्य भवतामनभ्युपगमात् । यैस्तु बौद्धैस्तादृशः सन्तानोऽभ्युपगम्यते तेषां मतेऽपि काव्यकारणभावेन प्रवर्त्तमानानां बुझादिक्षणानां मुक्तावपि निर्मलतया पुनरुत्पादेन सर्वथा सन्तानानुच्छेदात् । न द्वितीयः । प्रदीपादौ तादृक् सन्तानत्वाभावेन दृष्टान्तस्य साधनवैकल्यापातात् । तथाविधसन्तानत्वसद्भावेऽपि चात्यन्तोच्छेदाभावात् परमाणुपाकजरूपादिभिर्हेतुर्व्यभिचारी । शब्दबुद्धिविद्युदादिष्वत्यन्तानुच्छेदवत्सन्तानत्वस्य स्थितत्वादिरुद्धः । सन्तानोऽपि नोच्छिद्येत च विपर्ययें बाधकाभावादित्यनैकान्तिकोऽपीत्यलं
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स्यादत्यन्तं
प्रसङ्गेन ॥ १५३ ॥
मुक्तस्य दुःखाभावे सुखानन्दशब्दावौपचारिकावित्याशङ्का परिहरति ।
मुख्यार्थ बाधकाभावान्रोपचार कल्पनेति ॥
मोचे सुखानन्दशब्दयोरुपचारकल्पना गौणी वृत्तिर्न भवति । अत्र हेतुः । मुख्यार्थे खखाभिधाव्यापारवाच्ये सुखाह्नादरूपे बाधक प्रमाणाभावात् । श्रयमर्थः । शब्दप्रवृत्तिर्द्विधा मुख्यवृत्त्योपचारवृत्त्या च । यत्र मुख्यार्थबाधस्तत्रौपचारिको । यथा माणवकोऽग्निरित्यत्र माणवके दाहकत्वस्य मुख्यार्थस्य बाधात् दुईरक्रोध
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न्यायतात्पर्य दीपिका ।
योगेनाग्निशब्द उपचारिकः । अत्र च मोक्षे माणवकेऽग्निशब्दस्येव सुखानन्दमन्दयोरौपचारिको वृत्तिर्न भवति । सुखानन्द शब्दवाच्यस्य सन्तोषाह्लादरूपत्य मुख्यास्य बाधायोगात् । मोक्षे सुखानन्दशब्दयोः स्ववाच्यं वाचयतोर्न किञ्चिद्दाधकमिति भावः । प्रयोगश्चात्र सुखानन्दगन्दौ मोक्षे साक्षात् स्ववाच्यवाचको मुख्यार्थे बाधकाभावात् घटे घटशब्दवदिति ॥ १५४ ॥
परोक्त मुख्यार्थबाधं शङ्कते ।
२८८
*सुख संवेदनयोर्नित्यत्वात् मुक्तसंसारिणी रविशेषप्रसङ्ग इति चेदिति ॥
न सुखं परमानन्दरूपं संवेदना ज्ञानम् । तयोर्नित्यत्वान्मुक्तात्मनः संसारिणश्चाविशेष: प्रसज्येत । सुखसंवेदनयोर्नित्यभावेन मुक्तस्यैव संसारिणोऽपि तत्सम्भवात् । अयमर्थः । मुक्तस्य ये सुखसंवेदने ते किमनित्ये नित्ये वा । न तावदनित्ये सुखसंवेदनयोविनाशेन पुनर्दुःखात्पादान्मुक्तस्यापि संसारित्वप्रसङ्गः । नित्ये चेत्तर्हि तयोरात्मगुणत्वेन सर्वदात्मना सह सम्बन्धान्मुक्तात्मनोव संसारिण्यपि ते व्यक्ती भवतोऽन्यथा नित्यत्वनाशात् । संसारिण्यपि च ताक्ती मुक्तस्य संसारिण्याविशेषः प्रसज्येत । ततः सुखानन्दशब्दयोर्मुख्यार्थ प्रसङ्गबाधक सद्भावात् स्ववाच्ये औपचारिको क वृत्तिः ॥ १५५ ॥
The Text adds "अन्यथा" in the beginning of this aphorism ( See page 40. Live 14 ).
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आगमपरिच्छेदः ।
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परिहरति ।
यथा
न चक्षुर्घटयोः कुडयादेवि सुखसंवेदनयोर्विषय विषयसम्बन्धप्रत्यनीकस्य दुःखादेः संसारावस्थायां सम्भवात् तन्नाशे च मुक्तावस्थायां भवति सुख संवेदनयोः सम्बन्ध इत्यतो नाविशेष इति ॥ चक्षुर्घटयोर्विषयविषयि सम्बन्ध प्रत्यनीकस्य कुड्यादेः सम्भवान्मिथः सम्बन्धो न भवति । तथा संसारावस्थायां सुखसंवेदनयोर्विषयविषयि सम्बन्ध प्रत्यनीकस्य दुःखादेः सम्भवान्मुक्तावस्थायां तन्नाशे विषयविषयि सम्बन्ध प्रत्यनीकदुःखादिनाशेऽतिसुखसंवेदनयोः सम्बन्धो भवत्यतो हेतोर्मुकसंसारिणोरविशेषप्रखङ्गो न भवति । अयमर्थः । चतुर्विषयि घटो विषयः तयो - रन्तरा भित्यादौ सम्बन्धप्रतिबन्धके सति यथा मिथः सम्बन्धो न भवत्येवं संसारे संसारियो विषयविषयिरूपयोः सुखसंवेदनयोविषयविषयि सम्बन्धप्रतिकूलपापोचयवशात् दुःखादिकमुदीयते । तस्मिन् सति तत्सम्बन्धो न भवति । यदा तु चक्षुर्घटयोरपि कुड्यादिव्यपगमस्तदा यथा तत्सम्बन्धः स्यात्तथाष्टाङ्गयोगपरिपुष्टपुण्यवशात् दुःखादिनायें जाते सुखसंवेदनयोः सम्बन्धः सम्पद्यते । दुःखादिनाशश्च सर्वथा मुक्तस्यैव नान्यस्येति त्वदुक्को मुक्त संसारियोस्तौ ल्यप्रसङ्गो न युक्त इति ॥ १५६ ॥
पुनः परमतमाशङ्कते ।
तस्य सम्बन्धस्य कृतकत्वेन कदाचिन्नाशप्रसङ्ग इति चेदिति ॥ तस्य सुखसंवेदनयोः सम्बन्धस्य संसारावस्थायामभूत्वा मुक्ताभवतः सतः कृतकत्वम् । यस्तु क्वतकः सोऽवश्यं
वस्थायां
ইত
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न्यायतात्ययंदौपिका।
नश्यतीति तत्सम्बन्धस्य कृतकत्वान्नाश: प्रमज्येत। तथाहि । मुखसंवेदनयोः सम्बन्धो विनाशो कतकत्वात् घटवदिति । सम्बन्ध स्य नाश च मुक्तस्य पुनः संसारित्व प्रसङ्गोऽपि ज्ञेयः ॥ १५७ ॥ परिहरति।
न प्रध्वंसेनानैकान्तादिति ॥ सम्बन्धानित्यत्वसाधकस्य कतकत्वस्य हेतोः प्रध्वंस (भावनानैकान्तिकत्वात् त्वदु तो हेतुर्दुष्टो भवतीति शेषः । सादिरनन्तश्वाभावः प्रध्वंसस्तस्य कृतकत्वेऽप्यनश्वरत्वात् । ततः पक्षनयत्तित्वात् कतकत्वस्य हेतोव्यक्तमनेकान्तिकत्वम् ॥ १५८ ॥ पुनः शकते।
वस्तुत्वे सतीति चेदिति ॥ प्रागुतेऽनुमाने वस्तुले सति कृतकत्वादिति हेतौ सविशेषण कतेऽनेकान्तिकत्वं न भविष्यति । प्रध्वंसस्याभावरूपतयाऽवस्तुत्वादित्यर्थः ॥ १५८ ॥ परिहरति ।
न द्रव्यादिष्वनन्तर्भावेन तदसिद्धत्वादिति ॥ द्रव्यादिषु द्रव्यगुण कमसामान्यविशेषसमवायेष्वनन्तर्भावना.. प्रवेशेनास्य वस्तुत्वस्यासिद्धत्वादित्यनैकान्तिकत्वपरिहारो न भवति । अयमर्थः । भवन्मते द्रव्यादिषट्पदाथै वस्तुत्वम् । ततः सुखसंवेदनयोर्वस्तुरूपो यो विषय विषयिभावः सम्बन्धः स किं द्रव्यादिष्वन्तर्भवति नो वा। अन्तर्भावपक्ष: पुरः क्षोत्स्यते ।
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________________
भागमपरिच्छेदः ।
२८१
नान्तर्भवति चेत्तहि सम्बन्धस्य न वस्तुत्वसिद्रिव्यादिषु क्वापि तदनन्तर्भावात् । ट्रयादिषट्कान्तर्गतस्यैव वस्तुत्वाभ्युपगमाञ्च । अन्यथाभावस्यापि वस्तुत्वापत्तेः ॥ १६० ॥ अन्तर्भावपक्षं प्रतिक्षेप्तुमाह । __ अन्तर्भाव वा समवायाभावादिभिः सह तत्संवेदनस्य सम्बन्धी न स्यादिति ॥
समवायो युतसिद्धानामाधा-धारभूतानामिहेप्ति प्रत्यय हेतुः सम्बन्धः । अभावो भावप्रतिपन्यो । श्रादिशब्दासंयोगग्रहस्तैः सह तत्संवेदनस्य वस्तुरूपविषयविषयिसम्बन्धज्ञानस्य सम्बन्धो न घटामटाट्येत । अयमर्थः । वस्तुरूपविषयविषयिसम्बन्धो यदि ट्रयादिषट्पदायामन्तर्भाव्यत तहि द्रव्यादिषु यथा कथञ्चित्तसम्बन्धो भवेत् । परं समवायेनाभावादिभिश्च सह विषयविधिसम्बन्धसंवेदनसम्बन्धो न भवेत् । तथाहि समवायस्तावत् स्वयं सम्बन्धः । सम्बन्धे च सम्बन्धान्तरं यदि स्वीक्रियते तहि तत्रापि मम्बधान्तरं तत्रान्यन्यदित्यनवस्थालतालूता लालम्बात्तत्तः कथं समवायेन मह सम्बन्धस्तथाऽभावस्यावस्तुरूपत्वात् संयोगस्य च स्वयं सम्बन्ध त्वात् ताभ्यां सहापि वस्तरूपविषयविर्षायसम्बन्धसंवेदनसम्बन्धी दुर्घट एव । एवञ्च त्वन्मत कुतो वस्तु स्वरूपो विषयविषयिसम्बन्धा येन वस्तुत्वे सतीति विशेष गाई पेण क तक त्व हतो रन कान्तिकत्वमुक्तिः स्यादिति ॥ १६१ ॥ प्रकारान्तरेण विषयविषयिसम्बन्धं शतं ।
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________________
२८२
न्धायतात्पर्य्यदीपिका।
अदृष्टादिवशात् कम्मकारकं विषयः। तज्जनितं ज्ञानं विषयोति चेदिति ॥
अदृष्टं धर्माधी आदिशब्दादोश्वरादिग्रहः । कम्मत्यादि । कम्मं च तत् कारकच कम्मकारकं ज्ञेयरूपं द्वितीयाविभक्त्यन्तं वस्त्विति यावत् । तज्जनितमिति विषयजनितम् । अयमर्थः । पुमान् यत्किञ्चिद्वस्तु पश्यति सम्माधर्मादिवशात्। ततो यददृष्टादिप्राप्यं घटादि ज्ञेयं वस्तु स विषयस्तेन च विषयेण जनितं ज्ञानं विषयि । एतेन ज्ञानं स्वरूपेणे व विपर्ययस्तु स्वरूपेण न विषयः । किन्तु ज्ञानजनकत्वेनेत्युक्तम् । एवं सम्बन्धसिद्धौ सुखसंवेदनसम्बन्धस्य नश्वरत्वं तदवस्थमित्यथैः ॥ १६२ ॥ परिहरति ।
नेश्वरज्ञानस्य नित्यस्याथै: सह सम्बन्धाभावप्रसङ्गादिति ।। यद्यर्थों ज्ञानस्य स्वरूपेण न विषयः किन्तु तज्जनकलेनेति मतम् । तदा नित्य स्येश्वरस्य ज्ञानस्यार्थ: सह सम्बन्ध एव न स्यात्तस्यादृष्टाद्यपक्षितवस्त्वजन्यत्वात्। न हि यथा लौकिक ज्ञानं विविधघटादिविषयेण जन्यत तथेश्वर ज्ञानमपि जन्यते । नवरत्वापत्तेः। किञ्च ज्ञानस्य विषयजन्यत्वेऽभ्यपगम्यमानेऽस्मदादि. ज्ञानस्याप्यर्थः सह सम्बन्धी न स्यादतीतभविष्यत्पदार्थानाममत्त्वेन कारणत्वाघटनात्। अस्ति च नित्य स्यापीश्वरस्य ज्ञानस्यार्थसम्बन्धो न च स लतकोऽपि विनाशीति सम्बन्धानित्यवसाधक त्वहेतुमिड इति ॥ १६३ ॥
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________________
आगमपरिच्छेदः ।
२८३
उपसंहरति ।
तस्मात्कृतकत्वेऽपि नित्य सुख संवेदनसम्बन्धस्य विनाशकारणा
भावान्नित्यत्वं स्थितमिति ॥
नित्य सुखसंवेदन सम्बन्धस्य यद्यपि कृतकत्वमस्ति । तथापि तद्विनाशकारणाभावात्तस्य नित्यत्वं स्थितं सिद्धमिति यावत् । TS । सम्बन्धः कृतकत्वेन स एव विनश्यति । यद्दिनाशहेतुः स्याद्यथा घटादिविनाशे मुद्गरादिः । न हि नित्यसुखसंवेदनसम्बन्धविनाशे कोऽपि हेतुरस्ति । कृतकत्वमेव भविष्यतीति चेन्न । तस्य प्रागपि निर्लोठितत्वात् । तस्माद्दिनाशकारणाभावात् सुखसंवेदनसम्बन्धस्य नित्यत्वं स्वतः सिद्धमिति । तथाच प्रयोगः | मुक्तसुखसंवेदनयोः सम्बन्धः कृतकीऽपि न विनश्यति विनाशकारणाभावात् प्रध्वंसाभाववदिति ॥ १६४ ॥
-
अथ स्वाभिमतसिद्धिं दर्शयति ।
सिद्धमेतव्रित्य संवेद्यमानेन सुखेन विशिष्टात्यन्तिको दुःखनिवृत्ति: पुरुषस्य मोक्ष इति ॥
Aho! Shrutgyanam
नित्यसंवेद्यमानेनेति पदेन सांसारिक सुखातिव्याप्तिव्युदासः । सुखेनेति पदेन काणादाभिमते मोक्षप्रतिक्षेपः । श्रात्यन्तिकौति पदेन भवोद्भूतकादाचित्कदुःखनिवृत्तिव्यावृत्तिः । पुरुषस्येत्यात्मनः । अयमर्थः । सोपाधिसावधिकपरिमित त्रिदशमन्दिर सुखादवि निरुपाधिनिवध्यपरिमित सुखसंसगदग्रा या सार्वदिकी दु:खनिवृत्तिः सा पुरुषस्य मोक्षो भवति ॥ १६५ ॥
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________________
२८४
न्यायतात्पर्य्यदीपिका। __ अथ येषां गुरूणां प्रसादात् न्यायरत्नप्राप्तिजनुषी तानभितुष्टषुः शास्त्र कारः प्राह । जिता: समुद्रा गुरुभिर्मदीयैरत्नं ददद्भिस्त्रिदशैरलभ्यम् । यहीयमानं सततं दिजानां प्रवईते चैव करोति मुक्तिम् ॥
मदीयैर्गरुभिरध्यापकैः समुद्रा जिग्यिर । अत्र हेतुगौं विशे. षणम्। किं कुर्वद्भिर्देवैरप्राप्यं जयरूपं रत्नं ददानैः। कुतो चाय स्य रत्नत्वमित्याह । यत् न्यायरत्नं हिज्ञानां प्रतिपद्यमानं वईत एव । तीक्षणबुद्धितयान्यान्यन्यायशास्त्रप्रणयनेन प्रैधते । एवकारः सर्वदापि वृद्धिप्रतिपादनार्थः । चकारस्य व्यस्तसम्बन्धान केवलं वईते । किन्तु न्याय प्रदीपालोकावलोकितपरमात्मरूपतया मुक्ति परमानन्दरूपां करोति च। अयमर्थः । समुद्रा यत्नं ददिरे तत् सुरतभ्यं तेनिमीथ्य निष्कासितत्वात् । तच्च शश्व द्वितीयमाणं तीयते । संसारमोहहेतुत्वात् । मुक्तिं न तनोति च । अत: समुद्र दत्तरमादन्यादृशं न्यायरत्नं ददानमहुरुभिः समुद्रा जिता इति ॥ १६६ ॥ त्रिदशैरपि यदतिदुर्लभं तत् न्यायरत्नं त्वया कथं प्राप्तमित्याह । प्राचार्यमाराध्य मयापि लब्धं लन्यायरत्न *सु परोपकारि । उमर्गिकै: स्वल्पपदैनिंबई संसारमुक्त्ये खलु महिजानामिति ॥
तत् पूर्वोतं न्यायरत्नं आचाव्यं निजगुरुमाराध्य मयापि प्राप्तम् । कीदृशं तत् परापकारि परोपयोगनिष्ठम् । तत् त्वया किं
----
-
*
A13they retin: स्व ।
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________________
आगमपरिच्छेदः ।
२८५
कृतमित्याह । उत्सर्गिकैनिजबुद्ध्यनन्यथाक्तैः स्वल्पपदैः स्तोका क्षरैर्गुम्फितम् । किमर्थमित्याह । संसारेत्यादि । उत्तमब्राह्मणानां भवविमोक्षायेति ॥ १६७ ॥
श्री कृष्णर्षिमच्छ गच्छ मुकुट श्रीमन्महेन्द्र प्रभोः शिष्यश्रीजयसिंहमूरिरखिलप्रामाणिकग्रामणोः । एतां निर्मितवान् परोपकतये श्रीन्यायमाराश्रितां स्पष्टायी विकृतिं कृपापरवशै: सैषा विशोध्या बुधैः ॥ टोकेयं न्यायमारस्य मनस्तात्पर्य दीपिका ।
मनीषिणां मन:सौधे सर्वदापि प्रकाशताम् ॥ इति श्रीकृष्णर्षिगच्छमण्डनीमहेन्द्रसूरिशिष्ययोजयसिंहसूरिविरचितायां न्यायतात्पर्य्यदौपिकाभिधानायां श्रीन्यायसारटीकायामागमपरिच्छेद
स्तार्तीयिकः सम्पूर्णः ॥
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________________
1
२८७
सूचिपत्रम् ।
INDEX OF WORDS.
अतिप्रसक्ति ५२,५४,७२ अकिञ्चनता
२७६ : अतिप्रसङ्ग ३७,५०,६४,७२, अकूट
२०८ । १७१,२१८,२६६,२६७ अवतकत्व
८ अतिमृत्यु ३८,२८१ अक्तात्मन्
४०,२८६ अतिव्यापक अक्रम
१५० अंतिव्याप्ति ५२,७१,७३,१५५, अक्ष
२५८,२७६,२८३ अक्षपाद ५१,६८,२३०,२३६ । अतिसामान्य अक्षर
३४ : अतिसाहादि (?) २१३ अख्याति
স্মৃর্নীতি
२८,४० अग्निहोत्र २८,२०६ अत्यन्त अङ्गक्रिया
अत्यन्तावस्थान २८२ अङ्गयोग
अनिरूपत्व अचेतनत्व
१७ । अदृष्ट ३०,४१,८१,१०६,२८२ अज
२५. अदृष्टार्थ अजिन
२५.१८८ अबैत २५४,२५८,२६५ अज्ञान २६,१६८,२०२,२०३ अधम्म ३५,४७,७३,२५२,२५३, अणिमा
३७,२७० : २७०,२७१,२७२,२८२, अणु
७४,१२४,१३८ २८२ । पतिदेग
२२६ अधिक २५,१६८,२००
२८
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________________
अधिकरण अधिकरणसिडान्त
अधिकार
अधिष्ठान
१२६,१२८, २०७
अननुभाषण
अननुयोग
अनन्त
अध्यवसाय
अध्यात्म
अध्यात्मशास्त्र
अध्यास
अनध्यवसाय
२,६४,६५,६६
अनध्यवसित ७,१०,१११,११२,
अनन्तरीयकत्व
अनन्य सम
अनन्वय
अनन्वितत्व
अनभिरति
अनवच्छिन
अनवद्य
अनवधारण
६४, ६५
[ २८८ ]
अनवस्था
१५४
१५४
३३ अनागत
८० अनाधार
अनिग्रह
अनित्य
अनित्यजाति
अनियम
१६.६६
३५
२७३
५८
२६.१६८,२०२
१०५, ११५, १७३, १८८, २२८,
२३७, २८१
अनियमकथा
अनियामक
अनिर्देश
अनिर्वाच्यत्व
अनिश्चय
अनिश्चित
२७
३६
८,८
अनुगम
१६०, १८१
अनुग्रह
२०७
अनुचिन्तन
१९८ | अनुत्पत्तिजाति
३८.२८० अनुत्पत्तिसम
१६,४८,५४,८१,
१, २, ५७, ५८, । अनुपलब्धि
३४
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३६
२७
२,१८०
१६८
२८
१८८
२८
रह
२५५
τ
१२४ |अनुपपत्ति
३६ | अनुपयोगित्व अनुपलब्धि १,२२१.२२,२८,
५८, ६३, ८८, १८६, १८७, २१७,२१८
७,५७
८.०
२,१६
३८
१६८
२०,१७७
३४
२८
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________________
[
२८८
]
२२,२४
अनुपलचिजाति १६८ | अनुवादकत्व ३१,२३१,२३२ अनुपलब्धिसम २२,१८५ अनेकधम्म
५८,६० अनुपलम्स
| अनेकान्त अनुप्रसक्ति २४,१८६ अनै कान्तिक ७,१०,१०५,१११, श्रनुभव १,२,५.२८,५२,५४, ११२, ११८,१२३,१२६,१३१,
५५, ६७,६८,६८,७१, ८७, १३४,१८५,१८६,२०७,२१४ ८८,८८, २३१, २३५, २३०, २५७,२६५ २३८.२३८,२४१,२४२,२४३ / अनैकान्तिकता २४८,२५६,२८७
अनेकान्तिकत्व १७,२४,१६४, अनुमान २,५.१८,२१,२८,२८, २१५ २१,३२, ३३, ३६, ४८, ५५, अनैकान्त्य ६१,७०,७१, ७२, ७३, ८५, । अन्तःकरण ३,७७,८३.१३४ ८७,८८,८४८८,१०८,१२८, अन्तर्गडु १३०,१३८,१८२,२०८,२१४ अन्तर्भाव ३२,२३० २३०,२३१,२३५,२३७,२३८, अन्धतामिस्र
२७४ २३८,२४१,२४२,२४३,२४८, अन्यतरासिद्ध
११८,११८ २५६,२८७
अन्ययोग ४५,२८२ अनुमानविरुद्ध ११,१२८
अन्यसम
४. अनुमानकदेशविरुद्ध अन्योन्याश्रय २३२,२३८ अनुमापक
अन्वय ५,१२,३२,३३,३६,८०, अनुमेय
८१,८८, १००, १०८, १३६, अनुयुक्त
१३०,१४२, १४७,१४८,१४८, अनुवाद
२६,२०० । १७१,२०१,२३९,२४०,२४१, अनुवादक २३२,२३४ । २४४,२६३
اسم عر
१५.
५
a
in
s
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________________
[ ३०० ]
२१०
अन्वय दृष्टान्त १०२ : अपूप
१८८ अन्वयव्यतिरेक
अपेक्षा अन्वयव्यतिरकिन् ५,६,८८, अपोह
१,५५.५६ १००,१०१,१०६,१०८ अपौरुषेय १८५,२१५,२१६ अत्वयव्याप्ति १०८.२४०.२४१ ! अप्रतिपत्ति १६,२३,१६५,१६७, अपकर्ष
१८,१७१ १६८ अपकर्षजाति १६८ अप्रतिभा १६८,२०३ अपकर्षसम १८,१७१.१७२ अप्रतिभास
२१६ अयदात्मक ८,१२२ ! अप्रतिषेध
१८,२० अपनयन
२४ अप्रतीत २५, १८७,१०८ अपर
३५,३०,२५५ । अप्रमाण अपरत्व
१२७,१३२
अप्रमित अपरमात्मन्
अप्रयोजक अपरात्म
अप्रसङ्ग
१८,१७० अपरिग्रह
अप्रसङ्गोनेयिन् १०८. अपरिणाम
अप्रसिद्ध अपरोक्ष
२,७१,७२ अप्रसिद्धत्व ३१,२६५ अपलाप
१६ अप्राप्तकाल २५,१६८,१०८, अपवर्ग ३८,२५०,२७२, २८३
अप्राप्ति अपशब्द
२५,२०८ | अप्राप्तिजाति १६८ अपसिद्धान्त २८,१५५,१६८, अप्राप्तिसमा
१७५ २०६,२०७
अप्रामाण्य अपार्थक २५,१६८,१८८ । अबाधित
३२
१८८
१४
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________________
[
३०१ ]
अबाधितविषय ६.१०० १०२, | अयोग
२५ । अयोगिप्रत्यक्ष अभाव ३,५,१५.१८,२०.२१, अयोग्यत्व
२२,२५,२८,३०,३३,५०,७८, अरण्यानो २२३,२२७ ८०, ८१, २२२, २२५. २४२, अर्थे २.३,५,६,१५.१६,१७,२०,
२४३.२४४,२४५.२८१ २१,२३,२५,२६ २८,३०,३१, अभिचार
२०,१७६ । ७०,७२,८३,८७,२५० अभिनिवेश २७३,२७४,२७५ । अर्थक्रिया १५०.२६५ अभिमान ३०.६२ । अर्थक्रियाकारित्व १४८,२६५ अभियोग
२१,३८ । अर्थख्याति अभिव्यक्ति २१८,२२१ । अर्थयुनरुक्त अभिव्यञ्जक २८,२१७.२१८. अर्थान्तर २,२४,२५,१६८, २१८,२२०,२२१
१८६.१८७ अभूत्वा भावित्व
२६ । अर्थापत्ति ३०,३२,३३,१८०, अभौतिक
२२२,२२३,२३४,२३७,२३८, अभ्यास
८६.२७४ । २३८,२४०,२४१,२४२,२७१ अभ्युपगम
१५४ । अर्थापत्तिजाति अभ्युपगमसिद्धान्त १५५ । अलंकर्मीण २१६.२२१ अधान्त
___८४ अवञ्चकत्व अमूर्त १७० अवधारण
१५,५० अमूत्तत्व ८,१०,१८,२३,१२४
अवभासक अयुक्त
अवभासमान
१,१३ अयुत
। अवयव ५,२५,५१,८६,१३५, अयुतसिद्ध
८१,८२ १४८,१५६,१८८,१८८,२३६
२१३
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________________
[ ३०२ ]
१६८
२१,१८१
४
-
0
५४
अवयविन्
३२,२२६ / अविशेषजाति अवर्ण
११५ ।
अविशेषसम अवण्य १८,१०,१७१,१७२,१७३ । अविसंवाद
२१५ अवर्ण्य जाति १६८ अविसंवादकत्व अवाचकत्व ३१.२३१ । अत्ति अविच्छेद
२४ । अव्यतिरेक अविज्ञातार्थ २५,१६८,१८७, ! अव्यतिरैकिन् १८८ अव्यभिचारिन्
५२.८७ अविद्यमानसपक्षविपक्ष १० अव्यापक
५४,८८८. अधिद्या ३५,२५२,२५३,२७४, अव्यापकत्व २७५
अव्याप्ति १३,५४,१४०,१४१, अविनाभाव ५,१४,३२,३३, १४२ ८७,८८,८८,८०, ८१,६५, ! अष्टाङ्ग
२७५ १०५,१०६,१०८.१४५.१०१, | अष्टाङ्गयोग ५१,७२,२७१ २१०,२३८,२३८,२४२ असत्
२,२२ अविनाभावाभास ८७ असत्ख्याति अधिनाभावित्व ४०,१४३,२५२, । असत्त्वख्याति
२५५
असत्प्रतिपक्षत्व ६,१००,१०३, अविनाभाविन् १८,१७०,२१४ १०६,१४८ বিনামুন १७०,१०१ असदुत्तर
१८८ স্মৃৰিাঘি
६। असद्भूत अविवेक
असम अविशिष्टत्व
असम्भवित्व अविशष २,३,१६,१८,२१,२४ : असम्यतय
२८३
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________________
[
३०३ ]
असाधक
८०
७,१८,२४ । ७१, १३० , १३१.१३२,१८२, असाधनाङ्ग
१५ २०६,२०८,२१०,२१२,२३४, प्रसिद्ध ७,८,८,१२,२२,३३,५४, २३५,२३६ २३८,२४६.२४७, १११,११३.११४,११६.११८, २४८,२५६,२५८,२२३,२२६, २१८,१२२,१३५,२०८
२३०,२४२,२८२,२८६,२८७ असिद्धत्व ८,१३४,२१५,२६४ आगमविरुद्ध ११,१३० असिद्धि
२०,२१,२५ आगमैकदेशविरुद्ध ११ अस्तित्व
| आचार्य ५२,२६२,२६३ अस्तेय ३८,२७५,२७६
आत्मख्याति अस्मिता
२७४,२७५ आमन् ३,१२,३३,३५,३७,३८, अहङ्कार
६२ ३८,६१,७७, ८२, ८३. ११५, अहिंसा ३८,२७५,२७६ १३१,१३४,१८८,२४३,२५०, बहेतु
२५१,२५४,२५५,१२५,२०८, अहेतुत्व
२६०,२६७,२६८,२८२ अहेतुसम
१० | आत्यन्तिक ३४,३५,४०,४१, अहेतुसमा
२५०,२५३,२८४ प्रा। आधार
२१६,२६० प्राकाङ्गा १५१,१८८,२३३ । बाधिदैविक २७३,२७४ आकाश १,७,८.११,१२,१८, आधिभौतिक २७३,२७४ २३,३८,६१,८२,१२५,२१४, प्राधेय
२१६,२६० २८१,२८२
आध्यात्मिक
२७३ आकाशपुष्प
आनन्त्य
२२,२३ प्रागम २,२१,२८,३२,३३,३४, ।
স্থান
४०,२८६ ३६, ४०, ४१, ४८, ६३, ७०, पानर्थक्य
२५,२६
१७८
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________________
अनुमानिक आपत्ति
आस
आप्तवचन
आप्तवाक्य
२४७
आति
श्राभास
आमलक
আयतन
आरम्भक
धन
आराम
आर्ष
श्राली
आलोचना
[ ३०४ ]
आश्रित
आसन
आह्लाद
પૂર્
३८,२७४
२८,२१२,२२३,२२६
३०,२१२,२२३
२२७,२२८, २३५,
२१२
५६
३,८४
३५
१५८
ईशनी
1
२७२ | ईशित्व
२४ ईश्वर
r
८६
२,२,२७,१२५
इच्छा
इतरख्याति
इतरेतराश्रय
३८,२०५,२७०
इन्द्र
इन्द्रिय २, ३,३०,३३,३४,३५,
३६, ५२,६१,६२, ६३,७१,७२,
७३,७८,८३,२१३,२१८, २४३
२४४, २४५, २५०, २५१,२६०
ई ।
आश्रय
आश्रयाश्रित
२३७ | उत्कर्ष
आश्रयासिद्ध
८,११६,२५८ | उत्कर्षजाति
I
आश्रयहीन
उत्कर्षसम
१३,१४१
आश्रयैकदेशसिद्द ८, ११६
उत्कर्षापकर्षसम
३
उत्तर
इ ।
८,२८,३८,४१,५१, ५४,
५५, ६४,७३,८३,१०६, १०८,
११६, २०६, २५८, २०३, २७४,
२८२
१७०, १७४
२५१ | उत्पत्ति
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७७,२८२
६७
उ ।
३१,२३२
५०, ५१
२६
२७०
१८,१७१
१६८
१८,१७१,१७२
१८
१८, १९, २०, २२, ३१,
२०,३०,२२१
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________________
[ ३०५ ]
२२३
२५० ८८,०
उत्सर्गिक
२८8 । उपमिति उदाहरण ५.१२,१३,१७,२३, ! उपलब्ध २५,८६, १३५, १३६, १३०, उपलब्धि १,२,२९,३०,२६,५८, १३८,१३८,२००
६३,२१७,२१८ उदाहरणान्तर
१८६ उपलब्धिजाति उदाहरणाभास १२,१३,१३८, ।
उपलब्धिसम २१,१८२,१८३
उपन्लम्भ २१,३०,३०,६३ उद्देश
उपसंहार । १८,१८,१७४ उपचार १७,४०,१६५,१६६, | उपादान २४,१३०,१८४ १८३,२३१,२८७
उपादेय उपचारछल १६,१७,१६१, | उपाधि
उपाध्याय
२६२ उपनय ५,१४,१५,९६,८८ उपाय
३४,३५,२५० १४५,१४६,१४७,१७४,१८४, उपालम्भ १५,१६,२४,१५३,
१५४,१५५,१५८,१६० उपन्यास
१५ / उपासन ३७,३८,२७२,२७३, उपपत्ति १६,१८,२०,२१,२२, २७६. २७.१८०
उपक्षण उपपत्तिजाति
उभयविकल १३,१३८ उपमान १४,३०,३१,३२,५५, . उभयाव्यावृत्त १३,१४१ ६०,७१, १४५, २२२, २२३, । उभयासिद्ध ११८,११८ २२४,२२५,२२६,२२७,२३०
२३१ २३१,२३३,२३४,२३५,२३६ २३७,२३८
उष्ट्र
ख
Aho! Shrutgyanam
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
ए।
कत्ते
सर्द्धक्य
५८ : कथाविच्छेद जह २,३२,६४,६५,२२८,२३७ कदाग्रह
२७५ अहन
२२८ । कन्या ऋ।
कन्दलीकार ऋषि
८४ कपिल ८,११७,११८
कपोलताड़न एकतानता : कपोलवादित्र
२८ एकतानत्व २७५. कम्बल
१६,१६३ एकदेश
२३६ । करण ५२,२६०,२७४ एकान्त १७६,१७७ । करणबन्ध
३८,२७७
७,२४,२६ ऐकाया
। कम्म ४१,८४,१२७,२८० ऐकान्तिक
११२ । कम्मकारक ऐतिह्य ३०,३४,२२२,२४७ कम्मवासना
२६२ ऐश्वर्य
२५,२५५ । कम्र्मेन्द्रिय औ। कलधौला
२५५ औपचारिक २५२ । कल्पना १६,१७,८४ औलक्य
काकनाश
२६४ औलोक्य
२८२ काणाद २०८,२८४,२८३ कादम्बरी
४४ ककुद
१६६ : कादाचिल्क ७,१०८,१०८,११८, कराटक
१६ २१३,२१७,२५३.२८३ कथा १५,२६,२७,२८,१५१, । कारक
४१,२२२ १५२,१५३,१८.६,२०३,२०४ | कारण १,१०,२०,२१
२८२
MK
क
।
Aho! Shrutgyanam
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
कारिका
कारो
का
कार्पास
काण
कार्य
कार्यकारणभाव
कार्य्यसम
कार्ख समजाति
कार्षापण
काल
[ ३०७ ]
२७४ कूप
२११
२३६,२३७
२६२
कृत्स्न
१७६, २७४
कृष्णर्षिगच्छ
३६.४६.८८ केवलव्यतिरेकिन्
२६२,२६४
१४८, १८४, २०७, २५७
कालिदास
किल्विष
कुचेष्टा
कुट
कुण्ड
कुत्मरूप
कुमारसम्भव
कुम्भक
कूट
२,३,१०,२०,६१,७२,
१२४, १२५, २१६ कालात्ययापदिष्ट ७,११,१०६, कोष्ठ १११,११२,१२८,१३२,१३५, | कौतस्कुति
कौरव्य
कृतकत्व
१३०
२०७
२६, ४०, ११४
१८०
२४०,२४१
१६८ केवलान्वयिन् ५,६,३३,८८,
२०६
१०५, १०६, १०७,१०८, १०८,
२४१
कोरदूषक
२१६ | कौष्ठ
कौठा
क्रम
१८०
२५, १०८
३२,२३६
८६,२०८,२८५
५,७,३३,
८८,१०८,११२,२२८, २२८,
२४
८,११,१८,१८,२३,
२८१
क्षणिक
क्रमयोगपद्य
क्रिया
२४६ क्लेश ३८,५१,२७३,२७४,१७७,
२१५
३८,२७७ | क्षैव्य
२०८
Aho! Shrutgyanam
२६८
११६
*
३३
३८
२१८,२०७
२५, १५०, २६५
२६५
५७
२८४
१०,३७,४६, १२५,
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
३०८
]
७,७४
२७४
१३ २४२
म।
१८५
चीवर
२६८
१४८,२१४,२६२,२६४,२६५, च।
चक्षुः २,३०,७३,७४,७५,८३ क्षेत्रन २५७,२५४,२५६,२७०, चतुरङ्ग १६,१५७,१५८ २७१,२७२,२८६ चतुर्लक्षणी
२५६
चाक्षुष खरविषाण
चान्द्रायण खारी
चार्वाक ख्याति
चित्र
चिरत्न गगन
१७६ गणपति
चेतना गन्ध
चेत; स्वमा
२०८ गमक
चेष्टा ३४,२२२,२४७,२४८ गम्य
८१,९८ | चैतन्य २६१,२६७,२६८ गवय
३०,३१ | चोदनीय गुण २४,५७,०४,८४,१२०, । चौर १३४,२८०
छ। गुरु १६,४३,१५६,२१६,२८.४ छल १६,५१,१५५,१५६,१५९, गोचर
२४८ १६०,१६१ गौड़ी
१३० छलकवादिन् ग्रन्थ
४८ छलवादिन् १७,१६४,१६६ घ। २८४ जनक
४५ घाण
३८,२७६
८१,८८
Aho! Shrutgyanam
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
|
३०८
]
८५
जय
१६ | तत्त्वज्ञान ८,३५,३०,३८,५१, जयश्री
१८८ ११७,११५,२५३ जयसिंह ८६,२०८,२८५ / जल्प १६,५१,१५५,१५७,१५८, | तत्त्वामृत १५८,१६०,२०७
तथागत जल्पक
२१४ तदुत्पत्ति २११,२१५ जाति १६,१७,२३,५१,५७,८४, तन्त्र
१५४ १५६, १५८, १६०, १६७, । तन्मात्र १६८,१६८,१७१,१७२,१७४, तपः ३७,३८,२७०,२७२,२७४, १७५,१८५,१८७,१८८,१८०, २७६,२८१ १८१
तपस्या
२०२ जातिवादिन् १८,१६८,१७०, तमम्
११६,२७४ १०५,१७८,१८२,१८३,१८०, तर्क १५,४४,५१,६५,१५४, १८८
१५५,१५६,१५८ जात्युत्तर २२.१८० । तर्कशास्त्र
४८ ३६,५७ तणक
१२२ মুমি १०८,१८४,२५१
तात्पर्य्यदीपिका
२,३,४ নাস্থান ज्ञानाङ्गुर १६,१५३,१५७,१५८ तादात्मा
२११,२१५ तामित्र
२७४ त।
तोत्र तत्त्व १,१६,४३,५१,१५३, तुला
१०,१२२ २५०,२६०
तुष्टि तत्त्वकौमुदी
६२ | तूणौम्भाव
जीव
२८५
ज्ञान
२७४
Aho! Shrutgyanam
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
३१०
तेजस त्रिपुर
खच
तृष्णा ३५,२५२,२५३ | दूषणाभास
१५६ ७५ दृश्य ४७ दृष्ट
५,८२ विरूप
दृष्टान्त १२,१४,१८,१८,३०, नकाल्य २०,२१,१७८,१८०, ३१,७०,५१,८०,१०२,१२२,
१३५,१३६,१३८,२४०,१४१, वाणुक
१४५,१०४,२००,२३०,२६३, ७३,८३
दृष्टान्तदोष १४१,१४२ दक्ष
४७ दृष्टान्ताभास १३६,१४२,१४३, दर्शन
३५,२५४ दाडिम
२५,१८८ | दृष्टार्थ दार्शन्तिक १७४,२६३ देवर्षि
११,१३२ दिश १०,६१,१२४,१२५ देवेश्वर दुःख ३४,३५,३८,४०,४१, देश
२,३,३०,२०८ ७०,११६,२५०, २५१, २५२, . देशबन्ध २५८,२७३,२७४,२८०,२८१, । दोष
२७,३०,२५० २८२,२८३,२८५,२८३ द्रढक
१८८ १५८ | द्रव्य द्रव्य २,१०,२४,४०,७४,८४,
२,१०,२०,° दुर्वचन
२८,२०७। १२४,१२५,२८० दूषण ३६,१५२,१६०,१८७, द्रोण
२४२ २०२,२६३
विज १३०,१६४,१६५ दूषणसमर्थन
| इंघ ३८,७७,२७३,२७४,२७५, दूषणान्तर
१८६ . २८२
२३४
१५५
Aho! Shrutgyanam
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
३११ ]
धुर्य
M
हाणुक
___८१ । निग्रह २७,१५६,१६२,१८५,
२०२,२०८ धर्म १,२,३,५,६,१८,१८,२०, निग्रहस्थान १५,१६,१७,२३,
२१,२३,३०,३५,४७,४८,५८, २४,२५,२६,२७,२८,३१,५१, ७३,८२,८३,१७६,२५२,२५३, १४८,१५०,१५६,१५८,१६०, २७०,२७१,२८२,२८२ १६३,१६५,२६६,१६७,१६८, धम्मिन् ६,५८,८६,१०१,१७८ १८२,१८३,१८४,१८६,१८१, धारणा ३८,३८,६८,२७५,२७८ १८८,१८८,२००,२०२,२०३,धिषणा
२८३ २८३ २०५,२००,२०८,२३०
___४८ | निग्रहाभियोगः २०६ ध्यान ३८,३८,२७४,२७५, | नित्य २७८,२७८,२८०
नित्यजाति ध्वनि ___२६,१६५ नित्यत्व
२८ निपयोग न। नित्यसम
१८७ नमस्कार ४४,४५,४६,४७ | निदर्शन ३२,१३६,१३७ नमस्या
४८,५०
निमित्त ३.२२,२२,११५.
१५० ! नियम २८,३८,२७२,२७५, नागरिक २२३,२२६ १७६ नान्तरोयक ८५,८७,८८,८४ नियमकथा १८८,२००,२०८ नास्तिल
2. ! निरनुयोज्यानुयोग २७,१६८, निगमन ५,१५,०६,१४७,१४८, २०५
१४८,१५०,१५१,१८४,१८८, निरन्वय ३६,२६४ २००,२०१
निरन्वयविनाश
ध्वस्त
०
नर
२६०
Aho! Shrutgyanam
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
निरर्थक
निरवधि
निरवयव
निरुक्ति
निरुपाधि
२८.३
निर्णय
१५,५१, १४८, १५६
निर्देश
२३, २४
निर्वर्त्तक
३४, २५०
निर्विकल्पक ३,४,२०,७२,८४, न्यून
८५, २२५,२२६, २४१
निवारण
[ ३१२ ]
२५,१६८,१८७ | न्यायप्रदीप
२८४
२८३
न्यायरत्न
२८४
१७२
न्यायवादिन् १७,६२, १६४, १६८
२५५ न्यायशास्त्र ५२, २३७,२८४ न्यायसंग्रह
न्यायसार २८, ४१, ४३,४४,८६,
निश्चित
निःश्रेयस
निःश्रेयसाङ्ग
२८४
नैरात्मा
१५६
५७,८८,८५
३४,५१,२४८
२८५
न्यायसारटोका
पक्ष
५, ६, ७, १२, १४, १५, २४,
१०१,१११,१८.६, २४०
पक्षत्रयव्यापक
२०२ पनत्रयैकदेशवृत्ति
निषेध
५०, ६ पचव
निषेधमुख
१८०
निष्पत्ति
२०
निस्तर्हण
२३४
नैयायिक ६७, १६, ११६, १८५,
२०८
२५, १६८, १९८
प ।
पक्षवचन
पचधर्मता
पक्षधर्मत्व ६, १००, १०१, १०५,
१११, ११३,१४६, १४०
पक्षविपत्तव्यापक
पक्षविपचैकदेशवत्ति
पक्षव्यापक
हैट
२१४
न्याय १५, ३१, ४३,५२, १३०,
पक्षसपक्षव्यापक
१५२, १८४, २०४, २६५ न्यायतात्पर्य दीपिका ४३, २०८ पक्षसपत्तेक देशवृत्ति
Aho! Shrutgyanam
१०
१०
१८, १००
८, १४८
५,८६
८,१०
८, १०
८, १०, ११
१०
१०
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८
१५
११६
पदार्थ
[ ३१३ । पक्षाभास १२८ | पराजय
१६,१७ पक्षकदेशत्ति ८,१०,११ | परात्म पञ्चरुप
६ परार्थ ५,८२,८३,८४,८५ पञ्चवर्ग
२०८ परार्थानुमान १४७,२३५ ,पञ्चावयव ५,१५,८४,८५.८६, | परिग्रह १५१,१५२,१५४,१५५ | परिच्छेद
२८,६८. पटौ
४३ / परिणाम पद
३१,३२,२३२ / परिणामिन पदात्मक १२२ परिमाण
२,७४ ३१,३२ | परिषद
२५,२६,२७,१८७ पद्मक ३८,२७७ | परीक्षा
__३२,५२ पर ३५,२५५ । परोहार
४७,२३७ परतन्त्र
१५४ : परोक्ष ५,२८,३४,७१,८७,८८, परत्व
१२७,१३२, ८८,१८५,२१०,२२८,२३३ परपक्ष
७,२६,२४ परोपदेश परब्रह्मन्
२७५ | पर्यनुयोज्य परम
१५ | पर्यनुयोज्योपेक्षण १६८,२०४, परमन्यायव
१५१ । २०५ परमाणु ११,१३,७३,८२,८३, | प-लोचन
३८ १२०,१३०,१३१,१३८ पर्षत्
१८८ परमात्मन् ४३,२५५,२७२,२८४ पलल परमातत्व
२८ पाटचर परमेश्वर २८,२०६ पाप
१३०,१३१ परलोक ३० पारभविक
२६८
१८८
Aho! Shrutgyanam
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३१४ ]
१६८
au
पिण्ड
o
m mmm
२०७
N
T
पारम्पर्य
८७ । प्रकरणजाति पारिशेष्य
३६ प्रकरणसम ७,१२,१११,११२,
११३,१३२,१३३,१३५,१४८, पिशाच पौड़ा
प्रकरणसमता
२५० पुनरुक्ता २६,१६८,२००,२०१,
प्रकाश २०२
प्रक्कत
२४,२५ पुनर्भव
प्रकृति ५१,६२,११६ पुराण
२७१
| प्रष्ट पुरुष ८,१२,१०,११६,११७, । प्रजापति
२१५ १३५
प्रणिधान ३८,४७,२७३,२७४ पुरुषत्व
সনিস্তান
१८० पूजा
१६,१५७ । प्रतिज्ञा ५,६,१५,२३,२४,२५, पूप
२५ ८६,८७, १०४, १०७, १४७,
३८,२७७,२७८ १५०,१५६,१८८,२०१ पूर्ववत् ६८,१०६ प्रतिज्ञात ६,२३,२८ पूर्वाचार्य
प्रतिज्ञान्तर २३,२४,१६८, पैष्टी
१३० १८२,१८३,१८४ पौनरुत्य
२०१ । प्रतिज्ञा विरोध २४,१६८ पौरुषेयत्व
२१४ । प्रतिज्ञासन्यास २४,१५०,१६८, पौवीपर्य
२५,१९८
१८४ पौष्टिक
२१३ | प्रतिज्ञाहानि २३,२८,१६८, प्रकरण ४३,४४,५१,५५.११३ । १८१,१८२,१८३,१८५,१८६,
१५४,१८०,२१४,२७० २०६,२०७
पूरक
Aho! Shrutgyanam
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३१५ ]
२७४
प्रतितन्त्र
१५४ । ७०,७२,७४,७५,८१,८४,८५, प्रतिदृष्टान्त
२३ ८६,८७,८८,८२,१२८,२१४, प्रतिदृष्टान्तजाति १६८ | २१२,२२४.२२५,२३०,२३१, प्रतिनियत २०,३० २४३,२४८,२६६ प्रतिपक्ष १५,१६.१५७,१८६ । प्रत्यक्षत्व प्रतिपक्षमाधनदूषण १५५ । प्रत्यक्षविरुद्ध प्रतिपत्ति ३०,३१,३२,३३ । प्रत्यक्षाभास ___७२,१६७ प्रतिपत्त .
३१ प्रत्यच्चैकदेशविरुद्ध प्रतिपादक १५,३१,२२८,२२८ । प्रत्यनोक प्रतिपाद्य २२८,२२८ : प्रत्यभिज्ञा ६०,२१६,२६६,२६७ प्रतिपिपादयिषा ५. प्रत्यभिज्ञान प्रतिबन्धक
२४१
प्रत्यय २४,३४,५८,२७८ प्रतिभाव
२६ । प्रत्यवस्थान प्रतिभाम
४३.६७ . प्रत्यायकत्व प्रतियोगिन् ५०,८०,२२५,२४.४ । प्रत्यारम्भक
१५८ प्रतिवादिन् १५,१६,२३,२५,
प्रत्याहार ३८,३८,२७५,२७८ २६,११८,१५२,१५७, १५८, । प्रदीप १८१,१८७,१८८
प्रधान ८,५१,११६,२५६ प्रतिषेध १७,२१,२३,२४,२६, । प्रध्वंस २२,४०,१८८
प्रपञ्च प्रतीकार ११८ । प्रबोध
५२ प्रतीति
३१ प्रमा २,६८,७०,८७,१२३, प्रत्यक्ष १,२,४,५,६,२१,३०, २४८
३१, ३३, ३७, ४३, ४८, ५५, ' प्रमाण १,२,६,७,१०,१५,२०,
२३१
२५५
Aho! Shrutgyanam
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ २१६ ]
२४८
२१, २८, ३०, ३१, ३२, ३३, । प्रशस्तपादभाष्य ११५ १२०, ३४, ४४, ४५, ४७, ४८, ४८, १२५ ५०, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५. प्रश्न
१६,३१, ६५,६७,७०, ७१, ७५,८७, प्रसत
२०,२४ १०२,१०८,१२२,१३०,१३८, प्रसङ्ग ७,१७,१८,१८,२१,२७, १५४,१५५.१५६,१५८,२३०, २८, २९, ३०, ३१, ३३, ४०,
५०, ८५, १०८, १३६, १६०, प्रमाणशास्त्र
१७५ १७६,१८०,२१७,२४१ प्रमाणाभास
प्रसङ्ग जाति
१६८ प्रमा
२,६८,६८, प्रशङ्गोन्नयिन् १०८,१०८ प्रमित ५०,२२३ । प्रसञ्जन
१७२ प्रमेय २,१०,३४,४८,५१, ६८, प्रसाद
१५८ ६८,७०, १२१, १२२, १२३, प्रसिद्ध
१४,३१ २३०,२४८,२५०,२५३ प्राकाम्य प्रमेयत्व ६,८,२१,२४,२६५ प्रागभाव
२६८ प्रयत्न ८,८,३४,७७,११५,१२१, । प्राग्रहर २४८,२८२
प्राणायाम
३८.२७५,२७७ प्रयोजन १५,२७,३१,५१,२३० प्रात्यक्षिक
५२,६० प्ररोह
प्राप्ति १८,२०,७४,२७०, प्रलय
२८२ प्राप्तिजाति प्रवाद
३४,२४७ प्राप्तिसमा प्रकृत्ति १५,२०,२८,४०,५२, | प्रात्य प्राप्तिसम १८ २५०
प्राप्यकारि प्रशंसावाद
१६५ प्राप्यकारित्व
२७०
१६८
१७५
Aho! Shrutgyanam
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३१७ ]
१५८ |
प्रामाण्य प्रामाणिक प्राधिक प्रियाप्रिय प्रेत्यभाव
१८,२८,३१ १५५,१५८,१५८,२१३,२६३,
२६५,२८७ १६,१५७,१५८ | ब्रह्मचर्य
२७५,२०६ २८३ | ब्रह्मन् ३५,३८,४०,२५५,२५८,
२५० २६५,२७६,२८०,२८६ फ।
ब्राह्मण १३०,१६४,१६५,२८५ २,२८,२५०,२६२
फल
पा
२६६
भरत
साधना
भक्ति
३८ बहिाप्ति १४८,१५१ / भगवती बहुव्रीहि
। भगवान् ३५,५१,२५५,२५६ बाध
५०,१०२,२६५ । भट्टाचार्य बाधक १५,३३,४०,२४४ ।
२४८ २५२ भव
२७५,२८५ बाधा
भागासिद्ध ८,११४,११५,१३७ बाध्यत्व
भा
८५ बाह्यालो ६५ भाव
२१,२२,२१७
भावुक बुद्धि २१,२२,३४,३५,३६,४०, भाष्यकार
२५०,२५१,२६०,२८२ भासर्वन २८,४१,४४,४८,५२ बुद्धिशुद्धि
भूत ६२,२६७,२६८ बुधौन्द्रिय
भूतात्मन्
२५४ बुध
२२३ भूयस्त्व बीड ६८,१३६,१३८,१४८, । भूषण
बीज
१८८
Aho! Shrutgyanam
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३१८ ]
२०५
मुख्य
भूषणकार ५६,६४,६५.६७ । मिथ्याज्ञान
२५२ ८०,८७
मिथ्याध्यवसाय भेद
मिथ्याभियोग भौतिक २,६१,६२
मीमांसक ६,१०६,१०७,११८, भान्ति ३७,४८,५८,८७ १५१.१८५.२२३,२४५ म। मीमांसा
२८,२०६
मीमांसाभाष्य मतानुज्ञा २७,१६८,२०४ । मुक्त
२८६,२८८ मध्यस्थ
२४,१८४
मुक्ति ४१,२८१,२८४ मनम् ३.१०,१३,६१,६३,७७,
१७,३३,३५ ११५,१२४,१२५,१३८,२५० । मुख्यार्थ
१६५ मरीचिका
मुमुक्षु
३८,२८० मशक
४०,२८५ महत् महामोह
मूतव १०,१२४ महायोगिन्
मूलक्षति
२६७ महावाक्य
मोक्ष ३८,४०,४१,२४८,२५१, महिम
२७० । २७२,२७३,२८१.२८२,२८४, महेन्द्रसूरि ८६,२०८,२८५ २८५,२८६,२८७,२८८,२८३, महेश्वर ३५,३८,४८,५२,२५५, : मोह ३८,४०,११६,२७३,२७४,
२७५.२८४,२८५ माणवक १६,२८७,२८८
य। মামী
१३० यक्ष मानस
७०,७२,२४४ । यत्रकामावसायित्व
मूळ
६२,७४ ! मृत
१७०
Aho! Shrutgyanam
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
यम
युक्त
युक्ति
युक्तावस्था
युगपत्
युतमिद्ध
योग ३८,५१,८३,२७३,२७४,
२७५,२७७,२८
२४६
योग्यत्व
यौग
३८,२७५,२७६
३,८२.८३,८६
रजस्
रथ्यापुरुष
[ ३१८ ]
रस
रसन
र ।
२०, २८, ३०
८१,८२,२८१
२६५ राजपुरुष
४
राजान्त
योगबल
३७
योगशास्त्र
२७७,२७८
योगाङ्ग
३६, २८०
योगिज्ञान
४
योगिन् ५१,७२,८३,८६,१०५, ! लक्षणसूत्र
१२०,१३४,२१४, २४१, २५५
लक्षणा
योगिप्रत्यक्ष २, ३, ४८,७२,८२
योग्यता ३४, १५४, १८८, २३३,
रसिनी
राग
२०
१५४
रुद्र
रूढ़
रूप
रूपित्व
रेचक
लक्षण
१८८
३८,२७३,२७४, २७५
१४
२१३, २६२
३६, २५८, २५८
१८८
२, २, ५, ६,२३,४०, ७५
११
३८,२७७
५२,५२,५४,१३५, २४८.
११६
१४
३,७६
२,७३,७६,८३ | लिङ्गिन्
ल |
१, ७, १२, १७, २८, ४८,
Aho ! Shrutgyanam
लक्ष्य
लघिम
लघुनैयायिक
लय स्थ
लाक्षा
लाभ
लिङ्ग ५,३७,५२,७०,८८,८१,
८४, ५, ८, १४७, १४८,
२१४,२३५
१८.२.
१६५.
१३.५.
२७०
२२६
२५५.
२६२
१६, १५७
८८, ८१, ८५, २३५.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[
२२० ]
लूता
वचन
लिपि ३४,२१०,२२२,२४७ | वाक्छल १६,१६१,१६२,१६३ लीला
२३० १६४,१६५,१६६
२८१ | वाक्य ५,२५,२६.२८,३१,३२, लोक १८,१६६,१७४,१७५, ८४,८५,८६,१४८,२३२ २५२
वाक्योपस्कार १२१ लौकिक
५५ वाग्देवी
वाचक २१५,२३१,२३२ वाचकत्व
१४८ वक्तृदोष
१४० | वाचस्पति
१४,१५,२१,२५ । वाय ३२,२१५,२३१.२३२, वचनदोष १३,१४०,१४१, २३३ ।। वचनविघात
१६ | वाद १५,५१,१५२,१५३,१५४, वज्रासन
१५५,१५६,१५७,१५८,१५८, वञ्चक
१६१,२०३ वट
वादित्र वनेचर
२२३ । वादिन् ८.१५,१६,२३,२४,२५, बथित्व
२७० ११८,१५२,१५७,१५८,१७५ वस्तु ४,१५० वायु
२८ वस्तुदोष १४०,१४१ वार्तिककार
२५,११५ / वासना २५२,२५३,२८०
१८,१८,१७१ वाह्येन्द्रिय वर्यजाति
१६८ विकल्प १६,१८,१८,२३,३२, वयं सम
१८,१७३ / ४६,४०,५३,८४,१७१,२२५ वावयंसम १८,१७२ विकल्पजाति
१६८
२७७
२१४
२०७
वर्य
Aho! Shrutgyanam
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३२१ ]
विकल्पमम १६,१७२,१७३ । विपरीत विक्षेप २७,१६८,२०३ विपरीतख्याति ६७,२५५ विजातीय
५८ ! विपरीतव्याप्ति १३,१४०,१४१, विजिगीषु १६,१५३,१५८,१५८ | १४२ विजिगोषुकथा १५,१६,१५२, | विपरीतान्वय १५७,२०३
विपर्ययय १,२,१८,२५,२८,२८, বিমান
४०,२८६ ५५.५६,६६.६८,८१,२७४ वितण्ड
१५५ विपर्यास २५,१८८ वितण्डा १६.५१,१५७,१५८,
विप्रकष्ट
३,५ १५८,१६०,१६१
विप्रतिपत्ति १,२,१५,१६,२३, विद्यमान-सपक्ष-विपक्ष
५८,६७,१६६,१६७,१६८ विद्या
विप्रतिपत्र १५,१३६,१५०, विधाट विधान
विभाग २८,५२,१३१ विधि
| विमर्श विधिमुख विनाभूत १०१ वियुक्त
३,८२,८३ विनाश
विरुद्द ७,८,१२,१५,१११, विन्ध्य
१७८ ११८,१२१,१२३,१८४,२०७, विपक्ष ६,७,१०.११,१००, २५७
१०२,१०३,११२,११३,२४० विरुद्ध विशेषणासिद्ध ८,११८ विपक्षव्यापक ८,१० / विरुद्ध विशेष्यासिद्ध ८,११८ विपक्षसपक्षकदेशत्ति १० । विरुद्धाव्यभिधारिन् १२.१३३, विपक्षकदेशत्ति८,१० १३५
६३,८८ १८७ । विमृश्य
Aho! Shrutgyanam
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--------------------------------------------------------------------------
________________
।
३२२ ।
का
विरोध १८,२०,२१,३२ | विषाण विवाद ६,२३,२४,३६,४७, | वीतराग १५,१६,१५३,१५७, १३७, १५६
१५८ विवेक
४०,४७,२८३ वीतरागकथा १५,१५२,१५४, विवेकख्याति
६७ १५६,२०३ विवे किन्
४० | वीरासन विशिष्ट
३४ | वृत्ति विशेष १८,२०,२४,५५,६०, वृद्धि
२७६ १२५,१२७,२८०
वेद १७,२४,८४,१०३,११०, विशेषगुण १,८,१०,११,१२५, १६४,१६५,१८५,२१४,२१५,
२७७
२८२
विशेषण ३,३४,७८,८०,८१, वैगुण्य
२१३ ८५,८६,८८,८०
वैधम्मा १५,१८,१८,३०,३३, নিষিৰ
२३ १३६,१४३,१४५,१७० विशेषणासिद्ध ८,११४,११७ | वैधयजाति विशेष्य ३,३४,७८,८०,८१,८५ वैधम्मादृष्टान्त १३८,१४०,१४६ विशेष्यासिद्ध ८,११४,११७
वैधम्मानिगमन १४७ विश्व
वैधर्मोदाहरण १२,२६,१३७, विषय २,२४,३५,३६,३७,४१,
१३८ ७०,२४८,२५१,२६०
वैधम्मोदाहरणाभास १३,१४२ विषयत्व
१०,३१
वैधोपनय १४,१४५,१४६ विषयविषयिभाव २८० ।
वैराग्य
३८.,२८० विषयविषयिसम्बन्ध २८१ : वैशेषिक
२८२ विषयिन् ४१,२१८. व्यक्त
११६
Aho! Shrutgyanam
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३२३ ]
२१७
५
व्यति
२२६ व्याकरण व्यङ्ग्य
२४८ | व्यापक ५,६,७,३७,८८,८०, व्यञ्जक ३०,४५ ४६,४७,२१८, ८१,२६७ २२०,२२२
व्यापकत्व 'व्यतिरेक ५,१२,२६,३३,६१,
व्यापार २०,८१, १०५, १३०, १३८, . व्यापिका १४२,१४८,१०१,२०१,२१३, . व्याप्ति ५,१४,५४,८८,८८,८०,
२१४,२२३,२४४.२८१ ८२,१०१,१०२,१३६, १३८, व्यतिरेकदृष्टान्त १०८,१३८ । १३९,१४०,१४५,१८४,२०१, व्यतिरेकव्याप्ति १०७,१०८, २०८,२३८,२३८,२४१,२५७,
१३८,१४१,१४४,२६३ २६८ व्यतिरेकिन् ८८,१००,२७० । व्याप्य
८१,१०१ व्यधिकरण
११४ . व्याय्यत्तित्व व्यधिकरणासिद्ध ७.११४ व्यावृत्त व्यपोह
५६,२८२ । व्यावृत्ति व्यभिचार ४५,४८,८०,८७, व्यास
८४,२४३ ११८,१३४,२१५
व्यासङ्ग व्यभिचारी
व्योम
२४३ व्यर्थविशेषणासिद्ध
व्रत व्यर्थविशेष्यासिद्ध
व्रात्य
१०,१६४,१६५ व्यवच्छेद
श। व्यवच्छेदक
शक्ति
२७४ व्यवस्था
१८ शक्र ३२,२२८,२३०,२३३,२३४ ब्यवहार
| शङ्कित
८८,८०
८,११६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ २२४ ]
शब्द १, २, ११, १८, १८, २१, २२, शेषवत्
२६,२८,३०,३१,३२,५५, ६१,
शोक
७१,७८,८०, ८८, ११५, १२१, श्रवण
१२२,१३१,१७०,२११, २१२, श्रुत २१८,२१८,२२०,२२३, २२४,
श्रुति
२३०, २३१,२३२, २३३, २३४,
श्रोत्र
२३५,२३७,२४१,२६८
शब्ददोषवर्जन
शब्द पुनरुत
शरीर ३४,३५,३६,३०,२५०,
२५१
शरीरिन्
२५८
शम्भु १, ४४, ४८, ४८, ५०, २०६
शाक्य
८५,८७,२११
शान्तिक
२१३,२१५
शाब्द
५२,२०८
शास्त्र
१५५ संकल्प
२६,२०० संख्या
संज्ञा
१७४, २५२
शिव
शिष्य
शुक्रधमत्व
शुद्धि
शेमुषी
१४,१७,२५,४८,५५,
२८,२७४,२८०,२८१
संज्ञाकम्भ
२३४
१४४ संप्रदाय
संबन्ध
१६,३२ संयम
१४
३८,२७६ संयुक्त
११३,२३०
८५,२२३,२२६, २२७, २२८,
२२८, २३०, २३३, २३४
संटङ्क
संप्रतिपन्न
संयमन
८.८.
३५,१३०,२५४,२५५
३,३०,७३,७८,८०,२१८
स ।
३५,२५४
२५१
२,३,३३,३४,७४, ৩৩
२,३०,२१,२२,३३,८४,
२३०
संज्ञिन् २०,२१,३२,२२२, २२६,
२२७,२२८,२२८, २३०, २३३,
८
१६६
संयुक्तसमवाय
Aho! Shrutgyanam
१५२, १५७,१८१
१३६, २२८
१८५
३१,३२,२३,३४,४१
२७२
২৩৩
३४
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________________
[ ३२५ । संयुक्तसमवेतसमवाय ३ । सङ्कत ३१,२१०,२१५,२२६, संयोग २,३,२८,३४,३७,७२, २२७,२२८,२२८,२४८
७४,७८, १३१, २१५, २४५, सजातीय २४६,२८१
सत् संवरण
२५. सत्त्व ६,१०,४३,६२,११६, संवाद
२१४ । २६५ संवेदन ४१,७२ | सत्य
३८,२७६ संशय १,२,४८,५१,५२,५३, | सद्भाव
२१,२२ ५५,५६,५७,५८,५८,६०,६१, सन्तान ११५,२६२,२६३, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७,६८, २६४,२८२,२८७ १८०,२३०
सन्ताप
३५ संशयजाति १६८ सन्दिग्ध
८०,२१५,२२८ संसार ३५,३६,३८,३८,४१, | सन्दिग्धविशेषणासिद्ध
१३२,२५४,२५८,२७४,२७५, सन्दिग्धविशेष्यासिद्ध ८,११७,
२८२,२८८ संसारिन् २५५,२५८,२७३, सन्दिग्धसाधन १४,१४२,१४३ २८८
| सन्दिग्धसाधनाव्यावृत्त १४,१४४ संस्कार ३०,३५,१६४,२२१, । सन्दिग्धसाध्य १३,१४२ २५२,२६२,२८२
सन्दिग्धसाध्यसाधन १४४ संस्कारक २१८,२२० । सन्दिग्धसाध्याव्यात १४,१४३, संस्कार्य
३०,२१८,२२० १४४ संस्थिति
१५४ । सन्दिग्धाश्रय १४,१४३.१४४ संस्मृति
२४४ सन्दिग्धासिद्ध ८,११७ संहति
२३३ | सन्दिग्धोभय
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________________
। ३२६ ]
सन्दिग्धोभयाव्यात्त १४,१४४ : समाधि ३८, ३८, ८३, ८६, सन्देह
१३ २७३, २७४, २७५, २७८, मध्या
३८,२७६ , २७८, २८० सनिकर्ष ३,७७,८१ समानतन्त्र
१५४ सनिधि १८८,२३३ समानधर्मम
५८,५८ सनिपात
४. समीकरण १७,१६० सपक्ष ६,७,८,१०,११,१२,२१, समुदाय
२४२ १००,१०२,१०३,१० ४.१०५, समुदापिन्
२४२ ११२,११३,२४०
। सम्प्रदाय २४,२१४,२१५,२१७, सपक्षविपक्षव्यापक १०. २४७ सपक्षविपक्षकदेशत्ति १० . सम्बन्ध
२,३,२१५ सपक्षव्यापक
१० ' सम्बन्धिन सपक्षकदेशत्ति १८३ ' सम्भव ३०,३३,२२२,२४२ सभापति १६.१५७,१५८ सम्भवत् सभ्य
२७ : सम्यक् १,२.५,१२,२६,२८, समय २८,३४,१५८,२१०, ६६,७२,८७ २४७,१४८
. सम्यक्त समवाय ३,३४,४१,७२,७४, सग
७५,०६,७७,७,८०,८१,८२, सर्वज्ञ १४,३५,४३,५१,२५५,, १२७,२१५,२४५,२४६.२८०, २५६
AW
२८१
। सर्वनख
२१३
समवायिन् ६८,८१,२३९, सर्वतन्त्र
सर्वपक्षव्यापी समवेतसमवाय
३ सर्ववित्
२४०
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________________
[
३२७ ।
१४७
सविकल्पक ३,२०,३०,०२, | साधनसमर्थन
१५१ ८४,८५,८६,२४१
साधनसामान्य सविकल्पिका २२५,२२६ । साधनाभास १४५,१५६ सहकारिन् ३०,४५,२२५,२४१
साधनाव्याहत्त
१३,१४० सहस्राक्ष २३३,२३४ : साधम्मा १५,१८,१९,१३६, सहेतुक
। १३७,१४३,१४५.१७० सह्य
१७८ साधम्माजाति १६८ सांख्य ५१,६२,६३,११६,१५४, . साधम्मानिगमन २५६,२७४
। साधम्मावैधम्मासम सांख्यसप्तति २७४ : साधम्मासम १७० साक्षात्
८७ माधम्मोदाहरण १२,२६,१३७ साक्षात्कार
७२ । माधोदाहरणाभास १३, साक्षिन्
२४,१८४ ! १४०,१४२ सायं
४८ । साधम्मोपनय १४,१४५,१४६ साजात्य
साध्य ५,६,७,१५,१८,१८,२०, सादृश्य ३०,३२,३७,२३५ २३,२५,४०,८८,८०,८१८४ साधक
१५,१७७
८६,११८,१३६ साधन १,२,५,६,१४,१५,१६, साध्यजाति
२०,२५,२८,२८,३५,३६,५२,। साध्यत्व ८८,८०,८१,८२,८३,८४,८५, | साध्यविकल १३,१३८ १३६,१४५,१५२,१५३,१५४, साध्यसम १८.१८,१७१,१७२,
१५५,१५८,१६०,१८७,२६३ | १७३ साधनत्व
५ साध्यसामान्य साधन विकल १३,१३८ । साध्याव्यावृत्त १३,१४०,१४१
८२
१६८
१९
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________________
[
३२८ ]
सान्तर
७३ | २५२,२५८,२८२,२८३,२८५, सामर्थ
२८६,२८३ सामान्य ३,५,३३,३६,५५,८०, सुगत
१०२ ८८,११४,१२७,२८० सुरा
१३०,१३१ सामान्यछल १६,१७,१६१, सुरेखर
२३३
सूत्र २०,२१,२३,३२,५१,५५, सामान्यतो दृष्ट ५,८२ ८३, ६४,६५.८८,१३१,१३२,१५७, ८८,१००
१५८ १६७.१६८,१८६,१८८, सामान्यवत्त्व ६,८,९,११४ १८८,२३० सामान्यव्याप्ति ३६,८३,२५७ सूत्रकार ५८,०२,८७,१५४, सामान्धाभाव
१५८,२२६ सार्थक
२६,२०० सूत्रहत् ८८,१४८,१५७,१८१ सावधिक
२८३ ! सूत्रविरोध सावयव १८,१७२ सूनृत
२७६ सावयवत्व २१,२७,१२८ | सूर्य
३६,३७ सास्त्रा
सृष्टि साहचर्य
सोपाधि सिद्धसाधन
२१,१५२ सोम सिद्धसाध्यत्व
११८
सोमवंश १४,१४२,१४३,१४४ सिद्धान्त १५,२८,३२,५१,१५४, | सौख्य
२८६ १५८,२०६,२३६
सौगत सिद्धि १,२०,२२,२५,३१,२७४ स्थापना सुख ३,६ १२,३४,३५,४०, स्थूल __४१, ७२, ८२, ११६, २५१, स्पर्श
३१
८७
NN
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________________
[
३२८
]
स्पर्शन
२४०
२,३,७३,७४,७६ | हान ३४, ३५, १८४, २५०, स्पार्शन
। २५३, २८३ स्फटिक
३७,२६६ हषीक स्फोट
हेतु ५,६,७,१२,१७,१८,२०, म्मरण २,३६,३०,६८,२२४ २१, २२, २४, २५, ८८,८.. स्मति ३०,६७,१३०,२३२
८६.८८, ८६, १००, १०१, स्वपक्ष
७,२०,३३
१०४,११०,१११,११२,११४, स्वपक्षसाधन
१५५ ११६,१३५,१३७,१४२,१४८, स्वभाव १,३,५,३२,८८,८०,८३ १८३,२००,२०१,२१७ स्वरूप ४,५० | हेतुत्व
१७,१८ स्वरूपासिद्ध ७,११३,१२८ हेतुहानि
१८६ खर्ग १४,२८,६४,६८,७१,८८, हेवन्तर २४,१६८,१८३,१८५, १०६,१४४
१८६ स्वस्तिक ३८,२७७ हेत्वाभास ७, २२, २३, २८, स्वाध्याय ३८,२७३,२७४ ! ३१, ५१, १००, ११०, १११, स्वार्थ ५,८२,८३,८४,८५ ११३, १२६, १३४, १३५, स्वार्थानुमान
१४७ १५६, १६८, १८४, २०५,
२०७, २१५, २३० हस्तिप्रतिहस्तिन्याय १६० । हेय २४,२५०,२५१,२५२
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________________
Aho ! Shrutgyanam
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________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમઃ | | શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: || જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હરતલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણ અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ નં-૧ તથા .૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્યા સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્ય ગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધના જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળળની તીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો શ્રુત વારસો જળવાઈ રહે તો શુભ આશયથી આ થોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોનો જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. લો અભાઈ તથા સંશોધના માટે વધુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યની પ્રોત્સાહન આપશી. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વંદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે...! = પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???