Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
-The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला पुष्प ० १.३
-
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
पंचम भाग
(बोल नं० ८२२ से ९०० तक)
संयोजक भैरोदान सेठिया
प्रकाशक
अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था
बीकानेर
न्योछावर २) २० । विक्रम संवत् १९९९
प्रथम आवृत्ति ज्ञानखाते में लगेगा वीर संवत् २४६९
५०० महसूल खर्चअलग । संठिया निटिग प्रेस, बीकानेर ता० १५-८-४२
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
五
श्री सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर
पुस्तक प्रकाशन समिति
अध्यक्ष- श्री दानवीर सेठ भैरोदानजी सेठिया
मंत्री -- श्री जेठमलजी सेठिया । उपमन्त्री - श्री माणकचन्दजी सेठिया, साहित्यभूषण |
लेखक मण्डल
१. श्री इन्द्रचन्द्र शास्त्री MA ( Previous ), शास्त्राचार्य, न्यायतीर्थ, वेदान्तवारिधि ।
२. श्री रोशनलाल जैन B. A, LL B., न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, सिद्धान्ततीर्थ, विशारद ।
३. श्री श्यामलाल जैन M. 4, न्यायतीर्थ, विशारद । ४. श्री वेवरचन्द्र बाँठिया 'वीरपुत्र ' सिद्धान्तशास्त्री,
न्यायतीर्थ, व्याकरणतीर्थं ।
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
संक्षिप्त विषय सूची
मुखपृष्ठ
6
&
&
S
खर्च का ब्यौरा पुस्तक प्रकाशन समिति संक्षिप्त विषय सूची चित्र (दानवीर सेठ श्री अगरचन्दजी सेठिया) श्रीमान् दानवीर सेठ अगरचन्दजी सेठिया का संक्षिप्त जीवन परिचय चित्र (श्री सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था भवन ) श्री सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था को रिपोर्ट दो शब्द आभार प्रदर्शन प्रमाण के लिए उद्धृत ग्रन्थों की सूची विषय सूची अकाराद्यनुक्रमणिका मङ्गलाचरण चौदहयाँ बोल संग्रह पन्द्रहवाँ बोल सप्रह सोलहवाँ बोल संग्रह
१४७ सतरहवाँ बोल संग्रह
३७७ मठारहवाँ बोल संग्रह
३९७ उन्नीसवाँ बोल संग्रह
४२५ अन्तिम मंगल
४७४ परिशिष्ट (सूत्रों की मूल गाथाएं)
४७५
on ...
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह पांचवें भाग
खर्च का व्यौरा कागज१८४२२ तेतीस रीम २१) रुपये प्रति रीम
६९३) छपाई ७) प्रति फार्म (आठ पेजो), कुल फार्म ६६ ४६२) जिल्द बंधाई 1) एक प्रति
१८७॥
१३४२॥ ऊपर बताए हुए हिसाब के अनुसार कागज, बाइन्डिङ्ग-क्लोथ,कार्डबोर्ड तथाप्रेस की अन्यसब चीजों का भाव बढ़ जानेसे एक पुस्तक की लागत करीव २॥-पड़ी है। ग्रन्थ तैयार कराना,प्रेस कापी लिखाना तथाप्रूफरीडिङ्ग
आदि का खर्च एक पुस्तक पर करीब ३) रुपया पाता है। ऊपर का खर्च और यह खर्च दोनोंजोड़ने से एक पुस्तक की कीमत करीब५||-पड़ती है। पुस्तक की कीमत लागत मूजिव नरख कर ज्ञान प्रचारको दृष्टि से केवल २) ही रखी गई है, वह भी पुनःज्ञानप्रचार में ही लगाई जावेगी।
नोट-इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या ४९० + ३२कुल मिला कर ५२२ है। पुस्तक का वजन लगभग १५ छटांक है। एक पुस्तक मंगाने में खर्च अधिक पड़ता है । एक साथ पाँच पुस्तके रेल्वे पार्सल से मंगाने में खर्च कम पड़ता है । मालगाड़ी से मंगाने पर खर्च और भी कम पड़ता है । पुस्तक बी. पी. से भेजी जाती है। कीमत पहले से ही कम रखी गई है इसलिये कमीशन नहीं दिया जाता। पुस्तक मंगानेवाले सज्जनोको अपना पूरा पता (पोस्ट आफिस, रेल्वे स्टेशन आदि)साफ साफ लिखना चाहिए।
पुस्तक मिलने का पता(१) पुस्तक प्रकाशन समिति (२) अगरचन्द भैरोदान सेठिया वूल प्रेस बिल्डिंग्स जैन पारमार्थिक संस्था
बीकानेर (राजपूताना)
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वर्गीय श्रीमान् सेठ अगर चन्दजी सेठिया
८
जन्म - श्रावण शुक्ला नवमी १९१३ वि०
स्वर्गवास - चैत्र कृष्णा एकादशी १९७८ वि०
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमान् दानवीर सेठ अगरचन्दजो सेठिया
का संक्षिप्त जीवन परिचय विक्रम संवत् १९१३ सावण सुदी ९ रविवार के दिन सेठ साहेब का जन्म हुआ था। आपको हिन्दो, वाणिफा आदि की साधारण शिक्षा मिली थी । साधारण शिक्षा पाकर श्राप व्यापार मे लग गये। भारत के प्रमुख नगर अम्बई पार कलकत्ते मे आपने व्यापार किया । व्यापार में आपका खूब सफलता मिलो और आप लक्ष्मी के कृपापात्र बन गये । धन पाकर आपने उसका सदुपयोग भी किया। आप उदारतापूर्वक धर्मकार्यों में अपनी सम्पत्ति लगाते थे और दीन एव असमर्थ भाइयो को सहायता करते थे।
धर्म के प्रति आपकी रुचि बचपन से ही थी और वह जीवन में उत्तरोत्तर बढ़ती रही। आपका स्वभाव कोमल एवं सहानुभूतिपूर्ण था। परहित साधन में आप सदा तत्पर रहते थे। आपका जीवन सादा एव उच्च विचारो से पूर्ण था । मापने श्रावक के व्रत अङ्गीकार किए थे और जीवन भर उनका पालन किया । आपने धर्मपत्नी के साथ शीलव्रत भी धारण किया था। आपके खंध के सिवाय और भो त्याग प्रत्याख्यान थे।
श्रापन अपने छोटे भाई सेठ भैरोदानजीसाहेब के ज्येष्ठ पुत्र जेठमलजी साहेव को गोद लिया । उन्हें विनीत और व्यापारकुशल देख कर आपने
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यावहारिक कार्य उन्हें सौंप दिया। इस प्रकार निवृत्त होकर आप वृद्धावस्था में निश्चिन्त होकर शान्तिपूर्ण धार्मिक जीवन बिताने लगे।
समाज में शिक्षा की कमी को आपने महसूस किया । अपने लघु भ्राता के साथ आपने इस सम्बन्ध मे विचार किया। फलस्वरूप दोनों भाइयो की ओर से 'श्री अगरचन्द भैरोदान सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था' की स्थापना हुई । संस्था की व्यवस्था एवं कार्य संचालन के लिए
आपने अपने छोटे भाई साहेब को तथा चिरंजीव जेठमलजी को प्राज्ञा प्रदान की। तदनुसार दोनों साहेबान सुचारु रूप से संस्था का संचालन कर रहे हैं । संस्था के अन्तर्गत अभी बाल-पाठशाला, कन्या-पाठशाला, विद्यालय, कॉलेज, लायब्ररी, पुस्तक प्रकाशन-समिति, ये विभाग कार्य कर रहे हैं । संस्था का सन् १९४१ ई० का कार्य विवरण पाठक आगे पढ़ेंगे।
इस प्रकार सुखी और धार्मिक जीवन बिता कर चैत बदी ११ सम्बत् १९७८ को सेठ साहेब शुद्धभाव से प्रालायणा और खमत खामणा करके इस असार देह का त्याग कर स्वर्ग पधारे ।
ता. १५-८-४२
बीकानेर
मास्टर शिवलाल देवचन्द सेठिया
अध्यापक सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री संठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर
DARA
-
Y
T-
-
-
Mu
ne
Tantants
17
amirjinners
Pimprin
FEELS...S
URMEET
-
-
c
हा
taditime
H
+
amisamartant
HEL
A
CLASARAM
Sr.
S
.
..
LItan
अज्ञानं तमसां पति विदलयन् सत्यार्थमुद्भासयन् । भ्रान्तान् सत्पथ दर्शनेन सुखदे मार्गे सदा स्थापयन् ॥ ज्ञानालोक विकासनेन सततं भूलोकमालोकयन् । श्रीमद्भैरवदानमानपदवी पीठ; सदा राजताम् ।।
SROW NCCID0001Pol12
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर
की
संक्षिप्त वार्षिक रिपोर्ट
( तारीख १ जनवरी से ३१ दिसम्बर सन् १६४१ तक ) बाल पाठशाला
इस विभाग की ओर से बालकों को हिन्दी, अंजी, धर्म, गणित, बाणिका, इतिहास, भूगोल और स्वास्थ्य आदि की शिक्षा दी जाती है । पाठशाला मे नीचे लिखी छः कक्षाएं हैं
-
(१) जूनियर (ए)
(२) जूनियर (बी) (३) सीनियर
(४) इन्फैन्ट (५) प्राइमरी
( ६ ) अपर प्राइमरी
इस वर्ष रतलाम बोर्ड की धार्मिक परीक्षाओं में निम्न लिखित
विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए
( ७ )
परीक्षा नाम
प्रवेशिका प्रथम खण्ड साधारण परीक्षा
Q
विद्यार्थी नाम
भंवरलाल मथेरण
मूलचन्द गोलछा
भंवरलाल नाहटा
झुंबरलाल नाहटा
पाठशाला में छात्रों की संख्या १४५ से २०३ तक रही । औसत उपस्थिति ६९ प्रतिशत और परीक्षा परिणाम ७२ प्रतिशत रहा ।
विद्यालय विभाग
इस विभाग में धर्मशास्त्र, हिन्दी संस्कृत, प्राकृत, प्रजी आदि की उच्च शिक्षा दी जाती है। इस वर्ष पंजाब यूनिवर्सिटी की हिन्दी परीक्षाओ - में निम्न लिखित विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८)
हिन्दी प्रभाकर
कबीरचन्द चैद
कृष्णवल्लभ शर्मा कौशिक हिन्दी भूषण
मोतीचन्द खजांची हिन्दी रत्न
जगदम्बाप्रसाद भटनागर " "
श्यामलाल शर्मा गौड़
काशीराम स्वामी " "
नारायणचन्द्र यति " "
लूणकरण गुप्ता श्री कन्हैयालाल दक बंगाल संस्कृत एसोसिएशन की न्यायतीर्थ परीक्षा में उत्तीर्ण हुए।
भी रत्नकुमार महसा इस वर्ष हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की साहित्यरत्न द्वितीय खण्ड की परीक्षा में सम्मिलित हुए। __इस वर्ष विद्यालय, विभाग की भोर से पण्डितो ने जाफर ४ सन्त
और १७ सतियो को हिन्दी, संस्कृत, धर्मशास्त्र, न्याय आदि का अध्ययन कराया।
नाइट कालेज इस विभाग से आगरा, पंजाब युनिवर्सिटी तथा राजपूताना बोर्ड की मेटिक, एफ० ए०, बी० ए० की गतवर्प की तरह तय्यारी कराई गई। कालेज की ओर से परीक्षा मे सम्मिलित हुए विद्यार्थियो का परीक्षा परिणाम इस प्रकार है
बी० ए० मे २ मे से एक, एफ० ए० मे ५ मे से ४ और मेट्रिक में १४ मे से ११ पास हुए।
यह उल्लेख करते हुए हमे हर्प होता है कि इस वर्ष इस विभाग के अन्तर्गत एम० ए० (इंग्लिश) की क्लाम खोली गई है।
गत वर्ष प्रारंभ की गई सङ्कतलिपि (शार्ट हैण्ड) की क्लास का सेशन अप्रैल तक चलता रहा। सेशन के अन्त में कालेज की अर से परीक्षा ली गई । परीक्षा मे निम्न लिखित विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए
श्री माणकचन्द सेठिया श्री मोहनलाल सेठिया
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री विश्वेश्वर गोस्वामी श्री बटुक प्रसाद ग.स्वामी श्री हरिकृष्ण गोस्वामी श्री मगनमल गुलगुलिया श्री चांदरत्न जाशी
गत वर्ष श्री रोशनलालजी चपलोत बी० ए० न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, सिद्धान्तशास्त्री, विशारद को एल एल० बी० का अध्ययन करने के लिए संस्था की ओर से इन्दोर भेजा गया था । वे एल एल० बी० की प्रिमियस परीक्षा में प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुए और उन्हे इस वर्ष एल एल० बी० फाइनल का अध्ययन करने के लिए भी वहीं भेजा गया।
कन्या पाठशाला इस पाठशाला मे कन्याश्रो को हिन्दी, गणित, धार्मिक आदि विषयो की शिक्षा दी जाती है तथा सिलाई और कशीदे का काम भी सिखाया जाता है । क्न्याओ की संख्या ४६ से ६२ तक रहो । औसत उपस्थिति ५९ प्रतिशत और परीक्षापरिणाम ८१ प्रतिशत रहा ।
समाज सेवा श्री श्वे० सा० जैन हितकारिणी संस्था का ऑफिस सम्बन्धी काम सदा की तरह इस विभाग से भुगताया गया तथा अन्य आवश्यक सामाजिक पत्र व्यवहार भी इस विभाग से होता रहा।
श्री अमरचंदजी दौलतरामजी बोथरा द्वारा श्वे० स्थानकवासो श्री संघ को दिये गये मकान की मरम्मत भी इसी विभाग के द्वारा कराई गई।
उपहार विभाग ___ इस वर्ष भी गत वर्षों की तरह इस विभाग की ओर से १०९) के श्री जैन सिमान्त बोल संग्रह और २७॥॥८॥ की अन्य पुस्तकें भेट दी गई ।
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १० )
प्रिन्टिंग प्रेस
इस वर्ष प्रेस का कार्य बहुत सुन्दर रीति से चलता रहा । अपनी संस्था की पुस्तकों के अतिरिक्त बाहर की पुस्तकें आदि भी प्रकाशित होती रहीं और प्रेस के कर्मचारियो मे भी वृद्धि हुई ।
शास्त्र भण्डार ( लायब्रेरी)
इस वर्ष हिन्दी, अग्रेजी, धर्मशास्त्र, संस्कृत और जर्मन साहित्य आदि भिन्न भिन्न विषयों की ७५८ उपयोगी पुस्तकें खरीदी गई । १०१ सदस्यो ने २३७५ पुस्तको का अध्ययन करके लाभ उठाया ।
वाचनालय
इस विभाग मे दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक कई पत्र पत्रिकाएं आती हैं।
ग्रन्थ प्रकाशन विभाग
इस वर्ष निम्न लिखित पुस्तकें प्रकाशित हुईश्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह द्वितीय भाग ।
श्री जैन सिद्वान्त बोलसंग्रह तृतीय भाग । नवीन स्तवन संग्रह |
ज्ञानोपदेश इकावनी |
श्रनुपूर्वी और उसके कण्ठस्थ करने के विधि |
पंच कल्याणक टीप
दूसरी आवृत्ति
ज्ञानापदेश भजन संग्रह ।
संस्थाओं के प्रबंध के लिए एक कमेटी बनी हुई जिसमें नीचे लिखे अनुसार पदाधिकारी तथा सदस्य हैं
सभापति-— श्रीमान् दानव र सेठ भैरोदानजी सेठिया श्रीमान् जेठमलजी सेठिया
मन्त्री
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
(११)
उपमन्त्री - श्रीमान् बाबू माणकचन्दजी सेठिया
सदस्य १ श्रीमान् सेठ कनीरामजी बाँठिया
२ श्रीमान् महता बुधसिंहजी वैद
३ श्रीमान् सेठ खूबचन्दज। चण्डालिया (आडिटर) ४ श्रीमान् पानमलजी सेठिया
-
५ श्रीमान् मगनमलजी कोठारी (आडिटर) ६ श्रीमान् गोविन्दरामजी भनसाली
७ श्रीमान् जुगराजजी सेठिया (आडिटर) श्री सेठिया संस्थाओं का १६४१ का स्टाफ
(१) श्री मास्टर शिवलालजी सेठिया
(२) श्री शम्भूदयालजी सक्सेना साहित्यरत्न
(३) श्री माणकचन्द्रजी भट्टाचार्य एम. ए. बी. एल.
(४) श्री शिवकाली सरकार एम. ए.
(५) श्री ज्योतिषचन्द्र घोष एम. ए.
(६) श्री श्यामलालजी एम. ए., न्यायतीर्थ, विशारद
(७) श्री बालकृष्णजी एम. ए.
(८) श्री इन्द्र चन्द्रजी शास्त्री, बी. ए. वेदान्तवारिधि, शास्त्राचार्य्य, न्याय तीर्थ (९) श्री रोशनलालजी चपलोत बी. ए. न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, सिद्धान्ततीर्थ, विशारद
(१०) श्री खुशीरामजी बनोट बी. ए. एल एल. वी (११) श्री घेवरचन्द्रजी बाँठिया 'वीरपुत्र' सिद्धान्त-शास्त्री, न्यायतीर्थ,
व्याकरण तीर्थ
(१२) श्री पं० सच्चिदानन्दजी शर्मा शास्त्री (१३) श्री धर्मसिंहजी वर्मा शास्त्री, बिशारद (१४) श्री पं० सुबोधनारायणजी का व्याकरणाचार्य (१५) श्री पं० इन्द्रनारायणजी का व्याकरणाचार्य (१६) श्री पं० हनुमानप्रसादजी साहित्य शास्त्री (१७) श्री कानमलजी कोठारी न्यायतीर्थ (१८) श्री कन्हैयालालजी दक न्याय तीर्थ
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२) (१९) श्री पारसमलजो नाहर व्याकरणतीर्थ (२०) श्री राजकुमारजी जैन हिन्दो प्रभाकर (२१) श्री भोखमचन्दजी सुराणा हिन्दी प्रभाकर (२२) श्री रत्नकुमारजो 'रत्नेश' (२३) श्री मदनकुमारजी महता विशारद (२४)" हुक्मचन्दजी जैन (२५)" फकोरचन्दजी पुरोहित (२६) " रुगलालजी महात्मा (२७) " रामकृष्णजी व्यास (२८)" नन्दलालजी व्यास (२९)" किसनलालजी व्यास (३०)" भोमराजजी माल ( ३१) " मूलचन्दजो सिपाणो (३२) " पानमलजो आसाणी (३३) " मगनमलजी गलगुलिया (३४) " मीनाराम माली
कन्या पाठशाला श्री राम प्यारी बाई
श्री फूली बाई " गौरा बाई
" रतन बाई " भगवती चाई
" गुलाब बाई लेठिया प्रिन्टिंग प्रेस श्री गोपीनाथजी शर्मा
श्री फूसराजजी सिपाणी " मगनमलजी गुलगुलिया
" रतनलालजो सुराणा " मेघराजजी मरण
" मूलसिंहजी राजपूत " गुलाम नवी
" खदाधक्स दफ्तरी " मुरलीधर शुक्ल
" सरदारसिंह " शमशुद्दीन
" जयरामजो " गुल्लु खां
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१३)
आय व्यय का संक्षिप्त विवरण
१८८८६८) कलकत्ते के मकानोका
किराया ९५९॥४) व्याज ३७६)|| जसकरण मेमोरियल
फण्ड की आय
व्याज
१७४२४॥5) श्री सेठिया जैन पार
मार्थिक संस्थाओ मे लायब्ररी,बालपाठशाला विद्यालय, कन्या पाठशाला, नाइट कालेज,समाज सेवा तथा संस्था के मकानो की मरम्मत वगैरह मे खर्च
२०२२१||
६८१-८॥
श्री सेठिया प्रिन्टिंग प्रेस में टूटते रहे
१०५॥
दीक्षा उपकरण मे लगे
१८२१२) २००९। Jum श्री वृद्धि खाते
२०२२१॥
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१४)
दो शब्द
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह का पांचवां भाग पाठकों के सामने प्रस्तुत है । इसमे १४ से लेकर १९ तक छः बोल संग्रह दिये गये है । चौदह राजू परिमाण लोक का स्वरूप, चौदह गुणस्थान, विनीत के पन्द्रह लक्षण, पन्द्रह कर्मादान, चन्द्रगुप्त राजा के सोलह स्वप्न, सोलह सती चरित्र, श्रावक के सतरह लक्षण, शरीर के सतरह द्वार, गतागत के अठारह द्वार, अठारह पापस्थानक. साधु के अठारह कल्प, पौषध के अठारह दोप, कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष, ज्ञातासूत्र की उन्नीस कथाएं
आदि इस भाग की विशेपता हैं । सोलह सतियो का चरित्र पर्याप्त विस्तार के साथ लिखा गया है । श्राशा है पाठको को ये बातें पसन्द आएगी।
पुस्तक छप जाने के बाद जो अशुद्धियाँ हमारी दृष्टि मे आई उन्हे हाथ से सुधार दिया गया है। इसलिए इस भाग में भी अलग शुद्धिपत्र देने की आवश्यकता नहीं समझी गई।
छठा भाग तैयार हो रहा है । वह भी यथासंभव शीघ्र ही पाठको की सेवा में उपस्थित किया जायगा।
निवेदक पुस्तक प्रकाशन समिति
आभार प्रदर्शन जैनधर्म दिवाकर पण्डितप्रवर उपाध्याय भी आत्माराम जी महाराज तथा शास्त्रज्ञ मुनि श्री पन्नालाल जी महाराज ने यथासम्भव बोलो का निरीक्षण करके अपनी अमूल्य सम्मतियों दी हैं । यथास्थान संशोधन या सूचना करके पुस्तक को उपयोगी बनाने मे पूरा परिश्रम उठाया है। इसके लिए हम और पुस्तक से लाभ उठाने वाले सभी सज्जन उनके सदा आभारीरहेंगे।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
परमप्रतापी जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराज तथा युवाचार्य मुनि श्री गणेशीलालजी महाराज के अपनी विद्वान् शिष्य मण्डली के साथ बीकानेर या भीनासर विराजने से भी हमें बहुत लाभ प्राप्त हुआ है । मुनि श्री सिरेमलजी महाराज तथा मुनि श्री जंवरीमलजी महाराज ने भी बोलो को शुद्ध, प्रामाणिक और अधिक उपयोगी बनाने मे पूरा सहयोग दिया है । इसके लिए हम उनके सदा ऋणी रहेंगे । १५ अगस्त १९४१ बीकानेर
पुस्तक प्रकाशन समिति
प्रमाण के लिए उद्धृत ग्रन्थों की सूची ग्रन्थ नाम
कत्तो
प्रकाशक एवं प्राप्ति स्थान अनुयोगद्वार सूत्र मलधारी हेमचन्द्र सूरि आगमोदय समिति सूरत। प्राचारांग सूत्र शीलांकाचार्य टीका। सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक
समिति सूरत । आवश्यक चूर्णि भद्रबाहुस्वामिकृत ऋषभदेव केसरीमल
जिनदास गणिकृत श्वेताम्बर संस्था रतलाम ।
नियुक्ति सहित, श्रावश्यक नियुक्ति मलयगिरि सूरि टीका आगमोदय समिति सूरत । उत्तराध्ययन सूत्र शान्तिसूरि बहवृत्ति । आगमोदय समिति सूरत । उपासक दशाङ्ग अभयदेव सूरि टीका। आगमोदय समिति सूरत ।
औपपातिक सूत्र अभयदेव सूरि टोका आगमोदय समिति सूरत। कर्मग्रन्थ ( पहला, देवेन्द्र सूरि विरचित आत्मानन्द जैन पुस्तक दूसरा, चौथा) पं० सुखलालजोकृत प्रकाशक मण्डल आगरा।
हिन्दी व्याख्या सहित । कर्म प्रकृति शिवाचार्य प्रणीत, जैनधर्म प्रसारक सभा
उपाध्याय श्री यशोविजय भावनगर। विरचित सटीक
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
चन्द्रप्रज्ञप्ति शान्तिचन्द्र गणि विर- देवचन्द्र लालभाई जैन
चित वृत्ति। पुस्तकोद्धार संस्था बम्बई । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति शान्तिचन्द्र गणि विर- देवचन्द्र लाल भाई जैन
__चित वृत्ति। पुस्तकोद्धार संस्था बम्बई । ज्ञाताधर्मकथाग अभयदेव सरि टीका आगमोदय समिति सूरत । जाताधर्मकथांग शास्त्री जेठालाल हरिभाई जैनधर्म प्रसारक सभा
कृत गुजराती अनुवाद । भावनगर । ठाणांग सत्र अभयदेव मरि टीका। आगमोदय समिति सूरत । तत्त्वार्थसूत्र भाष्य श्री उमास्वाति कृत। मोतीलाल लाधाजी पूना । त्रिपष्टि शलाका हेमचन्द्राचार्य जैन धर्म प्रसारक सभा पुरुप चरित्र
भावनगर। दशवकालिक मलयगिरि टीका। आगमोदय समिति सरत । धर्मविन्दु हरिभद्राचार्य कृत, मुनि- आगमोदय समिति सरत ।
चन्द्राचार्यविहित वृत्तियुक्त धर्म संग्रह श्रीमन्मानचिजय महो- देवचन्द्र लालभाई जैन
पाध्याय प्रणीन,यशोविजय पुस्तकोद्धार संस्था बम्बई ।
टिप्पणी सहित । नन्दी सूत्र मलयगिरि टोका भागमोदय समिति सरत । पंचाशक
हरिभद्र सूरि विरचित जैनधर्म प्रसारक सभाभावनगर
अभयदेव सरि टीका। पिण्डनियुक्ति मलयगिरि टीका। आगमोदय समिति सरत । पिण्डविशुद्धि श्रीजिनवल्लभ गणि कृत विजयानन्द जैन ग्रन्थमाला चन्द्रसूरि कृत टीका।
सरत । प्रज्ञापना सत्र मलयगिरि टीका। आगमोदय समिति सरत । प्रज्ञापना सूत्र पं० भगवानदास हर्पचन्द्र जैन सोसाइटी अहमदाबाद ।
कृत गुजराती अनुवाद । प्रवचन सारोद्धार नेमचन्द्र सरि कृत सिद्ध- देवचन्द्र लालभाई जैन
सेन शेखर वृत्तिसहित पुस्तकोद्धार संस्था वम्बई।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१७)
बृहत्कल्प मलयगिरि और श्राचार्य आत्मानन्द जैन सभा
क्षेमकीर्ति कृत वृत्ति सहित। भावनगर। भगवती सूत्र अभयदेव सरि टीका। आगमोदय समिति सूरत । राजीमती पूज्य श्री जवाहरलालजी हितेच्छु श्रावक मंडल महाराज कृत
रतलाम विशेषावश्यक मलधारी हेमचन्द्र बृहद् वृत्ति यशोविजय जैन ग्रन्थमाला भाष्य
बनारस व्यवहार चूलिका हस्तलिखित टब्बा श्रावक के चार पूज्य श्री जवाहरलालजी हितेच्छु श्रावक मंडल शिक्षाव्रत महाराज कृत
रतलाम सतीचन्दनवाला पूज्य श्री जवाहरलालजी हितेच्छु श्रावक मंडल (वसुमती) महाराज कृत ।
रतलाम समवायाग अभयदेव सूरि टीका। आगमोदय समिति सूरत । सूत्र कृताङ्ग शीलांकाचार्य कृत टीका। श्रागमोदय समिति सरत । हरिभद्रीयावश्यक हरिभद्र सरि कृत टीका जैन धर्म प्रसारक सभा भद्रबाहुनियुक्ति
भावनगर । तथा भाष्य युक्त
विषय सूची बाल नं०
पृष्ठ बोल नं० मंगलाचरण १ ८२६ संमूर्छिम मनुष्यो के
चौदहवाँ बोल संग्रह ३ उत्पत्ति स्थान चौदह १८ ८२२ श्रुतज्ञान के चौदह भेद ३ ८२७ अजीव के चौदह भेद १९ ८२३ पूर्व चौदह
1 ८२८ चक्रवर्ती के चौदह रत्न २० ८२४ ज्ञान के अतिचार चौदह १४ ८२९ स्वप्न चौदह २० ८२५ भूतग्राम (जीवो) के ८३० महास्वप्न चौदह २२
चौदह भेद १७ ' ८३१ श्रावक के चौदह नियम २३
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१८)
पृष्ठ
बोल नं०
पृष्ठ बोल नं० ८३२ चौदह प्रकार का दान २६ । ८४८ देवलोक में उत्पन्न होने ८३३ स्थविर कल्ली साधुओं वाले जीव ११५
के लिए चौदह प्रकार का पन्द्रहवाँ बोल संग्रह ११७ __उपकरण २८ ! ८४९ सिद्धो के पन्द्रह भेद ११७ ८३४ साधुओ के लिए अकल्प
। ८५० मोक्ष के पन्द्रह अंग १२१ नीय चौदह बातें २९
८५१ दीक्षा देने वाले गुरु ८३५ अविनीत के चौदह
के पन्द्रह गुण लक्षण
१२४ ८३६ माया के चौदह नाम ३१ ।
८५२ विनीत के पन्द्रह लक्षण १२५ ८३७ लोभ के चौदह नाम ३२ / ८५३ पूज्यता को बतलाने वाली ८३८ चौदह प्रकार से शुभ
पन्द्रह गाथाएं १२७
1८५४ अनाथता की पन्द्रह नामकर्म भोगा जाता है ३३
गाथाएं १३० ८३९ चौदह प्रकार से अशुभ
८५५ योग अथवा प्रयोग नामकर्म भोगा जाता है ३३
गति पन्द्रह १३८ ८४० प्राभ्यन्तर परिग्रह के
१८५६ बन्धन नामकर्म के चौदह भेद ३३
पन्द्रह भेद १४० ८४१ सप्रदेशी अप्रदेशी के ८५७ तिथियों के नाम पन्द्रह १४२
चौदह बोल ३४ । ८५८ कर्मभमि पन्द्रह १४२ ८४२ पढमापढम के चौदह द्वार ३८
} ८५९ परमाधार्मिक पन्द्रह १४३ ८४३ चरमाचरम के चौदह
४२
८६० कर्मादान पन्द्रह १४४ ८४४ महानदियाँ चौदह ४५
सोलहवाँ बोल संग्रह १४७ ८४५ चौदह राजू परिमाण
८६१ दशकालिक सूत्र लोक
द्वितीय चूलिका की ८४६ मार्गणास्थान चौदह ५५ सोलह गाथाएं १४७ ८४७ गुणस्थान चौदह ६३ ८६२ सभिक्खु भध्ययन की
बाल
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
सुन्दरी
१९०
२४९
२७५
३१३ ३२१
३४०
बोल ०
पृष्ठ बोल नं० सोलह गाथाएं १५२ ८७५ सतियाँ सोलह १८५ ८६३ बहुश्रुत साधु की सोलह ब्राह्मी
१८५ उपमाएं १५५ ८६४ दीक्षार्थी के सोलह
चन्दनबाला(वसुमती) १९७ १५८
राजीमती ८६५ गवेषणा (उद्गम ) के
द्रौपदी सोलह दोष १६१
कौशल्या २९८ ८६६ ग्रहणैषणा (उत्पादना)
मृगावती
३०३ के सोलह दोष १६४
सुलसा ८६७ साधु को कल्पनीय ग्रामादि
सीता सोलह स्थान १६६
सुभद्रा ८६८ आश्रव आदि के सोलह
शिवा
३४६ १६८
कुन्ती ८६९ वचन के सोलह भेद १७०
दमयन्ती
३५२ ८७० मेरु पर्वत के सोलह
पुष्पचूला
३६४ नाम
प्रभावती ८७१ महायुग्म सोलह १७२ !
पद्मावती
३६६ ८७२ द्रव्यावश्यक के सोलह ८७६ सतियो के लिए प्रमाण विशेषण १७६
भूत शास्त्र ३७५ ८७३ चन्द्रगुप्त राजा के सोलह
। मतरहवाँ बोल संग्रह ३७७ स्वप्न
१७८ | ८७७ विनय समाधि अध्ययन ८७४ भगवान महावीर की
की सतरह गाथाएं ३७७ वसति विषयक सोलह ८७८ महावीर की तपश्चर्या गाथाएं
१८२ ।
विषयक सतरह गाथाएं३८०
भांगे
३६५
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२०)
४१०
बोल नं०
पृष्ठ बोल नं० ८७९ मरण सतरह प्रकार का ३८२/ भेद ८८० माया के सतरह नाम ३८५ / ८९४ पौषध के अठारह दोप ४१० ८८१ शरीर के सतरह द्वार ३८५ / ८९५ अठारह पापस्थानक ४१२ ८८२ विहायोगति के सतरह ८९६ चोर की प्रसूति अठारह ४१५ भेद
३८९ / ८९७ क्षल्लक निर्गन्थीय अध्य८८३ भाव श्रावक के सतरह
यन को अठारह लक्षण
३९२ गाथाएं ४१६ ८८४ संयम के सतरह भेद ३९३ | ८९८ दशकालिक प्रथम ८८५ संयम के सतरह भेद ३९५
चूलिका की अठारह ८८६ चरम शरीरी को प्राप्त
गाथाएं
४२० सतरह बातें ३९५ । उन्नीसवाँ बोल संग्रह ४२५
अठारहवाँ बाल संग्रह ३९७ 1 ८९९ कायोत्सर्ग के उन्नोस ८८७ अरिहन्त भगवान् मे
दोप
४२५ नहीं पाये जाने वाले
। ९०० ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र अठारह दोष ३९७
की उन्नीस कथाएं ४२७ ८८८ गतागत के अठारह
मेघकुमार की कथा ४२९ द्वार
३९८
धन्नासार्थवाह और ८८९ लिपियाँ अठारह ४०१
विजय चोर की कथा ४३४ ८९० साधु के अठारह कल्प ४०२
जिनदत्त और सागर८९१ दीक्षा के अयोग्य अठा
दत्त की कथा ४३६ रह पुरुप ४०६
कछुए और शृगाल की ८९२ ब्रह्मचर्य के अठारह
कथा
४३७ ४१० शैलक राजर्षि की कथा ४३८ ८९३ अब्रह्मचर्य के अठारह
तुम्बे का दृष्टान्त ४४१
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२१)
पृष्ठ बोल नं०
पृष्ठ
बोल नं० ९०० चार पुत्रवधुओं की कथा
४४२ भगवान मल्लिनाथ की कथा ४४४ जिनपाल और जिनरक्ष की कथा ४५३ चन्द्रमा का दृष्टान्त ४५६ दावद्रवका दृष्टान्त ४५७ पुद्गलो के शुभाशुभ परिणाम
४५८ नन्दमणियार को कथा४६० तेतलीपुत्र का कथा ४६२ नन्दी फल का दृष्टान्त ४६४ श्रीकृष्ण का अपरकंका गमन
४६६ अश्वो का दृष्टान्त ४६९ संसुमा और चिलाती पुत्र की कथा ४७० पुण्डरीक और कुण्डरीक की कथा ४७२ परिशिष्ट ४७५ चौतीस प्रस्वाध्याय का सवैया (परिशिष्ट) ४७५ दशवकालिक अ० नौ
उ०३ की गाथाएं ४७६ उत्तराध्ययन अ० बीस की गाथाएं ४७७ दशवकालिक दूसरी चूलिका की गाथाएं ४७८ उत्तराध्ययन अध्य० पन्द्रह की गाथाए ४८० आचारांग श्रुतस्काध १ अ०९ २० २ की गाथाएं
४८१ दशवकालिक अ० नौ २०१कीगाथाएं ४८२ आचारांग श्रुतस्कन्ध १ अ०९ उ०४ की गाथाएं
४८४ उत्तराध्ययन अ०६ की गाथाए
४८५ दशवैकालिक पहली चूलिका की गाथाएं ४८७
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
वोल नं०
( २२ )
प्रकाराद्यनुक्रमणिका
पृष्ठ बोल नं०
च
८३४ अकल्पनीय साधु के लिए चौदह बातें
२९
८२७ अजीव के चौदह भेद १९
८९० अठारह कल्प साधु के ४०२
८८७ अठारह दोष अरिहन्त भगवान् मे नहीं पाये जाने वाले ३९७ ८९४ अठारह दोप पौपध के ४१० ८९५ अठारह पापस्थानक ४१२
अठारहवाँ बोल संग्रह ३९७ ९०० अण्डकन्नात अध्ययन ४३६ ९०० अध्ययन उन्नीस ज्ञाता
धर्मकथांग सूत्र के ४२७
१३०
८५४ नाथता की पन्द्रह गाथाएं ८४७ अनियट्टि बादर गुणस्थान ८० ८४७ श्रनिवृत्तिवादर गुणस्थान ८०
९०० अपरकङ्काशात अध्य
चन
८४१ प्रदेशी सप्रदेशी के
चौदह द्वार
४६६
३४
८४७ अप्रमत्त संयत
७६
गुणस्थान ८४७ अप्रमादी साधु गुणस्थान ७६ ब्रह्मचर्य के भेद
८९३
४१०
८४७ प्रयोगी केवली गुणस्थान ८६ ८८७ अरिहन्त भगवान् मे
नहीं पाये जाने वाले अठारह दोष
३९७
८३५ प्रविनीत के चौदह लक्षण ३० ८४७ अविरत जीव सात ७४ ८४७ अविरत सम्यग्दृष्टि
८३९
गुणस्थान शुभ नामकर्म भोगने
के प्रकार
९०० अश्वो का दृष्टान्त
पृष्ठ
८८२ आकाश गति के
सतरह भेद
८७४ आचारांग श्रुतस्कन्ध
३३
४६९
असमाय का सवैया ४७५
आ
७४
९ श्रध्ययन ९ उद्देशा
२ की गाथाएं
३८९
१८२
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
बोल नं०
८७८ आचारांग तस्कन्ध १ ०९ उ० ४ की गाथाएं ८४७ आजीविक दर्शन में
३८०
पृष्ठ
आध्यात्मिक विकास ६८
( २३ )
८४७ आध्यात्मिक विकासक्रम ६३ ८४० आभ्यन्तर परिग्रह के
३३
चौदह भेद ८६८ श्रव आदि के भांगे १६८ ८६६ आहार के सोलह दोष
( उत्पादना) ८६५ आहार के सोलह दोष
( उद्गम )
उ
८६३ उत्तराध्ययन ग्यारहवें अध्ययन की सोलह
गाथाएं
अठारह गाथाएं
८६२ उत्तराध्ययन पन्द्रहवें
१६४
८५४ उत्तराध्ययन वीसवें
१५५
८९७ उत्तराध्ययन छठे अध्ययन
की निर्मन्थाचार विषयक
४१६
१६१
'सभिक्खु ' अध्ययन की सोलह गाथाएं
१५२
बोल नं०
अध्ययन की पन्द्रह
गाथाएं
८६६ उत्पादना के सोलह दोष
१३०
पृष्ठ
१६४
९०० उत्क्षिप्तज्ञात (ज्ञातासूत्र
का पहला अध्ययन ) ४२९ ९०० उदक ज्ञात (ज्ञातासूत्र
का अध्ययन बारहवाँ ) ४५८ ८४७ उदय गुणस्थानो मे ९४ ८४७ उदीरणा गुणस्थानो मे ९८ ८६५ उद्गम के सोलह दोष १६१ उन्नीसवाँ बोल संग्रह ४२५
८३३ उपकरण चौदह स्थविर
कल्पी साधुओ के लिये २८
८६३ उपमाएं सोलह बहुश्रुत साधु के लिए
८४७ उपशमक
१५५
८२
८४
८४७ उपशम श्रेणी
८४७ उपशान्त कषाय वीतराग
छद्मस्थ गुणस्थान
८२
क
९०० कछुए का दृष्टान्त ८७१ फडजुम्मा आदि सोलह
महायुग्म
४३७
१७२
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४९
(२४) मोल नं. पृष्ठ बोल नं०
पृष्ठ ९०० कथा उन्नीस ज्ञाताधर्म ८९० कल्प अठारह साधु के ४०२ कथांग सूत्र की ४२७
८९९ कायोत्सर्ग के उन्नीस
___दोष ९०० कथा जिनदत्त और
४२५ सागरदत्त की
८७५ कुन्ती
४३६ ९०० कथा जिनपाल और
९०० कूर्मज्ञात अध्ययन चौथा ४३७
८७५ कौशल्या जिनरक्ष की
२९८ ४५३ ९०० कथा तेतली पुत्र की ४६२
८४७ क्रियाएं पच्चीस १०६ ९०० कथा धन्नासार्थवाह और
८४७ क्रियाद्वार गुणस्थानों में१०६
८४७ क्षपक विजय चोर की ४३४
८४७ क्षपक श्रेणी ८४ ९०० कथानन्दमणियार की ४६०
८४७ क्षीण कषाय छद्मस्थ ९०० कथा पुण्डरीक और
वीतराग गुणस्थान ८४ कुण्डरीक की ४७२
८९७ क्षुल्लक निम्रन्थीय अ० । ९०० कथा भगवान् मल्लि
की अठारह गाथाएं ४१६ नाथ की ४४४ ९०० कथा मेघ कुमार की ४२९ ९०० कथारोहिणी आदिचार ।
८४५ खण्डरग्ज लोक में ५१ पुत्र वधुश्रो की ४४२ ९०० कथाशैलक राजर्षि की ४३८
८८८ गतागत के अठारह ९०० कथा श्री कृष्ण के अपर
द्वार
३९८ कंफा गमन विषयक ४६६
८६५ गवेषणा के सोलह दोष १६१ ९०० कथा सुसुमा और ८९७ गागाएं अठारह उत्तरा०
चिलाती पुत्र की ४७० छठे अध्य० की निम्रन्था८५८ कर्मभूमि पन्द्रह १४२ चार विषयक ४१६ ८६० कर्मादान पन्द्रह १४४ ८९७ गाथाएं अठारह क्षुल्लक
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२५)
पृष्ठ
बोल नं०
पृष्ठ बोल नं० निम्रन्थीय अ० की ४१६ १०९ उ० ४ को ३८० ८९८ गाथाएं अठारह दशवे- ८७७ गाथाएं सतरह विनय कालिक प्रथम चूलिका
समाधि अध्य० की ३७७ की सयम में स्थिर करने । ८६२ गाथाएं सोलह उत्तरा०
के लिए ४२० पन्द्रहवें अध्य० की १५२ ८७४ गाथाएं आचा० त०१ ८६१ गाथाएं सोलह दशवकाअध्ययन ९ उद्देशे
लिक द्वितीय चूलिका की १४७ दूसरे की १८२ / ८४७ गुणश्रेणी ७९ ८६३ गाथाएं उत्तराध्ययन ८६४ गुण सोलह दीक्षार्थी के १५८
ग्यारहवें अध्य० की १५५ ८४७ गुणसंक्रमण ७९ ८५४ गाथाएं पन्द्रह अना- ८४७ गुणस्थान का सामान्य थता की उत्तराध्ययन
स्वरूप बीसवें अध्ययन की १३० ८४७ गुणस्थान चौदह ६३ ८५४ गाथाएं पन्द्रह उत्तरा० ८४७ गुणस्थान के २८ द्वार १०५
बीसवें अध्ययन की १३० ८४७ गुणस्थानों के नाम ८५३ गाथाएं पन्द्रह दशवैका
और स्वरूप ७२ लिक नवें अध्य० की १२७ ८४७ गुणस्थानो मे अन्तरद्वार ११२ ८५३ गाथाएं पन्द्रह पूज्यताको ८४७ गुणस्थानो में अल्प
बताने वाली दशवकालिक पहुत्व द्वार ११३
नवें अध्य० की १२७ / ८४७ गणस्थानों में आत्म द्वार १०८ ८७७ गाथाएं सतरह दशव
८४७ गुणस्थानों में उदय ९४ कालिक नवे अ० की ३७७ । ८४७ गुणस्थानो मे उदीरणा ९८ ८७८ गाथाएं सतरह भगवान्
८४७ गुणस्थानो में उपयोग १०९ महावीर की तपश्चर्या ८४७ गुणस्थानो में कारण विषयक आचारांग श्रुत० द्वार
१००
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वार
(२६) बोल नं० पृष्ठ बोल नं०
पृष्ठ ८४७ गुणस्थानो में क्रिया द्वार १०६ ८६६ ग्रहणैषणा के सोलह दोप१६४ ८४७ गुरणस्थानो में गुण द्वार १०८ ८४७ गुणस्थानों में चारित्र ८६७ ग्रामादि स्थान सोलह द्वार
११२ । साधु को कल्पनीय १६६ ८४७ गुणस्थानो मे जीव द्वार १०८ ८४७ गुणस्थानो मे जीवयोनि ८२८ चक्रवर्ती के चौदह रत्न २० द्वार
१११
८७५ चन्दनबाला (वसुमती)१९७ ८४७ गुणस्थानो में दण्डक ८७३ चन्द्रगुप्त राजा के सोलह १११ स्वप्न
१७८ ८४७ गुणस्थानो मे ध्यानद्वार १११ ९०० चन्द्रज्ञात अ० दसवा ४५६ ८४७ गुणस्थानों मे निमित्त
९०० चन्द्रमा कादृष्टान्त ४५६ द्वार
८८६ चरम शरीरी को प्राप्त ८४७ गुणस्थानों में निर्जरा
सतरह बातें ३९५ द्वार ८४७ गुणस्थानो में परिषद ८४३ चरमाचरम के चौदह द्वार
द्वार
४२ ८४७ गुणस्थानो मे बन्ध ८८ ८७५ चूला (पुष्पचूला) ३६४ ८४७ गुणस्थानों में भाव द्वार १०७
८९६ चोर की प्रसूति अठारह४१५ ८४७ गुणस्थानो में मार्गणा
चौतीस अस्वाध्याय का द्वार
११० ८४७ गणस्थानो मे योग द्वार १०९
सवैया (परिशिष्ट) ४७५ ८४७ गुणस्थानो मे लेश्या ८३१ चौदह नियम श्रावक के २३
१०९ ८३२ चौदह प्रकार का दान २६ ८४७ गुणस्थानो में सत्ता ९९ ८३० चौदह महास्वप्न २२ ८४७ गुणस्थानो मेसमकित ११२ / ८४५ चौदह राजश्रो मे जीवों ८४७ गुणस्थानों मे स्थिति द्वार १०५ का निवास
४८ ८४७ गुणस्थानों मे हेतु द्वार ११० ८४५ चौदह राजू परिमाण लोक ४५
द्वार
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२७)
पृष्ठ बोलन
२०
बोल नं०
पृष्ठ चौदहवाँ बोल संग्रह ३ ९०० दर्द रज्ञात अध्ययन ८२९ चौदह स्वप्न
तेरहवाँ (ज्ञातासूत्र) ४६०
८७७ दशवकालिक अध्ययन ९०० जिनदत्त और सागर
नवेंकी सतरह गाथाएं ३७७ दत्त की कथा ४३६ ८६१ दशवकालिक द्वितीय चूलिका ९०० जिनपाल और जिन
की सोलह गाथाएं १४७ रक्ष की कथा ४५३
८५३ दशवैकालिक नवे अध्य८४७ जीव की तीन अवस्थाएं ६३
यन की पन्द्रह गाथाएं१२७ ८२५ जीव के चौदह भेद १७
। ८९८ दशवकालिक प्रथम चूलिका ८४७ जैनदर्शन में प्राध्या
की अठारह गाथाए ४२० त्मिक विकास क्रम ६७
८३२ दान चौदह प्रकार का २६
९०० दावद्रवज्ञात अध्ययन ९०० ज्ञाताधर्म कथाङ्ग सूत्र
ग्यारहवाँ (ज्ञातासूत्र) ४५७ की उन्नीस कथाएं ४२७ ।
९०० दावद्रव वृक्ष का दृष्टान्त४५७ ९०० ज्ञाताधर्म कथाङ्ग सूत्र
८९१ दीक्षा के अयोग्य पुरुष के उन्नीस अध्ययन ४२७
अटारह ८२४ ज्ञान के चौदह अतिचार१४
८९१ दीक्षा के अयोग्य स्त्रियाँ बीस
४०९ ८५७ तिथियाँ पन्द्रह १४२ ८५१ दीक्षा देने वाले गुरु के । ९०० तुम्बकज्ञात अध्ययन ४४१ । पन्द्रह गण १२४ ९०० तेनली पुत्र की कथा ४६२ / ८६४ दीक्षार्थी के सोलह गुण १५८ ९०० तेतलो ज्ञात अध्ययन ९०० दृष्टान्त अश्वों का ४६९ चौदहयाँ (ज्ञातासूत्र) ४६२ ९०० दृष्टान्त कछुए का ४३७
९०० दृष्टान्त चन्द्रमा का ४५६ ८७५ दमयन्तो ३५२ । ९०० दृष्टान्त दाबद्रव का ४५७
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२८)
वोल नं०
पृष्ठ बोल नं० ९०० दृष्टान्त नन्दी फल का ४६४ ८३१ नियम चौदह श्रावक के २३ ९०० दृष्टान्त पुद्गलों के शुभा
। ८९७ निम्रन्थ के प्राचार शुभपरिणाम विषयक ४५८
विषयक गाथाएं अठारह ४१६ ८४८ देवलोक में उत्पन्न होने
| ८४७ निवृत्तिबादरगुणस्थान ७६ वाले जीव ११५ ८४७ देश विरत गुणस्थान ७५ ८८७ दोष अठारह अरिहन्त
८४२ पढमापढम के चौदह द्वार ३८ ___ भगवान् मे नहीं पाये ८७५ पद्मावती ३६६ • जाने वाले ३९७ / ८५८ पन्द्रह कर्मभूमि १४२ ८९४ दोष अठारह पौषध के ४१० । ८६० पन्द्रह कर्मादान १४४ ८९९ दोष उन्नीस कायोत्सर्ग के ४२५/
पन्द्रहवाँ बोल संग्रह ११७ .८७२ द्रव्यावश्यक के सोलह
८८१ पन्नवणा सूत्र, इक सवें । विशेषण १७६
शरीर पद के द्वार ३८५ ८७५ द्रौपदी
२७५
८५९ परमाधार्मिक पन्द्रह १४३
८४७ परिषह पाईस १०७ ९०० धन्ना सार्थवाह और
८९५ पापस्थान अठारह ४१२ विजय चोर की कथा ४३४ ,
९०० पुण्डरीक और कुण्डरीक की कथा
४७२ ८४४ नदियाँ चौदह ४५ / ९०० पुण्डरीक ज्ञात अध्ययन ९०० नन्दमणियार की कथा४६० उन्नीसवां १७२ ९०० नन्दी फल का दृष्टान्त ४६४ ९० पुद्गलों के शुभाशुभ विष९०० नन्दी फल ज्ञात अध्ययन
यक दृष्टान्त ४५८ पन्द्रहवां (ज्ञातासूत्र) ४६४ ८७५ पुष्पचूला ३६४ ८४७ नियट्टिवादरगुणस्थान ७६ । ८५३ पूज्यता को बतलाने वाली
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२९)
बोल नं० पृष्ठ बोल नं०
पृष्ठ पन्द्रह गाथाएं १२७ । गाथाएं ३८० ८२३ पूर्व चौदह १२ / ८८३ भाव श्रावक के सतरह । ८९४ पौषध के अठारह दोष ४१० लक्षण
३९२ ८७५ प्रभावती ३६५ / ८६८ भांगे सोलह श्राश्रव ८४७ प्रमादी साधु गुणस्थान ७६ / आदि के १६८ ८४७ प्रमत्तसंयत गुणस्थान ७६ ८२५ भूतग्राम(जीवों) के भेद १७ ८७६ प्रमाणभूत शास्त्र
सतियो के लिये ३७५ ८५५ प्रयोगगति पन्द्रह
८७९ मरण सतरह प्रकार के ३८२ १३८ ९०० मल्लि ज्ञात आठवां अध्ययन
४४४ ८४७ बन्ध गुणस्थानों में ८८
| ९०० मल्लिनाथ भगवान् की ८५६ बन्धन नामकर्म के
कथा
४४४ पन्द्रह भेद १४० ८६३ बहुश्रुत साधु की
1८४४ महानदियाँ चौदह ४५ सोलह उपमाएं १५५ ८५४ महानिन्थीय अध्ययन ८८२ बाटेबहती(विहायोगति)
की पन्द्रह गाथाएं १३० के सतरह भेद ३८९ / ८७१ महायुग्म सोलह १७२ ८४७ बौद्धदर्शन में प्राध्या- | ८७८ महावीर भगवान् की त्मिक विकास
तपश्चर्या विषयक सतरह ८९२ ब्रह्मचर्य के १८ भेद ४१० गाथाएं
३८० ८७५ ब्राह्मी
१८५ / ८७४ महावीर की वसति । भ
विषयक गाथाएं १८२ ९०० भगवान् मल्लिनाथ की ८३० महास्वप्न चौदह कथा
४४४
मंगलाचरण ८७८ भगवान महावीर की
| ९०० माकंद ज्ञात नवाँ अध्ययन
४५३ तपश्चर्या विषयक सतरह
का
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२८)
पृष्ठ
वोल नं०
पृष्ठ बोल नं० ९०० दृष्टान्त नन्दी फल का ४६४ ८३१ नियमचौदहश्रावक के २३ ९०० दृष्टान्त पुद्गलों के शुभा
८९७ निम्रन्थ के प्राचार शुभपरिणाम विषयक ४५८ विषयक गाथाएं अठारह ४१६ ८४८ देवलोक में उत्पन्न होने ८४७ निवृत्तिबादरगुणस्थान ७६
वाले जीव ११५ ८४७ देश विरत गुणस्थान ७५ ८८७ दोष अठारह अरिहन्त
। ८४२ पढमापढम के चौदह द्वार ३८ भगवान में नहीं पाये ८७५ पद्मावती ३६६ • जाने वाले ३९७ / ८५८ पन्द्रह कर्मभूमि १४२ ८९४ दोष अठारह पौषध के ४१०
८६० पन्द्रह कर्मादान १४४ ८९९ दोष उन्नीस कायोत्सर्ग के ४२५
पन्द्रहवाँ बोल संग्रह ११७ १८७२ द्रव्यावश्यक के सोलह
८८१ पन्नवणा सूत्र, इक्के सवें विशेषण १७६
शरीर पद के द्वार ३८५ ८७५ द्रौपदी
२७५
८५९ परमाधार्मिक पन्द्रह १४३
८४७ परिषह बाईस ९०० धन्ना सार्थवाह और
८९५ पापस्थान अठारह ४१२ विजय चोर की कथा ४३४
९०० पुण्डरीक और कुण्डरीक
की कथा ४७२ ८४४ नदियों चौदह ४५ / ९०० पुण्डरीक ज्ञात अध्ययन ९०० नन्दमणियार की कथा४६० । उन्नीसवां ९०० नन्दी फल का दृष्टान्त ४६४ । ८० पुद्गलों के शुभाशुभ विप९०० नन्दीफल ज्ञात अध्ययन
यक दृष्टान्त ४५८ पन्द्रहवां (ज्ञातासूत्र) ४६४
८७५ पुष्पचूला ३६४ ८४७ नियट्टिवादर गुणस्थान ७६ } ८५३ पूज्यता को बतलाने वाली
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२९)
बोल नं०
पृष्ठ बोल नं० पन्द्रह गाथाएं १२७ । गाथाएं
३८० ८२३ पूर्व चौदह १२ / ८८३ भाव श्रावक के सतरह । ८९४ पौषध के अठारह दोष ४१० लक्षण
३९२ ८७५ प्रभावती ३६५ / ८६८ भांगे सोलह आश्व ८४७ प्रमादी साधु गुणस्थान ७६ आदि के १६८ ८४७ प्रमत्तसंयत गुणस्थान ७६ । ८२५ भूतग्राम(जीवों) के भेद १७ ८७६ प्रमाणभूत शास्त्र सतियों के लिये ३७५
८७९ मरण सतरह प्रकार के ३८२ ८५५ प्रयोगगति पन्द्रह १३८
९०० मल्लि ज्ञात आठवां व
अध्ययन
४४४ ८४७ बन्ध गुणस्थानों मे ८०
९०० मल्लिनाथ भगवान् की ८५६ बन्धन नामकर्म के पन्द्रह भेद १४०
कथा
४४४ ८६३ बहुश्रुत साधुकी
८४४ महानदियाँ चौदह ४५ सोलह उपमाएं १५५ ८५४ महानिन्थीय अध्ययन ८८२ बाटेबहती(विहायोगति) । की पन्द्रह गाथाएं १३०
के सतरह भेद ३८९ ८७१ महायुग्म सोलह १७२ ८४७ बौद्धदर्शन में प्राध्या- | ८७८ महावीर भगवान् की त्मिक विकास ६७
० तपश्चर्या विषयक सतरह ८९२ ब्रह्मचर्य के १८ भेद ४१०
गाथाएं
३८० ८७५ ब्राझी १८५/ ८७४ महावीर की वसति
विषयक गाथाएं १८२ ९०० भगवान मल्लिनाथ की ८३० महास्वप्न चौदह २२ कथा
मंगलाचरण १ ८७८ भगवान महावीर की । ९०० माकंद ज्ञात नवाँ तपश्चर्या विषयक सतरह
अध्ययन
४५३
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
वोल नं०
३१
८३६ माया के चौदह नाम ८८० माया के सतरह नाम ३८५ ८४३ मार्गणास्थान चौदह
५५
८४७ मिथ्यादृष्टिगुणस्थान ७२
८४७ मिश्रगुणस्थान
७३
८७५ मृगावती
९०० मेघकुमार की कथा ८७० मेरु पर्वत के सोलह
(30)
पृष्ठ बोल नं०
३०३
४२९
ल ८८९ लिपियाँ अठारह ८४५ लोक का आकार ८४५ लोक का नक्शा
नाम
८५० मोक्ष के पन्द्रह अग ८८६ मोक्षगामी जीव को प्राप्त सतरह बातें
३९५
८५५ योग पन्द्रह
१३८
८४७ योगो के निरोध का क्रम ८६
१७१
१२१
८४५ लोक का नक्शा बनाने
की विधि
४०१
५३
५३
८४५ लोकका संस्थान
८४५ लोक के भेद
८४५ लोक मे खएडरज्जु
८४५ लोक में चौदह राजू ८३७ लोभ के चौदह नाम
र ८२८ रत्न चौदह चक्रवर्ती के २०
७९
२४९
८४७ रसघात ८७५ राजीमती ८४५ राजू चौदह लोक मे ४५ ९०० रोहिणी आदि चार पुत्र
वधुओ की कथा ४४२
९०० रोहिणी ज्ञात अ० सातवाँ ४४२ / ८९२ शील के अठारह भेद
पृष्ठ
४८
४७
४६
५१
४५
३२
व
८६९ वचन के सोलह भेद १७०
१२७
८७५ वसुमती (चन्दनबाला) १९७ ८५३ विनय समाधि अध्ययन को पन्द्रह गाथाए ८७७ विनय समाधि अध्ययन की सतरह गाथाएं ३७७ ८८२ विदायो गति के सतरह भेद ३८९ ८५२ विनीत के पन्द्रह लक्षण १२५ ८४७ वैदिक दर्शन मे श्रध्या
त्मिक विकास
६३
श
८८१ शरीर के सतरह द्वार ३८५ ८७५ शिवा
३४६
४१०
८३८ शुभ नामकर्म भोगने के
३३ प्रकार ९०० शैलक ज्ञात श्र० पांचवां ४३८ ९०० शैलक राजर्षि की कथा ४३८
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३१)
ر
बोल नं० पृष्ठ बोल नं०
पृष्ठ ८३१ श्रावक के चौदह नियम २३ / सतरह गाथाएं ४२० ८८३ श्रावक (भाव) के ८९० साधु के अठारह कल्प ४०२ सतरह लक्षण ३९२
| ८३४ साधु के लिए अकल्पनीय ९०० श्री कृष्ण का अपरकङ्का ।
चौदह बातें २९ गमन
४६६ ८६७ साधु को कल्पनीय ८२२ श्रुतज्ञान के चौदह भेद ३ प्रामादि स्थान १६६ सतरहवाँ बोल संग्रह ३७७
८४७ सास्वादान सम्यग्दृष्टि
गुणस्थान ८७५ सतियाँ सोलह १८५
८४९ सिद्धों के पन्द्रह भेद ११७ ८७६ सतियों के लिए प्रमाण
८७५ सीता ३७५
३२१ भूत शास्त्र ८४७ सत्ता गुणस्थानों में ९९०
। ८७५ सुन्दरी ८४१ सप्रदेशी अप्रदेशी के
८७५ सुभद्रा चौदह द्वार ३४ ८७५ सुलसा ३१३ ८६२ सभिक्खु अध्ययन की ९०० सुसुमा और चिलाती
सोलह गाथाएं १५२ पुत्र की कथा ४७० ८४७ सम्यग मिथ्यावृष्टि
। ८४७ सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान ८२ गुणस्थान
सोलहवाँ बोल संग्रह १४७ ८४७ सयोगोकेवली गुणस्थान ८५ । ८७५ सोलह सतियाँ १८५ ८४७ संभव सत्ता १००
८३३ स्थविरकल्पी साधु के ८२६ संमूछिम मनुष्यों के
लिए उपकरण २८ उत्पत्ति स्थान १८ ८८४ संयम के सतरह भेद ३९३, ८४७ स्थिति घात ८८५ संयम के सतरह भेद ३९५
८२९ स्वप्न चौदह ८९८ संयम से गिरते हुए को ८७३ स्वप्न सोलह चन्द्रगुप्त के १७८
स्थिर करने विषयक ८४७ स्वरूप सत्ता
له سه
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
SIA
CUD
पञ्चम भाग
मंगलाचरण
ऐन्द्रश्रेणिनताय दोषहुतभुनीराय नीरागताधीराजद्विभवाय जन्मजलधेस्तीराय धीरास्मने । गम्भीरागमभाषिणे मुनिमनोमाकन्दकीरायसन् नासीराय शिवाध्वनि स्थितिकृतेवीराय नित्य नमः॥शा कुर्वाणाणुपदार्थदर्शनवशागास्वत्प्रभायास्त्रपामानस्या जनकृत्तमोहरत मे शस्तादरिद्रोहिका। अक्षोभ्या तव भारती जिनपतेप्रोन्मादिनांवादिनां, मानत्याजनकृत्तमोहरतमेश स्तारिद्रोहिका।।२।।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
भावार्थ- देवेन्द्र, असुरेन्द्र और मनुजेन्द्रों की श्रेणी द्वारा वन्दित, राग द्वेष आदि दोष रूपी अग्नि को शान्त करने के लिए जल स्वरूप, वीतरागता रूपी परमैश्वर्य से सुशोभित, संसार रूपी समुद्र के लिए तीर, परमधीर, गम्भीर, आगमों का उपदेश देने वाले, मुनियों के मन रूपी आम्र वृक्ष पर वसने वाले कीर अर्थात् शुक पक्षी, मोक्ष मार्ग में सब से आगे चलने वाले सैनिक और तीर्थों की स्थापना करने वाले भगवान् महावीर को सदा वन्दन हो ॥ १ ॥
भक्तिपूर्वक प्रणाम करने वालों के मोह को काटने वाले, हे जिनेश्वर देव ! जीवादि सूक्ष्म पदार्थों की प्रकाशिका होने से सूर्य के तेज को लज्जित करने वाली, कल्याण को देने वाली, गहन तर्क और युक्तियों से गुँथी हुई, सत्य वस्तु को प्रकट करने वाली होने से सर्वत्र अप्रतिहत, प्रतिवादियों के गर्व का नाश करने वाली तथा अज्ञान के अन्धकार को दूर करने वाली आपकी वाणी मेरे बाह्य और आभ्यन्तर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे ।
२
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाँचवाँ भाग
rammmmmmmmmm
चौदहवाँ बोल संग्रह
८२२- श्रुतज्ञान के चौदह भेद
श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाले शास्त्रों के ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं । नन्दी सूत्र में मतिज्ञान के पश्चात् इसका वर्णन किया गया है। __चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग,द्रव्यानुयोग और गणितानुयोग की सारी बातें श्रुतज्ञान में आ जाती हैं। इसके चौदह भेद हैं(१) अक्षर श्रुत (२) अनतर श्रुत (३) सज्ञि श्रुत (४) असज्ञि श्रुत (५) सम्यक् श्रुत (६) मिथ्या श्रुत (७) सादि श्रुत (८) अनादि श्रुत (8)सपर्यवसिन श्रुत (१०) अपर्यवसित श्रुत (११) गमिक श्रुत (१२) अगमिक श्रुत (१३) अङ्गप्रविष्ट श्रुत (१४) अङ्गबाह्य श्रुत।
(१) अक्षर श्रुत- जिस का कभी क्षरण (नाश) न हो उसे अक्षर कहते हैं। जीव उपयोग स्वरूप वाला होने से ज्ञान का कभी नाश नहीं होता। इस लिए यहॉ ज्ञान ही अक्षर है। ज्ञान का कारण होने से औपचारिक नय से अकारादि वर्ण भी अक्षर कहे जाते हैं। अक्षर रूप श्रुत को अक्षर श्रुत कहते हैं। इसके तीन भेद हैं(१) सञ्ज्ञाक्षर (२) व्यञ्जनातर (३) लब्ध्यतर । क, ख वगैरह आकारों का क, ख नाम रखना सज्ञातर श्रत है क्योंकि इन आकारों के द्वारा अक्षरों का ज्ञान होता है। ब्राह्मी आदि लिपियों के भेद से यह अनेक प्रकार का है। क, ख आदि का उच्चारण फरके अक्षरों को व्यक्त करना व्यञ्जनातर है। लब्धि अर्थात
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
~
~
~
~
~
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला mmmmmmon mrom mmmmmmmmmmm rrrrrrrror आदि जीव भी हैं। इष्ट विषय में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति मन के व्यापार बिना नहीं हो सकती और मन से विचार करना ही संज्ञा है। इस प्रकार का विचार द्वीन्द्रिय आदि जीवों के भी होता है इस लिए वे भी संज्ञी हैं। संज्ञा का हेतु अर्थात कारण यानिमित्त होने के कारण ये हेतूपदेश संज्ञी कहे जाते हैं । कालिक्युपदेश संज्ञी भूत, भविष्यत् आदि लम्बे समय का विचार कर सकता है। हेतूपदेश संज्ञी केवल वर्तमान काल का ही विचार करता है। यही इन दोनों में भेद है । जिसे वर्तमान काल के विषय में भी सोचने की शक्ति नहीं होती वह हेतूपदेश से भी असंज्ञी कहा जाता है। जैसे पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीव । एकेन्द्रिय जीवों की कभी विचार पूर्वक इष्ट वस्तु में प्रवृत्ति तथा अनिष्ट से निवृत्ति नहीं होती।
आहार आदि संज्ञाएं भी उनके बहुत अस्पष्ट होती हैं, इस लिए वे संज्ञी नहीं कहे जाते।
दृष्टिवादोपदेश संज्ञी- चायोपशमिक ज्ञान वाला सम्यग्दृष्टि जीव दृष्टिवादोपदेश संज्ञी कहा जाता है । सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग ज्ञानी होने से रागादि दोषों को दूर करने का प्रयत्न करता है। जो दोषों को दूर करने का प्रयत्न नहीं करता वह सम्यग्दृष्टि नहीं है क्योंकि जिस तरह सूर्य की किरणों के सामने अन्धेरा नहीं ठहर सकता इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान के सामने रागादि दोष नहीं ठहर सकते। इस अपेक्षा से मिथ्याष्टिको असंही कहा जाएगा। __ संज्ञी के तीन भेदों के अनुसार श्रुत के भी तीन भेद हैं । गर्भज संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का श्रुतज्ञान, द्वीन्द्रियादि का श्रुतज्ञान तथा सम्यग्दृष्टि का श्रुतज्ञान। इनमें अन्तिम सम्यग्दृष्टि का श्रुतज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है । वाकी मिथ्या है।
(४) असंझिश्रुत- संज्ञिश्रुत से उल्टा असंज्ञिश्रुत है। इसके भी भेदप्रभेद संज्ञिश्रुत के समान जानने चाहिएं।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवाँ भाग
G
(५) सम्यक् श्रुत- घाती कर्मों के सर्वथा क्षय होने से उत्पन्न होने वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक, संसार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए तीनों लोकों द्वारा आशापूर्ण दृष्टि से देखे गए, महिमा गाये गए और पूजे गए, वर्तमान, भूत और भविष्यत् तीनों कालों के ज्ञाता, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अरिहन्त भगवान् द्वारा प्रणीत बारह अंगों वाले गणिपिटक सम्यक्श्रुत हैं। वे इस प्रकार हैं(१) आचारांग (२) सुत्रकृतांग (३) स्थानांग (५) भगवती
(६) ज्ञाताधर्मकथाङ्ग (६) अनुत्तरौपपातिक
(४) समवायांग (७) उपासक दशाङ्ग (८) अन्तकृद्दशाङ्ग (१०) प्रश्न व्याकरण ( ११ ) विपाक सूत्र (१२) दृष्टिवाद । इनका विषय 'ग्यारहवें बोल संग्रह के ७७६ वें बोल में दिया है। इसी प्रकार उपाङ्ग सूत्र, मूल मूत्र, छेद सूत्र, श्रावश्यक सूत्र आदि भी अङ्गों के अनुकूल अर्थ का प्रतिपादन करने से सम्यक्श्रुत हैं। ज्ञानमात्र की विवक्षा करके इन्हें द्रव्यास्तिक नय की अपेक्षा सम्यक् श्रुत कहा जाता है । ज्ञानवान् की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि द्वारा ग्रहण करने पर सम्यक् श्रुत तथा मिथ्यादृष्टि द्वारा ग्रहण करने पर मिथ्या श्रुत हैं।
चौदह पूर्वधारी के द्वारा ग्रहण किए गये आगम सम्यक्श्रुत ही हैं। दस पूर्वधारी द्वारा ग्रहण किए गए भी सम्यक्श्रुत ही हैं। उससे नीचे भजना है अर्थात् कुछ कम दस पूर्वधारी के द्वारा ग्रहण किए गए सम्यक्त भी हो सकते हैं और मिथ्याश्रुत भी, क्योंकि कुछ कम दस पूर्व तक का ज्ञान मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों को हो सकता है । सम्यग्दृष्टि द्वारा ग्रहण किए जाने पर वे आगम सम्यक् श्रुत हो जाते हैं और मिथ्यादृष्टि द्वारा ग्रहण किए जाने पर मिथ्याश्रुत ।
(६) मिथ्या श्रुत - मिध्यादृष्टियों के द्वारा अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से कल्पना किए गए शास्त्र मिध्याश्रत हैं। जैसे- घोटकमुख, नागसूक्ष्म, शकुनरुत आदि । ये शास्त्र भी मिथ्यादृष्टि के द्वारा मिथ्या
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
रूप में ग्रहण किए जाने के कारण मिथ्याश्रुत हैं । सम्यग्दृष्टि द्वारा सम्यग्रूप से गृहीत होने पर सम्यग्श्रुत हैं, अथवा जिस मिथ्यादृष्टि के लिए ये सम्यक्त्व का कारण बन जायें उसके लिए सम्यक्श्रुत ही हैं क्योंकि कुछ मिथ्यादृष्टि इन पुस्तकों से सार तथा मोक्षमार्ग के लिए उपयोगी अंश को ग्रहण करके मिथ्या अंश को छोड़ सकते हैं। वे उसी से संसार की असारता तथा आत्मा की अमरता को जान कर सम्यगज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
(७-८-६-१७) सादि,सपर्यवसित, अनादि तथा अपयवसित श्रुत-बारह अङ्ग पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित श्रुत हैं । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनादि और अपयवसित हैं। सम्यक्श्रुत संक्षेप से चार प्रकार का है(१) द्रव्य से (२) क्षेत्र से ( ३) काल से (४) भाव से।
द्रव्य से एक पुरुष की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित (सान्त) है क्योंकि कोई जीव अनादि काल से समकिती नहीं होता। सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद ही उसका श्रुत सम्यक्श्रुत कहा जाता है, अथवा जब वह शास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ करता है, तभी सम्यक् श्रुतकी आदि होती है । इस लिए एक व्यक्ति की अपेक्षा सम्यक श्रत सादि है। एक वार सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर भी मिथ्यात्व आने पर, प्रमाद के कारण, भावों के मलिन होने से, धर्म के प्रति ग्लानि होने से या देवलोक में चले जाने से श्रुतज्ञान विस्मृत हो जाता है, अथवा केवलज्ञान की उत्पत्ति होने से श्रुतज्ञान उसमें समाविष्ट हो जाता है। इसलिए यह सपर्यवसित अर्थात् सान्त है। तीनों काल के पुरुषों की अपेक्षा अनादि, अनन्त है क्योंकि ऐसा कोई समय न हुआ, न होगा जब कोई सम्यक्त्वधारी जीवन हो।
क्षेत्र से पाँच भरत और पाँच ऐरावतों की अपेक्षासादि और सपर्यवसित है क्योंकि इन क्षेत्रों में अवसर्पिणी काल में सुषम
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
दुषमा के अन्त में और उत्सर्पिणी में दुःषमसुषमा के प्रारम्भ में तीर्थङ्कर भगवान् पहले पहल धर्म, संघ और श्रुत की प्ररूपणा करते हैं उसी समय सम्यक् श्रुत प्रारम्भ होता है। दुषमदुषमा आरे के प्रारम्भ में धर्म, संघ और श्रुत आदि का विच्छेद हो जाने से वह सपर्यवसित है । महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा अनादि और अपर्यवसित है क्योंकि वहाँ तीर्थङ्करों का कभी विच्छेद नहीं होता ।
काल से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित है क्योंकि अवसर्पिणी के सुषमदुषमा, दुषमसुषमा और दुषमा रूप तीन आरों में तथा उत्सर्पिणी के दुषमसुषमा और सुषमदुषमा रूप दो आरों में ही सम्यक्त होता है, दूसरे आरों में नहीं होता इस लिए सादि सपर्यवसित है । नोउत्सर्पिणी नोश्रवसपिंणी की अपेक्षा अनादि पर्यवसित है । महाविदेह आदि क्षेत्रों में जहाँ सदा एक ही आरे के भाव रहते हैं वहाँ नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी काल कहा जाता है । महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा सम्यक् श्रुत अनादि तथा पर्यवसित है ।
भाव से सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जिनेश्वरों द्वारा बताए गए व्रत नियम आदि की अपेक्षा श्रुतज्ञान सादि सपर्यवसित है क्योंकि प्रत्येक तीर्थङ्कर अपने समय के अनुसार व्यवस्था करता है। क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा अनादि अपर्यवसित है क्योंकि प्रवाह रूप से क्षायोपशमिक भाव अनादि और अपर्यवसित है । अथवा इस में चार भंग हैं - सादि सपर्यवसित, सादि पर्यवसित, श्रनादि सपर्यवसित, अनादि अपर्यवसित । भव्य जीव का सम्यक्त्व सादि सपर्यवसित है । सम्यक्त्व प्राप्ति के दिन उसकी आदि है और फिर से मिथ्यात्व की प्राप्ति हो जाने पर उसका पर्यवसान हो जाता
ह
| दूसरा भंग शून्य है, मिथ्यात्वोदय होने पर सादि सम्यक्त्व का अवश्य पर्यवसान होता है। एक वार सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद जो
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
मिथ्यात्व आता है वह भी अन्त वाला ही है,क्योंकि जिस जीव को एक बार सम्यक्त्व प्राप्त हो चुकी वह अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में अवश्य मोक्षजाएगा,इसलिए सादि मिथ्यात्व भीअपर्यवसित नहीं है। तीसराभंग मिथ्यात्व की अपेक्षा है। भव्य जीव के साथ मिथ्यात्व का सम्बन्ध अनादि होने पर भी सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर छूट जाता है। अभव्य जीव के मिथ्यात्व की अपेक्षा चौथा भंग है। उसका मिथ्यात्व अनादि भी है और अपर्यवसित भी है।
(११) गमिक श्रुत-आदि, मध्य और अवसान में थोड़े से हेर फेर के साथ जिस पाठ का वारवार उच्चारण किया जाता है, उसे गमिक कहते हैं, जैसे दृष्टिवाद वगैरह अथवा उत्तराध्ययन के दसवें अध्ययन की गाथाओं में 'समयं गोयम मा पमायए' का वार बार उच्चारण किया गया है।
(१२)अगमिक श्रुत- गमिक से विपरीत शास्त्र को अगमिक कहते है, जैसे आचारांग आदि।
(१३) अङ्गप्रविष्ट-पुरुष के बारह अंग होते हैं-दो पैर, दो जंघाएं, दो उरु, दो गात्रार्द्ध (पसवाड़े),दो वाहें, ग्रीवा और सिर। श्रुत रूपपुरुष के भी आचारांग आदि वारह अंग हैं। जो शास्त्र इन अंगों में आगए हैं वे अंगपविष्ट कहे जाते हैं। इनका संक्षिप्त विषय परिचय वारहवें वोल संग्रह वोल नं० ७७७ में दिया गया है।
(१४) अङ्ग वाह्य-बारह अंगों के सिवाय जोशास्त्र हैं वे अंगवाह्य हैं। अथवा जो जो मूल भूत शास्त्र गणधरों द्वारा रचे गए हैं वे अंगमविष्ट हैं, क्योंकि गणधर ही मूल आचार आदि की रचना करते हैं, सर्वोत्कृष्ट लब्धि वाले होने से वे ही मूल शास्त्र रचने में समर्थ होते हैं। अंगों के अनुसारश्रुतस्थविरों द्वारा रचे गए शास्त्र अंग बाह्य हैं अथवा जो आचारादिश्रुत सभी क्षेत्र तथा सभी कालों ....... मन मानता है वह अंगप्रविए। वाकी
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
श्रुत जो समय और क्षेत्र के अनुसार बदलता रहता है वह चंगबाह्य श्रुत है । अंग बाह्य श्रुत के दो भेद हैं- आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त । जिस शास्त्र में साधु के लिए अवश्य करने योग्य बातें बताई हों वह आवश्यक श्रुत है अथवा अवश्य करने योग्य क्रियाओं का अनुष्ठान करना श्रावश्यक है, अथवा जो आत्मा को अपने गुणों के वश (अधीन) करे वह आवश्यक है। आवश्यक के छः भेद हैं- सामायिक, चडवीसत्थव, वन्दना, प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान |
۴۴
आवश्यक व्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कालिक और उत्कालिक । जो सूत्र दिन अथवा रात के पहले या पिछले पहर में ही पढ़ा जाता है उसे कालिक कहते हैं । जिस शास्त्र के पढ़ने में समय का कोई बन्धन नहीं है उसे उत्कालिक कहा जाता है। कालिक के भेद आगे दिए जाएंगे । उत्कालिक के अनेक भेद हैं- दशवैकालिक, कल्पाकल्प, कल्पश्रुत, क्षुद्रकल्पश्रुत, महाकल्प श्रुत, औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, महाप्रज्ञापना, प्रमादाप्रमाद, नन्दी, अनुयोगद्वार देवेन्द्रस्तव, तन्दुल वैयालिक, चन्द्रविद्याक, सूर्यप्रज्ञप्ति, पोरिसीमण्डल, मंडलप्रवेश, विद्याचरण विनिश्चय, गरिणविद्या, ध्यानविभक्ति, मरणविभक्ति, आत्मविशुद्धि, वीतराग श्रुत, संलेखना श्रुत, विहारकल्प, चरणविधि, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान इत्यादि ।
कालिक श्रुत भी अनेक प्रकार का है- उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, ऋषिभाषित, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, क्षुद्रक विमान प्रविभक्ति, महती विमान प्रविभक्ति, अंगचूलिका, वर्ग चूलिका, विवाह चूलिका, अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुड़ोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलंधरोपपात, देवेन्द्रोपपात, उत्थानश्रुत, समुप
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
मिथ्यात्व आता है वह भी अन्त वाला ही है,क्योंकि जिस जीव को एक वारसम्यक्त्व प्राप्त हो चुकी वह अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में अवश्य मोक्षजाएगा,इसलिए सादि मिथ्यात्व भी अपर्यवसित नहीं है। तीसराभंग मिथ्यात्व की अपेक्षा है। भव्य जीव के साथ मिथ्यात्व का सम्बन्ध अनादि होने पर भी सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर छूट जाता है। अभव्य जीव के मिथ्यात्व की अपेक्षा चौथा भंग है। उसका मिथ्यात्व अनादि भी है और अपर्यवसित भी है।
(११) गमिक श्रुत-आदि, मध्य और अवसान में थोड़े से हेर फेर के साथ जिस पाठ का बार बार उच्चारण किया जाता है, उसे गमिक कहते हैं, जैसे दृष्टिवाद वगैरह अथवा उत्तराध्ययन के दसवें अध्ययन की गाथाओं में 'समयं गोयम मा पमायए' का वार वार उच्चारण किया गया है।
(१२)अगमिक श्रुत- गमिक से विपरीत शास्त्रको अगमिक कहते है, जैसे आचारांग आदि।
(१३) अङ्गमविष्ट-पुरुष के बारह अंग होते हैं-दो पैर.दो जंघाएं, दो उरु, दो गात्रार्द्ध (पसवाड़े),दो वाहें, ग्रीवा और सिर। श्रृत रूपपुरुष के भी आचारांग आदि वारह अंग हैं। जो शास्त्र इन अंगों में आगए हैं वे अंगप्रविष्ट कहे जाते हैं। इनका संक्षिप्त विषय परिचय वारहवें वोल संग्रह वोल नं०७७७ में दिया गया है।
(१४) अङ्ग वाह्य-बारह अंगों के सिवाय जो शास्त्र हैं वे अंगवाह्य हैं। अथवा जो जो मूल भूत शास्त्र गणधरों द्वारा रचे गए हैं वे अंगप्रविष्ट हैं, क्योंकि गणधर ही मूल आचार आदि की रचना करते हैं, सर्वोत्कृष्ट लब्धि वाले होने से वे ही मूल शास्त्र रचने में समर्थ होते हैं। अंगों के अनुसारश्रुतस्थविरों द्वारा रचे गए शास्त्र अंग वाह्य हैं अथवा जो आचारादिश्रुत सभी क्षेत्र तथा सभी कालों में एक सरीखे अर्थ और क्रम वाला है वह अंगप्रविष्ट है। वाकी
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
श्रुत जो समय और क्षेत्र के अनुसार बदलता रहता है वह अंगवाद्य श्रुत है । अंग बाह्य श्रुत के दो भेद हैं- आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त | जिस शास्त्र में साधु के लिए अवश्य करने योग्य बातें बताई हों वह आवश्यक श्रुत है अथवा अवश्य करने योग्य क्रियाओं का अनुष्ठान करना आवश्यक है, अथवा जो आत्मा को अपने गुणों के वश (अधीन) करे वह आवश्यक है । आवश्यक के छः भेद हैं- सामायिक, चउवीसत्थव, वन्दना, प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान ।
|
م
1
श्रावश्यक व्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कालिक और उत्कालिक । जो सूत्र दिन अथवा रात के पहले या पिछले पहर में ही पढ़ा जाता है उसे कालिक कहते हैं । जिस शास्त्र के पढ़ने में समय का कोई बन्धन नहीं है उसे उत्कालिक कहा जाता है। कालिक के भेद आगे दिए जाएंगे । उत्कालिक के अनेक भेद हैं- दशवैकालिक, कल्पाकल्प, कल्पश्रुत, क्षुद्रकल्पश्रुत, महाकल्प श्रुत, श्रोपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, महाप्रज्ञापना, प्रमादाप्रमाद, नन्दी, अनुयोगद्वार देवेन्द्रस्तव, तन्दुल वैयालिक, चन्द्रविद्याक, सूर्यप्रज्ञप्ति, पोरिसीमण्डल, मंडलप्रवेश, विद्याचरण विनिश्चय, गणिविद्या, ध्यानविभक्ति, मरणविभक्ति, आत्मविशुद्धि, वीतराग श्रुत, संलेखना श्रुत, विहारकल्प, चरणविधि, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान इत्यादि ।
कालिक श्रुत भी अनेक प्रकार का है- उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, ऋषिभाषित, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, क्षुद्रक विमान प्रविभक्ति, महती विमान प्रविभक्ति, अंगचूलिका, वर्ग चूलिका, विवाह चूलिका, अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुड़ोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलंधरोपपात, देवेन्द्रोपपात, उत्थानश्रुत, समुप
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
- श्री मेडिया जैन ग्रन्थमाला
स्थान श्रुत,नागपरिज्ञा,निग्यावलिका,कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिता,पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा आदि सभी कालिक श्रुत हैं। इनके सिवाय प्रकीर्णक भी इन्हीं में गिने जाते हैं। भगवान् ऋषभदेव के समय ८४ हजार,बीच के तीर्थङ्करों के समय संख्यात हजार और भगवान् महावीर के शासन में चौदह हजार प्रकीर्णक रचे गए। अथवा जिस तीर्थङ्कर के शासन में जितने जितने शिष्य औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी या पारिणामिकी बुद्धि वाले हुए उसके समय में उतने ही प्रकीर्णकसहस्र हुए । प्रत्येकबुद्ध भी उतने ही हुए।
( नन्दी सूत्र, सूत्र ३८-४४ ) ( विशेषावश्यक भाष्य गाथा ४४४-४६६ ) ८२६- पूर्व चौदह
तीर्थ का प्रवर्तन करते समय तीर्थडर भगवान जिस अर्थ का गणधरों को पहले पहल उपदेश देते हैं, अथवा गणधर पहले पहल जिस अर्थ को सूत्र रूप में गूंथते हैं, उन्हें पूर्व कहा जाता है। पूर्व चौदह हैं
(१) उत्पादपूर्व- इस पूर्व में सभीद्रव्य और सभी पर्यायों के उत्पाद को लेकर प्ररूपणा की गई है। उत्पाद पूर्व में एक करोड़ पद हैं।
(२) अग्रायणीय पूर्व- इस में सभी द्रव्य, सभी पर्याय और सभी जीवों के परिमाण का वर्णन है। अग्रायणीय पूर्व में छयानवे लाख पद हैं।
(३) वीर्यप्रवाद पूर्व- इस में कर्म सहित और विना कर्मवाले जीव तथा अजीवों के वीर्य (शक्ति) का वर्णन है। वीर्य प्रवाद पूर्व में सत्तर लाख पद हैं।
(४) अस्तिनास्ति प्रवाद-संसार में धर्मास्तिकाय आदि जो वस्तुएँ विद्यमान हैं तथा आकाश कुसुम वगैरह जो अविद्यमान हैं, उन सब का वर्णन अस्तिनास्ति पवाद में है। इस में साठ लाख पद हैं।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह पांचवां भाग
(५) ज्ञानप्रवादपूर्व- इस में मति ज्ञान आदि ज्ञान के पाँच भेदों का विस्तृत वर्णन है । इस में एक कम एक करोड़ पद हैं।
(६) सत्यप्रवादपूर्व- इस में सत्य रूप संयम या सत्य वचन का विस्तृत वर्णन है। इस में छः अधिक एक करोड़ पद हैं।
(७)आत्मप्रवादपूर्व-इस में अनेक नय तथा मतों की अपेक्षा श्रात्मा का प्रतिपादन किया गया है। इसमे छब्बीस करोड़ पद हैं।
(८) कर्मप्रवादपूर्व-जिस में आठ कर्मों का निरूपण प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश आदि भेदों द्वारा विस्तृत रूप से किया गया है। इस में एक करोड़ अस्सी लाख पद हैं।
(8) प्रत्याख्यान प्रवादपूर्व- इस में प्रत्याख्यानों का भेद प्रभेद पूर्वक वर्णन है। इस में चौरासी लाख पद हैं।
(१०) विद्यानुभवादपूर्व-इस पूर्व में विविध प्रकार की विद्या तथा सिद्धियों का वर्णन है। इस में एक करोड़ दस लाख पद हैं।
(११) अवन्ध्यपूर्व- इस में ज्ञान, तप, संयम आदिशुभ फल वाले तथा प्रमाद आदि अशुभफल वाले अवन्ध्य अर्थात् निष्फल न जाने वाले कार्यों का वर्णन हैं । इस में छब्बीस करोड़ पद हैं।
(१२) प्राणायुप्रवादपूर्व- इस में दस प्राण और आयु आदि फा भेद प्रभेद पूर्वक विस्तृत वर्णन है। इस में एक करोड़ छप्पन लाख पद हैं।
(१३) क्रियाविशालपूर्व- इस में कायिकी, श्राधिकरणिकी आदि तथा संयम में उपकारक क्रियाओं का वर्णन है। इस में नौ करोड़ पद हैं।
(१४) लोकबिन्दुसारपूर्व-लोक में अर्थात् संसार में श्रुतज्ञान में जोशास्त्र विन्दु की तरह सब से श्रेष्ठ है, वह लोकबिन्दुसार है। इसमें साढ़े बारह करोड़ पद हैं।
पूर्वो में वस्तु- पूर्षों के अध्यायविशेषों को वस्तु कहते हैं।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
-
-
वस्तुओं के अवान्तर अध्यायों को चूलिकावस्तु कहते हैं। __ उत्पादपूर्व में दस वस्तु और चार चूलिकावस्तु हैं। अग्रायणीय पूर्व में चौदह वस्तु और वारह चूलिकावस्तु हैं । वीर्यप्रवाट पूर्व में आठ वस्तु और आठ चूलिकावस्तु हैं। अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व में अठारह वस्तु और दस चूलिकावस्तु हैं । ज्ञानप्रवाद पूर्व में बारह वस्तु हैं। सत्यप्रवाद पूर्व में दो वस्तु हैं। प्रात्मप्रवाद पूर्व में सोलह वस्तु हैं। कर्मप्रवाद पूर्व में तीस वस्तु हैं । प्रत्याख्यान पूर्व में बीस । विद्यानुभवाद पूर्व में पन्द्रह । अवन्ध्य पूर्व में बारह। प्राणायु पूर्व में तेरह। क्रियाविशाल पूर्व में तीन। लोक विन्दुसार पूर्व में पच्चीस । चौथे से आगे के पूर्वो में चूलिकावस्तु नहीं हैं।
. (नन्दी, सूत्र ५७) (समवायांग १४वाँ तथा १४ज्वाँ) ८२४-ज्ञान के अतिचार चौदह
सूत्र,अर्थ या तदुभय रूप आगम को विधिपूर्वक न पढ़ना अर्थात् उसके पढ़ने में किसी प्रकार का दोष लगाना ज्ञान का अतिचार दोष है। वह चौदह प्रकार का है
(१)वाइद्धं-व्याविद्ध अर्थात् अक्षरों को उलट पलट कर देना। जिस प्रकार माला के रत्नों को उलट पलट जोड़ने से उसका सौन्दर्य नष्ट हो जाता है उसी प्रकार शास्त्र के अक्षरों या पदों को उलट फेर कर पढ़ने से शास्त्र की सुन्दरता नहीं रहती है, तथा अर्थ का बोध भी अच्छी तरह नहीं होता, इस लिए पदया अक्षरों को उलट पलट कर पढ़ना व्याविद्ध नाम का अतिचार है।
(२) वच्चामेलियं- व्यत्यानंडित अर्थात् भिन्न भिन्न स्थानों पर आए हुए समानार्थक पदों को एक साथ मिला कर पढ़ना। जैसे भिन्न भिन्न प्रकार के अनाज,जो आपस में मेल नखाते हो, उन्हें इकडे करने से भोजन बिगड़ जाता है, उसी प्रकार शास्त्र के भिन्न भिन्न पदों को एक साथ पढ़ने से प्रथे विगड़ जाता है।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
भाजन सि
(३) हीणक्खरियं-हीनाक्षर अर्थात् इस तरह पढ़ना जिससे कोई अक्षर छूट जाय।
(४) अञ्चकवरियं-अधिकाक्षर अर्थात् पाठ के बीच में कोई अत्तर अपनी तरफ से मिला देना।
(५) पयहीणं-किसी पद को छोड़ देना । अक्षरों के समूह को पद कहते है जिसका कोई न कोई अर्थ अवश्य हो।
(६) विणयहीणं-विनय हीन अर्थात् शास्त्र तथा शास्त्र पढ़ाने वाले का समुचित विनय न करना ।
(७) योसहीणं- घोषहीन अर्थात् उदात्त, अनुदात्त,स्वरित, सानुनासिक और निरनुनासिक आदि घोषों से रहित पाठ करना। उदात्त-ऊँचे स्वर से पाठ करना। अनुदात्त-नीचे स्वर से पाठ करना। स्वरित-मध्यम स्वर से पाठ करना। सानुनासिक-नासिका और मुख दोनों से उच्चारण करना। निरनुनासिक-विना नासिका के केवल मुख से उच्चारण करना। किसी भी स्वर या व्यञ्जन का घोष के अनुसार ठीक न पढ़ना घोषहीन दोप है।
(८) जोगहीणं- योग हीन अर्थात् सूत्र पढ़ते समय मन, वचन और कायाको जिस प्रकार स्थिर रखना चाहिए उस प्रकार से न रखना । योगों को चञ्चल रखना,अशुभ व्यापार में लगाना और ऐसे प्रासन से बैठना जिससे शास्त्र की अशातना हो योगहीन दोष है।
(B) सुहृदिन्नं-शिष्य में शास्त्र ग्रहण करने की जितनी शक्ति है उससे अधिक पढ़ाना । यहाँ सुष्टु शब्द का अर्थ है शक्तिया योग्यता से अधिक। (१०) दुपडिच्छियं-आगम को बुरे भाव से ग्रहण करना।
नोट- हरिभद्रीयावश्यक में 'मुहदिन्नं दुपडिच्छियं' इन दोनों पदों को एक साथ रक्खा है और उसका अर्थ किया है
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
'सुष्ठु दत्तं गुरुणा, दुष्टु प्रतीच्छितं कलुषितान्तरात्मना'
अर्थात्- गुरु के द्वारा अच्छे भावों से दिया गया आगम बुरे भावों से ग्रहण करना । ऐसा करने से अतिचारों की संख्या चौदह के बजाय तेरह ही रह जाती है। ___ मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा विरचित, आगमोदय समिति द्वारा विक्रम संवत १९७६ में प्रकाशित हरिभद्रीयावश्यक टिप्पणी. पृष्ठ १८ में नीचे लिखे अनुसार खुलासा किया है
शङ्का- ये चौदह पद तभी पूरे हो सकते हैं जब 'मुह दिण्णं दुह पडिच्छियं' ये दो पद अलग अलग अशातना (अतिचार)के रूप में गिने जाएं, किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि 'मुष्ठु दत्तं' का अर्थ है ज्ञान को भली प्रकार देना और यह अशातना नहीं है।
उत्तर- यह शङ्का तभी हो सकती है जब सुह शब्द का अर्थ शोभन रूप से या भली प्रकार किया जाय किन्तु यहाँ इस का अर्थ भली प्रकार नहीं है। यहाँ इसका अर्थ अतिरेक अर्थात् अधिक है अर्थात् थोड़े श्रुत के लिए योग्य पात्र को अधिक पढ़ाना ज्ञान की अशातना (अतिचार) है।।
(११) अकाले को सज्झायो-जिस मूत्र के पढ़ने का जो काल न हो उस समय उसे पढ़ना। सूत्र दो प्रकार के हैं-कालिक
और उत्कालिक । जिन सूत्रों को पढ़ने के लिए प्रातः काल,सायझाल आदि निश्चित समय का विधान है वे कालिक कहे जाते हैं। जिन के लिए समय की कोई मर्यादा नहीं है वे उत्कालिक कहे जाते हैं। कालिक सूत्रों को उनके लिए निश्चित समय के अतिरिक्त पढ़ना अतिचार है। (१२) कालेन को सज्झाओ-जिस सूत्र के लिए जो काल निश्चित किया गया है उस समय खाध्याय न करना। (१३) असज्झाए सज्झाओ-असज्झाय अर्थात् ऐसा कारण
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१७
या समय उपस्थित होना जिस में शास्त्र की स्वाध्याय वर्जित है, उसमें स्वाध्याय करना।
(१४) सज्झाए न सज्झाओ- सज्झाय अर्थात् स्वाध्याय काल में स्वाध्याय न करना।
((मावश्यक प्रतिक्रमण सूत्र) (अनुयोगदारसूत्र सत्र, निक्षेप वर्णन) ८२५-- भूतग्राम (जीवों) के चौदह भेद . जीवों का दूसरा नाम भूत है। उनके समूह को भूतग्राम कहते हैं। इन के चौदह भेद हैं
सूक्ष्म एकेन्द्रिय,बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय । इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चौदह भेद होते हैं।
पृथ्वीकाय आदि जिन जीवों को सूक्ष्म नामकर्मका उदय होता है वे सूक्ष्म कहलाते हैं और जिन जीवों को बादर नामकर्म का उदय होता है वे बादर कहलाते हैं। __ जिस जीव में जितनी पर्याप्तियाँ सम्भव हैं उतनी पर्याप्तियाँ पूरी बाँध लेने पर वह पर्याप्तक कहलाता है। एकेन्द्रिय जीव अपने योग्य (आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास) चार पर्याप्तियाँ पूरी कर लेने पर पर्याप्तक कहे जाते हैं। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव उपरोक्त चार और पाँचवी भाषा पर्याप्ति पूरी करने पर और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव उपरोक्त पांचों पर्याप्तियों के साथ छठी मनः पर्याप्ति पूरी कर लेने पर पर्यातक कहे जाते हैं। जिन जीवों की पर्याप्तियाँ पूरी न हुई हों वे अपप्तिक कहे जाते हैं। कोई भी जीव आहार, शरीर और इन्द्रिय इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये विना नहीं मर सकता, क्योंकि इन तीन पर्याप्तियों के पूर्ण होने पर ही आगामी भव की आयु का बंध होता है।
पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी और असंज्ञी के भेद से दो प्रकार का है।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
जिन जीवों के मन होता है वे संज्ञी कहलाते हैं और जिन जीवों के मन नहीं होता वे असंज्ञी कहलाते हैं । (समवायांग १४ ) (हरिभद्रीयावश्यक )
१८
जीव के चौदह भेदों का पारस्परिक अल्प बहुत्व'कौन किससे अधिक है और कौन किससे कम इस बात को बतलाना अल्पबहुत्व है । उपरोक्त प्रकार से बतलाये गये जीव के चौदह भेदों का अल्पबहुत्व पन्नवरणा सूत्र के तीसरे अल्पबहुत्व द्वार के तीसरे इन्द्रिय द्वार, उन्नी सर्वे सूक्ष्मद्वार और बीसवें संज्ञी द्वार तथा जीवाभिगम सूत्र की चौथी प्रतिपत्ति के सूत्र २२५ के आधार से यहाँ दिया जाता
सब से थोड़े अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय हैं, पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय उन से असंख्यात गुणा । पर्याप्त चतुरिन्द्रिय उनसे संख्यात गुणा । पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय उनसे विशेषाधिक । उनसे पर्याप्त बेइन्द्रिय विशेपाधिक। उनसे पर्याप्त तेइन्द्रिय विशेषाधिक । उनसे अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय असंख्यात गुणा । उनसे अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक। पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय उनसे अनन्त गुणा । श्रपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय उनसे असंख्यात गुणा । अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय उनसे असंख्यात गुणा । पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय उनसे संख्यात गुणा अधिक हैं। ( प्रकरण संग्रह दूसरा भाग )
८२६ - संमूच्छिम मनुष्यों के उत्पत्तिस्थान चौदह
बिना माता पिता के उत्पन्न होने वाले अर्थात् स्त्री पुरुष के समागम के बिना ही उत्पन्न जीव सम्मूच्छिम कहलाते हैं। पैंतालीस लाख योजन परिमाण मनुष्य क्षेत्र में, ढाई द्वीप और समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमि, तीस अकर्म भूमि और छप्पन अन्तर द्वीपों में गर्भज मनुष्य रहते हैं। उनके मल मूत्रादि में सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं । उनकी उत्पत्ति के स्थान चौदह हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां माग १६ " mmmmmmmmmrom~~~~~ ~ ummmmmmmmmmmmar
(१) उच्चारेसु-विष्ठा में (२) पासवणेसु-मूत्र में (2) खेलेसुकफ में (४) सिंघाणेस- नाक के मैल में (५) वंतेस-वमन में (६) पित्तेसु- पित्त में (७) पूएस- पीप, राध और दुर्गन्ध युक्त बिगड़े घान से निकले हुए खून में (८) सोणिएम-शोणित- खून में (8) सुक्कसु-शुक्र-वीर्य में (१०) सुक्कपुग्गल परिसाडेसु- वीर्य के त्यागे हुए पुद्गलों में (११) विगय जीव कलेवरेस-जीव रहित शरीर में (१२) थीपुरीस संजोएस-स्त्री पुरुष के संयोग (समागम) में (१३) णगर निद्धमणेसु- नगर की मोरी में (१४) सव्वेस असुइ हाणेसु-सब अशुचि के स्थानों में। ___ उपरोक्त चौदह स्थानों में संमूर्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। इनकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण होती है। इनकी आयु अन्तर्मुहुर्त की होती है अर्थात् ये अन्तर्मुहूर्त में ही मर जाते हैं। ये असंज्ञी (मन रहित), मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी होते हैं । अपर्याप्त अवस्था में ही इनका मरण हो जाता है।
(पनवणा पद, १ सूत्र ५६) (प्राचारांग) (मनुयोगद्वार ) ८२७- अजीव के चौदह भेद
जीवत्व शक्ति से रहित जड़स्वरूप वाले पदार्थ अजीव कहलाते हैं। अजीव केदो भेद हैं-रूपी अजीव और अरूपीअजीव अरूपी अजीव के दस भेद हैं___ (१) धर्मास्तिकाय (२) धर्मास्तिकाय के देश (३)धर्मास्तिकाय के प्रदेश (४) अधर्मास्तिकाय (५) अधर्मास्तिकाय के देश (६) अधर्मास्तिकाय के प्रदेश (७) आकाशास्तिकाय (C)आकाशास्तिकाय के देश (8) आकाशास्तिकाय के प्रदेश (१०) काल।
रूपी अजीव के चार भेद
(११) स्कन्ध (१२) स्कन्ध देश (१३) स्कन्ध प्रदेश और (१४) परमाणु पुद्गल ।
(पनवणा पद १,सूत्र ३)
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
wwwnwww
८२८- चक्रवर्ती के चौदह रत्न
प्रत्येक चक्रवर्ती के पास चौदह रत्न होते हैं। उनके नाम
(१) स्त्रीरत्र (२)सेनापति रन (३) गायापति रत्न (४) पुरोहित । रत्न (५) वर्द्धकि (स्थ आदि बनाने वाला बढ़ई) रन (३) अश्व
रन (७) हस्तिरत्र (८)असिरन (इ)दंडरत्न (१०)चक्ररत्न (११) छत्ररत्न (१२) चमररत्न (१३) मणिरन (१४) काकिणीरत्न । ___ उपरोक्त चौदह अपनी अपनी जाति में सर्वोत्कृष्ट होते हैं । इसी लिए ये रत्न कहलाते हैं। इन चौदह रत्नों में से पहले के सात रन पञ्चेन्द्रिय हैं। शेष सात रत्न एकेन्द्रिय हैं।
(समवायांग १४) ८२६- स्वप्न चौदह
अर्द्धनिद्रितावस्था में कल्पित हाथी, घोड़े आदि को देखना स्वप्न कहलाता है । यथार्थ रूप से देखे हुए स्वप्न का फल भी अवश्य मिलता है। भगवती सूत्र के सोलहवें शतक, छठे उद्देशे में चौदह स्वप्नों के फल का कथन किया गया है। वह निम्न प्रकार है
(१) कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में हाथी, घोड़े, बैल, मनुष्य, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्वआदि की पंक्ति को देख कर शीघ्र जागृत होवे तोयह समझना चाहिए कि वह व्यक्ति उसी भव में सब दुःखों का अन्त कर मोक्ष सुख को प्राप्त करेगा।
(२) कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वम के अन्त में एक रस्सी को, जो समुद्र के पूर्व पश्चिम तक लम्बी हो, अपने हाथों से इकट्ठी करता (समेटता) हुआ अपने आप को देखे तो इस स्वम का यह फल है कि वह उसी भव में मोन मुख को प्राप्त करेगा।
(३) कोई स्त्री अथवा पुरुष को ऐसा स्वम आवे कि लोकान्त पर्यन्त लम्बी रस्सी को उसने काट डाला है तो यह समझना
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२१
चाहिए कि वह उसी भव में मोक्ष जायगा ।
( ४ ) कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न में ऐसा देखे कि पाँच रंगों वाले उलझे हुए सूत को उसने सुलझा दिया है तो समझना चाहिए कि वह उसी भव में मोक्ष जायगा ।
( ५ ) कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न में लोह, ताम्बा, कधीर और सीसे की राशि (ढेर ) को देखे और वह उसके ऊपर चढ़ जाय तो समझना चाहिए कि वह दूसरे भव में मोक्ष जायगा ।
(६) कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न में सोने, चान्दी, रत्न और वज्र (हीरों) की राशि को देखे और वह उस ढेर के ऊपर चढ़ जाय तो जानना चाहिए कि वह उसी भव में मोक्ष जायगा ।
(७) कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न में बहुत बड़े घास के ढेर को या कचरे के ढेर को देखे और उस ढेर को बिखेर कर फेंक दे तो यह समझना चाहिए कि वह उसी भव में मोक्ष जायगा ।
(८) कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न में शरस्तम्भ, वीरणस्तम्भ, वंशीमूलस्तम्भ या वल्लिमूलस्तम्भ को देखे और उन्हें जड़ से उखाड़ कर फेंक देवे तो समझना चाहिए कि वह उसी भव में मोक्ष जायगा ।
(६) कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न में दूध के घड़े, दही के घड़े, घी के घड़े तथा मधु के घड़े को देखे और उन्हें उठा ले तो समझना चाहिए कि वह उसी भव में मोक्ष जायगा ।
(१०) कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न में मदिरा के घड़े, सौवीर (मदिरा विशेष) के घड़े, तेल के घड़े और वसा (चर्बी) के घड़े देखे और उन्हें फोड़ डाले तो समझना चाहिए कि वह दूसरे भव में मोक्ष जायगा ।
(११) कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न में चारों ओर से कुसुमित पद्मसरोवर को देखे और उसमें प्रवेश करे तो जानना चाहिए कि वह व्यक्ति उसी भव में मोक्ष जायगा ।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
AAAAAnana
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
mmmmmmm on (१२) कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न में अनेक तरङ्गों से व्याप्त एक बड़े समुद्र को देखे और तैर कर उस के पार पहुँच जाय तो समझना चाहिए कि वह उसी भव में मोक्षजायगा।
(१३) कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न में श्रेष्ठ रत्नों से बने हुए भवन को देखे और उसमें प्रवेश करे तो जानना चाहिए कि वह व्यक्ति उसी भव में मोल जायगी।
(१४) कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न में श्रेष्ठ रत्नों से बने हुए विमान को देखे और उसके ऊपर चढ़ जाय तो समझनाचाहिए कि वह व्यक्ति उसी भव में मोक्ष जायगा।
__ (भगवती शतक १६ उद्देशा ६ ) ८३०- महास्वप्न चौदह
प्राणियों की तीन अवस्थाएं होती हैं-(१) सुप्त (२) जागृत (३) सुप्तजागृत। तीसरी अवस्था में अर्थात् सुप्तजागृत अवस्था में किसी पदार्थ को देखनास्वप्न कहलाता है। इसके सामान्य पाँच भेद हैं(१)याथातथ्य स्वप्न दर्शन (२) प्रतानस्वप्नदर्शन (३) चिन्ता स्वप्न दर्शन (४) विपरीत स्वप्न दर्शन (५) अव्यक्त स्वप्न दर्शन। इनका विस्तृत विवेचन इसके प्रथम भाग के वोल नम्बर ४२१ में दे दिया गया है।
स्वप्नों की संख्या बहत्तर वतलाई गई है। इनमें से तीस महास्वप्न कहे गये हैं। तीर्थङ्कर या चक्रवर्ती जब गर्भ में आते हैं उस समय उनकी माता इन तीस महास्वप्नों में से चौदह महास्वप्न देख कर जागृत होती है। उनके नाम इस प्रकार है__ (१) गज (हाथी) (२) वृषभ (वैल) (३)सिंह (४) अभिषेक (लक्ष्मी) (५) पुष्पमाला (६) चन्द्र (७) मूर्य (८)ध्वजा (6) कुम्भ (कलश)(१०) पद्म सरोवर (११) सागर (१२) विमान या भवन (१३) रत्नराशि (ग्नोंका समूह) (१४) निर्धम अग्नि ।।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह पांचवां भाग
२३
बारहवें स्वम में विमान और भवन दो शब्द रखे गये हैं। जो जीव स्वर्ग से आकर तीर्थङ्कर या चक्रवर्ती होते हैं उनकी माता विमान देखती है और जो जीव नरक से निकल कर तीर्थङ्कर या चक्रवर्ती होते हैं उनकी माता विमान की जगह भवन देखती है ।
इन चौदह महास्वनों में से कोई भी सात स्वप्न वासुदेव की माता देखती है । बलदेव की माता चार स्वप्न देखती है और मांडलिक राजा की माता एक स्वप्न देखती है। ( भगवती शतक १६ उद्देशा ६) (हरिभद्री यावश्यक) (ज्ञाता मत्र अध्ययन ) (कल्प सुन स्वप्नवाचनाधिकार)
८३१ - श्रावक के चौदह
नियम
श्रावक को प्रतिदिन प्रातः काल निम्न लिखित चौदह नियमों का चिन्तन करना चाहिए। जो श्रावक इन नियमों का प्रतिदिन विवेक पूर्वक चिन्तन करता है तथा इन नियमों के अनुसार मर्यादा कर उसका पालन करता है, वह सहज ही महालाभ प्राप्त कर लेता है । वे नियम ये हैं
सचित्त दव्व विग्गई, पन्नी ताम्बूल वत्थ कुसुमेसु । वाहण सयण विलेवण, बम्भदिसि नाहय भत्तेसु ॥ अर्थात् - (१) सचित्त वस्तु (२) द्रव्य (३) विगय (४) जूते (५) पान (६) वस्त्र (७) पुष्प (८) वाहन (६) शयन (१०) विलेपन (११) ब्रह्मचर्य (१२) दिक् (दिशा) (१३) स्नान (१४) भोजन ।
(१) सचित्त - पृथ्वी, पानी, वनस्पति, फल, फूल, सुपारी, इलायची, बादाम, धान्य - बीज आदि सचित्त वस्तुओं का यथाशक्ति त्याग करे अथवा यह परिमाण करे कि आज मैं इतने द्रव्य और इतने वजन से अधिक उपयोग में न लूँगा ।
(२) द्रव्य - जो पदार्थ स्वाद के लिए भिन्न भिन्न प्रकार से तय्यार / किये जाते हैं, उनके विषय में परिमाण करे कि आज मैं इतने द्रव्य से अधिक उपयोग में न लूँगा । यह मर्यादा खान पान विषयक
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
vvvvNNANA
द्रव्यों की ही की जाती है।
(३) विगय-शरीर में विकृति उत्पन्न करने वाले पदार्थों को विगय कहते हैं। दूध, दही, घी, तेल और मिठाई आदि सामान्य विगय हैं। इन पदार्थों का जितना भी त्याग किया जा सके,उतने का करे अथवा मर्यादा करे कि आज मैं अमुक पदार्थ काम में न लँगा अथवा अमुक पदार्थ इतने वजन से अधिक काम में न लूँगा।
मधु और मक्खन दो विशेष विगय हैं। इन दोनों का निष्कारण उपयोग करने कात्याग करे और सकारण उपयोग की मर्यादा करे।
मद्य और मांस ये दो महाविगय हैं। श्रावक को इन दोनों का सर्वथा त्याग करना चाहिए।
(४)पनी-पाँव की रक्षा के लिए जो चीज पहनी जाती है,जैसे जूते, मोजे, खड़ाऊ, बूट आदि इनकी मर्यादा करे।
(५) ताम्बूल- जो वस्तु भोजन करने के बाद मुखशद्धि के लिये खाई जाती है उनकी गणनाताम्बूल में है,जैसे-पान,सुपारी, इलायची, लोंग,चूरन आदि । इनके विषय में मर्यादा करे।
(६) वस्त्र-पहनने, ओढने के कपड़ों के लिए यह मर्यादाकरे कि अमुक जाति के इतने वस्त्रों से अधिक वस्त्र काम में न लूंगा।
(७) कुसुम-सुगन्धित पदार्थ,जैसे फूल,इत्र व सुगन्धि आदि के विषय में मर्यादा करे।
(८)वाहन- हाथी,घोड़ा,ऊँट,गाड़ी ताँगा, मोटर, रेल,नाव, जहाज आदि सवारी के साधनों के, चाहे वे साधन स्थल के हों अथवा जल या आकाश के हो,यह मर्यादा करे कि मैं अमुक वाहन के सिवाय आज और कोई वाहन काम में न लँगा।
(8) शयन- शय्या, पाट, पाटला, पलंग, बिस्तर आदि के विषय में मर्यादा करे।
(१०) विलेपन- शरीर पर लेपन किये जाने वाले द्रव्य, जैसे
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२५
wwman
केसर, चन्दन,तेल, साबुन,सेंट,अञ्जन, मञ्जन आदि के सम्बन्ध में प्रकार (गणन) और वजन की मर्यादा करे।
(११)ब्रह्मचर्य-स्थूल ब्रह्मचर्य यानी स्वदार संतोष,परदार विरमण व्रत अङ्गीकार करते समय जो मर्यादा रखी है, उसका भी यथाशक्ति संकोच करे। पुरुष पत्नी संसर्ग के विषय में और स्त्री पति संसर्ग के विषय में त्याग अथवा मर्यादा करे।
(१२)दिक् (दिशा)-दिक परिमाण व्रत स्वीकार करते समय आवागमन के लिये मर्यादा में जो क्षेत्र जीवन भर के लिए रखा है, उस क्षेत्र का भी संकोच करे तथा यह मर्यादा करे कि आज मैं इतनी दूर से अधिक दूर ऊँची, नीची या तिर्की दिशा में गमनागमन न करूँगा।
(१३) स्नान- देशस्नान या सर्व स्नान के लिये भी मर्यादा करे कि आज इससे अधिक न करूंगा। शरीर के कुछ भाग को धोनादेशस्नान है और सबभाग को धोना सर्वस्नान कहा जाता है।
(१४) भत्ते- भोजन, पानी के सम्बन्ध में भी मर्यादा करे कि मैं आज इतने परिमाण से अधिक न खाऊँगा और न पीऊँगा।
उपरोक्त चौदह नियम देशावकाशिक व्रत के अन्तर्गत हैं। इन नियमों से व्रत विषयक जो मर्यादा रखी गई है उसका संकोच होता है और श्रावकपना भी सुशोभित होता है। __ कहीं कहीं इन चौदह नियमों के साथ असि, मसि और कृषि ये तीन और भी मिलाये गये हैं । ये तीनों कार्य आजीविका के लिये किये जाते हैं। आजीविका के लिये जो कार्य किये जाते हैं उनमें से पन्द्रह कर्मादान का तो श्रावक को त्याग कर ही देना चाहिये,शेष कार्यों के विषय में भी प्रतिदिनमर्यादा करनी चाहिये।
(क) असि-शस्त्र आदि के द्वारा परिश्रम करके अपनी आजीविका की जाय उसे असिकर्म कहा जाता है।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
wwwwwwwww www ww www ( ख )मसि-कलम,दवात और कागज के द्वारा लेख या गणित कला का उपयोग किया जाय उसे मसिकर्म कहा जाता है।
(ग ) कृषि- खेती के द्वाराया खेती सम्बन्धी पदार्थों का क्रय विक्रय करके आजीविका करना कृषि कर्म
उपरोक्त तीनों विषयों में भी श्रावक को अपने योग्य कार्य की मर्यादा रख कर शेष का त्याग करना चाहिए। (पृज्यश्री जवाहिरलालजी म० कृन श्रावक के चार शिक्षावत) (धर्म संग्रह प्रधिकार ३) ८३२-चौदह प्रकार का दान
जो महात्मा आत्मज्योति जगाने के लिए सांसारिक खटपट छोड़ कर संयम का पालन करते हैं, सन्तोष त्ति को धारण करते हैं उनको जीवन निर्वाह के लिये अपने वास्ते किये हुए आहारादि में से उन श्रमण निग्रन्थों के कल्पानुसार दान देना श्रावक का कर्तव्य है। श्रावक अपने लिये बनाये गये पदार्थों में से चौदह प्रकार के पदार्थों का दान साधु महात्माओं को दे सकता है । वे इस प्रकार हैं
(१) अशन (२) पान (३) खादिम (४) स्वादिम ।
अशन पान आदि चार आहारों का स्वरूप आवश्यक नियुक्ति तथा उसके हरिभद्रीय भाष्य में नीचे लिखे अनुसार दिया है
(क) अशन- रवाए जाने वाले पदार्थ, जिनका उपयोग मुख्य रूप से भूख मिटाने के लिए किया जाता है। जैसे रोटी वगैरह ।
(ख) पान-पेय अर्थात् पीये जाने वाले पदार्थ । जिनका उपयोग मुख्य रूप से प्यास बुझाने के लिये होता है, जैसे जल । दूध,लाछ वगैरह भी पेय हैं इस लिए साधारणतया पान में गिने जाते हैं किन्तु अशन कात्याग करने वाले को द्ध आदि नहीं फल्पते क्योंकि उनसे भूख भी मिटती है। इस लिये तिविहार उपवास
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह पांचवां भाग
२७
में जल के सिवाय सभी पेय द्रव्यों का त्याग होता है।
(ग) खादिम-जिह्वा स्वाद के लिये खाए जाने वाले पदार्थ । जैसे फल, मेवा आदि।
(घ) स्वादिम- मुँह में रखे जाने वाले पदार्थ । जिनका उपयोग मुख्य रूप से मुंह की सफाई के लिये होता है । जैसे- लौंग, सुपारी, चूरण आदि।
उपरोक्त आहारों में से प्रायः सभी वस्तुएं अपेक्षा वश दूसरे आहारों में बदल जाती हैं। जैसे मेवा जीभ के स्वाद के लिये खाया जाने पर स्वादिम है किन्तु पेट भरने के लिये खाया जाने पर अशन है। इसलिये प्रशन पान आदि के निश्चय में उद्देश्य की ही प्रधानता है। ऊपर लिखा विभाग मुख्यता को लेकर किया गया है अर्थात जिस वस्तु का उपयोग मुख्य रूप से जिस रूप में होता है उसे उसीआहार में गिना गया है। (अावश्यक नियुक्ति गाथा १५८७-८८)
(५) वस्त्र-पहनने आदि के उपयोग में आने वाला कपड़ा। (६) पात्र-काष्ठ (लकड़ी)के बने हुए पातरे आदि। (७)कम्बल-जोशीत से बचने के लिये काम में लाया जाता है। (८) पादपोंछन- जो जीव रक्षा के लिये पूंजने के काम में आते हैं वे रजौहरण यापूंजनी आदि। (8) पीठ-वैठने के काम में आने वाले छोटे पाट । (१०) फलफ-सोने के लिये काम में आने वाले लम्बे पाट। (११)शय्या- ठहरने के लिये मकान आदि । (१२) संथारा-विछाने के लिये घास आदि ।
(१३) औषध- जो एक ही चीज को कूट कर या पीस कर बनाई हो, ऐसी दवा।
(१४) भेषज-जोअनेक चीजों के मिश्रण से बनी हो, ऐसी दवा।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला
ऊपर जो चौदह प्रकार के पदार्थ बताये गये हैं इन में से प्रथम के आठ पदार्थ तो ऐसे हैं, जिन्हें साधु महात्मा लोग स्वीकार करने के पश्चात् दान देने वाले को वापिस नहीं लौटाते। शेष छः द्रव्य ऐसे हैं जिन्हें साधु लोग अपने काम में लेकर वापिस लौटा भी देते हैं।
(पूज्यश्री जवाहिरलालजी म. कृत श्रावक के चार शिक्षाबत ) ८३३- स्थविर कल्पी साधुओं के लिए चौदह
प्रकार का उपकरण संयम की रक्षा के लिए स्थविर कल्पीसाधुओं को नीचे लिखे अनुसार १४ प्रकार का वस्त्र पात्र आदि उपकरण रखना कल्पता है।
(१)पात्र-गृहस्थों के घर से भिक्षा लाने के लिए काठ, मिट्टी या तुम्बी वगैरह का वर्तन । मध्यम परिमाण वाले पात्र का घेरा तीन विलांत और चार अंगुल होता है। देश काल की आवश्यकता के अनुसार बड़ा या छोटा पात्र भी रक्खा जा सकता है।
(२)पात्र वन्ध-पात्रों को वॉधने का कपड़ा। (३)पात्रस्थापन- पात्र रखने का कपड़ा। (४) पात्रकेसरिका- पात्र पोछने का कपड़ा। (५) पटल- पात्र ढकने का कपड़ा। (६) रजत्राण- पात्र लपेटने का कपड़ा। (७) गोच्छक-पात्र वगैरह साफ करने का कपड़ा।
ऊपर लिखे सात उपकरणों को पात्रनिर्योग कहा जाता है। इन का पात्र के साथ सम्बन्ध है।
(८-१०)प्रच्छादक-पछेवड़ी अर्थात् ओढ़ने की चद्दरें। साधु को उत्कृष्ट तीन चद्दरेरखना कल्पता है, इस लिए ये तीन उपकरण माने जाते हैं।
(११) रजोहरण- वसति, पाट तथा शय्या वगैरह को पूँजने
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
*दन
दाह rammarwrmirmanawww.ma--- केतिर दिस बना हुआ रजोहरण (ोघा)।
(२६ मन्त्राल-वायुकाय के जीवों की रक्षा के लिए मुंह परवाँग जाने वाला कपड़ा।
(१३ मात्रक (पड़या)-लघु शङ्का आदि परठने के काम में आने वाला पात्र विशेष!
(१४) चोलपट- गुप्त अंगों को ढकने के लिए धोती के स्थान पर बाँधा जाने वाला कपड़ा।
नोट-इन चौदह उपकरणों में से जिनकल्पी को बारह तक रखना कल्पना है। मात्रक और चोलपट्ट रखना नहीं कल्पता ।
(पञ्चवस्तुक गाथा ७७१-७४६) ८३४-साधु के लिये अकल्पनीय चौदह बातें
साधु, साध्वी को गृहस्थी के घर बिना कारण निम्न लिखित चौदह वातें करनी नहीं कल्पती। ___ (१) गृहस्थी के घर में जाना (२) खड़े रहना (३) बैठना (४) सोना (५) निद्रा लेना (६) विशेष रूप से निद्रा लेना (७) अशन, पान, खादिम, स्वादिम इन चार प्रकार के आहार में से कोई भी
आहार करना (८) बड़ीनीति और लघुनीति तथा खेंखार और नाक का मैल आदि परिठवना (8) स्वाध्याय करना (१०)ध्यान करना (११) कायोत्सर्ग करना (१२)भिक्खु की बारह पडिमाओं में से कोई पडिमा स्वीकार कर कायोत्सर्ग करना । अपवाद मार्ग में यदि कोई साधु या साध्वी स्थविर,रोगी, तपस्वी और दुर्बल हो अथवा मूछो (चक्कर) आती हो और वृद्धावस्था के कारण शरीर स्थिर न रहता हो, इन कारणों में से कोई कारण हो तो उपरोक्त वारह बातें साधु को गृहस्थी के घर में कल्पती हैं।
(१३) साधु,साध्वी को गृहस्थी के घर में शास्त्र की चार गाथा अथवा पाँचगाथाओं का उच्चारण करना,उन गाथाओं का विस्तार
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीरका जैन ग्रन्थमाला
-~~
पूर्वक कहना, समानाऔर उपदेश करना नहीं कल्पता।
(१४) साब. सामी कोही के घर के अन्दर पच्चीस भावनाओं सहित पाँच मात्रज का कयन करना यावत् उनका उन्ने देना नहीं कल्पता किन्तु अपवाद मार्ग में खड़े खड़े एक
र गाया और झोक का अर्थकहनाअथवा एक आपप्रश्न का उधर देना कल्पना है। यह कार्य भी खड़े खड़े ही करना चाहिए वैठ
(वृहत्कल्प उद्देशा ३ सूत्र २२-२४) ८३५- अविनीत के चौदह लक्षण
गुरु आदि बड़े पुरुषों की सेवाशुश्रुषा न करने वाला अविनीत कहलाता है। इसके चौदह लक्षण हैं
(१) सकारणया अकारण चार बार क्रोध करने वाला।
(२) विजया आदि में प्रवृत्ति करने वाला या दीर्घकाल तक मोध रखने वाला।
(३)मित्र की मित्रता का त्याग करने वाला अथवा कृतघ्न होफर किये हुए उपकार को न मानने वाला।
(४) शास्त्र पढ़ कर गर्व करने वाला।
(५)छोटेसे अपराध के कारण महान् पुरुषों का भी तिरस्कार करने वाला अथवा अपनादोष दसरों पर डालने वाला।
(६) मित्रों पर भी क्रोध करने वाला।
(७)अत्यन्त प्यारे मित्रों की भी पीठ पीछेनिन्दाऔर सामने प्रशंसा करने वाला।
(E) वस्तु तत्त्व के विचार में स्वेच्छानु ' भाषण करने वाला, या पात्र अपात्र का विचार न गृढ रहस्य को बताने वाला अथवा सर्वया बोलने वाला।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
(६) मित्र द्रोही अर्थात् मित्र से भी द्वेष करने वाला ।
(१०) मिथ्याभिमान करने वाला ।
(११) लोभी अर्थात् अधिक लोभ करने वाला अथवा लुब्ध अर्थात् रसादि में वृद्धि रखने वाला ।
(१२) असंयमी अर्थात् इन्द्रियों को वश में न करने वाला । (१३) अपने साथियों की अपेक्षा अधिक हिस्सा लेने वाला अथवा प्राप्त हुई आहारादि वस्तु में से थोड़ा सा भी दूसरे को न देने वाला, केवल अपना ही पोषण करने वाला ।
३१
(१४) अमीति (शत्रुता) करने वाला, अथवा जिसकी शक्ल देख कर और वचन सुन कर सब लोगों को अभीति उत्पन्न हो । इनमें से एक भी दुर्गुण जिस में हो वह श्रविनीत कहलाता है।
(उत्तराध्ययन अध्ययन ११ गाथा ६-६)
८३६- माया के चौदह नाम कपट करना माया कहलाती है । इसके समानार्थक चौदह नाम हैं। यथा
( १ ) उपधि - किसी मनुष्य को ठगने के लिये प्रवृत्ति करना । ( २ ) निकृति - किसी का आदर सत्कार करके फिर उसके साथ माया करना अथवा एक मायाचार छिपाने के लिये दूसरा
मायाचार करना ।
(३) वलय - किसी को अपने जाल में फंसाने के लिए मीठे मीठे वचन बोलना ।
( ४ ) गहन - दूसरों को ठगने के लिए अव्यक्त शब्दों का उच्चारण करना अथवा ऐसे गहन (गूढ ) तात्पर्य वाले शब्दों का प्रयोग कर जाल रचना कि दूसरे की समझ में ही न आवे । (५) म - मायापूर्वक नीचता का आश्रय लेना । (६) कल्क - हिंसाकारी उपायों से दूसरे को ठगना ।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला na wwwson woww www.wwww.maww nana com nomoww ww (७)कुरूप-निन्दित रीति से मोह उत्पन्न कर ठगने की प्रवृत्ति। (८) जिह्मता- कुटिलता पूर्वक ठगने की प्रवृत्ति। (8) किल्विष - किल्विपी सरीखी प्रवृत्ति करना। (१०) आदरणा (आचरणा)-मायाचार से किसी वस्तु का आदर करनाअथवा ठगाई के लिये अनेक प्रकार की क्रियाएं करना। (११) गृहनता- अपने स्वरूप को छिपाना। (१२) वञ्चनता-दूसरे को ठगना।
(१३) प्रतिकुंचनता-सरल भाव से कहे हुए वाक्य का खंडन करना या विपरीत अर्थ लगाना।
(१४) सातियोग- उत्तम पदार्थ के साथ हीन (तुच्छ) पदार्थ मिला देना।
(समवायाग ५२ में मे) ८३७- लोभ के चौदह नाम
लोभ कषाय के समानार्थक चौदह नाम हैं(१) लोभ- सचित्त या अचित्त पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा रखना।
(२) इच्छा- किसी वस्तु को प्राप्त करने की अभिलापा।
(३) मूर्छा- प्राप्त की हुई वस्तुओं की रक्षा करने की निरन्तर अभिलाषा।
(४) कांता-अप्राप्त वस्तु की इच्छा। (५) गृद्धि-प्राप्त वस्तुओं पर आसक्तिभाव । (६) तृष्णा- प्राप्त अर्थ का व्यय न हो ऐसी इच्छा। (७) भिध्या-विषयों का ध्यान। (८) अभिध्या- चित्त की चंचलता। (8)कामाशा-इष्ट रूप और शब्द की प्राप्ति की इच्छा करना। (१०) भोगाशा- इष्ट गन्ध आदि की प्राप्ति की इच्छा करना।
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
३३
(११) जीविताशा- जीवन की अभिलाषा करना। (१२) मरणाशा-विपत्ति के समय मरण की अभिलाषा (१३) नन्दी-वाञ्छित अर्थ की प्राप्ति। (१४) राग-विद्यमान सम्पत्ति पर राग भाव होना।
(समवायाग ५२ में से) ८३८-चौदह प्रकार से शुभ नामकर्म
भोगा जाता है (१) इष्ट शब्द (२) इष्ट रूप (३) इष्ट गन्ध (४) इष्ट रस (५) इष्ट स्पर्श (६) इष्ट गति (७) इष्ट स्थिति (E) इष्ट लावण्य (8) इष्ट यशः कीर्ति (१०) इष्ट उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम (११)इष्ट स्वर (१२) कान्त स्वर(१३)प्रिय स्वर (१४)मनोज्ञ स्वर शुभ नाम कर्म के उदय से उपरोक्त बातों की प्राप्ति होती है।
(प्रज्ञापना स्त्र, पद २३ ८३६- चौदह प्रकार से अशुभ नामकर्म
__ भोगा जाता है (१) अनिष्ट शब्द (२)अनिष्ट रूप (३) अनिष्ट गन्ध (४)अनिष्ट स्स (५) अनिष्टं स्पर्श (६) अनिष्ट गति (७) अनिष्ट स्थिति (८) अनिष्ट लावण्य (8)अनिष्ट यशः कीर्ति (१०)अनिष्ट उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार,पराक्रम (११) हीन स्वर (१२) दीन स्वर (१३) अमिय स्वर (१४) अमनोज्ञ स्वर। भशुभ नामकर्म के उदय से उपरोक्त बातों की प्राप्ति होती है।
(प्रज्ञपना सूत्र, पद २३) ८४०-आभ्यन्तर परिग्रह के चौदह भेद ।
क्रोध, मान आदि की आभ्यन्तर ग्रन्थि भाभ्यन्तर परिग्रह
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
45
4
wel
lly KC L
in
-
of
1.
JUTTATTL
Mi* * ++
LITE
4035
644
1
www
N
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
३५
देशकी अपेक्षा वह अपदेश है। एक समय से अधिक दूसरे तीसरे समय में रहता हुआ वही जीव काल की अपेक्षा प्रदेश कहलाता है। निम्न लिखित चौदह द्वारों से सप्रदेशी और अप्रदेशी का विचार किया जायगा। सपएसामाहारग भविय सनिलेस्सा दिहि संजय कसाए। गाणे जोगुवोगे, वेदे य शरीर पज्जत्ती॥
(१) सप्रदेश (२) श्राहारक (३) भव्य (४) संज्ञी (५) लेश्या (६)दृष्टि(७) संयत (८) कपाय (8) ज्ञान (१०) योग (११) उपयोग (१२) वेद (१३) शरीर (१४) पर्याप्ति।
(१) समदेशद्वार-सामान्य जीव काल की अपेक्षा सप्रदेश हैं। नरयिक जीव कभी सप्रदेश और कभी अप्रदेश दोनों प्रकार के होते हैं अर्थात् जिस नैरयिक जीव को उत्पन्न हुए अभी एक ही समय हुआ है वह जीव काल की अपेक्षा अप्रदेश कहलाता है और जिस जीव को उत्पन्न हुए एक समय से अधिक हो गया है वह नैरयिक जीव सप्रदेश कहलाता है। एक वचन की अपेक्षा से ऐसा कथन कियागया है। बहु वचन की अपेक्षा इस प्रकार जानना चाहिए- उपपात विरह की अपेक्षा अर्थात् जब कोई भी नैरयिक उत्पन्न नहीं होता उस समय सभी नैरयिक जीव सपदेशकहलाते हैं। पूर्वोत्पन्न नैरयिकों में जब एक नैरयिक उत्पन्न होता है तब एक जीव अप्रदेश और बहुत जीव सप्रदेश यह भंग पाया जाता है। जब बहुत से जीव उत्पन्न होते रहते हैं तब बहुत जीव अप्रदेश और बहुत जीव सप्रदेश यह भंग पाया जाता है। इसी तरह सब जीवों में जानना चाहिए।
(२) आहारक-सामान्य जीव और एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर श्राहारक जीवों में उपरोक्त तीन भांगे पाए जाते कभी 'सप्रदेश और कभीअप्रदेश' होते हैं। कभी 'एकजीव अप्रदेश
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
कहलाता है। इसके चौदह भेद हैं
( १ ) हास्य - जिसके उदय से जीव को हँसी भावे । (२) रति- जिस के उदय से सांसारिक पदार्थों में रुचि हो । (३) अरति -जिसके उदय से धर्म कार्यों में जीव की अरुचि हो । ( ४ ) भय - सात प्रकार के भय की उत्पत्ति । (५) शोक - जिसके उदय से शोक, चिन्ता, रुदन आदि हों। ६) जुगुप्सा - जिस के उदय से पदार्थों पर घृणा उत्पन्न हो । (७) क्रोध - गुस्सा, कोप ।
(८) मान - घमण्ड, अहंकार, अभिमान । ( 8 ) माया - कपटाई (सरलता का न होना) । (१०) लोभ - लालच, तृष्णा या गृद्धि भाव । (११) स्त्री वेद - जिसके उदय से स्त्री को पुरुष की इच्छा होती है । (१२) पुरुष वेद-जिसके उदय से पुरुष को स्त्री की इच्छा होती है। (१३) नपुंसक वेद - जिसके उदय से नपुंसक को स्त्री और पुरुष दोनों की इच्छा होती है ।
(१४) मिथ्यात्व - मोहवश तत्त्वार्थ में श्रद्धा न होना या विपरीत श्रद्धा होना मिथ्यात्व कहा जाता है ।
(ठाणाग १, सूत्र ४६ परिग्रह के अन्तर्गत )
प्रदेशी के चौदह बोल
८४१ - सप्रदेशी
जो जीव एक समय की स्थिति वाला है वह काल की अपेक्षा अप्रदेश कहलाता है। जिस जीव की स्थिति एक समय से अधिक हो चुकी है वह काल की अपेक्षा सप्रदेश कहलाता है । सप्रदेश और प्रदेश का स्वरूप बताने वाली निम्न लिखित गाथा हैजो जस्स पढमसमए वह भावस्स सो उ अपएसो । अस्मि वमाणो कालाएसे सपएसो ॥ अर्थात् - जो जीव प्रथम समय में जिस भाव में रहता है काला
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ३५
देश की अपेक्षा वह अमदेश है। एक समय से अधिक दूसरे तीसरे समय में रहता हुआ वही जीव काल की अपेक्षा प्रदेश कहलाता है। निम्न लिखित चौदह द्वारों से समदेशी और अप्रदेशी का विचार किया जायगा ।
.
सपएसा आहारग भविय सन्नि लेस्सा दिट्ठि संजय कसाए । पाणे जोगुवोगे, वेदे य शरीर पज्जत्ती ॥
(१) समदेश ( २ ) आहारक (३) भव्य (४) संज्ञी (५) लेश्या (६) दृष्टि (७) संयत (८) कषाय (६) ज्ञान (१०) योग (११) उपयोग (१२) वेद (१३) शरीर (१४) पर्याप्ति ।
( १ ) समदेश द्वार - सामान्य जीव काल की अपेक्षा सप्रदेश हैं। नैरयिक जीव कभी समदेश और कभी अप्रदेश दोनों प्रकार के होते हैं अर्थात् जिस नैरयिक जीव को उत्पन्न हुए अभी एक ही समय हुआ है वह जीव काल की अपेक्षा अप्रदेश कहलाता है और जिस जीव को उत्पन्न हुए एक समय से अधिक हो गया है वह नैरयिक जीव समदेश कहलाता है। एक वचन की अपेक्षा से ऐसा कथन किया गया है। बहु वचन की अपेक्षा इस प्रकार जानना चाहिए - उपपात विरह की अपेक्षा अर्थात् जब कोई भी नैरयिक उत्पन्न नहीं होता उस समय सभी नैरयिक जीव समदेश कहलाते हैं। पूर्वोत्पन्न नैरयिकों में जब एक नैरयिक उत्पन्न होता है तब एक जीव श्रप्रदेश और बहुत जीव सप्रदेश यह भंग पाया जाता है। जब बहुत से जीव उत्पन्न होते रहते हैं तब बहुत जीव श्रमदेश और बहुत जीव सप्रदेश यह भंग पाया जाता है। इसी तरह सब जीवों में जानना चाहिए ।
(२) आहारक - सामान्य जीव और एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर आहारक जीवों में उपरोक्त तीन भांगे पाए जाते हैं अर्थात् कभी 'सप्रदेश और कभी प्रदेश' होते हैं। कभी 'एक जीव अप्रदेश
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
और बहुत जीव सप्रदेश' और कभी 'बहुत जीव अप्रदेश और बहुत जीव सप्रदेश' इस प्रकार तीनों भंग पाए जाते हैं। अनाहारक जीवों में छः भंग पाए जाते हैं
३६
(१) कुछ सप्रदेश (२) कुछ अप्रदेश (३) कोई एक समदेश और कोई एक प्रदेश (४) कोई एक सप्रदेश और बहुत अप्रदेश (५) कुछ (बहुत) सप्रदेश और कोई एक अप्रदेश (६) कुछ (बहुत) समदेश और कुछ (बहुत) अपदेश ।
(३) भव्यत्व द्वार - जिस तरह सामान्य जीव का कथन किया गया है उसी तरह भवसिद्धिक (भव्य ) और अभवसिद्धिक (अभव्य ) जीवों के लिये भी जानना चाहिये । नोभवसिद्धिक नोभवसिद्धिक (सिद्ध) जीवों में तीन भांगे पाये जाते हैं।
( ४ ) संझी द्वार - संज्ञी जीवों में तीन भांगे पाये जाते हैं। असंज्ञी जीवों में एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर तीन भांगे पाये जाते हैं । नैरयिक, देव और मनुष्यों में अनाहारक की तरह छः भांगे पाये जाते हैं। नोसंज्ञी नोअसंज्ञी (सिद्ध) जीवों में तीन भांगे पाये जाते हैं।
(५) लेश्याद्वार - सलेश्य (लेश्या वाले) जीवों का कथन सामान्य जीवों की तरह है। कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाले जीवों में आहारक जीवों की तरह तीन भांगे पाये जाते हैं। तेजोलेश्या वाले जीवों में तीन भांगे होते हैं किन्तु पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय और तेजोलेश्या वाले जीवों में छः भंग पाये जाते हैं।
(६) दृष्टिद्वार - सम्यग्दृष्टि जीवों में सामान्य जीवों की तरह तीन भांगे पाये जाते हैं। विकलेन्द्रियों में छः और मिथ्यादृष्टियों में एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर तीन भाँगे पाये जाते हैं। मिश्रदृष्टि जीवों में छ: भाँगे पाये जाते हैं।
( ७ ) संयत द्वार - संयत जीवों में तीन, एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर असंयत जीवों में तीन और संयतासंयत जीवों में तीन भंग
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
vvvvvvvv
_ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग पाये जाते हैं। नोसंयत नोअसंयत नोसंयतासंयत जीव (सिदों) में तीन भंग पाये जाते हैं।
(८)कषाय द्वार- सकपायी(कषाय वाले)जीवों में सामान्य जीवों की तरह तीन भंग पाये जाते हैं। सकषायी एकेन्द्रियों में सिर्फ एक भंग पाया जाता है। क्रोध कपायी जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग और देवों में छः भंग पाये जाते हैं। मान और माया कषाय वालों में तीन और नैरयिक तथा देवों में छ: भंग होते हैं। लोभ कषाय वालों में तीन और नैरयिकों में छः भंग पाये जाते हैं। अपायी मनुष्य और सिद्धों में तीन भंग पाये जाते हैं।
(8) ज्ञान द्वार-ज्ञानवान् ,प्राभिनिबोधिक ज्ञान वाले और श्रुतज्ञान वाले जीवों में काल की अपेक्षा सप्रदेश और अप्रदेश के तीन भंग पाये जाते हैं और विकलेन्द्रियों में छःभंग पाये जाते हैं। अवधिज्ञान,मनापर्यय ज्ञान और केवल ज्ञान वालों में तीन भंग पाये जाते हैं। श्रोधिक अज्ञान, मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान वाले जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग और विभंग ज्ञान वाले जीवों में तीन भंग पाये जाते हैं।
(१०) योग द्वार- सयोगी में सामान्य जीव की तरह भंग पाये जाते हैं। मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीवों में तीन भंग होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के काययोग ही होता है। उनमें सिर्फ एक ही भंग होता है। अयोगी जीवों में और सिद्धों में तीन भंग होते हैं।
(११)उपयोग द्वार-साकार उपयोग और अनाकार उपयोग वाले जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग होते हैं।
(१२) वेद द्वार-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपंसक वेद वाले जीवों में तीन भंग होते हैं किन्न aim ...
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
एक ही भंग पाया जाता है । अवेदक मनुष्य और सिद्धों में तीन भंग होते हैं।
(१३) शरीर द्वार-सशरीरी जीवों का कयन सामान्य जीवों की तरह जानना चाहिये । औदारिक और वैक्रिय शरीर वाले जीवों में एकेन्द्रियों को छोड़ कर तीन भंग, आहारक शरीर वाले मनुष्यों में छः भंग होते हैं। तैजस और कार्मण शरीर वाले जीवों में तीन भंग होते हैं। अशरीरी जीवों में तीन भंग होते हैं। .
(१४) पर्याप्ति द्वार-आहार पर्याप्ति,शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति और श्वासोच्छास पर्याप्ति वाले जीवों में एकेन्द्रियों को छोड़ कर तीन भंग पाये जाते हैं । भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति वाले जीवों में संझी जीवों की तरह तीन भंग होते हैं। अपर्याप्त जीवों में अनाहारक की तरह एकेन्द्रिय को छोड़ कर छ: भांगे पाये जाते हैं। शरीर,इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास पर्याप्तियों से अपर्याप्त जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग होते हैं। नैरयिक, देव
और मनुष्यों में छः भंग होते हैं। भाषा और मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त जीवों में तीन और नैरयिक,देव और मनुष्यों में छ: भंग पाये जाते हैं।
(भगवती शतक ६ उद्देश ४) ८४२- पढमापढम के चौदह द्वार ___ जीव भादि चौदह द्वारों में प्रयम अप्रथम का कथन किया गया है। वे द्वार ये हैं__ (१) जीव (२) आहारक (३) भवसिद्धिक (४) संझी (५) लेश्या (६) दृष्टि (७) संयत (८) कषाय (8) ज्ञान (१०) योग (११) उपयोग (१२) वेद (१३) शरीर (१४) पर्याप्ति ।
(१) जीवद्वार- जीव जीवत्व की अपेक्षा प्रथम नहीं किन्तु अप्रथम है। इसी प्रकार नारकी से लेकर वैमानिक देवों पर्यन्त समझनाचाहिये। सिद्धजीव सिद्धत्व की अपेक्षामयम हैं,अप्रयम
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह पांचवां भाग
नहीं। इसका यह अभिप्राय है कि जीव को जिस वस्तु (भाव) की प्राप्ति पहले कई बार हुई है उसकी अपेक्षा वह अप्रथम कहा जाता है, जैसे जीव को जीवत्व अनादि काल से प्राप्त है अतः जीवत्व की अपेक्षा जीव अप्रथम कहलाता है। जो भाव जीव को कभी भी प्राप्त नहीं हुए हैं उनकी अपेक्षा वह प्रथम कहलाता है, जैसे सिद्धत्व की अपेक्षा जीव प्रथम है क्योंकि जीव को सिद्धत्व (सिद्धपना) पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुआ है।
(२) आहारक- आहारक जीव आहारक भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। चौवीस ही दण्डकों में इसी प्रकार समझना चाहिये। अनाहारक जीव अनाहारक भाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं और सिद्ध जीव प्रथम होते हैं अप्रथम नहीं, इसका यह अभिप्राय है कि सिद्ध और विग्रहगति प्राप्त जीव अनाहारक होते हैं। सिद्धत्व का अनाहारक भाव प्रथम है क्योंकि ऐसा अनाहारक भाव जीव को पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था। विग्रहगति के अनाहारकत्व की अपेक्षाजीव अप्रथम है क्योंकि एक गति से दूसरी गति में जाता हुआ जीव विग्रहगति के अनाहारक भाव को अनन्त वार प्राप्त कर चुका है। चौवीस ही दण्डक के जीवों के विषय में इसी प्रकार समझ लेना चाहिये।
(३) भवसिद्धिक द्वार- भवसिद्धिक जीव भवसिद्धिक भाव की अपेक्षा अप्रथम है। इसी तरह अभवसिद्धिक जीव अभवसिद्धिक (सिद्ध) भाव की अपेक्षा अप्रथम है। नोमवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक जीव इन दोनों भावों की अपेक्षा अर्थात् नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक भाव (सिद्धत्व) की अपेक्षा प्रथम हैं, अप्रथम नहीं।
(४) संज्ञी द्वार-संज्ञी जीव संज्ञी भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। विफलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) और स्थावर
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
फाय के जीवों को छोड़ कर शेष सोलह दण्डकों में इसीप्रकारसम--- झना चाहिये । असंही जीव संज्ञी भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। वाणव्यन्तर देवों तक ऐसे ही समझना चाहिए क्योंकि असंज्ञी जीव मर फरवाणन्यन्तरों तक ही जा सकते हैं। पृथ्वी श्रादि असंही जीव असंज्ञीभाव की अपेक्षा अप्रथम हैं क्योंकि पृथ्व्यादि जीवों ने अनन्त ही बार असंझी भाव प्राप्त किया है। नोसंज्ञी नोअसंज्ञी जीव (सिद्ध) नोसंज्ञी नोअसंझी भाव की अपेक्षा प्रथम हैं।
(५) लेश्या द्वार-सलेश्य (लेश्या वाले) जीव सलेश्य भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। कृष्ण लेश्या से शुक्ल लेश्या तक इसी प्रकार जानना चाहिये । लेश्या रहित जीव अलेश्य भाव की अपेक्षा प्रथम हैं, अप्रथम नहीं।
(६) दृष्टि द्वार-सम्यगदृष्टि जीव सम्यगदृष्टिभाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर शेष उन्नीस ही दण्डकों में इसी तरह समझना चाहिए। इसका यह अभिमाय है कि जो जीव पहली ही वार सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है उस अपेक्षा से वह प्रथम है। जो जीव एक बार सम्यम्दर्शन प्राप्त कर उससे गिर गया है, दूसरी बार जब वह वापिस सम्यगदर्शन प्राप्त करता है तब सम्यगदृष्टि भाव की अपेक्षा वह अप्रथम कहा जाता है । एकेन्द्रिय जीवों को सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता इस लिए वे इस द्वार में नहीं लिये गये हैं।
सम्यगदृष्टि भाव की अपेक्षा सिद्ध प्रथम हैं क्योंकि सिद्धत्व सहित सम्यगदर्शन मोक्ष जाने के समय प्रथम बार ही प्राप्त होता है।
मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि भाव की अपेक्षा अप्रयम है क्योंकि मिथ्यादर्शन अनादि है। मिश्रदृष्टि भाव का कथन सम्यग्दृष्टि की तरह समझना चाहिये अर्थात् मिश्रदृष्टि जीव मिश्रदृष्टि भाव की अपेक्षा कभी प्रथम और कभी अप्रथम दोनों तरह के होते हैं।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां भाग ४१ worwwww. . .. .
~ ~ ~ (७) संयत द्वार- संयत जीव संयत भाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं। असंयत भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। संयतासंयत जीव, तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय और मनुष्य संयतासंयत भाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं। नोसंयत नोअसंयत और नोसंयतासंयत जीव अर्थात् सिद्ध इन भावों की अपेक्षा प्रथम हैं अप्रथम नहीं क्योंकि सिद्धत्व भाव प्रथम बार ही प्राप्त होता है।
(८) कपाय द्वार- सकषायी अर्थात् क्रोध कषायी से लेकर लोभ कषायी तक के जीव सकषायी भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं। अकषायी मनुष्य अकषायी भाव की अपेक्षा कभी प्रथम और कभी अप्रथमदोनों तरह के होते हैं किन्तु अकषायी (सिद्ध)सिद्धत्व सहित अकषायी भाव की अपेक्षा प्रथम हैं।
(६) ज्ञान द्वार- ज्ञानी जीव ज्ञान की अपेक्षा प्रथम और अपथम दोनों तरह के होते हैं किन्तु केवलज्ञानी केवलज्ञान की अपेक्षा प्रथम ही होते हैं।'अकेवली जीव मति आदि चार ज्ञानों की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम होते हैं । अज्ञानी जीव अर्थात् मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी और विभङ्ग ज्ञानी जीव इन भावों की अपेक्षा अप्रथम हैं।
(१०) योग द्वार- सयोगी अर्थात् मनयोगी, वचन योगी और काय योगी जीव तीनों योगों की अपेक्षा अप्रथम हैं। अयोगी जीव अयोगी भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं।
(११) उपयोग द्वार- साकारोपयोग और अनाकारोपयोग वाले जीव इन दोनों भावों की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं। चौवीस हीदण्डक के जीव साकारोपयोग और अनाकारोपयोग भाव की अपेक्षा अप्रथम हैं और सिद्धपद की अपेक्षा प्रथम हैं क्योंकि साकारोपयोग और अनाकारोपयोग विशिष्ट सिद्धत्व की प्राप्ति प्रथम बार ही होती है।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(१२ ) वेद द्वार-सवेदीअर्थात् पुरुषवेदी, स्त्रीवेदी और नपुंसक वेदी जीव तीनों वेदों की अपेक्षा अप्रथम हैं। अवेदी भाव में मनुष्य अवेदक भाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं और सिद्ध अवेदक भाव की अपेक्षा प्रथम हैं।
(१३) शरीर द्वार-सशरीरी अर्थात् औदारिक आदि शरीर वालेजीव इन शरीरों की अपेक्षा अप्रथम हैं। आहारक शरीर वाले जीव आहारक शरीर भाव की अपेक्षा प्रथम और अप्रथम दोनों तरह के होते हैं।
(१४)पर्याप्त द्वार-पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त और पाँच पर्याप्तियों से अपर्याप्त जीव इन भावों की अपेक्षा अप्रथम हैं। ___ उपरोक्त चौदह द्वारों में प्रथम और अप्रथम बतलाने का अभिप्राय यह है कि जिन जीवों कोजो भाव पहले प्राप्त होगए हैं उनकी अपेक्षा वे जीव अप्रथम कहे जाते हैं और जिन जीवों को जो भाव पहले माप्त नहीं हुए हैं उनकी अपेक्षा व प्रथम कहे जाते हैं।
(भगवती शतक १८ उद्देशा १) ८४३- चरमाचरम के चौदह बोल
जिसका अन्त हो जाता है वह चरम कहलाता है। जिसका कभी भी अन्त नहीं होता वह अचरम कहलाता है। चरमाचरम का विचार चौदह द्वारों से किया गया है। वे इस प्रकार हैं
(१) जीव द्वार- जीव जीवत्व भाव की अपेक्षा अचरम है क्योंकि जीवत्वभाव की अपेक्षाजीव का कभी भीअन्त नहीं होता।
नैरयिक जीव नैरयिक भाव की अपेक्षा चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि जो जीव नरक से निकल कर मनुष्यभव आदि में जन्म लेता है और वहाँ से फिर नरक में नहीं जाता किन्तु मोक्ष में चला जाता है अर्थात् नरक से
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
४३
निकल करफिर कभीवापिसनरक में नहीं जातावह जीव नरयिक भाव की अपेक्षा चरमकहलाता है।जोजीव नरक से निकल कर मनुष्य आदि भव करके फिर दुबारा नरक में जाता है वह नैरयिक भाव की अपेक्षा अचरम कहलाता है। इसी प्रकार चौवीस ही दण्डकों में समझना चाहिए। सिद्ध सिद्धत्व की अपेक्षा अचरम हैं।
(२)पाहारक द्वार-आहारक जीव आहारकभाव की अपेक्षा चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं । अनाहारक जीव भचरम ही होते हैं, चरम नहीं।
(३) भव सिद्धिक द्वार- भवसिद्धिक जीव चरम हैं क्योंकि मोक्ष जाने के समय भव्यत्व का अन्त हो जाता है। अभवसिद्धिक जीव अचरम हैं क्योंकि उनके अभव्यत्व काकभीअन्त नहीं होता। नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक (सिद्ध) अचरम हैं।
(४) संज्ञी द्वार- संज्ञी जीव और असंज्ञी जीव चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं। नोसंज्ञी नोअसंज्ञी (सिद्ध) अचरम हैं किन्तु मनुष्य पद की अपेक्षा सिद्ध चरम हैं क्योंकि मनुष्य सम्बन्धी संज्ञीभाव को छोड़ कर वे सिद्ध हो जाते हैं।
(५) लेश्या द्वार- लेश्या सहित जीव अर्थात् कृष्ण लेश्या से लेकर शुक्ल लेश्या तक के जीव चरम और अचरमदोनों प्रकार के होते हैं। लेश्यारहित (सिद्ध)अचरम हैं।
(६) दृष्टि द्वार- सम्यग्दृष्टि जीव का कथन अनाहारक के समान है अर्थात् सम्यग्दृष्टिभाव की अपेक्षा एक जीव अचरम है क्योंकि सम्यग्दर्शन से गिर कर जीव फिर सम्यग्दर्शन अवश्य प्राप्त करता है। सिद्ध चरम हैं क्योंकि वे सम्यग्दर्शन से गिरते नहीं हैं। जो सम्यग्दृष्टि नैरयिक नरयिक अवस्था में फिर सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं करेंगे वे चरम हैं और शेष अचरम। मिथ्यादृष्टि का कथन भनाहारक की तरह है अर्थात् जो जीव निर्वाण को प्राप्त करेंगे
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वे मिथ्यात्व की अपेक्षा चरम हैं,शेष अचरम। मिथ्यादृष्टि नैरयिक जो फिर मिथ्यात्व सहित नैरयिक भाव प्राप्त नहीं करेंगे वे चरम हैं, शेष अचरम । मिश्रदृष्टि जीव चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं। चौवीस दण्डकों में इसी प्रकार जानना चाहिए किन्तु एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर ऐसा जानना चाहिए क्योंकि ये जीव मिश्रदृष्टि नहीं होते।
(७) संयत द्वार- संयत जीव चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं । जिन जीवों को फिर से संयत भाव प्राप्त नहीं होगा वे चरम हैं, शेष अचरम । असंयत जीव भी चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। इसी तरह संयतासंयत (देशविरत) भी चरमाचरम होते हैं। नोसंयत नोअसंयत नोसंयतासंयत (सिद्ध) अचरम हैं।
(८)कपाय द्वार-सकषायी (क्रोधकपायी यावत् लोभकपायी) चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। अकपायी जीव और सिद्ध चरम नहीं किन्तु अचरम हैं। अकपायी मनुष्य पद की अपेक्षा चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। __(8) ज्ञान द्वार- ज्ञानी (मति ज्ञानी से मनःपर्यय ज्ञानी तक) चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। केवलज्ञानी अचरम हैं क्योंकि केवलज्ञान प्राप्त कर लेने पर फिर प्राणी केवलज्ञान से गिरता नहीं। अज्ञानी (मति अज्ञानी, श्रत अज्ञानी और विभंगज्ञानी) चरम और अचरम दोनों तरह के होते हैं।
(१०) योग द्वार-सयोगी (मनयोगी, वचनयोगी,काययोगी) चरम और अचरम दोनों होते हैं। अयोगी जीव अचरम होते हैं।
(११) उपयोग द्वार- साकारोपयोग और अनाकारोपयोग वाले जीव चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं।
(१२) वेद द्वार- सवेदक (पुरुपवेदी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी) जीव चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। अवेदक जीव
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
४५
(सिद्ध) अचरम होते हैं।
(१३) सशरीरी- (औदारिक शरीर से कार्मण शरीर तक) जीव चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं। अशरीरी जीव (सिद्ध) अचरम होते हैं।
(१४) पर्याप्त द्वार- पाँच पर्याप्तियों से पर्याप्त और पाँच पर्याप्तियों से अपर्याप्त जीव चरम और अचरम दोनों प्रकार के होते हैं।
चरमाचरम को बतलाने वाली यह गाथा हैजो पाविहिति पुणोभावं,सोतेण अचरिमो होई। श्रच्चन्त वियोगोजस्स,जेण भावेण सोचरिमो॥
अथात- जीव को जिन भावों की प्राप्ति फिर से दुबारा होगी उस भाव की अपेक्षा वह जीव अचरम कहलाता है । जिस भाव का जीव के साथ अत्यन्त वियोग हो जाता है अर्थात् जिन भावों की प्राप्ति जीव को फिर से दुवारा नहीं होगी उन भावों की अपेक्षा वह जीव चरम कहलाता है। (भगवती शतक १८ उद्देशा १) ८४४- महानदियाँ चौदह ___ जम्बूद्वीप के अन्दर चौदह महानदियाँ पूर्व और पश्चिम की तरफ से लवण समुद्र में गिरती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं
(१) गंगा (२) सिन्धु (३) रोहिता (४) रोहितंसा (५) हरि (६) हरिकंता (७)सीता (८) सीतोदा (6)नरकान्ता (१०)नारीकान्ता (११) सुवर्णकूला (१२) रूप्यकूला (१३) रक्ता (१४) रक्तवती।
(समवायाग १४) ८४५-- चौदह राजू परिमाण लोक
पॉच अस्तिकार्यों के समूह को लोफ कहते हैं अर्थात् जहाँ धर्मास्तिकाय,अधर्मास्तिकाय,आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय जिस क्षेत्र में पाए जायें
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
wronomrn rommmmmmmmmwrommmmmmmmmmra rrrrrrrrrrrr
४६
श्री सेठिया जैन ग्रन्यमाला m उसे लोक कहाजाता है। लोक से बाहर आकाश के सिवाय कुछ नहीं है। सातवीं पृथ्वी के नीचे लोक के अन्तिम भाग से लेकर शिद्ध शिला के ऊपर एक योजन तक लोक का परिमाण चौदह राजू परिमाण है। ___ स्वयम्भूरमण समुद्र की पूर्ववेदिका से लेकर पश्चिम वेदिका पर्यन्त की दूरी को रज्जु कहते हैं। तत्त्वार्थाधिगम भाष्य की टिप्पणी में लिखा है- लोक की अवगाहना चौदह राजू परिमाण है। यहॉराजदोप्रकार का है-औपचारिक और पारमार्थिकासाधारण लोगों की बुद्धि स्थिर करने के लिए दृष्टान्त देना औपचारिक राजू है। जैसे
जोयणलक्खपमाणं, निमेसमत्तेण जाइ जो देवो। ता छम्मासे गमणं, एवं रज्जु जिणा यिंति॥ अर्थात-देवता एक निमेष (आँख की पलक गिरने में जितना समय लगता है, उसे निमेष कहते हैं) में एक लाख योजन जाता है। यदि वह छः मास तक लगातार इसी गति से चलता रहे तो एक राजू होता है। यह औपचारिक राजू का परिमाण है।
तिर्यग्लोक के असंख्यात द्वीप समुद्र परिमाण पारमार्थिक राजू होता है।
लोक के भेदचौदह राज परिमाण लोक तीन भागों में बँटा हुआ हैऊर्ध्व लोक, मध्यलोक (तिर्यग्लोक) और अधोलोक। तिर्यग्लोक की अवगाहना अठारह सौ योजन है। तिर्यग्लोक के बीचोबीच जम्बूद्वीप में रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूभाग पर मेरु पर्वन के विल्कुल मध्य में पाठ रुचक प्रदेश हैं। वे गौस्तन के आकार वाले हैं। चार ऊपर की तरफ उठे हुए हैं और चार नीचे की तरफ । इन्हीं रुचक प्रदेशों की अपेक्षा से सभी दिशाओं तथा विदिशाओं
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
४७
varo
mmmmm .
काभान होता है।रुचक प्रदेशों के नव योजन ऊपर तथा नव योजन नीचे तक मध्य लोक (तिर्यग्लोक) है। तिर्यग्लोक के नीचे अधोलोक और ऊपर ऊर्ध्वलोक है। ऊर्ध्वलोक की अवगाहना कुछ कम सात राजू परिमाण और अधोलोक की कुछ अधिक सात राजू परिमाण है । रुचक प्रदेशों के नीचे असंख्यात करोड़ योजन जाने पर रत्नप्रभा पृथ्वी में चौदह राजू रूप लोक का मध्यभाग आता है अर्थात् वहाँ से ऊपर तथा नीचे लोक का परिमाण ठीक सात राजू रह जाता है।
लोक का संस्थानजामा पहन कर, कमर पर हाथ धर कर नाचते हुए भोपे का जैसा आकार होता है, वैसा ही लोक का आकार है अर्थात् लोक नीचे चौड़ा है, मध्य में संकड़ा हो जाता है, कुछ ऊपर जाकर फिर एक वार चौड़ा हो जाता है । सब से ऊपर जाकर फिर संकड़ा हो जाता है अर्थात् एक राजू चौड़ाई रह जाती है । तत्वार्थसूत्र के भाष्य में लोक की आकृति सुप्रतिष्टक और वज्र के समान बताई है। सुप्रतिष्टक एक प्रकार का वर्तन होता है जो नीचे से चौड़ा, बीच में संकड़ा तथा ऊपर कुछ चौड़ा होकर फिर संकड़ा हो जाता है। वज का आकार भी ऐसा ही होता है।
अधोलोक का संस्थान गाय की गर्दन के समान है क्योंकि अधोलोक में रही हुई सातों पृथ्वियाँ नीचे नीचे एक दूसरे से अधिक विस्तृत हैं।
तिर्यग्लोक झल्लरी (एक तरह का बाजा) या थाली सरीवा है। ऊर्चलोक मृदङ्ग (ढोल) के आकार वाला है अर्थात् बीच में चौड़ा और दोनों किनारों पर संकुचित है।
(तत्त्वार्थ सूत्र सभाध्य अध्याय ३, मुत्र ६ प्रवचनसारोद्धार में इसका स्वरूप यों दिया है- अधोलोक
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
श्री मंठिया जैन ग्रन्थमाना
उल्टे रक्खे हुए सकोरे सरीखा है और ऊर्बलोक एक दूसरे के मुँह पररक्खे हुए दोसकोरों सरीखा है । इस प्रकार नीचे एक सकोग उल्टा, उस पर एक सकोरा सीधा तथा उस पर फिर एक उल्टा रखने पर लोक का संस्थान बन जाता है।
लोक का नक्शा बनाने तथा उसके परिमाण को ठीक ठीक समझने के लिए नीचे लिखी विधि उपयोगी है
एक इञ्च लम्बी५७रेखाएँ खींचें। रेखाओं के बीच में इश्चका चौथा भाग व्यवधान रहना चाहिए। उन रेखाओं के दोनों तरफ दो लम्बी पंक्तियाँ खींचें। प्रत्येक पंक्ति १४ इञ्च लम्बी होनी चाहिए। इस प्रकार५६ कोष्ठक बन जाएँगे। यहॉ एक राजू की जगह एक इश्च की कल्पना की गई है। प्रत्येक कोष्ठक की लम्बाई एक राजू और राजू है। चार कोष्ठक मिलाने से एक वर्ग राजू हो जायगा अर्थात् एक राजू चौड़ाई और एक राजू लम्बाई हो जायगी। विशेष सुविधा के लिए उन लम्बी पंक्तियों के बीच फिर तीन लम्बी लाइनें खींचनी चाहिए। ऐसा करने पर प्रत्येक कोष्ठक की लम्बाई चौड़ाई वरावर अर्थात् राजू रह जायगी। इस कोष्ठक को राजू कहा जायगा। एक राजू चौड़ी और चौदह राजू लम्बी इस नाली में वर्ग राजुओं की संख्या २२४ है। इन्हें पादरज्जु, ग्वण्डरज्जु या पाव राजू भी कहा जा सकता है। यह नली लोक के बीचोबीच है। इसे त्रसनाड़ी कहा जाता है। इस के बाहर त्रस जीवों की उत्पत्ति नहीं होती।
(१) चौदह राजू परिमाण लोक के सब से नीचे वाले राजू में तमस्तमः प्रभा नाम की सातवीं पृथ्वी है। इसका विस्तार सात राज परिमाण है। एक राजू त्रसनाड़ी में है, वानी तरफ / तीन तीन । रखण्ड रज्जुओं को तिरछे रखने ।.
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
mamiwww.mmmmmmmmmmmm.
होते हैं। उस में से चार सनाड़ी में हैं और बारह बारह पसवाड़ों में। एक पूरे राजू भर्थात् चार खण्ड राजुओं की ऊँचाई तक चौड़ाई घरावर है। इस प्रकार तमस्तमःप्रभा पृथ्वी में ११२ खण्ड राजू हैं।
(२) तमस्तमः प्रभा के ऊपर एक राजू की अवगाहना वाली छठी पृथ्वी तमःप्रभा है। इसका विस्तार साढ़े छः राजू है। त्रसनाड़ी में एक राजू और उसके बाहर दोनों तरफ पौने तीन तीन राजू है। चौड़ाई में खण्ड रज्जु २६ हैं। चार त्रसनाड़ी में और ग्यारह ग्यारह दोनों तरफ । कुल खण्ड रज्जु १०४ हैं।
(३)तमःप्रभा के ऊपर एक राज़ की अवगाहना वाली पाँचवीं पृथ्वी धूमप्रभा है। इसका विस्तार छः राजू है। एक राजूत्रसनाड़ी में और अढ़ाई अढाई राजू दोनों तरफ।चौड़ाई में खण्डरज्जु २४ हैं। चार त्रसनाड़ी में और दस दस दोनों तरफ। कुल खण्डरज्जु ६६ हैं। सातवीं पृथ्वी से लेकर पांचवीं तक दोनों तरफ से एक एक खण्डरज्जु कम होता जाता है।
(४) धूमप्रभा के ऊपर चौथे राजू में एक राजू की अवगाहना वाली चौथी पृथ्वी पंक प्रभा है। इसका विस्तार पाँच राजू है । एक राजू त्रसनाड़ी में और दो दो राजू दोनों तरफ। चौड़ाई में खण्ड रज्जु २० हैं। चार सनाड़ी में और आठ अाठ दोनों तरफ। कुल खण्डरज्जु ८० हैं। ___ (५) पंक प्रभा के ऊपर पाँचवें राजू में वालुकाप्रभा है। इस की भी अवगाहना एक राजू है । चौड़ाई चार राजू है । एक राजू असनाड़ी में और डेढ़ डेढ़ राजू दोनों तरफ | चौड़ाई में खण्डरज्जु १६ हैं। चार बीच में और छह छह दोनों तरफ। कुल खंडरज्जु ६४ हैं।
(६) वालुका प्रभा के ऊपर छठे राजू में शर्कराप्रभा नाम की दूसरी पृथ्वी है । इस की अवगाहना एक राजू है। चौड़ाई अढाई राजू है । एक राजू त्रसनाड़ी के बीच है और पौन पौन अर्थात्
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
प्रत्येक तरफ । चौड़ाई में खण्डरज्जु १० हैं। चार सनाड़ी में और तीन तीन दोनों तरफ । कुल खण्डरज्ज ४० हैं।
(७) शर्करा प्रभा के ऊपर सातवें राजू में एक राज की अवगाइना वाली रत्न प्रभा है । इस की चौड़ाई भी एक राज है । रन प्रभा सनाड़ी से बाहर नहीं है। इस में तिरछे चार खण्ड रज्ज हैं। कुल सोलह खण्ड रज्जु हैं।
इन सातों पृथ्वियों में सात नरक हैं। इनका विस्तार इसके दूसरे भाग के बोल नं० ५६० में दिया गया है।
रत्नप्रभा के ऊपर नौ सौ योजन तक तथा भीतर नौ सौ योजन तक ति; लोक है, इसमें मनुष्य और तिर्यश्च निवास करते हैं। जम्बूद्वीप, लवण समुद्र,धातकी खण्ड द्वीप, कालोदधि समुद्र, इस प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। सब के बीच में एक लाख योजन लम्बा और एक लाख योजन चौड़ा जम्बूद्वीप थाली के आकार वाला है। उसे घेरे हुए दो लाख योजन चौड़ा चूड़ी के आकार वाला लवण समुद्र है। इसी प्रकार दुगुने दुगुने परिमाण वाले एक दूसरे को घेरे हुए असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं । सब के अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र है,जो असंख्यात हजार योजन विस्तार वाला है।
(८) रत्न प्रभा पृथ्वी के ऊपर नौ सौ योजन बाद ऊर्ध्वलोक शुरू हो जाता है। आठवें राजू के पहले दो खण्ड राजुओं तक चौड़ाई एक राज है। उनमें सनाड़ी से बाहर कोई खण्डराजू नही है। ऊपर के दो खण्ड राजुओं में चौड़ाई डेढ़ गज है अर्थात् आट राजू में लोक के नीचे का अाधा भाग एक राजू चौड़ा है और ऊपर का डेढ राजू चौड़ा है। आठवें राजू लोक में कुल २० रखण्ड राजू हैं। ___(6)नवें राजू के पहले रखण्ड में दो राजू चौड़ाई है । एक राजू
सनाड़ी में और आधाआधा राजू दोनों तरफ। उसमें खण्ड राजू
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
आठ हैं। दूसरे खण्ड में चौड़ाई ढाई राजू अर्थात् दस खण्डराजू है। तीसरे और चौथे में तीन राजू अर्थात् १२ खण्डरज्जु हैं ।
(१०) नवें राजू के ऊपर दसवें राजू के नीचे वाले श्राधे हिस्से अर्थात् दो खण्डों में चौड़ाई ४ राजू अर्थात् १६ खण्डराजू । ऊपर के दो खण्डों में पाँच राजू अर्थात् २० खण्ड रज्जु है । (११) ग्यारहवें राजू के नीचे वाले आधे हिस्से में पाँच राजू चौड़ाई है और ऊपर वाले आधे हिस्से में चार राजू चौड़ाई है। ( १२ ) बारहवें राजू के नीचे वाले दो खण्डों में चौड़ाई तीन राजू है और ऊपर वाले दो खण्डों में बढ़ाई राज है ।
५१
(१३) तेरहवें राजू के पहले एक खण्ड में अढ़ाई राजू चौड़ाई और ऊपर के तीन खण्डों में दो राजू है।
(१४) चौदहवें राजू के नीचे वाले दो खण्डों में डेढ़ राजू चौड़ाई है और ऊपर वाले दो खण्डों में एक राजू है ।
धोलोक में कुल ५१२ खण्डरज्जु हैं । अधोलोक के सात राजुओं के अट्ठाईस भाग करने पर प्रत्येक भाग में नीचे लिखे अनुसार खण्ड हैं-- पहले के चारों में अट्ठाईस अट्ठाईस (कुल ११२ ) । पाँचवें से लेकर आठवें तक छब्बीस छब्बीस ( कुल १०४ ) | नवें से लेकर वारहवें तक चौवीस चौवीस ( कुल ६६) । तेरहवें से लेकर सोलहवें तक बीस बीस ( कुल ८० ) । सतरहवें से लेकर बीसवें तक सोलह सोलह (कल ६४) । इक्कीसवें से लेकर चौवीसर्वे तक दस दस (कुल ४० ) । पच्चीसवें से लेकर अट्ठाईसवें तक चार चार (कुल १६) । अट्ठाईस विभागों अर्थात् पूरे सात राजनों के सब विभागों को मिला कर ५१२ खण्ड राज हो जाते हैं।
ऊर्ध्वलोक में ३०४ खण्ड रज्जु होते हैं। उसके भी अट्ठाईस खण्ड करने पर प्रत्येक खण्ड में खण्डरज्जु नीचे लिखे अनुसार हैंपहले भाग में ४, दूसरे में ४, तीसरे में ६, चौथे में ६, पाँचवें में
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
प्रत्येक तरफ । चौड़ाई में खण्डरज्जु १० हैं । चार त्रसनाड़ी में और तीन तीन दोनों तरफ । कुल खण्डरज्जु ४० हैं।
(७) शर्करा प्रभा के ऊपर सातवें राजू में एक राजू की अवगाहना वाली रत्न प्रभा है। इस की चौड़ाई भी एक राज है । रत्न प्रभा त्रसनाड़ी से बाहर नहीं है। इस में तिरछे चार खण्ड रज्जु हैं। कुल सोलह खण्ड रज्जु हैं।
इन सातों पृथ्वियों में सात नरक हैं। इनका विस्तार इसके दूसरे भाग के बोल नं० ५६० में दिया गया है।
रत्नप्रभा के ऊपर नौ सौ योजन तक तथा भीतर नौ सौ योजन तक तिर्खा लोक है, इसमें मनुष्य और तिर्यश्च निवास करते हैं। जम्बूद्वीप, लवण समुद्र,धातकी खण्ड द्वीप, कालोदधि समुद्र, इस प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्र है। सब के बीच में एक लाख योजन लम्बा और एक लाख योजन चौड़ा जम्बूद्वीप थाली के आकार वाला है। उसे घेरे हुए दो लाख योजन चौड़ा चूड़ी के आकार वाला लवण समुद्र है। इसी प्रकार दुगुने दुगुने परिमाण वाले एक दूसरे को घेरे हुए असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं। सब के अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र है,जो असंख्यात हजार योजन विस्तारवाला है।
(८) रत्न प्रभा पृथ्वी के ऊपर नौ सौ योजन वाद ऊर्ध्वलोक शुरू हो जाता है। आठवेंराजू के पहले दो खण्ड राजुओं तक चौड़ाई एक राज है। उनमें सनाड़ी से बाहर कोई खप्डराजू नहीं है। ऊपर के दो खण्ड राजुओं में चौड़ाई डेढ़ राजू है अर्थात् आठवें राजू में लोक के नीचे का आधा भाग एक राजू चौड़ा है और ऊपर का डेढ राज चौड़ा है। आठवें राजू लोक में कुल २० खण्ड राजू हैं।
(8) नवें राज के पहले खण्ड में दो राजू चौड़ाई है । एक राजू सनाड़ी में और आधा आधा राजू दोनों तरफ। उसमें रखण्ड राजू
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
५१
M
आठ हैं। दूसरे खण्ड में चौड़ाई ढाई राजू अर्थात् दस खण्डराज है। तीसरे और चौथे में तीन राजू अर्थात् १२ खण्डरज्ज हैं।
(१०) नवें राजू के ऊपर दसवे राजू के नीचे वाले श्राधे हिस्से अर्थात् दो खण्डों में चौड़ाई ४ राजू अर्थात् १६ खण्डराजू है। ऊपर के दो खण्डों में पाँच राज अर्थात् २० खण्ड रज्जु है।
(११) ग्यारहवें राज के नीचे वाले आधे हिस्से में पाँच राज चौड़ाई है और ऊपर वाले आधे हिस्से में चार राजू चौड़ाई है।
(१२) बारहवें राज के नीचे वाले दो खण्डों में चौड़ाई तीन राजू है और ऊपर वाले दो खण्डों में पढ़ाई राजू है।
(१३) तेरहवें राजू के पहले एक खण्ड में अढाई राजू चौदाई है और ऊपर के तीन खण्डों में दो राजू है।
(१४) चौदहवें राज के नीचे वाले दो खण्डों में डेढ़ राजू चौड़ाई है और ऊपर वाले दो खण्डों में एक राज है।
अधोलोक में कुल ५१२ खण्डरज्जु हैं। अधोलोक के सात राजुओं के अहाईस भाग करने पर प्रत्येक भाग में नीचे लिखे अनुसार खण्ड हैं-- पहले के चारों में अट्ठाईस अहाईस (कुल ११२)। पाँचवें से लेकर आठवें तक छब्बीस छब्बीस ( कुल १०४)। नवें से लेकरबारहवें तक चौवीस चौवीस (कल ९६)। तेरहवें से लेकर सोलहवें तक बीस बीस (कुल८०)। सतरहवें से लेकर बीसवेंतक सोलह सोलह (कुल ६४)। इक्कीसवें से लेकर चौवीसवेंतक दस दस (कुल ४०)।पच्चीसवें से लेकर अहाईसवें तक चार चार (कुल १६)। अहाईस विभागां अथोत् पूरे सात राजुओं के सब विभागों को मिला कर ५१२ खण्ड राजू हो जाते हैं। ___ ऊर्ध्वलोक में ३०४ खण्ड रज्जु होते हैं। उसके भी अहाईस खण्ड करने पर प्रत्येक खण्ड में खण्डरज्जु नीचे लिखे अनुसार हैंपहले भाग में ४,दूसरे में ४, तीसरे में ६, चौथे में ६,पाँचवें में
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
ranm
८,छठे में १०, सातवें में १२, आठवें में १२, नर्वे में १६,दसवें में १६,ग्यारहवें में २०,बारहवें में २०,तेरहवें में २०,चौदहवे में २०, पन्द्रहवें में १६, सोलहवें में १६, सतरहवें में १२, अठारहवें में १२ उन्नीसवें में १०, बीसवें में १०,इक्कीसवें में १०, बाईसवें में ८,तेईसर्वे में ८,चौवीसवें में ८,पच्चीसवें में ६, छब्बीसवें में ६,सत्ताईसवें में ४ और.अहाईसवें में भी ४ । कुल मिला कर ३०४ होते हैं। __रज्जु तीन प्रकार के होते हैं- (क) सूचीरज्जु (ख) प्रतररज्जु
और (ग) धनरज्जु । एक ही श्रेणी में रक्खे हुए चार खण्ड रज्जु मिल कर एक सूचीरज्जु होता है । सूचीरज्जु की लम्बाई एक राजू और मोटाई तथा ऊँचाई एक खण्डरज्जु होती है।
एक दूसरे पर रक्खे हुए चार सूचीरज्जुओं का एक प्रतर , रज्ज होता है। प्रतर रज्जु की लम्बाई और चौड़ाई पूरा राजू है
और मोटाई एक खण्ड राजू । इसमें सोलह खण्ड राजू होते हैं। चार प्रतर राजुओं को पास पास रखने पर एक घनराजू हो जाता
है। धनराज की लम्बाई,ऊँचाई और मोटाई सभी एक राजू हैं। • इसमें ६४ खण्ड राजू होते हैं।
अधोलोक में खण्ड राजुओं की संख्या ५१२ है। उन्हें १६ से भाग देने पर ३२ प्रतर राजों की संख्या निकल आती है। ऊर्ध्वलोक में १६ प्रतर राजू हैं । ३०४ को १६ से भाग देने पर इतनी ही संख्या निकल आती है। सारे लोक में ५१ प्रतररज्ज हैं।
सम्पूर्ण लोक में घन राजुओं की संख्या ३४३ है। यह संख्या जानने की विधि नीचे लिखे अनुसार है
नीचे से लेकर ऊपर तक लोक चौदह राजपरिमाण है। नीचे कुछ कम सात राजू,मध्य में एक राज, ब्रह्मलोक के मध्य में पाँच - राजू और लोक के अन्त में एक राजू विस्तार वाला है। वाकी स्थानों पर उसका विस्तार कम ज्यादह है। घन करने के लिए
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
लोक का आकार खयह राजमों की संख्या
राजू संख्या
80
.6000
Bole BlaDB Bale
8_8_B
-
- W
.
|
.
8
.
:
M
8
BOM.Mनक
0E
तरक
: IB B
6003
B.B8B BBBB_ _BBBBI
188
aag IB88
688 888
8.88 888
e a es la 1689 8 898
8a88 Bagal 88888 188888
8888 88888 888B8888
8888 18888B
8888881. 88888
_88888 88.8 78 8888881 88888
88888 19888a8 8888881
888888 AAAAAA ७ aAe88 १८ eaR AAI AB888
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
इसे समचतुरस्र अर्थात् चारों तरफ से समान बनाना चाहिए। ऊर्ध्वलोक में त्रसनाड़ी सात राजू परिमाण ऊँची तथा एक राजू चौड़ी है। उसके दाई और बाईं तरफ अधिक से अधिक लोक का विस्तार दो राजू परिमाण है । अगर बाएं पसवाड़े के दो भागों को उल्टा करके अर्थात् नीचे वाले भाग को ऊपर तथा ऊपर वाले को नीचे करके दाएं पसवाड़े के साथ जोड़ दिया जाय तो सब जगह बराबर दो राजू चौड़ा हो जायगा । उसके साथ
नाड़ी को मिलाने से तीन राजू चौड़ा और सात राजू लम्बा एक दण्ड बन जाता है । उसकी मोटाई ब्रह्मदेवलोक के पास पाँच राजू और दूसरी जगह कम ज्यादद्द रहेगी ।
अधोलोक में भी सनाड़ी सात राजू परिमाण है । उसके बाई और दाईं तरफ अधिक से अधिक तीन तीन राजू लोक विस्तार है। अगर उस के बाएं पसवाड़े को उल्टा करके दाई तरफ लगा दिया जाय तो तीन राजू चौड़ाई सब जगह हो जाएगी । उस में एक राजू नाड़ी मिलाने से चार राजू चौड़ा और सात राजू ऊँचा एक दण्ड बन जाता है। मोटाई में यह भाग कहीं सात राजू चौड़ा और कहीं उससे कम रहेगा ।
५४
चौड़ाई की तरह मोटाई को भी ऊपर लिखे अनुसार बैठाने से दोनों बराबर हो जाती हैं। इस प्रकार सात राजू लम्बा और सात राजू चौड़ा घनलोक बन जाता है। सात को तीन चार गुणा देने से ३४३ होते हैं, क्योंकि ७४७=४६ । ४६ ४७=३४३ | यही सारे लोक में घनराजुओं की संख्या है। बराबर लम्बाई, चौड़ाई तथा मोटाई वाली वस्तु के एक तरफ के परिमाण को इस प्रकार गुणा करने से धन का परिमारण निकल आता है। यह संख्या व्यवहार को लेकर बताई गई है।
निश्चय से तो २४६ घन रज्जु होते हैं। प्रत्येक खण्ड में खण्ड
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
राजओं की जो संख्या हो उसे उसी से गुणा करने पर उस खण्ड के वर्गखण्ड राजुओं की संख्या निकल आती है, जैसे लोकान्त खण्ड में चार खण्ड राजू हैं, उनका वर्ग १६ हो जायगा। इसी प्रकार ५६ खण्डों के वर्गों को मिलाने पर १५२६६ वर्ग खण्ड राजू होंगे। एक घन राजू में चौंसठ खण्ड राज होते हैं । इस लिए ऊपर की संख्या को ६४ से भाग देने पर २४६ निकल आते हैं। ___ ऊर्ध्वलोक के पहले ६ खण्डों में अर्थात् डेढ़ राजू तक पहले दो देवलोक हैं- सौधर्म और ईशान । उसके ऊपर चार खण्ड अर्थात् एक राज में सनत्कुमार और माहेन्द्र दो देवलोक हैं। उस के ऊपर दस खण्ड अर्थात् ढाई राज में ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र
और सहस्रार नामक चार देवलोक हैं। उसके ऊपर चार खण्ड अर्थात् एक राजू में आणत,प्राणत,पारण और अच्युत नामक चार देवलोक हैं। उसके बाद चार खण्डों में अर्थात् सब से ऊपर वाले राज में क्रमशःनववेयफ,पाँच अनुत्तर विमान और सिद्ध शिला
(प्रवचनमारोद्धार द्वार १४३, गाथा ६०-६१७ ) ( सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सुत्र, तृतीय अध्याय ) (भगवती शतक १३ उद्देशा ४)
(भगवती गतक ५ उद्देशा ६) ८४६-मार्गणास्थान चौदह __ मार्गणा अर्थात् गुणस्थान, योग, उपयोग आदि की विचारणा के स्थानों (विपयों)को मार्गणास्थान कहते हैं। गोम्मटसार के जीवकांड की गाथा १४० में इसकी व्याख्या नीचे लिखे अनुमार दी है
जाहि व जासु व जीवा, मग्गिज्जंते जहातहा दिहा। ताओ चोदस जाणे, सुयणाणे मरगणा होति ॥
अर्थात-जिन पदार्थों के द्वागअथवा जिन पर्यायों में जीव की विचारणा सर्वज्ञ की दृष्टि के अनुसार की जाय वे पर्याय यार्गणा स्थान हैं। वे चौदह है
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
५
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
गइ इंदिए य काये, जोए वेए कसायनाणेसु । संजम दसणलेस्सा, भवसम्मे सन्नि भाहारे ।
(कर्मप्रन्थ ४ गाथा ) अर्थात् - मार्गणास्थान के गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, सज्ञित्व और आहार ये चौदह भेद हैं।
(१) गति-जीव के जो पयोय गति नामकर्म के उदय से होत हैं और जिनके कारण जीव देव, मनुष्य, तिर्यञ्च या नारकी कहा जाता है, उसे गति कहते हैं।
(२) इन्द्रिय- अङ्गोपाङ्ग और निर्माण नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाले स्पर्शन, नेत्र श्रादि जिन साधनों से सरदी, गर्मी तथा काले पीले आदि विषयों का ज्ञान होता है वे इन्द्रिय हैं।
(३) काय- जिसकी रचना और वृद्धि औदारिक, वैक्रिय आदि यथायोग्य पुद्गल स्कन्धों से होती है ऐसे शरीर नामकर्म के उदय से बनने वाले शरीर को काय कहते हैं।
(४) योग-वीर्यशक्ति के जिस परिस्पन्द (हलन चलन) से गमन, भोजन आदि क्रियाएं होती हैं और जो परिस्पन्द शरीर, भाषा तथा मनोवर्गणा के पुद्गलों की सहायता से होता है, वह योग है।
(५) वेद- वेदमोहनीय कर्म के उदय से होने वाली कामचेष्टा जन्य मुख के अनुभव की इच्छा को वेद कहते हैं।
(६)कपाय-फिसी पर नाराज होना या आसक्त होना आदि मानसिक विकार जो कषायमोहनीय कर्म के उदय से होते हैं और कर्मबन्ध के कारण हैं व कषाय कहे जाते हैं।
(७)ज्ञान-वस्तु को विशेष रूप से जानने वाले चेतना शक्ति । के व्यापार (उपयोग) को ज्ञान कहते हैं। (८) संयम-कर्म वॉधने वाले कार्यों को छोड़ देना संयम है।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
www.w ~~~
५७
( 8 ) दर्शन - वस्तु को सामान्य रूप से जानने वाले उपयोग
को दर्शन कहते हैं ।
(१०) लेश्या - आत्मा के साथ कर्म का मेल कराने वाले परिणाम विशेष को लेश्या कहते हैं
1 (११) भव्यत्व - मोक्ष पाने की योग्यता को भव्यत्व कहते हैं। १२ ) सम्यक्त्व - आत्मा की अन्तर्मुखी मवृत्ति को सम्यक्त्व कहते हैं । सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद जीव बाह्य वस्तुओं की उपेक्षा करके आत्मचिन्तन की ओर झुकता है और मोक्ष की इच्छा करने लगता है । सम्यक्त्व वाला जीव तत्त्वों पर श्रद्धा करता है और सच्चे देव, गुरु और धर्म को ही मानता है । प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और स्तिक्य ये पाँच उसके लक्षण हैं ।
(१३) सञ्ज्ञित्व - विशेष प्रकार की मनःशक्ति अर्थात दीर्घ काल तक रहने वाली सञ्ज्ञा (समझ या बोध) का होना सञ्ज्ञित्व है। (१४) आहारकत्व - किसी न किसी प्रकार के आहार को ग्रहण करना आहारकत्व है। आहार तीन प्रकार का है
(क) ओज आहार - उत्पत्ति क्षेत्र में पहुँच कर अपर्याप्त अवस्था में तेजस और कार्मरण शरीर द्वारा जीव जिस आहार को ग्रहण करता है उसे ओजाहार कहते हैं।
(ख) लोमाहार - त्वचा और रोंगटों से ग्रहण किया जाने वाला आहार ।
(ग) कवलाहार - मुख द्वारा ग्रहण किया जाने वाला भन्न पानी आदि का आहार ।
मार्गणास्थान के अवान्तर भेद
(१) गति के चार भेद हैं- देवगति, मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति और नरकगति ।
(२) इन्द्रिय मार्गणास्थान के पाँच भेद- एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
mummomnananana
तेइन्द्रिय, चरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ।
(३) कायमागणास्थान के छः भेद- पृथ्वीकाय, अकाय, तेउकाय, वायुफाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय ।
(४)योग के तीन भेद-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। (५) वेद के तीन भेद- पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद । (६)कषाय के चार भेद- क्रोध, मान, माया और लोभ ।
(७) ज्ञानमार्गणा के आठ भेद-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंगज्ञान।
(८) संयममार्गणास्थान के सात भेद- सामायिफसंयम, छेदोपस्थापनीयसंयम, परिहारविशुद्धिसंयम, सूक्ष्मसम्परायसंयम, यथाख्यातसंयम, देशविरति और अविरति ।
(६) दर्शनमार्गणा के चार भेद- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन।
(१०) लेश्या के छः भेद-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या ।
(११) भव्यत्वमार्गणा के दो भेद-भव्य और अभव्य । (१२) सम्यक्त्वमार्गणा के छः भेद
(क) औपशमिक सम्यक्त्व-अनन्तानुबन्धी चार कषाय और दर्शनमोहनीय के उपशम से प्रकट होने वाला तत्त्वरुचि रूप आत्मपरिणाम औपशमिक सम्यक्त्व है। इसके दो भेद हैं- ग्रन्थिभेदजन्य और उपशमश्रेणिभावी । (अ) ग्रन्थिभेदजन्य औपशमिक सम्यक्त्व अनादि मिथ्यात्वी भव्य जीवों को होता है। इसके प्राप्त होने की प्रक्रिया निम्नलिखित है
जीव अनादिकाल से संसार में घूम रहा है और तरह तरह के दुःख उठा रहा है जिस प्रकार पर्वतीय नदी में पड़ा हुआ पत्थर लुढकते लुढकते इधर उधर टक्कर खाता हुअा गोल और चिकना
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
५६
unorrunun
बन जाता है, इसी प्रकार जीव भीअनन्त काल से दुःख सहते सहते कोमल और शुद्ध परिणामी वन जाता है। परिणामशुद्धि के कारण जीव आयु फर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम एक कोडाकोड़ी सागरोपम जितनी कर देता है। इसी परिणाम को शास्त्र में यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। यथामवृत्तिकरण वाला जीव राग द्वेष की मजबूत गांठ के पास तक पहुँच जाता है, किन्तु उसे भेद नहीं सकता, इसी को ग्रन्थिदेश प्राप्ति कहते हैं। कर्म और राग द्वेष की यह गांठ क्रमशः दृढ और गूढ़ रेशमीगाँठ के समान दुर्भेद्य है। यथाप्रत्तिफरण अभव्य जीवों के भी हो सकता है। कर्मों की स्थिति को कोडाकोड़ी सागरोपम के अन्दर करके वे भी ग्रन्थिदेश को माप्त कर सकते हैं किन्तु उसे भेद नहीं सकते। __ भव्य जीव जिस परिणाम से राग द्वेष की दुर्मेध ग्रन्थिको तोड़ कर लांघ जाता है,उस परिणाम को शास्त्र में भपूर्वकरण कहते हैं। इस प्रकार का परिणाम जीव को बारबार नहीं आता, कदाचित् ही आता है, इसी लिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं । यथामत्तिकरण तो अभव्य जीवों को भीअनन्त बार आता है किन्तु अपूर्वकरण भव्य जीवों को भी अधिक बार नहीं आता।
अपूर्वकरण द्वारा राग द्वेष की गांठ टूटने पर जीव के परिणाम अधिक शुद्ध हो जाते हैं,उस समय अनिवृत्तिकरण होता है । इस परिणाम को प्राप्त करने पर जीव सम्यक्त्व माप्त किए बिना नहीं लौटता। इसी लिए इसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। उस समय जीव की शक्ति और बढ़ जाती है। श्रनित्तिकरण की स्थिति अन्तमहूर्त प्रमाण है । इस का एक भागशेष रहने पर अन्तःकरण की क्रिया शुद्ध होती है अर्थात् अनिवृत्तिकरण के अन्त समय में मिथ्यात्व मोहनीय के कर्म दलिकों को आगे पीछे कर दिया
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
mon muamman जाता है। कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अन्त तक उदय में आने वाले कर्म दलिकों के साथ कर दिया जाता है और कुछ को अन्तर्मुहूर्त बीतने के बाद उदय में आने वाले कर्मदलिकों के साथ कर दिया जाता है। इससे अनिवृत्तिकरण के बाद का एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल ऐसा हो जाता है कि जिस में मिथ्यात्व मोहनीय का कोई कर्मदलिक नहीं रहता। अत एव जिसका अबाधा काल पूरा हो चुका है ऐसे मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के दो विभाग हो जाते हैं । एक विभाग वह जो अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उदय में रहता है और दूसरा वह जो अनिवृत्तिकरण के बाद एक अन्तर्मुहूर्त बीतने पर उदय में आता है। इन में से पहले विभाग को मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति और दूसरे को मिथ्यात्व की द्वितीय स्थिति कहते हैं। अन्तरकरण क्रिया के शुरू होने पर अनिवृत्तिकरण के अन्त तक तो मिथ्यात्व का उदय रहता है,पीछे नहीं रहता। अनिवृत्तिकरण बीत जाने पर औपशमिक सम्यक्त्व होता है । औपशमिक सम्यक्त्व के माप्त होते ही जीव कोस्पष्टया असंदिग्ध प्रतीति होने लगती है,जैसे जन्मान्ध पुरुष को नेत्र मिलने पर। मिथ्यात्वरूप महान् रोग हट जाने से जीव को ऐसा आनन्द प्राता है जैसा किसी पुराने और भयङ्कर रोगी को स्वस्थ हो जाने पर। उस समय तत्त्वों पर दृढ श्रद्धा हो जाती है। औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति अन्तमुहूर्त होती है, क्योंकि इसके बाद मिथ्यात्व मोहनीय के वे पुद्गल जिन्हें अन्तरकरण के समय अन्तर्मुहूर्त के वाद उदय होने वाले बनाया है, वे उदय में प्राजाते हैं या क्षयोपशम रूप में परिणत कर दिए जाते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व के काल को उपशान्ताद्धा तथा अन्तरकरण काल कहते हैं। प्रथम स्थिति के चरम समय में अर्थात् उपशान्ताद्धा के पूर्व समय में जीव विशुद्ध परिणाम से उस मिथ्यात्व के तीन पुञ्ज करता है जो औपशमिफ सम्यक्त्व के
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१
wwwwwwwwwwwwmro
बाद उदय में आने वाला होता है। जिस प्रकार कोद्रव धान्य (कोदों नाम के धान्य) को औषधियों से साफ करने पर इतना शुद्ध हो जाता है कि खाने वाले को बिल्कुल नशा नहीं आता । दूसरा भाग अर्द्धशुद्ध और तीसराअशुद्ध रह जाता है। इसी द्वितीय स्थितिगत मिथ्यात्व मोहनीय के तीन पुओं में से एक पुञ्ज इतना शद्ध हो जाता है कि उस में सम्यक्त्वघातक रस (सम्यक्त्व को नाश करने की शक्ति) नहीं रहता। दूसरा पुञ्ज प्राधा शुद्ध और तीसरा अशुद्ध ही रह जाता है। ___ औपशमिक सम्यक्त्व पूर्ण होने पर जीव के परिणामानुसार उक्त तीन पुओं में से कोई एक उदय में आता है। परिणामों के शुद्ध रहने पर शुद्ध पुञ्ज उदय में आता है। उस से सम्यक्त्व का घात नहीं होता । उस समय प्रकट होने वाले सम्यक्त्व को सायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । जीव के परिणाम अर्द्ध विशुद्ध रहने पर दूसरे पुञ्ज का उदय होता है और जीव मिश्रदृष्टि कहलाता है। परिणामों के अशुद्ध होने पर अशुद्ध पुञ्ज का उदय होता है और उस समय जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। __ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपशान्ताद्धा में जीव शान्त, प्रशान्त, स्थिर
और पूर्णानन्द हो जाता है। जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः आवलिकाएं वाकी रहने पर किसी किसी औपशमिक सम्यक्त्व वाले जीव के चढ़ते परिणामों में विघ्न पड़ जाता है अर्थात् उसकीशान्ति भङ्ग हो जाती है। उस समय अनन्तानुवन्धी काय का उदय होने से जीव सम्यक्त्व परिणाम को छोड कर मिथ्यात्व की ओर झुक जाता है। जब तक वह मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता अर्थात् जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः आवलिकाओं तक सास्वादन भाव का अनुभव करता है,उस समय जीव सास्वादन सम्यग्यदृष्टि कहा जाता है। औपशमिक सम्यक्त्व वाला जीव ही सास्वादन सम्यग्दृष्टि हो
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
wwwwwww
सकता है, दूसरा नहीं ।
उपशमश्रेणिभावी औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति चौथे, पाँचवें, छठे या सातवें में से किसी भी गुणस्थान में हो सकती है, परन्तु आठवें गुणस्थान में तो उसकी प्राप्ति अवश्य ही होती है । श्रौपशमिक सम्यक्त्व के समय आयुबन्ध, मरण, अनन्तानुबन्धी कषाय बन्ध तथा उसका उदय ये चार बातें नहीं होतीं किन्तु उससे गिरने पर सास्वादन भाव के समय उक्त चारों बातें हो सकती हैं।
(ख) अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से होने वाला तत्त्वरुचि रूप परिणाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है।
( ग ) ऊपर लिखी प्रकृतियों के क्षय से होने वाला तत्त्वरुचि रूप परिणाम क्षायिक सम्यक्त्व है। क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति केवली के समय में होने वाले मनुष्यों को ही होती है। जो जीव
युवन्ध करने के बाद इसे प्राप्त करते हैं वे तीसरे या चौथे भव में मोक्ष पाते हैं। अगले भव की आयु बाँधने से पहले जो जीव क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं वे उसी भव में मुक्त हो जाते हैं ।
(घ) औपशमिक सम्यक्त्व का त्याग कर मिथ्यात्व के अभिमुख होते समय जीव का जो परिणाम होता है, उसे सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं । इस की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः आवलिकाएं होती हैं । अनन्तानुवन्धी का उदय होने के कारण इस समय जीव के परिणाम निर्मल नहीं होते। सास्वादन में अतत्त्वरुचि अव्यक्त होती है और मिथ्यात्व में व्यक्त, यही दोनों में अन्तर है ।
(ङ) मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से होने वाले तव और तत्त्व दोनों की रुचि रूप मिश्र परिणाम को मिश्र सम्यक्त्व (सम्यङ् मिध्यात्व) कहते हैं ।
(च) जिस के होने से जीव जड़ चेतन का भेद न जान सके, आत्मोन्मुख प्रवृत्ति वाला न हो सके, मिथ्यात्व मोहनीय के उदय
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
AMAV
६३
से होने वाले जीव के ऐसे परिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं । हठ, care यदि दोष इसी के फल हैं ।
-
(१३) संज्ञी मार्गणा के दो भेद - संज्ञित्व और असंज्ञित्व | (१४) आहारक मार्गणा के दो भेद-आहारक और अनाहारक । ( कर्मग्रन्थ ४ )
८४७ - गुणस्थान चौदह
गुणों (आत्मशक्तियों) के स्थानों अर्थात् क्रमिक विकास की अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं ।
मोक्ष का अर्थ है आध्यात्मिक विकास की पूर्णता । यह पूर्णता एकाएक प्राप्त नहीं हो सकती। अनेक भवों में भ्रमण करता हुआ जीव धीरे धीरे उन्नति करके उस अवस्था को पहुँचता है। आत्मविकास के उस मार्ग में जीव जिन जिन अवस्थाओं को प्राप्त करता है, उन्हें गुणस्थान कहा जाता है। भारत के प्रायः सभी दर्शनों
जीव के विकास क्रम को माना है । परिभाषा तथा प्रतिपादन शैली का भेद होने पर भी सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर उनमें बहुत समानता मालूम पड़ती है ।
श्राध्यात्मिक विकास का विचार करते समय जीव को मुख्य तीन अवस्थाओं में बाँटा जा सकता है
(क) पहली अवस्था वह है जिस में जीव अनन्त काल से घूमता था रहा है । आत्मा स्थायी सुख और पूर्ण ज्ञान के लिए तरसता । दुःख और अज्ञान को विल्कुल पसन्द नहीं करता, फिर भी वह अज्ञान और दुःख के चक्कर में पढ़ा हुआ है । यहाँ दो प्रश्न खड़े होते हैं - आत्मा सुख और ज्ञान को क्यों पसन्द करता है ? तथा दुःख और अज्ञान से छुटकारा प्राप्त करने की इच्छा अनादि काल से होते हुए भी उसे छुटकारा क्यों नहीं मिलता ? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर शास्त्रकारों ने दिया है।
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
यह एक प्राकृतिक नियम है कि प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव को माप्त करने का प्रयत्न करती है। जब तक वह अपने स्वभाव को पूर्णतया माप्त न कर ले तब तक उसे शान्ति नहीं मिलती अर्थात् तब तक उस में स्वभाव को प्राप्त करने की प्रगति बराबर होती रहती है।पानी स्वभाव से ठण्डा होता है। अग्नि आदि के कृत्रिम उपायों से गरम होने पर भी वह शीघ्र अपने स्वभाव में आने का प्रयत्न करता है और ठण्डा हो जाता है। अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख जीव का स्वभाव है, इस लिए जीव भी उन्हें प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्न करता रहता है। जब तक अपने स्वभाव में लीन नहीं होता तब तक उसे शान्ति नहीं मिलती।
दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि जीव मुख तथा ज्ञान को चाहता हुआ भी उनकी प्राप्ति के वास्तविक उपाय को नहीं जानता । जैसे
रोगी कुपथ्य से होने वाले भयङ्कर परिणाम को भूल कर उसे सेवन फरने में ही सुख समझता है और सेवन करने के बाद भयङ्कर कष्ट उठाता है, उसी प्रकार जीव कामभोगों में मुख समझ कर उनका सेवन करता है और फिर भयङ्कर कष्ट उठाता है। वास्तविक सख का उपाय न जानने के कारण ही जीव अनन्त संसार में भटकता रहता है। अज्ञान और द्वेष के प्रबल संस्कारों के कारण वह वास्तविक सुख का अनुभव नहीं कर सकता। कभी थोड़ा सा भान होने पर भी वह सुख की प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति नहीं कर सकता।
अज्ञान चेतना का विरोधी है । इस लिए जब तफ अज्ञान की तीव्रता रहती है तब तक चेतना का स्फुरण वहुत मन्द होता है अर्थात् तब तक खरे सुख और उसके साधनों का भान नहीं होता। किसी विषय में सुख की धारणा करके आत्मा प्रवृत्त होता है, किन्तु परिणाम में निराशा होने से दूसरे विषय की तरफ दौड़ता है। दूसरे विषय में निराशा होने पर तीसरे की ओर झुकता है। जिस तरह
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmmmwwwx
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां माग mmmmwwwwwwwwwwwwwwwrwwwimmmmmmmwom भँवर जाल में पड़ी हुई लकड़ी चक्कर काटती रहती है उसी प्रकार जीव संसार चक्र में भटकता रहता है। अनन्त काल तक भटकने के बाद किसी किसी जीव का अज्ञान कुछ कम होता है तो भी राग
और द्वेष के कारण सच्चे सुख की ओर प्रवृत्त नहीं हो सकता। अज्ञान की पन्दता के कारण जीव को ऐसा मान बहुत बार होता है कि सुख और दुःख बाह्य वस्तुओं में नहीं है, अपने ही परिणामों के कारण आत्मा सुखी और दुखी होता है फिर भी राग और द्वेष की तीव्रता के कारण वह ठीक मार्ग में प्रवृत्ति नहीं कर सकता। मोह के कारण पूर्वपरिचित विषयों को ही सुख या दुःख का साधन मान कर उन्हीं में हर्प और विषाद का अनुभव करता है। ऐसे समय में जीव का कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता इस लिए वह विकास की ओर अग्रसर भी नहीं होता। इसी स्थिति को आध्यात्मिक विकास काल की स्थिति कहा जाता है।
(ख) अज्ञान तथा राग द्वेष के चक्र का बल सदा एक समान नहीं रहता। आत्मिक वल कर्मों के बल से अनन्तगुणा है, इस लिए आत्मा में जब शुभ भाव आते हैं तो कर्मों का वल एकदम घट जाता है। जिस प्रकार लाखों मन घास के लिए आग की एक चिनगारी पर्याप्त है, उसी प्रकार शुभ भाव रूपी आग कर्मों की महान् राशि को भस्मसात् कर देती है। जब आत्मा की चेतना जागृत होती है, राग और द्वेष कुछ ढीले पड़ते हैं तो आत्मा की शक्ति ठीक मार्ग पर काम करने लगती है। उसी समय आत्मा अपने ध्येय को निश्चित करके उसे प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय करता है और उसके लिए प्रवृत्ति भी करता है। उसी समय आध्यात्मिक विकास की नींव रखी जाती है । इसके बाद आत्मा अपनी ज्ञान
औरवीर्यशक्तियों द्वारा राग और द्वेष के साथ युद्ध करने लगता है। कोई आत्मा लगातार विजय प्राप्त करता जाता है और अन्त
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला -
में उनको समूल नष्ट करके कैवल्य अथवा मुक्ति प्राप्त कर लेता है। कोई कोई आत्मा राग द्वेष की प्रबलता के कारण एक आध बार हार भी जाता है तो फिर दुगुने उत्साह से प्रवृत्त होता है। पुराने अनुभव के कारण बढ़े हए ज्ञान और वीर्य से वह राग द्वेष को दबाता है। जैसे जैसे दवाने में सफल होता है उसका उत्साह और ज्ञान बढ़ता जाता है। उत्साहद्धि के साथ साथ आनन्द भी बढ़ता जाता है । इस प्रकारजीव राग द्वेष के बन्ध को निर्बल करता हुआ अपने निर्मल स्वरूप को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ता जाता है। इस अवस्थाको आध्यात्मिक विकास की अवस्था कहते हैं।
(ग) आध्यात्मिक विकास जब पूर्ण हो जाता है तो तीसरी अवस्था आती है। इस अवस्था में जीव अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इसी को सिद्धि, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण आदि शब्दों से कहा जाता है।
वैदिक दर्शन उपनिषद् तथा अध्यात्म शास्त्र के दूसरे ग्रन्थों में आत्मा के विकासक्रम को भी बताया गया है, किन्तु इसका व्यवस्थित तथा साङ्गोपाङ्ग वर्णन योग दर्शन पर रचे हुए व्यासभाष्य आदि में है। दूसरे ग्रन्थों में इतना पूर्ण नहीं है, इस लिये वैदिक दर्शनों में आत्मा के विकासक्रम की मान्यता इन्हीं ग्रन्थों से बताई गई है। __ योगदर्शन में महर्षि पतञ्जलि ने मोक्षसाधन के रूप में योग का वर्णन किया है। योग का अर्थ है आध्यात्मिक विकासक्रम की भूमिकाएं । योग जहॉ से प्रारम्भ होता है वह आत्मविकास की पहली भूमिका है। योग की पूणेता के साथ ही आत्मविकास भी पूर्ण हो जाता है। योग प्रारम्भ होने से पहले की अवस्था आध्यात्मिक अविकास की अवस्था है। योग भाष्यकार महर्षि व्यास ने चित्त की पाँच भूमियाँ वताई हैं
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
६७
(१) क्षिप्त (२) मूढ (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र (५) निरुद्ध । इन पाँचों में पहली दो अथोत् क्षिप्त और मूढ अविकासको अवस्थाए हैं। तीसरी विक्षिप्त भूमिका अविकास और विकास का सम्मेलन है, किन्तु उस में विकास की अपेक्षा अविकास का वल अधिक है। चौथी एकाग्र भूमिका में विकास का बल अधिक है। वह बढ़ते हुए पाँचवीं निरुद्ध भूमिका में पूरा हो जाता है । पाँचवीं भूमिका के बाद मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
वौद्धदर्शन बौद्ध साहित्य के मूल ग्रन्थ पिटक कहे जाते हैं। पिटकों में अनेक जगह आध्यात्मिक विकास के क्रम का व्यवस्थित और स्पष्ट वर्णन है । वहॉ व्यक्ति की छः स्थितियाँ की गई हैं-(१) अन्धपुथुञ्जन (२) कल्याणपुथुञ्जन (३) सोतापन्न (४) सकदागामी (५)ोपपातिक (६) अरह। पहली स्थिति आध्यात्मिक विकास का काल है। दूसरी स्थिति में विकासथोड़ाऔर अविकास अधिक होता है। तीसरी से छठी तक आध्यात्मिक विकास बढ़ता जाता है। छठी स्थिति में वह अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। इसके बाद जीव निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
जैन दर्शन जैन आगमों में आध्यात्मिक विकासक्रम के लिए चौदह गुणस्थान बताए गए हैं। इनके नाम और स्वरूप आगे दिए जाएंगे। चौदह गुणस्थानों में पहला अविकास काल है। दूसरे और तीसरे गुणस्थान में विकास का किंचित् स्फुरण होता है। उनमें प्रवलता अविकास की ही रहती है । चौथे गुणस्थान में जीव विकास की ओर निश्चित रूप से बढ़ता है। चौदहवें गुणस्थान मे विकास अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है और उसके बाद मोत हो जाता है।
इसी प्राचीन विकास क्रम को हरिभद्रसूरी ने दूसरे प्रकार से
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८ . श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला,
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm लिखा है। अविकास काल को उन्होंने ओघदृष्टि तथा विकास काल को सदृष्टि का नाम दिया है। सदृष्टि के मित्रा, तारा, बला,दीमा,स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परानाम वाले आठ विभाग हैं। इनमें विकास का क्रम उत्तरोत्तर अधिक होता जाता है। मित्रा आदि पहली चार दृष्टियों में विकास होने पर भी अज्ञान और मोह की प्रबलता होती है। स्थिरा आदि पिछलीचार दृष्टियों में ज्ञान और चारित्र की अधिकता तथा मोह की कमी हो जाती है ।
दूसरे प्रकार के वर्णन में हरिभद्रसूरि ने आध्यात्मिक विकास के क्रम को योग के रूप में वर्णन किया है। योग के उन्होंने पॉच भाग किए हैं- अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिक्षय । ___ ये दोनों प्रकार के विचार प्राचीन जैन गुणस्थान के विचारों का नवीन पद्धति से वर्णन मात्र है।
आजीवक दर्शन इस दर्शन का स्वतन्त्र साहित्य और सम्प्रदाय नहीं है, तो भी इनके आध्यात्मिक विकासक्रम सम्बन्धी विचार वौद्ध ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । आजीवक दर्शन में आठ पेडियाँ मानी गई हैंमन्दा, खिड्डा, पदवीमंसा, उजुगत, सेख, समण, जिन और पन्न। इन आठों में पहले की तीन अविकास काल तथा पीछे की पाँच विकासकाल की हैं। उसके बाद मोक्ष हो जाता है।
गुणस्थान का सामान्य स्वरूप आत्मा की अवस्था किसी समय अज्ञानपूर्ण होती है। यह अवस्था सव से प्रथम होने के कारण निकृष्ट है। उस अवस्था से आत्मा अपने खाभाविक चेतना, चारित्र आदि गुणों के विकास द्वारा निकलता है। धीरे धीरे उन शक्तियों के विकास के अनुसार क्रान्ति करता हुआ विकास की पूर्णता अर्थात् अन्तिम हद्द को पहुँच जाता है। पहली निकृष्ट अवस्था से निकल कर विकास की अन्तिम
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
अवस्था को प्राप्त करना ही आत्मा का परमसाध्य है । इस परमसाध्य की सिद्धि होने तक आत्मा को एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, ऐसी अनेक अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है। इन्हीं अवस्थाओं की श्रेणी को विकासक्रम या उत्क्रान्तिमार्ग कहते हैं । जैन शास्त्रों में इसे गुणस्थान कहा जाता है । इस विकासक्रम के समय होने वाली आत्मा की भिन्न भिन्न अवस्थाओं का संक्षेप १४ भागों में कर दिया है। ये चौदह भाग गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं । दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान, संक्षेप, ओघ, सामान्य और जीवसमास शब्दों से भी कहे जाते हैं। चौदह गुणस्थानों में उत्तरोत्तर विकास की अधिकता है। विकास की न्यूनाधिकता श्रात्मिक स्थिरता की न्यूनाधिकता पर अवलम्बित है। स्थिरता, समाधि, अन्तर्दृष्टि, स्वभावरमण, स्वोन्मुखता, इन सब शब्दों का मतलब एक ही है। स्थिरता का तारतम्य (न्यूनाधिकता ) दर्शन और चारित्र की शुद्धि के तारतम्य पर निर्भर है। दर्शनशक्ति का जितना अधिक विकास, जितनी अधिक निर्मलता होती है उतना ही अधिक सद्विश्वास, सद्रुचि, सद्भक्ति, सत् श्रद्धा और धर्म का
ग्रह दृढ़ होता जाता है। दर्शन शक्ति के विकास के बाढ चारित्र शक्ति के विकास का नम्बर आता है । चारित्र शक्ति का जितना अधिक विकास तथा निर्मलता होती है उतनी ही क्षमा, सन्तोष, गाम्भीर्य, इन्द्रियजय आदि गुणों का आविर्भाव होता है । जिस क्रियाकाण्ड से इन गुणों का विकास न हो उसे चारित्र का अङ्ग नहीं कहा जा सकता । दर्शन और चारित्र की विशुद्धि के साथ साथ आत्मा की स्थिरता भी बढ़ती जाती है। दर्शन व चारित्र शक्ति की विशुद्धि का बढ़ना घटना उन शक्तियों के प्रतिबन्धक (रोकने वाले) संस्कारों की न्यूनता, अधिकता या मन्दता, तीव्रता पर अवलम्बित है। पहले तीन गुणस्थानों में दर्शन और चारित्र का
៩៩
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
...
ANANA
.
.
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
mma wommmmmmmmmmmmm विकास इस लिए नहीं होता कि उन में उन शक्तियों के प्रतिवन्धक दर्शनमोह और चारित्रमोह की अधिकता है। चौथे गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में प्रतिबन्धक संस्कार मन्द हो जाते हैं इस लिए उन गुणस्थानों में शक्तियों का विकास आरम्भ हो जाता है।
इन प्रतिबन्धक (कषाय) संस्कारों के स्थूल दृष्टि से चार विभाग किए गए हैं। ये विभाग कषाय के संस्कारों की विपाक शक्ति के तरतमभाव (न्यूनाधिक) पर आश्रित हैं। उनमें से पहला विभाग जो दर्शन शक्ति का प्रतिबन्धक है, उसे दर्शनमोह तथा अनन्तानुबन्धी कहते हैं। शेष तीन विभाग चारित्र शक्ति के प्रतिबन्धक हैं। उन को यथाक्रम अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कहते हैं।
प्रथम विभाग की तीव्रतान्यूनाधिक परिमाण में प्रथम दोगुणस्थानों (भूमिकाओं) तक रहती है। इसीलिए पहले दो गुणस्थानों में तथा तीसरे में मिथ्यात्व का उदय होने से दर्शन शक्ति के आवि
र्भाव का सम्भव नहीं है। कषाय के उक्त प्रथम भाग की अल्पता, मन्दता या अभाव होते ही दर्शन शक्ति व्यक्त होती है । इसी समय
आत्मा की दृष्टि खुल जाती है। दृष्टि के इस उन्मेष को विवेकख्याति, भेदज्ञान, प्रकृति पुरुषान्यता, साक्षात्कार और ब्रह्मज्ञान आदि नामों से कहा जाता है।
इसी शुद्ध दृष्टि से आत्मा जड़ चेतन का भेद असंदिग्ध रूप से जान लेता है। यह उसके विकासक्रम की चौथी भूमिका है। इसी भूमिका से वह अन्तदृष्टि बन जाता है और अपने वास्तविक परमात्मस्वरूप को देखने लगता है। पहले के तीन गुणस्थानों में दर्शनमोह और अनन्तानुवन्धी कषाय की प्रबलता के कारण प्रात्मा अपने परमात्मभाव को नहीं देख सकता। उस समय वह बहिदृष्टि होता है । दर्शन मोह आदि के वेग के कारण उस समय उस
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
की दृष्टि इतनी अस्थिर व चंचल बन जाती है कि जिससे वह अपने में ही वर्तमान परमात्मस्वरूप या ईश्वरत्व को नहीं देख सकता। ईश्वरत्व भीतर ही है किन्तु वह अत्यन्त सूक्ष्म है इस लिए स्थिर व निर्मलदृष्टि के द्वारा ही उसका दर्शन किया जा सकता है। चौथा गुणस्थान परमात्मभाव या ईश्वरत्व के दर्शन का द्वार है, वहाँ पहुँचने पर जीव अन्तरात्मा हो जाता है, अर्थात् बाह्य वस्तुओं की ओर से हट कर आत्मचिन्तन ही उसका मुख्य कार्य हो जाता है । आत्मविकास के लिए सभी वस्तुओं को यहाँ तक कि तीन लोक की विभूतियों को छोड़ने के लिए तैयार रहता है । पहले तीन गुणस्थानों में जीव वहिरात्मा होता है अर्थात् उस समय वस्तुओं की ओर विशेष झुकाव रहता है ।
चौथे गुणस्थान में दर्शन मोह का वेग कम होने पर भी चारित्र शक्ति को रोकने वाले संस्कारों का वेग रहता है अर्थात् उस समय अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहता है, इस लिए जीव किसी प्रकार का त्याग या नियम नहीं कर सकता । पाँचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम हो जाता है इस से जीव की चारित्र शक्ति कुछ कुछ प्रकट होती है और वह इन्द्रियजय और नियम आदि को थोड़े बहुत रूप में करता है | श्रावक के वारह व्रत तक अङ्गीकार करता है। इसी को देशविरत चारित्र कहते हैं। छठे गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कपाय भी मन्द हो जाता है, उसमें आत्मा वाह्य भोगों से हट कर पूरा त्यागी वन जाता है। छठे गुणस्थान में संज्वलन कषाय के विद्यमान रहने से कभी कभी क्रोध आदि आ जाते हैं किन्तु उनसे चारित्र का विकास नहीं दवता केवल उसमें थोड़ा सा मैल आ जाता है | चारित्र की शुद्धि और स्थिरता में कुछ फरक पड़ जाता है। जिस प्रकार वायु के सामान्य झकोरे से दीपक की शिखा कम ज्यादह होती रहती है
७१
www
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
SAAAAAAAA ^
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
n
~~~
किन्तु बुझती नहीं, इसी प्रकार संज्वलन कषाय के उदय से चारित्र की निर्मलता में फरक पड़ जाता है, आवरण नहीं होता । आत्मा जब संज्वलन कषाय को दबाता है तो सातवें गुणस्थान से बढ़ता हुआ ग्यारहवें या बारहवें गुणस्थान तक पहुँचता है। उपशमश्रेणी वाला जीव ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है और वहाँ की स्थिति पूरी होने पर वापिस दसवें गुणस्थान में आ जाता है । फिर उपशान्त कर्म उदय में आ जाने से नीचे के गुणस्थानों में आ जाता है। चपकश्रेणी वाला जीव दसवें गुणस्थान में उन प्रकृतियों का सर्वथा क्षय कर ग्यारहवें में न जाकर सीधा बारहवें में चला जाता है | दर्शन और चारित्र दोनों शक्तियाँ उस समय पूर्ण विकसित हो जाती हैं। इसके बाद जीव तेरहवें गुणस्थान में पहुँचता है। चारों घाती कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से उस समय जीव को केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति हो जाती है। फिर भी मन, वचन और काया (शरीर) रूप तीन योगों का सम्बन्ध रहने के कारण आत्मा की स्थिरता पूर्ण नहीं होने पाती । चौदहवें गुणस्थान में वह पूर्ण हो जाती है। इस के बाद शीघ्र ही शरीर छूट जाता है और आत्मा अपने स्वभाव में लीन हो जाता है। इस के बाद आत्मा सदा एक सा रहता है, इसी को मोक्ष कहते हैं। आत्मा की शक्तियों का पूर्ण विकास मोक्ष है ।
}
गुणस्थानों के नाम और स्वरूप इस प्रकार हैं
(१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान- मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जिस व्यवस्था में जीव की दृष्टि (श्रद्धा या ज्ञान ) मिथ्या (उल्टी) होती है उसे मिध्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं। जैसे धतूरे के बीज को खाने वाले अथवा पीलिए रोग वाले को सफेद चीज भी पीली दिखाई देती है अथवा पित्त के प्रकोप वाले रोगी को मिश्री भी कड़वी लगती है उसी प्रकार मिथ्याखी जीव कूदेव में देव वृद्धि, कुरु में
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
wwwnnnone
गुरु बुद्धि और कुधर्म में धर्म बुद्धि रखता है। जीव की इसी अवस्था को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं।
(२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- जो जीव औपशमिक सम्यक्स वाला है परन्तु अनन्तानुबन्धी कपाय के उदय से सम्यक्त को छोड़ कर मिथ्याव की ओर झुक रहा है, वह जीव जब तक मिथ्यास प्राप्त नहीं करता तब तक सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है। जीव की इस अवस्था कोसास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं। इसकी स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः पावलिका है।
इस गुणस्थान में यद्यपिजीव का झुकाव मिथ्याल की ओर होता है तथापि जिस प्रकार खीर खाकर उसका वमन करने वाले मनुष्य कोखीर का विलक्षण स्वाद अनुभव में आता है इसी प्रकार सम्यक्ख से गिर कर मिथ्याल की ओर झुके हुए जीव को भी कुछ काल के लिए सम्यक्त गुण का आस्वाद अनुभव में आता है। अत एव इस गुणस्थान को सास्वादन सम्यग्दृष्टि गणस्थान कहते हैं।
(३) सम्यमिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान-मिश्रमोहनीय के उदय से जब जीव की दृष्टि कुछ सम्यक् (शुद्ध) और कुछ मिथ्या (अशुद्ध) रहती है उसे सम्यमिथ्यादृष्टि कहा जाता है और जीव की इस अवस्था को सम्यमिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कपाय का उदय न रहने से प्रात्मा में शुद्धता एवं मिथ्यात्व मोहनीय का उदय रहने से अशुद्धता रहती है, इसी लिए इस गणस्थान में मिश्र परिणाम रहते हैं। जैसे गुड मिले हुए दही का स्वाद कुछ मीठा और कुछ खट्टा होता है, इसी प्रकार इस अवस्था में जीव की श्रद्धा कुछ सच्ची तथा कुछ मिथ्या होती है। उस समय जीव किसी बात पर दृढ होकर विश्वास नहीं करता। इस गुणस्थान के समय बुद्धि में दुर्बलता सीआजाती है। इस कारण से जीव सर्वज्ञ द्वारा कहे गए तत्वों पर न तो एकान्त
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
रुचि करता है और न एकान्त अरुचि। जिस प्रकार नारिकेल द्वीप निवासी पुरुष प्रोदन (भात) के विषय में न रुचि रखते हैं,न अरुचि। जिस द्वीप में प्रधानतया नारियल पैदा होते हैं,वहाँ के निवासियों ने चावल आदि अन्न न तो देखा है और न सुना है। इससे पहले बिना देखे और बिना सुने अन्न को देख कर वे न तोरुचि करते हैं और न अरुचि,किन्तु समभाव रखते हैं इसी प्रकार सम्यमिथ्यादृष्टि जीव भी सर्वज्ञ कथित मार्ग पर प्रीति या अप्रीति कुछ न करके समभाव रखता है। इस प्रकार की स्थिति अन्तर्मुहूर्त ही रहती है। इसके बाद सम्यक्त्व या मिथ्यात्व इन दोनों में से कोई प्रबल हो जाता है,अत एव तीसरे गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मानी गई है।
(४)अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-सावध व्यापारों को छोड़ देना अर्थात् पापजनक व्यापारों से अलग हो जाना विरति है। चारित्र और व्रत, विरति का ही नाम है। जो जीव सम्यग्दृष्टि हो कर भी किसी प्रकार के व्रत को धारण नहीं कर सकता वह जीव भविरतसम्यग्दृष्टि है और उसका स्वरूपविशेष अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। अविरत जीव सात प्रकार के होते हैं
(क) जो व्रतों को न जानते हैं, न स्वीकारते हैं और न पालते हैं, ऐसे साधारण लोग।
(ख) जो व्रतों को जानते नहीं, स्वीकारते नहीं किन्तु पालते हैं, ऐसे अपने श्राप तप करने वाले तपस्वी।
(ग) जो व्रतों को जानते नहीं किन्तु स्वीकारते हैं और स्वीकार करपालतेनहीं,ऐसे ढीले पासत्थेसाधुजोसंयमलेफर निभाते नहीं।
(घ) जिनकोव्रतों का ज्ञान नहीं है किन्तु उनका स्वीकार तथा पालन घरावर करते हैं, ऐसे अगीतार्थ मुनि।
(ङ) जो व्रतों को जानते हुए भी उनका स्वीकार तथा पालन नहीं करते, जैसे श्रेणिक, कृष्ण आदि।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
७५
(च) जोव्रतों को जानते हुए भी उनका स्वीकार नहीं कर सकते किन्तु पालन करते हैं जैसे अनुत्तर विमानवासी देव।
(छ) जो व्रतों को जान कर स्वीकार कर लेते हैं किन्तु पीछे उनका पालन नहीं कर सकते जैसे संविनपातिक। __ सम्यग्ज्ञान, सम्यग्ग्रहण (अच्छी तरह अंगीकार करना) और सम्यक्पालन से ही व्रत सफल होते हैं। जिन को व्रतों का अच्छी तरह ज्ञान नहीं है, जो व्रतों को विधिपूर्वक ग्रहण नहीं करते और जो व्रतों का पालन नहीं करते वे जैसे तैसे व्रत पाल भी लेवें तो उनसे पूरा फल नहीं होता। उपरोक्त सात प्रकार के अविरतों में से पहले चारअविरत जीव तोमिथ्याष्टिही हैं क्योंकि उन्हें व्रतों का यथार्थज्ञान ही नहीं है। पिछले तीन प्रकार के अविरत जीव सम्यग्दृष्टि हैं क्योंकि वे व्रतों का यथाविधि ग्रहण या पालन न कर सकने पर भी उन्हें अच्छी तरह जानते हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि कोई जीव औपशमिक सम्यक्त्व वाले होते हैं और कोई नायिक सम्यक्स वाले होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि जीव व्रत-नियमादि को यथावत् जानते हुए भी स्वीकार तथा पालन नहीं कर सकते,क्योंकि उन्हें अप्रत्याख्यानावरण का उदय रहता है। अपत्याख्यानावरण कषाय का उदय चारित्र के ग्रहण तथा पालन को रोकता है।
(५)देशविरतगुणस्थान-प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जो जीव पापजनक क्रियाओं से सर्वथा निवृत्त न होकर एकदेश से निवृत्त होते हैं वे देशविरत या श्रावक कहलाते हैं, ऐसे जीवों के स्वरूप को देशविरत गुणस्थान कहते हैं । कोई श्रावक एक व्रत को धारण करता है और कोई दो व्रतों को। इस प्रकार अधिक से अधिक व्रत धारण करने वाले श्रावक ऐसे भी होते हैं जो पापकर्मों कोदो करण तीन योग से छोड़ देते हैं। अनुमति तीन प्रकार की है-प्रतिसेवनानुमति, प्रतिश्रवणानुमति, संवासानुमति।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
'श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
"
अपने या दूसरे के लिए बने हुए भोजन आदि का उपभोग करना 'प्रतिसेवनानुमति है। पुत्र आदि किसी सम्बन्धी के द्वारा किए गए पापकर्म को सुन कर भी पुत्र आदि को उस पापकर्म से न रोकना 'प्रतिश्रवणानुमति' है।पुत्र आदि अपने सम्बन्धियों के पापकर्म में प्रवृत्त होने पर उनके ऊपर सिर्फ ममता रखना अर्थात् न तो पापकर्मों को सुनना और न उनकी प्रशंसा करना 'संवासानुमति' है। जोश्रावक पापजनक आरम्भों में किसी प्रकार से योग नहीं देता, केवल संवासानुमति को सेवता है वह अन्य सब श्रावकों से श्रेष्ठ है।
(६) प्रमत्तसंयतगुणस्थान- जो जीवपापजनक व्यापारों से सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं वे ही संयत (मुनि) हैं। संयत भीजव तक प्रमाद का सेवन करते हैं तब तक प्रमत्तसंयत कहलाते हैं और उनका स्वरूप विशेष प्रमत्तसंयत गुणस्थान है । संयत (मुनि) के सावध व्यापार का सर्वथा त्याग होता है। वे संवासानुमति का भी सेवन नहीं करते। छठे गुणस्थान से लेकर आगे किसी गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कपाय का उदय नहीं रहता। इसी लिए वहाँ सावध व्यापार का सर्वथा त्याग होता है।
(७)अप्रमत्तसंयतगणस्थान-जो मुनि निद्रा, विषय, कपाय, विकथा आदिप्रमादों कासेवन नहीं करते वे अप्रमत्तसंयत हैं और उनका स्वरूप विशेष अप्रमत्तसंयतगुणस्थान है। प्रमाद सेवन से ही श्रात्मा अशुद्ध होता है इस लिए सातवें गुणस्थान से आत्मा उत्तरोत्तर शुद्ध होने लगता है। सातवें गुणस्थान से लेकर भागे सभी गुणस्थानों में वर्तमान मुनि प्रमाद का सेवन नहीं करते, वे अपने खरूप में सदा जागृत रहते हैं।
(८)नियट्टि (निवृत्ति) वादर गुणस्थान-जिस जीव के अनन्ता. नुवन्धी,अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया तथा लोभ चारों निवृत्त हो गए हों उसके स्वरूप विशेप को
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
७७
नियट्टिवादर गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान से दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं-उपशमश्रेणी और चपक श्रेणी। उपशमश्रेणी वाला जीव मोहनीय की प्रकृतियों का उपशम करता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है और तपक श्रेणी वाला जीव दसवें से सीधा बारहवें गुणस्थान में जाकर अपडिबाई (अप्रतिपाती) हो जाता है। ___ जो जीव आठवें गुणस्थान को प्राप्त कर चुके हैं, जो प्राप्त कर रहे हैं और जो प्राप्त करेंगे उन सब जीवों के अध्यवसाय स्थानों (परिणाम भेदों) की संख्या असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के वरावर है। आठवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। अन्तमुहूर्त के असंख्यात समय होते हैं जिनमें से प्रथम समयवर्ती तीनों काल के जीवों के अध्यवसाय भी असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के तुल्य हैं। इस प्रकार दूसरे तीसरे आदि प्रत्येक समयवर्ती त्रैकालिक जीवों के अध्यवसाय भी गणना में असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के बराबर ही हैं। असंख्यात संख्या के असंख्यात प्रकार हैं। इस लिए एक एक समयवर्ती त्रैकालिक जीवों के अध्यवसायों की संख्या और सब समयों में वर्तमान अकालिक जीवों के अध्यवसायों की संख्या दोनों असंख्यात ही हैं, किन्तु असंख्यात होने पर भी वे दोनों तुल्य नहीं हैं।।
यद्यपि आठवें गुणस्थान में रहने वाले तीनों कालों के जीव अनन्त हैं तथापि उनके अध्यवसाय असंख्यात ही होते हैं। इस का कारण यह है कि समान समयवर्ती जीवों के अध्यवसाय यद्यपि आपस में जुदे जुदे (न्यूनाधिक शद्धि वाले) होते हैं, तथापि समसमयवर्ती बहुत जीवों के अध्यवसाय तुल्य शुद्धि वाले होने से जुदे जुदे नहीं माने जाते । प्रत्येक समय के असंख्यात अध्यवसायों में से जो अध्यवसाय कम शुद्धि वाले होते है वे जघन्य तथा जो अध्य
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला rrrrrrmmmmmmmmmmmmmwwww mmmmmmmmmmmmmm
वे उत्कृष्ट कहे जाते हैं। इस प्रकार एक वर्ग जघन्य अध्यवसायों का होता है और दूसरा उत्कृष्ट अध्यवसायों का। इन दो वर्गों के बीच में असंख्यात वर्ग हैं जिन के सब अध्यवसाय मध्यम कहलाते हैं। प्रथम वर्ग के जघन्य अध्यवसायों की अपेक्षा अन्तिम वर्ग के उत्कृष्ट अध्यवसायों की शुद्धि अनन्तगुणी अधिक मानी गई है। बीच के सब वर्गों में पूर्व पूर्व वर्ग के अध्यवसायों की अपेक्षा पर पर के अध्यवसाय विशेष शुद्ध माने जाते हैं । सामान्यतः इस प्रकार माना जाता है कि समसमयवर्ती अध्यवसाय एक दूसरे से अनन्तभाग अधिक शुद्ध,असंख्यात भाग अधिक शुद्ध, संख्यात भाग अधिक शुद्ध, संख्यात गुण अधिक शुद्ध, असंख्यात गुण अधिक शुद्ध और अनन्तगुण अधिक शुद्ध होते हैं। शुद्धि के इन छह प्रकारों को शास्त्र में षट् स्थान कहते हैं। प्रथम समय के अध्यवसायों की अपेक्षा दूसरे समय के अध्यवसाय भिन्न ही होते हैं
और प्रथम समय के उत्कृष्ट अध्यवसायों से दूसरे समय के जघन्य अध्यवसाय भी अनन्त गण विशुद्ध होते है। इस प्रकार अन्तिम समय तक पूर्व पूर्व समय के अध्यवसायों से पर पर समय के अध्यवसाय भिन्न भिन्न समझने चाहिएं तथा पूर्व पूर्वेसमय के उत्कृष्ट अध्यवसायों की अपेक्षा पर पर समय के जघन्य अध्यवसाय भी अनन्त गुण विशुद्ध समझने चाहिएं। __ भाठवें गुणस्थान के समय जीव पाँच वस्तुओं का विधान करता है। जैसे-स्थितिघात,रसघात,गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अपूर्वस्थिति बन्ध।
(क)जो कर्म दलिक भागे उदय में आने वाले हैं,उन्हें अपवर्तनाकरण के द्वारा अपने अपने उदय के नियत समयों से हटा देना अर्थात् ज्ञानावरण आदि कर्मों की लम्बी स्थिति को अपवर्तनाकरण के द्वारा घटा देना स्थितिघात है।।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
www
७६
ww~
(ख) बँधे हुए ज्ञानादि कर्मों के प्रचुर रस ( फल देने की तीव्र शक्ति) को अपवर्तना करण के द्वारा मन्द कर देना रसघात है।
(ग) जिन कर्मद लिकों का स्थितिघात किया जाता है अर्थात् जो कर्मलिक अपने अपने उदय के नियत समय से हटाए जाते हैं उनको प्रथम के अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर देना गुणश्रेणी है।
स्थापना का क्रम इस प्रकार है - उदय समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त के जितने समय होते हैं, उनमें से उदयावलिका के समय को छोड़ कर शेष जितने समय रहते हैं उनमें से प्रथमसमय में जो दलिक स्थापित किए जाते हैं वे कम होते हैं। दूसरे समय में स्थापित किए जाने वाले दलिक प्रथमसमय में स्थापित दलिकों से असंख्यात गुण अधिक होते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त के चरम समयपर्यन्त पर पर समय में स्थापित किए जाने वाले दलिकों से संख्यातगुण ही समझने चाहिएं।
(घ) जिन शुभ कर्मप्रकृतियों का बन्ध अभी हो रहा है उनमें पहले बँधी हुई अशुभ प्रकृतियों का संक्रमण कर देना अर्थात् पहले बँधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बँधने वाली शुभ प्रकृतियों के रूप में परिणत कर देना गुणसंक्रमण कहलाता है ।
गुणसंक्रमण का क्रमसंक्षेप में इस प्रकार है- प्रथम समय में अशुभ प्रकृतियों के जितने दलिकों का शुभ प्रकृतियों में संक्रमण होता है, उनकी अपेक्षा दूसरे समय में असंख्यात गुण अधिक दलिकों का संक्रमण होता है। इस प्रकार जब तक गुणसंक्रमण होता रहता है तब तक पूर्व पूर्व समय में संक्रामित दलिकों से उत्तर उत्तर समय में असंख्यात गुण अधिक दलिकों का ही संक्रमण होता है ।
(ङ) पहले की अपेक्षा अत्यन्त अल्पस्थिति के कर्मों को बाँधना 'अपूर्वस्थितिबन्ध' कहलाता है।
स्थितिघात आदि पॉच बातें यद्यपि पहले के गुणस्थानों में भी
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
ζο
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
AAAAAAANA wwv
होती हैं किन्तु आठवें गुणस्थान में पूर्व ही होती हैं क्योंकि पहले गुणस्थानों की अपेक्षा आठवें गुणस्थान में अध्यवसाय की शुद्धि अत्यन्त अधिक होती है । अत एव पहले के गुणस्थानों में बहुत कम स्थिति का और अति अल्प रस का घात होता है परन्तु आठवें गुणस्थान में अधिक स्थिति का तथा अधिक रस का घात होता है । इसी तरह पहले के गुणस्थानों में गुणश्रेणी की कालमर्यादा अधिक होती है तथा जिन दलिकों की गुणश्रेणी (रचना, स्थापना ) की जाती है वे दलिक भी अल्प ही होते हैं। आठवें गुणस्थान में गुणश्रेणी योग्य दलिक तो बहुत अधिक होते हैं परन्तु श्रेणी का कालमान बहुत कम होता है, तथा पहले गुणस्थानों की अपेक्षा आठवें गुणस्थान में गुणसंक्रमण बहुत कर्मों का होता है अत एव पूर्व होता है और आठवें गुणस्थान में इतनी अल्पस्थिति के कर्म
जाते हैं कि जितनी अल्पस्थिति वाले कर्म पहले के गुणस्थानों में कभी नहीं बँधते । इस प्रकार स्थितिघात आदि पदार्थों का पूर्व त्रिधान होने से इस आठवें गुणस्थान का दूसरा नाम अपूर्वकरण गुणस्थान भी शास्त्र में प्रसिद्ध है ।
जैसे राज्य पाने की योग्यता मात्र से राजकुमार राजा कहा जाता है, वैसे ही आठवें गुणस्थानवर्ती जीव चारित्र मोहनीय के उपशमन या क्षपण के योग्य होने से उपशमक या क्षपक कहलाते हैं । चारित्र मोहनीय के उपशमन या क्षपण का प्रारम्भ तो नवें गुणस्थान में ही होता है, आठवें गुणस्थान में तो केवल उस की योग्यता होती है ।
(६) अनियट्टि चादर सम्पराय गुणस्थान- संज्वलन क्रोध, मान और माया कपाय से जहाँ निवृत्ति न हुई हो ऐसी अवस्थाविशेष को नियहि (अनिवृत्ति) वादर गुणस्थान कहते हैं ।
इस गुणस्थान की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है । एक
अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं उतने ही अध्यवसायस्थान नवें
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ८१ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww. गुणस्थान में माने जाते हैं, क्योंकि नवें गुणस्थान में जितने जीव समसमयवर्ती रहते हैं उन सब के अध्यवसाय एफ सरीखे (तुल्य शुद्धि वाले) होते हैं, जैसे प्रथम समयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसाय समान होते हैं इसीप्रकार दूसरे समय से लेकर नवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक तुल्य समय में वर्तमान त्रैकालिक जीवों के अध्यवसाय भी तुल्य ही होते हैं। सभी तुल्य अध्यवसायों को एक ही अध्यवसायस्थान मान लिया जाता है, इस बात को समझने की सरल रीति यह भी है कि नवें गुणस्थान के अध्यवसायों के उतने ही वर्ग हो सकते हैं जितने उस गुणस्थान के समय हैं। एक एक वर्ग में चाहे त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों की अनन्त शक्तियाँ शामिल हों, परन्तु प्रतिवर्ग अध्यवसायस्थान एक ही माना जाता है, क्योंकि एक वर्ग के सभी अध्यवसाय शुद्धि में बराबर ही होते हैं किन्तु प्रथम समय के अध्यवसाय स्थान से दूसरे समय के अध्यवसायस्थान अनन्तगुण विशुद्ध होते हैं। इस प्रकार नवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक पूर्व पूर्व समय के अध्यवसाय स्थान से उत्तर उत्तर समय के अध्यवसाय स्थान को अनन्त गुण विशुद्ध समझना चाहिए । आठवें गुणस्थान से नवें गुणस्थान में यही विशेषता है कि श्राठवें गुणस्थान में तो समान समयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसाय शुद्धि के तरतमभाव से असंख्यात वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं, परन्तु नवें गुणस्थान में समसमयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों की समान शुद्धि के कारण एक ही वर्ग हो सकता है। पूर्व पूर्व गुणस्थान की अपेक्षा उत्तर उत्तर गुणस्थान में कषाय के अंश बहुत कम होते जाते हैं और कषाय (संक्लेश) की कमी के साथ साथ जीव परिणामों की शुद्धि बढ़ती जाती है। पाठवें गुणस्थान से नवें गुणस्थान में विशुद्धि इतनी अधिक हो जाती है कि उसके
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
अध्यवसायों की भिन्नताएं आठवें गुणस्थान के अध्यवसायों की भिन्नताओं से बहुत कम हो जाती हैं।
दसवें गुणस्थान की अपेक्षा नवें गुणस्थान में बादर (स्थूल) सम्पराय (कषाय) उदय में आता है तथा नवें गुणस्थान के समसमयवर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति (भिन्नता) नहीं होती। इसी लिए इस गुणस्थान का 'अनिवृत्तिवादरसम्पराय' ऐसा सार्थक नाम शास्त्र में प्रसिद्ध है।
नवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव दो प्रकार के होते हैंएक उपशमक और दूसरे क्षपक । जो चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन करते हैं वे उपशमक कहलाते हैं। जो चारित्रमोहनीय कर्म का क्षपण (आय) करते हैं वे क्षपक कहलाते हैं।
(१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान- इस गुणस्थान में सम्पराय अर्थात लोभ कषाय के सूक्ष्म खण्डों का ही उदय रहता है। इस गुणस्थान के जीव भी उपशमक और क्षपक दोनों प्रकार के होते हैं। संज्वलन लोभ कषाय के सिवाय बाकी कषायों का उपशम या क्षय तो पहले ही हो जाता है। इस लिए दसवें गुणस्थान में जीव संज्वलन लोभ का उपशम या क्षय करता है । उपशम करने वाला जीव उपशमफ तथा क्षय करने वाला जीव लपक कहलाता है।
(११) उपशान्तकपायचीतरागछमस्थ गुणस्थान- जिनके कपाय उपशान्त हुए हैं, जिन को राग अर्थात् माया और लोभ का भी विल्कुल उदय नहीं है और जिन को छद्म (आवरण भूत घाती कर्म) लगे हुए हैं वे जीव उपशान्तकपायवीतरागछद्मस्थ कहलाते हैं और उनके स्वरूप को उपशान्तकपायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान कहते हैं । ग्यारहवें गुणस्थान की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मानी गई है। इस गुणस्थान में वर्तमान जीव आगे के गुणस्थानों को प्राप्त
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
८३
करने में समर्थ नहीं होता क्योंकि जो जीव सपक श्रेणी करता है वही भागे के गुणस्थानों में जा सकता है। ग्यारहवें गुणस्थान वाला जीव नियम से उपशम श्रेणी वाला ही होता है, अत एव वह ग्यारहवें गुणस्थान से गिर पड़ता है । ग्यारहवेंगुणस्थान का समय पूरा होने से पहले ही जो जीव आयु के क्षय होने से काल कर जाता है वह अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है। उस समय वह ग्यारहवें से गिर कर चौथे गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि अनुत्तर विमानवासी देवों में केवल चौथा गुणस्थान होता है। चौथे गुणस्थान को प्राप्त कर वह जीव उन सब कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय और उदीरणा एक साथ शुरू कर देता है जिनका बन्ध और उदय आदि चौथे गणस्थान में सम्भव है।
जिस जीव के आयु शेष रहने पर भी गुणस्थान का समय पूरा हो जाता है वह आरोहक्रम से गिरता है अर्थात् ग्यारहवेंगुणस्थान तक चढ़ते समय उस जीव ने जिन जिन गुणस्थानों को जिस क्रम से प्राप्त कियाथा या जिन कर्मप्रकृतियों का जिस क्रम से उपशम करके वह ऊपर चढ़ा था वे सब प्रकृतियों उसी क्रम से उदय में आती हैं। इस प्रकार गिरने वाला जीव कोई छठे गुणस्थान तक आता है, कोई पाँचवें, कोई चौथे और कोई दूसरे में होकर पहले तक आता है।
क्षपक श्रेणी के बिना कोई जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। ग्यारहवेंगुणस्थान में उपशम श्रेणी वाला ही जाता है इस लिए वह अवश्य गिरता है। एक जन्म में दो बार से अधिक उपशम श्रेणी नहीं की जा सकती। क्षपक श्रेणी तो एक ही बार होती है। जिस ने एक बार उपशम श्रेणी की है वह उसी जन्म में क्षपक श्रेणी द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकता है परन्तु जोदोवार उपशम श्रेणी कर चुका है वह फिर उसी जन्म में क्षपक श्रेणी नहीं कर सकता यह बात करेंग्रन्थ के अनुसार लिखी गई है। सिद्धान्त के अनुसार जीव एक
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
जन्म में एक ही श्रेणी कर सकता है अत एव जिसने एक बार उपशम श्रेणी की है वह फिर उसी जन्म में क्षपक श्रेणी नहीं कर सकता।
८४
उपशम श्रेणी के प्रारम्भ का क्रम संक्षेप में इस प्रकार है-- चौथे, पाँचवें, छठे, और सातवें गुणस्थान में से किसी भी गुणस्थान में वर्तमान जीव पहले चार अनन्तानुबन्धी कपायों का उपशम करता है । इसके बाद अन्तर्मुहूर्त में एक साथ दर्शन मोह की तीनों प्रकृतियों का उपशम करता है। इसके बाद वह जीव छठे तथा सातवें गुणस्थान में सैकड़ों बार आता जाता है, फिर आठवें गुणस्थान मैं होकर नवें गुणस्थान को प्राप्त करता है और नवें गुणस्थान में चारित्र मोहनीय कर्म की शेष प्रकृतियों का उपशम शुरू करता है। सबसे पहले वह नपुंसक वेद का उपशम करता है, इसके बाद स्त्रीवेद का उपशम करता है | हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, पुरुषवेद, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण के क्रोध, मान, माया, लोभ तथा संज्वलन के क्रोध, मान और माया इन सव प्रकृतियों का उपशम नर्वे गुणस्थान के अन्त तक करता है। संज्वलन लोभ को दसवें गुणस्थान में उपशान्त करता है ।
(१२) क्षीणकषाय छद्मस्थ वीतराग गुणस्थान- जिस जीव ने मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय कर दिया है किन्तु शेष छद्म (घाती कर्म ) अभी विद्यमान हैं उसे क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ कहते हैं और उसके स्वरूप को क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है। इसे क्षपक श्रेणी वाले जीव ही प्राप्त करते हैं ।
क्षपक श्रेणी का क्रम संक्षेप में इस प्रकार है- जो जीव क्षपक श्रेणी करने वाला होता है वह चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणकिसी भी गणास्थान में सब से पहले अनन्तातवन्धी
1
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ८५ mmmmmmwwwxn www ~ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwr अनन्तानुबन्धी कषाय के अवशिष्ट अनन्तवें भागको मिथ्यात्व में डाल करदोनों का एक साथ तय करता है। इसके बाद मिश्रमोहनीय और समकित मोहनीय का क्षय करता है । आठवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के क्षय का प्रारम्भ करता है। इन आठ प्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने से पहले ही नवें गुणस्थानको प्रारम्भ कर देता है और उसी समय नीचे लिखी १६ प्रकृतियों का तय करता है-- (१) निद्रानिद्रा (२) प्रचलाप्रचला (३) स्त्यानगृद्धि (४) नरक गति (५) नरकानुपूर्वी (६) तिर्यञ्च गति (७) तिर्यञ्चानुपूर्वी (८) एकेन्द्रिय जाति नामकर्म (8) द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म (१०) त्रीन्द्रिय जाति नामकर्म (११) चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म (१२) आतप (१३) उद्योत (१४) स्थावर (१५) सूक्ष्म (१६) साधारण । इनके बाद अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के बाकी बचे हुए भाग का क्षय करता है। तदनन्तर क्रम से नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य आदि छः, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध,संज्वलन मान और संज्वलन माया का तय करता है और संज्वलन लोभ का क्षय दसवें गुणस्थान में करता है।
(१३) सयोगी केवली गुणस्थान-जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय चार घाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया है उनको सयोगी केवली कहते हैं और उनके स्वरूप-विशेष को सयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं ।
योगकाअर्थ है आत्मा की प्रवृत्ति या व्यापार प्रवृत्ति या व्यापार के तीन साधन हैं, इस लिए योग के भी तीन भेद हैं- मनो योग, वचन योग और काय योग। किसी को मन से उत्तर देने में केवली भगवान् को मन का उपयोग करना पड़ता है। जिस समय कोई मनःपर्ययज्ञानी अथवा अनुत्तर विमानवासी देव भगवान् को शब्द
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मंठिया जैन ग्रन्थमाला
~ron rvin we,rrawnrmmmmmmmmmmmm द्वारा न पूछ कर मन से ही पूछता है उस समयं केवली भगवान् भी उस प्रश्न का उत्तर मन से ही देते हैं। प्रश्न करने वाला मनः पर्यय ज्ञानी भगवान् द्वारा मन में सोचे हुए उत्तर को प्रत्यक्ष जान लेता है और अवधिज्ञानी उस रूप में परिणत हुए मनोवर्गणा के परमाणुओं को देख कर मालूम कर लेता है।
उपदेश देने के लिए केवली भगवान् वचन योग का उपयोग करते हैं। हलन चलन आदि क्रियाओं में काययोग का उपयोग करते हैं।
(१४)अयोगी केवली गणस्थान-जो केवलीभगवान् योगों से रहित हैं वे अयोगी केवली कहे जाते हैं। उनके स्वरूप विशेष को अयोगी केवली गणस्थान कहते हैं। __तीनों प्रकार के योग का निरोध करने से अयोगी अवस्था प्राप्त होती है। केवली भगवान् सयोगी अवस्था में जघन्य अन्तर्मुहूर्ततक
और उत्कृष्ट कुछ कम एक करोड़ पूर्व तक रहते हैं। इसके बाद जिस केवली के आयु कर्म की स्थिति और प्रदेश कम रह जाते हैं तथा वेदनीय,नाम और गोत्र कर्म की स्थिति और प्रदेश प्रायु कर्म की अपेक्षा अधिक बच जाते हैं वे समुद्घात करते हैं। समुद्घात के द्वारा वेदनीय, नाम और गोत्र की स्थिति श्रायु के बरावर कर लेते हैं। जिन केवलियों के वेदनीय आदि उक्त तीन कर्मस्थिति तथा परमाणुओं में आयुकर्म के बराबर होते हैं उन्हें समुद्घात करने की आवश्यकता नहीं है । इस लिए वे समुद्घात नहीं करते।
सभी केवलज्ञानी सयोगी अवस्था के अन्त में एक ऐसे ध्यान के लिए योगों का निरोध करते हैं जो परम निर्जरा का कारण, लेश्या से रहित तथा अत्यन्त स्थिरता रूप होता है। __ योगों के निरोध का क्रम इस प्रकार है- पहले वादर काययोग से बादरमनोयोग तथा वादर वचनयोग को रोकते हैं। इसके बाद सूक्ष्म काययोग से वादर काययोग को रोकते हैं और फिर उसी
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
८७
सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचनयोग को रोकते हैं। अन्त में केवली भगवान् मूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति शुक्लध्यान के वल से सूक्ष्म काययोग को भी रोक देते हैं । इस प्रकार सब योगों का निरोध हो जाने से केवलज्ञानी भगवान् अयोगी बन जाते हैं और मुमक्रियाऽनिवृत्ति शुक्लध्यान की सहायता से अपने शरीर के भीतरी पोले भाग को अर्थात् मुख, उदर
आदि को आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं। इसके बाद अयोगी केवली भगवान् समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाती शुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं और मध्यम रीति से पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय का 'शैलेशीकरण' करते हैं । सुमेरु पर्वत के समान निश्चल अवस्था भथवा सर्व संवर रूप योग निरोध अवस्था को 'शैलेशी' कहते हैं । शैलेशी अवस्था मे वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म की गुणश्रेणी से और आयुकर्म की यथास्थित श्रेणी से निर्जरा करना शैलेशी करण' है। शैलेशीकरण को प्राप्त करके अयोगी केवलज्ञानी उसके अन्तिम समय में वेदनीय,नाम,गोत्र और आयु इन चारभवोपग्राही (जीव कोसंसार में वाँध कर रखने वाले) कर्मों को सर्वथा तय कर देते हैं उस समय उनके श्रात्मप्रदेश इतने संकुचित हो जाते हैं कि वे उनके शरीर के ३ भाग में समाजाते हैं । उक्त कर्मों का क्षय होते ही वे एक समय में ऋजु गति से ऊपर की ओर सिद्धि क्षेत्र में चले जाते हैं । सिद्धि क्षेत्रलोक के ऊपर के भाग में वर्तमान है। इसके आगे किसीआत्मा या पुद्गल की गति नहीं होती । इसका कारण यह है कि प्रात्मा को या पुद्गल को गति करने में धर्मास्तिकाय की अपेक्षा होती है और लोक के आगे धर्मास्तिकाय नहीं है। कर्ममल के हट जाने से शद्ध आत्मा की ऊर्ध्वगति इस प्रकार होती है जिस प्रकार कि मिट्टी के लेपों से युक्त तुम्बालेपों के हट जाने से जल पर चला जाता है।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
ζς
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
warm
wwwmumammamunuan
wmoran
गुणस्थानों का स्वरूप ऊपर बताया जा चुका है। अब उनमें कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता को बताते हैं
वधाधिकार जीव के साथ नए कर्मों का सम्बन्ध होना बन्ध है। कर्मों की कुल १४८ प्रकृतियाँ हैं। यथा- ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की है, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयुष्य की ४, नामकर्म की ६३,गोत्र की २, अन्तराय की ५। इन १४८ प्रकृतियों के नाम, स्वरूप व विशेष विस्तार इसके तीसरे भाग के वोल नं० ५६० में दिया है । इनमें वन्ध-योग्य प्रकृतियाँ १२० हैं। वन्धन नामकर्म तथा संघातन नामकर्म की ५-५ प्रकृतियाँ शरीर नामकर्म में ही गिन ली है तथा वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श की एक एक प्रकृति गिनी है । सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय को इन में नहीं गिना है। इस प्रकार २८प्रकृतियाँ घटने से १२० रह जाती हैं। नीचे १२० प्रकृतियों के अनुसार वन्ध आदि वताए जाएंगे।
(१) पहले गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म, आहारक शरीर और आहारक अङ्गोपाङ्ग नामकर्मको छोड़कर बाकी ११७प्रकृतियों का बन्ध होता है। इसका कारण यह है कि तीर्थङ्कर नामकर्म का वन्ध सम्यक्त्व वाले जीव के ही होता है और आहारकद्विक (आहारक शरीर और आहारक अङ्गोपाङ्ग नामक) का बन्ध अप्रमत्त संयम से ही होता है। मिथ्यादृष्टि जीवों में ये दोनों बात नहीं होती क्योंकि चौथे गुणस्थान से पहले सम्यक्त्व और सातवेंगुणस्थान से पहले अप्रमत्तसंयम नहीं होता।उक्त तीन प्रकृतियों को छोड़ कर शेष प्रकृतियों का वन्ध मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग इन चारों कारणों से होता है। मिथ्यात्वगुणस्थान में इन चारों का सद्भाव रहने से वहाँ यथासम्भव ११७प्रकृतियों का वन्ध होता है।
(२) साखादन गुणस्थान में १०१ कर्म प्रकृतियों का बन्ध
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
८६
.
होता है। इसमें नीचे लिखी १६ प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं-नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु), जातिचतुष्क (एकेन्द्रिय जाति,दीन्द्रिय जाति,त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जाति),स्थावर चतुष्क (स्थावर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म
और साधारण नामकर्म) इस प्रकार ११ हुई। इनके सिवाय (१२) इंडक संस्थान (१३) आतप नामकर्म(१४)सेवात संहनन (१५) नपुंसकवेद और (१६) मिथ्यात्व मोहनीय । इन सोलह प्रकृतियों का वन्धविच्छेद मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अन्त में ही हो जाता है, इस लिए दूसरे गुणस्थान में १०१ प्रकृतियाँ ही बँधती हैं।
(३) तीसरे गुणस्थान में ७४ प्रकृतियों का बन्ध होता है । दूसरे गुणस्थान के अन्त में नीचे लिखी २५ प्रकृतियों का बन्धविच्छेद होजाता है-तिर्यञ्चत्रिक (तिर्यञ्चगति,तिर्यश्चानुपूर्वी और तिर्यञ्चायु), स्त्यानगृद्धित्रिक (निद्रानिद्रा, प्रचलापचला और स्त्यानगृद्धि),दुर्भगत्रिक (दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय नामकर्म) बीच के चार संहनन तथा चार संस्थान, नीच गोत्र, उद्योत नाम कर्म, अशुभविहायोगति, स्त्रीवेद, अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क । दूसरे गुणस्थान के बाद इन पच्चीस प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता इस लिए आगे के गुणस्थानों में केवल ७६ प्रकृतियॉ बचती हैं। उनमें भी तीसरे गुणस्थान में मनुप्यायु और देवायु का बन्ध नहीं होता। इस लिए ७४ प्रकृतियाँ ही वचती हैं।
नरकत्रिक से लेकर मिथ्यालमोहनीय पर्यन्त १६कर्म प्रकृतियाँ अत्यन्त अशुभ हैं। प्रायः नारकी,एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय जीवों के ही होती हैं और मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से ही बंधती हैं।
तिर्यञ्चत्रिक से लेकर अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क का वन्ध । अनन्तानुबन्धी कपाय के उदय से होता है। अनन्तानुवन्धी कपाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थान में ही होता है आगे नहीं,
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
अतः उपरोक्त पच्चीसप्रकृतियाँ दूसरे गुणस्थान के चरम समय तक हीबँध सकती हैं,तीसरे आदि गुणस्थानों में नहीं। तीसरे गुणस्थान में जीव का स्वभाव ऐसा होता है जिससे उस समय आयु का वन्ध नहीं होने पाता। इसी लिए मनुष्यायु तथा देवायु का बन्ध भी तीसरे गुणस्थान में नहीं होता। नरकायु तथा तिर्यञ्चायु तो१६और २५ प्रकृतियों में आ गई हैं । इस प्रकार कुल ११७ प्रकृतियों में से १६+२५+२=४३ कम करने से तीसरे गुणस्थान में केवल ७४ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
(४) चौथे गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। उपरोक्त ७४ तथा तीर्थङ्कर नामकर्म, मनुष्यायु और देवायु ।
(५) देशविरत नामक पाँचवें गुणस्थान में ६७ कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है। उपरोक्त ७७ में से वज्रऋषभनाराच संहनन, मनुष्यत्रिक (मनुष्यगति,मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु), अप्रत्याख्यानावरण चार कपाय तथा औदारिक शरीर और औदारिक अङ्गोपाङ्ग नामकम,ये १० प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध,मान, माया और लोभ का उदय चौथे गुणस्थान के अन्त तक ही रहता है । पाँचवें से लेकर आगे के गुणस्थानों में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय नहीं रहता । कपायवन्ध के लिए यह नियम है कि जिस कपाय का जिन गणस्थानों में उदय रहता है उन्हीं में उसका वन्ध होता है। इस लिए पाँचवें गणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कपाय का बन्ध नहीं होता। पाँचवें गणस्थान में मनुष्य भव के योग्य कर्मप्रकृतियों का भी:-' नहीं होता सिर्फ देव भव के योग्य कर्म प्रकृतियों का ही वन्ध' । है। इस लिए मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, वज नाराच संहनन, औदारिक शरीर और औदारिक अंग छः प्रकृतियों का बन्ध भी इस गुणस्थान में नहीं होता
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पांचवा भाग
www.w
مع
प्रकृतियाँ मनुष्य भव में ही काम आती हैं, इस लिए चार कषाय और मनुष्यगति आदि छः मिला कर १० प्रकृतियों कम करने से पाँचवें गुणस्थान में ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है ।
(६) छठे गुणस्थान में ६३ प्रकृतियों का बन्ध होता है । प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय पाँचवें गुणस्थान के अन्त तक ही रहता है । छठे गुणस्थान में इसका उदय नहीं होता और इसी लिए बन्ध भी नहीं होता । पाँचवें गुणस्थान की ६७ प्रकृतियों में से प्रत्याख्यानावरण की चार कम कर देने पर शेष ६३ प्रकृतियाँ छठे गुणस्थान में बन्धयोग्य रहती हैं ।
(७) सातवें गुणस्थान में ५८ या ५६ प्रकृतियों का बन्ध होता है । इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे जो छठे गणस्थान में देवायु के बन्ध का प्रारम्भ करके उसे उस गुणस्थान में बिना समाप्त किए ही सातवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेते हैं और फिर सातवें गुणस्थान में ही देवायु के बन्ध को समाप्त करते हैं । दूसरे वे जो देवायु के बन्ध का प्रारम्भ और समाप्ति दोनों छठे गुणस्थान में कर लेते हैं और फिर सातवें गुणस्थान में आते हैं। पहले प्रकार के जीवों को छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में रति, शोक, अस्थिर नामकर्म, अशुभ नामकर्म, अयश: कीर्ति नामकर्म और असातावेदनीय इन छः कर्म प्रकृतियों का बन्धविच्छेद हो जाता है । इस लिए छठे गुणस्थान की त्रेसठ प्रकृतियों में से छः घटा देने पर ५७ प्रकृतियाँ बचती हैं । दूसरे प्रकार के जीवों के छठे गुणस्थान के अन्त में उपरोक्त छः तथा देवायु इन सात कर्म प्रकृतियों का बन्धविच्छेद होता है । इस तरह सात कम करने पर ५६ प्रकृतियॉ शेष बचती हैं। दोनों प्रकार के जीव आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन दोनों प्रकृतियों को बाँध सकते हैं । इन दो के मिलाने पर ५६ या ५८ प्रकृतियाँ
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
९२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
जो
होती हैं। जी जीव देवायुवन्ध को सातवें गुणस्थान में पूरा करते हैं उनके लिए ५६ तथा जो छठे में पूरा कर लेते हैं उनके लिए ५८ प्रकृतियों बन्धयोग्य होती हैं।
( ८ ) आठवें गुणस्थान के पहले भाग में ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है । जिस जीव के देवायुका बन्ध छठे गुणस्थान में पूरा नहीं होता उसके सातवें गुणस्थान में वह पूरा हो जाता है। इस लिए आठवें गुरणस्थान के पहले भाग में शेष ५८ प्रकृतियों का ही वन्ध होता है। दूसरे से लेकर छठे तक पाँच भागों में ५६ प्रकृतियों का बन्ध होता है । निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का बन्धविच्छेद पहले भाग में ही हो जाता है, इस लिए दूसरे भाग में ये दो प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं। सातवें भाग में २६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। क्योंकि नीचे लिखी तीस प्रकृतियाँ आठवें गुणस्थान के छठे भाग से आगे नहीं बँधनीं - (१) देवगति (२) देवानुपूर्वी (३) पञ्चेन्द्रियजाति (४) शुभ विहायोगति (५-१३) त्रसनवक (त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, मुखर और आदेय) (१४-१७) चौदारिक के सिवाय चार शरीर (१८-१६) वैक्रिय और आहारक अङ्गोपाङ्ग (२०) समचतुरस्र संस्थान (२१) निर्माण नामकर्म (२२) तीर्थङ्कर नामकर्म (२३) वर्ण (२४) गन्ध (२५) रस (२६) स्पर्श (२७) अगुरुलघु नामकर्म (२८) उपघात नामकर्म (२६) पराघात नामकर्म (३०) उच्छ्वास नामकर्म । इन प्रकृतियों के कम होने से आठवें गुणस्थान के सातवें भाग में केवल २६ कर्मप्रकृतियों का वन्ध होता है।
(६) नवे गुणस्थान के पहले भाग में २२ प्रकृतियों का बन्ध होता है। उपरोक्त २६ प्रकृतियों में से हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियों का वन्धविच्छेद आठवें गुणस्थान के सातवें भाग में हो जाता है, इस लिए नवें गुणस्थान के पहले भाग में केवल २२ प्रकृतियों का बन्ध होता है। नर्वे गुणस्थान के दूसरे
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
३
~ wwwmmmmmmm ummmmmmuni
भाग से लेकर पाँचवें भाग तक क्रमशः २१, २०, १६ और १८ कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। पुरुषवेद, संज्वलन के क्रोध, मान, माया इन प्रकृतियों का बन्धविच्छेद नवें गुणस्थान के पाँच भागों में क्रमशः हो जाता है, इस लिए दूसरे भाग में पुरुषवेद का वन्ध नहीं होता। तीसरे भाग में संज्वलन क्रोध,चौथे में मान तथा पाँचवें में माया का बन्ध नहीं होता। इस प्रकार नवें गुणस्थान के पाँचवें भाग में केवल १८ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
(१०) दसवें गुणस्थान में १७ प्रकृतियों का वन्ध होता है। संज्वलन लोभ का नवें गुणस्थान के अन्त में बन्धविच्छेद हो जाने से दसवें गुणस्थान में बन्ध नहीं होता।
(११-१२-१३ ) ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक केवल सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। दसवें गुणस्थान के अन्त में नीचे लिखीसोलह प्रकृतियों का बन्धविच्छेद हो जाता है
(१-४) दर्शनावरण की चार (५) उच्चगोत्र (६) यशःकीर्ति नामकर्म (७-११) ज्ञानावरण की पांच (१२-१६ ) अन्तराय की पांच । इनके बाद केवल सातावेदनीय बचती है। उसका बन्ध तेरहवें गुणस्थान तक होता है। ऊपर लिखी १६ प्रकृतियों का वन्ध कषाय से होता है। दसवें गुणस्थान से आगे कषाय न होने से उनका बन्ध नहीं होता।
सातावेदनीय का बन्ध भी इन गणस्थानों में केवल योग के कारण होता है। कषाय न होने के कारण उसमें स्थिति या अनुभाव (फल देने की शक्ति) का बन्ध नहीं होता, इस लिए सातावेदनीय कर्म के पुद्गल पहले समय में बँधते हैं, दूसरे समय में वेदे जाते हैं और तीसरे समय में उनकी निर्जरा हो जाती है। उनकी स्थिति केवल दो समयों की होती है।
(१४) चौदहवें गुणस्थान में किसी प्रकृति का वन्ध नहीं होता,
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाना
wnmm
इस लिए इसे अवन्धक गुणस्थान कहा जाता है । इस गुणस्थान में योगों का भी निरोध हो जाने से कर्मबन्ध का कोई कारण नहीं रहता, इस लिए भी बन्ध नहीं होता। पीछे बताया जा चुका है कि कर्मवन्ध के चार कारण हैं-मिथ्याल, अविरति, कषाय और योग । इनमें से मिथ्याल पहले गणस्थान में ही होता है। इस लिए मिथ्यात्व से बँधने वाली नरक आदि १६ प्रकृतियाँ आगे के किसी गुणस्थान में नहीं बॅधतीं। इसी प्रकार अविरति, कषाय और योगरूप कारण जैसे जैसे दर होते जाते हैं उनसे बँधने वाली प्रकृतियाँ भी कम होती जाती हैं । चौदहवें गुणस्थान में कोई कारण नहीं बचता और इस लिए किसी भी कर्मप्रकृति का बन्ध नहीं होता केवल शरीर का सम्बन्ध रहता है, उससे छूटते ही जीव सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। ___ आयुबन्ध पहले, दूसरे, चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान में ही होता है। सातवें गुणस्थान में वही जीव आयु वॉधता है जिसने छठे गुणस्थान में देवायुवन्ध को पूरा नहीं किया है।
उदयाधिकार विपाक का समय आने पर कर्मफल को भोगना उदय कहलाता है। उदय के योग्य १२२ कर्म प्रकृतियाँ हैं। बन्ध १२० प्रकृतियों का ही होता है। मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय का बन्ध नहीं होता। मिथ्यात्वमोहनीय ही परिणाम-विशेष से जब अर्द्धशुद्ध या शुद्ध हो जाता है तो मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय के रूप में उदय में आता है, इस लिए उदय में बन्धकी अपेक्षा दो प्रकृतियाँ अधिक है।
(१)पहले गुणस्थान में ११७ कर्मप्रकृतियों का उदय होता है। १२२ में से नीचे लिखी पॉच कम हो जाती हैं- (१) मिश्र मोहनीय (२) सम्यक्त्व मोहनीय (३) आहारक शरीर (४) आहारक
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोन संपह, पांचवां भाग
अंगोपांग और (५) तीर्थङ्कर नामकर्म। इन पाँच प्रकृतियों का उदय पहले गुणस्थान में नहीं होता।
(२) दूसरे गुणस्थान में १११ कर्म प्रकृतियों का उदय होता है। पहले गुणस्थान की ११७ प्रकृतियों में से नीचे लिखी छः कम हो जाती हैं- (१) सूक्ष्म नामकर्म (२) अपर्याप्त नामकर्म (३) साधारण नामकर्म (४) आतप नामकर्म (५) मिथ्यात्व मोहनीय और (६) नरकानुपूर्वी।
(३) तीसरे गुणस्थान में १०० प्रकृतियों का उदय होता है। पूर्वोक्त १११ में से नीचे लिखी १२ प्रकृतियॉ कम करने से बह रह जाती हैं और उनमें मिश्रमोहनीय मिला देने से कुल १०० प्रकृतियों का उदय तीसरे गुणस्थान में होता है। बारह प्रकृतियॉइस प्रकार हैं- अनन्तानुबन्धी चार कषाय (५) स्थावर नामकर्म (६-६) एकेन्द्रिय तथा तीन विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) (१०) तिर्यश्चानुपूर्वी (११)मनुष्यानुपूर्वी और (१२) देवानुपूर्वी।
(४) चौथे गुणस्थान में १०४ प्रकृतियों का उदय होता है। तीसरे गुणस्थान की १०० प्रकृतियों में से मिश्रमोहनीयका उदय चौथे गुणस्थान नहीं होता। वाकी प्रकृतियों में नीचे लिखी पाँच और मिला दी जाती हैं-(१)सम्यक्त्व मोहनीय (२) देवानुपूर्वी (३)मनुष्यानुपूर्वी (४)तियश्चानुपूर्वी और (५)नरकानुपूर्वी।
(५)पॉचवें गुणस्थान में ८७ प्रकृतियों का उदय होता है। ऊपर लिखी १०४ में से नीचे लिखी १७ कर्म प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं(१) देव गति (२) नरक गति (३-६) चार आनुपूर्वी (७) देवायु (८) नरकायु (8) वैक्रिय शरीर (१०) वैक्रिय अंगोपांग (११) दुर्भग नामकर्म (१२) अनादेय नामकर्म (१३) अयशःकीर्ति नाम कर्म (१४-१७) अप्रत्याख्यानावरण के चार कपाय । इन १७ प्रकृतियों को घटा देने पर बाकी बची हुई ८७ प्रकृतियों का उदय
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
६
wwwrarwww
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला • mmm rrrrmnwra. पाँचवे गुणस्थान में होता है।
(६)छठे गुणस्थान में ८१ प्रकृतियों का उदय होता है। ऊपर लिखी ८७ में से नीचे लिखी आठ घटाने पर ७६ वच जाती हैं। उनमें श्राहारक शरीर और आहारक अंगोपांग नामकर्म मिलाने पर ८१ हो जाती हैं । वे आठ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-(१) तिर्यञ्चगति (२) तिर्यश्च आयु (३) नीच गोत्र (४) उद्योत नामकर्म और (५-८) प्रत्याख्यानावरण चार कपाय।
(७) सातवें गुणस्थान में ७६ प्रकृतियों का उदय होता है । उपरोक्त ८१ में से निद्रानिद्रा,प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि,आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन पाँच प्रकृतियों का उदय छठे गणस्थान के अन्त तक ही रहता है। इस लिए सातवे गुणस्थान में इन पाँच प्रकृतियों के घटाने पर शेष ७६ वच जाती हैं।
(८) आठवें गणस्थान में ७२ प्रकृतियों का उदय होता है। सम्यक्त्व मोहनीय और अन्त के तीन संहनन इन चार प्रकृतियों का सातवें गुणस्थान के अन्त में विच्छेद हो जाता है, इस लिए आठवें गुणस्थानमें ऊपर बताई गई ७६ प्रकृतियों में से चार कम हो जाती हैं।
(8) नवेंगुणस्थान में ६६प्रकृतियों का उदय होता है। ऊपर बताई गई ७२ में से नीचे लिखी छः कम हो जाती हैं-हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा ।।
(१०) दसवें गुणस्थान में ६० प्रकृतियों का उदय होता है। पूर्वोक्त ६६ में से नीचे लिखी छः कम हो जाती हैं- (१) स्त्रीवेद (२) पुरुष वेद (३) नपुंसक वेद (४) संज्वलन क्रोथ (५) संज्वलन मान (६) संज्वलन माया ।
(११) ग्यारहवें गुणस्थान में ५६ प्रकृतियों का उदय होता है। पूर्वोक्त ६० में से संज्वलन लोभ कम हो जाता है।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
६७
(१२) बारहवें गुणस्थान में ५७ प्रकृतियों का उदय होता है। पूर्वोक्त ५६ में से ऋषभनाराच संहनन और नाराच संहनन ये दो प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं। ५७ प्रकृतियों का उदय बारावें गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त अर्थात् अन्तिम समय से पहले के समय तक पाया जाता है। निद्रा और प्रचला इन दो कर्मप्रकतियों का उदय अन्तिम समय में नहीं होता। इससे पूर्वोक्त ५७ कर्म प्रकृतियों में से निद्रा और प्रचला को छोड़ कर शेष ५५ कर्म प्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है।
(१३)तेरहवें गुणस्थान में ४२ प्रकृतियों का उदय हो सकता है। पूर्वोक्त ५५ में से नीचे लिखी १४ कर्मप्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान तक ही रहता है-ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४,
और अन्तराय की ५। ५५ में से १४ घटाने पर ४१ रह जाती हैं। तेरहवें गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म का भी उदय हो सकता है, इस लिए ४२ प्रकृतियाँ हो जाती हैं।
(१४) चौदहवें गुणस्थान में केवल १२ प्रकृतियों का उदय होता है। नीचे लिखी तीस प्रकृतियों का उदय तेरहवें गुणस्थान तक ही रहता है- (१) औदारिक शरीर (२) औदारिक अङ्गोपाङ्ग (३) अस्थिर नामकर्म (४) अशुभ नामकर्म (५)शुभविहायोगति (६)अशुभविहायोगति (७)प्रत्येक नामकर्म (८)स्थिर नामकर्म (8) शुभनामकर्म (१०) समचतुरस्त्र संस्थान (११) न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान (१२) सादि संस्थान (१३) वामन संस्थान (१४) कुब्जक संस्थान (१५) हुण्डक संस्थान (१६) अगुरुलघु नामकर्म (१७) उपघात नामकर्म (१८) पराघात नामकर्म (१९) उच्छ्वासनामकर्म (२०)वर्ण (२१)रस(२२) गन्ध (२३) स्पर्श (२४) निर्माण नामकर्म(२५)तैनसशरीर नामकर्म (२६) कार्मणशरीर नामकर्म (२७) वज्रऋषभनाराच संहनन (२८) मुस्वर नामकर्म (२६) दुःस्वर
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
rrrrrrrrrrrrrrrrrrr नामकर्म (३०) सातावेदनीय या असातावेदनीय (इन दोनों में से कोई एक)। इनका उदय चौदहवें गुणस्थान में नहीं होता इस लिए चौदहवें गुणस्थान में केवल १२ प्रकृतियों का उदय होता है। वे बारह प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं- (१) सुभग नामकर्म (२) प्रादेय नामकर्म (३) यशःकीर्ति नामकर्म (४) वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियों में से कोई एक (५) त्रस नामकर्म (६) बादर नामकर्म (७) पर्याप्त नामकर्म (८) पञ्चेन्द्रिय नामकर्म (8) मनुष्यायु (१०) मनुष्यगति (११) तीर्थङ्कर नामकर्म और (१२) उच्चगोत्र। इनका उदय चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है । इन प्रकृतियों से मुक्त होते ही जीव शुद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है।
उदीरणाधिकार विपाक का समय प्राप्त होने से पहले ही कर्मदलिकों को भोगना उदीरणा है अर्थात् कर्मदलिकों को प्रयत्नविशेप से खींच कर नियत समय से पहले ही उनके शुभाशुभ फलों को भोगना उदीरणा है। कर्मों के शुभाशुभ फलों को भोगना ही उदय तथा उदीरणा है, किन्तु दोनों में इतना भेद है कि उदय में किसी भी प्रकार के प्रयत्न के बिना स्वाभाविक क्रम से कर्मों के फल का भोग होता है और उदीरणा में प्रयन करने पर ही कर्मफल का भोग होता है।
पहले से लेकर छठे गुणस्थान तक उदय और उदीरणा एक समान हैं। सातवें से लेकर तेरहवें तक प्रत्येक गुणस्थान में उदय की अपेक्षा उदीरणा में नीचे लिखी तीन प्रकृतियाँ कम हैं- (१) सातावेदनीय (२) असातावेदनीय और (३)मनुष्य आयु। उदयाधिकार में बताया जा चुका है कि छठे गुणस्थान में८१ प्रकृतियों का उदय होता है। उनमें से (१) निद्रानिद्रा (२) प्रचलापचला (३) स्त्यानगृद्धि (४)आहारक शरीर (५)आहारक अड्रोपाङ्ग नामकर्म। इन पाँच प्रकृतियों का उदयविच्छेद छठे गुणस्थान के अन्त में
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ६६ mmmmmmmmmm rrrrowrnmmmmwwwr aw www ___.wwww हो जाता है, इसलिए सातवेंगुणस्थान में इनका उदय नहीं होता, किन्तु छठे गुणस्थान के अन्त में उदीरणा ८ प्रकृतियों की होती है। ऊपर लिखी पाँच और (१) सातावेदनीय (२) असातावेदनीय तथा (३) मनुष्यायु । इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा आगे भी किसी गुणस्थान में नहीं होती, इस लिए तेरहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में तीन प्रकृतियॉ कम हो जाती हैं।
चौदहवें गुणस्थान में किसी भी प्रकृति की उदीरणा नहीं होती क्योंकि उदीरणा होने में योग की अपेक्षा है और चौदहवें गुणस्थान में योग का निरोध हो जाता है।
सत्ताधिकार बन्ध के समय जो कर्मपुद्गल जिस कर्मस्वरूप में परिणत होते हैं उन कर्मपुद्गलों का उसी कर्म स्वरूप में आत्मा के साथ लगे रहना कर्म की सत्ता कही जाती है । कर्मपुद्गलों का प्रथम स्वरूप को छोड़ कर दूसरे कर्मस्वरूप में बदल कर आत्मा के साथ लगे रहना भी सत्ता है। कर्मों का उसी स्वरूप में लगे रहना बन्ध-सत्ता है और दूसरे स्वरूप में बदल कर लगे रहना संक्रमणसत्ता है।
सत्ता में १४८ कर्मप्रकृतियाँ मानी जाती हैं। उदयाधिकार में पॉच बन्धन और पाँच संघातन की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं, उन्हें पाँच शरीरों में ही गिन लिया गया है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की एक एक प्रकृति को ही गिना है। सत्ताधिकार में पाँचों शरीरों के पाँच बन्धन और पॉच संघातन अलग गिने जाते हैं। वर्ण ५, रस ५, गन्ध २ और स्पर्श होने से वर्ण आदि की कुल २० प्रकृतियॉगिनी जाती हैं। इनमें बन्धन और संघातन के मिलाने पर ३० हो जाती हैं। इनमें से समुच्चय रूप से गिनी जाने वाली वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श की ४ प्रकृतियाँ कम कर देने पर २६ बचती हैं अर्थात सत्ताधिकार में ५ वन्धन, ५ संघातन और १६
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वर्णादि इस प्रकार २६ प्रकृतियाँ बढ़ जाती हैं । उदयाधिकार की १२२ प्रकृतियों में उपरोक्त २६ मिला देने पर कुल १४८ हो जाती हैं। __ पहले तथा चौथे से लेकर ग्यारहवें तक नौ गुणस्थानों में सभी अर्थात् १४८ प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है। दूसरे और तीसरे गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता नहीं होती, इस लिए इन दोनों में १४७ प्रकृतियों की ही सत्ता रहती है।
जिस जीव ने पहले नरक की आयु का बन्ध कर लिया है और बाद में सम्यक्त्व प्राप्त करके उसके बल से तीर्थङ्कर नामकर्म को भी बाँध लिया है वह जीव नरक में जाने से पहले मिथ्यात्व को अवश्य ही प्राप्त करता है। ऐसे जीव की अपेक्षा से ही पहले गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता मानी गई है। दूसरे यातीसरे गुणस्थान में वर्तमान कोई जीव तीर्थङ्कर नामकर्म को नहीं बॉध सकता, क्योंकि उन दोनों गुणस्थानों में शुद्ध सम्यक्त्व नहीं होता। इसी प्रकार तीर्थङ्कर नामकर्म को बाँध कर भी कोई जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर दूसरे या तीसरे गुणस्थान में नहीं जाता, इसी लिए दूसरे और तीसरे गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म को छोड़ कर शेष १४७ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है।
कर्मों की सत्ता दो प्रकार की है- सम्भवसत्ता और स्वरूपसत्ता। जीव के साथ बँधे हुए कर्मों की वर्तमान सत्ता को स्वरूपसत्ता कहते हैं और जिन कर्मों के वर्तमान अवस्था में बँधे हुए न होने पर भी बंधने की सम्भावना हो उनकी सत्ता को सम्भवसत्ता कहते हैं। ऊपर बताई गई १४७ और १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भवसत्ता की अपेक्षा से है अर्थात् उन प्रकृतियों की सत्ता हो सकती है। स्वरूपसत्ता की अपेक्षा दो प्रकार का आयुष्य कभी एक साथ नहीं रह सकता किन्तु सम्भवसत्ता की अपेक्षारह सकता है।
थान से सम्यक्त्व की अपेक्षा जीव के नीन भेद हो
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पांचवां भाग
जाते हैं-(१)क्षायोपशमिफ सम्यक्त्वी(२)औपशमिक सम्यक्त्वी
और (३) क्षायिक सम्यक्त्वी। इनके फिर दो दो भेद हो जाते हैं(१) चरम शरीरी और (२) अचरम शरीरी।
क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्वी अचरमशरीरी जीवों के चौथे से लेकर ग्यारहवें गणस्थान तक १४८ प्रकृतियों की सत्ता है।
पञ्चसंग्रह का सिद्धान्त है कि जोजीव अनन्तांनुबन्धी४ कषायों की विसंयोजना नहीं करता वह उपशम श्रेणी का प्रारम्भ नहीं कर सकता तथा यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि नरक या तिर्यश्च की भाय बाँध कर जीव उपशम श्रेणी को नहीं प्राप्त कर सकता। इन दो सिद्धान्तों के अनुसार आठवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें तक १४२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क की विसंयोजना तथा देवायु को बॉध करजो जीव उपशम श्रेणी करता है उसके आठवें, नवें, दसवें और ग्यारहवें इन चार गुणस्थानों में १४२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है। विसंयोजना आय को ही कहते हैं किन्तु आय में नष्ट किए कर्म का फिर सम्भव नहीं होता और विसंयोजना में होता है।
सायिक सम्यक्त्व वाले अचरम शरीरी जीव के चौथे से लेकर भाठवें गुणस्थान तक १४१ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है। अनन्तानुबन्धी चार कषाय और सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय तथा मिश्रमोहनीय इन सात प्रकृतियों का क्षय हो जाने से वे सत्ता में नहीं रहतीं। __औपशमिक तथा सायोपशमिक सम्यक्त्व वाले चरमशेरीरी जीवों के चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक १४५ प्रकृतियों की सत्ता होती है, क्योंकि इनके वर्तमान मनुष्यायु को छोड़ कर शेष देव,नरक और तिर्यश्च इन तीन आयु कर्म प्रकृतियों की न स्वरूपसत्ता हो सकती है और न सम्भवसत्ता।
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
PRTS
श्री सेठिया जैन ग्रः
।
ATION
RSSFIELTS
TVSARIEF-.
-
on
MALAI
wnk-
-
-
वर्णादि इस प्रकार २६ प्रकृतियाँ
क
t ratee १२२ प्रकृतियों में उपरोक्त २६मिल - RAT
पहले तथा चौथे से लेकर ग्या अर्थात् १४८ प्रकृतियों की सत्ता गुणस्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म र दोनों में १४७ प्रकृतियों की ही
जिस जीव ने पहले नरक बाद में सम्यक्त्व प्राप्त करके : भी बाँध लिया है वह जीव : अवश्य ही प्राप्त करता है। स्थान में तीर्थङ्कर नामकर्म गुणस्थान में वर्तमान को सकता, क्योंकि उन दोनों इसी प्रकार तीर्थङ्कर ना से च्युत होकर दूसरे र Trender दूसरे और तीसरेगुणः । * - - १४७ कर्मप्रकृतियों ..
nazar : कर्मों की सत्ता दं.
TRE सत्ता । जीव के साथ .
- सत्ता कहते हैं और जिक होने पर भी वॅधने की सम्म कहते हैं। ऊपर वताई गई १४ सम्भवसत्ता की अपेक्षा से है। सकती है। स्वरूपसत्ता की अपेक्षा साथ नहीं रह सकता किन्तु सम्भवसत्ता -
चौथे गुणस्थान से सम्यक्त्व की अपे,
AL
र
...
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
mm. me now में अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण चौकड़ियों का क्षय हो जाता है इस लिए तीसरे भाग में ११४ प्रकृतियों की सत्ता रह जाती है। तीसरे भाग के अन्त में नपंसकवेद का क्षय हो जाने से चौथे भाग में ११३ रह जाती हैं। चौथे के अन्त में स्त्रीवेद का तय हो जाने से पाँचवें में ११२ । पाँचवें भाग के अन्त में हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा इन छः प्रकृतियों का क्षय हो जाता है, इस लिए छठे भाग में १०६ । छठे के अन्त में पुरुष वेद का क्षय होने से सातवें भाग में १०५।सातवेंके अन्त में संज्वलन क्रोध का क्षय होने से आठवें भाग में १०४ और आठवें के अन्त में संज्वलन मान का तय हो जाने से नवें भाग में १०३ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। नवें भाग के अन्त में संज्वलन माया का तय हो जाता है।
दसवें गुणस्थान में १०२ कर्मप्रकृतियों की सत्तारहती है। इस गुणस्थान के अन्तिम समय में संज्वलन लोभ का अभाव हो जाता है इस लिए बारहवें गुणस्थान के दो भागों में से अर्थात् द्विचरम समय पर्यन्त (अन्तिम समय से एक समय पहले तक)१०१ कर्मप्रकृतियों की सत्ता हो सकती है। दूसरे भाग में अर्थात् द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का क्षय होजाता है। इस लिए बारहवेंगुणस्थान के अन्तिम समय में प्रकृतियाँ सत्ता में रह जाती हैं। ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इन १४ प्रकृतियों का क्षय बारहवेंगुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है।
तेरहवें गुणस्थान में ८५ कर्म प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं।
चौदहवें गुणस्थान में दिचरम समय तक अर्थात् अन्तिम समय से पहले समय तक ८५ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। द्विचरम समय में नीचे लिखी ७२ कर्मप्रकृतियों का क्षय हो जाता है- (१)
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
mr
marami orr
rmanoran . marrian.
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
- सायिक सम्यक्त्व वाले चरमशरीरी जीवों के चौथे गुणस्थान से लेकर नवें के प्रथम भाग तक १३८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है। अनन्तानुबन्धी चार कषाय,सम्यक्त्व मोहनीय,मिश्रमोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और तीन आयु इन दस प्रकृतियों की सत्ता उस जीव के नहीं होती। __जो जीव वर्तमान जन्म में ही क्षपक श्रेणी कर सकते हैं वे आपक या चरमशरीरी कहे जाते हैं। उनके मनुष्य आयुही सत्ता में रहती है दूसरी आयु नहीं। उन्हें भविष्य में भी दूसरी आय सत्ता में होने की सम्भावना नहीं रहती। इस लिए सपफ (चरमशरीरी) जीवों को मनुष्य आयु के सिवाय दूसरी आयु कीन स्वरूपसत्ता है और न सम्भवसत्ता । इसी अपेक्षा से चपक (चरम शरीरी जिन्हें क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हुआ है) जीवों के १४५ कर्मप्रकृतियों की सत्ता कही गई है परन्तु क्षपक जीवों में जोक्षायिक सम्यक्त्व वाले हैं उनके अनन्तानुबन्धी आदि सात प्रकृतियों का भी क्षय हो जाता है इसी लिए क्षायिक सम्यक्त्व वाले क्षपक जीवों के १३८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता कही गई है। जो जीव वर्तमान जन्म में सपक श्रेणी नहीं कर सफते वे अचरम शरीरी कहलाते हैं।
नवें गुणस्थान के नौ भागों में से प्रथम भाग में लपक श्रेणी वाले जीव के पूर्वोक्त १३८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है। पहले भाग के अन्त में नीचे लिखी १६ प्रकृतियों का क्षय हो जाता है(१) स्थावर नामकर्म (२) सूक्ष्म नामकर्म (३) तिर्यञ्च गति (४) तिर्यवानपर्वी (५)नरकगति (६) नरकानपूर्वी (७)आतप नामकर्म (८) उद्योत नामकर्म (8) निद्रानिद्रा (१०) प्रचलाप्रचला (११) स्त्यानगृद्धि (१२) एकेन्द्रिय (१३)बेइन्द्रिय (१४) तेइन्द्रिय (१५) चउरिन्द्रिय और (१६) साधारण नामकर्म, इस लिए दूसरे भाग में १२२ प्रकृतियों की सत्ता रहती है। दूसरे भाग के अन्तिम समय
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
rom mamm ormmmmmmmmmmmon में अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण चौकड़ियों का क्षय हो जाता है इस लिए तीसरे भाग में ११४ प्रकृतियों की सत्ता रह जाती है । तीसरे भाग के अन्त में नपुंसकवेद काय हो जाने से चौथे भाग में ११३ रह जाती हैं। चौथे के अन्त में स्त्रीवेद का क्षय हो जाने से पॉचवें में ११२ । पाँचवें भाग के अन्त में हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा इन छ: प्रकृतियों का चय होजाता है, इस लिए छठे भाग में १०६ । छठे के अन्त में पुरुष वेद का क्षय होने से सातवें भाग में १०५।सातवेंके अन्त में संज्वलन क्रोध का क्षय होने से आठवें भाग में १०४ और पाठवें के अन्त में संज्वलन मान का क्षय हो जाने से नवें भाग में १०३ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। नवें भाग के अन्त में संज्वलन माया का क्षय हो जाता है।
दसवें गुणस्थान में १०२ कर्मप्रकृतियों की सत्तारहती है। इस गणस्थान के अन्तिम समय में संज्वलन लोभ का अभाव हो जाता है इस लिए बारहवें गुणस्थान के दो भागों में से अर्थात् द्विचरम समय पर्यन्त (अन्तिम समय से एक समय पहले तक)१०१ कर्मप्रकृतियों की सत्ता हो सकती है। दूसरे भाग में अर्थात द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का क्षय होजाता है। इस लिए बारहवेंगुणस्थान के अन्तिम समय में हह प्रकृतियाँ सत्ता में रह जाती हैं। ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इन १४ प्रकृतियों का क्षय बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है। तेरहवें गुणस्थान में ८५ कर्म प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं।
चौदहवें गुणस्थान में दिचरम समय तक अर्थात् अन्तिम समय से पहले समय तक ८५ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। विचरम समय में नीचे लिखी ७२ कर्ममकृतियों का क्षय हो जाता है- (१)
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
।
rrrrrrramm
देवगति(२) देवानुपूर्वी (३)शुभविहायोगति (४) अशुभविहायोगति (५) सुरभिगन्ध नामकर्म (६) दुरभिगन्ध नामफर्म (७-१४)
आठ स्पर्श (१५-१६)पाँच वर्ण (२०-२४)पाँच रस (२५-२६) पाँच शरीर (३०-३४) पाँच बन्धन (३५-३६) पॉच संघातन (४०)निर्माण नामकर्म (४१-४६) संहनन छः(४७-५२) अस्थिरादि छः (अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशः कीर्ति), (५३-५८) संस्थान छः (५६-६२) अगुरुलघुचतुष्क (६३) अपर्याप्त नामकर्म, (६४) सातावेदनीय या असातावेदनीय, (६५-६७) प्रत्येक, स्थिर और शुभनामकर्म, (६८-७०) तीन अंगोपाङ्ग, (७१) सुस्वर नामकर्म और (७२) नीचगोत्र । द्विचरम समय में ७२ प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर अन्तिम समय में १३ कर्मप्रकृतियाँ वचती हैं। वे इस प्रकार हैं- (१-३) मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु (४-६) त्रस, बादर और पर्याप्तनामकर्म (७) यशाकीर्ति नामकर्म (८) आदेय नामकर्म (8) सुभग नामकर्म(१०) तीर्थङ्कर नामकर्य (११) उच्चगोत्र (१२) पञ्चेन्द्रिय जाति नामकर्म और (१३) सातावेदनीय या असाता वेदनीय इन दोनों में से एक। ___ इन तेरह प्रकृतियों का अभाव चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है और आत्मा निष्कर्म होकर मुक्त हो जाता है।
किसी किसीश्राचार्य का मत है चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में १२ प्रकृतियाँ ही रहती हैं। मनुष्यानुपूर्वी नहीं रहती। दसरी ७२ प्रकृतियों के साथ स्तिथुकसंक्रम द्वारा उसका भी क्षय हो जाता है । उदय में नहीं आए हुए कर्मदलिकों को उसी जाति तथा वरावर स्थिति वाले उदयवर्ती कर्मदलिकों में बदल कर उन्हीं के साथ भोग लेना स्तिवुकसंक्रम कहा जाता है। ऊपर लिखी वारह प्रकृतियों के सिवाय बाकी सब सत्ता में रही हुई प्रकृतियों को
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त घोल संग्रह, पांचवां भाग
१०५
को जीव चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य (अन्त से पहले के) समय में स्तिबुकसंक्रम द्वारा ही देता है। ___ (र्मग्रन्थ दूसरा) ___ गुणस्थानों का स्वरूप तथा कर्मों के पन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता ऊपर बताए गए हैं। १४ गुणस्थान के थोकड़े में प्रत्येक गुणस्थान से सम्बन्ध रखने वाले २८ द्वार हैं। उनमें से (१) नामद्वार (२) लक्षण द्वार (३) बन्धद्वार (४) उदय द्वार (५) उदीरणा द्वार और (६) सत्ता द्वार दूसरे कर्मग्रन्थ के अनुसार ऊपर बताए जा चुके हैं। वाकी द्वार संक्षेप से थोफड़े के अनुसार दिए जाते हैं- (७)स्थिति द्वार-गुणस्थान विशेष में जीव के रहने की कालमर्यादा को स्थिति कहते हैं। पहले गुणस्थान में जीवों की स्थिति तीन प्रकार की होती है- अनादि अपर्यवसित (जिसकी आदि भी नहीं है और अन्त भी नहीं है)। अभव्य या कभी मोत न जाने वाले भव्य जीव अनादिकाल से पहले गुणस्थान में हैं और अनन्त काल तक रहेंगे, उनकी अपेक्षा अनादि अपर्यवसित पहलाभंग है। (२) अनादि सपर्यवसित (जिसकी आदि नहीं है किन्तु अन्त है) जो भव्य जीव अनादि काल से मिथ्यादृष्टि हैं किन्तु भविष्य में मोक्ष प्राप्त करेंगे, उनकी अपेक्षा दूसरी स्थिति है। (३) सादिसपर्यवसित अर्थात जिसकी आदि भी है और अन्त भी है। जो जीव
औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ कर गिरता हुआ फिर पहले गुणस्थान में भा जाता है उसकी अपेक्षा से तीसराभंग है। तीसरे भंगवालाजीव अधिक से अधिक देशोन अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन तक पहले गुणस्थान में रह सकता है।
दूसरे गुणस्थान की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छः आवलिका की है। तीसरे गुणस्थान कीजघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। चौथे गुणस्थान की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ६६ सागरोपम झाझेरी । पाँचवें गुणस्थान की जघन्य अन्तर्मुहूर्त
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
श्री सेठिया जैन ग्रन्पमाला
और उत्कृष्ट कुछ कम एक करोड़ पूर्व की। छठे गुणस्थान कीजघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन करोड़ पूर्व । सातवें, भाठवें, नवें, दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान की स्थितिजघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। बारहवें गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। तेरहवें की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन करोड़ पूर्व है। चौदहवें गुणस्थान की स्थितिमध्यमरीति से यानी न धीरेन जल्दी पॉच लघु अक्षर अर्थात् अ, इ, उ, ऋ,ल के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतनी है।
(८)क्रियाद्वार-क्रियाएं पच्चीस हैं-काइया, अहिगरणिया, पाउसिया,परितावणिया, पाणाइवाइया,आरंभिया,परिग्गहिया, मायावत्तिया, मिच्छादसणवत्तिया, अपचक्खाणिया, दिहिया, पुहिया, पाडुच्चिया, सामन्तोवणिवाइया, नेसत्थिया, साहत्थिया, प्राणवणिया, वेयारणिया,अणाभोगवत्तिया,अणवखवत्तिया, पओइया, समुदाणिया, पेज्जवत्तिया, दोसवत्तिया,ईरियावहिया।
पहले और तीसरे गुणस्थान में ईरियावहिया को छोड़ कर शेष २४ क्रियाएं पाई जाती हैं। दूसरे और चौथे गुणस्थान में मिच्छादंसणवत्तिया (मिथ्यादर्शन प्रत्यया) और ईरियावहिया को छोड़ कर शेष २३ । पाँचवें में अविरति और पहले की दो को छोड़ कर २२ । छठे गुणस्थान में उपरोक्त २२ में से परिग्गहवत्तिया को छोड़ कर २१ क्रियाएं पाई जाती हैं। सातवें से नवें तक आरम्भिया को छोड़ कर २० और दसवें गुणस्थान में मायावत्तिया को छोड़ कर १६ क्रियाएं पाई जाती हैं । ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में केवल ईरियावहिया क्रिया पाई जाती है। चौदहवें गुणस्थान में कोई क्रिया नहीं होती।
(8)निर्जरा द्वार-पहले से लेकर दसवें गुणस्थान तक आठों कों की निर्जरा होती है। ग्यारहवें और वारहवें गुणस्थान में
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग १०७ ~~~~rmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm nwrmmmmmmm ~ rrr मोहनीय के सिवाय सात कर्मों की तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में चार श्रघाती कर्मों की निर्जरा होती है।
(१०)भाव द्वार-पहले,दूसरे और तीसरे गुणस्थान में औदयिक, सायोपशमिक और पारिणामिक तीन भाव होते हैं। चौथे से दसवेंतक पाँचों भाव होते हैं। ग्यारहवें में शायिक के सिवाय चार और वारहवें में औपशमिक के सिवा चार भाव होते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में औदयिक,सायिक और पारिणामिक ये तीन भाव होते हैं। सिद्धों के क्षायिक और पारिणामिक भाव होते हैं।
(११) कारण द्वार-कर्मबन्ध के निमित्त को कारण कहते हैं। इसके पॉच भेद हैं-मिथ्यात्व,अविरति,प्रमाद,कषाय और योग। पहले और तीसरे गुणस्थान में पाँचों कारण होते हैं। दूसरे और चौथे में मिथ्यात्व के सिवाय चार । पाँचवें और छठे में मिथ्यात्व तथा अविरति को छोड़ कर तीन । सातवें से दसवें तक कषाय और योग दो। ग्यारहवें, बारहवें, और तेरहवें में केवल योग होता है। चौदहवें गुणस्थान में कोई कारण नहीं होता, इस लिए वहाँ कर्मवन्ध भी नहीं होता।
(१२)परीषह द्वार-संयम के कठोर मार्ग में विचरते हुए साधु को प्रतिकूल परिस्थति के कारण जो कष्ट उठाने पड़ते हैं वे परीपह कहे जाते हैं । परीषह २२ हैं- (१) क्षुधा (२) तृषा (३) शीत (४)उष्ण(५)दंशमशक (६) अचेल (७)अरति (८) स्त्री (8) चर्या (१०)निषद्या (११)शय्या (१२)आक्रोश (१३)वध (१४)याचना (१५) अलाभ (१६) रोग (१७) तृणस्पर्श (१८) जल्लमैल (१६) सत्कार पुरस्कार (२०) प्रज्ञा (२१) अज्ञान और (२२) दर्शन।
चार कर्मों के उदय से येसभीपरीषद होते हैं। ज्ञानावरणीय के उदय से बीसवॉ (प्रज्ञा) और इक्कीसवॉ (अज्ञान)। वेदनीय कर्म के उदय से १ से ५ तक तथा ६,११,१३,१६,१७, १८ ये ग्यारह
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
परीषद होते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से वाईसवाँ (दर्शन) परीषद और चारित्र मोहनीय के उदय से सात परीषह होते हैं- ६, ७, ८, १०, १२, १४ और १६ वाँ । अन्तराय कर्म के उदय से १५वाँ अलाभ परीषद होता है।
१०८
पहले गुणस्थान से लेकर नर्वे गुणस्थान तक सभी परीषद होते हैं, जिनमें से एक समय में जीव अधिक से अधिक वीस वेदता है क्योंकि शीत और उष्ण परीषद एक साथ नहीं हो सकते । इसी प्रकार चर्या (विहार के कारण होने वाला कष्ट ) और निषद्या ( अधिक बैठे रहने के कारण होने वाला कष्ट) एक साथ नहीं हो सकते।
दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म से होने वाले माठ परीषों को छोड़ कर बाकी चौदह होते हैं । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में वंदनीय कर्म से होने वाले क्षुधा, तृषा यदि ग्यारह परीषह ही होते हैं ।
(१३) श्रात्मद्वार - पहले और तीसरे गुणस्थान में ज्ञानात्मा और चारित्रात्मा के सिवाय छः आत्माएं पाई जाती हैं। दूसरे, चौथे और पाँचवें गुणस्थान में चारित्रात्मा के सिवाय सात आत्माएं पाई जाती हैं । छठे से लेकर दसवें तक आठ आत्माएं । ग्यारहवें से तेरहवें तक कषाय के सिवाय सात आत्माएं। चौदहवें में कपाय और योग के सिवाय छः श्रात्माएं होती हैं । सिद्ध भगवान् में ज्ञान, दर्शन, द्रव्य और उपयोग रूप चार आत्माएं ही हैं।
(१४) जीव द्वार - पहले गुणस्थान में जीव के चौदह भेद पाए जाते हैं। दूसरे में छ:- इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और असंज्ञी तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त । तीसरे में एक-संज्ञी पर्याप्त। चौथे में दो-संज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त । पाँचवें से लेकर चौदहवें तक एक- संज्ञी पर्याप्त ।
(१५) गुणद्वार - पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान तक जीवों
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १०६
में मठ वातें होती है - असंयती, अपचक्खाणी, अमिरत, असंवृत, अपण्डित, अजागृत, अधर्मी, श्रधर्मव्यवसायी । पाँचवें में आठ बोल पाये जाते हैं- संयतासंयती, पचक्खाणापचक्खाणी, विरताविरत, संवृतासंकृत, बालपण्डित, सुप्त जागृत, धर्माधर्मी, धर्माधर्म व्यवसायी । छठे से लेकर चौदहवें तक आठ गुण होते हैं- संयंती, पचक्खाणी, विरत, संवृत, पण्डित, जागृत, धार्मिक और धर्मव्यवसायी ।
(१६) योग द्वार- पहले, दुसरे और चौथे गुणस्थान में आहारक और आहारक मिश्र को छोड़ कर १३ योग पाये जाते हैं। तीसरे गुणस्थान में औदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण इन पाँच योगों को छोड़ कर बाकी दस पाये जाते हैं । पाँचवें में आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण के सिवाय बारह योग पाये जाते हैं। छठे में कार्मरण के सिवाय १४ योग पाये जाते हैं। सातवें में तीन मिश्र और कार्मण को छोड़ कर ग्यारह योग पाए जाते हैं। आठवें से लेकर बारहवें तक नौ योग पाए जाते हैं - चार मनोयोग, चार वचन योग और एक श्रदारिक । तेरहवें में पाँच अथवा सात- सत्यमनोयोग, व्यवहार मनोयोग, सत्य वचन योग, व्यवहार वचन योग और औदारिक । सात मानने पर औदारिक मिश्र और कार्मण बढ़ जाते हैं। चौदहवें गुणस्थान में योग नहीं होता।
(१७) उपयोग द्वार - पहले और तीसरे में छ: उपयोग पाए जाते हैं - तीन अज्ञान और पहले तीन दर्शन। दूसरे, चौथे और पाँचवें में छ:- तीन ज्ञान और तीन दर्शन । छठे से बारहवें तक सात- चार ज्ञान और तीन दर्शन । तेरहवें और चौदहवें में दोकेवल ज्ञान और केवल दर्शन ।
(१८) लेश्या द्वार - पहले से छठे तक छहों लेश्याएं पाई जाती । सातवें में पिछली तीन । आठवें से बारहवें तक शुक्ललेश्या ।
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
ormmmmmmm
तेरहवें में परमशुक्ल लेश्या । चौदहवें में कोई लेश्या नहीं होती।
(१६) हेतु द्वार-हेतु का अर्थ यहाँ पर है कर्मबन्ध का कारण। इसके ५७ भेद हैं-५ मिथ्यात्व, १५ योग, १२ अव्रत (छः काय की रक्षान करना तथा पाँच इन्द्रियों और मन को वश में न रखना)
और २५ कषाय (अनन्तानवन्धी धादि१६ और नोकषाय नौ)। __ पहले गुणस्थान में श्राहारक और आहारक मिश्र को छोड़ कर शेष ५५ हेतु पाए जाते हैं। दूसरे में ५ मिथ्यात्व और ऊपर वाले दो हेतुओं को छोड़ कर ५०। तीसरे में चार अनन्तानुबन्धी,ौदारिक मिश्र, वैक्रिय मिश्र, कार्मण और ऊपर वाले सात, कुल १४ हेतुओं को छोड़ कर ४३।चौथे में औदारिक मिश्र,वैक्रिय मिश्रऔर कार्मण इन तीन के बढ़ जाने से ४६।पाँचवें में चार अप्रत्याख्यानावरण, अविरति और फार्मण घट जाने से ४० । छठे में २७ अर्थात् १४ योग (कार्मण छोड़ कर) और १३ कषाय (संज्वलन की चौकड़ी और ह नोकषाय)। सातवें में तीन मिश्र योगों को छोड़ कर २४ । पाठवें में वैक्रिय और आहारक को छोड़ कर २२ । न में हास्यादि छह को छोड़ कर १६ । दसवे में तीन वदार तीन संज्वलन कपायां को छोड़ कर १० । ग्यारहवें तथा वारहवें में चार मन के, चार वचन के और एक औदारिक, ये नौ हेतु पाए जाते हैं । तेरहवें में पाँच-सत्य मनो योग, व्यवहार मनोयोग, सत्य भाषा, व्यवहार भाषा और औदारिक। किसी किसी के मत में सात होते हैं। उन के अनुसार औदारिकमिश्र और कार्मण बढ़ जाते हैं । चौदहवें गुणस्थान में कोई हेतु नहीं होता।
(२०) मार्गणा द्वार-मार्गणा का तात्पर्य यहॉ जाने का मार्ग है। पहले गुणस्थान वाला तीसरे, चौथे, पॉच और सातवेंगुणस्थान में जा सकता है। दूसरे गुणस्थान वाला पहले गुणस्थान में पाता है। तीसरे गुणस्थान वाला ऊपर चौथे,पाँचवें और सातवें
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१११
में तथा नीचे पहले में जाता है। चौथे गुणस्थान वाला ऊपर पाँचवें या सातवें में तथा नीचे पहले,दूसरे और तीसरे में जाता है। पाँचवें वाला नीचे पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे में तथा ऊपर सातवें में जाता है। छठे गुणस्थान वाला नीचे पाँच गुणस्थानों में तथा ऊपर सातवें में जाता है।सातवें गुणस्थान वाला नीचे छठे में और ऊपर आठवें में जाता है, काल करे तो चौथे में जाता है। आठवें गणस्थान वाला नीचे सातवें में और ऊपर नवें में जाता है,काल करने पर चौथे में जाता है। दसवें गुणस्थान वाला नीचे नवें में और ऊपर ग्यारहवें या बारहवें गुणस्थान में जाता है । ग्यारहवें गुणस्थान वाला गिरे तो दसवें में और काल करे तोचौथे में जाता है, ऊपर नहीं जाता । बारहवें गुणस्थान वाला तेरहवें में ही जाता है। तेरहवेंवाला चौदहवें में और चौदहवें वाला मोक्ष में ही जाता है।
(२१) ध्यान द्वार-पहले और तीसरे गुणस्थान में भान तथा रौद्रदोध्यान पाए जाते हैं। दसरे,चौथे तथा पाँचवें में तीन बार्तध्यान,रौद्रध्यान और धर्मध्यान । छठे में आर्तध्यान और धर्मध्यान। सातवें में केवल धर्मध्यान । पाठवें से तेरहवें तक शुक्लध्यान । चौदहवें में परम शुक्लध्यान ।
(२२ ) दण्डक द्वार-पहले गुणस्थान में चौवीस ही दण्डफ पाए जाते हैं। दूसरे में पॉच स्थावर के पाँच दण्डकों को छोड़ कर १६ । तीसरे और चौथे में तीन विकलेन्द्रिय को छोड़ कर सोलह। पाँचवें में मनुष्य और सज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यश्च येदो।छठे से लेकर चौदहवें तफ मनुष्य का एक ही दण्डक पाया जाता है।
(२३)जीव योनि द्वार- पहले गुणस्थान में ८४ लाख जीव योनियाँ पाई जाती हैं। दूसरे में एकेन्द्रिय की ५२ लाख छोड़ कर शेष ३२ लाख । तीसरे और चौथे में विकलेन्द्रिय की छः लाख घटने पर २६ लाख । पाँचवें में १८ लाख-चौदह लाख मनुष्यों
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
mnnrrrrror
क
की और चार लाख तिर्यञ्चों की। छठे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक मनुष्य की १४ लाख जीवयोनियॉपाई जाती हैं।
(२४) निमित्त द्वार-पहले चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय के निमित्त से होते हैं। पाँचवें से बारहवेतक आठ गुणस्थान यथायोग्य चारित्र मोहनीय के चय, उपशम याक्षयोपशम से। तेरहवॉ और चौदहवाँ योग के निमित्त से होते हैं। .
(२५) चारित्र द्वार- पहले चार गुणस्थानों में चारित्र नहीं होता।पाँचवें में एकदेश सामायिक चारित्र होता है। छठे और सातवें में तीन चारित्र पाए जाते हैं-सामायिक,छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि। आठवें और नवें में दो-सामायिक और छेदोषस्थापनीय।दसवें में सूक्ष्मसम्पराय । ग्यारहवें से लेकर चौदहवें तक केवल एक यथारख्यात चारित्र होता है।
(२६ ) समफितद्वार-क्षायिक समफित चौथे से लेकर चौदहवें गणस्थान तक पाया जाता है। उपशम सम्यक्त्व चौथे से ग्यारहवें तक।नायोपशमिक वेदक सम्यक्त्व चौथे से सातवें तक । सास्वादन सम्यक्त्व दूसरे गुणस्थान में होता है। पहले और तीसरे गुणस्थान में सम्यक्त्व नहीं होता।
(२७) अन्तरद्वार-पहले गुणस्थान में तीन भंग वताए गए हैं(१)अनादि अपर्यवसित (२) अनादि सपर्यवसित (३)सादि सपर्यवसित । इनमें तीसरे भंग का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ६६सागरोपम झाझरा है। दूसरे से ग्यारहवें गुणस्थान तक अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन अर्द्धपुद्गल परावर्तन है। वारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में अन्तर नहीं होता।
किसी गुणस्थान को एक बार छोड़ कर दुबारा उसे प्राप्त करने में जितना समय लगता है उसे भन्तर या व्यवधान काल कहते हैं। पहले गुणस्थान के प्रथम और द्वितीय भंग में अन्तर नहीं होता
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
११३
क्योंकि उनमें रहा हुआ जीव उन्हें छोड़ता ही नहीं। दूसरे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें तक के जीव कम से कम अन्तर्मुहूर्त में
और उत्कृष्ट अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काल में एक बार छोड़े हुए गुणस्थान को प्राप्त कर लेते हैं। बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान को छोड़ कर जीव फिर इन्हें प्राप्त नहीं करता। वह सिद्ध हो जाता है इसी लिए इन गुणस्थानों में अन्तर नहीं होता। _ (२८)अल्पबहुत्व द्वार-ग्यारहवें गुणस्थान वाले जीव अन्य सभी गुणस्थान वाले जीवों से अल्प हैं। प्रत्येक गुणस्थान में दो प्रकार के जीव होते हैं-(१) प्रतिपद्यमान-किसी विवक्षित समय में उसगुणस्थान को प्राप्त करने वाले। (२)पूर्वप्रतिपन्न-विवक्षित समय से पहले जो उस गुणस्थान को प्राप्त कर चुके हैं । ग्यारहवें गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान २४ और पूर्वप्रतिपन्न एक, दों या तीन आदि होते हैं। बारहवें गुणस्थान वाले उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान १०८ और पूर्वपतिपन्न शतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ तक) पाए जाते हैं, इस लिए ग्यारहवें गुणस्थान वालों से इनकी संख्या संख्यातगणी कही जाती है। उपशम श्रेणी वाले जीव उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान ५४ और पूर्वमतिपन एक, दो, तीन आदि माने गए हैं। क्षपक श्रेणी वाले प्रतिपद्यमान १०८और पूर्वप्रतिपन्नशतपृथक्त्व माने गए हैं। उपशम और क्षपक दोनों श्रेणियों वाले सभी जीव
आठवें, नवें और दसवें गुणस्थान में वर्तमान होते हैं, इस लिए इन तीनों गुणस्थान वाले जीव आपस में समान हैं, किन्तु बारहवें गुणस्थान वालों की अपेक्षा विशेषाधिक हैं। चौदहवें गुणस्थान वाले भवस्थ अयोगी वारहवें गुणस्थान वालों के बराबर हैं।
सयोगी केवली अर्थात् तेरहवें गुणस्थान वाले जीव उन से संख्यातगुणे हैं। वे पृथक्त्व करोड़ अर्थात् जघन्य दो करोड़ और उत्कृष्ट नौ करोड़ होते हैं।
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
अप्रमत्तसंयत अर्थात् सातवें गुणस्थान वाले उनसे संख्यात गणे पाए जाते हैं। वे दो हजार करोड़ तक हो सकते हैं।
प्रमत्तसंयत अर्थात् छठे गुणस्थान वाले उनसे संख्यात गुणे हैं। वे नौ हजार करोड़ तक होते हैं। असंख्यात गर्भज तिर्यश्च भी देश विरति पा लेते हैं, इस लिए पाँचवें गुणस्थान वाले छठे की अपेक्षा असंख्यातगुणे अधिक हैं। दूसरे गुणस्थान वाले देशविरति वालों से असंख्यात गणे होते हैं, क्योंकि सास्वादन सम्यक्त्व चारों गतियों में होता है। सास्वादन सम्यक्त्व की अपेक्षा मिश्रदृष्टि का कालमान (स्थिति) भसंख्यातगुणा है, इस कारण मिश्रदृष्टि अर्थात् तीसरे गुणस्थान वालेदसरे गणस्थान वालों की अपेक्षा असंख्यातगणे हैं। तीसरे की अपेक्षाचौथे गुणस्थान वाले असंख्यात गुणे हैं। अयोगी केवली दो तरह के होते हैं- भवस्थ (चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव)
और अभवस्थ (सिद्ध)। अभवस्थ (सिद्ध) चौथे गुणस्थान वालों से अनन्त गुणे हैं। मिथ्यादृष्टि अर्थात् पहले गुणस्थान वाले सिद्धों से भी अनन्तगुणे हैं। __ पहला, चौथा, पाँचवॉ, छठा, सातवाँ और तेरहवाँ ये छःगुणस्थान लोक में सदा पाए जाते हैं। बाकी आठ गुणस्थान कभी नहीं भी पाए जाते। जब ये पाए जाते हैं, तब भी इनमें जीवों की संख्या कभी उत्कृष्ट होती है, कभी मध्यम और कभी जघन्य।
ऊपर वाला अल्पबहुत्व उत्कृष्ट की अपेक्षा है, जघन्य संख्या की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि जघन्य संख्या के समय जीवों का परिमाण विपरीत भी हो जाता है, जैसे- कभी ग्यारहवें गुणस्थान वाले वारहवें से अधिक भी हो जाते हैं। सारांश यह है कि ऊपर बताया हुआअल्पवहुत्व सब गुणस्थानों में जीवों के उत्कृष्ट संख्या में पाए जाने के समय ही घट सकता है । (कर्मप्रन्य ४, गाथा ६२-६३)
मर कर परभव में जाते समय जीव के पहला, दूसरा और चौथा
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
^^^
MAAAA
www
۴۴۶
ये तीन गुणस्थान ही रहते हैं। तीसरा, बारहवाँ और तेरहवाँ, ये तीन गुणस्थान अमर हैं। इनमें मृत्यु नहीं होती। पहले, दूसरे, तीसरे, पाँचवें और ग्यारहवें गुणस्थान को तीर्थङ्कर नहीं फरसते । चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवाँ और आठवॉ इन पाँच गुणस्थानों में ही तीर्थङ्कर गोत्र बँधता है। बारहवाँ, तेरहवाँ और चौदहवाँ ये तीन गुणस्थान अपडिवाई (अप्रतिपाती) हैं। पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवाँ ये चार गुणस्थान अनाहारक भी होते हैं और चौदहवाँ गुणस्थान अनाहारक ही है । औदारिक आदि के पुद्गलों को न ग्रहण करने वाले को अनाहारक कहते हैं। पहला, दूसरा और चौथा गुणस्थान विग्रहगति की अपेक्षा से अनाहारक हैं। तेरहवाँ गुणस्थान केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समयों की अपेक्षा अनाहारक है। चौदहवें गुणस्थान में आहार के पुद्गलों का ग्रहण ही नहीं होता, इस लिए वह अनाहारक ही है । मोक्ष जाने से पहले जीव एक या अनेक भवों में नीचे लिखे नौ गुणस्थानों को अवश्य फरसता है - पहला, चौथा, सातवा, आठवाँ, नवा, दसवॉ, बारहवाँ तेरहवाँ और चौदहवाँ । ( कर्मग्रन्थ दूसरा और चौथा भाग ) (प्रवचनसारो द्वार द्वार ६० ) (आवश्यक चूर्णि )
८४८ - देवलोक में उत्पन्न होने वाले
जीव
कौन से जीव किस देवलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं यह बात भगवती सूत्र के प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशे में बताई गई है । वहाँ चौदह प्रकार के जीवों की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। वे इस प्रकार हैं
( १ ) संयमरहित भव्य द्रव्य देव जघन्य भवनपति देवों में और उत्कृष्ट ऊपर के ग्रैवेयक देवों तक उत्पन्न हो सकते हैं ।
-
(२) अखण्डित संयम वाले (अविराधक साधु) जघन्य प्रथम देवलोक और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध विमान तक उत्पन्न हो सकते हैं। (३) खण्डित संयम वाले (विराधक साधु) जघन्य भवनपति
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
देवों में और उत्कृष्ट पहले देवलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं।
(४)भखण्डित संयमासंयम (अविराधकश्रावक)जघन्य पहले और उत्कृष्ट बारहवें अच्युत देवलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं।
(५)खण्डित संयमासंयम (विराधक श्रावक) जघन्य भवनपति देवों में और उत्कृष्ट ज्योतिषी देवों तक उत्पन्न हो सकते हैं।
(६)असझी (अकाम निर्जरा करने वाले)जघन्य भवनपति देवों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तर देवों तक उत्पन्न हो सकते हैं।
(७) बाल तपस्वी जघन्य भवनपति देवों में और उत्कृष्ट ज्योतिषी देवों तक उत्पन्न हो सकते हैं।
(८)कांदर्पिक (कुतूहली साधु) जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट पहले देवलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं।
(8)चरक, परिव्राजक (त्रिदण्डी) जघन्य भवनपति देवों में और उत्कृष्ट पाँचवें ब्रह्मलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं।
(१०)किन्विषिक (व्यवहार से चारित्र को धारण करने वाले किन्तु भाव से ज्ञान तथा ज्ञानियों काअवर्णवाद करने वाले कपटी) जघन्य भवनपति देवों में और उत्कृष्ट छठे देवलोक तक।
(११)देशविरत चारित्र कोधारण करने वाले तियेचजघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट पाठवें सहस्रार देवलोक तक।.
(१२)आजीवक मतानुयायी (गोशालक के शिष्य) जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट वारहवें अच्युत देवलोक तक।
(१३ ) आभियोगिक (मन्त्र तन्त्र आदि करने वाले) जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट वारहवें देवलोक तक उत्पन्न हो सकते हैं।
(१४) दर्शनभ्रष्ट स्वलिनी साधु जघन्य भवनपति देवों में और उत्कृष्ट ऊपर के ग्रैवेयकों तक उत्पन्न हो सकते हैं।
(भगवती शतक १ उद्देशा २)
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
पन्द्रहवाँ बोल संग्रह ८४६ सिद्धों के पन्द्रह भेद
ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का सर्वथा क्षय करके मोक्ष में जाने वाले जीव सिद्ध कहलाते हैं। वे पन्द्रह प्रकार से सिद्ध होते हैं
(१) तीर्थसिद्ध-जिससे संसार समुद्र तिरा जाय वह तीर्थ कहलाता है अर्थात् जीवाजीचादि पदार्थों की प्ररूपणा करने वाले तीर्थंकरों के वचन और उन वचनों को धारण करने वाला चतुर्विध संघ तथा प्रथम गणधर तीर्थ कहलाते हैं। इस प्रकार के तीर्थ की मौजूदगी में जो सिद्ध होते हैं वे तीथेसिद्ध कहलाते हैं।
(२) अतीर्थसिद्ध-तीर्थकी उत्पत्ति होने से पहले अथवा वीच में तीर्थ का विच्छेद होने पर जो सिद्ध होते हैं वे भतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। मरुदेवी माता तीर्थ की उत्पत्ति होने से पहले हीमोक्ष गई थी। भगवान् सुविधिनाथ से लेकरभगवान् शान्तिनाथ तक आठ तीर्थङ्करों के बीच सात अन्तरों में तीर्थ का विच्छेद हो गया था। इस विच्छेद काल में जोजीव मोक्ष गये वे तीर्थ विच्छेद काल में मोक्ष जाने वाले अतीर्थ सिद्ध कहलाते हैं।
नोट- तीर्थ विच्छेद होना एक अच्छेरा है । इस भवसर्पिणी में होने वाले दस अच्छेरों में यह दसवां अच्छेरा है। दस अच्छेरों का वर्णन तीसरे भाग के बोल नं०६८१ में दिया गया है।
(३) तीर्थङ्करसिद्ध- तीर्थङ्करपद प्राप्त करके मोक्ष जाने वाले जीव तीर्थङ्कर सिद्ध कहलाते हैं।
(४) अतीर्थङ्कर सिद्ध- सामान्य केवली होकर मोक्ष जाने वाले अतीर्थङ्कर सिद्ध कहलाते हैं।
(५) स्वयंबुद्धसिद्ध- दूसरे के उपदेश के बिना स्वयमेव
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
ہی من
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला wwwwwwwwmmmmmwwwimmmnx. im . ~ wwwr rrrr .orm
w
वोध प्राप्त कर मोक्ष जाने वाले स्वयंबुद्ध सिद्ध कहलाते हैं।
(६) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध-- जो किसी के उपदेश के बिना ही किसी एक पदार्थ को देख कर दीक्षा धारण करके मोक्ष जाते हैं वे प्रत्येक बुद्ध सिद्ध कहलाते हैं। __ स्वयंबुद्ध और प्रत्येक बुद्ध दोनों प्रायः एक सरीखे होते हैं, सिर्फ थोड़ी सी परस्पर विशेषताएं होती हैं। वे ये हैं- वोधि, उपधि, श्रुत और लिङ्ग (बाह्य वेष)।
(क) बोधिकृत विशेषता-स्वयंबुद्ध को बाहरी निमित्तकै विना ही जातिस्मरण आदि ज्ञान से वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। स्वयंबुद्ध दो तरह के होते हैं- तीर्थङ्कर और तीर्थङ्कर व्यतिरिक्त । यहाँ पर तीर्थङ्कर व्यतिरिक्त लिये जाते हैं क्योंकि तीर्थङ्कर स्वयंबुद्ध तीर्थङ्कर सिद्ध में गिन लिये जाते हैं। प्रत्येक बुद्ध को वृषभ (बैल)मेघ श्रादि बाहरी कारणों को देखने से वैराग्य उत्पन्न होता है और दीक्षा लेकर वे अकेलेही विचरते है।।
(ख) उपधिकृत विशेषता- स्वयंवुद्ध वस्त्र पात्र आदि बारह प्रकार की उपधि (उपकरण) वाले होते हैं और प्रत्येक बुद्ध जघन्य दो प्रकार की और उत्कृष्ट नौ प्रकार की उपधि वाले होते हैं । वे वस्त्र नहीं रखते किन्तु रजोहरण और मुखव स्त्रिका तो रखते ही हैं। __ (ग-घ) श्रुत और लिङ्ग (बाह्य वेश) की विशेषता- स्वयंबुद्ध दो तरह के होते हैं । एक तो वे जिनको पूर्व जन्म का ज्ञान इस जन्म में भी उपस्थित हो पाता है और दूसरे वे जिनको पूर्व जन्म का ज्ञान इस जन्म में उपस्थित नहीं होता। पहले प्रकार के स्वयंबुद्ध गुरु के पास जाकर लिग (वेश) धारण करते हैं और नियमित रूप से गच्छ में रहते हैं। दूसरे प्रकार के स्वयंबुद्ध गुरु के पास जाकर वेश स्वीकार करते हैं अथवा उनको देवता वेश दे देता है। यदि वे अकेले विचरने में समर्थ हों और
हो
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग mmmmmmmmwww तो वे अकेले विचर सकते हैं अन्यथा गच्छ में रहते हैं। प्रत्येक बुद्ध को पूर्व जन्म का ज्ञान इस जन्म में अवश्य उपस्थित होता है। वह ज्ञान जघन्य ग्यारह अङ्गका और उत्कृष्ट किञ्चिदून (कुछ कम)दस पूर्व का होता है । दीक्षा लेते समय देवता उन्हें लिङ्ग (वेश) देते हैं अथवा वे लिङ्ग रहित भी होते हैं।
(७) बुद्ध बोद्धित सिद्ध-प्राचार्यादि के उपदेश से बोध प्राप्त कर मोक्ष जाने वाले बुद्ध बोधित सिद्ध कहलाते हैं ।
(८) स्त्रीलिङ्ग सिद्ध-स्त्रीलिङ्ग से मोक्ष जाने वाले स्त्रीलिङ्ग सिद्ध कहलाते है। यहॉ स्त्रीलिङ्ग शब्द स्त्रीत्व का सूचक है। स्त्रीत्व (स्त्रीपना) तीन प्रकार का बतलाया गया है- (क) वेद (ख) शरीराकृति और (ग)वेश। यहाँ पर शरीराकृति रूप स्त्रीत्व लिया गया है क्योंकि वेद के उदय में तो कोई जीव सिद्ध हो नहीं सकता
और वेशअप्रमाण है,अतः यहाँशरीराकृतिरूप स्त्रीत्व की ही विवक्षा है। नन्दी सूत्र में चूर्णिकार ने भी लिखा है कि स्त्री के आकार में रहते हुए जो मोक्ष गये हैं वे स्त्रीलिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं।
(8) पुरुपलिङ्ग-पुरुष की आकृति रहते हुए मोक्ष में जाने वाले पुरुषलिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं।
(१०) नपुंसक लिङ्ग सिद्ध- नपुंसक की आकृति में रहते हुए मोक्ष जाने वाले नपुंसक लिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं।
(११) स्खलिङ्ग सिद्ध-साधुके वेश (रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि) में रहते हुए मोक्ष जाने वाले स्वलिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं।
(१२) अन्यलिङ्ग सिद्ध-परिव्राजक आदि के वल्कल, गेरुए वस्त्र आदि द्रव्य लिङ्ग में रह कर मोक्षजाने वाले अन्यलिङ्ग सिद्ध कहलाते हैं।
(१३) गृहस्थलिङ्ग सिद्ध- गृहस्थ के वेश में मोक्ष जाने वाले गृहस्थलिङ्ग (गृहीलिङ्ग) सिद्ध कहलाते हैं,जैसे मरुदेवी माता।
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
~~~~
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
~www.a
www
(१४) एक सिद्ध - एक एक समय में एक एक मोक्ष जाने
वाले एक सिद्ध कहलाते हैं ।
(१५) अनेक सिद्ध - एक समय में एक से अधिक मोक्ष जाने वाले अनेक सिद्ध कहलाते हैं। एक समय में अधिक से अधिक कितने मोक्ष जा सकते हैं। इसके लिए बतलाया गया है
बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य योद्धव्वा । चुलसीई नउई उ दुरहियमट्टूत्तर सयं च ॥ भावार्थ - एक समय से आठ समय तक एक से लेकर वत्तीस तक जीव मोक्ष जा सकते हैं इसका तात्पर्य यह है कि पहले समय में जघन्य एक, दो और उत्कृष्ट बत्तीस जीव सिद्ध हो सकते हैं । इसी तरह दूसरे समय में भी जघन्य एक, दो और उत्कृष्ट बत्तीस और तीसरे, चौथे यावत् आठवें समय तक जघन्य एक, दो, उत्कृष्ट बत्तीस जीव सिद्ध हो सकते हैं । आठ समय के पश्चात् निश्चित रूप से अन्तरा पड़ता है |
1
तेतीस से लेकर अड़तालीस जीव निरन्तर सात समय तक मोक्षजा सकते हैं। इसके पश्चात् निश्चित रूप से अन्तरा पड़ता है । ऊनपचास से लेकर साठ तक जीव निरन्तर छः समय तक मोक्ष जा सकते हैं इसके बाद अवश्य अन्तरा पड़ता है। इकसठ से बहत्तर तक जीव निरन्तर पाँच समय तक, तिहत्तर से चौरासी तक निरन्तर चार समय तक, पचासी से छयानवें तक निरन्तर तीन समय पर्यन्त, सत्तानवें से एक सौ दो तक निरन्तर दो समय तक मोक्षजा सकते हैं इसके बाद निश्चित रूप से अन्तरा पड़ता है । एक सौ तीन से लेकर एक सौ आठ तक जीव निरन्तर एक समय तक मोक्ष जा सकते हैं अर्थात् एक समय में उत्कृष्ट एक सौ आठ सिद्ध हो सकते हैं। इसके पश्चात् अवश्य अन्तरा पड़ता है। दो तीन यदि समय तक निरन्तर उत्कृष्ट सिद्ध नहीं हो सकने ।
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
.
www^~^
१२१
लिङ्ग की अपेक्षा सिद्धों का अल्प बहुत्व इस प्रकार हैथोवा नपुंससिद्धा, श्रीनर सिद्धा कमेण संखगुणा । सब से थोड़े नपुंसक लिङ्ग सिद्ध हैं क्योंकि एक समय में उत्कृष्ट दस मोक्ष जा सकते हैं। नपुंसक लिङ्ग सिद्धों से स्त्रीलिङ्ग सिद्ध संख्यातगुणे अधिक हैं क्योंकि एक समय में उत्कृष्ट बीस सिद्ध हो सकते हैं । स्त्रीलिङ्ग सिद्धों से पुरुष लिङ्ग सिद्ध संख्यात गुणे अधिक हैं क्योंकि एक समय में उत्कृष्ट १०८ मोक्ष जा सकते हैं। ( पन्नत्रणा पद १ जीवप्रज्ञापना प्रकरण )
अंग
८५० - मोक्ष के पन्द्रह
नादि काल से जीवनिगोदादि गतियों में परिभ्रमण कर रहा है। कई जीव ऐसे भी हैं जिन्होंने स्थावर अवस्था को छोड़ कर त्रस अवस्था को भी प्राप्त नहीं किया । त्रसत्व (त्रस अवस्था) आदि मोक्ष के पन्द्रह अंग हैं। इनकी प्राप्ति होना बहुत कठिन है।
( १ ) जंगमत्व (सपना )- निगोद तथा पृथ्वीकाय आदि को छोड़ कर द्वीन्द्रियादि जङ्गम कहलाते हैं। बहुत थोड़े जीव स्थावर अवस्था से त्रस अवस्था को प्राप्त करते हैं ।
(२) पञ्चेन्द्रियत्व - जंगम अवस्था को प्राप्त करके भी बहुत से जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय होकर ही रह जाते पंचेन्द्रियपना प्राप्त होना फिर भी कठिन है ।
(३) मनुष्यत्व - पंचेन्द्रिय अवस्था प्राप्त करके भी बहुत से जीव नरक, तिर्यञ्च गतियों में परिभ्रमण करते रहते हैं। मनुष्य भव मिलना बहुत दुर्लभ है।
(४) आर्यदेश - मनुष्य भव को प्राप्त करके भी बहुत से जीव अनार्य देश में उत्पन्न हो जाते हैं जहाँ धर्म का कुछ भी ज्ञान नहीं होता । इस लिए मनुष्य भव में भी आर्य देश का मिलना कठिन है । (५) उत्तम कुल - आर्य देश में उत्पन्न होकर भी बहुत से जीव
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
नीच कुल में उत्पन्न हो जाते हैं। वहाँ उन्हें धर्मक्रिया करने की यथासाध्य सामग्री प्राप्त नहीं होती । इस लिये आर्य देश के पश्चात् उत्तम कुल का मिलना बड़ा मुश्किल है।
(६) उत्तम जांति--पितृपक्ष कुल और मातृपक्ष जाति कहलाता है । विशुद्ध एवं उत्तम जाति का मिलना भी बहुत कठिन है
4
(७) रूपसमृद्धि - आँख, कान आदि पाँचों इन्द्रियों की पूर्णता रूपसमृद्धि कहलाती है । सारी सामग्री मिल जाने पर भी यदि पाँचों इन्द्रियों की पूर्णता नं हो अर्थात् कोई इन्द्रिय हीन हो तो धर्म का यथावत् आराधन नहीं हो सकता । श्रोत्रेन्द्रिय में किसी प्रकार की हीनता होने पर शास्त्र श्रवण का लाभ नहीं लिया जा सकता । चचुरिन्द्रिय में हीनता होने पर जीवों के दृष्टि गोचर न होने से उनकी रक्षा नहीं हो सकती । शरीर के हाथ पैर आदि अवयव पूर्ण न होने से तथा शरीर के पूर्ण स्वस्थ न होने से भी धर्म का सम्यक् आराधन नहीं हो सकता। इस लिए पाँचों इन्द्रियों की पूर्णता का प्राप्त होना भी बहुत कठिन है ।
(८) वल ( पुरुषार्थ) - उपरोक्त सारी सामग्री प्राप्त हो जाने पर भी यदि शरीर में बल न हो तो त्याग और तप कुछ भी नहीं हो सकता । अतः शरीर में सामर्थ्य का होना भी परमावश्यक है।
१२२
(६) जीवित - बहुत से प्राणी जन्म लेते ही मर जाते हैं या अन्यवय में ही मर जाते हैं । लम्वी आयुष्य मिले विना प्राणी धर्म क्रिया नहीं कर सकता । अतः जीवित अर्थात् दीर्घ आयु का मिलना भी मोक्ष का अंग है ।
(१०) विज्ञान - लम्बी आयुष्य प्राप्त करके भी बहुत से जीव विवेकविफल होते हैं । उन्हें सद् असद् एवं हिताहित का ज्ञान नहीं होता इसी लिये जीवादि नव तत्त्व के ज्ञान के प्रति उनकी रुचि नहीं होती । नव तत्त्वों का यथावत् ज्ञान कर आत्महित की
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त योल संग्रह, पांचवा भाग १२३ ~r mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm. ओर प्रवृत्ति करना ही सच्चा विज्ञान है ।
(११) सम्यक्त-सर्वेश द्वारा प्ररूपित पारमार्थिक जीवाजीवादि पदार्थों पर श्रद्धान करना सम्यक्त है। सम्यक्समाप्ति के बिना जीव को मोक्ष पद की प्राप्ति नहीं होती।
(१२)शील सम्माप्ति- बहुत से जीव सम्यक्त प्राप्त करके भी चारित्र प्राप्त नहीं करते। चारित्र प्राप्ति के विना जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। विज्ञान,सम्यक्त और शील सम्माप्ति अर्थात सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों मोक्ष के प्रधान अंग हैं। श्री उमास्वाति आचार्य ने तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है कि'सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः'
अर्थात्- सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों मिल कर मोक्ष का मार्ग हैं । इन तीनों की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है।
(१३) क्षायिक भाव- कर्मों के सर्वथा क्षय होने पर प्रकट होने वाला परिणाम क्षायिक भाव कहलाता है। बहुत से जीव चारित्र प्राप्त करके भी क्षायिक भाव प्राप्त नहीं करते। नायिक भाव के नौ भेद हैं-(१) केवलज्ञान (२) केवल दर्शन (३) दान लब्धि (४) लाभ लब्धि (५) भोग लब्धि (६)उपभोगलब्धि (७) वीर्य लब्धि (E) सम्यक्त (8) चारित्र । चार सर्वघाती कर्मों के तय होने पर ये नौ भाव प्रकट होते हैं। ये नौसादिअनन्त हैं।
(१४) केवलज्ञान- क्षायिक भाव की प्राप्ति के पश्चात् घाती कर्मों का सर्वथा तय हो जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। केवलज्ञान हो जाने पर जीव सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है।
(१५) मोक्ष-आयुष्य पूर्ण होने पर अव्यावाध मोक्ष सुख की प्राप्ति हो जाती है।
उपरोक्त पन्द्रह मोक्ष के अङ्ग (उपाय) हैं। इन में से बहुत से अंग इस जीव को प्राप्त हो गये हैं। इस लिये अब शील सम्प्राप्ति
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४ rammmmmmmmmm
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(चारित्र प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये। चारित्र चिन्तामरि के तुल्य है । इसकी प्राप्ति के बाद दूसरी बातें शीघ्र ही प्राप्त है जाती हैं। अतः प्रमाद रहित होकर सदा काल चारित्र माप्ति लिये यत्न करना चाहिये। . (पच वस्तुक, गाथा १५६-१६ ८५१- दीक्षा देने वाले गुरु के पन्द्रह गुण
गृहस्थावास छोड़ कर पाँच महाव्रत रूप मुनि व्रत अंगीका करने को दीक्षा कहते हैं। नीचे लिखे पन्द्रह गुणों से युक्त साधु पनि व्राजक पद अर्थात् दीक्षा देने वाले गुरु के पद के लिये योग्य होता है
(१) विधिप्रपन्न प्रव्रज्य- दीक्षा देने वाला गुरु ऐसा होन चाहिए जिसने स्वयं विधि पूर्वक दीक्षा ली हो।।
(२) आसेवित गुरु क्रम-जिसने गुरु की चिर काल तक सेव की हो अर्थात् जो गुरु के समीप रहा हो।
(३) अखण्डित व्रत-दीक्षा अंगीकर करने के दिन से लेक जिसने कभी चारित्र की विराधना न की हो।
(४)विधिपठितागम-सूत्र, अर्थ और तदुभय रूप आगम के जिसने गरु के पास रह कर विधिपूर्वक पढ़ा हो।
(५) तत्त्ववित्-शास्त्रों के अध्ययन से निर्मल ज्ञान वाला होने से जो जीवाजीवादि तत्वों को अच्छी तरह जानता हो।
(६)उपशान्त-मन,वचन और काया के विकार से रहित हो। (७) वात्सल्ययुक्त-साधु,साध्वी,श्रावक और श्राविका रूप संघ में वत्सलता अर्थात् प्रेम रखने वाला हो।।
(८) सर्वसत्त्वहितान्वेपी-संसार के सभी प्राणियों का हित चाहने वाला और उसके लिए प्रयत्न करने वाला हो।
(8)आदेय- जिसकी वात दूसरे लोग मानते हों। ( १० ) अनुवर्तक-विचित्र स्वभाव वाले प्राणियों को ज्ञान,
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, पांचवां भाग
१२५
दर्शन,चारित्र की शिक्षा देकर उनका पालन पोषण करने वाला हो।
(११) गम्भीर- रोष अथोत क्रोध और तोष अथोत प्रसन्न अवस्था में भी जिसके दिल की बात को कोई न समझ सके।
(१२) अविषादी- किसी भी प्रकार का उपसर्ग होने पर जो दीनता न दिखावे अर्थात् न घवरावे ।
(१३) उपशम लब्ध्यादियुक्त-उपशम लब्धि आदिलब्धियों को धारण करने वाला हो। जिस लब्धि अर्थात् शक्ति से दूसरे को शान्त कर दिया जाय उसे उपशम लब्धि कहते हैं।
(१४) सूत्रार्थभाषक-आगमों के अर्थ को ठीक ठीक बताने वाला हो।
(१५) स्वगुर्वनुज्ञातगुरुपद- अपने गुरु से जिसे गुरु बनने की अनुमति मिल गई हो।
इन पन्द्रह में से जिस गुरु में जितने गुण कम हों वह उनकी अपेक्षा मध्यम या जघन्य गुरु कहा जाता है।
(धर्मसग्रह अधिवार ३ श्लोक ८०-८४ ८५२- विनीत के पन्द्रह लक्षण
गुरु आदि बड़े पुरुषों की सेवा शुश्रूषा करने वाला विनीत कहलाता है। विनीत के पन्द्रह लक्षण हैं
(१) विनीत शिष्य नीचवृत्ति (नम्र) होता है अर्थात् विनीत शिष्य गरु आदि के सामने नम कर रहता है, नीचे आसन पर बैठता है, हाथ जोड़ता है और चरणों में धोक देता है।
(२) प्रारम्भ किए हुए काम को नहीं छोड़ता, चञ्चलता नहीं करता, जल्दी जल्दी नहीं चलता किन्तु विनय पूर्वक धीरे धीरे चलता है। कई लोग एक जगह बैठे हुए भी हाथ पैर आदि शरीर के अगों को हिलाया करते हैं किन्तु विनीत शिष्य ऐसा नहीं करता। असत्य, कठोर और अविचारित वचन नहीं बोलता, एक काम
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
مجم
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
को पूरा किए बिना दुसरा काम शुरू नहीं करता।
(२) अमायी (सरल) होता है अर्थात् गुरु आदि से छल, कपट नहीं करता।
(४) अकुतूहली अर्थात् क्रीड़ा से सदा दर रहता है। खेल, तमाशे आदि देखने की लालसा नहीं करता।
(५) विनीत शिष्य अपनी छोटी सी भूल को भी दर करने की कोशिश करता है। वह किसी का अपमान नहीं करता।
(६)वह क्रोध नहीं करता तथा क्रोधोत्पत्ति के कारणों से भी सदा दूर रहता है।
(७) मित्र का प्रत्युपकार करता है अर्थात् अपने साथ किए हुए उपकार का बदला चुकाता है । वह कभी कृतघ्न नहीं बनता।
(८) विद्या पढ़ कर अभिमान नहीं करता किन्तु जैसे फलों के आने पर हत्त नीचे की ओर झुक जाता है उसी प्रकारविद्या रूपी फल को प्राप्त कर वह नम्र बन जाता है।
(8)किसी समय आचार्यादिद्वारा किसी प्रकार की स्खलना (गल्ती) हो जाने पर उनका तिरस्कार तथा अपमान नहीं करता अथवा वह पाप की उपेक्षा नहीं करता।
(१०) बड़े से बड़ा अपराध होने पर भी कृतज्ञता के कारण मित्रों पर क्रोध नहीं करता।
(११) अप्रिय मित्र का भी पीठ पीछे दोप प्रकट नहीं करता अर्थात जिसके साथ एक बार मित्रता कर ली है, यद्यपि वह इस ममय सैकड़ों अपकार (बुगई) भी कर रहा हो, तथापि उसके पहले के उपकार (भलाई) का स्मरण कर उसके दोप प्रकट नहीं करता अपितु उसके लिए भी कल्याणकारी वचन ही कहता है। (१२) कलह और डमर (लड़ाई) से सदा दूर रहता है। (१३) कुलीनपने को नहीं छोड़ता अर्थात् अपने कोसौंपे हुए
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१२७
कार्य को नहीं छोड़ता।
(१४) विनीत शिष्य ज्ञानवान होता है। किसी समय बुरे विचारों के आजाने पर भी वह कुकार्य में प्रवृत्ति नहीं करता।
(१५) बिना कारण गुरु के निकट या दूसरी जगह इधर उधर नहीं घूमता फिरता। उपरोक्त गुणों वाला पुरुष विनीत कहलाता है।
(उत्तराध्ययन अध्ययन ११ गाथा १०-१३) ८५३-पूज्यताको बतलाने वाली पन्द्रह गाथाएं
दशवकालिक मूत्र के विनय ममाधि नामक नवें अध्ययन के तीसरे उद्देशे में पूज्यता को बतलाने वाली पन्द्रह गाथाएं आई है। उन गाथाओं में बतलाया गया है कि किन किन गुणों के धारण करने से साधु पूज्य ( पूजनीय ) बन जाता है। उन गाथाओं का भावार्थ क्रमशः नीचे दिया जाता है
(१) जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण अग्नि की पूजा करता है उसी प्रकार वुद्धिमान् शिप्य को प्राचार्य की पूजा यानी सेवा शुश्रषा करनी चाहिये क्योंकि जोप्राचार्य की दृष्टि एवं इंगिताकार आदि कोजान कर उनके भावानुकूल चलता है वह पूजनीय होता है।
(२) जो प्राचारप्राप्ति के लिये विनय करता है, जो भक्तिपूर्वक गुरुवचनों को सुन कर स्वीकार करता है तथा गुरु के कथनानुसार शीघ्र ही कार्य सम्पन्न कर देता है, जो कभी भी गुरु महाराज की आशातना नहीं करता वह शिष्य संसार में पूज्य होता है।
(३) अपने से गुणों में श्रेष्ठ एवं लघुवयस्क होने पर भी दीक्षा में बड़े मुनियों की विनय भक्ति करने वाला, विनय की शिक्षा से सदा नम्र एवं प्रसन्नमुख रहने वाला, मधुर और सत्य बोलने वाला, आचार्य को वन्दना नमस्कार करने वाला एवं उनके वचनों को कार्यरूप से स्वीकार करने वाला शिष्य पूजनीय होता है।
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(४)संयम यात्रा के निर्वाहार्थ जो सदा विशुद्ध,भिक्षा लब्ध एवं अज्ञात कुलों से थोड़ा थोड़ा ग्रहण किया हुश्रा आहार पानी भोगता है और जो आहार के मिलने तथा न मिलने पर स्तुति और निन्दा नहीं करता वह साधु संसार में पूजनीय होता है।
(५) संस्तारक, शय्या, आसन, भोजन और पानी आदि के अधिक लाभ हो जाने पर भी जो अल्प इच्छा और अमूर्छा भाव रखता है और सदा काल सन्तोषभाव में रत रहता है, तथा अपनी आत्मा को सभी प्रकार से सन्तुष्ट रखता है वह साधु संसार में पूजनीय होता है। . ..
(६)धन प्राप्ति श्रादि की अभिलाषा से मनुष्य लोहमय तीक्ष्ण वाणों को सहन करने में समर्थ होता है परन्तु जो साधु विना किसी लोभ लालच के कर्णकटु वचन रूपी कण्टकों को सहन करता
है वह निःसन्देह पूजनीय हो जाता है। (७) शरीर में चुभे हुए लोह कण्टक तो मर्यादित समय तक ही दुःख पहुँचाने वाले होते हैं और फिर वे सुयोग्य वैद्य द्वारा सुख पूर्वक निकाले जा सकते हैं किन्तु वचन रूपी कण्टक अतीव दुरुद्धर है अर्थात् हृदय में चुभ जाने के बाद वे बड़ी कठिनता से निकलते हैं। कठोर वचन रूपी कण्टक परम्परया वैर भाव को बढ़ाने वाले एवं महा भय को उत्पन्न करने वाले होते हैं।
(८) समूह रूप से सन्मुख आते हुए कटुवचन महार श्रोत्र मार्गसे हृदय में प्रविष्ट होते ही दौमनस्य भाव उत्पन्न कर देते हैं अर्थात कटु वचनों को सुनते ही हृदय में दुष्ट भावना उत्पन्न हो जाती है परन्तु जोसंयममागे मंशूरवीर,इन्द्रिया पर विजय प्राप्त करने वाला पुरुष इन कटु वचनों के प्रहार को शान्ति से समभाव पूर्वक सहन कर लेता है वह संसार में पूजनीय हो जाता है। (B)जो मुनि पीठ पीछे या सामने किसी की निन्दा नहीं करता
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग १२६ wwmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ~~~~~~~~~~
और परपीडाकारी, निश्चयकारी एवं अप्रियकारी वचन भी नहीं बोलता वह साधु पूजनीय हो जाता है।
(१०)जो साधु किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं करता, मंत्र तंत्राादि ऐन्द्रजालिक झगड़ों में नहीं पड़ता, माया के फन्दे में नहीं फंसता, किसी की चुगली नहीं करता, संकट से घबराकर दीनता धारण नहीं करता, दूसरों से अपनी स्तुति नहीं करवाता
औरन अपने मुंह से अपनी स्तुति करता है तथा खेल, तमाशे आदि कलाओं में कौतुक नहीं रखता है वह साधु पूजनीय हो जाता है। ___ (११) हे शिष्य ! गुणों से साधु और अगुणों से असाधु होता है अत एव तुझे साधु गुणों को तो ग्रहण करना चाहिये और अगुणों को सर्वथा छोड़ देना चाहिये क्योंकि अपनी आत्मा को अपनी आत्मा से ही समझाने वाला तथा राग द्वेष में समभाव रखने वाला गुणी साधु ही पूजनीय होता है।
(१२) जो साधु बालक, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, दीक्षित और गृहस्थ मादिकी हीलना(निन्दा),खिंसना (बारम्बार निन्दा)नहीं करता तथा क्रोधादि कषायों से दूर रहता है वह पूजनीय हो जाता है।
(१३)जो शिष्य आचार्य को विनय भक्ति आदि से सम्मानित करते हैं वे स्वयं भी प्राचार्य से विद्यादान द्वारा सम्मानित होते हैं। जिस प्रकार माता पिता अपनी कन्या को सुशिक्षित कर योग्य वर के साथ पाणिग्रहण द्वारा श्रेष्ठ स्थान में पहुंचा देते हैं, उसी प्रकार आचार्य भी अपने विनीत शिष्यों को सूत्रार्थ का ज्ञाता बना कर आचार्यपद जैसे ऊँचे पदों पर प्रतिष्ठित कर देते हैं । जो सत्यवादी,जितेन्द्रिय औरतपस्वी साधु ऐसे सम्मान योग्य आचार्यों का सम्मान करता है वह संसार में पूज्य हो जाता है।
(१४) जो मुनि पूर्ण बुद्धिमान् , पाँच महाव्रतों का पालक, तीन गुप्तियों का धारक और चारों कषायों पर विजय प्राप्त करने
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वाला होता है और गुणों के सागर गुरुजनों के वचनों को विनय पूर्वक सुन कर तदनुसार भाचरण करने वाला होता है वह मुनि संसार में पूजनीय हो जाता है।
(१५)जैनागम के तत्त्वों को पूर्णरूप से जानने वाला, अतिथि साधुओं की दत्तचित्त से सेवा-भक्ति करने वाला साधु अपने गुरु महाराज की निरन्तर सेवा भक्ति करके पूर्वकृत कर्मों को तय कर देता है और अन्त में दिव्य तेजोमयी, अनुपम सिद्धगति को प्राप्त कर लेता है।
(दशवैकालिक अध्ययन ६ उद्देशा ३) ८५४- अनाथता की पन्द्रह गाथाएँ
उत्तराध्ययन सूत्र के बीसवें अध्ययन का नाम महानिर्ग्रन्थीय है। इसमें अनाथी मुनि का वर्णन है। ___ एक समय मगध देश का खामी राजा श्रेणिक सैर करने के लिए जंगल की ओर निकला। सैर करता हुआ राजा मंडितकुति नामक उद्यान में श्रा पहुँचा। वहाँ एक वृक्ष के नीचे पद्मासनलगाए हुए एकध्यानस्थ मुनि को देखा। मुनि की प्रसन्न मुखमुद्रा, कान्तिमय देदीप्यमान विशाल भाल और सुन्दर रूप को देख कर राजा श्रेणिक विस्मित एवं आश्चर्यचकित होगया।वह विचार करने लगा कि अहा ! कैसी इनकी कान्ति है ? कैसा इनका अनुपम रूप है ? अहा ! इस योगीश्वर की कैसी अपूर्व सौम्यता, क्षमा, निर्लोभता तथा भोगों से निवृत्ति है! उस योगीश्वर के दोनों चरणों को नमस्कार करके प्रदक्षिणा देकर न अति दूर और न अति पास इस तरह खड़ा होकर, दोनों हाथ जोड़ कर राजाश्रेणिक विनय पूर्वक इस प्रकार पूछने लगा*हे आर्य ! इस तरुणावस्था में भोग विलास के समय आपने दीक्षा क्यों ली है?आपको ऐसी क्या प्रेरणा मिली जिससे आपने
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त घोल संग्रह, पांचवां भाग
१३१
इस तरुण वय में यह कठोर व्रत (मुनिव्रत) धारण किया है ? इन वातों का उत्तस्मै भापके मुख से सुनना चाहता हूँ।
राजा के प्रश्न को सुन कर मुनि कहने लगे कि हे राजन् ! मैं अनाय हूँ, मेरा रतक कोई नहीं है और न मेरा कोई कृपालु मित्र ही है। इसी लिए मैंने मुनिव्रत धारण कर लिया है।
योगीश्वरका उत्तर सुन कर मगध देश के अधिपति राजाश्रेणिक को हंसी आ गई। वह योगीश्वरसे कहने लगा कि क्या आप जैसे प्रभावशाली तथा समृद्धिशाली पुरुष को अभी तक कोई स्वामी नहीं मिल सका है ? हे योगीश्वर ! यदि सचमुच आपका कोई सहायक नहीं है तो मैं सहायक होने को तैयार हूँ। मनुष्यभव (जन्म) अत्यन्त दुर्लभ है इस लिए आप मित्र तथा स्वजनों से युक्त होकर सुखपूर्वक हमारे पास रहो और यथेच्छ भोगों को भोगो।
योगीश्वर कहने लगे कि हे मगधेश्वर श्रेणिकातू स्वयं ही अनाथ है। जो स्वयं अनाथ है वह दसरों का नाथ कैसे हो सकता है ? मुनि के वचन सुन कर राजा को अति विस्मय एवं आश्चर्य हुआ क्योंकि राजा के लिए ये वचन अश्रुतपूर्व थे। इससे पहले राजा ने ऐसे वचन कभी किसी से नहीं सुने थे। अतः उसे व्याकुलता और संशय दोनों ही हुए। राजा को यह विचार उत्पन्न हुआ कि यह योगी मेरी शक्ति, सामर्थ्य तथा सम्पत्ति को नही जानता है। इसी लिए ऐसा कहता है। राजा अपना परिचय देता हुआ योगीश्वर से कहने लगा कि मैं अनेक हाथी, घोड़ों, करोडों आदमियों, शहरों एवं देशों (अंगदेश और मगध देश) कास्वामी हूँ। सुन्दर अन्तःपुर में मनुष्य सम्बन्धी सर्वोत्तम भोग भोगता हूँ। मेरी सत्ता (आज्ञा) और ऐश्वर्य अनुपम हैं। इतनी विपुल सम्पत्ति होने पर भी मैं अनाथ कसे हूँ ? हे मुनीश्वर! कहीं भापका कथन असत्य तो नहीं है ? मुनि कहने लगे कि राजन् ! तू अनाथ और
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला minn सनाथ के परमार्थ एवं असली रहस्य को न तो जान ही सका है और न समझ ही सका है। इसीसे तुझे सन्देह हो रहा है। मुझे अनाथता का ज्ञान कहाँ और किस प्रकार हुआ और मैंने दीक्षा क्यों ली, हे राजन् ! इस सर्व वृत्तान्त को तू ध्यान पूर्वक सुन
प्राचीन नगरों में सर्वोत्तम कोशांवी नाम की एक नगरी थी। वहाँप्रभूतधनसञ्चय नाम के मेरे पिता रहते थे। एक समय तरुण अवस्था में मुझे ऑख की अतुल पीड़ा हुई और उस पीड़ा के कारण मेरे सारे शरीर में दाहज्वर हो गया।जैसे कुपित हुआ शत्र मर्मस्थानों पर अति तीक्ष्ण शस्त्रों द्वारा प्रहार कर घोर पीड़ा पहुँचाता है वैसी ही तीव्र मेरी ऑरख की पीड़ा थी। वह दाहज्वर की दारुण पीड़ा इन्द्र के वज्र की तरह मेरी कमर, मस्तक तथा हृदय को पीड़ित करती थी। उस समय वैद्यक शास्त्र में अति प्रवीण, जड़ी बुटी तथा मंत्र तंत्र आदि विद्या में पारंगत, शास्त्र विचक्षण तथा औषधि करने में अतिदक्ष अनेक वैद्याचार्य मेरे इलाज के लिये आये। उन्होंने अनेक प्रकार से मेरी चिकित्सा की किन्तु मेरी पीड़ा को शान्त करने में वे समर्थन हुए। मेरे पिता मेरे लिए सव सम्पत्ति लगा देने को तय्यार थे किन्तु उस दुःख से छुड़ाने में तो वे भी असमर्थ ही रहे । मेरी माता भी मेरी पीड़ा को देख कर दुखित एवं अतिव्याकुल हो जाती थी किन्तु दुःख दूर करने में वह भी असमर्थ थी। मेरे सगे छोटे और बड़े भाई तथा सगी बहनें भी मुझे उस दुःख से न बचा सकी। मुझ पर अत्यन्त स्नेह रखने वाली पतिपरायणा मेरी पत्नी ने सब शृङ्गारों का त्याग कर दिया था। रात दिन वह मेरी सेवा में लगी रहती, एक क्षण के लिये भी वह मेरेसे दुरन होती थी किन्तु अपने आँसुओं से मेरे हृदय को सिंचन करने के सिवाय वह भी कुछ न कर सकी। मेरेसज्जन स्नेही और कुटुम्वी जन भी मुझे उस दुःख से न छुड़ा सके यही मेरी अनाथता थी।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग ।
१३३
•
M
इस प्रकार चारों तरफ से असहायता और अनाथता का अनुभव होने से मैंने सोचा कि इस अनन्त संसार में ऐसी वेदनाएं सहन करनी पड़ें यह वात बहुत असह्य है इस लिए अब की बार यदि मैं इस दारुण वेदना से छूट जाऊँ तोक्षांत (क्षमाशील), दान्त तथा निरारम्भी होकर तत्क्षण ही संयम धारण करूँगा। हेराजन्! ‘रात्रि को ऐसा निश्चय करके मैं सो गया। ज्यों ज्यों रात्रि व्यतीत होती गई त्यों त्यों वह मेरी दारुण वेदना भी क्षीण होती गई। प्रातः काल तो मैं बिलकुल नीरोग हो गया। अपने माता पिता से आज्ञा लेकर क्षान्त, दान्त और निरारम्भी होकर संयमी (साधु) बन गया। संयम धारण करने के बाद मैं अपने आपका तथा समस्त त्रस और स्थावर जीवों का नाथ (रक्षक) हो गया।
हे राजन् ! यह आत्मा ही प्रात्मा के लिये वैतरणी नदी तथा कूटशाल्मली वृक्ष के समान दुःखदायी है और यही कामधेनु तथा नन्दन वन के समान सुखदायी भी है। यह आत्मा ही मुख दुःख काकर्ता और भोक्ता है। यदि सुमार्ग पर चले तो यह आत्मा ही अपना सब से बड़ा मित्र है और यदि कुमार्ग पर चले तो आत्मा ही अपना सबसे बड़ा शत्रु है।
इस प्रकार अनाथी मुनि ने राजा श्रेणिक को अपना पूर्ववृत्तान्त सुना कर यह बतलाया कि मुझे किस प्रकार वेदनासहन करनी पड़ी और किस प्रकार मुझे अनाथता का अनुभव हुआ।छः काय जीवों के रक्षक महाव्रतधारी मुनिराज ही सच्चे सनाथ (रक्षक) हैं किन्तु मुनिवृत्ति धारण करके जो उसका सम्यक् प्रकार से पालन नहीं कर सकते वे भी अनाथ ही हैं । यह दूसरे प्रकार की अनाथता है। इसका वर्णन इस अध्ययन की अड़तीसवीं गाथा से लेकर तरेपनवीं गाथा तक किया गया है। अतः उन पन्द्रह गाथाओं का भावार्थ क्रमशः नीच दिया जाता है -
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(१) हे राजन् ! बहुत से पुरुष निर्ग्रन्थ धर्म को अंगीकारतो कर लेते हैं किन्तु परीपह और उपसगों के आने पर कायर बन जाते हैं और साधुधर्म का सम्यक् पालन नहीं कर सकते । यह उनकी अनाथता है।
(२) जो कोई पहले महाव्रतों को ग्रहण करके बाद में अपनी असावधानता एवं प्रमादवश उनका यथोचित पालन नहीं करता
और अपनी आत्मा का निग्रह न कर सकने के कारण इन्द्रियों के विषयों में आसक्त बन कर रसलोलुप बन जाता है। ऐसा भिक्षु रागद्वेष रूपी संसार के बन्धनों का मूलोच्छेदन नहीं कर सकता क्योंकि किसी भी वस्तु को छोड़ देना सरल है किन्तु उसकी आसक्ति को दूर करना बहुत मुश्किल है।
(३) ईर्या (उपयोग पूर्वक चलना), भाषा (उपयोग पूर्वक निर्दोष भाषा बोलना), एषणा (निर्दोष भित्ता आदि ग्रहण करने की वृत्ति), पात्र, कम्बल, वस्त्रादि को यतनापूर्वक उठाना, रखना तथा कारणवशात् वची हुई अधिक वस्तु को तथा मल मूत्र आदि त्याज्य वस्तुओं को यतना पूर्वक निर्दोष स्थान में परठना, इन पॉच समितियों का जो साधु पालन नहीं करता वह वीतराग प्ररूपित धर्म का आराधन नहीं कर सकता।
(४)जो बहुत समय तक साधुव्रत की क्रिया करके भी अपने व्रत नियमों में अस्थिर हो जाता है तथा तपश्चर्या आदि अनुष्ठानों से भ्रष्ट हो जाता है ऐसा साधु बहुत वर्षों तक त्याग, संयम, केशलोच श्रादि कष्टों द्वारा अपने शरीर को सुखाने पर भी संसार सागर को पार नहीं कर सकता।
(५) ऐसा साधु पोली मुट्ठी अथवा खोटे रुपये की तरह सार (मूल्य) रहित हो जाता है, जैसे वैडूर्यमणि के सामने काच का टुकड़ा निरर्थक (व्यर्थ) है वैसे ही ज्ञानी पुरुषों के सामने वह साधु
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१३५
निर्मूल्य हो जाता है अर्थात् गुणवानों में उसका आदर नहीं होता । ( ६ ) जो रजोहरण, मुखवस्त्रिका यादि मुनि के वाह्य चिन्ह मात्र रखता है और केवल आजीविका के लिए ही वेशधारी साधु बनता है ऐसा पुरुष त्यागी नहीं है और त्यागी न होते हुए भी अपने को झूठमूठ ही साधु कहलवाता है। ऐसे वेशधारी ढोंगी साधु को बहुत काल तक नरक और तिर्यञ्च योनि के अन्दर असा दुःख भोगने पड़ते हैं ।
(७) जैसे - तालपुट विष (ऐसा दारुण विष जो तत्काल माणों का नाश करता है) खाने से, उल्टी रीति से शस्त्र ग्रहण करने से तथा अविधिपूर्वक मंत्र जाप करने से स्वयं धारण करने वाले का ही नाश हो जाता है वैसे ही चारित्र धर्म को अंगीकार करके जो साधु विषय वासनाओं की आसक्ति में फंस कर इन्द्रिय लोलुप हो जाता है वह अपने आप का पतन कर डालता है।
(८) सामुद्रिक शास्त्र, स्वमविद्या, ज्योतिष तथा विविध कौतूहल (जादूगरी) आदि विद्याओं को सीख कर उनके द्वारा श्राजीविका चलाने वाले कुसाधु को अन्त समय में वे कुविद्याएँ शरणभूत नहीं होतीं ।
विद्या वही है जिससे आत्मा का विकास हो । जिससे श्रात्मा का पतन हो वह विद्या, विद्या नहीं किन्तु कुविद्या है।
(६) वह वेशधारी साधु अपने अज्ञान रूपी अन्धकार से सदा दुखी होता है । चारित्रधर्म का यथावत् पालन न कर सकने के कारण वह इस भव में अपमानित होता है और परलोक में नरक आदि के असह्य दुःख भोगता है ।
(१०) जो साध अग्नि की तरह सर्वभक्षी बन कर अपने निमित्त बनाई मोल ली गई अथवा केवल एक ही घर से प्राप्त सदोष भिक्षा ग्रहण किया करता है वह कुसाधु अपने पापों के कारण
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
दुर्गति में जाता है।
(११) शिर का छेदन करने वाला शत्रु भी इतना अपकार नहीं कर सकता जितना कुमार्ग पर चल कर यह आत्मा अपना अपकार कर लेती है । जब यह आत्मा कुमार्ग पर चलती है तब अपना भान भी भूल जाती है। जब मृत्यु आकर गला दवाती है तब उसको अपना भूतकाल याद आता है और फिर उसे पश्चात्ताप करना पड़ता है।
(१२) साधुवृत्ति अंगीकार करके उसका यथावत् पालन न करने वाले वेशधारी साधु का सारा कष्ट सहन भी व्यर्थ हो जाता है और उसका सारा पुरुषार्थ विपरीत फल देने वाला होता है। ऐसे भ्रष्टाचारी साधु का इस लोक में अपमान होता है और परलोक में महान् दुखों का भोक्ता बनता है।
(१३) जैसे भोगरस (जिला खाद) में लोलुप (मांस खाने वाला)पक्षी स्वयं दूसरे हिंसक पक्षी द्वारा पकड़ा जाफर खूब परिताप पाता है वैसे ही दुराचारी तथा स्वच्छंदी साधु को जिनेश्वर देव के मार्ग की विराधना करके मृत्यु के समय बहुत पश्चात्ताप करना पड़ता है।
(१४) ज्ञान तथा गुण से युक्त हितशिक्षा को सुन कर वुद्धिमान् पुरुष दुराचारियों के मार्गको छोड़ कर महातपस्वी मुनीश्वरों के मार्ग पर गमन करे।
(१५) इस प्रकार चारित्र के गुणों से युक्त बुद्धिमान साधक श्रेष्ठ संयम का पालन कर निष्पाप हो जाते हैं तथा वे पूर्व संचित कमों का नाश कर अन्त में अक्षय मोक्ष मुख को प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार कर्य शत्रुओं के घोर शत्रु, दान्त,महातपस्वी,विपुल यशस्वी, दृढव्रती महामुनीश्वर अनाथी ने अनाथता का सच्चा अर्थ राजा श्रेणिक को सुनाया। इसे मुन कर राजा श्रेणिक अत्यन्त
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१३७
प्रसन्न हुआ। दोनों हाथ जोड़ कर राजाश्रेणिक उन महामुनीश्वर से इस प्रकार अर्ज करने लगा- हे भगवन् ! आपने मुझे सच्ची अनाथता का स्वरूप बड़ी ही सुन्दरता के साथ समझा दिया।
आपका मानव जन्म पाना धन्य है। आपकी यह दिव्य कान्ति, दिव्य प्रभाव, शान्त मुरवमुद्रा, उज्वल सौम्यता धन्य हैं । जिनेश्वर भगवान् के सत्यमार्ग में चलने वाले आप वास्तव में सनाथ हैं, सबान्धव हैं। हे संयमिन् ! अनाथ जीवों के आप ही नाथ हैं। सब प्राणियों के आप ही रक्षक हैं। हे क्षमा सागर महापुरुष । मैंने आपके ध्यान में विघ्न (भंग) डाल कर और भोग भोगने के लिए आमन्त्रित करके आपका जो अपराध किया है उसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ।'
इस प्रकार राजाओं में सिंह के समान श्रेणिक राजाने श्रमण सिंह (साधुओं में सिंह के समान ) अनाथी मुनि की परम भक्ति पूर्वक स्तुति की। मुनि का धर्मोपदेश सुन कर राजाश्रेणिक अपने अन्तःपुर (सब रानियाँ और दास दासियाँ) और सकल कुटुम्वी जनों सहित मिथ्याल का त्याग कर शुद्ध धर्मानुयायी बन गया। __ अनाथी मुनि के इस अमृतोपम समागम से राजा श्रेणिक का रोम रोम प्रफुल्लित हो गया। परम भक्ति पूर्वक मुनीश्वर को वन्दना नमस्कार करके अपने स्थान को चला गया।
तीन गुप्तियों से गुप्त, ती इण्डों (मनदण्ड, वचन दण्ड और कायदण्ड) से विरक्त, गुणों के भण्डार अनाथी मुनि अनासक्त भाव से अप्रतिवन्ध विहार पूर्वक इस पृथ्वी पर विचरने लगे।
साधुता में ही सनाथता है। श्रादर्श त्याग में ही सनायता है। आसक्ति में अनायताहै। भोगों में ग्रासक्त होना अनाथता है और इच्छा तथा वासना की परतन्त्रता में भी अनाथता है। अनाथता को छोड करसनाथ होनाअपने भाप ही अपना मित्र बनना प्रत्येक
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
NAAMANA
मुमुक्षु का कर्तव्य है। (उत्तराध्ययन महानिर्ग्रन्यीय नामक २० वा अध्ययन) ८५५-योग अथवा प्रयोगगति पन्द्रह __ मन, वचन और काया के व्यापार को योग कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से मन वचन और कोयवर्गणा के पुद्गलों का आलम्बन लेकर आत्म प्रदेशों में होने वाले परिस्पंद, कंपन या हलन चलेन को भी योग कहते हैं। आलम्बन के भेद से इसके तीन भेद हैं-मन, वचन और काया। इनमें मन के चार। वचन के चार और काया के सात, इस प्रकार कुल पन्द्रह भेद हो जाते हैं। पनवणा सूत्र में योग के स्थान पर प्रयोग शब्द है। इन्हीं को प्रयोगगति भी कहा जाता है
(१) सत्य मनोयोग-मन का जोव्यापार सत् अर्थात् सज्जनपुरुष या साधुओं के लिये हितकारी हो, उन्हें मोक्ष की ओर ले जाने वाला हो उसे सत्यमनोयोग कहते हैं अथवा जीवादि पदार्थों के अनेकान्त रूप यथार्थ विचार को सत्य मनोयोग कहते हैं।
(२) असत्य मनोयोग- सत्य से विपरीत अर्थात् संसार की ओर ले जाने वाले मन के व्यापार को असत्य मनोयोग कहते हैं अथवा जीवादि पदार्थ नहीं हैं, एकान्त सत् हैं इत्यादि एकान्त रूप मिथ्या विचार असत्य मनोयोग है।
(३) सत्यमृपा मनोयोग- व्यवहार नय से ठीक होने पर भी निश्चय नय से जो विचार पूर्ण हो न हो, जैसे- किसी उपवन में धव, खैर,पलाश आदि के कुछ पेड़ होने पर भी अशोकक्ष अधिक होने से उसे अशोक वन कहना । वन में अशोकक्षों के होने से यह बात सत्य है और धव आदि के वृक्ष होने से मृपा(असत्य)भी है।
(४)असत्यामृपा मनोयोग-जो विचार सत्य नहीं है और असत्य भी नहीं है उसे असत्यामृपा मनोयोग कहते हैं। किसी प्रकार का विवाद खड़ा होने पर वीतराग सर्वज्ञ के बताए हुए
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग wwmorrowrwww wwwmar mmmmmmmmmmmmmm सिद्धान्त के अनुसार विचार करने वाला आराधक कहा जाता है उसका विचार सत्य है । जो व्यक्ति सर्वज्ञ के सिद्धान्त से विषरीत विचरता है, जीवादि पदार्थों को एकान्त नित्य आदि बताता है वह विराधक है । उसका विचार असत्य है। जहाँवस्तु को सत्य या असत्य किसी प्रकार सिद्ध करने की इच्छा न हो केवल वस्तु का.खरूप मात्र दिखाया जाय, जैसे- देवदत्त ! घड़ा लामो इत्यादि चिन्तन में वहाँ सत्य या असत्य कुछ नहीं होता।आराधक विराधक की फल्पना भी वहाँ नहीं होती । इस.प्रकार के विचार को असत्यामृषा मनोयोग कहते हैं। यह भी व्यवहार नय की अपेक्षा है। निश्चय नय से तो इसका सत्य या असत्य में समावेश हो जाता है।
(५-६-७-८)ऊपर लिखे मनोयोग के अनुसार वचन योग के भी चार भेद हैं- (५) सत्य वचन योग (६) असत्य वचन योग (७) सत्यमृषा वचन योग (८)असत्यामृषा वचन-योग।
काय योग के सात भेद (६) औदारिक शरीर काय योग- काय का अर्थ है समूह । औदारिक शरीर पुद्गल स्कन्धों का समूह है, इस लिए फाय है। इस में होने वाले व्यापार को औदारिक शरीर काय योग कहते हैं। यह योग पर्याप्त तिर्यञ्च और मनुष्यों के ही होता है।
(१०) औदारिक मिश्र शरीर काय योग-वैक्रिय,आहारक और कार्मण के साथ मिले हुए औदारिक को औदारिक मिश्र कहते हैं । औदारिक मिश्र के व्यापार को औदारिक मिश्र शरीर काय योग कहते हैं।
(११) वैक्रिय शरीर काय योग- वैक्रिय शरीर पर्याप्ति के - कारण पर्याप्त जीवों के होने वाला वैक्रिय शरीर का व्यापार वैक्रिय शरीर काय योग है।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(१२) वैक्रिय मिश्र शरीर काय योग- देव और नारकी जीवों के अपर्याप्त अवस्था में होने वाला काय योग वैक्रिय मिश्र शरीर काययोग है। यहाँ वैक्रिय और कार्मण की अपेक्षा मिश्र योग होता है ।
(१३) आहारक शरीर काययोग - आहारक शरीर पर्याप्ति के द्वारा पर्याप्त जीवों को आहारक शरीर काययोग होता है ।
१४०
(१४) आहारक मिश्र शरीर काययोग - जिस समय आहारक शरीर अपना कार्य करके वापिस आकर औदारिक शरीर में प्रवेश करता है उस समय आहारक मिश्र शरीर काय योग होता है ।
(१५) तैजस कारण शरीर योग-विग्रह गति में तथा सयोगी केवली को समुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में तैजस कार्मण शरीर योग होता है । तैजस और कार्मरण सदा एक साथ रहते हैं, इस लिए उन के व्यापार रूप काय योग को भी एक ही माना है । काय योग के सात भेदों का विशेष स्वरूप इसी के दूसरे भाग के बोल नं० ५४७ में दिया गया है।
(पन्नवणा पद १६ ) (भगवती शतक २५ उद्देशा १)
८५६ - बन्धन नामकर्म के पन्द्रह भेद
जिस प्रकार लाख, गोंद आदि चिकने पदार्थ दो वस्तुओं को आपस में जोड़ देते हैं उसी प्रकार जो कर्म शरीरनामकर्म के वल से वर्तमान में ग्रहण किए जाने वाले पुद्गलों को पहले ग्रहण किए हुए पुलों के साथ जोड़ देता है, उसे बन्धन नामकर्म कहते हैं । इस से दार आदि शरीरों द्वारा ग्रहण होने वाले नए पुद्गल शरीर के साथ चिपक कर एकमेक हो जाते हैं। पाँच शरीरों में श्रदारिक, वैक्रिय और आहारक ये प्रत्येक भव में नए पैदा होते हैं इस लिए प्रथम उत्पत्ति के समय इनका सर्ववन्ध और बाद में देशबन्ध होता है अर्थात् उसी शरीर में नए नए पुद्गल आकर चिपकते रहते हैं । तैजस और कार्मण शरीर
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १४१
जीव के साथ अनादि काल से लगे हुए हैं इस लिए उन दोनों का सर्वबन्ध नहीं होता, केवल देशबन्ध ही होता है । बन्धन नामकर्म के पन्द्रह भेद हैं
( १ ) औदारिक- औदारिक बन्धन - जिस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत अर्थात् पहले ग्रहण किए हुए औदारिक पुद्गलों के साथ गृह्यमाण अर्थात् जिनका वर्तमान समय में ग्रहण किया जा रहा हो ऐसे श्रदारिक पुगलों का आपस में मेल हो जावे उसे औदारिक दारिक शरीर बन्धन नामकर्म कहते हैं।
( २ ) औदारिक तैजस बन्धन - जिस कर्म के उदय से औदारिक पुद्गलों का तैजस पुगलों के साथ सम्बन्ध हो उसे औदारिक तैजस बन्धन नामकर्म कहते हैं ।
(३) श्रदारिक कार्मण बन्धन - जिस कर्म के उदय से औदारिक पुद्गलों का कार्मण पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होता है उसे दारिक कार्मण बन्धन नामकर्म कहते हैं।
औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर के पुगलों का परस्पर सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि वे परस्पर विरुद्ध हैं । बन्धन नामकर्म के शेष भेद निम्न लिखित हैं
( ४ ) वैक्रिय वैक्रिय बन्धन ।
( ५ ) वैक्रिय तेजस बन्धन । ( ६ ) वैक्रिय कार्मण बन्धन | (७) आहारक आहारक बन्धन । (८) आहारक तैजस बन्धन । ( 8 ) आहारक कार्मण बन्धन । (१०) औदारिक तैजस कार्मण बन्धन । (११) वैक्रिय तैजस कार्मण बन्धनं । (१२) आहारक तैजस कार्मण बन्धन |
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(१३) तैजस तैजस बन्धन। . (१४) तैजस कार्मण वन्धन । (१५) कामण कामण बन्धन ।
(कर्मग्रन्थ पहला गाथा ३५ और ३७) (कर्मप्रकृति गाथा १) ८५७- तिथियों के नाम पन्द्रह
एकम से लेकर पूर्णिमा या अमावस्या तक पन्द्रह तिथियाँ हैं। चन्दपण्णत्ति में इनके नाम नीचे लिखे अनुसार दिए हैं
प्रचलित नाम दिन का नाम रात्रि का नाम (१) प्रतिपदा
पूर्वाग
उत्तमा (२) द्वितीया सिद्धमनोरम मुनक्षत्रा (३) तृतीया
मनोहर - एलावची (४) चतुर्थी यशोभद्र यशोधरा (५) पंचमी यशोधर सौमनसी (६) पष्ठी
सर्वकाम समेध श्रीभूता (७) सप्तमी इन्द्रमूर्धाभिषेक विजया (८) अष्टमी
सौमनस वैजयन्ती (8) नवमी
धनञ्जय
जयन्ती (१०) दशमी अर्थसिद्ध अपराजिता (११) एकादशी अभिजित् (१२) द्वादशी
अत्यसन
समाहारा (१३) त्रयोदशी शतंजय
तेजा (१४) चतुर्दशी अग्निवेश अतितेजा (१५) पञ्चदशी (पूर्णिमा) उपशम देवानन्दा
(चन्द्रप्राप्ति प्रामृत १० प्रतिप्रामृत १४) ८५८- कर्मभूमि पन्द्रह
जिन क्षेत्रों में असि (शस्त्र और युद्धविद्या) मसि (लेखन और
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, पांचवां भाग
१४३
non vuonnonvaon an imanna
पठनपाठन) और कृषि (खेती) तथा आजीविका के दूसरे साधन रूप कर्म अर्थात् व्यवसाय हों उन्हें कर्मभूमि कहते हैं। कर्मभूमियाँ पन्द्रह हैं अर्थात् पन्द्रह क्षेत्रों में उपरोक्त कर्म होते हैं- पॉच भरत, पाँच ऐरवत और पाँच महाविदेह।
(१-५)पॉच भरत-जम्बूद्वीप में एक धातकीखण्ड में दो और पुष्कराई द्वीप में दो। इस प्रकार पॉच भरत हो जाते हैं।
(६-१०) पॉच ऐरवत- जम्बूद्वीप में एक, धातकीखण्ड में दो और पुष्करार्द्ध में दो। इस प्रकार पाँच ऐरवत हो जाते हैं।
(११-१५) पाँच महाविदेह- जम्बूद्वीप में एक, धातकीखण्ड में दो और पुष्करार्द्ध मेंदो। इस प्रकार कुल ५ महाविदेड हो जाते हैं। ___ उपरोक्त पन्द्रह क्षेत्रों में से जम्बूद्वीप में तीन क्षेत्र हैं-१भरत १ ऐरवत और १ महाविदेह । धातकीखण्ड में छः क्षेत्र हैं- २ भरत २ ऐवत और दो महाविदेह । इसी प्रकार पुष्करार्द्ध में भी ६ क्षेत्र हैं। कुल मिलाकर पन्द्रह हो जाते हैं ।
(पनवणा पद १ सूत्र ६३) (भगवती शतक २० उद्देशा ८) ८५६- परमाधार्मिक पन्द्रह ___ पापाचरण और क्रूर परिणामों वाले असुरजाति के देव जो तीसरी नरक तक नारकी जीवों को विविध प्रकार के दुःख देते हैं वे परमाधार्मिक कहलाते हैं। वे पन्द्रह प्रकार के होते है
(१) अम्ब (२) अम्बरीष (३) श्याम (४) शबल (५) रौद्र (६) उपरौद्र (७) काल (८) महाकाल (8) असिपत्र (१०) धनुः (११)कुम्भ (१२) वालुका (१३) वैतरणी (१४) खरस्वर और (१५) महाघोप।
इनके भिन्न भिन्न कार्य दूसरे भाग, बोल नं० ५६० (नरक सात पृष्ठ ३२४ प्रथमावृत्ति) में दिए जा चुके हैं।
(समवायॉग १५ समवाय)
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
M
MMAmwaru
MAnnowwwmar
-
८६०- कर्मादान पन्द्रह
अधिक हिंसा वाले धन्धों से आजीविका कमाना कर्मादान है अथवा जिन कार्यों से अधिक कर्मबन्ध हो उन्हें कर्मादान कहते हैं।
शास्त्र में श्रावकों का वर्णन करते हुए कहा हैअप्पारंभा, अप्पपरिग्गहा, धम्मिया, धम्माणुया, धम्मिट्ठा, धम्मक्खाई, धम्मप्पलोड्या,धम्मप्पज्जलणा, धम्मसमुदायारा,धम्मेण चेव वित्तिकप्पेमाणा विहरंति।
(उववाह सूत्र ४१) (सूयगडांग श्रुतस्कन्ध २ मध्ययन २) अर्थात्-श्रावक अल्प आरम्भ वाले,अल्प परिग्रह वाले,धार्मिक, धर्म के अनुसार चलने वाले, धर्म में स्थिर, धर्म के कथक (धर्मोपदेशक), धर्म में होशियार, धर्म के प्रकाश वाले, धार्मिक प्राचार वाले और धर्म से ही आजीविका उपार्जन करने वाले होते हैं। ___ इस लिए श्रावक को पापकारी व्यापार न करने चाहिए। श्रावक को कर्मादान जानने चाहिए किन्तु आचरण न करना चाहिए। कर्मादान पन्द्रह हैं
(१)इंगाल कम्मे (अंगारकर्म)-कोयले बनाकर उनके धन्ध से आजीविका कमाना। ईंट वगैरह पकाना भी अंगार कर्म है क्योंकि उसमें भी अग्निकाय का महारम्भ होता है।
(२) वणकम्मे (वन कर्म)-- जंगल के वृक्ष काट कर उन्हें वेचना और इस प्रकार आजीविका चलाना। (उपासकदशाग)
भगवती सूत्र के पाठवें शतक के पाँचवें उद्देशे की टीका में दिया है-'एवं वीजपेषणाद्यपि प्रथोत् इसी प्रकार वीजा का पोसना वगैरह भी वनकर्म है।
(३) साडी कम्मे (शाकट कर्म)- गाड़ियों के बनाने,वेचने और भाड़े पर चलाने का धन्धा।
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१४५
(४) भाडी कम्मे (भाटक कर्म)-भाड़ा कमाने के लिए गाड़ी आदि से दूसरे के समान को ढोना।आवश्यकनियुक्ति में पशु को भाड़े पर देना भी भाडीकर्म बतलाया है।
(५)फोडी कम्मे (स्फोटनकर्म)-कुदाली,इल वगैरह से भूमि को फोड़ना और उसमें से निकले हुए पत्थर; मिट्टी, धातु आदि पदार्थों को बेच कर आजीविका चलाना। .
(६)दंत वाणिज्जे (दन्तवाणिज्य)-हाथी दाँत, शंख, केश, नख,चर्मादिकाधंधा करना अर्थात् हाथी दॉत आदि निकालने वालों से इन चीजों को खरीदना, पेशगी रकम या आर्डर देकर उन्हें निकलवाना और उन्हें बेच कर आजीविका चलाना दंतवाणिज्य है।
(आवश्यकनियुक्ति) (७) लक्खवाणिज्जे (लाहावाणिज्य)-लाख का व्यापार करना। जिन वस्तुओं को तैयार करने में त्रस जीवों की हिंसा हो ऐसी खान, वृक्ष, या त्रस जीवों से पैदा होने वाली सभी वस्तुएं यहॉलाता शब्द से ले ली जाती हैं। उनमें से किसी का व्यापार करना लाक्षावाणिज्य है। नोट-रेशम बनाने का धन्धा भी लाक्षावाणिज्य में आजाता है।
(८) रसवाणिज्जे (रसवाणिज्य)- मदिरा वगैरह काव्यापार अर्थात् कलाल का धन्धा करना।
(8) विसवाणिज्जे (विषवाणिज्य)-अफीम,संखिया आदि विषैली वस्तुओं का व्यापार करना । विष शब्द से वे सभी शस्त्र भी ले लिए जाते हैं जिनका प्रयोजन जीवों की हिंसा करना है।
(१०)केसवाणिज्जे (केशवाणिज्य)-केशवालेप्राणी अर्थाद दास, दासी, गाय, हाथी,घोड़ा आदि को बेचने काधन्धा करना।
(११) जंतपीलणयाकम्मे (यन्त्रपीड़नकर्म)-तिल और ईद भादि को पानी या कोल्हू में पील कर तेल या रस निकालने का
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
mmmmmmmmmwwwmwwwimmmmmmmmmwwwmummmmmmmmmmmmmon n nine arr
धन्धा करना।
(१२)निन्लंछणकम्मे (निर्लाञ्छनकर्म)- पशुओं को खसी करने (नपुंसक बनाना) आदि का धन्धा करना।
(१३) दवग्गिदावणया (दवाग्निदापनता)- खेत या भूमि साफ करने के लिए जंगलों में आग लगाना।
(१४) सरदहतलायसोसणया (सरोद्रहतडागशोषणना)खेती प्रादि करने के लिए झील,नदी,तालाब आदि को मुखाना।
(१५) असईजणपोसणया (असतीजनपोषणता)-आजीविका कमाने के लिए दुश्चरित्र स्त्रियों तथा हिंसक प्राणियों को पालना। (उपासकदशाग सूत्र, मध्ययन १) (भगवती सत्र शतक ८ उद्देशा ।)
(मावश्यकनियुक्ति प्रत्याख्यानाध्ययन सूत्र ७)
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोलहवाँ बोल संग्रह
८६१ - दशवैकालिक सूत्र द्वितीय चूलिका की सोलह गाथाएं
दशवैकालिक सूत्र में दस अध्ययन और दो चूलिकाएं हैं। पहली चूलिका में १८ गाथाएं हैं। उनमें धर्म में स्थिर होने का मार्ग बताया गया है। दूसरी चूलिका का नाम विविक्तचर्या है। इस में सोलह गाथाएं हैं और साधु के लिए विहार आदि का उपदेश दिया गया है | गाथाओं का भावार्थ क्रमशः नीचे लिखे अनुसार ' ( १ ) केवली द्वारा भाषित श्रुत स्वरूप चूलिका को कहूँगा, जिसे सुन कर धर्म में श्रद्धा उत्पन्न होती है ।
(२) जब काठ नदी के प्रवाह में गिर जाता है तो वह नदी के वेग के साथ समुद्र की ओर बहने लगता है इसी प्रकार जो जीव विषय रूपी नदी के प्रवाह में पड़े हुए हैं वे संसार समुद्र की ओर बहे जा रहे हैं। जो जीव संसार सागर से विमुख होकर मुक्ति जाने की इच्छा रखते हैं उन्हें विषय रूपी प्रवाह से हट कर अपने को संयम रूपी सुरक्षित स्थान में स्थापित करना चाहिए ।
( ३ ) जिस प्रकार काठ नदी में अनुस्रोत (बहाव के अनुसार) बिना किसी कठिनाई के सरलता पूर्वक चला जाता है किन्तु प्रतिस्रोत ( बहाव के विपरीत) चलने में कठिनाई होती है उसी प्रकार संसारी जीव भी स्वाभाविक रूप से अनुस्रोत अर्थात् विषय भोगों की ओर बढ़े चले जाते हैं । प्रतिस्रोत अर्थात् विषय भोगों से विमुख होकर संयम की ओर बढ़ना बहुत कठिन है। सांसारिक कार्यों के लिए बड़े बड़े वीर कहलाने वाले व्यक्ति भी संयम के लिए अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं ।
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला wriwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwimmmmmmmmmmarr m maraww धन्धा करना।
(१२)निन्छणकम्मे (निलाञ्छनकर्म)- पशुओं को खसी करने (नपुंसक बनाना) आदि का धन्धा करना।
(१३) दवग्गिदावणया (दवाग्निदापनता)- खेत या भूमि साफ करने के लिए जंगलों में आग लगाना।
(१४) सरदहतलायसोसणया (सरोद्रहतडागशोषणता)खेती आदि करने के लिए झील,नदी,तालाव आदि को मुखाना।
(१५) असईजणपोसणया (असतीजनपोषणता)-आजीविका कमाने के लिए दुश्चरित्र स्त्रियों तथा हिंसक प्राणियों को पालना। (उपासकदशाग सूत्र, मध्ययन १) (भगवती स्त्र शतक ८ उद्देशा ५)
(मावश्यकनियुक्ति प्रत्याख्यानाध्ययन सूत्र ५)
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
दोष लगने की सम्भावना है।
1
१४६
(घ) उञ्छ - मधुकरी या गोचरी वृत्ति के अनुसार प्रत्येक घर से थोड़ा थोड़ा आहार तथा दूसरी वस्तुएं लेना ।
(ङ) प्रतिरिक्त- भीड़ रहित एकान्त स्थान में ठहरना । भीड़ भड़क्के वाले स्थान में कोलाहल होने से चित्त स्थिर नहीं रहता ।
(च) अल्पोपधि - उपधि अर्थात् भण्डोपकरण आदि धर्म साधन थोड़े रखना । वस्त्र, पात्रादि उपकरण अधिक होने से ममत्व हो जाता है और संयम की विराधना होने का डर रहता है।
(छ) कलहविवर्जना- किसी के साथ कलह न करना । मुनियों के लिए उपरोक्त विहारचर्या प्रशस्त मानी गई है । ( ६ ) इस गाथा में भी साधुचर्या का वर्णन है । (क) राज कुल यादि में या जहाँ कोई बड़ा भोज हो रहा हो, आने जाने का मार्ग लोगों से भरा हो, ऐसे स्थान में साधु को भिक्षा के लिए न जाना चाहिए। वहाँ स्त्री तथा सचित्त वस्तु आदि का संघटा हो जाने की सम्भावना है तथा भीड़ भड़क्के में धक्का लग जाने से गिर जाने आदि का डर भी है, इस लिए साधु को ऐसे स्थान में न जाना चाहिए ।
(ख) स्वपक्ष या परपक्ष की ओर से अपना अपमान हो रहा हो तो उसे शान्ति पूर्वक सहन करना चाहिए। क्रोध न करके क्षमाभाव धारण करना चाहिए ।
(ग) उपयोग पूर्वक शुद्ध आहार पानी ग्रहण करना चाहिए । (घ) हाथ या कड़छी आदि के किसी अचित्तद्रव्य द्वारा संसृष्ट (खरड़े हुए) होने पर ही उनसे आहार पानी लेना चाहिए नहीं तो पुरःकर्म दोष की सम्भावना है। भिक्षा देने के लिए हाथ या कड़ी आदि को सचित्त पानी से धोना पुरःकर्म कहलाता है । यदि हाथ वगैरह पहले से ही शाक वगैरह से संसृष्ट अर्थात् भरे हुए हों तो
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
नदियाँ समुद्र की ओर जाती हैं इस लिए नदी में अनुस्रोत बहती हुई वस्तु समुद्र में जा पहुँचती है। इसी को मनुस्रोत गति कहते हैं । इसी प्रकार विषय भोग रूपी नदी के प्रवाह में पड़ा हुआ जीव संसार समुद्र में जा पहुँचता है । इस लिए विषय भोगों की र जाने को अनुस्रोत कहा है। उनके विरुद्ध संयम या दीक्षा की ओर प्रवृत्त होना प्रतिस्रोत है। इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
(४) जो साधु ज्ञानादि आचारों में पराक्रम करता है तथा इन्द्रिय जय रूप संयम का धनी है अर्थात् चित्त की अव्याकुलता रूप समाधि वाला है उसे योग्य है कि वह श्रनियतवास आदि रूप चर्या, मूल गुण, उत्तरगुण, पिंडविशुद्धि आदि शास्त्र में बताए हुए मार्ग के अनुसार आचरण करे, अर्थात् शास्त्र में जिस समय जो जो क्रियाएं करने के लिए जैसा विधान किया गया है उसी के अनुसार आचरण करे ।
✔
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक की गई चारित्र की आराधना मोक्ष रूप फल देने वाली होती है ।
( ५ ) इस गाथा में साधु की विहार चर्या का स्वरूप बताया गया है। नीचे लिखी सात वातें साधुओं के लिए आचरणीय और प्रशस्त अर्थात् कल्याणकारी मानी गई हैं
(क) नियतवास - बिना किसी विशेष कारण के एक ही स्थान पर अधिक न ठहरना अनियतवास है । एक ही स्थान पर अधिक दिन ठहरने से स्थान में ममत्व हो जाने की सम्भावना है।
(ख) समुदानचर्या - अनेक घरों से गोचरी द्वारा भिक्षा ग्रहण करना समुदानचर्या है | एक ही घर से भिक्षा लेने में दोप लगने की सम्भावना है।
(ग) अज्ञात - हमेशा नए घरों से भिक्षा तथा उपकरण लेने चाहिए। एक ही घर से सदा भिक्षा आदि लेने में आधाकर्म आदि
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.. श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१४६
दोष लगने की सम्भावना है।
(घ) उञ्छ- मधुकरी या गोचरी वृत्ति के अनुसार प्रत्येक घर से थोड़ा थोड़ा आहार तथा दूसरी वस्तुएं लेना।
(ङ) प्रतिरिक्त- भीड़ रहित एकान्त स्थान में ठहरना । भीड़ भड़क्के वाले स्थान में कोलाहल होने से चित्त स्थिर नहीं रहता।
(च)अल्पोपधि-उपधि अर्थात् भण्डोपकरण आदि धर्म साधन थोड़े रखना। वस्त्र, पात्रादि उपकरण अधिक होने से ममल हो जाता है और संयम की विराधना होने का डर रहता है।
(छ) कलहविवर्जना-किसी के साथ कलह न करना। मुनियों के लिए उपरोक्त विहारचर्या प्रशस्त मानी गई है। (६) इस गाथा में भी साधुचर्या का वर्णन है।
(क) राज कुल आदि में या जहाँ कोई बड़ा भोज हो रहा हो, आने जाने का मार्ग लोगों से भरा हो, ऐसे स्थान में साध को भिक्षा के लिए न जाना चाहिए। वहॉ स्त्री तथा सचित्त वस्तु आदि का संघटा हो जाने की सम्भावना है तथा भीड़ भड़क्के में धक्का लग जाने से गिर जाने आदि का डर भी है, इस लिए साधु को ऐसे स्थान में न जाना चाहिए।
(ख) स्वपन या परपक्ष की ओर से अपना अपमान हो रहा हो तो उसे शान्ति पूर्वक सहन करना चाहिए। क्रोध न करके क्षमाभाव धारण करना चाहिए। (ग) उपयोग पूर्वक शुद्ध आहार पानी ग्रहण करना चाहिए।
(घ) हाथ या कड़छी आदि के किसी अचित्त द्रव्य द्वारा संसृष्ट (खरड़े हुए) होने पर ही उनसे आहार पानी लेना चाहिए नहीं तो पुरःकर्म दोप की सम्भावना है। भिक्षा देने के लिए हाथ या कड़छी आदि को सचित्त पानी से धोना पुरकर्म कहलाता है। यदि हाथ वगैरह पहले से ही शाक वगैरह से संसृष्ट अर्थात् भरे हुए हों तो
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाना
AAAAAAAA
~ ^^^^^^^~ 4733 AVV
उनसे वही वस्तु परोसने में धोने की आवश्यकता नहीं रहती इस लिए वहाँ पुरःकर्म दोष की सम्भावना नहीं है।
(ङ) जिस पदार्थ के लेने की इच्छा हो यदि उसी से हाथ या परोसने का वर्तन संसृष्ट हो तभी उसे लेना चाहिए ।
(७) मोक्षार्थी को मद्य मांस आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन न करना चाहिए। किसी से ईर्ष्या न करनी चाहिए। पौष्टिक पदार्थों का अधिक सेवन न करना चाहिए। प्रतिदिन चार बार कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग में आत्मचिन्तन और धर्मध्यान करने
आत्मा निर्मल होती है । सदा वाचना पृच्छना आदि स्वाध्याय में लगे रहना चाहिए | स्वाध्याय से ज्ञान की वृद्धि होती है और चित्त में स्थिरता आती है ।
( ८ ) विहार करते समय साधु श्रावकों से शयन, आसन, निषद्या, भक्त, पानी आदि किसी भी वस्तु के लिए प्रतिज्ञा न करावे अर्थात् किसी भी वस्तु के लिए यह न कहे कि अमुक वस्तु लौटने पर मुझे वापिस दे देना और किसी को मत देना इत्यादि । गॉव, कुल, नगर या देश किसी भी वस्तु में साधु को ममत्व न करना चाहिए।
(६) मुनि गृहस्थों का वेयावच, अभिवादन, वन्दन, पूजन तथा सत्कार यदि न करे। ऐसे संक्लेश रहित साधुओं के संसर्ग में रहे जिन के साथ रहने में संयम की विराधना न हो ।
(१०) यदि अपने से अधिक या बरावर गुणों वाला तथा संयम में निपुण कोई साधु न मिले तो मुनि पाप रहित तथा विषयों में अनासक्त होता हुआ अकेला ही विचरे किन्तु शिथिलाचारी और पासन्थों के साथ नरहे ।
( ११ ) एक स्थान पर चतुर्मास में चार महीने और दूसरे समय में उत्कृष्ट एक महीना रहने का शास्त्र में विधान है। जिस स्थान पर एक बार मासकल्प या चतुर्मास करे, दो या तीन चतुर्मास
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१५१
wmmmmmmmmmmmmmum W wwwimwwwwvomwwwwwwwwww wwwmmr.
अथवा मासकल्प दूसरी जगह बिना किए फिर उसी स्थान पर मासकल्प आदि करना नहीं कल्पता अर्थात् साधु जिस स्थान पर जितने समय रहे उससे दुगुना समय दूसरी जगह बिताने के बाद ही फिर पूर्वस्थान पर निवास कर सकता है। जिस स्थान पर चतुमास करे, दो चतुर्मास दूसरी जगह करने के बाद ही फिर उस स्थान पर चतुर्मास कर सकता है। इसी प्रकार जहाँ मासकल्प करे उसी जगह फिर मासफल्प दो महीनों के बाद ही कल्पता है। ___ इस लिए साधु को एक स्थान पर चतुमोस या मासकल्प के बाद फिर उसी जगह चतुर्मास यामासकल्प नहीं करना चाहिए साधु को शास्त्र में बताए हुए पार्ग के अनुसार चलना चाहिए। शास्त्र में जैसी आज्ञा है वैसा ही करना चाहिए।
(१२) जो साधु रात्रि के पहले तथा पिछले पहर में आत्मचिन्तन करता है और विचारता है, मैंने क्या कर लिया है, क्या करना बाकी है और ऐसी कौनसी बात है जिसे मैं कर सकता हूँ फिर भी नहीं कर रहा हूँ, वही साधु श्रेष्ठ होता है।
(१३)मात्मा साधु शान्त चित्त से विचार करे- जब मेरे से कोई भूल हो जातीतो दूसरेलोग क्या सोचते हैं। मेरी आत्मा स्वयं उस समय क्या कहती है। मेरे से भूल होनाक्यों नहीं छटता है इस प्रकार सम्यक् विचार करता हुआ साधु भविष्य में दोषों से छुटकारा पा जाता है।
(१४ ) साधु जब कभी मन, वचन या काया को पाप की ओर झुकता हुआ देखे तो शीघ्र हीखींच कर सन्मार्ग में लगादे,जैसलगाम खींचकर कुमार्ग में चलते हुए घोड़े को सन्मार्ग में चलाया जाता है।
(१५) जिसने चंचल इन्द्रियों को जीत लिया है। जो संयम में पूरे धैर्य वाला है। मन,वचन और कायारूप तीनों योग जिस के वश में हैं,ऐसे सत्पुरुष को प्रतिबुद्धजीवी (सदा जागता रहने वाला)
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला ~~ •were. ~~~rnmmmmmmmroman. .. m. ww . rimar.mmm merone कहा जाता है,क्योंकि वह अपने जीवन को संयम में विताता है।
(१६) सब इन्द्रियों को वश में रख कर समाधि पूर्वक आत्मा की रक्षा करनी चाहिए। जो अात्मा सुरक्षित नहीं है वह जातिपथ अर्थात् जन्ममरण रूप संसार को प्राप्त होती है और सुरक्षित अर्थात् पापों से बचाई हुई आत्मा सब दुःखों का अन्त करके मोक्ष रूप सुख को प्राप्त होती है। (दशवकालिक सूत्र २ चूलिका) ८६२-सभिक्खु अध्ययन की सोलह गाथाएं
संसार में पतन के निमित्त बहुत हैं, इसलिए साधक को सदा सावधान रहना चाहिए। जिस प्रकार साधु को वस्त्र, पात्र, आहार आदि आवश्यक वस्तुओं में संयम की रक्षा का ध्यान रखना आवश्यक है उसी प्रकारमान प्रतिष्ठा की लालसा को रोकना भी साध के लिए परमावश्यक है। त्यागी जीवन के लिए जो विद्याएं उपयोगी न हों, उनके,सीखने में अपने समय का दुरुपयोग न करना चाहिए । तपश्चर्या और सहिष्णुता ये आत्मविकास के मुख्य साधन हैं। इनका कथन उत्तराध्ययन सूत्र के 'सभिक्खु' नामक पन्द्रहवें अध्ययन की १६गाथाओं में विस्तार के साथ किया गया , है। उन गाथाओं का भावार्थ क्रमशः यहॉ दिया जाता है
(१) विवेक पूर्वक सच्चे धर्म का पालन करने वाला, कामभोगों से विरक्त, अपने पूर्वाश्रम के सम्बन्धियों में आसक्ति न रखते हुए अज्ञात घरों से भिक्षावृत्ति करके आनन्द पूर्वक संयम धर्म का पालन करने वाला ही सच्चा भिक्षु (साधु) है।
(२) राग से निवृत्त,पतन एवं असंयम से अपनी आत्मा को बचाने वाला, परीपह और उपसर्गों को सहन कर समस्त जीवों को श्रात्मतुल्य जानने वाला और किसी भी वस्तु में मृच्छित न होने वाला ही भिक्षु (साधु) है।
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १५३ • wwwmmamiwn mwwwwwwwww. mm ~~ ~
(३) यदि कोई पुरुष साधु को कठोर वचन कहे या मारे पीटे तो उसे अपने पूर्वसंचित कर्मों का फल जान कर समभाव पूर्वक सहन करे, अपनी आत्मा को वश में रख कर चित्त में किसी प्रकार की व्याकुलता न लाते हुए संयम मार्ग में आने वाले कष्टों को जो समभाव पूर्वक सह लेता है वही भिक्षु (साधु) कहलाता है।
(४) जो अल्प तथा जीर्ण शय्या आदि से सन्तुष्ट रहना है, शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीपहों को जो समभाव से सहन कर लेता है वही भितु है।
(५) जो सत्कार या पूजा आदि की लालसा नहीं रखता, यदि कोई उसे प्रणाम करे अथवा उसके गुणों की प्रशंसा करे तो भी मन में अभिमान नहीं लाता ऐसा संयमी, सदाचारी, तपस्वी, ज्ञानवान् , क्रियावान् और आत्मशोधक पुरुष ही सच्चा भिक्षु है।
(६) संयमी जीवन के बाधक कार्यों का त्यागी, दूसरों की गुप्त बात को प्रकाशित न करने वाला, मोह और राग को उत्पन्न करने वाले सांसारिक बन्धनों में न फंसने वाला और तपस्वी जीवन बिताने वाला ही सच्चा भिक्षु है।
(७) नाक, कान आदि छेदने की क्रिया, रागविद्या, भूगोल विद्या, खगोल विद्या (ग्रह नक्षत्र देख कर शुभाशुभ बतलाना), स्वमविद्या (स्वमों का फल बतलाना), सामुद्रिक शास्त्र (शरीर के लक्षणों द्वारा मुरव दुःखं बतलाना) अंगस्फुरण विद्या, दण्डविद्या भूगर्भविद्या (जमीन में गड़े हुए धन को जानने की विद्या), पश, पक्षियों की बोली जानना आदि कुत्सित विद्याओं द्वारा जो अपना संयमी जीवन दूषित नहीं बनाता वही सच्चा भिक्षु है।
(८)मन्त्रप्रयोग करना, जड़ी बूटी तथा अनेक प्रकार के वैद्यक उपचारोंकोसीख कर काम में लाना, जुलाव देना, वमन कराना, अज्जन बनाना, रोग पाने पर आक्रन्दन फरना आदि क्रियाएं
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
xnnn v
.mmmmmm
. rmwara
योगियों के लिए योग्य नहीं हैं इस लिए जो इनका त्याग करता है वही सच्चा भिक्षु है।
(8)जो साधु क्षत्रिय,वैश्य और ब्राह्मण भादि की भिन्न भिन्न प्रकार की वीरता तथा शिल्प कला आदि की पूजा या झूठीप्रशंसा करके संयमी जीवन को कलुपित नहीं करता वही सच्चा भिक्षु है।
(१०) गृहस्थाश्रम में रहते हुए तथा मुनि होने के बाद जिन जिन गृहस्थों से परिचय हुआ हो उनमें से किसी के भी साथ ऐहिक सुख के लिए जो सम्बन्ध नहीं जोड़ता वही सच्चा भिक्षु है। मुनि का सब के साथ केवल पारमार्थिक भाव से ही सम्बन्ध होना चाहिए।
(११) साधु के लिए आवश्यक शय्या (घास फूस आदि) पाट,आहार,पानी अथवा अन्य कोई खाद्य और खाद्यपदार्थ गृहस्थ के घर में मौजूद हों किन्तु मुनि द्वारा उन पदार्थों की याचना करने पर यदि वह न दे तो उसको जरा भी द्वेष युक्त वचन न कहे और न मन में बुरा ही माने वही सच्चा भिक्षु है क्योंकि मुनि को मान और अपमान दोनों में समान भाव रखना चाहिये।
(१२) जो अनेक प्रकार के आहार, पानी, खादिम, स्वादिम आदि पदार्थ गृहस्थों से प्राप्त हुए हैं उनको पहले अपने साथी साधुओं में बाँट कर पीछे स्वयं आहार आदि करता है तथा अपने मन, वचन, काया को जो वश में रखता है वही सच्चा भिक्षु है।
(१३) गृहस्थ के घर से ओसामण, पतली दाल, जौ का दलिया, ठंडा भोजन, जौ या कांजी का पानी आदि आहार माप्त कर जो उसकी निन्दा नहीं करता तथा सामान्य स्थिति के घरों में भी जाफर जो भिक्षात्ति करता है वही साधु है क्योंकि साधु को अपने संयमी जीवन के निर्वाह के लिए ही आहारादि ग्रहण करने चाहिये, जिहा की लोलुपता शांत करने के लिए नहीं।
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
राणायामाप महाना
wwwwwww nunaroon
wwwwwwwwwwwwwwwww. .
अत्यन्त भयंकर तथा द्वेषोत्पादक शब्द होते हैं उन्हें सुन कर जो नहीं डरता या विकारको प्राप्त नहीं होता वही सच्चा भिक्षु है।
(१५) लोक में प्रचलित भिन्न भिन्न प्रकार के वादों (तन्त्रादि शास्त्रों) को समझ कर जो अपने प्रात्मधर्म में स्थिर रहता हुआ संयम में दत्तचित्त रहता है,सब परीषहों को जीत कर समस्त जीवों पर आत्मभाव रखता हुआ कषायों पर विजय प्राप्त करता है तथा किसी जीव को पीड़ा नहीं पहुंचाता है वही सच्चा भिक्षु है।
(१६)जोशिल्प विद्याद्वारा अपना जीवन निर्वाह न करता हो, जितेन्द्रिय,आन्तरिक तथा बाह्य बन्धनों से मुक्त,अल्प कषाय वाला थोड़ा (परिमित) भोजन करने वाला, सांसारिक बन्धनों को छोड़ कर राग द्वेष रहित विचरने वाला ही सच्चा भिक्षु है।
(उत्तराध्ययन १५ वा स भिक्खु अध्ययन) ८६३-बहुश्रुत साधु की सोलह उपमाएं
निरभिमानी, निर्लोभी संयम मार्ग में सावधान, विनयवान्, बहुत शास्त्रों के ज्ञाता साधु को बहुश्रुत कहते हैं। बहुश्रुत साधुका सोलह उपमाएं दी गई हैं
(१) जिस तरह शंख में रखा हुआ दूध दो तरह से शोभित होता है अर्थात् दूध भी सफेद होता है और शंख भी सफेद होता है, अतः शंख में रखा हुश्रा दूध देखने में सौम्य लगता है और वह उसमें कभी नहीं बिगड़ता। उसी तरह ज्ञानी साधु धर्मकीर्ति तथा शास्त्र इन दोनों द्वाराशोभित होता है अर्थात् ज्ञान स्वयं सुन्दर है और धारण करने वाले ज्ञानी का आचरण जब शास्त्रानुकूल हो तव उसकी आत्मा की उन्नति होती है और धर्म की भी कीर्ति बढ़ती है इस तरह ज्ञान और ज्ञानीदोनोंशोभित होते हैं।
(२)जिस प्रकार कंबोज देश के घोड़ों में आकीर्ण जाति का घोड़ा सव प्रकार की गति (चाल) में प्रवीण, सुलक्षण और अति
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वेगवान् होने से उत्तम माना जाता है उसी तरह बहुश्रुत ज्ञानी भी उत्तम माना जाता है।
१५६
Mar AAA w
(३) जैसे शाकीर्ण जाति के उत्तम घोड़े पर चढ़ा हुआ दृढ़ पराक्रमी, शूरवीर पुरुष जब संग्राम में जाता है तब दोनों प्रकार से शोभित होता है अर्थात् आगे और पीछे से, बांई तरफ से और दाहिनी तरफ से अथवा वृद्ध पुरुषों द्वारा कहे गये आशीर्वाद रूप वचनों से और वन्दी जनों द्वारा कहे गये स्तुति रूप वचनों से तथा संग्राम के लिये बजाये जाने वाले बाजों के शब्दों से वह शूरवीर पुरुष शोभित होता है उसी तरह बहुश्रुत ज्ञानी दोनों प्रकार से अर्थात् आन्तरिक शान्ति और वाह्य आचरण से शोभित होता है, अथवा दिन और रात के दोनों समय में की जाने वाली स्वाध्याय के घोष (ध्वनि) से बहुश्रुत ज्ञानी शोभित होता है अथवा स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों द्वारा 'यह बहुश्रुत ज्ञानी बहुत काल तक जीवित रहे जिससे प्रवचन की बहुत प्रभावना हो' इस प्रकार कहे जाने वाले आशीर्वादों से युक्त बहुश्रुत ज्ञानी शोभित होता है ।
( ४ ) जिस प्रकार अनेक हथिनियों से सुरक्षित ६० वर्ष की अवस्था को प्राप्त हुआ बलवान् हाथी दूसरों से पराभूत नहीं हो सकता उसी प्रकार परिपक्व बुद्धि वाला बहुश्रुत ज्ञानी विचार एवं विवाद के अवसर पर किसी से अभिभूत नहीं होता ।
( ५ ) जैसे तीच्ण सींगों वाला और अच्छी तरह भरी हुई ककुद् वाला तथा पुष्ट अंग वाला सांड पशुओं के टोले में शोभित होता है वैसे ही नैगमादिनय रूप तीक्ष्ण शृगों से परपक्ष को भेदन करने वाला और प्रतिभादि गुणों से युक्त बहुश्रुत ज्ञानी साधुओं के समूह में शोभित होता है।
(६) जिस प्रकार अति उग्र तथा तीच्ण दांतों वाला पराक्रमी सिंह किसी से भी पराभूत नहीं होता वैसे ही बहुश्रुत ज्ञानी भी
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
vvaian www
VNAA
किसी से भी पराजित नहीं होता ।
१५७
wwwww
(७) जिस प्रकार पाञ्चजन्य शंख, सुदर्शन चक्र और कौमुदकी गदा से युक्त वासुदेव सदा ही अप्रतिहत और अखण्ड बलशाली होता हुआ शोभित होता है उसी प्रकार बहुश्रुत ज्ञानी भी अहिंसा, संयम और तप से शांभित होता
1
(८) जैसे हाथी, घोड़ा, रथ और प्यादे वाली चतुरंगिनी सेना से समस्त शत्रुओं का नाश करने वाला, चारों दिशाओं का जय करने वाला, नवनिधि, चौदह रत्न और छः खण्ड पृथ्वी का अधिपति, महान् ऋद्धि का धारक, सब राजाओं में श्रेष्ठ चक्रवर्ती शोभित होता है वैसे ही चार गतियों का अन्त करने वाला तथा चौदह विद्या रूपी लब्धियों का स्वामी बहुश्रुत ज्ञानी साधु शोभित होता है ।
( ६ ) जैसे एक हजार नेत्रों वाला, हाथ में वज्र धारण करने वाला, महाशक्तिशाली, पुर नामक दैत्य का नाश करने वाला देवों का अधिपति इन्द्र शोभित होता है उसी प्रकार बहुश्रुत ज्ञान रूपी सहस्र नेत्रों वाला, क्षमा रूपी वज्र को धारण करने वाला और मोहरूपी दैत्य का नाश करने वाला बहुश्रुत ज्ञानी साधु शोभित होता है ।
(१०) जिस प्रकार अन्धकार का नाश करने वाला, उगता हुआ सूर्य तेज से देदीप्यमान होता हुआ शोभित होता है उसी प्रकार आत्मज्ञान के तेज से दीप्त बहुश्रुत ज्ञानी शोभित होता है ।
( ११ ) जैसे नक्षत्रों का स्वामी चन्द्रमा, ग्रह तथा नक्षत्रों से घिरा हुआ पूर्णिमा की रात्रि में पूर्ण शोभा से प्रकाशित होता है वैसे ही आत्मिक शीतलता से बहुश्रुत ज्ञानी शोभायमान होता है ।
(१२) जिस प्रकार विविध धान्यों से परिपूर्ण सुरक्षित भण्डार शोभित होता है उसी तरह अङ्ग, उपाङ्ग रूप शास्त्र ज्ञान से पूर्ण बहुश्रुत ज्ञानी शोभायमान होता है।
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला
(१३)जैसे जम्बूद्वीप के अधिपति अनाहन नामक देव का जम्बू वृक्ष सब वृक्षों में शोभित होता है वैसे ही सब साधुओं में बहुश्रुत ज्ञानी साधु शोभित होता है।
(१४) नीलवान् पर्वत से निकल कर सागर में मिलने वाली सीता नाम की नदी जिस प्रकार सब नदियों में श्रेष्ठ है उसी प्रकार सब साधुओं में बहुत ज्ञानी श्रेष्ठ है।
(१५) जिस प्रकार सबपर्वतों में ऊंचा, सुन्दर और अनेक औषधियों से शोभित मेरु पर्वत उत्तम है उसी प्रकार अमपौंपधि आदि लब्धियों से युक्त अनेक गुणों से अलंकृत वहश्रत ज्ञानी भी सब साधुओं में उत्तम है। __(१६)जैसे अक्षय उदक ( जिसकाजल कभी नहीं सूखता) स्वयम्भूरमण नामक समुद्र नाना प्रकार की मरकत आदि मणियों से परिपूर्ण है वैसे ही बहुश्रुत ज्ञानी भी सम्यग् ज्ञान रूपी अक्षय जल से परिपूर्ण और अतिशयवान् होता है इसलिये वह सब साधुओं में उत्तम और श्रेष्ठ है। __उपरोक्त गुणों से युक्त, समुद्र के समान गम्भीर, परीपह उपसगों को समभाव से सहन करने वाला. कामभोगों में अनासक्त, श्रुत से परिपूर्ण तथा समस्त प्राणियों का रक्षक महापुरुष बहुश्रुत ज्ञानी शीघ्र ही काँका नाश कर मोक्षमाप्त करता है। ___ ज्ञान अमृत है। वह शास्त्रों द्वाग, सत्संग द्वारा और महापुरुपों की कृपाद्वारा प्राप्त होता है, अत: मोनाभिलापी प्रत्येक प्राणी को श्रत (ज्ञान)प्राप्ति के लिये निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये।
( उत्तराव्ययन अध्ययन ११ गाथा १५ से ३०) ८६४- दीक्षार्थी के सोलह गुण
गृहस्थ पर्याय छोड़ कर पाँच महाव्रत रूप संयम अंगीकार करने को दीक्षा कहते हैं । दीक्षा अर्थात् मुनिव्रत अंगीकार करने वाले
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
m
१५६
में नीचे लिखे सोलह गुण होने चाहिएं।
( १ ) श्रार्यदेशसमुत्पन्न - जिन देशों में तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि उत्तम पुरुष होते हैं उन्हें आर्य देश कहते हैं । धर्मभावना भी आर्यदेश में ही होती है, इस लिए दीक्षा अङ्गीकार करके संयम का पालन वही कर सकता है जो आर्यदेशों में उत्पन्न हुआ हो । जैसे मरुस्थल में कल्पवृक्ष नहीं लग सकता वैसे ही अनार्य देश में उत्पन्न व्यक्ति धर्म में सच्ची श्रद्धा वाला नहीं हो सकता, अतः दीक्षार्थी का पहला गुण यह है कि उसकी उत्पत्ति आर्यदेश में हुई हो ।
( २ ) शुद्धजातिकुलान्वित- जिसके जाति अर्थात् मातृपक्ष और कुल अर्थात् पितृपक्ष दोनों शुद्ध हों। शुद्ध जाति और कुल वाला संयम का निर्दोष पालन करता है। किसी प्रकार की भूल होने पर भी कुलीन होने के कारण रथनेमि की तरह सुधार लेता है ।
(३) क्षीणप्रायाशुभकर्मा - जिस के अशुभ अर्थात् चारित्र में बाधा डालने वाले कर्म क्षीण अर्थात् नष्ट हो गए हों । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षय, क्षयोपशम या उपशम हुए विना कोई भाव चारित्र अंगीकार नहीं कर सकता। ऊपर से दीक्षा ले लेने पर भी शुद्ध संयम का पालन करना उसके लिए असम्भव है ।
(४) विशुद्धधी - अशुभ कर्मों के दूर हो जाने से जिसकी बुद्धि निर्मल हो गई हो । निर्मल बुद्धि वाला धर्म के तत्त्व को अच्छी तरह 1 समझ कर उसका शुद्ध पालन करता है ।
५ ) विज्ञातसंसारनैर्गुण्य - जिस व्यक्ति ने संसार की निर्गुता अर्थात् व्यर्थता को जान लिया हो । मनुष्य जन्म दुर्लभ है, जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है, धन सम्पत्ति चञ्चल है, सांसारिक विषय दुःख के कारण हैं, जिनका संयोग
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्यमाला
होता है उनका वियोग भी अवश्य होता है, प्राणियों की मृत्यु प्रति क्षण होती रहती है। कहा भी है
१६०
~^^rs
AAY
यामेव रात्रिं प्रथमामुपैति, गर्भे वसस्यै नरवीर ! लोकः । ततः प्रभृत्यस्खलित प्रयाणः, स प्रत्यहं मृत्युसमीपमेति।। अर्थात्- महर्षि व्यास युधिष्ठिर को कह रहे हैं- हे नरवीर ! प्राणी पहले पहल जिस रात को गर्भ में बसने के लिए श्राता है उसी रात से वह दिन रात प्रयाण करता हुआ मृत्यु के समीप जा रहा है।
मृत्यु का फल बहुत ही दारुण अर्थात् भयङ्कर होता है क्योंकि उस समय सब तरह की चेष्टाएं अर्थात् हलन चलन बन्द हो जाती हैं और जीव सभी प्रकार से असमर्थ तथा लाचार हो जाता है ।
इस प्रकार संसार के स्वभाव को जानने वाला व्यक्ति दीक्षा का अधिकारी होता है ।
( ६ ) विरक्त- जो व्यक्ति संसार से विरक्त हो गया हो क्योंकि सांसारिक विषयभोगों में फंसा हुआ व्यक्ति उन्हें नहीं छोड़ सकता ।
(७) मन्दकषायभाक् - जिस व्यक्ति के क्रोध, मान आदि चारों कपाय मन्द हो गए हों। स्वयं अल्प कपाय वाला होने के कारण वह अपने और दूसरे के कपाय आदि को शान्त कर सकता है।
(८) अल्प हास्यादि विकृति - जिसके हास्यादि नोकपाय कम हों। अधिक हॅसना आदि गृहस्थों के लिए भी निषिद्ध है ।
( 2 ) कृतज्ञ - जो दूसरे द्वारा किए हुए उपकार को मानने वाला हो । कृतघ्न व्यक्ति लोक में निन्दा प्राप्त करता है इस लिए भी वह दीक्षा के योग्य नहीं होता ।
(१०) विनयान्वित - दीक्षार्थी विनयवान् होना चाहिए क्योंकि विनय ही धर्म का मूल है।
( ११ ) राजसम्मत - दीक्षार्थी राजा, मन्त्री यादि के सम्मत अर्थात अनुकूल होना चाहिए। गजा आदि से विरोध करने वाले
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१६१
को दीक्षा देने से मनर्थ होने की सम्भावना रहती है। (१२) अद्रोही- जो झगड़ालू तथा ठग, धूर्त न हो। (१३) सुन्दराङ्गभृत-सुन्दर शरीर वाला हो अथात् उस का कोई अंग हीन या गया हुअान होना चाहिए। अपाङ्गया नष्ट अवयव वाला व्यक्ति दीक्षा के योग्य नहीं होता।
(१४) श्राद्ध-श्रद्धा वाला। दीक्षित भी यदि श्रद्धा रहित हो तो अङ्गारमर्दक के समान वह त्यागने योग्य हो जाता है।
(१५) स्थिर- जो अङ्गीकार किए हुए व्रत में स्थिर रहे। प्रारम्भ किए हुए कार्य को बीच में छोड़ने वाला न हो।
(१६) समुपसम्पन्न- पूर्वोक्त गुणों वाला होकर भी जो दीक्षा लेने के लिए पूरी इच्छा से गुरु के पास आया हो। उपरोक्त सोलह गुणों वाला व्यक्ति दीक्षा के योग्य होता है।
__(धर्म सग्रह अधिकार ३ गाथा ७३-७८) ८६५- गवेषणा (उद्गम) के १६ दोष
श्राहाकम्मुद्देसिय पूईकम्मे यमीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए पाश्रोयर कीय पामिच्चे॥१॥ परियहिए अभिहडे उभिन्न मालोहडे इय ।
अच्छिज्जे अणिसिटे अज्झोयरए य सोलसमे।।२।। (१) आधाकर्म- किसी खास साधु को मन में रख कर उस के निमित्त से सचित्त वस्तु को श्रचित्त करना या अचित्त को पकाना आधाफर्म कहलाता है। यह दोष चार प्रकार से लगता है। प्रतिसेवन- आधाकर्मी आहार का सेवन करना। प्रतिश्रवण-आधाकर्मी आहार के लिये निमंत्रण स्वीकार करना । संवसन-आधाकर्मी पाहार भोगने वालों के साथ रहना । अनुमोदन-आधाकर्मी भाहार भोगने वालों की प्रशंसा करना। (२)ौदेशिक- सामान्य याचकों को देने की बुद्धि से जो
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
m
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला wimmmmmmmmmmmmmmm mom na mornanana
आहारादि तैयार किये जाते हैं, उन्हें प्रौदेशिक कहते हैं। इनकेदो भेद हैं- ओघ और विभाग । भिक्षुकों के लिये अलग तैयार न करते हुए अपने लिये बनते हुए आहारादि में ही कुछ और मिला देना ओघहै । विवाहादि में याचकों के लिये अलग निकाल कर रख छोड़ना विभाग है । यह उद्दिष्ट, कृत और कर्म के भेद से तीन प्रकार का है। फिर प्रत्येक के उद्देश, समुद्देश, आदेश और समादेश इस तरह चार चार भेद हैं। इन सव की विस्तृत व्याख्या नीचे लिखे हुए ग्रन्थों से जाननी चाहिए। किसी खास साधु के लिये बनाया गया आहार अगर वही साधु ले तो आधाकर्म, दूसरा ले तो औदेशिक है। आधाकर्म पहिले से ही किसी खास निमित्त से बनाया जाता है । औद्देशिक साधारण दान के लिये पहिले या बाद में कल्पित किया जाता है।
(३) पूतिकर्म-शुद्ध आहार में आयाकर्मादि का अंश मिल जाना पूतिकर्म है । आधाकर्मी श्राहार का थोड़ा सा अंश भी शुद्ध
और निर्दोप आहार को सदोप वना देता है ।शुद्ध चारित्र पालने वाले संयमी के लिये वह अकल्पनीय है। जिसमें ऐसे आहार का अंश लगा हो ऐसे वर्तन को भी टालना चाहिये।
(४) मिश्रजात- अपने और साधु के लिये एक साथ पकाया हुभाषाहार मिश्रजात कहलाता है । इसके तीन भेद हैं-यावदर्थिक, पाखंडिमिश्र और साधुमिश्र। जो आहार अपने लिये और सभी याचकों के लिये इकहा बनाया जाय वह यावदर्थिक है। जो अपने और साधु सन्यासियों के लिये इकट्ठा बनाया जाय वह पारखण्डिमिश्र है । जो सिर्फ अपने और साधुओं के लिये इकट्ठा किया जाय वह साधमिश्र है।
(५)स्थापन- साधु को देने की इच्छा से कुछ काल के लिये आहार को अलग रख देना स्थापन है।
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १६३ vorn mammmmmmmmmmmmmm rawn mmmmmmmmmmmmm
(६) प्राभृतिका-साध को विशिष्ट श्राहार वहराने के लिये जीमनवार या निमंत्रण के समय को आगे पीछे करना।
(७)प्रादुष्करण-देय वस्तु के अन्धेरे में होने पर अग्नि, दीपक भादिका उजाला करके या खिड़की वगैरह खोल कर वस्तु को प्रकाश में लाना अथवा आहारादि को अन्धेरी जगह से प्रकाश वाली जगह में लानाप्रादुष्करण है।
(८)क्रीत-साध के लिये मोल लिया हुआआहारादिक्रीत है। (8)प्रामित्य (पामिच्चे)- साधु के लिये उधार लिया हुआ अाहारादि प्रामित्य कहलाता है।
(१०) परिवर्तित-साधु के लिए अट्टा सट्टा करके लिया हुआ आहार परिवर्तित कहलाता है।
(११) अभिहत (अभिहडे)- साधु के लिये गृहस्थ द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाया हुआआहार।
(१२) उद्भिन्न-साधु को घी वगैरह देने के लिये कुप्पी आदि का मुंह (लाणन) खोल कर देना।
(१३) मालापहत- ऊपर नीचे या तिरछी दिशा में जहाँ आसानी से हाथ न पहुँच सके वहाँ पंजों पर खड़े होकर या निःसरणी आदि लगा कर आहार देना।इसके चार भेद हैं-ऊर्ध्व, अधः, उभय और तिर्यक् । इनमें से भी हर एक के जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम रूप से तीन २ भेद हैं। एडियाँ उठाकर हाथ फैलाते हए छत में टंगे छींके वगैरह से कुछ निकालना जघन्य ऊध्र्वमालापहृत है। सीढ़ी वगैरह लगा कर ऊपर के मंजिल से उतारी गई वस्तु उत्कृष्ट मालापहृत है। इनके बीच की वस्तु मध्यम है। इसी तरह अधः, उभय और तिर्यक् के भेद भी जानने चाहिये।
(१४) आच्छेद्य-निर्बल व्यक्ति या अपने आश्रित रहने वाले नौकर चाफर और पुत्र वगैरह से छीन कर साधुजी को
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्यमाला
៩៖
देना । इसके तीन भेद हैं- स्वामिविषयक, प्रभुविषयक और स्तेनविषयक | ग्राम का मालिक स्वामी और अपने घर का मालिक प्रभु कहलाता है। चोर और लुटेरे को स्तेन कहते हैं। इनमें से कोई किसी से कुछ छीन कर साधुजी को दे तो क्रमशः तीन दोष लगते हैं। (१५) अनिसृष्ट- किसी वस्तु के एक से अधिक मालिक होने पर सब की इच्छा के बिना देना अनिसृष्ट है ।
wwww www www wan
(१६) अध्यनपूरक - साधुओं का आगमन सुन कर आपण में अधिक ऊर देना अर्थात् अपने लिये बनते हुए भोजन में साधुओं का आगमन सुन कर उनके निमित्त से और मिला देना । नोट- उद्गम के सोलह दोषों का निमित्त गृहस्थ अर्थात् देने वाला होता है।
(प्रवचन सारोद्धार गाथा ५६५, ५६६ ) ( धर्मसंग्रह अधिकार ३ गाथा २२ ) ( पिंड नियुक्ति गाधा ६२, ६३ ) ( पचाशक १३ वाँ गाथा ५, ६ ) (पिण्ड विशुद्धि)
८६६ - ग्रहणैषणा ( उत्पादना) के १६ दोष घाई दूई निमित्ते श्राजीव वणीमगे तिमिच्छा प । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस ए ए ॥ १॥ पुव्विपच्छा संथव विज्जा मंते य चुरण जोगे य । उप्पाथपाइ दोसा सोलसमे मूलकम्मे य ॥ २॥ (१) धात्री - बच्चे को खिलाना पिलाना आदि धाय का काम करके या किसी घर में धाय की नौकरी लगवा कर आहार लेना ।
(२) दूती - एक दूसरे का सन्देशा गुप्त या प्रकट रूप से पहुँचा कर दूत का काम करके श्राहारादि लेना ।
(३) निमित्त - भूत और भविष्यत् को जानने के शुभाशुभ निमित्त बतला कर आहारादि लेना ।
(४) भाजीव- स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से अपनी जाति और कुल आदि प्रकट करके आहारादि लेना ।
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१६५
(५) वनीपक-श्रमण,शाक्य,सन्यासी आदि में जो जिसका भक्त हो उसके सामने उसी की प्रशंसा करके या दीनता दिखा कर आहारादि लेना।
(६)चिकित्सा-औषधि करना यावतानाआदि चिकित्सक का काम करके आहारादि ग्रहण करना।
(७)क्रोध-क्रोध करके या गृहस्थकोशापादिका भय दिखा कर भिक्षा लेना।
(८) मान-अभिमान से अपने को प्रतापी, तेजस्वी, बहुश्रुत बताते हुए अपना प्रभाव जमा कर आहारादि लेना। (8)माया-वञ्चना या चलनाकरके आहारादिग्रहण करना।
(१०)लोभ- आहार में लोभ करना अथोत भिक्षा के लिए जाते समय जीभ के लालच से यह निश्चय करके निकलना कि आज तो अमुक वस्तु ही खाएंगे और उसके अनायास न मिलने पर इधर उधर ढूँढना तथा दूध आदि मिल जाने पर जिह्वाखादवश चीनी श्रादि के लिए इधर उधर भटकना लोभपिण्ड है।
(११) माक्पश्चात्संस्तव (पुन्विपच्छा संथव)-आहारलेने के पहले यापीछे देने वाले की प्रशंसा करना।
(१२)विद्या-स्त्रीरूपदेवतासे अधिष्ठित या जप, होम आदि से सिद्ध होने वाली अक्षरों की रचना विशेष को विद्या कहते हैं। विद्या का प्रयोग करके आहारादि लेना विद्यापिण्ड है।
(१३) मन्त्र-पुरुषरूप देवता के द्वारा अधिष्ठित ऐसी अक्षर रचना जो पाठ मात्र से सिद्ध हो जाय उसे मन्त्र कहते हैं। मन्त्र के प्रयोग से लिया जाने वाला आहारादि मन्त्र पिण्ड है।
(१४)चूर्ण-अदृश्य करने वाले मुरमे श्रादिकाप्रयोग करके जो आहारादि लिए जाय उन्हें चूर्णपिण्ड कहते हैं। (१५) योग-पॉव लेप आदि सिद्धियॉवताकर जो आहारादि
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
narraim .
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला ....
..... ... .. लिए जायें उन्हें योग पिण्ड कहते हैं। __ (१६)मूलकर्म-गर्भस्तम्भ, गर्भाधान, गर्भपात आदि संसार सागर में भ्रमण कराने वाली सावध क्रियाएं करना मूलकर्म है।
नोट- उत्पादना के दोष साधु से लगते हैं । इनका निमित्त साधु ही होता है।
(प्रवचनमारोद्धार गाया १६७, ५६८) (वर्मपग्रह अधिकार ३ गाथा २२) (पिण्डनियुक्ति गाथा ४०८, ४०६) (पचाशक १३वाँ, गाथा १८-१९) (पिगडविशुसि) ८६७- साधु को कल्पनीय ग्रामादि १६स्थान ___ विहार करते हुए साधु या साध्वी को नीचे लिखे सोलह स्थानों में रहना कल्पता है।
(१)ग्राम- जहाँ गज्य की तरफ से अठारह प्रकार का कर (महसूल) लिया जाता हो उसे ग्राम कहते हैं।
(२) नगर- जहॉ गाय बैल श्रादि का कर न लिया जाता हो ऐसी बड़ी आबादी को नगर कहते हैं।
(३) खेड (खेटक)- जिस आबादी के चारों ओर मिट्टी का परकोटा हो उसे खेड़ या खेड़ा कहते हैं।
(४) कब्बड (कवेट)- थोड़ी आबादी वाला गॉव ।
(५) मण्डप- जिम स्थान से गाँव अढाई फोस की दूरी पर हो उसे मण्डप कहते हैं। ऐसे स्थान में वृक्ष के नीचे या प्याऊ आदि में साधु ठहर सकता है।
(६)पाटण (पत्तन)- व्यापार वाणिज्य का बड़ा स्थान, जहाँ मव वस्तुएं मिलती हों उसे पाटण कहते हैं।
(७) आगर (आकर)- सोना चॉदी आदि धातुओं के निकलने की खान को आगर कहते हैं।
(८) द्रोणमुग्व- समुद्र के किनारे की आगदी जहाँ जाने के लिए जल और स्थल दोनों प्रकार के मार्ग हो । आज कल इस
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
'श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१६७
बन्दरगाह कहते हैं।
(8)निगम-जहाँ अधिकतर वाणिज्य करने वाले महाजनों की आबादी हो उसे निगम कहते हैं। (१०) राजधानी- जहाँ राजा स्वयं रहता हो। (११)आश्रम- जंगल में तपस्वी, सन्यासी आदि के ठहरने का स्थान आश्रम कहलाता है।
(१२) संनिवेश- जहाँ सार्थवाह अर्थात् बड़े बड़े व्यापारी बाहर से आकर उतरते हों।
(१३ ) संवाह-पर्वत गुफा आदि में जहाँ किसानों की आबादी हो अथवा गाँव के लोग अपने धन माल आदि की रक्षा के लिए जहाँ जाकर छिप जाते हैं उसे संवाह कहते हैं।
(१४) घोष-जहाँ गाय चराने वाले गूजर लोग रहते हैं। (१५)अंसियं-गॉव के बीच की जगह को अंसियंकहते हैं। (१६) पुरभय- दसरे दूसरे गाँवों के व्यापारी जहाँ अपनी वस्तु बेचने के लिए इकट्ठे होते हैं उसे पुरभय कहते हैं। आजकल इसे मण्डी कहा जाता है। ___ उपर लिखे सोलह ठिकानों में से जहाँ आबादी के चारों ओर परकोटा है और परकोटे के बाहर आबादी नहीं है वहाँगरमीअथवा सरदी में साधु को एक मास ठहरना कल्पता है।
ऊपर लिखे ठिकानों में से परकोटे वाले स्थान में यदि परकोटे के बाहर भी आबादी है तो वहाँ साधु गरमी तथा सरदी में दो महीने ठहर सकता है, एक महीना कोट के अन्दर और एक महीना बाहर | अन्दर रहते समय गोचरी भी कोट के अन्दर ही करनी चाहिए और बाहर रहते समय बाहर।
साध्वी के लिए साधु से दुगुने काल तक रहना कल्पता है अर्थात् कोट के बाहर बिना आबादी वाले स्थान में दोमास और आबादी
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७० wommmmmmmm
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
असुरकुमारों से स्तनितकुमारों तकदस भवनपति देवों में सिर्फ एक चौथा भांगा (महास्रव महाक्रिया अल्पवेदना अल्पनिर्जरा) पाया जाता है। इनमें असातावेदनीय का उदय प्रायः नहीं होने से वेदना भी अल्प है और निर्जरा भी अल्प है । इसी प्रकार वाणव्यन्तर,ज्योतिषी और वैमानिक देवों में भी सिर्फ एक चौथा भांगा पाया जाता है।
एकेन्द्रिय, वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्य सभी में ये सोलह ही भांगे' पाये जाते हैं।
(भगवती सत्र शतक १६ उद्देशा ४) ८६९- वचन के सोलह भेद __ मन में रहा हुआ अभिप्राय प्रकट करने के लिए भाषावर्गणा के परमाणुओं को बाहर निकालना अर्थात् वाणी का प्रयोग फरना वचन कहलाता है। इसके सोलह भेद हैं
(१)एकवचन-किसी एक के लिये कहा गयावचन एक वचन कहलाता है। जैसे- पुरुपः (एक पुरुष)।
(२) द्विवचन- दो के लिए कहा गया वचन द्विवचन कहलाता है। जैसे--पुरुषौ (दो पुरुष)।
(३) बहुवचन-दो से अधिक के लिए कहा गया वचन, जैसे- पुरुषाः (तीन या उससे अधिक पुरुष)।
(४) स्त्रीवचन-स्त्रीलिंग वाली किसीवस्तु के लिए कहा गया वचन । जैसे- इयं स्त्री (यह औरत)।
(५) पुरुषवचन- किसी पुल्लिंग वस्तु के लिए कहा गया वचन | जैसे- अयं पुरुपः (यह पुरुप)।
(६) नपुंसकवचन - नपुंसकलिंग वाली वस्तु के लिए कहा गया वचन । जैसे- इदं कुण्डम् (यह कुण्ड)। कुण्ड शब्द संस्कृत में नपुंसक लिंग है। हिन्दी में नपुंसकलिंग नहीं होता।
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १७१
wwwmorrorm ~~ rrrrrrrammmam (७) अध्यात्मवचन- मन में कुछ और रख कर दूसरे को ठगने की बुद्धि से कुछ और कहने की इच्छा होने पर भीशीघ्रता के कारण मन में रही हुई बात का निकल जाना अध्यात्मवचन है।
(८) उपनीतवचन-प्रशंसा करना, जैसे अमुक स्त्री सुन्दर है। (8)अपनीतवचन-निन्दात्मक वचन जैसे यह स्त्री कुरूपा है।
(१०) उपनीतापनीत वचन- प्रशंसा करके निन्दा करना, जैसे- यह स्त्री सुन्दर है किन्तु दुष्ट स्वभाव वाली है।
(११)अपनीतोपनीत वचन-निन्दा के बाद प्रशंसा करना। जैसे यह स्त्री कुरूपा है किन्तु सुशील है।
(१२) अतीतवचन-भूत काल की बात कहना अतीत वचन है। जैसे मैंने अमुक कार्य किया था।
(१३) प्रत्युत्पन्न वचन- वर्तमान काल की बात कहना प्रत्युत्पन्न वचन है। जैसे- वह करता है। वह जाता है।
(१४)अनागत वचन-भविष्य काल की बात कहना भना गत वचन है। जैसे- वह करेगा। वह जायगा।
(१५) प्रत्यक्ष वचन-प्रत्यक्ष अर्थात् सामने की बात कहना। जैसे सामने उपस्थित व्यक्ति के लिए कहना 'यह'।
(१६) परोतवचन- परोक्ष अथोत् पीठ पीछे हुई बात को कहना,जैसे सामने अनुपस्थित व्यक्ति के लिए कहना'वह'इत्यादि।
ये सोलह वचन यथार्थ वस्तु के सम्बन्ध में जानने चाहिएं। इन्हें सम्यक् उपयोग पूर्वक कहे तो भाषा प्रज्ञापनी होती है। इस प्रकार की भाषा मृषाभाषा नहीं कही जाती। (पमवणा पद ११ सुत्र ३२) (भाचाराग श्रुत० २ चूलिका १ अध्य० १३ उद्देशा १) ८७०- मेरु पर्वत के सोलह नाम
मेरु पर्वत मध्य लोक के बीच में है। उसके सोलह नाम हैं(१) मंदर (२) मेरु (३) मनोरम (४) सुदर्शन (५) स्वयंप्रम
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
समय भी योज हों तो उसे योजत्रयोज कहते हैं। जैसे- १५ । पन्द्रह में से चार को तीन ही बार घटाया जा सकता है इस लिए अपहार समय ज्योज हैं और चार चार घटाने पर तीन वचते हैं इस लिए राशि भी ज्योज है।
(७) योज द्वापर युग्म- जो राशि द्वापर हो अर्थात् चार चार घटाने पर दो वाकी बचें और अपहार समय त्रयोज हों अर्थात् तीन हो तो उसे योजद्वापरयुग्म कहते हैं। जैसे-१४। चौदह में चार चार को तीन ही वार घटाया जा सकता है इस लिए अपहार समय व्योज हैं और चौदह संख्या द्वापर है।
(८) ज्योज कल्योज-जो राशि फल्योज हो अर्थात् जिसमें चार चार घटाने पर एक बाकी वचता हो और अपहार समययोज हो उसे त्र्योजकल्योजकहते हैं। जैसे १३ । तेरह में चार चारको तीन ही वार घटाया जा सकता है इस लिए अपहार समय व्योज हैं और तेरह संख्या कल्योज है।
(६) द्वापरयुग्म कृतयुग्म- जो राशि कृतयुग्म हो अर्थात् चार चार घटाने पर अन्त में चार ही रहें कुछ बाकी न वचेतथा अपहार समय द्वापर हों अर्थात् अन्त में दो बचें तो उसे कृतयुग्म द्वापरयुग्म कहते हैं । जैसे-८/आठ में से चार चार कम करने पर शेप कुछ नहीं वचता इस लिए यह कृतयुग्म है और दो ही वार घटाया जा सकता है इस लिए अपहार समय द्वापरयुग्म हैं।
(१०) द्वापरयुग्म योज-जोराशियोज हो अर्थात जिसमें चार चार घटाने पर बाकी तीन बच जायें और अपहार समय द्वापरयुग्म हो तो उसे द्वापर युग्म व्योज कहते हैं। जैसे- ११ । ग्यारह में चार को दो हीबार घटाया जा सकता है, इस लिए अपहार समय द्वापर है और चार चार घटाने पर तीन वाकी वच जाते हैं इसलिए अपहियमाण वस्तु त्रयोज है।
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त चोल संग्रह, पांचवां भाग १७५ ~~~mmmmmmmmmmm rmmmmmmmmm wwmoran
(११) द्वापरयुग्म द्वापरयग्म- जो राशि द्वापर युग्म हो और अपहार समय भी द्वापरयुग्म हो तो उसे द्वापरयुग्म द्वापर युग्म कहते हैं। जैसे- १० । दस में से चार चार को दो ही बार कम किया जा सकता है इस लिए अपहार समय द्वापरयग्म हैं और चार चार कम करने पर दो बचते हैं अतः अपहियमाण वस्तु भीद्वापरयुग्म है। __ (१२)द्वापरयुग्मकल्योज- जो राशि कल्योज हो अर्थात् जिस में से चार चार कम करने पर एक बाकी बचे और अपहार समय द्वापर युग्म हों तो उसे द्वापरयुग्म कल्योज कहते हैं। जैसे-६।नौ में से चार चार दो ही बार कम किए जा सकते हैं इस लिए अपहार समय द्वापरयुग्म हैं तथा चार चार कम करने पर शेष एक बचता है इस लिए अपहियमाण वस्तु कल्योज है।
(१३) कल्योजकृतयुग्म-जो राशि कृतयुग्म हो और अपहार समय कल्योज हो तो उसे कल्योजकृतयुग्म कहते हैं। जैसे-४। चार में से चार घटाने पर शेष कुछ नहीं बचता इस लिए राशि कृतयग्म है तथाचार को एक ही बार घटाया जा सकता है इस लिए अपहार समय कल्योज है।
(१४) कल्योजत्र्योज- जो राशियोज हो और अपहार समय कल्योज हो तो उसे कल्योजत्रयोज कहते हैं। जैसे-७।सात में से चार को एक ही बार घटाया जा सकता है इस लिए अपहार समय कल्योज है और चार घटाने पर शेष तीन बच जाते हैं इस लिए अपह्रियमाण वस्तुभ्योज है।
(१५) कल्योजद्वापरयुग्म- जो राशि द्वा और अपहार समय कल्योज हो तो उसे कल्योजद्वापरयुग्म कहते हैं। जैसे-६। छः में से चार को एक ही बार घटाया जा सकता है इस लिए अपहार समय कल्योज है और चार घटाने पर शेष दो बच जाते हैं इस लिए अपह्रियमाण वस्तु द्वापरयुग्म है।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmmmmmm
१७६- -- श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला ~ ~ ~rormmar - mmmmmmmmmar - rm
(१६) कल्योज-कल्योज यदि अपहियमाण वस्तु और अप हार समय दोनों कन्योज हों तो उसे कल्योजकल्योज कहते हैं। जैसे- ५। पाँच में से चार को एक ही बार घटाया जा सकता है इस लिए अपहार समय कल्योज है तथा चार घटाने पर एक बच जाता है इस लिए अपहियमाण वस्तु भी कल्योज है।
नोट- ऊपर उदाहरण में दी गई संख्याएं जघन्य हैं। इसी क्रम को लेकर बड़ी संख्याओं को भी यथासम्भव महायुग्मों में वॉटा जा सकता है।
(भगवती सूत्र, शतक ३५ उद्देशा १) ८७२-द्रव्यावश्यक के सोलह विशेषण
जिस व्यक्ति ने आगम सीख लिया हो या कण्ठस्थ कर लिया हो वह जिस समय उपयोग रहित हो, उस समय उसे द्रव्यावश्यक कहते हैं। द्रव्यावश्यक के सोलह विशेषण है
(१) शिक्षित- सारे आवश्यक मूत्र को सीरव लिया हो। (२)स्थित-हृदय में स्थिर कर लिया हो अर्थात् जमा लिया हो।
(३)जित-जीत लिया हो अर्थात् शीघ्र स्मरण में आने वाला बना लिया हो।
(४) मित- आवश्यक में कितने अक्षर हैं कितने पद हैं इत्यादि संख्या द्वारा उसके परिमाण को जान लिया हो।
(५) परिजित- इस प्रकार कण्ठस्थ कर लिया हो कि उल्टा फेरने पर भी तत्काल सारा स्मरण में श्रा जाय।
(६) नामसम-जिस प्रकार अपना नाम स्थिर अर्थात जमा हुआ होता है उसी प्रकार यदि आवश्यक भी स्थिर हो जाय तो वह नामसम है।
(७) घोषसम-गुरु द्वारावताए गए उदात्त, अनुदात्त और स्वरित आदिघोष अर्थात् स्वरों का उन्हीं के समान उच्चारण करके जोग्रहण किया गया हो उसे घोपसम कहते हैं।
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
• , पांचवां भाग १७७ . ...mo ~~ ~~~ .....
न्यून या अधिक न हो। ' गँवार स्त्री द्वारा उन्टी सीपी उलट पलट वर्णों वाला हो उसे में वर्गों की रचना ठीक हो उसे अक्षर की अपेक्षा है, पद या
* भूमि में चलाए गए हल के स्खलना अर्थात् भूल न हो उसे
धान्यों के ढेर के समान जहाँ सूत्र हो उसे अमिलित करते हैं अथवा
. में मिले हुए न हों, सभी जुदे
एक ही शास में भिम भिम स्थानों वाले सूत्रों को एक जगह लाकर
भाचार भादि में अपने आप मूत्र कर पढ़नाव्यत्या हित है, अथवा
क्रम से न रखनाव्यत्याम्रोटित के शत्रु राक्षस नष्ट हो गए। वास्तव बाद राम को राज्य प्राप्त हुआ था।
. 'डित है। जो वाक्य व्यत्या'डितकहते हैं। सूत्र में गायानों का परिमाण छन्द, सूत्र से परिपूर्ण कहते हैं। जिसमें भर्य से परिपूर्ण कहते हैं अर्थात् भादि भावश्यक पदों की हीनता
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(१४) चौदहवें स्वम में महामूल्य रत्न को तेज हीन देखा।
फल- भारतवपे के साधुओं में चारित्र रूपी तेज घट जाएगा। वेकलह करने वाले, झगड़ालू, अविनीत. ईर्ष्यालु, संयम में दुःख समझने वाले, आपस में प्रेम भाव थोड़ा रखने वाले,लिंग, प्रवचन और साधर्मिकों का अवगुण निकालने वाले, दूसरे की निन्दातथा अपनी प्रशंसा करने वाले, संवेगधारी श्रुतधारी तथा सच्चे धर्म के मरूपफ साधुओं से ईर्ष्या करने वाले अधिक हो जाएंगे।
(१५)पन्द्रहवें स्वम में राजकुमार को बैल की पीठ पर चढ़े देखा। फल-क्षत्रिय राजा जिनधर्म को छोड़ कर मिथ्यात्व स्वीकार कर लेंगे। न्यायी पुरुष को नहीं मानेंगे। नीच की बातें अच्छी लगेंगी। कुबुद्धि को अधिक मानेंगे तथा दुर्जनों का विश्वास करेंगे। (१६)सोलहवेंखम में दोकाले हाथियों को युद्ध करते देखा।
फल- अतिष्टि, अनावृष्टि तथा अकालदृष्टि अधिक होगी। पुत्र और शिष्य आज्ञा में नहीं रहेंगे। देव गुरु तथा माता पिता की सेवा नहीं करेंगे।
(व्यवहारचूलिका) ८७४-महावीर की वसति विषयक १६ गाथाएं ___ आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध,नवम अध्ययन दूसरे उद्देशे में सोलह गाथाएं हैं। उनमें भगवान् महावीर ने विहार करते हुए जिन जिन स्थानों पर निवास किया और जैसे आचरण किया उनका वर्णन है। गाथाओं काभावार्थ नीचे लिखे अनुसार है
(१) विहार करते समय भगवान् महावीर ने जिन जिन स्थानों पर निवास किया तथा जिन शयन और श्रासनों का सेवन किया उन्हें बताइए।' जम्वृ स्वामी द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर सुधर्मा खामी ने कहना शुरू किया
(२) भगवान किसी समय दीवार वाले सूने घरों में, सभागृह (गॉव में जो स्थान पञ्चायत मादि के लिए अथवा किसी भाग
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
८३
न्तुक के ठहरने के लिए होता है) में, प्याऊ में या दुकानों में ठहर जातेथे। किसी समय लुहार,बढ़ई आदि के काम करने की दीवाल के नीचे यापलाल के बने हुए मञ्चों के नीचे निवास करते थे।
(३) कभी आगन्तार (गाँव या नगर से बाहर मुसाफिरों के ठहरने का स्थान)में, कभी उद्यान में बने हुए किसीमकान में,कभी श्मशान अथवा सूने घर में, कभी वृक्ष के नीचे उतर जाते थे।
(४) इस प्रकार के स्थानों में निवास करते हुए महामुनि महावीर कुछ अधिक साढ़े बारह वर्ष तक प्रमाद रहित तथा समाधि में लीन रहते हुए संयम में प्रयत्न करते रहे। । (५) दीक्षा लेने के बाद भगवान् ने प्रायः निद्रा का सेवन नहीं किया, सदा अपने को जागृत रक्खा। किसी जगह थोड़ी सी नींद आने पर भी वे इच्छापूर्वक कभी नहीं सोए।
नोट- अस्थिग्राम में व्यन्तरकृत उपसर्गों के वाद अन्तर्महूर्त के लिए भगवान को नींद आगई थी इसके सिवाय वेकहीं नहीं सोए।
(६) निद्रा को कर्मवन्धका कारणसमझ कर वेसदाजागते रहते थे। यदि कभी नींद आने लगती तो शीतकाल की रात्रि में बाहर निकल कर मुहूर्त भरध्यान में लीन रह कर नींद को टाल देतेथे।
(७)ऊपर बताए हुए स्थानों में भगवान् को अनेक प्रकार के भयङ्कर उपसर्ग उपस्थित हुए। साँप वगैरह जन्तु तथा गिद्ध वगैरह पक्षी उनके शरीर को नोचते थे।
(८) व्यभिचारी तथा चोर श्रादि उन्हें सूने घर में देख कर उपसर्ग देते थे। ग्रामरक्षक शक्ति तथा भाले मादि हथियारों द्वारा कष्ट पहुँचाते थे। बहुत से पुरुष तथा उनके रूप पर मोहित होकर विषयाभिलाष वाली स्त्रियाँ उन्हें सताती थी।
(8) इस प्रकार मनुष्य तथा पशुओं द्वारा किए गए, अनेक प्रकार की मुगन्धि तथा दुर्गन्धि वस्तुओं के तथा अनेक प्रकार के
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४भी सेठिया जैन ग्रन्थेमाला
शब्दों के भय हुर उपसर्ग भगवान् समितिपूर्वक सहन करते थे।
(१०) भगवान् विविध प्रकार के दुःख तथा रति अरति की परवाह न करते हुए,विना अधिक बोले समिति पूर्वक सदा संयम में लीन रहते थे। । __ (११)निर्जन स्थान में भगवान् को खड़े देख कर लोग अथवा रात्रि के समय व्यभिचारी पुरुष पूछते थे- तुम कौन हो ? उस समय भगवान् कुछ नहीं बोलते थे। इस पर वे क्रुद्ध होकर भगवान् कोपीटने लगते,किन्तु भगवान् धर्मध्यान में लीन रहते हुए उसे समभाव पूर्वक सहन करते थे, किसी के प्रति वैर भावना नहीं रखते थे।
(१२) लोग पूछते थे, अरे ! यहॉ कौन खड़ा है ? कभी कभी भगवान् उत्तर देते- 'मैं भिक्षक खड़ाहूँ। यह सुन कर वे कहतेयहाँ से जल्दी चला जा। इसे सुन कर वहाँ से जाना उत्तम समझ कर भगवान् दूसरी जगह चले जाते । अगर वे कुछ न कहते और क्रोध करने लगते तो भगवान् मौन रह कर वहीं खड़े रहते।
(१३-१४-१५) शीत काल में जव ठण्डी हवा जोर से चलने लगती, लोग थर थर काँपने लगते, जव सामान्य साधु सरदी से तंग आकर विना हवा वाले स्थान, अग्नि या कम्बल आदि की इच्छा करने लगते थे, इस प्रकार जब सरदी भयङ्कर कष्ट देने लगती उस समय भी संयमी भगवान् महावीर निरीह रह कर खुले स्थान में खड़े खड़े शीत को सहन करते थे। यदिरहने के स्थान में शीत । अत्यन्त असह्य हो जाता तो रात्रि को थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाते थे। मुहूर्तमात्र वाहर घूम कर फिर निवास स्थान में आकर समभाव पूर्वक शीत को सहते थे।
(१६) निरीह और मतिमान् भगवान् महावीर ने इस प्रकार कठोर आचार का पालन किया। दूसरे मुनियों को भी उन्हीं के समान वर्तना चाहिए। (भाचाराग श्रुतस्कन्ध । अध्य० । उद्देशा २ )
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१८५
८७५- सतियाँ सोलह
अपने सतीत (पतिव्रत) तथा दूसरे गुणों के कारण जिन महिलाभों ने स्त्री समाज के सामने महान् आदर्श रक्खा है उन्हें सती कहा जाता है। उन्होंने बाल्यावस्था में योग्य शिक्षा, यौवन में पतिव्रत या पूर्ण ब्रह्मचर्य और अन्त में संयम ग्रहण करके अपने जीवन को पूर्ण सफल बनाया है। सतील की कठोर परीक्षाओं में वे पूर्ण सफल हुई हैं। इन सतियों में भी सोलह प्रधान मानी गई हैं। उन का नाम पवित्र और मङ्गलमय समझकर प्रातःकाल स्मरण किया जाता है। इहलोक और परलोक दोनों में सुख समृद्धि प्राप्त करने के लिए नीचे लिखा श्लोक पढ़ा जाता हैब्राह्मी चन्दनघालिका भगवती राजीमती द्रौपदी । कौशल्या चमृगावती चसुलसासीतासुभद्रा शिवा॥ कुन्ती शीलवती नलस्य दयिताचूला प्रभावत्यपि । पद्मावत्यपि सुन्दरी प्रतिदिन कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥ अर्थात्- ब्राह्मी, चन्दनवाला, राजीमती, द्रौपदी, कौशल्या, मृगावती, सुलसा, सीता, सुभद्रा, शिवा, कुन्ती, दमयन्ती, चूला, प्रमावती, पद्मावती और सुन्दरी प्रतिदिन हमारामङ्गाल करें।
उपरोक्त सोलह सतियों का संक्षिप्त जीवन चरित्र नीचे लिखे अनुसार है
(१) ब्राह्मी महाविदेह क्षेत्र में पुंडरीकिणी नाम की नगरी थी । वहाँ वैर नाम का चक्रवर्ती राजा राज्य करता था । उसने अपने चार छोटे भाइयों के साथ भगवान् वैरसेन नाम के तीर्थङ्कर के पास वैराग्य पूर्वक दीक्षा अंगीकार की।
महामुनि वैर कुछ दिनों में शास्त्र के पारंगत हो गए। भगवान्
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
~~mmmmmmmm ramwww.mmmmmanav nnn urmammam
के द्वारा गच्छपालन में नियुक्त किए जाने पर वे पाँच सौ साधुओं के साथ विहार करने लगे। उनके एक भाई का नाम बाहु था । बाहु मुनि लब्धि वाले और उद्यमी थे। वे दूसरे साधुओं की अशन पान आदि के द्वारा सेवा किया करते थे। दूसरे भाई का नाम सबाहु था। सुबाहु मुनि मन में बिना ग्लानि के स्वाध्याय आदि से थके हुए साधुओं की पगचाँपी आदि द्वारा वैयावच्च किया करते थे। तीसरे और चौथे भाई का नाम पीठ और महापीठ था। वे दिन रात शास्त्रों के स्वाध्याय में लगे रहते थे। ___ एक दिन आचार्य ने बाहु और सुबाहु की प्रशंसा करते हुए कहा-ये दोनों साधुधन्य है जो दूसरे साधुओं की धार्मिक क्रियाओं को अच्छी तरह पूरा कराने के लिए सदा तैयार रहते हैं। यह सुन कर पीठ और महापीठ मन में सोचने लगे- आचार्य महाराज ने लोक व्यवहार के अनुसार यह बात कही है क्योंकि लोक में दूसरे का काम करने वाले की ही प्रशंसा होती है । बहुत बड़ा होने पर भी जो व्यक्ति दूसरे के काम नहीं आता वह कुछ नहीं मानाजाता, मन में ऐसा विचार आने से उन्होंने स्त्री जातिनामकर्म कोवॉध लिया। आयुष्य पूरी होने पर वे पाँचों भाई सर्वार्थसिद्ध विमान में गए। वहाँ से चव कर वैर चक्रवर्ती का जीव भगवान् ऋषभ देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वाहु और सूवाहु भरत और बाहुबली के रूप में उत्पन्न हुए । वाकी दो अर्थात् पीठ और महापीठ ब्राह्मी और सुन्दरी के रूप में उत्पन्न हुए।
(पचाशक सोलहवा) जम्बूद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र में अयोध्या नाम की नगरी थी। वर्तमान हुंडावसर्पिणी के तीसरे आरे के अन्त में वहॉ नाभि राजा नाम के पंद्रहवें कुलकर हुए। उनके पुत्र भगवान् ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर,प्रथम राजा, प्रथम धर्मोपदेशक और प्रथम धर्म चक्रवर्ती थे। उनकी माता का नाम मरु देवी था।युगलधर्म का उच्छेद
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १८७ maurorummannammannana narx nonnonmmornom हो जाने पर पहले पहल उन्होंने ही व्यवस्था की थी। उन्होंने ही पहले पहल कर्ममार्ग का उपदेश दिया था। उन्हीं के शासन में यह देश अकर्मभूमि (भोग भूमि) से बदल कर कर्मभूमि बना।
उनके दोगुणवतीरानियॉथीं। एक का नाम था सुमंगला और 'दूसरी का नाम सुनन्दा। - एक बार रात के चौथे पहर में मुमंगला रानी ने चौदह महास्वम देखे । स्वम देखते ही वह जग गई और सारा हाल पति को कहा। पति ने बताया कि इन खमों के फल स्वरूप तुम्हें चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति होगी। यह सुन कर सुमंगला कोबड़ी प्रसन्नता हुई। गर्भवती स्त्री के लिए बताए गए नियमों का पालन करती हुई वह प्रसन्नता पूर्वक दिन विताने लगी।
वैद्यकशास्त्र में लिखा है- गर्भवती स्त्रियों को बहुत गरम, बहुत ठंडा, गरम मसालों वाला, तीखा, खारा, खट्टा, सड़ागला, भारी
और पतला भोजन न करना चाहिए । अधिक हँसना, बोलना, सोना, जागना, चलना, फिरना, ऐसी सवारी पर बैठना जिस पर शरीर को कष्ट हो, अधिक खाना, बार बार अंजन लगाना, थक जाय ऐसा काम करना, अयोग्य नाटक तथा खेल तमाशे देखना, प्रतिकूल हँसी खेल करना,ये सभी बातें गर्भवती के लिये वर्जित हैं। इनसे गर्भस्थ जीव में किसी प्रकार की खामी होने का डर रहता है। __ गर्भवती स्त्री को मन की घबराहट और थकावट के बिना जितनी देर प्रसन्नता और उत्साहपूर्वक हो सके ऐसी पुस्तकें या जीवन चरित्र पढ़ने चाहिएं जिन से शिक्षा मिले। सदा रुचिकारक र और गर्भ को पुष्ट करने वाला आहार करना चाहिए । धर्मध्यान, दया दान और सत्य वगैरह में रुचि रखनी चाहिए । शरीर पर स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए औरचित्त में उत्तम विचार रखन
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला mornrmmmmmmmmmmmmmmm चाहिए। माता के रहन सहन, भोजन और विचारों का गर्भ पर पूरा असर होता है, इस लिए माता को इस प्रकार रहना चाहिए जिससे स्वस्थ, सुन्दर और उत्तम गुणों वाली सन्तान उत्पन्न हो।
सुमंगला रानी ने अपनी सन्तान को श्रेष्ठ भौर सद्गुण सम्पन्न बनाने के लिए ऊपर कहे हुए नियमों का अच्छी तरह पालन किया। गर्भ का समय पूरा होने पर शुभ समय में सुमंगला रानी के पुत्र और पुत्री का जोड़ा उत्पन्न हुआ।
सुनन्दा रानी ने भी ऊपर कहे हुए चौदह स्वमों में से चार महास्वम देखे । गर्भकाल पूरा होने पर उसने भी पुत्र पुत्री के जोड़े को जन्म दिया। इसके बाद सुमंगला रानी न पत्रों के उनचास जोड़ो को जन्म दिया। इस प्रकार श्रादि राजा ऋषभदेव के सौ पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई।
सुमंगला देवी ने जिस जोड़े को पहले पहल जन्म दिया उसमें पुत्र का नाम भरत और पुत्री का नाम ब्राह्मी रक्खा गया। सुनन्दा देवी के पुत्र का नाम बाहुवली और पुत्री का नाम सुन्दरी रक्खा गया।
पुत्र और पुत्री जब सीखने योग्य उमर के हुए तो उनके पिता ऋषभदेव ने अपने उत्तराधिकारी भरत कोसभी प्रकार की शिल्पफला, ब्राह्मी को १८ प्रकार की लिपिविद्या और सुन्दरी को गणित विद्या सिखाई । भरत को पुरुष की७२ कलाएं और ब्राह्मी को स्त्री की ६४ कलाएं सिखाई। __ ऋषभदेव वीस लाख पूर्व कुमारावस्था में रहे। इसके बाद त्रेसठ लाख पूर्व तक राज्य किया। एक लाख पूर्व आयुष्य वाकी रहने पर अर्थात् तेरासी लाख पूर्व की आयु होने पर उन्होंने राज्य का कार्य भरत को सम्भला दिया। वाहुवली आदि निन्यानवें पत्रों को भिन्न भिन्न देशों का राज्य दे दिया। एक वर्ष तक बरसी दान देकर दीक्षा अंगीकार की। एक वर्ष की कठोर तपस्या के
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिदान्त पोल संग्रह, पांचवां भाग
१८६
बाद उनके चारों घाती कर्म नष्ट होगए और उन्होंने केवलज्ञान
और केवलदर्शन प्राप्त किया अर्थात् वे सर्वज्ञ और सर्वदशी होगए। संसार का कल्याण करने के लिए उन्होंने धर्मोपदेश देना शुरू किया। भगवान की पहली देशना में भरत महाराज के पाँच सौ पुत्र और सात सौ पौत्रों ने वैराग्य प्राप्त किया और भगवान् के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। ___ विहार करते करते भगवान् अयोध्या में पधारे। भरत चक्रवर्ती को यह जान कर बड़ा हर्ष हुना। ब्राह्मी,सुन्दरी तथा दूसरे परिवार के साथ भरत चक्रवर्ती भगवान् को वन्दना करने के लिए गए। धर्मकथा सुनकर सब के चित्त में अपार आनन्द हुआ।भगवान् ने कहा- विषय भोगों में फंस कर अज्ञानीजीव अपने स्वरूप को भूल जाते है । जो प्राणी अपना स्वरूप समझ कर उसी में लीन रहता है, सांसारिक विषयों से विरक्त होकर धर्म में उद्यम करता है वही कर्मबन्ध कोकाट कर मोक्ष रूपीअनन्त सुख को प्राप्त करता। है। सांसारिक सुख क्षणिक तथा भविष्य में दुःख देने वाले हैं। मोक्ष का सुख सर्वोत्कृष्ट तथा अनन्त है इस लिए भव्य प्राणियों को मोक्ष प्राप्ति के लिये उद्यम करना चाहिए।
ब्राह्मी भगवान् के उपदेश को बड़े ध्यान से सुन रही थी। उस के हृदय में उपदेश गहरा असर कर रहा था। धीरे धीरे उसका मन संसार से विरक्त होकर संयम की ओर झुक रहा था।
सभा समाप्त होने पर ब्राह्मी भगवान् के पास आई और वन्दना करके बोली- भगवन् !आपका उपदेश सुन कर मेरा मन संसार से विमुख हो गया है। मुझे अब किसी वस्तु पर मोह नहीं रहा है। इस लिये दीक्षा देकर मुझे कृतार्थ कीजिए । संसार के वन्धन मुझे बुरेलगते हैं। मैं उन्हें तोड़ डालना चाहती है। भगवान् ने फरमायाग्रामी! इस कार्य के लिये भरत महाराज की आज्ञालेना आवश्यक
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
. है उनकी आज्ञा मिलने पर मैं तुम्हें दीक्षा दूँगा ।
1
ब्राह्मी भरत के पास आई । उसके सामने अपनी दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की । भरत ने साधुओं के कठिन मार्ग को बता कर ब्राह्मी को दीक्षा न लेने के लिये समझाना शुरू किया किन्तु ब्राह्मी अपने विचारों पर दृढ रही । भरत ने जब अच्छी तरह समझ लिया कि ब्राह्मी अपने निश्चय पर अटल है, उसे कोई भी विचलित नहीं कर सकता तो उसने प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दे दी । भरत महाराज ब्राह्मी को साथ लेकर भगवान् के पास आए और कहने लगे
भगवन् ! मेरी बहिन ब्राह्मी दीक्षा अंगीकार करना चाहती है । इसने योग्य शिक्षा प्राप्त की है। संसार में रहते हुए भी विषय वासना से दूर रही है । सब प्रकार की सुख सामग्री होने पर भी इसका मन विषय भोगों में नहीं लगता । आपका उपदेश सुन कर इसका संसार से मोह हट गया है। यह जन्म, जरा और मृत्यु के दुःखों से छुटकारा पाना चाहती है, इसी लिए इसने दीक्षा लेने का निश्चय किया है। दीक्षा का मार्ग कठोर है, यह बात इसे अच्छी तरह मालूम है | इसमें दु:ख और कष्टों को सहन करने की पर्याप्त शक्ति है। संयम अंगीकार करने के बाद यह चारित्र का शुद्ध पालन करेगी, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। इसकी दीक्षा के लिए मेरी आज्ञा है। इसे दीक्षा देकर मुझे कृतार्थ कीजिए। मैं आपको अपनी बहिन की भिक्षा देता हूँ, इसे स्वीकार करके मुझे कृतकृत्य कीजिए । सव के सामने भरत महाराज के ऐसा कहने पर भगवान् ने ब्राह्मी को दीक्षा दे दी।
१६.०
AANAA
(२) सुन्दरी
ब्राह्मी को दीक्षित हुई जान कर सुन्दरी की इच्छा भी दीक्षा लेने की हुई किन्तु अन्तराय कर्म के उदय से भरत ने उसे आझा नदी । श्राज्ञा न मिलने से वह संयम अंगीकार न कर सकी ।
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
w
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग १६१ annnnnnnnnn warunna anv wwwww । द्रव्य संयम न लेने पर भी उसका अन्तःकरणभाव संयममय था।
थोड़े दिनों बाद भरत छः खंड साधने के लिए दिग्विजय पर चले गए। सन्दरी ने गृहस्थ वेश में रहते हुए भी कठोर तप करने का निश्चय किया। उसी दिन से छः विगयों का त्याग करके प्रति दिन आयम्बिल करने लगी। छः खंड साधने में भरत को साठ . हजार वर्ष लग गए। सुन्दरी तब तक वरावर आयम्बिल करती रही। उसका शरीर बिल्कुल सूख गया। केवल अस्थिरपंजर रह गया।
भरत महाराज छः खंड साध कर वापिस लोटे।सुन्दरीके कृश शरीर को देख कर उन्हें निश्चय हो गया कि उसके हृदय में वैराग्य
ने घर कर लिया है। वह अपने दीक्षा लेने के निश्चय पर अटल । है। भरत चक्रवर्ती अपने मन में सोचने लगे
बहिन सुन्दरीको धन्य है । आत्मकल्याण के लिए इसने घोर तप अंगीकार किया है। ऐसी सुलक्षणा देवियाँ अपने शरीर से मोक्ष रूपी परम पद को प्राप्त करने का प्रयत्न करती हैं और भोगों की इच्छा वाले भोले प्राणी इसी शरीर के द्वारा दुर्गति के कर्म वॉधते हैं। यह शरीर तो रोग, चिन्ता, मल,मूत्र,श्लेष्म वगैरह गन्दे पदार्थों का घर है। अतर वगैरह लगा कर इसे सुगन्धित बनाने का प्रयत्न करना मूर्खता है । गन्दे शरीर के लिये गर्व करना अज्ञानता है। मेरी बहिन को धन्य है जो शरीर और धन दौलत की अनित्यता का खयाल करके मायावी सांसारिक भोगों में नहीं फॅसी और नित्य और अखंड सुख देने वाले संयम को अंगीकार करना चाहती है । सुन्दरी पहले भी दीक्षा लेने को तैयार हुई थी, किन्तु मैंने उसके इस कार्य में बाधा देकर उसे रोक दिया था किन्तु सुन्दरी ने अपने इस तप द्वारा अब मुझे भी सावधान कर दिया है। वास्तव में संसार के क्षणिक सुखों में कोई सार नहीं है। यह सब जानते हुए भी आज मेरी अवस्था ऐसी नहीं है कि मैं दीक्षा
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२ ___ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ~ ~ ~rmir w rwwwim अङ्गीकार कर सकें। सुन्दरी सहर्ष दीक्षा ले सकती है। सुन्दरी को इस सुकाये से रोकना न तो उचित है और न इसकी कोई आवश्यकता ही है। अब मैं इसके लिए उसे सहर्ष आज्ञा दे दूंगा।
जिस समय भरत ने यह निश्चय किया, संयोगवश उसी समय तरण तारण,जगदाधार, प्रथम तीर्थङ्कर श्री आदि जिनेश्वर विचरते हुए अयोध्या में पधारे और नगर के बाहर एक उद्यान में ठहर गए।
वमपाल द्वारा भरत को यह समाचारमालूम होते ही वे स्वजन, परिजन और पुरजन सहित बड़े ठाठ बाठ के साथ प्रभुको वन्दना करने के लिए उस उद्यान में गए । वहाँ पहुँचते ही छत्र, चमर शस्त्र, मुकुट और जूते इन पाँच वस्तुओं को अलग रख कर उन्होंने जिनेश्वर भगवान् को भक्तिपूर्वक वन्दन किया। इसके बाद उन का धर्मोपदेश सुनने के लिए वे भी अन्यान्य श्रोताओं के साथ वहीं बैठ गए। भगवान् उस समय बहुत ही मधुर शब्दों में धर्मोपदेश दे रहे थे, उसे सुन कर भरत को बहुत ही आनन्द हुआ।
धर्मोपदेश समाप्त होने पर भरत ने भगवान् से नम्रतापूर्वक कहा- हे जगत्पिता ! मेरी वहिन सुन्दरी आज से साठ हजार वर्षे पहले दीक्षा लेने को तैयार हुई थी, किन्तु मैंने उसके इस कार्य में बाधा देकर उसे दीक्षा लेने से रोक दिया था। उस समय मुझे भले बुरे का ज्ञान न था । अब मुझे मालूम होता है कि मेरावइ कार्य बहुत ही अन्यायपूर्ण था । निःसन्देह अपने इस कार्य से मैं पाप का भागी हुआ हूँ। हे भगवन् ! मुझे बतलाइए कि मैं अब किस तरह इस पाप से मुक्त हो सकता हूँ। __ जिनेश्वर भगवान् से यह निवेदन करने के वाद भरत ने सुन्दरी को दीक्षा लेने की आज्ञा देते हुए उससे क्षमा प्रार्थना की। सुन्दरी ने उनका यह पश्चात्ताप देख कर उन्हें सान्त्वना देते हुए कहामुझे दीक्षा लेने में जो विलम्ब हुआ है उसमें कर्मों काहीदोष है,
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग १६३
mmmmmmmmmmmm श्रापका नहीं, इस लिए आप को खिन्न होने या पश्चात्ताप करने की आवश्यकता नहीं है। वर्षा ऋतु में मूसलधार दृष्टि होने पर भी यदि पपीहा प्यासा ही रह जाता है तो यह उसके कर्मों का ही दोष है, मेघ का नहीं । वसन्त ऋतु में सभीलताएं और वृक्ष नए पत्ते और फल फूलों से लद जाते हैं। यदि उस समय करीर वृक्ष पल्लवित नहीं होता तो यह उसी का दोष है, वसन्त का नहीं । सूर्योदय होने पर सभी प्राणी देखने लगते हैं। यदि उस समय उल्लू की आँखें बन्द हो जाती हैं तो यह उसी का दोष है, सूर्य का नहीं। मेरे अन्तराय कर्म ने ही मेरी दीक्षा में बाधादी थी, आपने नहीं। मैं इसमें आपका कुछ भी दोष नहीं मानती।
इस प्रकार के अनेक वचन कह कर सुन्दरीने भरत को शान्त किया। इसके बाद उसने उसी समय जिनेश्वर भगवान के निकट दीक्षा ले ली। सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर सुन्दरी शुद्ध चारित्र का पालन करते हुए दुष्कर तप करने लगी। __ जिस समय भरत ने छह खंड जीतने के लिए प्रस्थान किया उनके छोटे भाई बाहुबली तक्षशिला में राज्य कर रहे थे। बाहुवली को अपनी शक्ति पर विश्वास था। भरत के अधीन रहना उसे पसन्द न था। उसने सोचा- पूज्य पिताजी ने जिस प्रकार भरत को अयोध्या का राज्य दिया है, उसी प्रकार मुझे ततशिला का राज्य दिया है। जो राज्यं मुझे पिताजी से प्राप्त हुआ है,
उसे छीनने का अधिकार भरत को नहीं है। यह सोच कर उस · ने भरत के अधीन रहने से इन्कार कर दिया । चक्रवर्ती बनने
की अभिलोपा से भरत ने बाहुबली पर चढ़ाई करदी। बाहुबली ने भी अपनी सेना के साथ आकर सामना किया। एक दूसरे के रक्त की प्यासी वन कर दोनों सेनाएं मैदान में आकर डट गईं। एक दूसरे पर टूटने के लिए आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगीं।
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला
इतने में इन्द्र ने स्वर्ग से आकर कहा- तुम लोगव्यर्थ सेना का संहार क्यों कर रहे हो? अगर तुम्हें लड़नाही है तो तुम दोनों पञ्चयुद्ध करो। दोनों भाइयों ने इन्द्र की बात को मान लिया। सेनामों द्वारालड़ने से होने वाले रक्तपात कोव्यर्थसमझ कर पाँच प्रकार सेमल्लयुद्ध करने का निश्चय किया। पहले के चार युद्धों में वाहुबली की जीत हुई. फिरमुष्टियुद्ध की वारीआई। बाहवली की भजाभों में बहुत बल था। उसे अपनी विजय पर विश्वास था । भरत के मुष्टिप्रहारको उसने समभाव सेसह लिया। इसके बाद स्वयं प्रहार करने के लिए मुष्टि उठाई। उसी समय शक्रेन्द्र ने उसे पकड़ लिया और वाहुवली से कहा- बाहुवली! यह क्या कर रहे हो! बड़े भाई पर हाय चलाना तुम्हें शोभा नहीं देता। तुच्छ राज्य के लिए क्रोध के वशीभूत होकर तुम कितना बड़ा अनर्थ कर रहे हो, यह मन में सोचो। __ बाहुवली की मुहि उठी की उठी ही रह गई। उनके मन में पश्चात्ताप होने लगा। वे मन में सोचने लगे-'जिस राज्य के लिए इस प्रकार का अनर्थ करना पड़े वह कभी मुखदायक नहीं हो सकता । इस लिए इसे छोड़ देना ही श्रेयस्कर है। वास्तविक मुख तो संयम से प्राप्त हो सकता है। यह सोचकर उन्होंने संयमलेने का निश्चय कर लिया।
उठाई हुई मुहिकोवापिस लेना भनुचित समझकर बाहुबली उसी मुहि द्वारा अपने सिर का पंचमुष्टि लोच करके वन में चले गए। वहाँ जाकर ध्यान लगा लिया। अभी तक उनके हृदय से भभिमान दर न हुआ था। मन में सोचा- मेरे छोटे भाइयों ने भगवान् के पास पहले से दीक्षा ले रक्स्वी है । उन्हें केवलकाल भी हो गया है यदि मैं अभी भगवान के दर्शनार्य गया तोउन्हें भी वन्दना करनी पड़ेगी। यह सोच कर वे भगवान् को वन्दना
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
Avo
करने नहीं गए।
वन में ध्यान लगा कर खड़े खड़े उन्हें एक वर्ष बीत गया। पक्षियों ने कन्धों पर घोंसले बना लिए। लताएं रत की तरह चारों भोर लिपट गई । सिंह, व्याघ्र, हाथी तथा दूसरे जंगली जानवर गुरोते हुए पास से निकल गए किन्तु वे अपने ध्यान से विचलित न हुए । काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि माभ्यन्तर शत्रु उनसे हार मान गए किन्तु अहंकार का कीड़ा उनके हृदय से न निकला। छोटे भाइयों को वन्दना न करने का अभिमान उन के मन में अभी जमा हुआ था। इसी अभिमान के कारण उन्हें केवलझान नहीं हो रहा था। __ भगवान् ऋषभदेव ने अपने ज्ञान द्वारा बाहुवली का यह हाल जाना।उन्होंने वाली और सुन्दरी को बुलाकर कहा-तुमारे भाई बाहुवली अभिमान रूपी हाथी पर चढ़े हुए हैं। हाथी पर चढ़े केवलज्ञान नहीं हो सकता। इस लिए जामो भौर अपने भाई को अहंकार रूपी हाथी से नीचे उतारो।
भगवान् की आज्ञा को प्राप्त कर दोनों सतियाँ बाहुबली के पास पाई और कहने लगीं
वीरा म्हारा गज थकी हेठा उतरो. गज चढ्या केवल न होसी रे।।टेक। बन्धव गज थकी उतरो, ब्राझी सुन्दरी इम भाषे रे । ऋषभ जिनेश्वर मोकली, बाहुबल तुम पासे रे॥ लोम तजी संयम लियो, प्रायो बली अभिमानो रे। लघु बन्धव पन्दू नहीं, काउसग्ग रह्यो शुभ ध्यानो रे॥ बरस दिवस काउसग रमा, बेलड़ियां लिपटानी रे । पंछी माला मांडिया, शीत ताप सुखानी रे ।। भाई बाहुवली ! भगवान् ने अपना सन्देश सुनाने के लिए
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
हमें आपके पास भेजा है। आप हाथी पर चढ़े बैठे हैं। जरा नीचे उतरिए। आपने राज्य का लोभ छोड़ कर संयम तोधारण किया किन्तु छोटे भाइयों को वन्दना न करने का अभिमाना गया । इसी कारण इतने दिन ध्यान में खड़े रहने पर भी आपको केवल ज्ञान नहीं हुआ। इस लम्बे और कठोर ध्यान से श्रापकाशरीर कैसा कृश हो गया है। पक्षियों ने श्रापके कन्धों पर घोंसले वना लिए। डाँसों, मच्छरों और मक्खियों ने शरीर को चलनी बना दिया किन्तु आप ध्यान से विचलित न हुए। ऐसा उग्र तप करते हुए भीआपने अभिमान को आश्रय क्यों दे रक्खा है? यह अभिमान आपकी महान् करणी को सफल नहीं होने देता।
साध्वी वचन सुनी करी,चमक्या चित्त मझारोरे । हय, गय, रथ, पायक छांडिया, पर चढियो अहंकारो रे ॥ वैरागे मन बालियो, मूक्यो निज अभिमानो रे। चरण उठायो वन्दवा, पाया केवल ज्ञानो रे ॥
अपनी बहिनों के सन्देश को सुन करबाहुवली चौंक पड़े। मन ही मन कहने लगे क्या मैं सचमुच हाथी पर बैठा हूँ? हाथी, घोडे, राज्य, परिजन आदि सब को छोड़ कर ही मैंने दीक्षा ली थी। फिर हाथी की सवारी कैसी ? हाँ अब समझ में आया। मैं अहंकार रूपी हाथी पर बैठा हूँ। मेरी बहिनें ठीक कह रही हैं। मैं कितने भ्रम में था। छोटे और बड़े की कल्पना तो सांसारिक जीवों की है । आत्मा अनादि और अनन्त है। फिर उसमें छोटा कौन और बड़ा कौन ? आत्मजगत् में वही बड़ा है जिसने आत्मा का पूर्ण विकास कर लिया है । संसारावस्था में छोटे होने पर भी मेरे भाइयों ने आत्मा का पूर्ण विकास कर लिया है। मेरी आत्मा में अव भी अहङ्कार भरा हुआ है, बहुत से दोप हैं । इस लिए वास्तव में वे ही मुझ से बड़े हैं। मुझे उन्हें नमस्कार करना चाहिए।
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१६७
यह सोच कर बाहुबली ने भगवान् ऋषभदेव के पास जाने के लिए एक पैर आगे रक्खा । इतने में उनके चार घाती कर्म नष्ट हो गए। उन्हें केवलज्ञान हो गया। देवों ने पुष्पवृष्टि की। चारों ओर जय जयकार होने लगा।
दोनों बहिनें अपने स्थान पर लौट गई।' पृथ्वी पर घूम घूम कर उन्होंने अनेक भव्य प्राणियों को प्रतिबोध दियो। अनेक भूले भटके जीवों को आत्मकल्याण का मार्ग बताया। कठोर तप और शुभ ध्यान द्वारा अपने कर्मों को नष्ट करने का भी प्रयत्न किया। इस प्रकार आत्मा तथा दूसरों के कल्याण की साधना करते करते उनके घाती कर्म नष्ट हो गए। केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर आयुष्य पूर्ण होने पर दोनों ने मोक्ष रूपी परमपद को प्राप्त किया। इन दोनों महासतियों की सदा वन्दन हो ।
(३) चन्दनबाला (वसुमती) विहार प्रान्त में जो स्थान आज कल चम्पारन के नाम से प्रसिद्ध है, प्राचीन समय में वहाँ चम्पापुरी नाम की विशाल नगरी थी। वह अङ्गदेश की राजधानीथी। नगरी व्यापार का केन्द्र, धन धान्य आदि से समृद्ध तथा सब प्रकार से रमणीय थी।
वहाँ दधिवाहन नाम का राजा राज्य करता करता था। वह न्याय, नीति तथा प्रजा पालन आदि गुणों का भण्डार था । प्रजा पर पुत्र के समान प्रेम रखता था और प्रजा भी उसे पिता मानती थी। ऐसे राजा को प्राप्त करके मजा अपने को धन्य समझतीथी।
दधिवाहन राजा की धारिणी नाम की रानी थी। पतिसेवा, धर्म पर श्रद्धा, उदारता, हृदय की कोमलता आदि जितने गुण राजरानी में होने चाहिएं वे सब धारिणी में विद्यमान थे। राजा तथा रानीदोनों धर्मपरायण थे। दोनों में परस्पर अगाध प्रेम था। दोनों विलासिता से दूर थे। राज्य को भोग्य वस्तु न समझ
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला rrrrrrrrrrrmmmmmm ~~ rrrrr rrm or u
कर वे उसे कर्तव्य-भार मानते थे। परस्पर सहयोग से प्रजा का पालन करते हुए दोनों अपने जीवन को सुखपूर्वक बिता रहे थे।
कुछ दिनों बाद धारिणीने एक महान् सुन्दरी कन्या को जन्म दिया। उज्ज्वल रूप तथा शुभ लक्षणों वाली उस पुत्री के जन्म से माता पिता को बड़ी प्रसन्नता हुई। बड़े समारोह के साथ उसका जन्मोत्सव मनाया । माता पिताने कन्या कानाम वसुमती रक्खा। ___ उसे देख कर धारिणी सोचा करती थी कि वसुमती को ऐसी शिक्षा दी जाय जिससे यह अपने कल्याण के साथ मानव समाज का भी हित कर सके। बचपन से ही उसे नम्रता, सरलता आदि गुणों की शिक्षा मिलने लगी। उसमें धर्म तथा न्याय के दृढ़संस्कार जमाए जाने लगे। जैसे जैसे बड़ी हुई उसे दूसरी बातें भी सिखाई जानेलगीं। संगीत,पढ़ना,लिखना,सीना,पिरोना,भोजन बनाना, घर संवारना आदि स्त्री की सभी कलाभों में वह प्रवीण हो गई। उसकी बोली, उसका स्वभाव और उसका रहन सहन सभी को प्रिय लगता था। उसे देख कर सभी प्रसन्न हो उठतेथे। सखियों उसे देवीमानतीथीं। धारिणी उसे देखकर फूलीन समाती थी।
धीरे धीरे वसुमती ने किशोरावस्था में प्रवेश किया। उसके शरीर पर यौवन के चिह्न प्रकट होने लगे। गुण और सौन्दर्य एक दूसरे की होड़ करने लगे। सखियों वसुमती के विवाह की बातें करने लगीं किन्तु उसके हृदय में अब भी वही कुमार-सुलभसरलता तथा पवित्रता थी। वासना उसे छई तक न थी।उसके मुख पर वही वचपन का भोलापन था। चेहरे पर निर्दोष हँसी थी। अपने गुणों से दूसरों कोमोहित कर लेने पर भी उसका मन अभिमान से सर्वथाशून्य था, जैसे अपने उन गुणों से वह स्वयंअपरिचित थी।।
राजा दधिवाहन को वसुमती के लिए योग्य वर खोजने की चिन्ता हुई किन्तु धारिणी वसुमती से जगत्कन्याण की भाशा
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
१६६
रखती थी। विवाह बन्धनमें पड़ जाने पर यह आशा पूरी होनीकठिन थी। इस लिए वह चाहती थी कि वसुमती आजन्म पूर्ण ब्रह्मचारिणी रह कर महिला समाज के सामने एक महान् आदर्श उपस्थित करे। इसी लिए वसुमती को शिक्षा भी इसी प्रकार की दी गई थी। उसके हृदय में भी यह भावना जम गई थी कि मैं गार्हस्थ्य के झंझटों में न पड़ कर संसार के सामने ब्रह्मचर्य, त्याग और सेवा का महान् भादर्श रक्यूँ । धारिणी वसुमती के इन विचारों से परिचितथी इसलिए राजाद्वारा विवाह की बात छेड़ीजाने परधारिणी ने कहा- वसुमती विवाह न करेगी।। __एक दिन राजा और रानी अपने महल में बैठे वमुमती के विवाह की बात सोच रहे थे। उसी समय अपने शयनागार में बैठी हुई वसुमती के मस्तिष्क में और ही तरंगें उठ रही थी। वह विचार रही थी-लोग स्त्रियों को अबला क्यों कहते हैं? क्या उनमें वही अनन्त आत्मशक्ति नहीं है जो पुरुषों में हैं ? स्त्रियों ने भी अपने अज्ञान से अपने को अवला समझ लिया है। वे अपने को पराधीन मानती हैं । स्त्रियों की इस अज्ञानता को मैं दूर करूँगी। उन्हें बताऊँगी कि स्त्रियों में भी वही अनन्त शक्ति है जो पुरुषों में है।वे भी आत्मवल द्वारा मोक्ष की आराधना कर सकती हैं। फिर वे अबला क्यों हैं। प्रभो! मुझे वह शक्ति दो जिससे मैं अपनी बहिनों का उद्धार कर सकूँ। ___ इस प्रकार विचार करते हुए वसुमती को नींद आ गई। रात के चौथे पहर में उसने एक स्वमदेखा-चम्पापुरी घोर कष्ट में पड़ी हुई है और मेरे द्वारा उसका उद्धार हुआ है। स्वम देखते ही वह जग गई और उसके फल पर विचार करने लगी। बहुत सोचने पर भी उसकी समझ में कोई बात न आई। इसी विचार में वह शय्या से उठ कर पास वाली अशोकवाटिका में चली गई
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
, और एक वृक्ष के नीचे बैठ कर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगी।
प्रात:काल होते ही वसुमती की सखियाँ उसे जगाने के लिए महल में आई किन्तु वसुमती वहाँ न मिली । ढूंढती ढूंढती वे अशोकवाटिका में चली आई। वहाँ उसे चिन्तित अवस्था में बैठी हई देख कर आपस में कहने लगी- वसमती को अब अकेली रहना अच्छा नहीं लगता। वह किसी योग्य साथी की चिन्ता कर रही है। वे सब मिल कर वसुमती से विवाह सम्बन्धी तरह तरह के मजाक करने लगीं।
वसुमती को उनकी अज्ञानता पर दया आगई। वह सोचने लगी- स्त्री समाज का हृदय कितना विकृत हो गया है। उसे इतना भी ज्ञान नहीं है कि विवाह के सिवाय भी चिन्ता का कोई कारण हो सकता है। उसने सखियों को फटकारते हुए कहा- जन्म से एक साथ रहने पर भी तुम मुझेन समझ सकीं। मुझे भी अपने समान तुच्छ विचारों वाली समझ लिया है। विवाह न करने का तो मैं निश्चय कर चुकी हूँ फिर उससे सम्बन्ध रखने वाली कोई चिन्ता मेरे मन में आ ही कैसे सकती है?
मेरे विचार में प्रत्येक स्त्री पुरुष पर तीन व्यक्तियों के ऋण हैं- माता, पिता और धर्माचार्य । सासू, श्वसुर, पति आदि का ऋण भी स्त्री पर होता है किन्तु उसे करना या न करना अपने हाथ की बात है। पहले तीन ऋण तो प्रत्येक प्राणी पर होते हैं। उन्हें चुकाना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। मेरी माता ने मझे शिक्षा दी है कि धर्म और समाज की सेवा द्वारा इन ऋणों को अवश्य चुकाना । मनुष्य जन्म बार वार नहीं मिलता। विषयभोग में उसे गॅवा देना मूर्खता है । मानव जीवन का उद्देश्य परमार्थ साधन ही है । जो कन्या पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकती उसी के लिए विवाह का विधान है। जो ब्रह्मचर्य का पालन
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजैन सिद्धान्त चोल संग्रह, पांचवां भाग २०१
mmmmmmmmmmmm ~~ करने में समर्थ है। उसे विवाह की कोई आवश्यकता नहीं है। माता पिता और धर्म की सेवा करके मैं ऊपर लिखे तीनोंऋणों से मुक्त होना चाहती है। __वसुमती की ये बातें सखियों को विचित्र सी मालूम पड़ी। उन्होंने सोचा ये कोरी उपदेश की बातें हैं। दिल की बातें कुछ और हैं। उनके फिर पूछने पर वसुमती ने स्वप्न का सारा हाल' सुना दिया। सखियाँ स्वम का वृत्तान्त महारानी को सुनाने चली गई। वसुमती फिर विचार में पड़ गई। मन में कहने लगी- इस स्वम ने मेरे द्वारा एक महान कार्य के होने की सूचना दी है। मुझे अभी से उसके लिए तैयार रहना चाहिए। उसके लिए शक्ति का संचय करना चाहिए। , ) .
सखियों ने स्वम का हाल धारिणी को सुनाया। उसने कहाअगर मेरी पुत्री ऐसे महान् कार्य को सम्पन्न कर सके तो मेरे लिए इससे बढ़ कर क्या सौभाग्य की बात होगी। वसुमती के इस स्वम के कारण उसके विवाह की बात अनिश्चित काल के लिए टाल दी गई । वसुमती जैसा चाहती थी वही हो गया।
के राज्य की सीमा पर कौशाम्बी नाम का दूसरा . राज्य था। कौशाम्बी भी धन धान्य से- समृद्ध तथा व्यापार के ? लिए प्रसिद्ध नगरी थी। वहाँ शतानीक नाम का राजा राज्य करता । था। दधिवाहन की रानी पद्मावती और शतानीक की रानी मृगावती दोनों सगी बहनें थीं। इस लिए वेदोनों राजा आपस में साद थे।
सम्बन्धी होने पर भी दोनों राजाओं के स्वभाव में महान् अन्तर था। दधिवाहन सन्तोषी,, शान्तिप्रिय और धार्मिक था, उसमें। राज्यलिप्सा.न थी। दूसरे को कष्ट में डाल कर ऐश्वर्य बढ़ाना उसकी दृष्टि में घोर पाप था। ऐश्वर्य पाकर धनसत्ता द्वारा दूसरों पर आतङ्क जमाना उसे पसन्द न था। सभी को मुख पहुँचा कर
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वह.माणिमात्र से मित्रता चाहता था, उन पर आधिपत्य नहीं।
शतानीक के विचार इसके सर्वथा विपरीत थे। वह दिन रात राज्य को बढाने की चिन्ता में लगा रहता था। न्याय और धर्म कागला घोटकर भी वह राज्य और वैभव बढ़ाना चाहता था। जनता पर आतङ्क जमा कर शासन करना अपना धर्म समझता था। अपनी राज्यलिप्सा को पूर्ण करने के लिए निर्दोष प्राणियों को कुचलना, उनके खून से होली खेलनाखेल समझता था।
शतानीक की दृष्टि में समृद्ध चम्पापुरी सदा खटका करती थी। म्याय पूर्वक राज्य करने से फैलने वाली दधिवाहन की कीर्ति भी उसके लिए असह्य हो उठी थी। ईर्ष्यालु जब गुणों द्वाग अपने प्रतिस्पर्दी को नहीं जीत सकता तो वह उसे दूसरे उपायों से नुकसान पहुँचाने की चेष्टा करता है किन्तु उससे उसकी अपकीर्ति ही बढ़ती है, वह अपने स्वार्थ को सिद्ध नहीं कर सकता।
दधिवाहन या चम्पापुरी पर किसी प्रकार का दोष मढ़ कर उस पर चढ़ाई कर देने की चालें शतानीक अपने मन्त्रिमण्डल के साथ सोचा करता था। अपनीचुरी कामना को पूर्ण करने के लिए दसरे पर किसी प्रकार का अपवाद लगा देना, उसे अपराधीषता कर इच्छित वस्तु पर भधिकार जमा लेना, उसे नीचा दिखाने लिए कोई झूठा दोष मढ़ देना तथा मनमानी करते हुए भी स्वयं निर्दोष बने रहना शतानीक की दृष्टि में राजनीति थी।
चम्पापुरी का राज्य हड़पने के लिए शतानीक कोई बहाना देख रहा था, किन्तु दधिवाहन के हृदय में युद्ध करने या किसीका राज्य छीनने की बिल्कुल इच्छा न थी।आसपास के सभी राजाभों से ससकी मित्रतापूर्ण सन्धि थी। इस लिए न उसे किसी शत्र का रथा और न उससे किसी दूसरे को भय था। इसी कारण से उसने राज्य के आन्तरिक प्रमन्त्र के लिए थोड़ी सी सेना रख
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, पांचवां भाग
२०३
छोड़ी थी। युद्ध या किसी के भाक्रमण कोरोकने के लिए सैनिक शक्ति को बढ़ाना उसकी दृष्टि में व्यर्थ था, इसी से शतानीक का उत्साह बहुत बढ गयाथा। दधिवाहन की मुही भर सेना कोहरा कर चम्पापुरी पर अधिकार जमा लेने में उसे किसी प्रकार की कठिनाई न जान पड़ती थी।
शतानीफ ने किसी मामूली सी पात को लेकर चम्पापुरी पर चढ़ाई कर दी। दधिवाहन को इस बात का स्वम में भी खयाल न था कि कोई राजा उस पर भी चढ़ाई कर सकता है। युद्ध की घोषणा करती हुई शतानीक की सेनाचम्पा के राज्य में घुस गई और मना को सताने लगी। सीमा की रक्षा करने वाले दधिवाहन के थोड़े से सिपाही उसका सामना न कर सके । वे दौड़े हुए दधिवाहन के पास भाए और चढ़ाई का समाचार सुनाया। शतानीक की सेनाद्वारासताई गई प्रजा ने भीराजादधिवाहन के पास पुकार की।
दधिवाहन इस अप्रत्याशित समाचार को मुन कर विचार में पड़गया। उसने अपने मन्त्रियों की सभाबुलाई और कहा-मित्रतापूर्ण सन्धि होने पर भी शतानीक ने चम्पा पर चढ़ाई कर दी है। हमारे खयाल में अभी कोई भी ऐसा कारण उपस्थित नहीं हुआ जिससे शतानीक के आक्रमण को उचित कहा जा सके। अव यह विचार करना है कि शतानीक ने चढ़ाई क्यों की और इस समय हमें क्या करना चाहिए?
प्रधानमन्त्री- इस समय ऐसा कोई भी कारण उपस्थित नहीं हुआ जिससे शतानीक को चढ़ाई करनी पड़े। शतानीक चम्पापुरीको हड़पने की दुर्भावना से प्रेरित होकर पाया है। उसे किसी दूसरे कारण की आवश्यकता नहीं है। ऐसा व्यक्ति साधारण सी बात को युद्ध का कारण बना सकता है। चम्पापुरी पर चढ़ाई करने के लिए शतानीक ऐसी चालें बहुत दिनों से चल रहा था।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
।। श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
इसके लिए मैंने भाप से पहले भी निवेदन किया था। हम लोगों ने सदा शान्ति के लिए प्रयत्न किया किन्तु वह हमारी इस इच्छा को कायरता समझता रहा। अव एक ही उपाय है कि शत्रु का सामना करके उसे बता दिया जाय कि चम्पा पर चढ़ाई कोई हँसी खेल नहीं है। जब तक शत्र को पराजित न किया जाएगा वह मानने का नहीं। शान्ति की बातों से उसका उत्साह दुगुना बढ़ता है। दूसरे मन्त्रियों ने भी युद्ध करने की ही सलाह दी। .. मन्त्रियों की बात सुनकर राजा कहने लगा-वर्तमान रोज। नीति के अनुसार तो हमें युद्ध ही करना चाहिए, किन्तु इसके ५, भयङ्कर परिणाम पर भी विचार करना आवश्यक है। शतानीक ने ., राज्य के लोभ में पड़ कर आक्रमण किया है। लोभी न्याय और
अन्याय को भूल जाता है। अगर हम उसका सामना करें तो व्यर्थ
ही लाखों मनुष्य मारे जाएंगे। अगर चम्पा का राज्य छोड़ देने पर , यह नरहत्या वचजाय तोक्यों इस भयङ्कर पापको किया जाय ?' .. मन्त्री-महाराज! शत्र द्वारा आक्रमण हो जाने पर धर्म की
बातें करना कायरता है। ऐसे मौके पर क्षत्रिय का यह कर्तव्य है , कि शत्र का सामना करे। . .।' । राजा- क्षत्रिय का धर्म युद्ध करना नहीं है। उसका धर्मन्याय
पूर्वक प्रजा की रक्षा करना है। अन्याय और अधर्म को हटाने के लिए जो अपने प्राणों को भी त्याग सकता है वही असली क्षत्रिय है। तात्रत्व हिंसा में नहीं है किन्तु अहिंसा में है। यदि शतानीक को न्याय और नीति के लिए समझाया जाय तो सम्भव है, वह मान जाय। इसके लिए हमें प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए मैं खयं शतानीक के पास जाऊँगा। .
मन्त्रियों के विरोध करने पर भी दधिवाहन ने शतानीक के पास अकेले जाने का निश्चय कर लिया।
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २०५
शतानीक में चम्पा का राज्य लेने की भावना दृढ़ हो चुकी थी और दधिवाहन में यथासम्भव हिंसा न होने देने की ।
राजकर्मचारी तथा प्रजाजन द्वारा की गई प्रार्थना पर बिना ध्यान दिए दधिवाहन राजा घोड़े पर सवार होकर शतानीक के पास जा पहुँचे। उन्हें अकेला श्राया देख कर शतानीक बहुत प्रसन्न हुआ । उसका अभिमान और बढ़ गया। सोचने लगा- दधिवाहन डर कर मेरी शरण में चला आया है।
शतानीक के पास पहुँच कर दधिवाहन ने कहा- महाराज ! हम दोनों में मित्रतापूर्ण सन्धि है । आप मेरे सम्बन्धी भी हैं। आज तक हम दोनों का पारस्परिक व्यवहार प्रेमपूर्ण रहा है। मेरे खयाल में हमारी तरफ से ऐसी कोई बात नहीं हुई जिससे आपको किसी प्रकार की हानि हुई हो फिर भी आपने अचानक चम्पापुरी पर आक्रमण कर दिया। मेरा खयाल है, आप भी मजा में शान्ति रखना पसन्द करते हैं। नरहत्या आपको भी पसन्द नहीं है । आप इस बात को समझते हैं कि क्षत्रिय का धर्म किसी को कष्ट देना नहीं किन्तु कष्ट देने वाले चोर और डाकुओं से प्रजा की रक्षा करना है । यदि राजा स्वयं कष्ट देने लगे तो उसे राजा नहीं लुटेरा
कहा जाएगा।
"
क्या आप कोई ऐसा कारण बता सकते हैं जिससे आप के इस आक्रमण को न्यायपूर्ण कहा जा सके ?
शतानीक- जब शत्रु ने आक्रमण कर दिया हो उस समय न्याय-अन्याय की बात करना कायरता है । अपनी कायरता को धर्म की आड़ में छिपाना बीर पुरुषों का काम नहीं है। इस समय न्याय और धर्म का बहाना निरा ढोंग है। युद्ध करना, नए नए देश जीतना, अपना राज्य बढ़ाना, क्षत्रियों के लिए यही न्याय है। दधिवाहन - युद्ध से होने वाले भयङ्कर परिणाम पर भाप
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
श्री मेठिया जैन ग्रन्पमाला
विचार कीजिए । लाखों निदोष मनुष्य आपस में कट कर समाप्त हो जाते हैं। हजारों बहनें विधवा हो जाती हैं। देश नवयुवकों से खाली हो जाता है। चारों ओर बालक, वृद्ध और अबलाभों की करुण पुकार रह जाती है। एक व्यक्ति की लिप्सा का परिणाम यह महान् संहार कभी न्याय नहीं कहा जासकता। हिंसा राक्षसी वृत्ति है। उसे धर्म नहीं कहा जा सकता। आपका जरासा सन्तोष इस भीषण हत्याकाण्ड को बचा सकता है।
शतानीक-मुझे सन्तोष की भावश्यकता नहीं है।राजनीति राजा को सन्तोषी होने का निषेध करती है। पृथ्वी पर वे ही शासन करते हैं जो वीर हैं, शक्तिशाली हैं। क्षत्रियों के लिए तलवार ही न्याय है और अपनी राज्यलिप्सा रूपी भग्नि को सदा प्रज्वलित रखना ही उनका धर्म है।
दधिवाहन को निश्चय हो गया कि शतानीक लोभ में पड़ कर अपनी बुद्धि को खो बैठा है। इस प्रकार की बातें करके वह मुझे युद्ध के लिए उत्तेजित करना चाहता है लेकिन इसके कहने पर क्रोध में आकर विवेक खो बैठना बुद्धिमत्ता नहीं है। गम्भीरतापूर्वक विचार फरके मुझे किसी प्रकार युद्ध को रोकना चाहिए।
दधिवाहन को विचार में पड़ा देख कर शतानीक ने कहाआप सोच क्या कर रहे हैं? यदि शक्ति हो तो हमारा सामना कीजिए। यदि युद्ध से डर लगता है तो आत्मसमर्पण करके हमारी अधीनता स्वीकार कर लीजिए।यदि दोनों बातें पसन्द नहीं हैं तो यहॉक्यों श्राए? सीधाजंगल में भाग जाना चाहिए था। इस प्रकार न्याय की दुहाई देकर अपनी कायरताको छिपाने से क्या लाभ?
दधिवाइन ने निश्चय कर लिया कि जब तक शतानीक का लोभ शान्त न किया जाय, युद्ध नहीं टल सकता। इसके लिए ग्रही उचित है कि मैं राज्य छोड़ कर वन में चला जाऊँ। यदि
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
मी जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२०७
इसकी अधीनता स्वीकार की गई तो इसका परिणाम और भी भयङ्कर होगा। इसके भादेशानुसार मुझे प्रजा पर अन्याय करना पड़ेगा और हर तरह से इसकी इच्छाओं को पूरा करना पड़ेगा। जिस प्रजा की रक्षा के लिए मैं इतना उत्सुक हूँ फिर उसी पर अत्याचार करना पड़ेगा।
वन जाने का निश्चय करके घोड़े पर सवार होते हुए दधिवाहन ने कहा- यदि आपकी इच्छा चम्पा पर राज्य करने की है तो आप सहर्ष कीजिए। अब तक चम्पापुरी की मजा का पालन मैंने किया अब आप कीजिए। मैं सोचा करता था-वृद्ध हुआ हूँ, कोई पुत्र नहीं है, राज्य का भार किसे सौंपंगा! मापने मुझे चिन्तामुक्त कर दिया। यह मेरे लिए प्रसमता की बात है। यह कहकर दधिवाहन घोड़े पर बैठ कर वन को चला गया। - अपने राज्य की सीमा पर पहुँच कर उसने अपने मन्त्रियों के पास खबर भेज दी-शतानीक की सेना बहुत पड़ी है। उससे लड़ कर अपनी सेना तथा प्रजा का व्यर्थ संहार मत कराना । अब तक चम्पा की रक्षा मैंने की थी। अब शतानीक अपने ऊपर रक्षाका भार लेना चाहता है इस लिए मेरी जगह उसी को राजा मानना।
प्रधान मन्त्री को राजा की बात अच्छी न लगी। उसने सब मन्त्रियों की एक सभा करके निश्चय किया कि चम्पा नगरी का राज्य इस प्रकार सरलता पूर्वक शतानीक के हाथ में सौंपना ठीक नहीं है। युद्ध न करने पर सेना का क्या उपयोग होगा? उसने युद्ध की घोषणा कर दी।
दधिवाहन के चले जाने पर शतानीक के हर्ष का पारावार न रहा। विना युद्ध के प्राप्त हुई विजय पर वह फूल उठा। उसने चम्पानगरी में तीन दिन तक लूट मचाने के लिए सेना को छुट्टी दे दी। शतानीक की सेना लूट की खुशी में चली आ रही थी।
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८
थ्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
..
-
-
- - - ramrrrrrr
rrrrrnmmmmmmmm .
चम्पा नगरी के पास पहुँचने पर उसे मालूम पड़ा कि दधिवाहन की सेना सामना करने के लिए तैयार खड़ी है। शतानीक ने भी अपनी सेना को युद्ध की आज्ञा दे दी। दोनों सेनाओं में घमासान संग्राम छिड़ गया।दधिवाहन की सेना बड़ी वीरता से लड़ी किन्तु, शतानीक की सेना के सामने मुट्ठी भर बिना नायक की फौज.. कितनी देर ठहर सकती थी। शतानीक की सेना से परास्त होकर उसे रणभूमि छोड़ कर भागना पड़ा।
चम्पानगरी के दरवाजे तोड़ दिए गए। शतानीफ की सेना । लूट मचाने लगी। सारे नगर में हाहाकार मच गया। सैनिकों का । विरोध करना साक्षात् मृत्युथी। पाशविकता का नग्न ताण्डव होने लगा किन्तु उसे देख कर शतानीक प्रसन्न हो रहा था। राक्षसी वृत्ति अपना भीषण रूप धारण करके उसके हृदय में पैठ चुकी थी।
चम्पापुरी में एक ओर तो यह नृशंस काण्ड हो रहा था दूसरी ओर महल में बैठी हुई महारानी धारिणी वसुमती को उपदेश दे रही थी। दधिवाहन का राज्य छोड़ कर चले जाना, अपनी सेना का हार-जाना, शतानीक के सैनिकों कानगरी में प्रवेश तथा लूट मार आदि सभी घटनाएं धारिणी को मालूम हो चुकी थीं किन्तु उसने धैर्य नहीं छोड़ा। सेवकों ने आकर खवर दी कि राजमहल भी सिपाहियों द्वारा लूटा जाने वाला है, किन्तु धारिणी ने फिर भी धैर्य नहीं छोड़ा। वह वसुमती को कहने लगी-वेटी! तेरे स्वप्न का एक भाग तो मत्य हो रहा है। चम्पापुरी दुःखसागर में डूबी हुई है। तेरे पिता वन मे चले गए हैं। यह समय हमारी परीक्षा का है। इस समय घबराना ठीक नहीं है। धर्म यह सिखाता है कि भयङ्कर विपत्ति को भी अपने कर्मों का फल समझ कर धैर्य रखना चाहिए। ऐसे समय में धैर्य त्याग देने वाला कभी जीवन में सफल , नहीं हो सकता। अब स्वप्न का दसराभाग सत्य करने का उत्तर
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग .
२०६
दायित्व तुम पर आपड़ा है। तेरे पिता किसी ऊँची भावना को , लेकर ही वन में गए होंगे । अपने धर्म की रक्षा करना हमारा सब
से पहला कर्तव्य है। नष्ट हुई चम्पापुरी फिर वस सकती है, गया हुआ जीवन फिर मिल सकता है किन्तु गया हुआ धर्म फिर मिलना कठिन है। धर्म में हह रहने पर ही तुम अपने स्वप्न के बचे हुए भाग को सत्य कर सकोगी।
धारिणी वसमती को यह उपदेश दे रही थी कि इतने में शतानीक की सेना का एकरथी (स्थसे लड़ने वाला योद्धा)वहाँ आ पहुंचा। वह राजमहल को लूटने के लिए वहाँआया था।चारों ओर विविध प्रकार के रत्नों को देख कर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई । पहरेदार तथा नौकर चाकर डर के मारे पहले ही भाग चुके थे, इसलिए रानी के खास महल तक पहुंचने में उसे कोई कठिनाई न हुई। __धारिणी को देख कर रथीचकित रहगया। उसके सौन्दर्य को देख कर वह रत्नों को भूल गया। उसे मालूम पड़ने लगा, जैसे इम जीवित स्त्रीरत्न के सामने निर्जीव रत्न कङ्कर पत्थर ही हैं। उसे वल पूर्वक प्राप्त करने का निश्चय करके रथी तलवार निकाल करधारिणी के पास जाकर कहने लगा- उठो और मेरे साथचलो। अब यहाँ , तुम्हारा कुछ नहीं है। चम्पापुरी पर शतानीक का राज्य है और यहॉ की सारी सम्पत्ति सैनिकों की है। मेरे साथ चलो, नहीं तो यह तलवार तुम्हारा भी खून पीने में न हिचकेगी। ___ धारिणी ने सोचा-यह सैनिक विचारहीन होरहा है। इस समय इसे समझाना व्यर्थ है। सम्भव है, युद्ध का नशा उत्तरने पर समझाने से यह मान जाय । तब तक वसुमती को भी मैं अपनी चात पूरी कह सकूँगी। यह सोच कर विना किसी भय या दीनता के अपनी पुत्री को लेकर वह रथी के साथ हो गई और स्थी के कहे भनुसार निःसङ्कोच रथ में जा कर बैठ गई।
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
रथी अपने मन में भावी सुखों की कल्पना करता हुआ रथ के चारों ओर परदा डाल कर उसे हाँकने लगा। नगरी की भोर जाना उचित न समझ उसने सीधे वन की ओर प्रस्थान किया। रथी अपनी हवाई उमङ्गों तथा भविष्य की सुखद कल्पनाओं में ड्वा हुआ रथ को हाँके चला जा रहा था और अन्दर बैठी हुई धारिणी वसुमती को उपदेश दे रही थी- बेटी ! यह समय घबराने का नहीं है । तुम्हारे पिता तो हमें छोड़ कर चले ही गए। यह भी पता नहीं है कि मुझे भी तेरा साथ कव छोड़ देना पड़े, इसलिए तुम्हें वीरता पूर्वक प्रत्येक विपत्ति का सामना करने के लिए अपने ही पैरों पर खड़ी होना चाहिए | वीर अपनी रक्षा स्वयं करता है किसी दूसरे की सहायता नहीं चाहता। अपने स्वप्न के दूसरे भाग को भी तुम्हें अकेली ही पूरा करना पड़ेगा । चम्पापुरी में लाखों मनुष्यों का रक्त वहा है। निर्दोष मजा को लूटा गया है। चम्पापुरी पर लगे हुए इस कलङ्क को मिटाना ही उसका उद्धार है। उसका यह कलङ्क फिर युद्ध करने से न मिटेगा । युद्ध से तो वह दुगुना हो जायगा । इस लिए तुम्हें अहिंसात्मक संग्राम की तैयारी करनी चाहिए। इस संग्राम में विजय ही विजय है, कोई पराजित नहीं होता। इसमें दोनों शत्रु मिल कर एक हो जाते हैं, फिर पराजय का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता ।
२१०
हिंसात्मक युद्ध की अपेक्षा अहिंसात्मक युद्ध में अधिक वीरता चाहिए । इसके लिए लड़ने वाले में नीचे लिखी बातें बहुत अधिक मात्रा में चाहिएं। इस युद्ध में सब से पहले अपार धैर्य की आवश्यकता है । भयङ्कर से भयङ्कर कष्ट आने पर भी धैर्य छोड़ देने वाला अहिंसात्मक युद्ध नहीं कर सकता। सहिष्णुता के साथ भावना का पवित्र रहना, किसी से वैर न रखना, भय रहित होना तथा सतत परिश्रम करते जाना भी नितान्त आवश्यक है। अहिंसात्मक युद्ध
F
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
में दूसरे का रक्त नहीं बहाया माता किन्तु अपने रक्त को पानी समझ कर उसके द्वारा द्वेष रूपी कलङ्क धोया जाता है। इसलिए धर्म और न्याय की रक्षा के लिए तथा चम्पापुरी का कलङ्क मिटाने के लिए आवश्यकता पड़ने पर अपने प्राण देदेने के लिए भी तुम्हें तैयार रहना चाहिए।
रथ को लेकर वह योद्धा घोर वन में पहुँच गया जहाँ मनुष्यों का आना जाना नहीं था ऐसे दुर्गम तथा एकान्त प्रदेश में पहुँच कर रथ को रोक दिया। रथ के परदे उठाए औरधारिणी को नीचे उतरने के लिए कहा। धारिणी और वसुमती दोनों उतर कर एक वृत्त की छाया में बैठ गईं। __रथीने अपनी बुरीअभिलाषाधारिणी के सामने रक्खी। उसे विविध प्रलोभन दिए, जन्मभर उसका दास बने रहने की प्रतिज्ञा की, किन्तु सतीशिरोमणिधारिणी अपने सतीत्व से डिगने वालीन थी।
उसने रथी से कहा-भाई! अपने वेश और प्राकृति से तुम वीर मालूम पड़ते हो किन्तु तुम्हारे मुँह से निकलने वाली बातें इसके विपरीत हैं। विवाह के समय तुमने अपनी स्त्री से प्रतिज्ञा की थी कि उसके सिवाय संसार की सभी स्त्रियों कोमा या बहिन समझोगे। उस प्रतिज्ञा को तोड़ कर आज वैसी ही प्रतिज्ञा तुम मेरे सामने कर रहे हो । जब तुम एक बार मतिज्ञा तोड़ चुके हो तो तुम्हारी दूसरी प्रतिज्ञाओं पर कौन विश्वास कर सकता है ? क्या वीर पुरुष को इस प्रकार प्रतिज्ञा तोड़ना शोभा देता है ?
विवाह में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार मैं तुम्हारी बहिन हूँ।बहिन के साथ ऐसी बातें करते हुए क्या तुम अच्छे लगते हो?
मैंने अपने विवाह के समय राजा दधिवाहन के सिवाय सभी परुषों को पिता या भाई मानने की प्रतिज्ञा की थी। उस प्रतिज्ञा के अनुसार तुम मेरे भाई हो । तुम अपनी प्रतिज्ञा वोड़ दगलो तो भी
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला -~mmmmmm मैं तो तुम्हें अपना भाई ही समझंगी। मैं क्षत्राणी हूँ, अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ सकती। __ यह कह कर धारिणी ने रथी के सब प्रलोभन ठुकरा दिए। रथी का मस्तक एक बार तो लज्जासे झुक गया किन्तु उसे काम ने अन्धा बना रक्खा था। धर्म अधर्म, पाप पुण्य यान्याय अन्याय की वातों का उस पर कोई असर न पड़ा।
स्थीने दधिवाहन को कायर, डरपोक और भगेडू बता कर रानी पर अपनी वीरता का सिक्का जमाने की चेष्टा की किन्तु वह भी वेकार गई। इन सब उपायों के व्यर्थ हो जाने पर उसने बलप्रयोग करने का निश्चय किया।धारिणी रथी के भावों को समझ गई। रथी बलपूर्वक अपनी वासना पूर्ण करने के लिए उठा ही था कि धारिणी ने अपनी जीभ पकड़ कर बाहर खींच ली । उसके मुँह से खून की धारा बहने लगी। प्राणपखेरू उड़ गए। निर्जीव शरीर पृथ्वी पर गिर पड़ा । अपने वलिदान द्वारा धारिणी में वसुमती तथा समस्त महिलाजगत् के सामने तो महान् आदर्श रक्खा ही, साथ में सारथी के जीवन को भी एकदम पलट दिया । कामान्ध होने के कारण जिस पर उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा उसे आत्मोत्सर्ग द्वारा सत्य का मार्ग सुझा दिया। क्रूरता और कामलिप्सा को छोड़ कर वह दयालु और सदाचारी बन गया।महान् अात्माएं जिम कार्य को अपने जीवित काल में पूरा नहीं कर सकतीं उसे आत्मबलिदान द्वारा पूरा करती हैं।
धारिणी के प्राणत्यागको देख कर रथी भौंचक्का सा रह गया। वह कर्तव्यमूढ़ हो गया। उसे यह आशा न थी कि धारिणी इस तरह प्राण त्याग देगी। वह अपने को एक महासती का हत्यारा समझने लगा। पश्चात्ताप के कारण उसका हृदय भर आया। अपने को महापापी समझ कर शोक करता हुआ वह वहीं बैठ गया।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री नैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२१३
mananas amour wow nummmmmm
वसुमती इस हृदयद्रावक दृश्य को धीरतापूर्वक देख रही थी। मन में सोच रही थी कि माता ने मुझे जो शिक्षाएं दी थीं, उन्हें कार्य रूप में परिणत करके साक्षात् उदाहरण रख दिया है। ऐसी माता को धन्य है। ऐसी मां को प्राप्त करके मैं अपने को भी धन्य मानती हूँ।मां ने मुझे रास्ता बता दिया, अव मेरे लिए कोई कठिनाई नहीं है। सम्भव है, यह योदा मां की तरह मुझे भी अपनी वासनापूर्ति का विषय बनाना चाहे ।'यह भी शक्य है कि मां के उदाहरण को देख कर यह मेरे लिए कोई और षडयन्त्र रचे। इस लिए पहले से ही अपनी माता के मार्ग को अपना लँ। इसे कुछ करने का अवसर ही क्यों दें। ।
मन में यह विचार कर वसुमती भी प्राणत्याग करने को उद्यत हुई। ग्थी उसके इरादे से डर गया। दौड़ाहुश्रा वसुमती के पास
आया और कहने लगा- बेटी ! मुझे क्षमा करो। मैंने जो पाप किया है वह भी इतना भयङ्कर है कि जन्म जन्मान्तरों में भी छुटकारा होना मुश्किल है। अपने प्राण देकर मेरे उस पापको अधिक मत वढ़ाओ। तेरी माता महासती थी, उसके वलिदान ने मेरी आँखें खोल दी हैं। मुझ पर विश्वास करो। मैं आज से तुझे अपनी पुत्री मानगा। मुझे क्षमा करो। यह कह कर रथी वसुमती के पैरों पर गिर पड़ा और अपने पाप के लिए बार बार पश्चात्ताप करने लगा।
वसमती को निश्चय हो गया कि रथी के विचार अब पहले सरीखे नहीं रहे। उसने रथी को सान्त्वना दी। इसके बाद दोनों ने मिल कर धारिणी का दाहसंस्कार किया।
वसमती को ले कर स्थी अपने घर आया। रथी की स्त्री को माता समझ कर वसुमती ने उसे प्रणाम किया किन्तु रथी की स्त्री वसमती को देखते ही विचार में पड़ गई। वह सोचने लगी- मेरे पति इस सुन्दर कन्या को यहाँ क्यों लाए हैं ? मालूम पड़ता है वे
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
wommmmmmm
इसके रूप परमोहित हो गए हैं। उसे अपने पति पर सन्देह हो गया। किन्तु किसी प्रमाण के बिना कुछ कहने का साहस न कर सकी।
वसमती के आते ही रथी के घर का रंग दंग बिल्कुल बदल गया। सब चीजें साफ सुथरी और व्यवस्थित रहने लगीं। नौकर चाकर तथा परिवार के सभी लोग प्रसन्न रहने लगे। वसुमती के गुणों से आकृष्ट हो कर सभी लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। रथी उसके गुणों को वखानते न थकताथा। उसकी स्त्री को अब कुछ भी काम न करना पड़ता था फिर भी उसकी आँखों में वसमती सदाखटका करती थी। वह सोच रही थी, मेरे पति दिनप्रतिदिन वसमती की ओर झुक रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि वह मेरास्थान छीन ले। इसलिए जितनाशीघ्र हो सके, इसे घर से निकाल देना चाहिए। मन में यह निश्चय करके वह मौका ढूँढने लगी।
वसमती घर के काम में इतनी व्यस्त रहती थी कि अपने खान पान का भी ध्यान नथा। किसी काम में किसी प्रकार कीगन्ती न होने देती थी। इतने पर भी रथी की स्त्री उसके प्रत्येक काम में गल्ती निकालने की चेष्टा करती। उसके किए हुए काम को स्वयं विगाड़ कर उसी पर दोप मढ़ देती । इतने पर भी वसुमती चब्ध न होती। वह उत्तर देती-माताजी! भूल से ऐसा हो गया । भविष्य में सावधान रहूँगी। रथी की स्त्री को विश्वास था कि इस प्रकार प्रत्येक कार्य में गल्ती निकालने पर वसुमती या तो स्वयं तंग हो कर चली जाएगी या किसी दिन मेरा विरोध करेगी और मैं स्वयं झगड़ा खड़ा करके इसे घर से निकलवा दूंगी किन्तु उसका यह उपाय व्यर्थ गया । वसुमती ने क्रोध पर विजय प्राप्त कर रक्खी थी, इस लिए सारथी की स्त्री के कड़वे वचन और झूठे आरोप उसे विचलित न कर सके।
वसुमती की कार्यव्यस्तता देख कर एक दिन सारथी ने उसे
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त चोल संग्रह, पांचवां भाग २१५
mकहा-बेटी ! तुम राज महल में पली हो । तुम्हारा शरीर इस योग्य नहीं है कि घर के कामों में इस तरह पिसा करो। तुम्हें अपने स्वास्थ्य । और खान पान का भी ध्यान रखना चाहिए।
रथी की इस बात को उसकी स्त्री ने सुन लिया। उसे विश्वास हो गया कि वास्तव में मेरे पति इस पर आसक्त हो गए हैं। क्रोध से ऑखें लाल करके वह वमुमतीके पास आई और कहने लगीक्यों ? मुझे ठगने चली है। ऊपर से तो मुझे मां कहती है और दिल में सौत बनने की इच्छा है। अच्छा हुआ मैं समय पर चेत गई । अव तुझे घर से निकलवा कर ही अन्न जल ग्रहण करूँगी। वसुमती के विरुद्ध वह जोर जोर से बकने लगी। घर के लोग उसके इस रूप को देख कर चकित रह गए । रथी को मालूम पड़ा तो वह भी दोड़ा हुआ आया और अपनी स्त्रीको समझाने लगा। उसके समझाने पर वह अधिक बिगड़ गई और कहने लगी-अब तोसारा दोष मेरा ही है, क्योंकि मैं अच्छी नहीं लगती। मैं अच्छी लगती तो इसे क्यों लाते ? अब मैं निश्चय कर चुकी हूँ कि या तो इसे घर से निकाल दो नहीं तो खाना पीना छोड़ कर अपने प्राण दे देंगी। केवल निकाल देने से ही मुझे सन्तोष न होगा। लड़ाई से लौटे हुए सभी योद्धा चम्पापुरी को लूट कर बहुत धन लाए हैं। आप कुछ भी नहीं लाए। इस लिए इसे बाजार में बेच कर मुझे पीस लारव मोहरें लाकर दो। तभी अनजल ग्रहण करूँगी। ___ रथी ने अपनी स्त्री को बहुत समझाया किन्तु वह न मानी। यद्यपि धारिणी और वसुमती के आदर्श से रथीकाखभाव बहुत कोमल हो गया था फिर भी उसे क्रोध आ गया। उसने अपनी स्त्री को कहा- ऐसी सदाचारिणी और सेवापरायण पुत्री को मैं अपने घर से नहीं निकाल सकता।तुम्हीं मेरे घर से निकल जाओ। दोनों में तकरार बढ़ने लगी।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वसुमती ने सोचा-मेरे कारण ही यह विरोध खड़ा हुआ है। इस लिए मुझे ही इसे निपटाना चाहिए। यह सोच कर वह रथी की स्त्री से कहने लगी-माताजी! आपको घबराने की आवश्यकता नहीं है। आप की इच्छा शीघ्र पूरी हो जायगी। ___ इसके बाद उसने रथी से कहा- पिनानी ! इसमें नाराज होने की कोई बात नहीं है, अगर माताजी बीस लाख मोहरें लेकर मुझे छुटकारा दे रही हैं तो यह मेरे लिए हर्ष की बात है । इनका तो मुझ पर महान् उपकार है । इनका सन्देह दूर करना भी हम दोनों के लिए ज़रूरी है इस लिए आप मेरे साथ बाजार में चलिए और मुझे वेच कर माताजी का सन्देह दूर कीजिए। अगर आपको मेरे सतीत्व पर विश्वास है तो कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
रथी वसुमती को छोड़ना नहीं चाहता था किन्तु वमुमती ने अपने व्यवहार और उपदेश द्वारा उसे इतना प्रभावित कर रक्खा था कि वह उसे अपनी पाराध्य देवी मानता था । विना कुछ कहे उसकी बात को मान लेता था। वह बोला- वेटी! मेरा दिल तो नहीं मानता कि तुम सरीरवी मङ्गलमयी साध्वी सती कन्या को अलग करूँ किन्तु तुम्हारे सामने कुछ भी कहने का साहस नहीं होता, इस लिए इच्छान होने पर भी मान लेता हूँ। मुझे दृढ विश्वास है, तुम जो कुछ कहोगी उससे सभी का कल्याण होगा। ___ रथी और वसुमती बाजार के लिए तैयार हो गए। वसुमती ने रथी की स्त्री को प्रणाम किया और कहा मेरे कारण आपको बहुत कष्ट हुआ है इसके लिए मुझे क्षमा कीजिए | उसने परिवार के सभी लोगों से नम्रता पूर्वक विदा ली , दासी के कपड़े पहने और रथी के साथ वाजार का रास्ता लिया। बाजार के चौराहे में खड़ी होकर वसुमती स्वयं चिल्लाने लगी
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांपवां भाग २१७
mmmmmwww भाइओ! मैं दासी हूँ, चिकने के लिए आई हूँ। दूसरी ओर रथी एक कोने पर खड़ा आँसू बहा रहा था। वसुमती से अलग होने के लिए अपने भाग्य को कोस रहा था।
वसुमती के चेहरे को देख कर सभी लोग कहते--यह किसी बड़े घर की लड़की मालूम पड़ती है। कौतूहल वश उसके पास जाकर पूछते-देवि! तुम कौन हो ? यहाँ क्यों खड़ी हो! .
वसुमती उत्तर देती-मैं दासी हूँ। यहाँ विकने के लिए आई हूँ। मेरी कीमत वीस लाख मोहरें हैं। मेरे पिता को कीमत देकर जो चाहे मुझे खरीद सकता है। मैं घर का सारा काम करूँगी। घर कोसुधार,गी। किसी प्रकार की त्रुटि न रहने दूँगी । उसने अपनी वास्तविकता को बताना ठीक न समझा। . यद्यपि वसुमती की सौम्य प्राकृतिकोदेख कर सभी उसे अपने घर ले जाना चाहते थे किन्तु एकदासी के लिए इतनी बड़ी रकम - देना किसी ने ठीक न समझा।
उसी समय एक वेश्यापालकी में बैठी हुई वहाँ आई। वहनगर की प्रसिद्ध वेश्या थी । नृत्य, गान और दूसरी कलाओं में उसके समान कोई न था। नगर में वह 'नगरनायिका' के रूप में प्रसिद्ध थी। अपने पाप के पेशे से अपार धन बटोर चुकी थी। __ वसुमती को देख कर उसे अपार हर्ष हुआ। साथ में भाश्चर्य भी हुआ कि ऐसी सुन्दरी बाजार में विकरही है। वेश्या ने सोचाऐसी सुन्दरी को पाकर मेरा धन्धा चमक उठेगा। थोड़े ही दिनों में सारी रकम वसूल हो जायगी। इसलिए मुंह मांगे दाम देने को तैयार हो गई।
उसने वसुमती से कहा- तुम मेरे साथ चलो। साथ में अपने पिता को भी ले लो। मैं उन्हें बीस लाख मोहरें दे दूँगी।
वेश्या खूब सनी हुई थी। रेशमी वस्त्र पहिन रखे थे। आभू
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
पणों से लदी थी। उसकी वोली और चाल ढाल में बनावट थी। नमुमती उसकी भावभंगी से समझ गई कि यह कोई भद्र औरत नहीं है। उसने वेश्या से पूछा- माताजी! आप मुझे किस कार्य के लिए खरीदना चाहती है ? आपके घर का प्राचार क्या है?
वेश्या ने उत्तर दिया-तू तो भोली है। नित्य नए शृङ्गारकरना, नए नए वस्त्र तथा माभूषणों से अपने शरीर को सुसज्जित करना तथा नित्य नए सुख भोगना हमारे यहाँ का आचार है। मेरे घर पर तुझे दासीपना न करना होगा किन्तु बड़े बड़े पुरुषों को अपना दास बनाए रखना होगा। मैं अपनी नृत्य और गान कला तुझे सिखा देंगी। फिर ऐसा कौन है जो तेरे आगे न झुक जाय।
वेश्या की वात समाप्त होते ही वसमती ने कहा- माताजी! आप मुझे जिस उद्देश्य से खरीदना चाहती हैं और जो कार्य लेना चाहती हैं वह मुझसे न होगा। मेरा और आपका आचार एक दूसरे से विरुद्ध है। आप पुरुषों को विभ्रम और मोह में डाल कर पतन की ओर ले जाना चाहती हैं और मैं उन्हें इस मोह से निकाल कर ऊँचा उठाना चाहती हूँ। जिस जाल में आप उन्हें फंसाना चाहती हैं, मैं उससे छुड़ाना चाहती हूँ।इसलिए मुझे खरीदने से आपको कोई लाभ न होगा। मैं आपके साथ नहीं चलेंगी।
वेश्या ने वसुमती को सब तरह के प्रलोभन दिए । उसे एक दासी की हालत से उठा कर सांसारिक सुखों की चरम सीमा पर पहुँचाने का वचन दिया किन्तु वसुमती अपने सतीत्व के सामने स्वर्गीय भोगों को भी तुच्छ समझती थी। संसार के सारे सख इकडे होकर भी उसे धर्म से विचलित न कर सकते थे। उसने वश्या के सभी मलोभनों को ठुकरा दिया।
वेश्या ने सोचा- यह लड़की इस प्रकार न मानेगी। इस भीड़ में खड़े हुए बड़े बड़े आदमी मेरी हाँ में हाँ मिलाने वाले हैं। जिसे
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२१६
मैं न्याय कह दूँ वही उनके लिए न्याय है। सभी मेरे इशारे. पर नाचते हैं। किसी में मेरा विरोध करने कासाहस नहीं है, इस लिए इसे जबर्दस्ती पकड़ कर ले चलना चाहिए । वहाँ पहुँचने के बाद अपने आप ठीक हो जाएगी।
यह सोच कर वेश्या ने उससे कहा- तुम यहाँ विकने के लिए आई हो । बीस लाख मोहरें तुमने अपनी कीमत स्वयं वताई है। जो इतनी मोहरें दे दे उसका तुम पर अधिकार हो जाता है। फिर , वह तुम्हें कहीं ले चले और कुछ काम ले, तुम्हें विरोध करने का कोई अधिकार नहीं रह जाता । बिकी हुई वस्तु पर खरीदने वाले का पूर्ण अधिकार होता है। मैंने तुम्हें खरीद लिया है। तुम्हारे आराम और सन्मान के लिए अब तक मैं तेरी खुशामद करती रही। यदि तुम ऐसेनचलोगी तो में जबर्दस्ती ले चलेंगी। यह कह कर वेश्या ने भीड़ पर कटाक्ष भरी नजर फेंकी। उसके समर्थक कुछ लोग हाँ में हॉ मिला कर कहने लगे- आप बिल्कुल ठीक कहती हैं। आपका पूरा अधिकार है। आप इससे अपनी इच्छानुसार कोई भी काम ले सकती हैं।
लोगों की बात सुन कर वसुमती मन ही मन सोचने लगीये भोले प्राणी किस प्रकार कामान्ध होकर पाप का समर्थन कर रहे हैं। प्रभो! इन्हें सद्बुद्धि प्राप्त हो। उसने प्रकट में कहा-यह भीड़ ही नहीं अगर सारा संसार प्रतिकूल हो जाय तो भी मुझे धर्म से विचलित नहीं कर सकता।
वसुमती की दृढ़ता को देख कर भीड़ में से कुछ लोग उसके भी समर्थक बन गए और कहने लगे-कोई किसी पर जबर्दस्ती नहीं कर सकता। वेश्या के साथ जाना या न जाना इसकी इच्छा पर निर्भर है।
वेश्या के समर्थक अधिकथे इस लिए उसकासाहस बढ़ गया। उसने अपने नौकरों को आज्ञा देदी और स्वयं वसुमती को पकड़ने
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
के लिए आगे बढ़ी । वसुमती कुछ पीछे हट गई।
. रथी अब तक अलग खड़ा हुआ केवल बातें सुन रहा था। वसमती की दुर्दशा देख कर उसे अपनी स्त्री पर क्रोध आ रहाथा। उसे पकड़ने के लिए वेश्या को आगे बढ़ती देख कर उससे न रहा गया । म्यान से तलवार निकाल कर कड़कते हुए बोला- सावधान ! इसकी इच्छा के विना अगर मेरी बेटी को हाथ लगाया तो तुम्हारी खैर नहीं है। यह कहकर वह वसुमती के पास खड़ा होगया।
हाथ में नंगी तलवार लिए हुए कुपित रथी के भीषण रूपको ' देख कर वेश्या डर गई । भय से पीछे हट कर वह चिल्लाने लगीदेखो ! ये मुझे तलवार से मारते हैं। जब लड़की विक चुकी है तो अब इन्हें बोलने का क्या अधिकार है ? इन्हें केवल कीमत लेने से मतलव है और मैं पूरी कीमत देने के लिए तैयार हूँ, फिर इन्हें बीच में पड़ने का क्या अधिकार है। वेश्या के समर्थक भी उसके साथ चिल्लाने लगे। रथी को आगे बढ़ते देख कर कुछ लोग उसकी
ओर भी बोलने लगे। दोनों दल तन गए। झगड़ा बढ़ने लगा। __ वसुमतीने सोचा-दोनों पक्ष अज्ञानता के कारण एक दूसरे के रक्त पिपासु बने हुए हैं। क्रोधवश एक दूसरे को मारने के लिए उद्यत हैं । एक दल तो अपने स्वार्थ, वासना और लोभ में पड़ कर अन्धा हो रहा है, इस समय उसे किसी प्रकार नहीं समझाया जा सकता, किन्तु दूसरा पक्षन्याय की रक्षा के लिए हिंसा का आश्रय ले रहा है। धर्म की रक्षा के लिए अधर्म की शरण ले रहा है। क्या धर्म अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सकता ? क्या पाप की अपेक्षा वह निर्वल है ? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। धर्म अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है। उसे अधर्म का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं है। धर्म की तो सदा विजय होती है फिर वह पाप की शरण क्यों ले। हिंसा पाप है। न्याय की रक्षा के लिए उसकी
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
marwood
श्री जैन सिद्धान्त चोल संग्रह, पांचवां भाग २२१ man wenn mann an mmmmmmmmmmmmmmm भावश्यकता नहीं है। यह सोच कर उसने रथी से कहा
पिताजी!शान्त रहिए।क्रोध और हिंसाको हृदय में कभी स्थान नदेना चाहिए। क्या आप माताजी की शिक्षा को भूल गए? मेरी 'रक्षा के लिए तलवार की आवश्यकता नहीं है। धर्म अपनी रक्षा 'स्वयं करता है। आप तलवार को म्यान में कर लीजिए।
रथी अधीर हो उठा। उसे विश्वास न था कि ऐसे समय में भी अहिंसा काम कर सकती है। उसने कहा- बेटी ! तेरा विरोध करने का साहस मुझ में नहीं है, इस लिए बिना सोचे समझे मान लेता हूँ, किन्तु क्या यह उचित कहा जा सकता है कि मेरी वेंटी पर मेरी आँखों के सामने अत्याचार हो और मैं निर्जीव स्तम्भ की तरह खड़ा रहूँ। रक्षा के लिए प्रयत्न न करूं । इस समय आतताई को दण्ड देने के सिवाय मेरा और क्या कर्तव्य हो सकता है ?
पिताजी! आध्यात्मिक बल में शारीरिक बल से अनन्तगुणी शक्ति है मुझे इस बात पर दृढ़ विश्वास है, इस लिए पाशविक वल मेरा कुछ नहीं कर सकता। आप किसी बात की चिन्ता मत कीजिए। मैं पहले कह चुकी हूँ, धर्म अपनी रक्षा स्वयं करता है। - रथीको तलवार म्यान में रखते हुए देख कर वेश्या का साहस
और बढ़ गया । वह सोचने लगी कि वसुमती केवल ऊपर से विरोध करती है, वास्तव में मेरे साथ जाना चाहती है। उसने फिर खींचातानी शुरू की।
वसुमती फोशारीरिक बल पर विश्वास न था, इसलिए हथियार द्वारा या दूसरे किसी उपाय से विरोध करना उसने उचित न समझा। आत्मशक्ति पर विश्वास करके वह वहीं बैठ गई और कहने लगी-जब मैं नहीं जाना चाहती तोमुझे कौन लेजा सकता है?
वेश्याने सोचाअव इसे उठाकर पालकी में डाल देना चाहिए।
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
၃ ၃ခု
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
mmar.mmm ..
. arwwwr.
वमुमती को उठाने के लिए वह आगे बढ़ी। इतने में बहुत से बन्दर वेश्या पर टूट पड़े। उसके शरीर को नोच डाला। वेश्या सहायता के लिए चिल्लाई किन्तु उसके नौकर तथा समर्थक बन्दरों से डरकर पहले ही भाग चुके थे। कोई उसकी सहायता के लिए न आया। ___ बन्दरों ने वेश्या को लोहूलुहान कर दिया। उसके करुण चीत्कार को सुन कर वसुमती से न रहा गया। उसने बन्दरों को डाट कर कहा- हटो! माता कोछोड़ दो। इसे क्यों कष्ट दे रहे हो? वसमती के डाटते ही सभी बन्दर भाग गए।
वेश्या के पास आकर वसुमती ने उसे उठाया और सान्त्वना देते हुए उसके शरीर पर हाथ फेरा । वेश्या के सारे शरीर में भयङ्कर वेदना हो रही थी किन्तु वसुमती का हाथ लगते ही शान्त हो गई।
कृतज्ञता के भार से दवी हुई वेश्या ऑखें नीची किए सोच रही थी कि अपकारी का भी उपकार करने वाली यह कोई देवी है। इसके हाथ का स्पर्श होते ही मेरी सारी पीड़ा भाग गई। वास्तव में यह कोई महासती है।
बन्दरों के चले जाने पर वेश्या के परिजन और समर्थक फिर वहाँ इकट्ठे हो गए और विविध प्रकार से सहानुभूति दिखाने लगे। वेश्या के हृदय में वसमतीद्वारा किया हुआ उपकार घर कर चुका था इस लिए सूखी सहानुभूति उसे अच्छी न लगी। __अपने व्यवहार पर लज्जित होते हुए वेश्याने वसुमती से कहादेवि ! सांसारिक वासनाओं में पली हुई होने के कारण मैं आपके वास्तविक स्वरूप को न जान सकी। मैंने आपकी शिक्षाको मजाक समझा, सदाचार को ढोंग समझा। धर्म, न्याय और सतीत्व का मेरे हृदय में कोई स्थान न था। इसी कारण अज्ञानतावश मैंने आप के साथ दुर्व्यवहार किया। अहिंसा और सतीत्व का साक्षात् आदर्श रख कर आपने मेरी आँखें खोल दीं। मैं आपके ऋण से कभीमुक्त
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २२३ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwmmmmwwwin wwmmmm नहीं हो सकती। आपके साथ किए गए दुर्व्यवहार के लिए मुझे पश्चात्ताप हो रहा है। आपकी आत्मामहान् है। आशा है,अज्ञानतावश किए गए उस अपराध के लिए श्रापमुझक्षमा कर देंगी। ___ अब मैंने अपने पाप के पेशे को छोड़ देने का निश्चय कर लिया है। आपने मेरे जीवन की धारा को बदल दिया। यह मेरे गौरव की बात होती यदि आपके चरणों से मेरा घर पवित्र होता। किन्तु उस गन्दे, नारकीय वातावरण में आप सरीखी पवित्र भात्मा को ले जाना मैं उचित नहीं समझती। यह कह कर अपने अपराध के लिए बारबार क्षमा मांगती हुई वेश्या अपने घर चली गई। वसुमती तथा वेश्या की बात विजली के समान सारे शहर में फैल गई।
नगरी में धनावह नाम का एक धर्मात्मा सेठ रहता था। उसके कोई सन्तान न थी। वसमती की प्रशंसा सुन कर उसकी इच्छा हुई कि ऐसी धर्मात्मा सती मेरे घर रहे तो कितना अच्छा हो। उसके रहने से मेरे घर का वातावरण पवित्र हो जायगा और मैं निर्विघ्न धर्माचरण कर सकूँगा। ___ उत्तरोत्तर घटनाओं को देख कर रथी का वमुमती की ओर अधिकाधिक झुकाव हो रहाथा। ऐसी महासती को बेचना उसे बहुत बुरा लग रहा था। वह बार बार वसुमती से वापिस लौटने की प्रार्थना करने लगा और वसुमती उसे सान्त्वना देने लगी। _इतने में धनावह सेठ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने रथीको मोहरें देना स्वीकार कर लिया और वसुमती को अपने घर ले जाने के लिए कहा। वसुमती ने पूछा-पिताजी! आपके घर का क्या आचार है? ___ सेठ ने उत्तर दिया-पुत्री यथाशक्ति धर्मकी आराधना करना ही मेरे घर काआचार है। मैं बारह व्रतधारी श्रावक हूँ। घर पर श्राए हुए अतिथिको विमुख न जाने देना मेरा नियम है।धार्मिक कार्यों में मेरी सहायता करना तुम्हारा कार्य होगा। मैं तुम्हें विश्वास
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
. श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला -
ran , warrrrr .
anhvr
दिलाता हूँ कि मेरे यहाँ तुम्हारे सत्य और शील के पालन में किसी प्रकार की बाधा न होगी।
वसुमती धनावह सेठ के साथ जाने को तैयार हो गई और रथी से कहने लगी-पिताजी! आप मेरे साथ चलिए और बीस लाख मोहरें लाकर माताजी को दे दीजिए।
रथी के हृदय में अपार दुःख हो रहा था। उसके पैरआगे नहीं बढ़ रहे थे। धीरे धीरे सभी धनावह सेठ के घर आए। धनावह ने तिजोरी से बीस लाख मोहरें निकाल कर रथी के सामने रख दी और कहा- भाप इन्हें ले लीजिए। . . __ रथी ने कहा- सेठ साहेव ! अपनी इस पुत्रीको अलग करने की मेरी इच्छा नहीं है किन्तु मेरे घर के कलुषित वातावरण में यह नहीं रहना चाहती। अगर इसकी इच्छा है तो आपके घररहेकिन्तु इसे वेचकर मैं पाप काभागी नहीं बनना चाहता। धनावह सेठ मोहरें देना चाहता था किन्तु रथी उन्हें लेना नहीं चाहताथा। ___ यह देखकर वसुमती रथी से कहने लगी- सेठजी और आप दोनों मेरे पिता हैं। मैं दोनों की कन्या हूँ। इस नाते आपदोनों भाई भाई हैं। भाइयों में खरीदने और बेचने का प्रश्न ही नहीं होता। वीस लाख मोहरें आप अपने भाई की तरफ से माताजी को भेट दे दीजिए। यह कह कर उसने धनावह सेठ के नौकरों द्वारा मोहरें रथी के घर पहुँचवा दी। रथी और धनावह सेठ का सम्बन्ध सदा के लिए दृढ़ हो गया।
धनावह सेठ की पत्नी का नाम मृला था। उसका स्वभाव सेठ के सर्वथा विपरीत था। सेठ जितना नम्र,सरल, धार्मिक और दयाल था, मृला उतनी ही कठोर, कपटी और निर्दय थी। सेठ दया, दान आदिधार्मिक कार्यों को पसन्द करताथा किन्तु मूला को इन सब बातों से घृणा थी।
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२२५
वसुमती को अपने साथ लेकर सेठ ने मूला से कहा- हमारे सौभाग्य से यह गुणवती कन्या प्राप्त हुई है। इसे अपनी पुत्री समझना। इसके रहने से हमारे घर में धर्म, प्रेम और सुख की वृद्धि होगी।
मूला ऊपर से तो सेठ की बातें सुन रही थी किन्तु हृदय में दूसरी ही वातें सोच रही थी। सेठजी इस सुन्दरी को क्यों लाए हैं ? साथ में इसकी प्रशंसा भी क्यों कर रहे हैं ? ऊपर से तो पुत्री कह रहे हैं किन्तु हृदय में कुछ और बात है। भला इसके सौन्दर्य को देख कर किसका चित्त विचलित न होगा। ..
हृदय के भावों को मन ही में दवा कर मूला ने सेठ की बात ऊपर से स्वीकार कर ली। वसुमती सेठ के घर रहने लगी। उसके कार्य, व्यवहार तथा चारित्र से घर के सभी लोग प्रसन्न रहने लगे। सभी उसकी प्रशंसा करने लगे। सेठजी स्वयं भी उसके कार्यों को सराहा करते थे किन्तु मूला पर इन सब का उल्टा असर पड़ रहा था।
एक दिन सेठ ने वसुमती से पूछा- बेटी ! तेरा नाम क्या है? पिताजी ! मैं भापकी पुत्री हूँ। पुत्री का नाम वही होता है जो माता पिता रक्खें । वसुमती ने उत्तर दिया।
बेटी ! मैंने तेरी सारी बातें सुन ली हैं। जैसे चन्दन काटने वाले को भी सुगन्ध और शान्ति देता है इसी प्रकार तुम अपकारी पर भी
पकार करने वाली हो, इसलिए मैं तुम्हारा नाम चन्दनवाला रखताहूँ। सेठ ने पुराने नाम की छानबीन करना उचित न समझा। सभी लोग वसुमती को चन्दनवाला कहने लगे।
एक दिन चन्दनवाला स्नान के बाद अपने बाल सुखा रही थी। इतने में सेठजी बाहर से आए और अपने पैर धोने के लिए पानी मांगा । चन्दनवाला गरम पानी, बैठने के लिए चौकी तथा पैर घोने का बर्तन ले आई और बोली- पिताजी!श्राप यहाँ विराजें। मैं आपके पैर धो देती हूँ।
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
सेठजी नहीं चाहते थे कि एक सती स्त्री से जिसे अपनी पुत्री मान लिया है, पैर धुलवाए जॉय । उन्होंने चन्दनवाला से बहुत कहा कि पैर धोने का कार्य उसके योग्य नहीं है किन्तु चन्दन वाला सेवा के कार्य को छोटा न मानती थी। वह इसे उच्च और प्रदर्श कर्तव्य समझती थी । पिता के पैर धोना वह अपना परम सौभाग्य मानती थी । उसने सेठजी को मना लिया और पैर धोने बैठ गई ।
I
२२६
पैर धोते समय चन्दनबाला यह सोच कर बहुत प्रसन्न हो रही थी कि उसे पितृसेवा का अपूर्व अवसर मिला । सेठजी चन्दनवाला को अपनी निजी सन्तान समझ कर वात्सल्य प्रेम से गद्गद हो रहे थे। उनके मुख पर अपत्यस्नेह स्पष्ट झलक रहा था । चन्दनबाला और सेठ दोनों के हृदयों में पवित्र प्रेम का संचार हो रहा था।
पैर धोते समय सिर के हिलने से चन्दनवाला के बाल उसके पर आ रहे थे जिससे उसकी दृष्टि अवरुद्ध हो जाती थी। सेठजी ने उन वालों को उठा कर पीछे की ओर कर दिया ।
मूला इस दृश्य को देख रही थी । हृदय मलीन होने के कारण प्रत्येक बात उसे उल्टी मालूम पड़ रही थी । सेठ को चन्दनवाला के केश ऊपर करते देख कर वह जल भुन कर रह गई । उसे विश्वास हो गया कि सेठ का चन्दनबाला के साथ अनुचित सम्बन्ध है । उसे घर से निकाल देने के लिए वह उपाय सोचने लगी ।
मूला का व्यवहार चन्दनबाला के प्रति बहुत कठोर हो गया । उसके प्रत्येक कार्य में दोष निकाले जाने लगे। वात वात पर डाट पड़ने लगी, किन्तु चन्दनवाला इस प्रकार विचलित होने वाली न थी। वह मूला की प्रत्येक वात का उत्तर शान्ति और नम्रता के साथ देती। अपना दोष न होने पर भी उसे मान लेती और क्षमा याचना कर लेती । मूला झगड़ा करके वसुमती को निकालने में सफल न हुई । वह कोई दूसरा उपाय सोचने लगी ।
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २२७ are amrn arraiwwmummmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmr~
एक वार सेठजी तीन चार दिन के लिए किसी बाहर गाँव को चले गए। चन्दनवाला को निकाल देने के लिए मला ने इस अवसर को ठीक समझा। उसने सभी नौकरों को घर से बाहर ऐसे कार्यों पर भेज दिया जिससे वे तीन चार दिन तक न लौट सकें। घर का दरवाजा बन्द करके वह चन्दनवाला के पास आई
और कहने लगी- तेरी सूरत तो भोली है किन्तु दिल में पापभरा हुश्रा है। जिसे पिता कहती है उसी को पति बनाना चाहती है। जिसे मां कहती है उसकी सौत वनने चली है। पुरुष भी कितने धृत होते हैं, जिसे पुत्री कहते हैं उसी के लिए हृदय में बुरे विचार रखते हैं। अब मैंने सब कुछ देख लिया है। अपनी ऑखों के सामने मैं यह कांड कभी न होने दूंगी । उस दिन सेठजी तुम्हारे मुंह पर हाथ क्यों फेर रहे थे ?
चन्दनवाला ने नम्रता पूर्वक उत्तर दिया-माताजी! मैं आप की पुत्री हूँ। पुत्री पर इस प्रकार सन्देह करना ठीक नहीं है। मैं सच्चे हृदय से आपको माता और सेठजी को पिता मानती हूँ। सेठजी भी मुझे शुद्ध हृदय से अपनी पुत्री समझते हैं । इसके लिए जैसे चाहें आप मेरी परीक्षा ले सकती हैं। __ अच्छा, मैं देखती हूँ तू किस प्रकार परीक्षा देती है। मेरे पति ने तेरे इन केशों को छूआ है इस लिए पहले पहल मैं इन्हें ही दण्ड देना चाहती हूँ। यह कह कर मूला कैंचीले आई और चन्दनवाला के सुन्दर केशों को काट डाला। __अपने सुन्दर और लम्बे केशों के कट जाने पर भी चन्दनवाला पहले के समान ही प्रसन्न थी। उसके मुख पर विषाद की रेखा तक न थी। वह सोच रही थी-यह मेरे लिए हर्ष की बात है यदि केशों के कट जाने मात्र से माताजी का सन्देह दूर हो जाय ।
मूला उसके प्रसन्न मुख को देख कर और कुपित हो गई। उस
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
ने और भी कठोर दण्ड देने का निश्चय किया। चन्दनपाला के सारे कपड़े उतार लिए और पुराने मैले कपड़े की एक काछ लगा दी। हाथों में हथकड़ी और पैरों में वेड़ी डाल दी। इसके बाद एक पुराने भौरे (तहखाने,तलघर) में उसे बन्द करके तालालगा दिया। मला को विश्वास हो गया कि चन्दनवाला वहीं पड़ी पड़ी मर जाएगी। उसे यह जान कर प्रसन्नता हुई कि सौत बन कर उसके सुख सुहाग में बाधा डालने वाली अब नहीं रही।
इतने में उसके हृदय में भय का संचार हुआ। सोचने लगीअगर कोई यहाँ आगया और चन्दनवाला के विषय में पूछने लगा तो क्या उत्तर दिया जाएगा ? मकान के तालावन्द करके वह अपने पीहर चली गई। सोचा-तीन चार दिन तो यह बात ढकी ही रहेगी, वाद मैं कह दूँगी कि वह किसी के साथ भाग गई। __ भौरे में पड़े पड़े चन्दनवाला को तीन दिन हो गए। उस समय उसके लिए भगवान् के नाम का ही एक मात्र सहारा था। वह नवकार मन्त्र का जाप करने लगी। उसी में इतनी लीन थी कि भूख प्यास आदि सभी कष्टों को भूल गई। नवकार मन्त्र के स्मरण में उसे अपूर्व आनन्द प्राप्त हो रहा था। मूला सेठानी को वह धन्यवाद दे रही थी जिसकी कृपा से ईश्वरभजन काऐसा सुयोग मिला। · चौथे दिन दोपहर के समय धनावह सेठ वाहर से लौटे। देखा, घर का वाला बन्द है। सेठानी या नौकर चाकर किसी का पता नहीं है। सेठजी आश्चर्य में पड़ गए। उनके घर का द्वार कभी बन्द न होता था। अतिथियों के लिए सदा खुला रहता था।
सेठ ने सोचा-मूला अपने पीहर चली गई होगी। नौकर चाकर भी इधर उधर चले गए होंगे, किन्तु चन्दनवाला तो कहीं नहीं जा सकती। पड़ोसियों से पूछने पर मालूम पड़ा कि तीन दिन से उसका कोई पता नहीं है। इतने में एक नौकर बाहर से आया। पूछने पर
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त चोल संग्रह, पांचवां भाग
२२६
उसने कहा- सेठानी ने हम सब को बाहर भेज दिया था। केवल चन्दनपाला और सेठानी ही यहाँ रही थीं। इसके बाद क्या हुआ, यह मुझे मालूम नहीं है। सेठ मूला के स्वभाव की मलीनताऔर उसकी चन्दनवाला के प्रति दुर्भावना से परिचित थे। अनिष्ट की सम्भावना से उनका हृदय कांप उठा। . : धनावह सेठ ने मूला के पास नौकर भेजा। सेठ का आगमन सुन कर एक बार तो मूला का हृदय धक सा रह गया किन्तु जल्दी
कर उसने नौकर से कहा मुझे अभी दो चार दिन यहाँ काम है। तुम घर की चाबी ले जाओ और सेठजी को दे दो। मूला ने सोचा-दो चार दिन में चन्दनवाला मर जायगी फिर उसका कोई भी पता न लगा सकेगा। पूछने पर कह दूँगी, घर से चोरी करके वह किसी पुरुष के साथ भाग गई। .. नौकर चाबी ले कर चला आया। सेठ ने घर खोला। चन्दनबाला जब कहीं दिखाई न दी तो उसका नाम ले कर जोर जोर से पुकारना शुरू किया।
चन्दनबाला ने सेठ की आवाज पहिचान कर तीण स्वर से उत्तर दिया- पिताजी! मैं यहाँ हूँ। आवाज के अनुसन्धान पर सेठ धीरे धीरे भौरे के पास पहुँच गया । किवाड़ खोल कर अंधेरे में टटोलता हुआ वह चन्दनवाला के पास आ पहुँचा। यह जान कर वह बड़ा दुखी हुआ कि चन्दनवाला के हथकड़ी और बेड़ियाँ पड़ी हुई हैं। धीरे धीरे उसे उठाया और भौंरे से बाहर निकाला। चन्दनबाला के मुंडे हुए सिर, शरीर पर लगी हुई काछ हथकड़ियों से जकड़े हुए हाथ तथा वेड़ियों से कसे हुए पैर देख कर सेठ के दुःख की सीमा न रही। वह जोर जोर से रोने लगा। विलाप करते हुए उसने कहा-वह दुष्टा तो तेरे प्राण हीले चुकी थी। मेरा भाग्य अच्छा था, जिससे तुझे नीवित देख सका। मैं
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला wwwmorammmmmmmmm बड़ा पापी हूँ, जिसके घर में तेरे समान सती स्त्री को ऐसा महान् कष्ट उठाना पड़ा। ___ चन्दनवाला सेठ को धैर्य बंधाने और सान्त्वना देने लगी। उसने बार बार कहा- पिताजी इसमें आपका और माताजी का कुछ दोष नहीं है । यह तो मेरे पिछले किए हुए कर्मों का फल है। किए हुए कर्म तो भोगने ही पड़ते हैं। इसमें करने वाले के सिवाय और किसी का दोष नहीं होता।
सेठजीशोकसागर में डूब रहे थे। उन पर चन्दनबालाकी किसी बात का असर न हो रहा था। सेठजी का ध्यान किसी कार्य की
ओर खींच कर उनका शोक दूर करने के उद्देश्य से चन्दनवाला ने कहा- पिताजी ! मुझे भूख लगी है। कुछ खाने को दीजिए। मेरी यह प्रतिज्ञा है कि जो वस्तु सबसे पहले भापके हाथ में श्रावेगी उसी से पारणा करूँगी, इस लिए नई तैयार की हुई या वाहर से लाई हुई कोई वस्तु मैं स्वीकार न करूँगी।
सेठजी रसोई में गए किन्तु वहाँ ताला लगा हुआ था। इधर उधर देखने पर एक सूप में पड़े हुए उड़द के वाफले दिखाई दिए । वे घोड़ों के लिए उवाले गए थे और थोड़े से वाकी बच गए थे। चन्दनवाला की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए सेठ उन्हीं कोले प्राया। चन्दनवाला के हाथ में वाकले देकर सेठ वेडी तोड़ने के लिए लुहार को बुलाने चला गया।
चन्दनवाला वाकले लेकर देहली पर बैठ गई। उसका एक पैर देहली के अन्दर था और दूसरा बाहर पारणा करने से पहले उसे अतिथि की याद आई। वह विचारने लगी-मैं प्रतिदिन अतिथियों को देकर फिर भोजन करती हूँ। यदि इस समय कोई निर्ग्रन्थ साधु यहाँ पधार जाय तो मेरा अहोभाग्य हो । उन्हें शुद्ध भिक्षा देकर मैं अपना जीवन सफल करूँ । देहली पर वेठी हुई चन्दनवाला
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२३१
इस प्रकार भावना भारही थी।
उन दिनों श्रमण भगवान् महावीर छमस्थ अवस्था में थे। कैवल्यमाप्ति के लिए कठोर साधना कर रहे थे। लम्बी तथा उग्र तपस्याओं द्वारा अपने शरीर को सुखा डालाथा। एक बार उन्होंने अतिकठोर अभिग्रह धारण किया। उनका निश्चय था
राजकन्या हो, अविवाहिता हो, सदाचारिणी हो, निरपराध होने पर भी जिसके पांवों में बेड़ियाँ तथा हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी हुई हों, सिर मुण्डा हुआ हो, शरीर पर काछ लगी हुई हो, तीन दिन का उपवास किए हो, पारणे के लिए उड़द के वाकले सूप मे लिए हो, न घर में हो, न बाहर हो,एक पैर देहली के भीतर तथा दुसरा बाहर हो, दान देने की भावना से अतिथि की प्रतीक्षा कर रही हो, प्रसन्न मुख हो और आखों में आँसू भी हों, इन तेरह बातों के मिलने पर ही आहार ग्रहण करूँगा। अगर ये बातें न मिलें तो आजीवन अनशन है। __ श्राहार की गवेषणा में फिरते हुए भगवान् को पाँच मास पञ्चीस दिन होगए किन्तु अभिग्रह की बातें पूरी न हुई। सभी लोग भगवान की शरीर रक्षा के लिए चिन्तित थे। साथ में उनके कठिन अभिग्रह के लिए आश्चर्यचकित भी थे।
घूमते घूमते भगवान् कौशाम्बी आ पहुँचे। नगरी में आहार की गवेषणा करते हुए धनावह सेठ के घर आए । चन्दनवाला को उस रूप में बैठी हुई देखा । अभिग्रह की और बातें तो मिल गई किन्तु एक बात न मिली-उसकी आँखों में आँसनथे। भगवान् वापिस लौटने लगे।
उन्हें वापिस लौटते देख चन्दनवाला की ऑरखों में ऑसपा गए । वह अपने भाग्य को कोसने लगी कि ऐसे महान् अतिथि आकर भी मेरे दुर्भाग्य से वापिस लौट रहे हैं। भगवान ने अचा
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला
Anmornin~
बड़ा पापी हूँ, जिसके घर में तेरे समान सती स्त्री को ऐसा महान् कष्ट उठाना पड़ा। __ चन्दनबाला सेठ को धैर्य बंधाने और सान्त्वना देने लगी। उसने वार पार कहा- पिताजी इसमें आपका और माताजी का कुछ दोष नहीं है । यह तो मेरे पिछले किए हुए कर्मों का फल है। किए हुए कर्म तो भोगने ही पड़ते हैं। इसमें करने वाले के सिवाय
और किसी का दोष नहीं होता। __ सेठजीशोकसागर में डूब रहे थे। उन पर चन्दनवाला की किसी बात का असर न हो रहा था। सेठजी का ध्यान किसी कार्य की
ओर खींच कर उनका शोक दूर करने के उद्देश्य से चन्दनवाला ने कहा- पिताजी! मुझे भूख लगी है। कुछ खाने को दीजिए। मेरी यह प्रतिज्ञा है कि जो वस्तु सबसे पहले भापके हाथ में आवेगी उसी से पारणा करूँगी, इस लिए नई तैयार की हुई या वाहर से लाई हुई कोई वस्तु मैं स्वीकार न करूँगी।
सेठजी रसोई में गए किन्तु वहाँ ताला लगा हुआ था । इधर उधर देखने पर एक सूप में पड़े हुए उड़द के वाकले दिखाई दिए। वे घोड़ों के लिए उवाले गए थे और थोड़े से वाकी बच गए थे। चन्दनबाला की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए सेठ उन्हीं कोलेप्राया। चन्दनवाला के हाथ में वाकले देकर सेठवेडी तोड़ने के लिए लुहार को बुलाने चला गया।
चन्दनवाला वाकले लेकर देहली पर बैठ गई। उसका एक पैर देहली के अन्दर था और दूसरा बाहर!पारणा करने से पहले उसे अतिथि की याद आई।वह विचारने लगी-में प्रतिदिन अतिथियों को देकर फिर भोजन करती है। यदि इस समय कोई निर्ग्रन्थ साध यहाँ पधार जाय तो मेरा अहोभाग्य हो । उन्हें शुद्ध भिक्षा देकर मैं अपना जीवन सफल करूँ । देहली पर वेठी हुई चन्दनवाला
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२३१
इस प्रकार भावना भारही थी।
उन दिनों श्रमण भगवान् महावीर छमस्थ अवस्था में थे। कैवल्यप्राप्ति के लिए कठोर साधना कर रहे थे। लम्बी तथा उग्र तपस्याओं द्वारा अपने शरीर को मुखा डाला था। एक बार उन्होंने अतिकठोर अभिग्रह धारण किया। उनका निश्चय था
राजकन्या हो, अविवाहिता हो, सदाचारिणी हो, निरपराध होने पर भी जिसके पांवों में वेड़ियाँ तथा हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी हुई हों, सिर मुण्डा हुआ हो, शरीर पर काछ लगी हुई हो, तीन दिन का उपवास किए हो, पारणे के लिए उड़द के वाकले सूप में लिए हो, न घर में हो, न बाहर हो,एक पैर देहली के भीतर तथा दूसरा वाहर हो, दान देने की भावना से अतिथि की प्रतीक्षाकर रही हो, प्रसन्न मुख हो और आखों में ऑसू भी हों, इन तेरह बातों के मिलने पर ही आहार ग्रहण करूँगा । अगर ये बातें न मिलें तो आजीवन अनशन है।
आहार की गवेषणा में फिरते हुए भगवान् को पाँच मास पच्चीस दिन होगए किन्तु अभिग्रह की बातें पूरी न हुई। सभी लोग भगवान् की शरीर रक्षा के लिए चिन्तित थे। साथ में उनके कठिन अभिग्रह के लिए आश्चर्यचकित भी थे। ___ घूमते घूमते भगवान् कौशाम्बी आ पहुँचे। नगरी में आहार की गवेषणा करते हुए धनावह सेठ के घर आए । चन्दनवाला को उस रूप में बैठी हुई देखा। अभिग्रह की और बातें तो मिल गई किन्तु एक बात न मिली-उसकी आँखों में आँसनथे। भगवान् वापिस लौटने लगे।
उन्हें वापिस लौटते देख चन्दनवाला की ऑरखों में ऑसू आ गए । वह अपने भाग्य को कोसने लगी कि ऐसे महान् अतिथि आकर भी मेरे दुर्भाग्य से वापिस लौट रहे हैं। भगवान् ने अचा
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला ,
.rimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
नक पीछे देखा । उसकी भाँखों से आँस्स टपक रहे थे। तेरहवीं बात भी पूरी होगई । उन्होंने चन्दनवाला के पास जाकर हाथ फैला दिए । सांसारिक वासनाओं से कलुषित हृदय वाली सारथी की स्त्री और मूला जिसे अनाथ, भवारागिर्द और भ्रष्ट समझती थीं, त्रिलोक पूजित भगवान् उसी के सामने मिनुक बन कर खड़े थे।
चन्दनवाला ने आनन्द से पुलकित होकर उड़द केवाकले बहरा दिए । उसी समय आकाश में दुन्दुभि बनने लगी । देवों ने जयनाद किया-सती चन्दनवाला की जय।धनावह के घर फूल और सोनयों की दृष्टि होने लगी। चन्दनवाला की हथकड़ी और वेड़ियाँ आभूषणों के रूप में बदल गई ।साराशरीर दिव्य वस्त्रों से मुशोभित होगया ओर सिर पर कोमल सन्दर ओरलम्ब कशागए। उसी समय वहॉ रत्ननटित दिव्य सिंहासन प्रगट हुआ ।इन्द्र आदि देवों ने चन्दनवाला को उस पर बैठाया और स्वयं स्तुति करने लगे। __ भगवान् महावीर के पारणे की वात विजली के समान सारे नगर में फैल गई। मृला को भी इस बात का पता चला। अपने घर पर सोनयों की दृष्टि हुई जान कर वह भागी हुई आई। घर पहुँचने पर सामने दिव्य वस्त्रालङ्कार पहिन कर सिंहासन पर बैठी हई चन्दनवाला को देख कर वह आश्चर्यचकित रह गई।
मृला को देखते ही चन्दनवाला उसके सामने गई। विनयपूर्वक प्रणाम करके अपने सुन्दर केशों से उसके पैर पोछती हुई कहने लगी- माताजी! यह सब आप के चरणों का प्रताप है। लज्जा के कारण मृला का मस्तक नीचे झुक गया। चन्दनवाला उसका हाथ पकड़कर अन्दरले गई और अपने साथ सिंहासन पर बिठा लिया।
चन्दनवाला की वेड़ियाँ खुलवाने के लिए सेठ लुहार के पास गया हुआ था। उसने भी सारी बातें सुनी, प्रसन्न होता हुआ अपने घर पाया । मूला को चन्दनवाला के साथ बैठी हुई देख कर सेट
65
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, पांचवां भाग
२३३
को क्रोध आ गया। वह मला को डाटने लगा। - चन्दनवाला सेठजी को देखते ही सिंहासन से उतर गई। उन्हें मुला पर क्रुद्ध होते हुए देख कर कहने लगी- पिताजी ! इस में माताजी का कोई दोष नहीं है। प्रत्येक घटना अपने किए हुए का के अनुसार ही घटती है। हमें इनका उपकारमानना चाहिए,जिससे भगवान् महावीर का पारणा हमारे घर हो सका।इन्द्र आदि देवों के द्वारा मुझे मालूम पड़ा कि भगवान् के तेरह बातों का अभिग्रह था। वह अभिग्रह माताजी की कृपा से ही पूरा हुआ है। सेठ का क्रोधशान्त करके चन्दनवालादोनों के साथ सिंहासन पर बैठ गई।
धीरे धीरे शहर में यह बात भी फैल गई कि जो लड़की उस दिन बाजार में विक रही थी, जिसने वेश्या के साथ जाना अस्वी कार किया था और अन्त में धनावह सेठ के हाथ विकी थी वह चम्पानगरी के राजा दधिवाहन और रानी धारिणी की कन्या है। उसी के हाथ से भगवान् महावीर का पारणा हुआ है। - चन्दनवाला को सेठ के पास छोड़ कर अपने घर लौटने के बाद रथी बहुत ही दुखी रहने लगा। उसे वे वीस लाख सोनये . बहुत बुरे लगते थे। उसकी स्त्री उसे विविध प्रकार से खुश करने का प्रयत्न करती किन्तु वे बातें उसे जले पर नमक के समान मालूम पड़ती। पास पड़ोस के लोग भी चन्दनबालाकी सदा प्रशंसा करते। इन सब बातों का रथी की स्त्री पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह सोचने लगी कि चन्दनबाला मुझे ही क्यों बुरी लगती है। सारी दुनिया तो उसकी प्रशंसा करती है। उसे सभी बातों में अपना हीदोष दिखाई देने लगा। पति पर किया गया आक्षेप भी निराधार मालूम पड़ा। धीरे धीरे उसने वेश्या का सुधरना तथा दूसरी बातें भी सुनीं। उसे विश्वास हो गया कि सारा दोष मेरा ही है । मैंने चन्दनवाला के असली रूपको नहीं समझा। उसे बहुत पश्चात्ताप
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
-
होने लगा। चन्दननाला को वापिस लाने का प्रयव व्यर्थ समझ कर उसने निश्चय किया-मैं भी माज से चन्दनबाला के समान ही आचरण करूँगी। उसी के समान घर के सारे काम, नम्रतापूर्ण व्यवहार तथा ब्रह्मचर्य का पालन करूँगी।भोगविलास,वासनाओं तथासभी पुरी बातों से दूर रहूँगी। इन बीस लाख मोहरों को अलग ही पड़ी रहने दूंगी। अपने काम में न लाऊँगी। . . ‘रथी की स्त्री का स्वभाव एक दम बदल गया। उसे देख कर रथी और पड़ोसियों को भाश्चर्य होने लगा।
भगवान महावीर के पारणे की बात सुनकर रथी की स्त्री ने भी चन्दनवाला के दर्शन करने के लिए अपनी इच्छा प्रकट की। रथी को यह जान कर बड़ी प्रसन्नता हुई। दोनों चन्दनवाला के दर्शनों के लिए धनावह सेठ के घर की ओर रवाना हुए।
वेश्या भी सारा हाल सुन कर चन्दनवाला के पास चली। रथी की स्त्री और वेश्या दोनों चन्दनबाला के पास पहुँच कर अपने अपराधों के लिए पश्चात्ताप करने लगीं। चन्दनवालाने सारा दोष अपने कर्मों काबता कर उन्हें शान्त किया। रथी और सेठ भाई भाई के समान एक दूसरे से मिले । रथी की स्त्री और वेश्या ने अपना जीवन सुधारने के लिए चन्दनबाला का बहुत उपकार माना।
राजा शतानीक की रानी ने भी सारी बातें सुनीं। अपनी बहिन की पुत्री के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के लिए उसने अपने पति कोही दोषी समझा। उसने राजाशतानीक कोबुला
: इतिहास से पता चलता है कि दधिवाहन राजा की तीन रानियां थींप्रभया,पद्मावती भौर धारिणी । जिस समय का यह वर्णन है उस समय केवल धारिणी यो । प्रभया मारी गई थी भोर पद्मावती दीक्षा ले चुकी थी। मृगावती मोर पद्मादती दोनों महाराजा चेटक (चेड़ा) की पुपियाँ थीं । वे दोनों सगी वहनें थीं और धारिणी पद्मावती की सपन्नी थी। इसी सम्बन्ध में मृगावती चन्दनवाला की मौसी थी।
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिदान्त पोल संग्रह, पार्षा भाग
२३५
MAA
wwwww
फर कहा-मापके लोभ के कारण कैसा अन्याय हुमा, कितनी निर्दोष तथा पवित्र मात्मानों को भयङ्कर विपत्तियों का सामना करना पड़ा है, यह भाप नहीं जानते। मेरे बहुत समझाने पर भी मापने शान्तिपूर्वक राज्य करते हुए मेरेवानोई राजा दधिवाहन पर चढ़ाई कर दी। फल स्वरूप वे जंगल में चले गए। रानी धारिणी का कोई पता ही नहीं है, उनकी लड़की को भापके किसी रथी ने यहाँलाकर बाजार में बेचा। उसे कितनी बार अपमानित होना पड़ा कितने कष्ट उठाने पड़े, यह आपको पिन्कुल मालम नहीं है। आज उसके हाथ से परम तपस्वी भगवान् महावीर कापारणा हुमा।
जिस राज्य के लिए मापने ऐसा अत्याचार किया, क्या वा मापके माय जायगा ? भापको निरपराध गजा दधिवाहन पर चढ़ाई करने, चम्पा की निर्दोष मजाकोलूटने और मारकाट मचाने काक्या अधिकारथा? मृगावती परम सती थी। उसका तेज इतना चमक रह थाकिशतानीक उसके विरुदकुछ न बोल सका अपनी भूल को स्वीकार करते हुए उसने कहा- मैंने गज्य के लोभ से चम्पा की निर्दोष प्रजा पर अत्याचार किया, यह स्वीकार करता हूँ, लेकिन तुम्हारी बहिन की लड़की से मेरी कोई शत्रुता न थी। दधिवाहन की तरह वह मेरी भी पुत्री है। अगर उसके विषय में मुझे कुछ भी मालूम होता तो उसे किसी प्रकार का कष्ट न उठाना पड़ता। खैर, अब उसे यहॉबुला लेना चाहिए।
शतानीकने उसी समय सामन्तों को बुलाया और चन्दनबाला को सन्मान पूर्वक लाने की प्राज्ञा दी।सामन्त गण पालकी लेकर धनावह सेठ के घर पहुँचे और चन्दनवाला को शतानीक का सन्देश सुनाया। चन्दनवाला ने उत्तर दिया- मैं अब महलों में जाना नहीं चाहती इस लिए भाप मुझे क्षमा करें। मौसाजी और मौसीजी ने मुझे बुला कर जो भपनास्नेह प्रदर्शित किया है उस
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
nwww
के लिए मैं उनकी कृतज्ञ हूँ।
सामन्तों ने बहुत अनुनय विनय की किन्तु चन्दनवालाने पाप से परिपूर्ण राजमहलों में जाना स्वीकार न किया। उसने सामन्तों को समझा बुझा कर वापिस कर दिया। सामन्तों के खाली हाथ वापिस लौट आने पर गजा और रानी ने चन्दनवालाकोलाने के लिए स्वयं जाने का निश्चय किया।
राजा और रानी की सवारी बड़े बड़े सामन्त और उमरावों के साथ धनावह सेठ के घर चली। नगर में बात फैलने से बहुत से नागरिक और सेठ साहूकार भी सवारी के साथ हो लिए।सेठ के घर बहुत बड़ी भीड़ जमा हो गई। पास पहुँचने पर राजा और रानी सवारी से उतर गए।
चन्दनवाला के पास जाकर राजा ने कहा- वेटी ! मुझपापी को क्षमा करो।मैंने भयङ्कर पाप किए हैं। तुम्हारे सरीखी सती को कष्ट में डाल कर महान् अपराध किया है। तुम देवी हो । प्राणियों को क्षमा करने वाली तथा उनके पाप को धो डालने वाली हो। तुम्हारी कृपा से मझ पापी का जीवन भी पवित्र हो जायगा इस लिए महल में पधार कर मुझे कृतार्थ करो।
चन्दनवाला ने दोनों को प्रणाम करके उत्तर दिया- आप मेरे पिता के समान पूज्य हैं । अपराध के कारण मैं आपको अनादरणीय नहीं समझ सकती। आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य हैकिन्तु आप स्वयं जानते हैं कि विचारों पर वातावरण का बहुत प्रभाव पड़ता है। जिन महलों में सदा लूटने खसोटने तथा निरपराधों पर अत्याचार करने का ही विचार होता है उसमें जाना मेरे लिए फैसे उचित हो सकता है। जहाँ का वातावरण मेरी भावना
और विचारों के मर्वथा प्रतिकृल हो वहाँ मैं कैसे जाऊँ? आपके भंज हुए सामन्त भी मेरे लिए आप ही के समान श्रादरणीय हैं।
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २३७ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm मैं उन्हीं के कहने पर आ जाती किन्तु उस दक्षित वातावरण में जाना मैंने ठीक नहीं समझा। चन्दनवाला ने अपना कयन जारी रखते हुए कहा-आप ही बताइए! मेरे पिता का क्या अपराधथा जिससे आपने चम्पा पर चढ़ाई की ? यदि आप को चम्पा का लोभ था तो आप उस पर कब्जा कर लेते। मेरे पिता तो स्वयं ही उसे छोड़ कर चले गए थे। अगर सेना ने आपका सामना किया था तो यह सेना का अपराधथा। निर्दोष मजाने श्रापका क्या बिगाड़ा था जिससे उस पर अमानुषिक अत्याचार किया गया ?
चन्दनवाला की बातों को शतानीक सिर नीचा किए चुपचाप सुन रहा था। उसके पास कोई उत्तर न था।
वह फिर कहने लगी- मैं यह नहीं कहना चाहती कि राजधर्म का त्याग किया जाय, किन्तु राजधर्म प्रजा की रक्षा करना है। उसका विनाश नहीं। क्या चम्पा को लूट फर आपने राजधर्म का पालन किया है ? क्या आप को मालूम है कि आपकी सेना ने , चम्पा के निवासियों पर कैसा अत्याचार किया है? वहाँ के निर्दोष नागरिकों के साथ कैसा पैशाचिक व्यवहार किया है ? क्या आप नहीं जानते कि अन्धे सैनिकों को खुली छुट्टी देदेने पर क्या होता है ? सभ्य नागरिकों को लूटना, खसोटना, मारना, काटना और उनकी बहू बेटियों का अपमान करना ऐसा कोई भी अत्याचार नहीं है जिससे वे हिकचते हों। ___ जब आपका एक स्थी मुझे और मेरी माता को भी दुर्भावना से पकड़ कर जंगल में ले गया तो न मालूम प्रजा की बहू बेटियों के साथ कैसा व्यवहार हुआ होगा ? मेरी माता वीराङ्गना थी, इस लिए सतीत्व की रक्षा के लिए उसने अपने प्राण त्याग दिए और उस रथी को सदा के लिए धार्मिक तथा सदाचारी बना दिया। जिस माता में इतने बलिदान की शक्ति न हो क्या उस पर भत्या
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५
त्रामा०पा मग मन्पनामा
चार होने देना ही राजधर्म है? __ चन्दनाला के मुख से धारिणी की मृत्यु का समाचार सुन कर मृगावती को बहुत दुःख हुमा। वह शोक करने लगी कि मेरे पति के अत्याचार से पीड़ित हो कर कितनी माताओं को अपने सतीत्व की रक्षा के लिए प्राण त्यागने पड़े होंगे। कितनी अपने सतीत्व को खो बैठी होंगी। धिकार है ऐसी राज्यलिप्सा को। चन्दनवाला ने मृगावती को सान्त्वना देते हुए कहा-मेरी माता ने पवित्र उद्देश्य से प्राण दिए हैं। इस प्रकार प्राण देने वाले विरले ही होते हैं। उनके लिएशोक करने की आवश्यकता नहीं है। मैं तो यह कह रही हूँ-जिस राजमहल में चलने के लिए मुझे कहाजा रहा है उसमें किए गए विचारों का परिणाम कैसा भयङ्कर है।
वह फिर कहने लगी- राजा का कर्तव्य है कि वह अपने नगर तथा देश में होने वाली घटनाओं से परिचित रहे। क्ण मापको मालूम है कि आप के नगर में कौन दुग्बी है ? किस पर कैसा अत्याचार हो रहा है ? कैसा अनीतिपूर्ण व्यवहार खुल्लमखुल्ला हो रहा है ? भाप ही की राजधानी में दास दासियों का क्रयविक्रय होता है। क्या भापने कभी इस नीच व्यापार पर ध्यान दिया है ? मैं स्वयं इसी नगर के चौराहे पर बिकी हूँ। मुझे एक वेश्या खरीद रही थी। मेरे इन्कार करने पर उसने बलपूर्वक ले जाना चाहा । बहुत से नागरिक भी उसकी सहायता के लिए तैयार हो गए। अकस्मात् बन्दरों के बीच में भा जाने से वेश्या का उद्देश्य पूरा न हुमा।नहीं तो अपनेशील की रक्षा के लिए मुझे कौनसा उपाय भङ्गीकार करना पड़ता, या कुछ नहीं कहा जा सकता।
भाग्य से रयी को बीस लाख सोनये देकर सेठजी मुझे अपने घरले माए। इन्होंने मुझे अपनी पुत्री के समान रक्खा और आज भगवान महावीर का पारणा हुआ।
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२३६
भाप को इन सब बातों का कुछ भी पता नहीं। महल में बैठ कर भाप मजा पर अत्याचार करने, उसकी गाढ़ी कमाई को लूट कर अपने भोगविलास में लगाने तथा निर्दोष जनता को सताने का विचार करते हैं, प्रजा के दुःख को दूर करने का नहीं । क्या यही राजधर्म है ? क्या यही भापका कर्तव्य है ? क्या कभी भाप ने सोचा है कि पाप का फल हर एक को भोगना पड़ता है ?
जिस महल में रहते हुए भापके विचार ऐसे गन्देहो गए उसमें नाना मुझे उचित प्रतीत नहीं होता। इस लिए क्षमा कीजिए। यहॉ पर रह कर मुझे भगवान् महावीर के पारणे का लाभ प्राप्त हुभा। महलों में यह कभी नहीं हो सकता था।
रानीमृगावतीशतानीक को समय समय पर हिंसामधान कार्यों से बचने तथा प्रजा का पुत्र के समान पालन करने के लिए समझाया करती थी किन्तु उस समय वह न्याय और धर्मका उपहास किया करता था। चन्दनबाला के उपदेश का उस पर गहरा असर पड़ा। उत्तर में वह कहने लगा- हे सती! आपका फहना ययार्थ है। मैंने महान् पाप किए हैं। जनहत्या, मित्रद्रोह भादि बड़े से बड़ा पाप करने में भी मैंने सोच नहीं किया। मैं राजाओं का जन्म युद्ध, दमन, शासन और भोगविलास के लिए मानता था। मेरी ही अव्यवस्था के कारण आपकी माता को प्राण त्यागने पड़े और भापको महान् कष्ट उठाने पड़े। मैं इस बात से सर्वथा अनभिज्ञ था कि मेरी भाज्ञा का इस प्रकार दुरुपयोग होगा। मैंने 'चम्पा को लूटने की आज्ञा दी थी किन्तु स्त्रियों के लूटे जाने, उनका सतीत्व नष्ट होने भादि का मुझे बिल्कुल खयाल न था। मेरी भाशा की भोट में इस भयङ्कर अत्याचार के होने कीवातमुझमाज हीमालूम पड़ी है। इसके लिए मैं ही अपराधी हूँ।
अगर मेरी नगरी में दासदासीके क्रय विक्रय कीप्रथान होती
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाना ~ ~~mmmmmmmmmmmmmmmmmmmwamerrrrrrrrrrrrrrrrr . तो श्रापको क्यों विकना पड़ता ? अगर राजा दधिवाहन के जात ही मैंने उनके परिवार का खयाल किया होतातोश्रापको इतना कष्ट क्यों उठाना पड़ता तथा आपकी माता कोप्राण क्यों त्यागने पढ़ते ? इन सब कार्यों के लिए दोष मेरा ही है। मुझे अपने किए पर पश्चात्ताप हो रहा है। उन पापों के लिए मैं लज्जित हूँ। यह कहते हुए शतानीक की ऑखें डबडवाआई। उसके हृदय में महान् दुःरव हो रहा था।
चन्दनवाला नेशतानीक कोसान्त्वनादेते हुए कहा-पिताजी! पश्चात्ताप करने से पाप कम हो जाता है। आपकी आज्ञा से जिन व्यक्तियों का स्वत्व लूटा गया है,उनका खत्व वापस लौटादीजिए। भविष्य में ऐसा पाप न करने की प्रतिज्ञा कर लीजिए, फिर श्राप पवित्र हो जाएंगे। आज से यह समझिए कि राज्य आपके भोगविलास के लिए नहीं है किन्तु आप राज्य तथा प्रजा की रक्षा करने के लिए हैं। अपने कोशासन करने वाला न मान कर प्रजा की रक्षा तथा उसकी सुरवद्धि के लिए राज्य का भार उठाने वाला सेवक मानिए फिर राज्य आपके लिए पाप का कारण न होगा। अपनी शक्ति का उपयोग दसरों पर अत्याचार करने के लिए नहीं, किन्तु दीन दुखी जनों की रक्षा के लिए कीजिए । शतानीक ने चन्दनबाला की सारी बातें सिर झुका कर मान ली।
इसके साथ साथ आप पुराने सब अपराधियों को जमा कर दीजिए। चाहे वह अपराध उन्होंन आपकी आज्ञा से किया हो या बिना आज्ञाके, किसी को दण्ड मत दीजिए। चन्दनवाला ने सब को अभय दान देने के उद्देश्य से कहा।
शतानीक ने उत्तर दिया-बेटी ! मैं सभी को क्षमा करता हूँ किन्तु जिन अपराधियों ने कुलाननाओं का सतीत्व लूटा है, जिसके कारण आपकी माता को प्राण त्याग और श्रापको महान् कष्ट
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२४१
सहन करने पड़े हैं, उन्हें क्षमा नहीं किया जा सकता। उनका अपराध अक्षम्य है।
चन्दनबाला ने कहा- जिस प्रकार श्रापका अपराध केवल पश्चात्ताप से शान्त होगया इसी प्रकारदसरेअपराधीभी पश्चात्ताप केद्वारा छुटकारा पा सकते हैं। अगर उनके अपराधको अक्षम्य समझ कर मापदण्ड देना आवश्यक समझते हैं तो आपका अपराध भी अक्षम्य है। दण्ड देने से वैर की वृद्धि होती है । इस प्रकार बँधा हुआ वैर जन्म जन्मान्तर तक चला करता है, इस लिए अब सफ के सब अपराधियों को क्षमा कर दीजिए।
शतानीक साहस करके बोला-आप का कहना बिल्कुल ठीक है। मुझे भी दण्ड भोगना चाहिए। श्राप मेरे लिए कोई दण्ड निश्चित कर सकती हैं।
शतानीक को अपने अपराध के लिए दण्ड मांगते देख कर रथी का साहस बढ़ गया। वह सामने आकर कहने लगा-महाराज! धारिणी की मृत्यु और इस सती के कष्टों का कारण मैं ही हूँ। आप मुझे कठोर से कठोर दण्ड दीजिए जिससे मेरी आत्मा पवित्र बने।
रथी के इस कथन को सुन कर सभी लोग दंग रह गए, क्योंकि इस अपराध का दण्ड बहुत भयङ्कर था।
चन्दनवाला रथी के साहस को देख कर मसन होती हुई शतानीक से कहने लगी-पिताजी! अपराधी को दण्ड देने का उद्देश्य अपराध का बदला लेना नहीं होता किन्तु अपराधी के हृदय में उस अपराध के प्रति घृणा उत्पन्न करना होता है। बदलालेने की भावना से दण्ड देने वाला खयं अपराधी बन जाता है। अगर अपराधी के हृदय में अपराध के प्रति खयंघृणा उत्पन्न हो गई हो, वह उसके लिए पश्चात्ताप कर रहा हो और भविष्य में ऐसान करने का निश्चय कर चुका हो तो फिर उसे दण्ड देने की भावश्यकता
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
वहीं रहती, इस लिए न आपको दण्ड लेने की आवश्यकता हैन रथी पिता को। चन्दनवाला ने रथी के सुधरने का सारा वृत्तान्त सुनाया और राजा से कहा- मैं इनकी पुत्री हूँ। मेरे लिए ये, आप और सेठजी तीनों समान रूप से आदरणीय हैं। ये आपके भाई हैं।
शतानीक रथी के साहस पर भाश्चर्य कर रहा था।चन्दनबाला के उपदेश ने उसमें क्रान्ति उत्पन्न कर दी। वह रथी के पास गया
और उसे छाती से लगा कर कहने लगा-आज से तुम मेरे भाई हो। मैं तुम्हारे समस्त अपराध क्षमा करता हूँ।
राजा और एक अपराधी के इस भाईचारे को देख कर सारी जनता आनन्द से गद्गद हो उठी। __ शतानीक ने चन्दनवाला से फिर प्रार्थना की-बेटी! महल तो निर्जीव हैं, इसलिए उनमें किसी प्रकार कादोप नहीं हो सकता।दोप तो मुझ में था, उसी के कारण सारा वातावरण दूषित बना हुआ था। जब मापने मुझे पवित्र कर दिया तो महल अपने आप पवित्र होगए, इसलिए अब आप वहाँपधारिए। आपके पधारने से वातापरण और पवित्र हो जाएगा। - चन्दनवाला ने सेठ से अनुमति लेकर जाना स्वीकार कर लिया। सेठ के आग्रह से राजा, रानी, रथी और रथी की स्त्री ने उसके घर भोजन किया । चन्दनवाला ने तेले कापारणा किया।
राजा, रानी, सेठ, सेठानी, रथी और रथी की स्त्री के साथ चन्दनवाला महल को रवाना हुई। नगर की सारी जनता सती का दर्शन करने के लिए उमड़ पड़ी । चन्दनवाला योग्य स्थान पर रखड़ी रह कर जनता को उपदेश देती हुई राजद्वार पर या पहुंची। चन्दनवाला के पहुँचते ही महलों में धार्मिक वातावरण छा गया। जहाँ पहले लूटमार और व्यभिचार की बातें होती थीं, वहाँ अव घर्यचर्चा होने लगी।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२४३
शतानीक व दधिवाहन को अपना मित्र मानने लगा था। उसके प्रति किए गए अपराध से मुक्त होने के लिए चम्पा का राज्य उसे वापिस सौंपना चाहता था । उसने दधिवाहन को खोज कर सन्मानपूर्वक लाने के लिए आदमी भेजे ।
शतानीक के आदमी खोजते हुए दधिवाहन के पास पहुँचे। उसे नम्रतापूर्वक सारा वृत्तान्त सुनाया। फिर शतानीक की ओर से चलने के लिए प्रार्थना की। धारिणी की मृत्यु सुन कर दधिवाहन को बहुत दु:ख हुआ, साथ ही चन्दनबाला के आदर्श कार्यों से प्रसन्नता । वह वन में रह कर त्यागपूर्वक अपना जीवन बिताना चाहता था। राज्य के भार को दुबारा अपने ऊपर न लेना चाहता था फिर भी शतानीक के सामन्तों का बहुत व्याग्रह होने के कारण शतानीक द्वारा भेजे हुए वाहन पर बैठ कर वह कौशाम्बी की ओर चलां ।
राजा दधिवाहन का स्वागत करने के लिए कौशाम्बी को विविध प्रकार से सजाया गया । उनके श्राने का समाचार सुन कर हर्षित होता हुआ शतानीक अपने सामन्त सरदारों के साथ अगवानी करने के लिए सामने गया । समीप आने पर दोनों अपनी अपनी सवारी से उतर गए। शतानीक दधिवाहन के पैरों में गिर कर अपने अपराधों के लिए बार वार क्षमा मांगने लगा । दधिवाहन ने उसे उठा कर गले से लगाया और सारी घटनाओं को कर्मों की विडम्वना बता कर उसे शान्त किया। दोनों शत्रुओं में चिर काल के लिए प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो गया। इसमें शतानीक या दधिवाहन की विजय न थी किन्तु शत्रुता पर मित्रता की और पाप पर धर्म की विजय थी ।
सती चन्दनबाला के पिता राजा दधिवाहन के आगमन की बात भी छिपी न रही । उनका दर्शन करने के लिए आई हुई जनता से सारा मार्ग भर गया । दधिवाहन और शतानीक को
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला wwimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
एक साथ आते देख कर जनता जयनाद करने लगी। __ महल में पहुँच कर शतानीक ने दधिवाहन को ऊँचे सिंहासन पर बैठाया । प्रसन्न होती हुई चन्दनवाला पिता से मिलने आई। पास आकर उसने विनय पूर्वक प्रणाम किया। चन्दनबाला को देखकर दधिवाहन गद्गद् हो उठा। कंठ रुंध जाने से वह एक भीशब्द न बोल सका।साथ में उसे लज्जा भी हुई कि जिस वसुमती को वह असहाय अवस्था में छोड़ कर चला गया था उसने अपने चरित्र वल से सबको सुधार दिया। धारिणी के प्राण त्याग और चन्दनबाला की दृढ़ता के सामने वह अपने को तुच्छ मानने लगा।
शतानीक को राज्य से घृणाहोगई थी, इसलिए उसने दधिगाहन से कहा- मैंने अबतक अन्यायपूर्ण राज्य किया है। न्याय से राज्य कैसे किया जाता है, यह मैं नहीं जानता, इस लिए श्राप चम्पा और कौशाम्बी दोनों राज्यों को सम्भालिए । मैं आपके नीचे रह कर प्रजा की सेवा करना सीलूँगा।
दधिवाहन ने उत्तर दिया- न्यायपूर्ण शासन करने के लिए हृदय पवित्र होना चाहिए। भावना के पवित्र होने पर ढंग अपने श्राप पा जाता है। मैं वृद्ध हो गया हूँ इस लिए दोनों राज्य आप ही सम्भालिए।
जिस राज्य के लिए घोर अत्याचार तथा महान् नरसंहार हुभा वही एक दूसरे पर इस प्रकार फैंका जा रहा था, जैसे दो खिलाड़ी परस्पर फन्दुक (गेंद) को फेंकते है। चन्दनवाला यह देख कर हर्पित हो रही थी कि धर्म की भावना किसमकार मनुष्य को राक्षस से देवता बना देती है।
मन्त में चन्दनवाला के कहने पर यह निर्णय हुआ कि दोनों को अपना अपना राज्य वयं मम्भालना चाहिए। दोनों राज्यों का भार किसी एक पर न पड़ना चाहिए।
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांच भाग २४५
बड़े समारोह के साथ दधिवाहन का राज्याभिषेक हुआ । दधिवाहन को दुबारा प्राप्त कर चम्पा की प्रजा को इतना हर्ष हुआ जितना बिछुड़े हुए पिता को पाकर पुत्र को होता है। कौशाम्बी और चम्पा दोनों राज्यों का स्थायी सम्बन्ध हो गया । किसी के हृदय में वैर और शत्रुता की भावना नहीं रही। सब जगह अखण्ड प्रेम और शान्ति स्थापित हो गई। सती चन्दनवाला ने चम्पा के उद्धार के साथ साथ सारे संसार के सामने प्रेम और सतीत्व का महान् आदर्श स्थापित कर दिया ।
शतानीक और दधिवाहन में इतना प्रेम हो गया था कि उन दोनों में से कोई एक दूसरे से अलग होना नहीं चाहता था। चम्पा का अधिपति होने पर भी दधिवाहन प्रायः कौशाम्बी में ही रहने लगा। कुछ दिनों बाद उसे चन्दनवाला के विवाह की चिन्ता हुई। शतानीक और मृगावती ने भी चन्दनबाला का विवाहोत्सव देखने की इच्छा प्रकट की, फिर भी उससे बिना पूछे वे कुछ निश्चय नहीं कर सकते थे । एक दिन मृगावती ने दधिवाहन और शतानीक की उपस्थिति में चन्दनबाला के सामने विवाह का प्रस्ताव रक्खा । चन्दनबाला श्राजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए पहले ही निश्चय कर चुकी थी । उसके मन में और भी उच्च भावनाएं थी । इस लिए उसने मृगावती के प्रस्ताव का नम्रतापूर्वक ऐसा विरोध किया जिससे उन तीनों में से कोई कुछ न बोल सका । सब सुख साधनों के होते हुए यौवन के प्रारम्भ में ब्रह्मचर्य पालन की कठोर प्रतिज्ञा का उन तीनों पर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने भी याकज्जीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया।
राज्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए चम्पा में रहना आवश्यक समझ कर कुछ दिनों बाद दधिवाहन चम्पा चला गया किन्तु चन्दनबाला कौशाम्बी में ही ठहर गई । भगवान् महावीर को
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
केवलज्ञान होने पर वह उनके पास दीक्षा लेना चाहती थी ।
कुछ दिनों बाद वह अवसर उपस्थित हो गया जिसके लिए चन्दनवाला प्रतीक्षा कर रही थी । श्रमण भगवान् महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । संसार का कल्याण करने के लिए वे ग्रामानुग्राम विचरने लगे । चन्दनबाला को भी यह समाचार मिला। उसे इतना आनन्द हुआ जितना प्यासे चातक को वर्षा के आगमन पर होता है। शतानीक और मृगावती से माझा लेकर वह भगवान् के पास दीक्षा लेने के लिए चली । कौशाम्बी की जनता ने आँखों में आँसू भर कर उसे विदा दी । चन्दनवाला ने सभी को भगवान् के बताए हुए मार्ग पर चलने का उपदेश दिया । कौशाम्बी से रवाना होकर वह भगवान् के समवसरण में पहुँच गई। देशना के अन्त में उसने अपनी इच्छा प्रकट की। सांसारिक दुःखों से 'छुटकारा देने के लिए भगवान् से प्रार्थना की।
२४६
भगवान् ने चन्दनबाला को दीक्षा दी। स्त्रियों में सर्व प्रथम दीक्षा लेने वाली चन्दनबाला थी। उसी से साध्वी रूप तीर्थ का प्रारम्भ हुआ था, इस लिए भगवान् ने उसे साध्वी संघ की नेत्री वनाया ।
यथासमय मृगावती ने भी दीक्षा ले ली। वह चन्दनवाला की शिष्या वनी । धीरे धीरे काली, महाकाली, सुकाली आदि रानियों ने भी चन्दनबाला के पास संयम अङ्गीकार कर लिया । छत्तीस हजार साध्वियों के संघ की मुख्या वन कर वह लोक कल्याण के लिए ग्रामानुग्राम विचरने लगी। उसके उपदेश से अनेक भव्य प्राणियों ने प्रतिबोध प्राप्त किया तथा श्रावक या साधु के व्रत को अंगीकार कर जन्म सफल किया । बहुत लोग मिथ्यात्व को छोड़ कर सत्य धर्म पर श्रद्धा करने लगे।
एक बार श्रमण भगवान् महावीर विचरते हुए कौशाम्बी पधारे। चन्दनवाला का भी अपनी शिष्याओं के साथ वहीं आगमन हुआ ।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२४७
एक दिन मृगावती अपनी गुरुआनी सती चन्दनवाला की आज्ञा लेकर भगवान के दर्शनार्थ गई। वापिस लौटते समय रास्ते में भीड़ होने के कारण उसे बहुत देर खड़ी रहना पड़ा। इतने में रात हो गई। मृगावती अँधेरा होजाने पर उपाश्रय में पहुँची । वहाँ आकर उसने चन्दनवाला को वन्दना की । प्रवर्तिनी होने के कारण उसे उपालम्भ देते हुए चन्दनबाला ने कहा-साध्वियों को सूर्यास्त के बाद उपाश्रय के बाहर न रहना चाहिए।
मृगावती अपनादोष स्वीकार करके उसके लिए पश्चात्ताप करने लगी। समय होने पर चन्दनवाला तथा दूसरी साध्वियों अपने अपने स्थान पर सो गई, किन्तु मृगावती बैठी हुई पश्चात्ताप करती रही। धीरे धीरे उसके घाती कर्म नष्ट हो गए। उसे केवलज्ञान होगया। __ अँधेरी रात थी। सब सतियाँ सोई हुई थीं। उसी समय मृगावती ने अपने ज्ञान द्वारा एक काला सांप देखा। चन्दनवाला का हाथ सांप के मार्ग में था। मृगावती ने उसे अलग कर दिया। हाथ के छूए जाने से चन्दनबाला की नींद खुल गई। पूछने पर मृगावती ने सांपकी बात कह दी और निद्रा भंग करने के लिए क्षमा मांगी।
चन्दनबालाने पूछा-अंधेरे में आपनेसाँप को कैसे देख लिया?
मृगावती ने उत्तर दिया- आपकी कृपा से मेरे दोष नष्ट हो गए हैं, इस लिए ज्ञान की ज्योति प्रकट हुई है।
चन्दनबाला-पूणे या अपूर्ण ? मृगावती-आपकी कृपा होने पर अपूर्णता कैसे रह सकती है?
चन्दनवाला-तब तो आपको केवलज्ञान प्राप्त हो गया है। विना जानेमुझसे आपकी पाशातना हुई है। मेरा अपराध क्षमा कीजिए।
चन्दनवाला ने मृगावती को वन्दना की। केवली की आशातना के लिए वह पश्चात्ताप करने लगी। उसी समय उसके घाती कम नष्ट हो गए। वह भी केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर सर्वज्ञ
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
wwwwwwwwwwwwwww और सर्वदर्शी बन गई। ___ केवलज्ञानी होने के बाद सती चन्दनबाला और सती मृगावती विचरविचरकर जनताका कल्याण करने लगीं। सतीचन्दनवाला की छत्तीस हजार साध्वियों में से एक हजार चार सौ साध्वियों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
भायुष्य पूरी होने पर एक हजार चार सौसाध्वियाँ शेष कर्मों को खपा कर शुद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गई।
चन्दनवाला को धारिणी का उपदेश शान्ति-समर में कभी भूल कर धैर्य नहीं खोना होगा । गज-प्रहार भले हो सिर पर किन्तु नहीं रोना होगा ।। अरि से बदला लेने का मन बीज नहीं बोना होगा। घर में कान तूल देकर फिर तुझे नहीं सोना होगा। देश-दाग को रुधिर-वारि से हर्षित हो धोना होगा । देश-कार्य की भारी गठडी सिर पर रख ढोना होगा । अखे लाल, भवें टेढी कर क्रोध नहीं करना होगा । बलि-वेदी पर तुझे हर्ष से चढ़ कर कट मरना होगा। नश्वर है नर-देह, मौत से कभी नहीं डरना होगा। सत्य-मार्ग को छोड स्वार्थ-पथ पर पैर नहीं घरना होगा। होगी निश्चय जीत धर्म की, यही भाव भरना होगा । मातृभूमि के लिये, हर्ष से जीना या मरना होगा । (पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराज के व्याख्यानों में माए हुए सती चन्दनबाला चरित्र के माधार पर।)
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, पांचवां भाग
२४९
(४) राजीमती
___रघुवंश तथा यदुवंशभारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता
के उत्पत्तिक्षेत्र थे। उन्हीं का वर्णन करके संस्कृत कवियों ने अपनी लेखनी को अमर बनाया। उन्हीं दो गिरिशृङ्गों से भारतीय साहित्य गंगा के दिव्य स्रोत बहे।
जिस प्रकार रघुवंश के साथ अयोध्या नगरीकाअमर सम्बन्ध है उसी प्रकार यदुवंश के साथ द्वारिका नगरीका । रघुवंश में राम सरीखे महापुरुष और सीता सरीखी महासतियाँ हुई और यदुवंशकामस्तक भगवान् अरिष्टनेमि तथा महासतीराजीमती सरीखी महान् भात्माओं के कारण गौरवोन्नत है। __उसी यदुवंश में श्रन्धकवृष्णि और भोजष्णि नाम के दो प्रतापी राजा हुए। अन्धकवृष्णिशौरिपुर में राज्य करते थे और भोजवृष्णि मथुरा में। महाराज अन्धकप्णि के समुद्रविजय, वसुदेव भादि दस पुत्र थे जिन्हें दशाह कहा जाताथा। उनमें से सबसे बड़े महाराज समुद्रविजय के पुत्र भगवान् अरिष्टनेमि हुए । इनकी माता का नाम शिवादेवी था।महाराज वसुदेव के पुत्र कृष्ण वासुदेव हुए। इनकी माता का नाम देवकी था। भोजवृष्णि के एक भाई मृत्तिकावती नगरी में राज्य करते थे। उनके पुत्र का नाम देवकथा। देवकी इनकी पुत्री थी। भोजदृष्णि के पुत्र महाराज उग्रसेन हुए। उग्रसेन की रानी धारिणी के गर्भ सेराजीमती का जन्म हुआथा। राजीमती रूप, गुण औरशील सभी में अद्वितीय थी।
धीरे धीरे वह विवाह योग्य हुई। माता पिता को योग्य वर की चिन्ता हुई। वे चाहते थे, राजीमती जैसी सुशील तथा मुन्दर है उसके लिए वैसा ही वर खोजना चाहिए। इसके लिए उन्हें
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
नेमिकुमार के सिवाय कोई व्यक्ति उपयुक्त नहीं जान पड़ता था किन्तु नेमिकुमार विवाहहीन करना चाहतेथे। बचपन से ही उन का मन संसार से विरक्त था। यादवों के भोगविलास उन्हें अच्छे नलगते थे। हिंसा पूर्ण कार्यों से स्वाभाविक अरुचिथी। इस कारण महाराज उग्रसेन को चिन्ता हो रही थी कि कहीं राजीमती का विवाह उसके अननुरूप वर से न करना पड़े।। __ महाराज समुद्रविजय और महारानी शिवा देवी भी नेमिकुमार का विवाहोत्सव देखने के लिये उत्कण्ठितथे किन्तु नेमिकुमार की स्वीकृति के बिना कुछ न कर सकते थे। एक दिन उन्होंने नेमिकुमार से कहा- वत्स ! हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि आप सीर्थकर होने वाले हैं। तीर्थङ्करों का जन्म जगत्कल्याण के लिये ही होता है। यह हर्ष की बात है कि आप के द्वारा मोह में फंसे हुए भव्य प्राणियों का उद्धार होगा। किन्तु आपसे पहले भी बहुत से तीर्थङ्कर हो चुके हैं, उन्होंने विवाह किया था, राज्य किया था
और फिर संसार त्याग कर मोक्ष मार्ग को अपनाया था। हम यह नहीं चाहते कि श्राप सारी उम्र गृहस्थ जीवन में फंसे रहें । हमारे चाहने से ऐसा हो भी नहीं सकता क्योंकि आप तीर्थङ्कर हैं। भव्य प्राणियों का उपकार करने के लिए उनके शुभ कर्मों से प्रेरित होकर आप अवश्य संसार कात्याग करेंगे। किन्तु यह कार्य आप विवाह के बाद भी कर सकते हैं। हमारी अन्तिम अभिलाषा है कि हमें आपका विवाहोत्सव देखने का अवसर प्राप्त हो।क्या माता पिता के इस मुख स्वम को आप पूरा न करेंगे? __कुमार नेमिनाथ अपनी स्वाभाविक मुस्कान के साथ सिर नीचा किए माता पिता की बातें सुनते रहे । वे मन में सोच रहे थे कि संसार में कितना भज्ञान फैला हुआ है । भोले प्राणी अपनी सन्तान को विवाह बन्धन में डालने के लिए कितने उत्सुक रहते
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२५१
१ उसे ब्रह्मचर्य के उच्च आदर्श से गिराने में कितना सुख मानते हैं ? इनकी दृष्टि में ब्रह्मचर्य जीवन जीवन ही नहीं है। संसार में समझदार और बुद्धिमान कहे जाने वाले मनुष्य भी ऐसे विचारों से घिरे हुए हैं। मेरे लिए इस विचारधारा में वह जाना श्रेयस्कर नहीं है । मैं दुनिया के सामने त्याग और ब्रह्मचर्य का उच्च आदर्श रखना चाहता हूँ किन्तु इस समय माता पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना या मान लेना दोनों मार्ग ठीक नहीं हैं । यह सोच कर उन्होंने बात को टालने के अभिप्राय से कहा- आप लोग धैर्य रक्खें। अभी विवाह का अवसर नहीं है। अवसर थाने पर देखा जाएगा। समुद्र विजय और शिवादेवी इसके आगे कुछ न बोल सके। वे उस दिन की प्रतीक्षा करने लगे जिस दिन कुमार नेमिनाथ दूल्हा बनेंगे। सिर पर मौर बॉध कर विवाह करने जायेंगे |
/
समुद्रविजय और शिवादेवी कुमार नेमिनाथ से विवाह की स्वीकृति लेने का प्रयत्न कई बार कर चुके थे किन्तु कुमार सदा टालमटोल कर दिया करते थे । अन्त में उन्होंने श्रीकृष्ण से सहायता लेने की बात सोची । एक दिन उन्हें बुला कर कहा - वत्स ! तुम्हारे छोटे भाई अरिष्टनेमि पूर्ण युवक हो गए हैं। वे अभी तक अविवाहित ही हैं । हमने उन्हें कई बार समझाया किन्तु वे नहीं मानते । तीन खण्ड के अधिपति वासुदेव का भाई अविवाहित रहे यह शोभा नहीं देता । इस विषय में आप भी कुछ प्रयत्न कीजिए ।
श्रीकृष्ण ने प्रयत्न करने का वचन देकर समुद्रविजय और शिवादेवी को सान्त्वना दी। इसके बाद वे अपने महल में आकर कोई उपाय सोचने लगे । उन्हें विचार में पड़ा देख कर सत्यभामा ने चिन्ता का कारण पूछा। विवाह सम्बन्धी वातों में स्त्रियॉ विशेष चतुर होती हैं, यह सोच कर श्रीकृष्ण ने सारी बात कह दी ।
उन दिनों वसन्त ऋतु थी । वृक्ष नए फूल और पत्तों से लदे
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला mmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
मूल्य वस्त्राभूषण पहिन कर अपने अपने वाहन पर सवार हुए। प्रस्थान समय के मंगलवाद्यवजने लगे। गायक मंगल गीत गाने लगे। भगवान् अरिष्टनेमि को दल्हे के रूप में सजाया जाने लगा। उन्हें विविध प्रकार की औषधियों तथा दूसरे पदार्थों से युक्त सुगन्धित पानी से स्नान कराया गया। उज्ज्वल वेश और आभूपण पहनाए गए। वर के वेश में नेमिकुमारकामदेव के समान सुन्दर
और सूर्य के समान तेजस्वी मालूम पड़ने लगे। उन्हें देख कर समुद्रविजय और शिवादेवी के हर्ष का पार न था।
नेमिकुमार के बैठने के लिए श्रीकृष्ण का प्रधान गन्ध हस्ती रत्ननटित आभूषणों से सजाया गया। अनेक मंगलोपचारों के साथ वे हाथी पर विराजे । उन पर छत्र सुशोभित हो गया । चँवर हुलाएं जाने लगे। - वरात में सव से आगे चतुरंगिणी सेनावाजा बजाते हुए चल रही थी। उसके पीछे मंगल गायक और वन्दीजनों का समूह था। इसके बाद हाथी और घोड़ों पर प्रमुख अतिथि अर्थात् पाहुने सवार थे। उनके पीछे कुमार नेमिनाथ का हाथी था। दोनों ओर घोड़ों पर सवार अंगरक्षक थे। सबसे पीछे समुद्रविजय, वसुदेव,श्रीकृष्ण मादि यादव नरेश और सेना थी। शुभमुहूर्त में मंगलाचार के बाद वरातने प्रस्थान किया। झूमते हुए मतवाले हाथियों, हिनहिनाते हुए घोड़ों,गुजते हुए नगारों और फहराते हुए झण्डों के साथपृथ्वीको कम्पित करती हुईवरात मथुरा की ओर रवाना हुई। __ जबवरात मथुरा के पास पहुंच गई,महाराज उग्रसेन अपने परिवार तथा सेना के साथ अगवानी (सामेला) करने के लिए पाए।
राजीमती के हृदय में अपार हर्ष हो रहा था। सखियाँ उसका शृङ्गार कर रही थीं। वे उससे विविध प्रकार का मजाक कर रही थीं। इतने में राजीमती की दाहिनी आँख फड़कने लगी। साथ में
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २५५ rrrrmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm . दूसरेदाहिने भङ्ग भी फड़कने शुरू हुए । मनुष्य को जितना अधिक हर्प होता है वह विघ्नों के लिए उतना ही अधिक शङ्काशील रहता है। राजीमती के हृदय में भी किसी अज्ञात भय ने स्थान कर लिया। उसने अङ्ग फड़कने की बात सखियों से कही। सखियों ने कई प्रकार से समझाया किन्तु राजीमती के हृदय से सन्देह दूर न हुआ। .
धन,शारीरिक बल या बुद्धि मात्र से कोई महापुरुष नहीं बनता। वास्तविक बड़प्पन का सम्बन्ध आत्मा से है। जिस व्यक्ति की आत्मा जितनी उन्नत तथा बलवान् है वह उतना ही बड़ा है। दूसरे के दुःरवों को अपना दुःख समझना, प्राणी मात्र से मित्रता रखना, हृदय में सरलता तथा सहृदयता का वास होना महापुरुपों के लक्षण हैं। महापुरुष सांसारिक भोगों में नहीं फँसते। __भगवान् अरिष्टनेमिकी वरात तोरणद्वार की ओर आरही थी। धीरे धीरे उस बाड़े के सामने पहुंच गई जिसमें मारे जाने वाले पशु पक्षी बंधे थे । वन्धन मे पड़ने के कारण वे विविध प्रकार से करुण क्रन्दन कर रहे थे। सारी वरात निकल गई किन्तु किसी का ध्यान उन दीन पशुओं की ओर न गया। सांसारिक भोगों में अन्धे बने हुए व्यक्ति दूसरे के सुख दुःख को नहीं देखते। अपनी क्षणिक तप्ति के लिए वे सारी दुनिया को भूल जाते हैं।
क्रमशः कुमार नेमिनाथ का हाथी वाड़े के सामने आया। पशुओं का विलाप सुन कर उनका हृदय करुणा से भर गया।
भगवान् ने सारथी से पूछा- इन दीन पशुओं को बन्धन में क्यों डाला गया है ?
सारथी ने उत्तर दिया-प्रभो! ये सवमहाराज उग्रसेन ने श्राप के विवाह में भोज देने के लिए इकहे किए हैं। यादवों का भोजन मांस के विना पूरा नहीं होता।
भगवान् ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा- मेरे विवाह में मांस
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
भोजन ! जिहा की क्षणिक तृप्ति के लिए इतनी बड़ी हत्या ! मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए कितना अन्धा हो जाता है ? अपनी क्षणिक लालसा के लिए हजारों प्राणियों का जीवन लेते हुए भी नहीं हिचकता । भला इन दीन अनाथ पशुओं ने किसी का क्या बिगाड़ा है ? फिर इन्हें बन्धन में क्यों डाला जाय ? इनके प्राण क्यों लिए जायँ ? क्या मनुष्य को अपनी इच्छातृप्ति के लिए दूसरों के मारण लेने का अधिकार है ? क्या यह न्याय है कि सवल निर्बल के माण ले ले ? क्या यह मानवता है ? नहीं, यह मानवता के नाम पर अत्याचार है । भयङ्कर अन्याय है । मेरा जीवन संसार में न्याय और सत्य की स्थापना के लिए है । फिर मैं अपने ही निमित्त से होने वाले इस अन्याय का अनुमोदन कैसे कर सकता हूँ ? मैं श्रहिंसाधर्म की प्ररूपणा करने वाला हूँ, फिर हिंसा को श्रेयस्कर कैसे मान सकता हूँ ?
भगवान् की इच्छा देख कर सारथी ने सभी प्राणियों को बन्धन मुक्त कर दिया। आनन्दित होते हुए पक्षी श्राकाश में उड़ गए। पशु वन की ओर भागे। भगवान् द्वारा अभयदान मिलने पर उन के हर्ष का पारावार न रहा ।
भगवान् ने प्रसन्न होकर अपने बहुमूल्य आभूषण सारथी को पारितोषिक में दे दिए और कहा- सखे ! हाथी को वापिस ले चलो। जिसके लिए इस प्रकार का महारम्भ हो ऐसा विवाद मुझे पसन्द नहीं है । सारथी ने हाथी को वापिस मोड़ लिया। वरात बिना वर की हो गई। चारों ओर खलबली मच गई।
महल की खिड़की से राजीमती यह दृश्य देख रही थी। उसके हृदय की आशङ्का उत्तरोत्तर तीव्र हो रही थी । नेमिकुमार के हाथी को वापिस होते देख कर वह बेहोश होकर गिर पड़ी । दासियाँ और सखियाँ घबरा गई।
२५६
MAA vvv
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पivji ar
२५७
नेमकुमार का हाथी वापिस जा रहा था। कृष्ण वामुदेव महाराज समुद्रविजय तथा यदुवंश के सभी बड़े बड़े व्यक्ति उन्हें समझाने आए किन्तु कुमार नेमिनाथ अपने निश्चय पर भटल थे। वे सांसारिक भोग बिलासों को छोड़ने का निश्चय कर चुके थे। उन्होंने मार्मिक शब्दों में कहना शुरू किया
मुझे राजीमती से द्वेष नहीं है । जो व्यक्ति संसार के सभी प्राणियों को सुखी बनाना चाहता है वह एक राजीमती को दुःख में कैसे डाल सकता है। किन्तु मोह में पड़े हुए संसार के भोले प्राणी यह नहीं समझते कि वास्तविक सुख कहाँ है । क्षणिक भोगों के दास वन कर इन्द्रिय विषयों के गुलाम होकर वे तुच्छ वासनाओं की तृप्ति में ही सुख मानते हैं। उन्हें यह नहीं मालूम कि ये ही इन्द्रिय विषय उनके लिए बन्धन स्वरूप हैं । परिणाम में बहुत दुःख देने वाले हैं।
1
संसार में दो प्रकार की वस्तुएं हैं- श्रेय और मेय। जो वस्तुएं इन्द्रियों और मन को प्रिय लगती हैं किन्तु परिणाम में दुःख देने वाली हैं वे मे कही जाती हैं । जिनसे आत्मा का कल्याण होता है, इन्द्रियां और मन वाह्य विषयों की ओर जाने से रुक जाते हैं उन्हें श्रेय कहा जाता है । इन्द्रिय और मन के दास वने हुए भाले प्राणीप्रेय वस्तु को अपनाते हैं और अनन्त संसार में रुलते हैं । इस के विपरीत विवेकी पुरुष श्रेय वस्तु को अपनाते हैं और उसके द्वारा मोक्ष के नित्य सुख को प्राप्त करते हैं।
1
भगवान् श्ररिष्टनेमि की बातों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि एक हजार यादव संसार को बन्धन समझ कर उन्हीं के साथ दीक्षा लेने को तैयार होगए । श्रीकृष्ण और समुद्रविजय वगैरह प्रमुख यादव भी निरुत्तर होगए और उन्हें रोकने का प्रयत्न छोड़ कर अलग होगए। भगवान् नेमिनाथ सारी बरात को छोड़ कर अपने महल की ओर रवाना हुए।
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८
भी मेठिया चैन प्रथमाला
भगवान् के जाते ही बरातियों की सारी उमंगें हवा हो गई। सभी के चेहरे पर उदासी छा गई। चाँद के छिप जाने पर जोदशा रात्रि की होती है वही दशा नेमिनाथ के चले जाने पर बरात की हुई । महाराज उग्रसेन की दशा और भी विचित्र हो रही थी। उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था कि इस समय क्या करना चाहिए। ___ उस समय राजीमती के हृदय की दशा अवर्णनीय थी। नेमिकुमार के हाथी को अपने महल की भोर आते देख कर उसने सोचा था- मैं कितनी भाग्यशालिनी हूँ ! त्रिलोकपूज्य भगवान् स्वयं मुझे वरने के लिए आरहे हैं। मैं यादवों की कुलवधृवनेगी। महाराजा समुद्रविजय और महारानी शिवादेवी मेरे श्वसुर और सास होंगे। मुझ से बढ़ कर सुखी संसार में कौन है ?
राजीमती अपने भावी सुखों की कल्पनाओं से मन ही मन खुश होरही थी, इतने में उसने नेमिकुमार को वापिस लौटते देखा । वह इस आघात को न सह सकी और मूच्छित होकर गिर पड़ी। चेतना आते ही सारा दुःख वाहर उमड़ आया। वह अपना सर्वस्व नेमिकुमार के चरणों में अर्पित कर चुकी थी, उन्हें अपना आराध्य देव मान चुकी थी । जीवन नैया की पतवार उनके हाथों में सौंप चुकी थी। उनके विमुख होने पर वह अपने को सूनी सी, निराधारसी, नाविक रहित नौकासी मानने लगी। जिस प्रकार सूर्य और दिन का सतत सम्बन्ध है, राजीमती उसी प्रकार नेमिकुमार और अपने सम्बन्ध को मान चुकी थी। सूर्य के विना दिन के समान नेमिकुमार के बिना वह अपना कोई अस्तित्व ही न समझती थी।
सखियाँ कहने लगीं-अभी कौनसा विवाह हो गया है? उन से भी अच्छा कोई दसरा वर मिल जाएगा।
राजीमती ने उत्तर दिया- विवाह क्या होता है ? क्या अग्नि प्रदक्षिणा देने से ही विवाह होता है ? मेरा विवाह तो उसी दिन
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
मी जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२५६
हो चुका जिस दिन मैंने अपने हृदय में नेमिकुमार को पति मान लिया। उस दिन से मैं उनकी हो चुकी। उनके सिवाय सभी पुरुष मेरे लिए पिता और भाई के समान हैं। कुमार स्वयं भी मुझे अपनी पनी वनाना स्वीकार करके ही यहाँ आए थे। मुझे इस बात का गौरव है कि उन्होंने मुझे अपनी पत्नी बनाने के योग्य समझा। संसार की सारी स्त्रियों को छोड़ कर मुझे ही यह सन्मान दिया। __यह भी मेरे लिए हर्प की बात है कि वे संसार के प्राणियों को अभय दान देने के लिए ही वापिस गए हैं। अगर वे मुझे छोड़ कर किसी दूसरी कन्या से विवाह करने जाते तो मेरे लिए यह भपमान की बात होती किन्तु उन्होंने अपने उस महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए विवाह बन्धन में पड़ना उचित नहीं समझा। यह तो मेरे लिए अभिमान की बात है कि मेरे पति संसार का कल्याण करने के लिए जा रहे हैं। दुःख केवल इतना ही है कि वे मुझे विना दर्शन दिए चले गए। अगर विवाह हो जाने के बाद वे मुझे भी अपने साथ ले चलते और मुक्ति के मार्ग में अग्रसर होते हुए मुझे भी अपने साथ रखते तो कितना अच्छा होताक्या मैं उनके पथ में बाधा डालती ? किन्तु नेमिकुमार एक बार मुझे अपना चुके हैं। अपने चरणों में शरण दे चुके हैं। महापुरुष जिसे एक बार शरण दे देते हैं फिर उसे नहीं छोड़ते । नेमिकुमार भी मुझे कभी नहीं छोड़ सकते।संसार के प्राणियों को दुःख से छुड़ाने के लिए उन्होंने सभी भौतिक सुखों को छोड़ा है । ऐसी दशा में वे मुझे दुःख में कैसे छोड़ सकते हैं ? मेरा अवश्य उद्धार करेंगे।
राजीमती में स्त्रीहृदय की कोमलता,महासती की पवित्रता और महापुरुषों सी वीरता का अपूर्व सम्मिश्रण था। उसकी विचार धारा कोमलता के साथ उठ कर दृढ़ता के रूप में परिणत हो गई। उसे पका विश्वास हो गया कि नेमिकुमार अवश्य आएंगे और
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन प्रथमाला
ANANNNNN
मेरा उद्धार करेंगे। भगवान् के गुणगान और उन्हीं के स्मरण में
लीन रहती हुई वह उस दिन की प्रतीक्षा करने लगी। ___ भगवान् अरिष्टनेमि के छोटे भाई का नाम रथनेमि था । एक ही माता पिता के पुत्र होने पर भी उन दोनों के स्वभाव में महान् अन्तर था । नेमिनाथ जिन वस्तुओं को तुच्छ समझते थेरथनेमि उन्हीं के लिए तरसते थे। इन्द्रियों को तृप्त करना,सांसारिक विषयों का सेवन करना तथा कामभोगों को भोगनाही वे अपने जीवन का ध्येय मानते थे। ___ उन्होंने राजीमती के सौन्दर्य और गुणों की प्रशंसासन रक्खी थी। वे चाहते थे कि राजीमती उन्हें ही प्राप्त हो किन्तु अरिष्टनेमिके साथ उसके विवाह का निश्चय हो जाने पर मन मसोस कर रह गए। अरिष्टनेमि विवाह नहीं करेंगे इस निश्चय को जान कर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उनके हृदय में फिर आशा का संचार हुश्रा और राजीमती को प्राप्त करने का उपाय सोचने लगे।
इस कार्य के लिए रथनेमि ने एक दूती को राजीमती के पास । भेजा। पुरस्कार के लोभ में पड़ कर दूती राजीमती के पास गई। एकान्त अवसर देख कर उसनेरथनेमि की इच्छा राजीमती के सामने प्रकट की और विविध प्रकार से उसे सांसारिक सुखों की ओर आकृष्ट करके यह सम्बन्ध स्वीकार करने का आग्रह किया। उसने रथनेमि के सौन्दर्य,वीरता, रसिकता आदि गुणों की प्रशंसा की। विषयसखों की रमणीयता का वर्णन किया और राजीमती से फिर कहा-आपको सब प्रकार के सुख प्राप्त हैं। शारीरिक सम्पत्ति है, लक्ष्मी है, प्रभुता है। रथनेमि सरीखे सुन्दर और सहृदय राज कुमार आपके दास बनने को तैयार हैं। मानव जीवन और सब प्रकार के सांसारिक सुखों को प्राप्त करके उन्हें व्यर्थ जाने देना बुद्धिमत्ता नहीं है। अतःइस प्रस्ताव को स्वीकार कीजिए और अनु
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीन सिरान्त बोल संग्रा, पांचवां भाग
१
मति देकर अपने और कुमार रथनेमि के जीवन को सुखमय बनाइए।
राजीमती को दूती की बात सुन कर आश्चर्य हुआ। दोनों भाइयों में इतना अन्तर देख कर वह चकित रह गई। __ साधारण स्त्री होती तो दूती का प्रस्ताव मजूर कर लेती या अनिच्छा होने पर अपना क्रोध दूती पर उतारती। उसे डाटती, फटकारती, दण्ड देने तक तैयार हो जाती। किन्तु राजीमती सती होने के साथ साथ बुद्धिमती भी थी। उसकी दृष्टि में पापी पर क्रुद्ध होने की अपेक्षा प्रयत्नपूर्वक उसे सन्मार्ग में लाना श्रेयस्कर था। उसने सोचा- दूती को फटकारने से सम्भव है बात बढ़ जाय
और उससे स्थनेमि के सन्मान में बट्टा लगे ।रयनेमि कुलीन पुरुष हैं। इस समय कामान्ध होने पर भी समझाने से सुमार्ग पर लाए जा सकते हैं। यह सोच कर उसने दूती से कहा-रथनेमि के इस प्रस्ताव का उत्तर मैं उन्हें ही देंगी। इस लिए तुम जानो और उन्हें ही भेज दो। साथ में कह देना कि वे अपनी पसन्द के अनुसार किसी पेय वस्तु को लेते श्रावें।
यद्यपि राजीमती ने यह उत्तर दूसरे अभिप्राय से दिया था, किन्तु इती ने उसे अपने प्रस्ताव की स्वीकृति ही समझा। वह प्रसन्न होती हुई स्थनेमि के पास गई और सारी बातें सुनादीं। रथनेमि ने भी उसे प्रस्ताव की स्वीकृति ही समझा।
रथनेमि ने सुन्दर वस्त्र और आभूपण पहने। बड़ी उमङ्गों के साथ पेय वस्तु तैयार कराई। रन खचित स्वर्ण थाल में कटोरा रख कर वहुमूल्य रेशमी वस्त्र से उसे ढक दिया। एक सेवक को साथ लेकर राजीमती के महल में पहुँचा। भावी सुखों की आशा में वह फूला न समाता था।
राजीमतीने रथनेमि का स्वागत किया। वह कहने लगी-आप का दर्शन करके मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । दूती ने आपकी जैसी
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
•
arm rrown .....
२६२
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला mmmmmmmmmmmmmwww. ~~ or . . . ~ ~ प्रशंसा की थी वे सभी गुण आप में मालूम पड़ रहे हैं। जब से उसने विवाह का प्रस्ताव रकवा मैं आपकी प्रतीक्षा में थी। __ राजीमती की बातें सुनते समय रथनेमि के हृदय में उत्तरोत्तर अधिक आशा का संचार हो रहा था। वह समझ रहा था राजीमती ने मुझे स्वीकार कर लिया है। उसने उत्तर दिया__राजकुमारी ! मैंने भापके सौन्दर्य और गुणों की प्रशंसा बहुत दिनों से सुन रक्खी थी। बहुत दिनों से मैंने आपको अपने हृदय की अधीश्वरी मान रक्खाथा,किन्तु भाई के साथ आपके सम्बन्ध की बात सुन कर चुप होना पड़ा। मालूम पड़ता है मेरा भाग्य बहुत तेज है इसी लिए नेमिकुमार ने इस सम्बन्ध को नामजर कर दिया। निश्चय होने पर भी मैं एक बार आपके मुंह से खीकृति के शब्द सुनना चाहता हूँ, फिर विवाह में देर न होगी।
राजीमती मन ही मन सोच रही थी- कामान्ध व्यक्ति अपने सारे विवेक को खो बैठता है। मेरे वाह्य रूप पर आसक्त होकर ये अपने भाई के नाते को भी भूल रहे हैं। भगवान् के त्याग को ये अपना सौभाग्य मान रहे हैं। मोह की विडम्बना विचित्र है । इस के वश में पढ़ कर मनुष्य भयङ्कर से भयङ्कर पाप करते हुए नहीं हिचकता । भगवान् के साथ मेरा विवाह हो जाने पर भी इनके हृदय से यह दुर्भावना दूर न होती और उसे पूर्ण करने के लिये ये किसी भी पाप से नहीं हिचकते।
राजीमती के कहने पर रथनेमि ने पेय वस्तु का कटोरा उसके सामने रख दिया और कहा-आपने बहुत ही तुच्छ वस्तु मंगवाई। मैं आपके लिये बड़ी से बड़ी वस्तु लाने के लिये तैयार हूँ।
राजीमती उस कटोरे को उठा कर पी गई साथ में पहले से पास रक्खी हुई उस दवा को भी खा गई जिसका प्रभाव तत्काल वमन था। कटोरे को पीते देख रथनेमि को पक्का विश्वास हो गया कि
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री
दान्त पाल सह, पाचवा भाग २६३
राजीमती ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है । वे मन ही मन बहुत खुश हो रहे थे। इतने में उन्होंने देखा कि राजीमती उसी कटोरे में वमन कर रही है । रथनेमि काँप उठे और आशङ्का करने लगे कि कहीं कटोरे में ऐसी वस्तु तो नहीं मिल गई जो हानिकारक हो ।
वे इस प्रकार सोच ही रहे थे कि राजीमती ने वमन से भरा हुआ कटोरा उसके सामने किया और कहा- राजकुमार ! लीजिए, इसे पी लीजिए ।
-
वमन के कटोरे को देख कर रथनेमि पीछे हट गए। मॉखें क्रोध से लाल हो गई । श्रोठ फड़कने लगे । गरजते हुए कहने लगेराजीमती ! तुम्हें अपने रूप पर इतना घमण्ड है ? किसी भद्र पुरुष को बुला कर तुम उसका अपमान करती हो? क्या मुझे कुत्ता या कौया समझ रखा है जो वमन की हुई वस्तु पिलाना चाहती हो ?
राजीमती ने उपदेश देने की इच्छा से कुमार को शान्त करते हुए कहा - राजकुमार ! शान्ति रखिए। मैं आपके प्रेम की परीक्षा करना चाहती हूँ ।
1
रथनेमि - क्या परीक्षा का यही उपाय १
राजीमती - हाँ ! यही उपाय है। यदि आप इसे पी जाते तो मैं समझती कि आप मुझे स्वीकार कर सकेंगे ।
रथनेमि - क्या मैं वमा हुआ पदार्थ पी जाऊँ ? राजीमती-वमा हुआ पदार्थ है तो क्या हुआ ? है तो वही जो आप लाए थे और जो आपको अत्यधिक प्रिय है। इसके रूप, रस या रंग में कोई फरक नहीं पड़ा है। केवल एक बार मेरे पेट तक जाकर निकल आया है।
रथनेमि - इससे क्या है तो नमन ही ?
राजीमती- मेरे साथ विवाह करने की इच्छा रखने वाले के लिए वमन पीना कठिन नहीं है ।
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसेठिया जैन ग्रन्थमाला ~ummmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmnner
२६४
स्थनेमि-- क्यों ?
राजीमती- जिस प्रकार यह पदार्थ मेरे द्वारा त्यागा हुआ है उसी प्रकार मैं माप के भाई द्वारा त्यागी हुई हूँ। जैसे मैं भापको प्रिय हूँ उसी प्रकार यह पदार्थ भी आप को बहुत प्रिय है। दोनों के समान होने पर भी इसे पीने वाले को आप कुत्ते या कौए के समान समझते हैं और मुझे अपनाते समय यह विचार नहीं करते।
राजीमती को युक्तिपूर्ण बातें सुन कर रथनेमि का सिर लज्जा से नीचे झुक गया। उसे मन ही मन पश्चात्ताप होने लगा।
राजीमती फिर कहने लगी- यादवकुमार ! मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव भेजते समय आपने यह विचार नहीं किया कि मैं भाप के बड़े भाई की परित्यक्ता पत्नी हूँ। मोहवश आप मेरे साथ विवाह करने को तैयार हो गए। श्राप के बड़े भाई मेरा त्याग कर के चले गए इसे आपने अपना सौभाग्य माना । आप भी उन्हीं माता पिता के पुत्र हैं जिनके भगवान् स्वयं हैं, फिर सोचिए मोह ने माप को कितना नीचे गिरा दिया।
रचनेमिलज्जा से पृथ्वी में गड़े जा रहे थे। वे करने लगे-राजकमारी!मुझे अपने कार्य के लिए बहुत पश्चात्ताप हो रहा है। मेरा अपराध क्षमा कीजिए।भापने उपदेश देकर मेरी आँखें खोल दी।
स्थनेमि चुपचाप राजीमती के महल से चले आए। उन के हृदय में लज्जा और ग्लानि थी। सांसारिक विषयों से उन्हें विरक्ति हो गई थी। उन्होंने सांसारिक बन्धनों को छोड़ने का निश्चय कर लिया।
रानीमती का भगवान् अरिष्टनेमि के साथ लौकिक दृष्टि से विवाह नहीं हुआ था। अगर वह चाहती तो रथनेमि या किसी भी योग्य पुरुष से विवाह कर सकती थी। इसके लिए उसे लोक में निन्दा का पात्र न बनना पड़ता फिर भी उसने किसी दूसरे पुरुष से विवाह नहीं किया । जीवन पर्यन्त कुमारी रहना स्वीकार कर
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिदान्त गोल संग्रह, पांचवां भाग
२६५
लिया, उसे ही अपना पति माना।
भगवान् अरिष्टनेमि तोरण द्वार से लौट कर अपने महल में चले आए। उसी समय तीर्थङ्करों की मर्यादा के अनुसार लोकान्तिक देव उन्हें चेताने के लिए आए और सेवा में उपस्थित होकर कहने लगे-प्रभो! संसार में पाप बहुत बढ़ गया है। लोग विषय वासनाओं में लिप्त रहने लगे हैं । वलवान् माणी दुर्बलों को सती रहे हैं। जनता को हिंसा, स्वार्थ, विषयवासना आदि पाप प्रिय मालूम पड़ने लगे हैं। इस लिए प्रभो! धर्मतीर्थ की प्रवर्तना कीजिये जिससे प्राणियों को सच्चे मुख का मार्ग प्राप्त हो भौर पृथ्वी पर पाप का भार हल्का हो । भव्य प्राणी अपन कल्याण के लिए श्राप की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
लोकान्तिक देवों की प्रार्थना सुन कर भगवान् ने वार्षिक दान देना प्रारम्भ कर दिया। __ स्थनेमि को भी संसार से विरक्ति हो गई थी। भगवान् के साथ दीक्षा लेने की इच्छा से वे भगवान के दीक्षा दिवस की प्रतीक्षा करने लगे । दुसरे यादव भी जो भगवान् के उपदेश से प्रभावित हो कर संसार छोड़ने को तैयार हो गए थेव भी उस दिन की प्रतीक्षा करने लगे।
महाराजा उग्रसेन को जब यह मालूम पड़ा कि अरिष्टनेमि वार्षिक दान दे रहे हैं और उसके अन्त में दीक्षालेलेंगे तो उन्होंने राजीमती का विवाह किसी दूसरे पुरुष से करने का विचार किया। इस के लिए राजीमती की स्वीकृति लेना आवश्यक था। ___ इस लिए महाराज उग्रसेन रानी के साथ राजीमती के पास गए। वे कहने लगे- वेटी! अब तुम्हें अरिष्टनेमि का ध्यान हृदय से निकाल देना चाहिए। उन्होंने दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया है। यह अच्छा ही हुआ कि विवाह होने के पहले ही वे वापिस चले
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी मेठिया जैन प्रन्यमाला
गए। विवाह के बाद तुम्हें त्याग देते या दीक्षा ले लेते तो सारे जीवन दुःख उठाना पड़ता। अब हम तुम्हारा विवाह किसी दूसरे राजकुमार से करना चाहते हैं । इस में नीति, धर्म या समाज की ओर से किसी प्रकार का विरोध नहीं है। तुम्हारी क्या इच्छा है ?
राजीमती- पिताजी ! मेरा विवाह तो हो चुका है। हृदय से किसी को पति रूप में या पनीरूप में स्वीकार कर लेना ही विवाह है। उसके लिए बाह्य दिखावे की आवश्यकता नहीं है। बाह्य क्रियाएं केवल लोगों को दिखाने के लिए होती हैं। असली विवाह हृदय ' का सम्बन्ध है। मैं इस विवाह को कर चुकी हूँ। आर्य कन्या को । भाप दुवारा विवाह करमे के लिये क्यों कह रहे हैं ?
माता- वेटी ! हम तुम्हें दूसरे विवाह के लिए नहीं कह रहे हैं। विवाह एक लौकिक प्रथा है और जब तक वह पूरी नहीं हो जाती, फन्या और वर दोनों अविवाहित माने जाते हैं, दुनिया उन्हें अविवाहित ही कहती है, इसी लिए तुम अविवाहिता हो।
राजीमती-दुनिया कुछ भी कहे। लौकिक रीति रिवाज भले ही मुझे विवाहिता न मानते हों किन्तु मेरा हृदय तो मानता है। मेरीअन्तरात्मा मुझे विवाहिता कह रही है। सांसारिक सखों के प्रलोभन में पड़ कर अन्तरात्मा की उपेक्षा करना उचित नहीं है। मेरा न्याय मेरी अन्तरात्मा करती है, दुनिया की बातें नहीं। ___ माता- कुमार अरिष्टनेमि तोरण द्वार से लौट गए। उन्होंने तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं किया। फिर तुम अपने को उनकी पत्नी कैसे पानती हो?
राजीमती- मेरा निर्णय भगवान् अरिष्टनेमि के निर्णय पर अवलम्बित नहीं है। उन्होंने अपना निर्णय अपनी इच्छानुसार किया है। वे चाहे मुझे अपनी पत्नी समझे या न समझे किन्तु मैं उन्हें एक बार अपना पति मान चुकी हूँ। मेरे हृदय में अब दूसरे
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी चैन सिमान्त वोल संग्रह, पांचवां भाग
२६७
पुरुष के लिए स्थान नहीं है। दूसरे के विचारों पर अपने हृदय को रावाँटोल करना कायरता है।
माता- नेमिकमार (अरिष्टनेमि) तो दीक्षा लेंगे। क्या उन के पीछे तुम भी ऐसी ही रह जामोगी ? ___ राजीमती- माता जी ! जब वे दीक्षा लेंगे तो मैं भी उन के मार्ग पर चलगी। पति कठोर संयम का पालन करे तो पत्नी को भोगविलासों में पड़े रहना शोभा नहीं देता। जिस प्रकार वे काम क्रोध मादि यात्मा के शत्रओं को जीतेंगे उसी प्रकार में भी उन पर विजय प्राप्त करूँगी।
राजीमती के उत्तर के सामने माता पिता कुछ न कह सके। वे राजीमती की सखियों कोउसे समझाने के लिए कह कर चले गए।
सखियों ने राजीमतीको समझाने का बहुत प्रयत्न फिया किन्तु वह अपने निश्चय पर अटल थी। उसका हृदय, उसकी बुद्धि, उसकी वाणी तथा उसके प्रत्येक गेम में नेमिकमार समा चुके थे। वह उन के प्रेम में एसी रंग गई थी, जिस पर दूसरा रंग चढ़ना असम्भव था। वह दिन रात उनके स्मरण में रहती हुई वैरागिन की तरह समय विताने लगी।
सती स्त्रियाँ अपने जीवन को पति के जीवन में,अपने अस्तित्व को पति के अस्तित्व में तथा अपने सुख को पति के सुख में मिला देती हैं। उनका प्रेम सच्चा प्रेम होता है। उस में वासना की मुख्यता नहीं रहती। राजीमती के प्रेम में तो वासना की गन्ध भी न थी। उसे नेमिकुमार द्वारा किसी सांसारिक मुख की प्राप्ति नहीं हुई थी,न भविष्य में प्राप्त होने कीआशा थी फिर भी वह उनके प्रेम कीमतवाली थी। वह अपनी आत्माको भगवान् अरिष्टनेमि की आत्मा से मिला देना चाहती थी। शारीरिक सम्बन्ध की उसे परवाह न थी।
शुद्ध प्रेम मनुष्य को ऊँचा उठाता है। एक व्यक्ति से शुरू हो
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८
__ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
फर वह विश्वप्रेम में बदल जाता है। इसके विपरीत जिस प्रेम में स्वार्थ या वासना है वह उत्तरोत्तर संकचित होता जाता है और अन्त में स्वार्थ या वासना की पूर्ति न होते देख समाप्त हो जाता है। इस का असली नाम मोह है। मोह अन्धकारमय है और प्रेम प्रकाशमय । मोह का परिणाम दुःख और अज्ञान है, प्रेम का मुख और ज्ञान। ___ राजीमती के हृदय में शुद्ध प्रेम था । इस लिए भगवान् की श्रात्मा के साथ वह भी अपनी आत्मा को ऊँची उठाने का प्रयत्न कर रही थी। भगवान् के समान अपने प्रेम को बढ़ाते हुए विश्वमेम में बदल रही थी। __ धीरे धीरे एक वर्ष पूरा हो गया। भगवान् अरिष्टनेमि का वार्षिकदान समाप्त हुआ। इन्द्र आदि देव दीक्षामहोत्सव मनाने के लिये पाए । श्रीकृष्ण तथा दूसरे यादवों ने भी खूब तैयारियाँ की। अन्त में श्रावण शुक्ला पष्ठी को भगवान् अरिष्टनेमि ने दीक्षा अङ्गीकार कर ली। जो दिन एक साल पहले उनके विवाह काथा, वही आज संसार के सभी सम्बन्धों को छोड़ने का दिन बन गया। नेमिकुमार ने राजवैभव को छोड़ कर वन का रास्ता लिया। उनके साथ रथनेमि तथा दूसरे यादव कुमार भी दीक्षित हो गए। __ भगवान् अरिष्टनेमि की दीक्षा का समाचार राजीमती को भी मालूम पड़ा । समाचार सुन कर वह विचार में पड़ गई कि अब मुझे क्या करना चाहिए । इस प्रकार विचार करते करते उसे जातिस्मरण हो गया । उसे मालूम पड़ा कि मेरा भौर भगवान का प्रेम सम्बन्ध पिछले आठ भवों से चला आ रहा है। इस नवें भव में भगवान् का संयम भङ्गीकार करने का निश्चय पहले से , मुझे प्रतिबोध देने की इच्छा से ही उन्होंने स्वीकार कर लिया था। अब मुझे भी
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२६९
उनका अनुसरण करना चाहिए। इस निश्चय पर पहुँचने से उसके मुख पर प्रसन्नता छा गई। उसके हृदय का सारा खेद मिट गया।
राजीमती की माता उस समय फिर समझाने आई। राजीमती के दीक्षा लेने के निश्चय को जान कर उसने कहा- वेटी ! संयम को पालना सरल नहीं है। बड़े बड़े योद्धा भी इस के पालन करने में समर्थ नहीं होते। सग्दी और गरमी में नंगे पाँव घूमना, भिक्षा में रूखा सूखा जैसा आहार मिल जाय उसी पर सन्तोष करना, भयङ्कर कष्ट पड़ने पर भी मन में क्रोध या ग्लानि न आने देना, शत्र और मित्र सभी पर समभाव रखना, मानसिक विचारों पर विजय प्राप्त करना सरल नहीं है। तुम्हारे सरीखी महलों में पली हुई कन्या उन्हें नहीं पाल सकती। वेटी! तुम्हें अपना निर्णय समझ कर करना चाहिए।
राजीमतीने उत्तर दिया-माताजी! मैं अच्छी तरह सोच चुकी हूँ। संयमी जीवन के कष्टों का भी मुझे पूरा ज्ञान है किन्तु पति के मार्ग पर चलने में मुझे सुख ही मालूम पड़ता है। उनके बिना इस अवस्था में मुझे दुःख ही दुःख है। मेरे लिए केवल संयम ही सुख का मार्ग है, इस लिए आप दूसरी बातों को छोड़ कर मझे दीक्षा अंगीकार करने की अनुमति दीजिए।
राजीमती की माता को विश्वास हो गया कि राजीमती अपने निश्चय पर अटल है। उसने सारी बातें महाराज उग्रसेन कोकहीं। अन्त में यही निर्णय किया कि राजीमती को उसकी इच्छानुसार चलने देना चाहिए। उसके मार्ग में वाधाडालकर उसकीपात्मा को दुखी न करना चाहिए।
राजीमती ने अपने उपदेश से बहुत सी सखियों तथा दसरी महिलाओं में भी वैराग्य भावना भर दी। सात सौ स्त्रियाँ उसके साथ दीक्षा लेने को तैयार हो गई।
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
भगवान् अरिष्टनेमि को केवलज्ञान होते ही राजीमती ने सात सौ सखियों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली । महाराज उग्रसेन तथा श्रीकृष्ण ने उसका निष्क्रमण (दीक्षा या संसार त्याग) महोत्सव मनाया। राजकुमारी राजीमती साध्वी राजीमती बन गई। श्रीकृष्ण तथा सभी यादवों ने उसे वन्दना की। अपनी शिष्याओं सहित राजीमती तप संयम की आराधना तथा जनकल्याण करती हुई विचरने लगी । थोड़े ही समय में वह बहुश्रुत हो गई ।
1
राजीमती के हृदय में भगवान् अरिष्टनेमि के दर्शन करने की पहले से ही प्रबल उत्कण्ठा थी । दीक्षा लेने के पश्चात वह और बढ़ गई। उन दिनों भगवान् गिरिनार पर्वत पर विराजते थे । महासती राजीमती अपनी शिष्याओं के साथ विहार करती हुई गिरिनार के पास आ पहुँची और उल्लास पूर्वक ऊपर चढ़ने लगी । मार्ग में जोर से चलने लगी, साथ में पानी भी बरसने लगा । काली घटाओं के कारण अन्धेरा छा गया । पास खड़े वृक्ष भी दिखाई देने बन्द हो गए। साध्वी राजीमती उस बवण्डर में पढ़ कर अकेली रह गई। सभी साध्वियों का साथ छूट गया । वर्षा के कारण उसके कपड़े भीग गए ।
धीरे धीरे आँधी का जोर कम हुआ । वर्षा थम गई । राजीमती को एक गुफा दिखाई दी। कपड़े सुखाने के विचार से वह उसी में चली गई । गुफा को निर्जन समझ कर उसने कपड़े उतारे और सुखाने के लिए फैला दिए ।
२७०
उसी गुफा में रथनेमि धर्मचिन्तन कर रहे थे । अँधेरा होने के कारण वे राजीमती को दिखाई नहीं दिए। रथनेमि की दृष्टिराजीमती के नग्न शरीर पर पड़ी। उनके हृदय में कामवासना जागृत हो गई। एकान्त स्थान, वर्षा का समय, सामने वस्त्र रहित सुन्दरी, ऐसी अवस्था में रथनेमि अपने को न सम्भाल सके। अपने अभिप्राय
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह, पांचवां भाग १
wommixmmmon को प्रकट करने के लिए वे विविध प्रकार से कुचेष्टाएं करने लगे।
राजीमती को पता चल गया कि गुफा में कोई पुरुप है और वह बुरी चेष्टाएं कर रहा है। वह डर गई कि कहीं यह पुरुप बल प्रयोग न करे। ऐसे समय में शील की रक्षा का प्रश्न उसके सामने बहुत विकट था। थोड़ी सी देर में उसने अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया। उसने सोचा- मैं वीरवाला हूँ। हंसते हुए प्राणों पर खेल सकती हूँ। फिर मुझे क्या दर है ? मनुष्य तो क्या देव भी मेरे शील का भंग नहीं कर सकते। वस्त्र पहिनने में विलम्ब करना रचित न समझ कर वह मर्कटासन लगाकर बैठ गई। जिससे फामातुर व्यक्ति उस पर शीघ्र हमला न कर सके।
अंधेरे के कारण रथनेमि राजीमती को दिखाई न दे रहे थे। राजीमती कुछ प्रकाश में थी इस कारण रथनेमि को स्पष्ट दिखाई दे रही थी। उन्होंने राजीमती को पहिचान लिया और चेहरे की भावभङ्गी से जान लिया कि राजीमती भयभीत हो गई है। वे अपने स्थान से उठ कर राजीमती के पास माए और कहने लगे-- राजीमती! डरोमत । मैं तुम्हारा प्रेमी रथनेमि हूँ। मेरे द्वारा तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट न होगा। भय और लज्जा को छोड़ दो।आओ हम तुम मनुप्योचित मुख भोगें। यह स्थान एकान्त है,कोई देखने वाला नहीं है। दुर्लभ नरजन्म को पाकर भी मुखों से वञ्चित रहनासूखेता है।
रथनेमि के शब्द सुनकर राजीमती का भय कुछ कम हो गया। उसने सोचा- स्यनेमि कुलीन पुरुष हैं इस लिए समझाने पर मान जाएंगे। उसने मर्कटासन त्याग फर कपड़े पहनना शुरू किया। रथनेमि कामुक बन कर राजीमती से विविध प्रकार की मार्थनाएं कर रहे थे और राजीमती रूपरे पधिन रही थी। कपड़े पहिन लेने पर उसने कहा- स्थनेमि भनगार ! मापने मनिव्रत अङ्गीकार किया है। फिर आप कामुक तथा पतित लोगों के समान
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
कैसी बातें कर रहे हैं ?
स्थनेमि- साधु होने पर भी इस समय मुझे तुम्हारे सिवाय कुछ नहीं सूझ रहा है। तुम्हारे रूप पर आसक्त होकर मैं सारा ज्ञान, ध्यान भूल गया हूँ।
राजीमती-आपको अपनी प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ रहना चाहिए। क्या आप भूल गए कि आपने संयम अङ्गीकार करते समय । प्रतिज्ञाएं की थी ? रथनेमि-मुझे वे प्रतिज्ञाएं याद हैं,किन्तु यहाँ कौन देख रहा है ?
राजीमती-जिसे दूसरा कोई न देखे क्या वह पाप नहीं होता? अपनी अन्तरात्मा से पूछिए। क्या छिप कर पाप करने वाला पतित नहीं माना जाता ? ___ मायावी होने के कारण वह तो खुल्लमखुल्ला पाप करने वाले से भी अधिक पातकी है।
रथनेमि- अगर छिप कर ऐसा करना तुम्हें पसन्द नहीं है तो आओ हम दोनों विवाह करलें और संसार का आनन्द उठाएं । - वृद्धावस्था आने पर फिर दीक्षा ले लेंगे।
राजीमती- आपने उस समय स्वयं लाए हुए पेय पदार्थ को क्यों नहीं पिया था ? स्थनेमि- वह तुम्हारा वमन किया हुआ था । राजीमती- यदि आप ही का वमन होता तो आप पीजाते ? रथनेमि-यह कैसे हो सकता है,क्या वमन को भी कोई पीता है?
राजीमती-तो आप कामभोगों को छोड़ कर (उनका वमन करके) फिर स्वीकार करने के लिये कैसे तैयार हो रहे हैं ? __ स्थनेमि कुमार ! आप अन्धकवृष्णि के पौत्र, महाराजा समुद्र विजय के पुत्र, धर्मचक्रवर्ती तीर्थङ्कर भगवान् अरिष्टनेमि के भाई हैं। त्यागे हुए को फिर स्वीकार करने की इच्छा आपके लिये लज्जा
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२७३
की वात है। पक्खन्दे जलियं जोइं, धूमके दुरासयं । नेच्छन्ति वंतयं भोत्तं, कुले जाया अगंधणे ।।
अर्थात्-अगन्धन कुल में पैदा हुए साँप जाज्वल्यमान प्रचण्ड अग्नि में गिर कर भस्म हो जाते हैं किन्तु उगले हुए विष को पीना पसन्द नहीं करते।
आप तो मनुष्य हैं, महापुरुषों के कुल में आपका जन्म हुआ है फिर यह दुर्भावना कहाँ से आई ?
आपने संसार छोड़ा है। मैंने भी विषयवासना छोड़ कर महाव्रत अङ्गीकार किये हैं। श्राप और भगवान् दोनों एक कुल के हैं। दोनों ने एक ही माता के पेट से जन्म लिया है फिर भी आप दोनों में कितना अन्तर है। जरा अपनी आत्मा की तरफ ध्यान दीजिए। चर्मचक्षुओं के वजाय पाभ्यन्तर नेत्रों से देखिए । जो शरीर आपको सुन्दर दिखाई दे रहा है, उसके अन्दर रुधिर, मॉस, चर्वी, विष्टा आदि अशचि पदार्थ भरे हुए हैं। क्या ऐसी अपवित्र वस्तु पर भी आप आसक्त हो रहे हैं ? यदि आप सरीखे मुनिवर भी इस प्रकार डॉव!डोल होने लगेंगे तो दूसरों का क्या हाल होगा? जरा विचार कर देखिए कि आपके मुख से क्या ऐसी बातें शोभा देती हैं ? अपने कृत्य पर पश्चात्ताप कीजिए । भविष्य के लिए संयम में दृढ़ रहने का निश्चय कीजिए। तभी आपकी आत्मा का कल्याण हो सकेगा।
रथनेमि का मस्तक राजीमती के सामने लज्जा से झुक गया। उन्हें अपने कृत्य पर पश्चात्ताप होने लगा। अपने अपराध के लिए वे राजीमती से वार बार क्षमा माँगने लगे।
राजीमती ने कहा- रथनेमि मुनिवर ! आमा अपनी आत्मा से माँगिए।पाप करने वाला व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को इतना नुक्सान नहीं पहुँचाताजितना अपनी आत्मा को पतित वनाता है। इसलिए
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७१
श्री मेठिया चेन ग्रन्पमाला ~~mrammmmmmmmmmmmmmmmmmm अधिक हानि आपकी ही हुई है। उसके लिए पश्चात्ताप करके आत्मा को शद बनाइए। पश्चात्तापकी आग में पाप कर्म भस्म हो जाते हैं । भविष्य के लिए पाप से बचने की प्रतिज्ञा कीजिए। अपने मन को शमध्यान में लगाए रखिए जिससे आत्मा का उत्तरोत्तर विकास होता जाय। तीसे सो वयणं सुच्चा, सजईए सुभासियं । अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइयो ।
अर्थात्- जिस प्रकार अंकुश द्वारा हाथी ठिकाने पर भा जाता है उसी प्रकार सती राजीमती द्वारा कहे हुए हित वचनों को सुन कर रथनेमि धर्म में स्थिर हो गये।
स्थनेमि ने भविष्य के लिए संयम में दृढ़ रहने की प्रतिज्ञा पी।राजीमती ने उसे संयम के लिए फिर प्रोत्साहित किया और गुफासे निकल कर अपना रास्ता लिया। आगे चल कर उसे दूसरी साचियाँ भी मिल गई। सब के साथ वह पहाड़ पर चढ़ने लगी।
धीरे धीरे सभी साध्धियाँ भगवान् अरिष्टनेमि के पास जा पहुँची। राजीमती की चिर अभिलाषा पूर्ण हुई। आनन्द से उस का हृदय गद्गद् हो उठा। उसने भगवान् के दर्शन किए। उपदेश मुना । आत्मा को सफल बनाया । भगवान् के उपदेशानुसार कठोर तप और संयम की आराधना करने लगी। फल स्वरूप उसके सभी कर्म शीघ्र नष्ट हो गए । भगवान् के मोक्ष पधारने से चौपन दिन पहले वह सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गई।
वासना रहित सच्चा प्रेम,पूर्णब्रह्मचर्य, कठोर संयम,उग्र तपस्या भनुपम पतिभक्ति तथा गिरते हुए को स्थिर करने के लिए राजीमती का श्रादर्श सदा जाज्वल्यमान रहेगा।
(पूज्य श्रीजवाहरलालजी महारान के व्याख्यान में पाये हुए राजीमती चरित्र के माधार पर।
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
मी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
(५) द्रौपदी
प्राचीन काल में चम्पा नाम की नगरी थी। उसके बाहर उत्तर पूर्व दिशा अर्थात् ईशान कोण में सुभूमिभाग नाम का उद्यान था ।
चम्पा नगरी में तीन ब्राह्मण रहते थे- सोम, सोमदत्त और सोमभूति । वे तीनों भाई भाई थे। तीनों धनाढ्य, वेदों के जानकार तथा शास्त्रों में प्रवीण थे। तीनों के क्रमशः नागश्री, भूतश्री और यक्षश्री नाम वाली तीन भार्याएं थीं। तीनों सुकोमल तथा उन ब्राह्मणों को अत्यन्त प्रिय थीं। मनुष्य सम्बन्धी भोगों को यथेष्ट भोगती हुई कालयापन कर रही थीं।
एक वार तीनों भाइयों ने विचार किया- हम लोगों के पास बहुत धन है । सात पीढ़ी तक भी यदि हम बहुत दान करें तथा बहुत वॉटें तब भी समाप्त नहीं होगा, इस लिए प्रत्येक को वारी वारी से विपुल शन पान आदि तैयार कराने चाहिए और सभी को वहीं एक साथ भोजन करना चाहिए। यह सोच कर वे सब बारी बारी से प्रत्येक के घर भोजन करते हुए आनन्द पूर्वक रहने लगे ।
एक बार नागश्री के घर भोजन की बारी आई। उसने विपुल प्रशन पान आदि तैयार किए । शरद् ऋतु सम्बन्धी अलाबु (तुम्बा या घीया) का तज, इलायची वगैरह कई प्रकार के मसाले डाल कर शाक बनाया | तैयार हो जाने पर नागश्री ने एक बूँद हाथ में लेकर उसे चखा । वह उसे खारा, कड़वा, अखाद्य और अभक्ष्य मालूम पड़ा | नागश्री बहुत पश्चात्ताप करने लगी। कड़वे शाक को कोने में रख कर उसने मीठे अलावु (तुम्बा या घीया) का शाक बनाया। सभी ने भोजन किया और अपने अपने कार्य में मवृत्त हो गए ।
उन दिनों धर्मघोष नाम के स्थविर मुनि अपने शिष्य परिवार
447
२७५
ww2w
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
सहित विहार करते हुए चम्पानगरी के सुभूमिभाग नामक उद्यान में पधारे। उन्हें वन्दना करने के लिए नगरी के बहुत से लोग गए। मुनि ने धर्मोपदेश दिया। व्याख्यान के बाद सभी लोग अपने अपने स्थान पर चले आए।
२७६
धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि अनगार मास मास खमण की तपस्या करते हुए विचर रहे थे। मासखमण के पारने के दिन धर्मरुचि अनगार ने पहिलो पोरिसी में स्वाध्याय किया। दूसरी में ध्यान किया। फिर तीसरी पोरिसी में पात्र वगैरह की पडिलेहणा aah धर्मघोष स्थविर की आज्ञा ली । चम्पा नगरी में आहार के लिए उच्च नीच कुलों में घूमते हुए वे नागश्री के घर पहुँचे । नागश्री उन्हें देख कर खड़ी हुई और रसोई में जाकर वही कड़वे तुम्बे का शाक उठा लाई । उसे धर्मरुचि अनगार के पात्र में डाल दिया ।
पर्याप्त आहार आया जान कर धर्मरुचि अनगार नागश्री ब्राह्मणी के घर से निकल कर उपाश्रय में आए। आहार का पात्र हाथ में लेकर गुरु को बताया । धर्मघोष स्थविर को तुम्बे की गन्ध बुरी लगी । शाक की एक बूँद हाथ में ले कर उन्होंने उसे चखा तो बहुत कड़वा तथा अभक्ष्य मालूम पड़ा । उन्होंने धर्मरुचि अनगार से कहा- हे देवानुप्रिय ! कड़वे तुम्बे के इस शाक का यदि तुम आहार करोगे तो अकालमृत्यु प्राप्त करोगे। इस लिए इस शाक को किसी एकान्त तथा जीव जन्तुओं से रहित स्थण्डिल में परठ आओ । दूसरा एपणीय आहार लाकर पारना करो।
धर्मरुचि अनगार गुरु की आज्ञा से सुभूमिभाग नामक उद्यान से कुछ दूर गए। स्थण्डिल की पडिलेइरणा करके उन्होंने शाक की एक बूँद जमीन पर डाली। उस की गन्ध से उसी समय वहाँ हजारों कीड़ियाँ आ गई और स्वाद लेते ही अकाल मृत्यु प्राप्त करने लगीं। यह देख धर्मafa rare ने सोचा- एक वॅट से ही जीवों
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी न सिरान्त बोल सग्रह, पापका भाग
२७७
की हिंसा होती है तो यदि मैं सारा शाक यहाँ परठ देंगा तो बहुत से प्राण (दीन्द्रियादि),भूत (वनस्पति)जीव, पञ्चेन्द्रिय)तथा सत्त्व (पृथ्वी कायादिक) मारे जावेंगे। इस लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं स्वयं इस शाक का आहार करलँ। यह शाक मेरे शरीर में ही गल जायगा। यह सोच कर उन्होंने मुखव स्त्रिका की पडिलेहणा की।अपने शरीर को पंजा। इसके बाद उस कड़वेशाक को इस तरह अपने पेट में डाल लिया जिस तरह साँप बिल में प्रवेश करता है। __ आहार करने के बाद एक मुहूर्त के अन्दर अन्दर वह शाक विषरूप में परिणत हो गया। सारेशरीर में असह्य वेदना होने लगी। उनमें बैठने,उठने की शक्ति नष्ट हो गई। वेवलरहित पराक्रमरहित
और वीर्यरहित हो गए। - अपने आयुष्य को समाप्तप्राय जान कर धर्मरुचि अनगार ने पात्र अलग रख दिए। स्थण्डिल की पडिलेहणा करके दर्भ का संथारा विछाया। उस पर बैठ कर पूर्व की ओर मुँह किया। दोनों हाथों की अञ्जलि को ललाट पर रख कर उन्होंने इस प्रकार बोलना शुरू किया
णमोत्थुणं अरिहंताणं जाव संपत्ताण,णमोत्थुण धम्म• घोसाणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसगाणं, पुव्विं पि
णं मम धम्मघोसाणं थेराणं अन्तिए सव्वे पाणातिवाए पच्चक्खाए जाधज्जीवाए जाव परिग्गहे। इयाणिं पि एणं अहं तेसिं चेव भगवंताणं अतियं सव्वं पाणातिवायं पच्चक्खामिजाव परिग्गहं पच्चक्खामिजावज्जीवाए। ___ अर्थात्- अरिहन्त भगवान् पौर सिद्ध भगगन् को मेरा नमस्कार हो तथा मेरे धर्माचार्य एवं धर्मोपदेशक धर्मघोष स्थविर को नमस्कार हो । मैंने प्राचार्य भगवान के पास पहले सर्व प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक सब पापों का यावज्जीवन त्याग किया था। अब फिर भी
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८
श्री सेठिया जैन अन्धमाता
mano
उन सभी पापों का त्याग करता हूँ। __ इस प्रकार चरम श्वासोच्छ्वास तक शरीर का ममत्व छोड़ कर
आलोचना और प्रतिक्रमण करके धर्मरुचि अनगार समाधि में स्थिर हो गये । सारे शरीर में विष व्याप्त हो जाने से प्रवल वेदना उत्पन्न हुई जिससे तत्काल वे कालधर्म को प्राप्त हो गये।
धर्मरुचि अनगार को गये हुए जब बहुत समय हो गया तो धर्मघोष आचार्य ने दूसरे साधुओं को उनका पता लगाने के लिये भेजा। स्थण्डिल भूमि में जाकर साधुओं ने देखा तो उन्हें मालूम हुआ किधर्मरुचि अनगार कालधर्म को प्राप्त होगये हैं। उसी समय साधुओं ने उसके निमित्त कायोत्सर्ग किया। इसके बादधर्मरुचि अनगार के पात्र आदि लेकर वे धर्मघोष आचार्य के पास आए और उनके सामने पात्र आदि रख कर धरुचि अनगार के काल धर्म प्राप्त होने की बात कही।
धर्मघोष आचार्य ने पूर्वो के ज्ञान में उपयोग देकर देखा और सव साधुओं को बुलाकर इस प्रकार कहा-आर्यो ! मेरा शिष्य धर्मरुचि अनगार प्रकृति का भद्रिक और विनयवान् था। निरन्तर एक एक महीने से पारना करता था। आज मासखमण के पारने के लिए वह गोचरी के लिए गया। नागश्री ब्राह्मणी ने उसे कड़वे तुम्वे का शाक बहरा दिया। उसके खाने से उसका देहान्त होगया है। परिणामों की शुद्धता से वह सर्वार्थसिद्ध विमान में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला देव हुआ है। __ यह खवर जब शहर में फैली तो लोग नागश्री को धिक्कारने लगे। वे तीनों ब्राह्मण भाई नागश्री के इस कार्य से उस पर बहुत कुपित हुए। घर आकर उन्होंने नागश्री को बहुत बुरा भला कहा और निर्भर्त्सनापूर्वक उसे घर से बाहर निकाल दिया। वह जहाँ भी जाती लोग उसकातिरस्कार करते, धिक्कारते और अपने यहाँ
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
भोजन सिदान्त बोल संग्रह, पांच माग २७६ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm से निकाल देते । नागश्री बहुत दुखी हो गई। हाथ में मिट्टी का पात्र लेकर वह घर घर भीख मांगने लगी। थोड़े दिनों बाद उसके शरीर में श्वास, कास, योनिशूल, कोढ आदि सोलह रोग उत्पन हुए। मर कर छठी नारकी में पाईस सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुई। वहाँ से निकल कर मत्स्य, सातवीं नरक, मत्स्य,सातवीं नरक,मत्स्य,छठी नरक, उरग(सर्प), इस प्रकार वीच में तिर्यञ्च का भव करती हुई प्रत्येक नरक में दो दो बार उत्पन्न हुई। फिर पृथ्वीकाय, अप्काय आदि एकेन्द्रिय जीवों में तथा द्वीन्द्रियादि जीवों में अनेक वार उत्पन्न हुई। इस प्रकार नरक और तिर्यञ्च के अनेक भव करता हुआ नागश्री का जीव चम्पा नगर निवासीसागरदत्त सार्थवाह कीभार्या भद्रा की कुत्ति से पुत्री रूप में उत्पन्न हुआ। ___ जन्मोत्सव मना कर माता पिता ने पुत्री का नाम सुकुमालिका रखा । माता पिता की इकलौती सन्तान होने से वह उनको बहुत मिय थी। पांचधायों द्वारा उसका लालन पालन होने लगा।मुरक्षित वेल की तरह वह बढ़ने लगी। क्रमशः बाल्यावस्था को छोड़ कर वह यौवन वय को प्राप्त हुई । अव माता पिता को उसके योग्य वर खोजने की चिन्ता हुई। ___ चम्पा नगरी में जिनदत्त नाम का एक सार्थवाह रहता था । उस की स्त्री का नाम भद्रा और पुत्र का नाम सागर था। सागर बहुत रूपवान्था। विद्या और कला में प्रवीण होकर वह यौवन वय को प्राप्त हुआ। माता पिता उसके लिये योग्य कन्या की खोज करने लगे। ___ एक दिन जिनदत्त सागरदत्त के घर के नजदीक होकर जा रहा था। अपनी सखियों के साथ कनक कन्दुक(सुनहली गेंद) से खेलती हुई सुकुमालिका को उसने देखा । नौकरों द्वारा दरियाफ्त कराने पर उसे मालूम हुआ कि यह सागरदत्त की पुत्री सृकुमालिका है।
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५.
श्री सेठिया बैन प्रबमाला
इसके पश्चात् एक समय जिनदत्त सागरदत्त के घर गया। उचित सत्कार करने के पश्चात् सागरदत्त ने उसे आने का कारण पूछा। जिनदत्त ने अपने पुत्र सागर के लिये सुकुमालिका की मॉगणी की। सागरदत्त ने कहा- हमारे यह एक ही सन्तान है। हमें यह बहुत प्रिय है। हम इसका वियोग सहन नहीं कर सकते, इस लिये यदि भापका पुत्र हमारे यहाँ घरजमाई तरीके रहे तो मैं अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर सकता हूँ। जिनदत्त ने सागरदत्त की यह शर्त स्वीकार कर ली। शुभ मुहूर्त देख कर सागरदत्त ने अपनी पुत्री सुकुमालिका का विवाह सागर के साथ कर दिया। __सागरको सुकुमालिका के अङ्ग का स्पर्श असिपत्र (खड्ग) के समान अति तीक्ष्ण और कष्टकारक प्रतीत हुआ। सोती हुई सकुमालिका को छोड़ कर वह अपने घर भाग अाया। पति वियोग से मुकुमालिका उदासीन और चिन्तित रहने लगी।
पिता ने कहा- पुत्री ! यह तेरे पूर्व भव के अशुभ कर्मों का फल है। तू चिन्ता मत कर। अपने रसोईघर में अश-, णन आदि वस्तुएं हर समय तैयार रहती हैं, उन्हें साधुमहात्माओं का वहराती हुई तू धर्म ध्यान कर। ___ मुकुमालिका पिता के कथनानुसार कार्य करने लगी। एक समय गोपालिकानाम की बहुश्रुत साध्वी अपनी शिष्याओं के साथ वहाँ भाई। अशन, पान आदि बहराने के पश्चात् सुफुमालिका ने उनसे पछा- हे श्रार्याओ! तुम बहुत मंत्र तंत्र जानती हो । मुझे भी ऐसा कोई मंत्रवतलाओ जिससे मैं अपने पति कोइष्ट हो जाऊँ। साध्वियों ने कहा-हे भद्रे! इन बातों को बताना तो दूर रहा, हमें ऐसी बातें मनना भी नहीं कल्पता। साध्वियों ने सुकुमालिका को केवलिभापित धर्म का उपदेश दिया जिससे उसे मंसार से विरक्ति होगई। अपने पितासागरदत्त की आज्ञा लेकर उसने गोपालिका प्रायोके
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग २८१ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm orr rrrrror पास दीक्षा ले ली । दीक्षा लेकर अनेक प्रकार की कठोर तपस्या करती हुई विचरने लगी।
एक समय वह गोपालिका आर्या के पास आकर इस प्रकार कहने लगी-पूज्ये आपकी आज्ञा हो तो मैं सुभूमिभाग उद्यान के आसपास वेले बेले पारना करती हुई सूर्य की आतापना लेकर विचरना चाहती हूँ। गोपालिका आर्या ने कहा-साध्वियों को ग्राम यावत् सन्निवेश के बाहर सूर्य की आतापना लेना नहीं कल्पता। अन्य साध्वियों के साथ रह कर उपाश्रय के अन्दर ही अपने शरीर को कपड़े से ढक कर सूर्य की आतापना लेना कन्पता है।
सुकुमालिका ने अपनी गुरुपानी की बात न मानी। वह सुभूमि. भाग उद्यान के कुछ दूर आतापना लेने लगी। एक सयय देवदत्ता नाम की एक वेश्या पाँच पुरुषों के साथ क्रीड़ा करने के लिये सुभूमिभाग उद्यान में आई। उसे देख कर सुकुमालिका के हृदय में विचार आया कि यह स्त्रीभाग्यशालिनी है जिससे यह पॉच पुरुषों को वल्लभ एवं प्रिय है। यदि मेरे त्याग, तप एवं ब्रह्मचर्य का कुछ भी फल हो तो आगामी भव में मैं भी इसी प्रकार पॉच पुरुपों को वल्लभ एवं प्रिय वनें। इस प्रकार सकुमालिका ने नियाणा कर लिया।
कुछ समय पश्चात् वह गोपालिका आर्या के पास वापिस चली आई। अब वह शरीर बकुशा होगई अर्थात् शरीर की शुश्रूषा करने लग गई। अपने शरीर के प्रत्येक भाग कोधोने लगी तथा स्वाध्याय, शय्या के स्थान को भी जल से छिड़कने लगी। गोपालिका आर्या ने उसे ऐसा करने से मना किया किन्तु सुकुमालिकाने उसकी बात न मानी और वह ऐसा ही करती हुई रहने लगी। दूसरीसाध्वियों को उसका यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। उन्होंने उसका आदर सत्कार करना छोड़ दिया। इससे गोपालिका आर्या को छोड़ कर मुकुमालिकाअलग उपाश्रय में अकेली रहने लगी। अवबह पासस्था,
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
पासत्य विडारी,ओसण्णा,ओसण्ण विडारी,कुमीला,कुसीलविहारी, संसत्ता और संसत्त विहारी होगई अर्थात् संयम में शिथिल होगई।
इस प्रकार कई वर्षों तक साधुपर्याय का पालन कर अन्तिम समय में पन्द्रह दिन की संलेखना की। अपने अयोग्य आचरण की मालोचना और प्रतिक्रमण किये विना ही वह कालधर्म को प्राप्त होगई। मर कर ईशान देवलोक में नव पल्योपम की स्थिति वाली देवगणिका (अपरिगृहीता देवी) हुई। ___ जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में पञ्चाल देश के अन्दर एक अति रमणीय कम्पिलपुर नाम का नगर था। उसमें द्रुपद गजा राज्य करता था । उसकी पटरानी का नाम चुलणी था। उनके पुत्र का नाम धृष्टद्युम्न था। वह युवराज था। ईशान कल्प का आयुष्य पूरा होने पर सुकुमालिका का जीव गनी चुलणीकी कुक्षि से पुत्री रूप में उत्पन्न हुआ। माता पिता ने उसका नोम द्रौपदी करवा ।
पाँच धायों द्वारा लालन पालन की जाती हुई द्रौपदी पर्वत की गुफा में रही हुई चम्पफलता की तरह बढ़ने लगी। क्रमशःवाल्यावस्था को छोड़ कर वह युवावस्था को प्राप्त हुई। राजा द्रुपद को उसके लिये योग्य वर की चिन्ता हुई। __राजा द्रुपद ने द्रौपदी का स्वयंवर करने का निश्चय किया । नौकरों को बुला कर उसने स्वयंवर मण्डप बनाने की आज्ञा दी। मण्डप तैयार हो जाने पर द्रुपद राजा ने अनेक देशों के राजाओं के पास दूतों द्वारा आमन्त्रण भेजे।
निश्चित तिथि पर विविध देशों के अनेक राजा और राजकुमार स्वयंवर मण्डप में उपस्थित हुए। कृष्ण वासुदेव भी अनेक यादवकुमार और पांच पाण्डवों को साथ लेकर वहाँ आये। सभी लोग अपने अपने योग्य आसनों पर बैठ गये। स्नान करके वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर राजकुमारी द्रौपदी एक दासी के साथ स्वयंवर मण्डप
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिदान्त बोन संग्रह, पांचवां भाग
२८३
में आई।दासी बाएं हाथ में एफदर्पण लिये हुई थी। उसमें राजाओं का प्रतिविम्व पड़ रहा था। उनके नाम, स्थान तथा गुणों का परिचय देती हुई वह द्रौपदी को साथ लेकर आगे बढ़ रही थी। धीरे धीरे वह जहाँपाँच पाण्डव वैठे हुए थे वहाँ आ पहुँची। पूर्व जन्म में किये हुए नियाणे से प्रेरित होकर उसने पाँचों पाण्डवों के गले में वरमाला डाल दी। 'राजकुमारी द्रौपदी ने श्रेष्ठ वरण किया। एंसा का कर सब राजाओं ने उसका अनुमोदन किया।
इसके पश्चात् राजा द्रपद ने अपनी पुत्री का विवाह पाँचों पाण्डवों के साथ कर दिया। आठ करोड़ सोनयों का प्रीतिदान दिया। विपुल अशन,पान तथावस्त्र भाभरण आदि से पाण्डवों का उचित सत्कार कर उन्हें विदा किया। (ज्ञाताधर्म क्याग सोलहवा अध्ययन )
द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डवों के साथ होगया।वारी वारी से वह प्रत्येक की पत्नी रहने लगी। जिस दिन जिसकी वारी होती उस दिन उसे पति मान कर वाफी के साथ जेठ या देवर सरीखा वर्ताव रखती। ___ एक वार द्रौपदीशरीर परिमाण दर्पण में अपने शरीर को वार बार देख रही थी। इतने में वहाँनारद ऋपि आए । द्रौपदी दर्पण देखने में लीन थी, इस लिए उसने नारदजी को नहीं देखा।नाग्द कुपित होकर धातकीखण्ड द्वीप की अमरकंका नगरी में पहुँचे। वहाँपद्मोत्तर राजा राज्य करता था। नारदजी उसी के पास गए।
राजाने विनय पूर्वक उनका स्वागत किया और पूछा- महाराज !आप सब जगह घूमते रहते हैं कोई नई वात बताइए। नारदजी ने उत्तर दिया-मैं हस्तिनापुर गया था वहाँ पाण्डवों के भन्तःपुर में द्रौपदी को देखा। तुम्हारे अन्तःपुर में ऐसी एक भीखी नहीं है। पद्मोत्तर राजा ने द्रौपदी को प्राप्त करने के लिए एक देव की आराधना की। देव द्रौपदी को उठा कर वहाँ ले आया।
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८४
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला
पद्मोत्तर उससे कहने लगा-द्रौपदी ! तुम मेरे साथ भोग भोगो। यह राज्य तुम्हारा है। यह सारा वैभव तुम्हारा है । इसे स्वीकार करो। मैं तुम्हें सभी रानियों में पटरानी मानूँगा। सभी काम तुम्हें पूछ कर करूँगा। इस प्रकार कई उपायों से उसने द्रौपदीको सतीत्व से विचलित करने का प्रयत्न किया किन्तु द्रौपदी के हृदय में लेशमात्र भी विकार नहीं पाया।वह पंच परमेष्ठी का ध्यान करती हुई तपस्या में लीन रहने लगी।
• द्रौपदी का हरण हुआ जान कर पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के पास , जाफर सारा हाल कहा।यह सुन कर श्रीकृष्ण भी विचार में पड़ गए। . द्रौपदी का पता लगाने के लिए वे उपाय सोचने लगे। इतने में नारद ऋषि वहॉभा पहुँचे।श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा-नारदजी! आपने कहीं द्रौपदी को देखा है ? नारद ने उत्तर दिया- धातकीखण्ड द्वीप में अमरकंका नगरी के राजा पद्मोत्तर के अन्तःपुर में मैंने द्रौपदी जैसी स्त्री देखी है । यह सुन कर श्रीकृष्ण ने मुस्थित देव की आराधना की । पाँच पाण्डव और श्रीकृष्ण छहों रथ में बैठ कर अमरकंका पहुँचे और नगरी के बाहर उद्यान में ठहर गए। पाँचों पाण्डव पद्मोत्तर राजा के साथ युद करने गए किन्तु हार कर वापिस चले आए। यह देख कर श्रीकृष्ण स्वयं युद्ध करने के लिये गए। राजा पद्मोत्तर हार कर किले में घुस गया । श्री कृष्ण ने किले पर चढ़कर विकराल रूप धारण कर लिया और पृथ्वी को इस तरह कँपाया कि बहुत से घर गिर पड़े । पद्मोत्तर डर कर श्रीकृष्ण के पैरों में आ गिरा और अपने अपराध के लिए क्षमा मांगने लगा। श्रीकृष्ण द्रौपदी को लेकर वापिस चले आए।
उसी समय धातकीखण्ड के मुनिमुव्रत नाम के तीर्थङ्कर धर्मदेशना दे रहे थे। वहाँ कपिल नाम के वासुदेव ने उनसे श्रीकृष्ण के आग. मन की बात सुनी। वह उनसे मिलने के लिए समुद्र के किनारेगया।
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां भाग २८५
~~~~ ~~~~~ श्रीकृष्ण पहले ही रवाना हो चुके थे । समुद्र में जाते हुए श्रीकृष्ण के रथ की ध्वजा को देख कर धातकीखण्ड के वासदेव कपिल ने उनसे मिलने के लिए अपना शंख बजाया। श्रीकृष्ण ने भी उसका उत्तर देने के लिए अपनाशंख बजाया। दोनों वासुदेवों की शंखों से बातचीत हुई।
पॉचों पाण्डव तथा श्रीकृष्ण द्रौपदी के साथ लवण समुद्र को पार करके गंगा के किनारे आए और वहॉ से अपनी राजधानी में पहुंच गए।
एक बार पाण्डवों ने राजसय यज्ञ किया।देश विदेश के सभी राजाओं को निमन्त्रण भेजा गया।इन्द्रप्रस्थपुरी कोखूब सजाया गया। वह साक्षात् इन्द्रपुरी सी मालूम पड़ने लगी। मयदानव ने सभा मण्डप रचने में अपूर्व कौशल दिखलाया। जहाँ स्थल था वहाँ पानी दिखाई देता था और जहाँ पानी था वहाँ सूखी जमीन दिखाई देतीथी।देश विदेश के राजा इकटे हुए। युधिष्ठिर के चरणों में गिरे। दुर्योधन वगैरह सभी कौरव भी आए। ___एक बार द्रौपदी और भीम बैठे हुए सभामण्डप को देख रहे थे। इतने में वहाँ दर्योधन आया।सूखी जमीन में पानी समझ कर उसने कपड़े ऊँचे उठा लिये । पानी वाली जगह को सुखी जमीन समझ कर वैसे ही चला गया और उसके कपड़े भीग गए। द्रौपदी और भीम यह सब देख रहे थे, इस लिए हंसने लगे। द्रौपदी ने मज़ाक करते हुए कहा-अन्धे के बेटे भी अन्धे ही होते हैं।
दुर्योधन के दिल में यह बात तीर की तरह चुभ गई। उसने मन ही मन इस अपमान का बदला लेने के लिए निश्चय कर लिया।
दुर्योधन का मामा शंकुनि षड्यंत्र रचने में बहुत चतुर था। जुए में सिद्धहस्त था। उसका फेंका हुआ पासा कभी उल्टा न पड़ता था। दुर्योधन ने उसी से कोई उपाय पूछा।
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८१
श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला
शकुनि ने उत्तर दिया-- एक ही उपाय है। तुम युधिष्ठिर को जमा खेलने के लिए तैयार करो। इसके लिए उनके पास विदरजी काभेज दो। उनके कहने से वे मान जाएँगे।धृतराष्ट्र से तुम स्वयं पूछ लो। खेलते समय यह शर्त रक्खो कि जो हारे वह राजगद्दी छोड़ दे। तुम्हारी तरफ से पासे मैं फेकूँगा। फिर देखना, एक भी दाव उल्टा न पड़ेगा।
दुर्योधन ने उसी प्रकार किया। अपने पिता धृतराष्ट्र को पैरों में गिर कर तथा उल्टी सीधी बातें करके, मना लिया। पुत्रस्नेह के कारण वे उसकी बात को बुरी होने पर भी न टाल सके। विदुर के कहने पर युधिष्ठिर भी तैयार हो गए। जुआ खेला गया। एक तरफ दुर्योधन, शकुनि और सभी कौरव थे, दूसरी ओर पाण्डव । शकुनि के पासे विल्कुल ठीक पड़ रहे थे। युधिष्ठिर अपने राज्य को हार गए।चारों भाई तथा अपने को हार गए। अन्त में द्रौपदी को भी हार गए। जुए में पड़ कर वे अपनी राजलक्ष्मी, अपने और भाइओं के शरीर तथा अपनी रानी द्रौपदी सभी को खो बैठे। वे सभी दुर्योधन के दास बन चुके थे।
महाराजा दुर्योधन का दरबार लगा हुआ था।भीष्म,द्रोणाचार्य, विदुर आदि सभी अपने अपने आसन पर शोभित थे। एक तरफ पांचों पाण्डव अपना सिर झुकाए बैठे थे। इतने में दुःशासन द्रौपदी को चोटी से पकड़ कर लाया। दरवाजे पर द्रौपदी थोड़ी सी हिचकिचाई तो दुःशासन ने एक धप जमाया और भरीसभा में द्रौपदी को खींच लिया।
द्रौपदी का क्रोध भभक उठा । सिंहिनी के समान गर्नते हुए उसने कहा- पितामह भीष्माचार्य द्रोण! विदुरजी ! क्या
आप इस समय शान्त वैठे रहना ही अपना कर्तव्य समझते हैं ? द्रुपद राजा की पुत्री, पाण्डवों की धर्मपत्नी तथा धृतराष्ट्र की कुल
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, पांचवां भाग २८७
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm वधू को पापी दुःशासन इस प्रकार अपमानित करे और आप बैठे बैठे देखते रहें, क्या यही न्याय है ? क्या आप एक अबला के सन्मान की रक्षा नहीं कर सकते ? _ 'देखी ऐसी कुलवधू पाँच पति फिर भी कुलवधू । तुम्हारे पति जुए में हार गए हैं। वे हमारे दास बन चुके हैं। साथ में तुम भी' दुःशासन ने डाटते हुए कहा। _ 'वस वस, मैं कभी गुलाम नहीं हो सकती। मैं सभासे पूछती हूँ कि मेरे पतियों ने मुझे स्वयं दास होने से पहले दाव पर रक्वा था या बाद में ? अगर पहले रखा हो तभी मैं गुलाम बन सकती हूँ, बाद में रखने पर नहीं।' द्रौपदी ने कहा। ___ सभी लोग शान्त बैठे रहे। उत्तर कौन दे? वह सभा न्याय करने के लिये नहीं जड़ी थी फिन्तु पाप्डनों का विनाश करने के लिए। वहाँ न्याय को सुनने वाला कोई न था। यद्यपि भीष्म द्रोणाचार्य वगैरह स्वयं पापीन थे किन्तु पापी मालिक की नौकरी के कारण उनका हृदय भी कमजोर बन गया था। इसी लिए वे दुःशासन का विरोध न कर सके। ___ सभी को शान्त देख कर दुःशासन, द्रौपदी और पाण्डवों को लक्ष्य कर कहने लगा- हम कुछ भी नहीं सुनना चाहते। तुम सभी राजसी पोशाक उतार दो । तुम छहों हमारे गुलाम हो।
पाँचों पाण्डवों ने राजसी पोशाक उतारदी किन्तु द्रौपदी चुपचाप वैसी ही खड़ी रही।
'क्यों तुम नहीं सुन रही हो ?' दुःशासन ने चिल्ला कर कहा। 'मैंने एक ही कपड़ा पहिन रखा है, मैं रजस्वला हूँ।' द्रौपदी ने उत्तर दिया।
'अब रजस्वला बन गई' कह कर दुःशासन ने उसका पल्ला पकड़ लिया। भीम अपने क्रोध कोन रोक सका। उसने खड़े होकर
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८८
श्री मठिया जैन ग्रन्थमाला
mmmm - . . .rrrrr
wrrammarmmrammar
अपनी गदा भूमि पर फटकारी । युधिष्ठिर ने उसे मना कर दिया क्योंकि वे दास थे।
यह देख कर दुर्योधन बोला-देख क्या रहे हो? खींच रालो।
द्रौपदी प्रभु का स्मरण कर रही थी। मानवसमाज में उस समय उसे कोई ऐसा व्यक्ति नजर नहीं आ रहा था जो एक भवला की लाज बचा सके। भीष्म द्रोणाचार्य, विदुर आदि बड़े बड़े धर्मात्मा
और नीतिज्ञ उस समय गुलामी के बन्धन में जकड़े हुए थे । वे दुर्योधन के वेतनभोगी दास थे, इस लिए उसका विरोध न कर सकते थे। मानवसमाज जो नियम अपने कल्याण के लिए बनाता है, वे ही समय पड़ने पर अन्याय के पोषक बन जाते हैं।
ऐसे समय में द्रौपदी को भगवान् के नाम के सिवाय और कोई रतक दिखाई नहीं दे रहा था। वह अपनी लज्जा बचाने के लिए प्रभु से प्रार्थना कर रही थी। दुःशासन उसके चीर को बलपूर्वक खींच रहा था।
आत्मा में अनन्त शक्ति है, उसके सामने बाह्य शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है । जव तक मनुष्य वाह्य शक्ति परभरोसा रखता है,बाह्य शस्त्रास्त्र तथा सेनाबल को रक्षायाविध्वंस का उपाय मानता है, तब तक आत्मशक्ति का प्रादुर्भाव नहीं होता। द्रौपदी ने भी वाह्य शक्ति पर विश्वास करके जब तक रक्षा के लिए दूसरों की मोर देखा उसे कोई सहायतान मिली। भीम की गदा और भर्जन के वाण भी काम न भाए। अन्त में द्रौपदीने वाह्य शक्ति से निराश होकर आत्मशक्ति की शरण ली। वह सब कुछ छोड़ कर प्रभुके ध्यान में लग गई।
दुःशासन ने अपनी सारी शक्ति लगा दी किन्तु वह द्रौपदी का चीर न खींच सका । उसे ऐसा मालूम पड़ने लगा जैसे द्रौपदी में कोई महान् शक्ति कार्य कर रही हो। वह भयभीत सा होकर
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
AAA
श्री जैन सिमान्त बोन समह,
पांचवां भाग २८६
खड़ा रह गया । दुर्योधन के पूछने पर उसने कहाभाई ! मुझ से यह नहीं खींचा जा रहा है। अधिक जोर से खींचता हूँ तो ऐसा मालूम पड़ता है जैसे कोई मेरा हाथ पकड़ कर खींच रहा है। इसके मुंह पर देखता हूँ तो आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है । पता नहीं इसमें इतना बल कहाँ से आगया । मेरे हाथ काम नहीं कर रहे हैं। अब तो तुम आओ ।
सारी सभा स्तब्ध रह गई । दुर्योधन ने अपनी जांघ उघाड़ी और कहा द्रौपदी ! आओ यहाँ बैठो ।
सभी का मस्तक लज्जा से नीचे झुक गया । भीष्म और द्रोण कुछ न बोल सके । भीम से यह दृश्य न देखा गया। उसने खड़े हो कर प्रतिज्ञा की - दुःशासन ! दुर्योधन ! यह दृश्य मेरी आँखें नहीं देख सकतीं। अभी तो हम लाचार हैं, प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण कुछ नहीं कर सकते किन्तु युद्ध में अगर मैं दु:शासन के रक्त से द्रौपदी के इन केशों को न सींचें तथा दुर्योधन की इस जांघ को चूर चूर न करूँ तो मेरा नाम भीम नहीं है ।
1
सारी सभा में भय छा गया। भीम के बल से सभी कौरव परिचित थे । उसकी प्रतिज्ञा भयङ्कर थी । इतने में धृतराष्ट्र और गान्धारी वहाँ आए । धृतराष्ट्र युधिष्ठिर आदि पाण्डवों के पिता पाण्डु के बड़े भाई थे । वे जन्मान्ध थे, इस लिए गद्दी पाण्डु को मिली। धृतराष्ट्रको अपनी सन्तान पर प्रेम था। वे चाहते थे कि गद्दी उनके ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन को मिले, किन्तु लोकलाज से डरते थे । सभा में आते ही उन्होंने द्रौपदी को अपने पास बुला कर सान्त्वना दी । दुःशासन और दुर्योधन को उलाहना दिया । अपने पुत्र द्वारा दिए गए इस कष्ट के लिए द्रौपदी से कुछ मांगने को कहा ।
द्रौपदी बोली- मुझे और कुछ नहीं चाहिए मैं तो सिर्फ पाँचों पाण्डवों की मुक्ति चाहती हूँ ।
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
'तथास्तु' कह कर धृतराष्ट्र ने सभी पाण्डवों को दासपने से मुक्त कर दिया ।
१६०
दुर्योधन से यह न देखा गया। उसने दुवारा जुआ खेलने के लिए युधिष्ठिर को आमन्त्रित किया । हारा हुआ जुआरी दुगुना खेलता है इसी लोकोक्ति के अनुसार युधिष्ठिर फिर तैयार होगए ।
इस बार यह शर्त रखी गई कि जो हारे वह बारह वर्ष वन में रहे और एक वर्ष गुप्तवास करे। यदि गुप्तवास में उसका पता लग जाय तो फिर वारह वर्ष वन में रहे ।
भविष्य में होने वाली घटना के लिए कारणसामग्री पहले से तैयार होजाती है । महाभारत के महायुद्ध में जो भीषण नरसंहार होने वाला था, उसकी भूमिका पहले से तैयार हो रही थी । शकुनि के पासे सीधे पड़े । युधिष्ठिर हार गए। उन्हें बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का गुप्तवास प्राप्त हुआ। द्रौपदी और पाँच पाण्डवों ने वन की ओर प्रस्थान किया । वे झोंपड़ी बना कर घोर जंगल में रहने लगे ।
एक दिन की बात है । युविष्ठिर अपनी झोंपड़ी में बैठे थे । वाकी चारों भाई जंगल में फल फूल लाने गए हुए थे। पास ही द्रौपदी बैठी थी। बातचीत के सिलसिले में युधिष्ठिर ने लम्बी सॉस छोड़ी। द्रौपदी ने आग्रहपूर्वक निःश्वास का कारण पूछा। बहुत आग्रह होने पर युधिष्ठिर ने कहा- द्रौपदी ! मुझे स्वयं कोई दुःख नहीं है। दुःख तो मुझे तुम्हें देख कर हो रहा है। तुम्हारे सरीखी कोमल राजकुमारी महलों को छोड़ कर वन में भटक रही है, यही देख कर मुझे कष्ट हो रहा है।
द्रौपदी बोली- महाराज ! मालूम पड़ता है मुझे अभी तक आप ने नहीं पहिचाना | जहाँ आप हैं वहाँ मुझे सुख ही सुख है। आप सुख में मेरा सुख है और दुःख में दुःख । विवाह के बाद पहली
1
के
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६१
रात मैंने कुम्हार के घर में आप सभी के चरणों में सोकर बिताई थी । उस समय मुझे सुहागरात से कम आनन्द न हुआ था । इस लिए मेरी बात तो छोड़िए । अपने चारों भाइओं के विषय में विचार कीजिए। इन्हीं के लिए आप वन्धन में फँसे । इन्हीं के लिए आप ने यज्ञ किया और इन्हीं के लिए आप इन्द्रप्रस्थ के राजा बने । जिन से शत्रु थर थर काँपते हैं ऐसे आपके भाई पेट भरने के लिए जंगलों में रखड़ रहे हैं। क्या इस बात का आप को खयाल है ? कभी आपको इस बात का विचार भी आता है ?
मापन सिद्धान्त बाल समझ, पाचवा भाग
युधिष्ठिर आता तो है किन्तु
द्रौपदी- नहीं, नहीं, यह विचार आप को नहीं आता । भरे दरबार में आपने अपनी स्त्री को जुए की बाजी पर रक्खा। आप की आँखों के सामने उसके बाल खींचे गए। कपड़े खींच कर उसे नंगी करने का प्रयत्न किया गया । उसे अपमानित किया गया। हम को शाप दिलाने की इच्छा से दुर्वासा ऋषि को बड़े परिवार के साथ यहाँ भेजा गया । दुर्योधन का बहनोई मुझे यहाँ से उठा ले गया। लाख का घर बना कर हम सब को जला डालने का प्रयत्न किया गया। फिर भी आप को दया आ रही है। आप का मन दुर्योधन को क्षमा करने का हो रहा है। महाराज ! मैं उन सब बातों को नहीं भूल सकती । दुःशासन के द्वारा किया गया अपमान मेरे हृदय में काँटे के समान चुभ रहा है। सच्चे हृदय से समझाने पर भी वह नहीं मानेगा। युद्ध के बिना मैं भी नहीं मान सकती । भाप की क्षमा क्षमा नहीं है । यह तो कायरता है। क्षत्रियों में ऐसी क्षमा नहीं होती । फिर भी यदि आप इस कायरता पूर्ण क्षमा को ही धारण करना चाहते हैं तो स्पष्ट कह दीजिए। आप संन्यास धारण कर लीजिए। हम शत्रुओं से अपने आप निपट लेंगे। पहले उनका संहार करके राज्य प्राप्त करेंगे, फिर आप के पास आकर संन्यास
-
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन मन्थमाला
की बातें करेंगे। द्रौपदी की आँखें क्रोध से लाल हो गई । उस में क्षत्रियाणी का खून उबलने लगा ।
युधिष्ठिर - द्रौपदी ! मुझे भी ये सारी बातें याद हैं। फिर भी अभी एक वर्ष की देर है । हमें अज्ञातवास करना है । बाद में देखा जाएगा। फिर भी मैं कहता हूँ कि यदि उसे सच्चे हृदय से प्रेम पूर्वक समझाया जाय तो वह अब भी मान सकता है। उसका हृदय परिवर्तित हो जाएगा ।
द्रौपदी - हाँ, हाँ! आप समझा कर देखिए । मैं तो युद्ध के सिवाय कुछ नहीं चाहती ।
युधिष्ठिर सत्यवादी थे । अहिंसा और सत्य पर उनका दृढ़ विश्वास था । उनका विचार था कि इन दोनों में अनन्त शक्ति है। मनुष्य या पशु कोई कितना भी क्रूर हो किन्तु इन दोनों के सामने उसे झुकना ही पड़ता है | द्रौपदी का विश्वास था- विष की औषधि विष होता है । हिंसक तथा क्रूर व्यक्ति अहिंसा से नहीं समझाया जा सकता। दुष्ट व्यक्ति में जो बुरी भावना उठती है तथा उसके द्वारा वह दूसरे व्यक्तियों को जिस वेग के साथ नुक्सान पहुँचाना चाहता है उसका प्रतिकार केवल हिंसा ही है। एक बार उसके वेग को हिंसा द्वारा कम कर देने के बाद उपदेश या अहिंसा काम कर सकते हैं।
२६२
AAAAA
द्रौपदी और युधिष्ठिर अपने अपने विचारों पर दृढ़ थे । वनवास के बारह साल बीत गए। गुप्तवास का तेरहवाँ साल विताने के लिये पाण्डवों ने भिन्न भिन्न प्रकार के वेश पहिने । विराट नगर के श्मशान में आकर उन्होंने आपस में विचार किया। अर्जुन ने अपना गाण्डीव धनुष एक वृक्ष की शाखा के साथ इस प्रकार दिया जिससे दिखाई न पड़े। सभी ने एक एक दिन के अन्तर से नगर में जाकर नौकरी कर ली ।
युधिष्ठिर ने अपना नाम कंक रक्खा और राजा के पुरोहित
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग २६३ worrn m. in. ammmm. no rrrrrm www rine www . mar~ ___पने की नौकरी कर ली। भीम ने वल्लभ के नाम से रसोइए की, __ अर्जन ने बृहन्नला के नाम से राजा के अन्तःपुर में नृत्य सिखाने
की, नकुल और सहदेव ने अश्वपालक और गोपालक फी तथा द्रौपदी ने सैरन्ध्री के नाम से रानी के दासीपने की नौकरी कर ली। वे अपने गुप्तवास का समय बिताने लगे।
रानी का भाई कीचक बहुत दुष्ट और दुराचारीया। वह द्रौपदी को वहुत तंग किया करता था। एक बार द्रौपदी भीम के पास गई और उसके पूछने पर कहने लगी
रानी का भाई कीचक मेरे पीछे पड़ा है। एक बार भरी सभा में उसने मेरे लात मारी । युधिष्ठिर महाराज तो क्षमा के सागर ठहरे। उन्होंने कहा-भद्रे तुम्हारी रक्षा पाँच गन्धर्व करेंगे। अब तोकीचक बुरी तरह पीछे पड़ गया है। रानी भी उसे साय दे रही है, वार बार मुझे उसके पास भेजती है।
भीम-तुम उसे किसी स्थान पर मिलने के लिए बुलाओ।
द्रौपदी-कल रात को नई नृत्यशाला में मिलने के लिए उसे कहूँगी किन्तु भूल न हो, नहीं तो बहुत बुरा होगा। __ भीम-भूल कैसे हो सकती है? तुम्हारे स्थान पर मैं सो जाऊँगा और उसके आते ही सारा काम पूरा कर दूंगा।
दूसरे दिन निश्चित समय पर कीचक नई नृत्यशाला में गया । सोए हुए व्यक्ति को सैरन्ध्री समझ कर उसके पास गया । भालिंगन करने के लिए झका । भीम ने उसे अपनी भुजाभों में कस फर ऐसा दबाया कि वह निर्जीव होकर वहीं गिर पड़ा। _ कीचक की मृत्यु का समाचार सारे शहर में फैल गया।रानी ने समझा, यह काम सैरन्ध्री के गन्धों ने किया है। उसने सैरन्ध्री को कीचक के साथ जला डालने का निश्चय किया और कीचक की अर्थी के साथ उसे बॉध दी।
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६१.
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
भीम को यह बात मालूम पड़ी । भयंकर रूप वना कर वह श्मशान में गया, अर्थी ले जाने वाले लोगों को मार भगाया और द्रौपदी को बन्धन से मुक्त कर दिया।
तेरहवॉवर्षे पूरा होने पर पॉचों पाण्डव प्रकट हुए। विराट राजा और उसकी रानी ने सभी से क्षमा मांगी । द्रौपदी को दिए हुए दुःख के लिए रानी ने पश्चात्ताप किया।
पाण्डव अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुके थे। शत के अनुसार भब राज्य उन्हें वापिस मिल जाना चाहिए था किन्तु दुर्योधन की नीयत पहले से ही बिगड़ चुकी थी। इतने साल राज्य करते करते उसने बड़े बड़े योद्धाओं को अपनी तरफ मिला लिया था। द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा वगैरह बड़े बड़े महारथी उसके पक्ष में होगए थे। राजा होने के कारण सैनिक शक्ति भी उसने बहुत इकट्ठी कर ली थी। उसे अपनी विजय पर विश्वास था। वह सोचता था, पाण्डव इतने दिनों से वन में निवास कर रहे हैं फिर मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं । इन सब बातों को सोच कर उसने राज्य वापिस करने से इन्कार कर दिया।
पाण्डवों को अपने बल पर विश्वास था। दुर्योधन द्वारा किया गया अपमान भी उनके मन में खटक रहा था। इस लिए वे युद्ध के लिए तैयार होगए, किन्तु युधिष्ठिर शान्तिप्रिय थे। वे चाहते थे जहाँ तक हो सके युद्ध को टालना चाहिए। दुर्योधन की इस मनोवृत्ति को देख कर उन्होंने सोचा-यदि अपनी आजीविका के लिए हम लोगों को सिर्फ पाँच गाँव मिल जायँ तो भी गुजारा हो सकता है। यदि इतने पर भी दुर्योधन मान जाय तो रक्तपात रुक सकता है। __ श्रीकृष्ण भी जहॉतक हो सके, शान्ति को कायम रखना चाहते थे। युधिष्ठिर ने अपनीवात श्रीकृष्ण के सामने रक्खी और उन्हीं पर सन्धि का सारा भार डाल दिया।
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग २६५ • •rnmmmmmmmmmmmmmmmmm
द्रौपदी को युधिष्ठिर की यह बात अच्छी न लगी । दुःशासन द्वारा किया गया अपमान उसके हृदय में कॉटे की तरह चुभ रहा था। वह उसका बदला लेना चाहती थी। अपने खुले हुए केशों को हाथ में लेकर द्रौपदी श्रीकृष्ण से कहने लगी- प्रभो आप सन्धि के लिए जारहे हैं । विशाल साम्राज्य के वदले पाँच गाँव देकर कौन सन्धि न करेगा ? उसमें भी जब सन्धि कराने वाले आप सरीखे महापुरुष हों। आपने हमारे भरण पोषण के लिए पॉच गॉवों को पर्याप्त मान कर शान्ति रखना उचित समझा है, किन्तु मैं गाँवों की भूरवी नहीं हूँ। जंगल में रह कर भी मैं अपने दिन प्रसन्नतापूर्वक काट सकती हूँ।मुझे साम्राज्य की परवाह नहीं है। मैं तो अपने इन केशों के अपमान का बदला चाहती है। जिस समय दुष्ट दुःशासन ने इन्हें खींचा था, मैंने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक ये केश उसके रक्त से न सींचे जाएंगे तब तक मैं इन्हें न बाँधेगी। क्या मेरे ये केश खुले ही रह जाएंगे? क्या एक महिला का अपमान आपके लिये कोई महत्व नहीं रखता ? भीम ने दुःशासन का वध और दुर्योधन की जंघा चूर चूर करने की प्रतिज्ञा की है। क्या उसकी प्रतिज्ञा अपूर्ण ही रह जायगी ?
दुर्योधन ने हमारे साथ क्या नहीं किया ? जहर देकर मार डालने का प्रयत्न किया, लाख के घर में जला देना चाहा,दुर्वासा मुनि से शाप दिलाने की कोशिश की,हमारा जगह जगह अपमान किया. मेरी लाज छीनने में भी कसर नहीं रक्खी। वनवास तथा गुप्तवास के वाद शत के अनुसार हमें सारा साम्राज्य मिलना चाहिए उसके बदले भाप पाँच गॉव लेकर सन्धि करने जा रहे हैं.क्या यह अन्याय का पोषण नहीं है ? क्या यह पापी दुर्योधन के लिए श्राप का पक्षपात नहीं है ? क्या हमारे अपमानों का यही बदला है ? द्रौपदी की वक्तृता सुन कर सभी लोग दंग रह गए। उन्हें ऐसा
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला
२६६
1
मालूम पड़ने लगा जैसे उसके शरीर में कोई देवी उतर आई हो । सब के सब युद्ध के लिए उत्तेजित हो उठे । पाँच गाँव लेकर सन्धि करना उन्हें अन्याय मालूम पड़ने लगा ।
श्रीकृष्ण द्रौपदी की बातों को धैर्यपूर्वक सुनते रहे । अन्त में कहने लगे - द्रौपदी! तुमने जो बातें कही हैं वे अक्षरशः सत्य हैं । तुम्हारे साथ कौरवों ने जो दुर्व्यवहार किया है उसका बदला युद्ध के सिवाय कुछ नहीं है । सारी दुनिया ऐसा ही करती है । किन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ कि अहिंसा में कितनी शक्ति है । हिंसा पाशविक वल है। क्या उसके बिना काम नहीं चल सकता ? सभी शास्त्र हिंसा की अपेक्षा अहिंसा में अनन्तगुणी शक्ति मानते हैं । मैं इस सत्य का प्रयोग करके देखना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ तुम दुनिया के सामने यह आदर्श उपस्थित करो कि अहिंसा हिंसा को किस प्रकार दवा सकती है। महाराज युधिष्ठिर का भी यही कहना
तुम्हारी पुरानी घटनाओं में सब जगह अहिंसा की जीत हुई है | दुःशासन ने तुम्हें अपमानित करने का प्रयत्न किया । द्रौपदी ! तुम्हीं बताओ इस में हार किस की हुई ? दुःशासन की या तुम्हारी ? वास्तव में पतन किसका हुआ, उसका या तुम्हारा ? यदि उस समय शस्त्र से काम लिया जाता तो पाण्डव प्रतिज्ञाभ्रष्ट हो जाते। ऐसी दशा में पाण्डवों का उज्ज्वल यश मलिन हो जाता । लाक्षागृह और दूसरी सभी घटनाओं में तुम लोगों ने शान्ति से काम लिया और हिंसा द्वारा विजय प्राप्त की । वह विजय सदा के लिए अमर रहेगी और संसार को कल्याण का मार्ग बताएगी। मैं चाहता हॅू तुम उसी प्रकार की विजय फिर प्राप्त करो। खून खराबी द्वारा उस विजय को मलिन न बनाना चाहिए।
द्रौपदी ! तुम इन केशों को दिखा रही हो। ये केश तो भौतिक वस्तु हैं। थोड़े दिनों बाद अपने आप मिट्टी में मिल जाएंगे। इन
wwwwww
WAAAAAWv pan
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
२६७
का लोच करके भी तुम अपनी प्रतिज्ञा से छुटकारा पा सकती हो। किन्तु अहिंसाधर्म के जिस महान् श्रादर्शकोतुमने अब तक दुनिया के सामने रक्खा है उसे मलिन न होने दो। उसके मलिन होने पर वह धब्बा मिटना असम्भव हो जाएगा। उस महान् आदर्श के सामने भीम की प्रतिज्ञा भी तुच्छ है।
तुम वीराङ्गना और वीर पुत्री हो। मैं तुम से सच्ची वीरता की आशा रखता हूँ। सच्ची वीरता धर्म की रक्षा में है, दूसरे के प्राण लेने में नहीं। द्रौपदी! जिस आत्मिक बल ने तुम्हारी चीरहरण के समय रक्षा की थी वही तुम्हारी प्रतिज्ञाओं को पूरा करेगा। वही तुम्हारे केशों के धब्वे को मिटाएगा। उसी पर निर्भर रहो। पाशविक पल की ओर ध्यान मत दो।
कृष्ण की बातों से द्रौपदी कामावेश कम होगया।वह शान्त होकर बोली- आप प्रयत्न कीजिए अगर दुर्योधन मान जाय ।
श्रीकृष्ण दुर्योधन के पास गए किन्तु उसने उनकी एक भी पात नहीं मानी । उसे अपनी पाशविक शक्ति पर गर्व था। उसने उत्तर दिया-पाँच गॉव तो बहुत बड़ी चीज है। मैं सूई के अग्र-भाग जितनी जमीन भी बिना युद्ध नहीं दे सकता। श्रीकृष्ण द्वारा की गई सन्धि की बातचीत निष्फल हो गई। दुर्योधन की पैशाचिक लिप्सा सभी लोगों के सामने नम रूप में आ गई।
दोनों भोर से युद्ध की तैयारियाँ हुई। कुरुक्षेत्र के मैदान में अठारह अक्षौहिणी सेना खून की प्यासी बन कर पा डटी।महान् नरसंहार होने लगा।खून की नदियाँ बह चली। विजय पाण्डवों की हुई किन्तु वह विजय हार से भी बुरी थी। पाँच पाण्डवों को छोड़ कर सारे सैनिक युद्ध में काम भागए। मेदिनी लाशों से भर गई। देश की युवाशक्ति मटियामेट हो गई। लाखों विधवाओं, घद्धों और बालकों के क्रन्दन से भरी इन्द्रप्रस्थपुरी में युधिष्ठिर
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
wwwnwwwm
राजसिंहासन पर बैठे।
यह दृश्य देख कर द्रौपदी का हृदय दहल उठा । उसे विश्वास हो गया कि हिंसात्मक युद्ध में विजित भौर विजयीदोनों की हार है और अहिंसात्मक युद्ध में दोनों की विजय है। दोनों का कल्याण है। उस सूने राज्य में द्रौपदी कामन न लगा।शान्ति प्राप्त करने के लिए उसने दीक्षा ले ली। पॉचों पाण्डव भी संसार से विरक्त होकर मुनि बन गए।
शुद्ध संयम का आराधन करते हुए यथासमय समाधि पूर्वक काल करके पाँचों पाण्डव मोक्ष में गए। द्रौपदी पाँचवें ब्रह्मदेवलोक में उत्पन्न हुई। वहॉ मे चव फर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगीभोर यहीं से मोक्ष जाएगी।
(६) कौशल्या प्राचीन समय में कुशस्थल नाम का अति रमणीय एक नगर या। वहाँ राजा के सब गुणों से युक्त मुसोशल नाम का राजा न्याय नीति पूर्वक राज्य करता था । प्रजा को वह अपने पुत्र के समान समझता था इसी लिए प्रजा भी उसे हृदय से अपना राजा मानती थी। उसकी रानी का नाम अमृतमभाथा। उसका स्वभाव बहुत कोमल और मधुर था। कुछ समय पश्चात् रानी की कुक्षि से एफ कन्या का जन्म हुआ। उसका नाम अपराजिता रक्खा गया। रूप लावण्य में वह अद्भुत थी। अपने माता पिता की इकलौती सन्तान होने के कारण वे उसे बहुत लाड प्यार करते थे । उसका लाढप्यार वाला दूसरा नाम कौशल्याथा। अनेक धायों की संरक्षणता में वह बढ़ने लगी। जब वह स्त्री की सब फलाओं में निपुण होकर युवावस्था को प्राप्त हुई तब माता पिता को उसके अनुरूप वर खोजने फी चिन्ता पैदा हुई। इधर अयोध्या नगरी के अन्दर राजा दशरथ राज्य कर रहे
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग
२९६
थे।मातापिताके दीक्षा ले लेने के कारण राजा दशरथ बाल्यावस्था में ही राजसिंहासन पर विठा दिये गये थे। जब वे युवावस्था को प्राप्त हुए और राज्य का कार्य स्वयं सम्भालने लगे तब उनका ध्यान अपने राज्य की वृद्धि करने की ओर गया। अपने अपूर्व पराक्रम से उन्होंने कई राजामों को अपने अधीन कर लिया। एक समय उन्होंने कुशस्थल पर चढ़ाई की। राजा दशरथ की सेना के सामने राजा कोशल की सेना न ठहर सकी। अन्त में सुकोशल पराजित हो गया। राजा मुकोशल ने अपनी कन्या कौशल्या का विवाह राजा दशरथ के साथ कर दिया। इससे दोनों राजाओं का सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ हो गया। अयोध्या में आकर राजा दशरण रानी कौशल्या के साथ प्रानन्द पूर्वक समय बिताने लगा।
मिथिला का राजा जनक और राजा दशरथ दोनों समवयस्क थे। एक समय में दोनों उत्तरापथ की ओर गये। वहाँ कौतुकमंगल नगर के गना शुभमति की कन्या कैकयी का स्वयंवर हो रहाथा। वे भी वहाँ पहुँचे। राजाओं के बीच में वे दोनों चन्द्र और सूर्य के सपान शोभित हो रहे थे । वस्त्राभूषण से अलंकृत होकर फैकयी प्रतिहारी के साथ स्वयंवर मण्डप में आई। वहॉ उपस्थित राजाओं को देखती हुई बाद मागे बढ़ती गई। राजा दशरथ के पास आकर वह खड़ी होगई और बरमाला उनके गले में डाल दी। यह देख कर दूसरे राजामों को बहुत बुरा लगा। जबर्दस्ती से फैकयी को छीन लेने के लिये वे युद्ध की तय्यारी करने लगे। राजा शुभपति चौर गजा दशरथ भी लड़ाई के लिये तय्यार हुए। राजा दशरथ के रथ में बैठ कर कैकयी उसका सारथी बनी बस ने ऐसी चतुराई से रथ को हकना शुरू किया जिससे राजा दशरथ की लगातार विजय होती गई। अन्त में सब राजाओं को परास्त कर राजा दशरथ ने कैकयी के साथ विवाह किया। प्रसन्न होकर
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन मन्यमाला
राजा दशरथ ने कैकयी से कहा- हे पिये! तुम्हारे सारथीपन के कारण ही मेरी विजय हुई है। मैं इससे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम कोई परमांगो। कैकयी ने उत्तर दिया- स्वामिन् ! समय भावेगा तब मॉग लँगी। अभी आप इसे अपने ही पास धरोहर की भाँति रखिए। इसके पश्चात् राजा दशरथ कैकयी को लेकर अपने नगर में चले आए। कुछ समय बाद उसने सर्वाङ्गसुन्दरी राजकुमारी सुमित्रा (मित्राभू, मशीला) और सुप्रभा के साथ विवाह किया। __रानियों के साथ राजा दशरथ सुखपूर्वक अपना समय बिताने लगे। रानी कौशल्या में अनेक गुण थे। उसका स्वभाव बड़ा सीधा सादा और सरल था । सौतिया डाह तो उसके अन्दर नाम मात्र को भी न था। कैकयी,सुप्रभाऔर सुमित्रा को वह अपनी छोटी वहने मान कर उनके साथ बड़े प्रेम का व्यवहार करती थी। सद्गुणों के कारण राजा ने उसे पटरानी बना दिया।
एक समय रात्रि के पिछले पहर में कौशल्याने बलदेव के जन्म सूचक चार महास्वम देखे। उसने अपने देखे हुए स्वम राजा को सुनाये । राजा ने कहा-प्रिये ! तुम्हारी कुति से एक महान् प्रतापी पुत्र का जन्म होगा। रानी अपने गर्भ का यत्र पूर्वक पालन करने लगी। गर्भस्थिति पूरी होने पर रानी ने पुण्डरीक कमल के समान वर्ण वाले पुत्र को जन्म दिया।
पुत्र जन्म से राजा दशरथ को अत्यन्त हर्ष हुमा। प्रजा खुशियों मनाने लगी। अनेक राजा विविध प्रकार की भेटें लेकर राजा दशरथ की सेवा में उपस्थित होने लगे। खजाने में पद्मा (लक्ष्मी) की बढ़त वृद्धि हुई, इससे राजा दशरथ ने पुत्र कानाम परखा। लोगों में ये राम के नाम से प्रख्यात हुए । ये बलदेव थे।
कुछ समय पश्चात् रानी सुमित्रा ने एक रात्रि के शेष भाग में पमुदेव के जन्म सूचक सात महाखम देखे। समय पूरा होने पर उसने
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
३०१
एक प्रतापी, तेजस्वी और पुण्यशाली पुत्र को जन्म दिया । पुत्र जन्म से राजा, रानी तथा प्रजा सभी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। राजाने पुत्र का नाम नारायण रक्खा किन्तु लोगों में वह लक्ष्मण' इस नाम से प्रख्यात हुआ। ये दोनों भाई पृथ्वी पर चन्द्र और सूर्य के समान शोभित होने लगे।
इसके पश्चात् कैकयी की कुक्षि से भरत और मुप्रभा की कृति से शत्रघ्न ने जन्म लिया। योग्य समय पर कलाचार्य के पास सब कलाएं सीख कर चारों भाई फला में प्रवीण हो गये।
एक समय चार ज्ञान केधारक एक मुनिराज अयोध्या में पधारे। राजा दशरथ उन्हें वन्दना नमस्कार करने के लिये गया। मुनिने समयोचित धर्मदेशना दी। राजा ने अपने पूर्वभव के विषय में पूछा। मुनिराज ने राजा को उसका पूर्वभव कह सुनाया जिससे उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को राज्य सौंप कर दीक्षा लेने का निश्चय किया।
राम के राज्याभिषेक की बात सुन कर कैकयी के हृदय में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। उसने स्वयंवर के समय दिये हुए वरदान को इस समय राजा से मांगा और कहा कि मेरे पुत्र भरत कोराज्य मिले और राम को वनवास । इस दुःखद वरदान को सुन कर राजा को मूर्यो भा गई । जब राम को इस बात का पता लगा तो वे शीघ्र ही वहाँ भाये । शीतल उपचारों से राजा की मूर्छा द्रकर उनकी आज्ञा से वन जाने को तय्यार हुए। सबसे पहले वे माता कैकयी के पास पाये । उसे प्रणाम कर वन जाने की आशामॉगी। इसके पश्चात् वे माता कौशल्या के पास भाये। वन जाने की बात मुन कर उनको प्रति दुःख हुआ किन्तु इस मारेप्रपंच को रचने बाली दासी मन्थरापर और कठिन वरदानको माँगने वालीरानी कैकयी पर उन्होंने जरा भी क्रोध नहीं किया और न उनके प्रति
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२
पी सेठिया जैन प्रन्पमाला
किसी प्रकार के कटुतापूर्ण शब्दों का प्रयोग ही किया । माता फौशल्या ने गम्भीरता और धैर्य पूर्वक राम को वन में जाने की अनुमति दी । पतिव्रता सीता श्री राम के साथ वन को गई और लक्ष्यण भी उनके साथ वन को गया ।
हौशल्या के हृदय में जितना स्नेह राम के लियेथा रतनाही स्नेह लक्ष्मण और भरतादि के लिये भी था। सीता हरण के कारण रावण के साथ संग्राम करते हुए लक्ष्मण को शक्ति बाण लगा और वह मूच्छित होकर गिर पड़ा यह खबर जब अयोध्या पहुँची तो रानी कौशल्या को बहुत दुख हुभा (बह सोचने लगी राम ! तुम लक्ष्मण के बिना वापिस अकेले कैसे आओगे?व्याकुल होती हुई सुमित्रा को उसने शाश्वासन देकर धैर्य बंधाया। इतने में नारद ने भाकर लक्ष्मण के स्वस्थ होने की खबर कौशल्या मादि रानियों को दी तब कहीं जाकर उनकी चिन्ता दूर हुई। ___ अपने पराक्रम से लंका पर विजय प्राप्त करके लक्ष्मण और सीता सहित राम बापिस अयोध्या में भाये। भरत के अत्याग्रह से राम ने अयोध्या का राज्य स्वीकार किया।
रानी फौशल्या ने राम को वन में जाते देखा और लंका पर विजय प्राप्त कर वापिस लौटते हुए भी देखा। राम को वनवासी तपस्वी वेप में भी देखा और राज्य वैभव से युक्त राजसिंहासन पर बैठे हुए थी देवा । कौशल्याने पति सुख भी देखा और पुत्रवियोग के दारव को भी सहन लिया। बरामरानी भी बनी और वाजमाता भी बनी। उसने संसार के सारे रंग देख लिये किन्तु उस कहीं भीआत्मिक शान्ति का अनुभव नहीं हुमा । संसार के प्रति उसे वैराग्य होगया। सांसारिक बंधनों को तोड़ जर उसने दीक्षा गड्वीकार कर ली। कई वर्षों तक शुद्ध संयम का पालन कर सद्गति को प्राप्त किया।
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री वैन सिदान्त वोल संग्रह, पांचां भाग
३०३
~ .mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm -
(७) मृगावती
मृगावती वैशाली के प्रसिद्ध महाराजा चेटक (चेड़ा) की पुत्री थी। उसकी एक बहिन का नाम पद्मावती था जो चम्पा के राजा परिवाहन की रानी थी। सती पद्मावती ने भी अपने उज्ज्वल चरिम द्वारा सोलह सतियों के पवित्र हार को सुशोभित किया है। उस का चरित्र भागे दिया जाएगा।
मृगावती की दूसरी बहिन का नाम त्रिशला था जो महाराज सिद्धार्थ की रानी थी। उसी के गर्भ से चरम तीर्थङ्कर श्रमण भगवान महावीर का जन्म हुआ था। पद्मावती भौर त्रिशलाके सिवाय मृगावती के चार बहनें और थीं।।
मृगावती बहुत सुन्दर, धर्म परायण और गुणवती थी। उस मा विवाह कौशाम्बी के महाराजाशतानीक के साथ हुआ था। अपने गुणों के कारण वह उसकी पटरानी बन गई थी।
फौशाम्बी वाणिज्य, व्यवसाय और कलाकौशल्म के लिए प्रसिद्ध थी। वहाँ बहुत से चित्रकार रहते थे।
एक बार कौशाम्बी का एक चित्रकार चित्रकला में भधिक प्रवीण होने के लिए सातनपुर गया। वहाँ एक बुढ़िया चितेरन के घर ठहर गया। बुढ़िया का लड़का चित्रकला में बहुत निपुण था। कौशाम्बी काचित्रकार वहीं रहकर चित्रकला सीखने लगा।
एक वार बुढ़िया के घर राजपुरुष भाए। वे उसके लड़के के नाम की चिट्ठी लाए थे। मुढ़िया उन्हें देख कर छाती और सिर कूटती हुई जोर जोर से रोने लगी। कौशाम्बी के चित्रकार ने उस से रोने का कारण पूछा । बुढ़िया ने कहा- बेटा ? यहॉ सुरप्रिय नाम के यज्ञ का स्थान है। वहॉ प्रति वर्ष मेला भरता है। उस
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०१
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
मेले के दिन किसी न किसी चित्रकार को उस यतका चित्र अवश्य बनाना पड़ता है। यदि चित्र में किसी प्रकार की त्रुटि रह जाय तो यक्ष चित्रकार के प्राण ले लेता है । यदि उस का चित्र बनाने के लिए कोई तैयार न हो तो यक्ष कुपित होकर नगर में उपद्रव मचाने लगता है। बहुत से लोगों को मार डालता है।
इस बात से डर कर बहुत से चितेरे नगर छोड़ कर भाग गए, फिर भी यक्ष का कोप कम नहीं हुआ। सांकेतनपुर में सभी लोग भयभीत रहने लगे। यह देख कर यक्ष को प्रसम करने के लिए राजा ने सिपाहियों को भेज कर चितेरों को फिर नगर में बुला लिया। मेले के दिन प्रत्येक चित्रकार के नाम की चिट्ठी घड़े में डाल कर एक कन्या द्वारा निकलवाई जाती है। जिसके नाम की चिट्टी निकलती है उसी को यक्ष का चित्र बनाने के लिए जाना पड़ता है। आज मेले का दिन है। मेरे पुत्र के नाम की चिट्ठी निकली है। मेरा यह इकलौता बेटा है। इसी की कमाई से घर का निभाव हो रहा है। यह चिही यमराज के घर का निमन्त्रण है। इस वृद्धावस्था में इस पुत्र के विना मेरा कौन सहारा है?
कौशाम्बी के चित्रकार ने कहा- माताजी! आप शोक मत कीजिए। यत का चित्र बनाने के लिए आपके पुत्र के बदले में चला जाऊँगा। इस प्रकार उसने वृद्धा के शोक को दूर कर दिया। धैर्य, उत्साह और साहसपूर्वक वह पुलिस के साथ हो लिया। उस ने उसी समय अहम तप का पच्चखाण कर लिया और चित्र बनाने के लिए केसर, कस्तूरी भादि महा मुगन्धित पदार्थों को साथ ले लिया। पवित्र होकर वह यक्ष के मन्दिर में पहुँचा।केसर, चन्दन, भगर, कस्तूरी भादि मुगन्धित पदार्थों के विविध रंग बना कर उस ने यक्ष का चित्र बनाया।फिर चित्र की पूजा करके एकाग्र चित्त से उसके सामने बैठ कर और हाथ जोड़ कर कहने लगा
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांरवां माग
हे यक्षाधिराज ! मैंने भाप का चित्र बनाया है। उस में यदि कोई त्रटि रह गई हो तो इस सेवक को क्षमा कीजिएगा । आप के सन्तोष से सभी का कल्याण है। नगर के सभी लोग श्रापकी प्रसन्नता चाहते हैं।
यक्ष चित्रकार की स्तुति से प्रसन्न हो गया और बोला-चित्रकार! मैं तुम पर सन्तुष्ट हूँ। अपना इच्छित वर मांगो।
चित्रकार ने कहा- यदि आप प्रसन्न हैं तो अब यहाँ के लोगों को अभयदान दे दीजिए। दया स्वर्ग और मोक्ष की जननी है।
चित्रकार का परोपकार से भरा हुमा कथन सुन कर यक्ष और भी प्रसन्न हो गया और बोला-याज से लेकर जीवन पर्यन्त मैं किसी जीव की हिंसा नहीं करूँगा। किन्तु यह वरदान तो मेरी सद्गति या परोपकार के लिए है । तुम अपने लिए कोई दूसरा वर मांगो।
चित्रकार ने उत्तर दिया-आपने मेरी प्रार्थनापरध्यान देकर जीव हिंसा को वन्द कर दिया, यह बड़े हर्ष की बात है। यदि आप विशेष प्रसन्न हैं तो मैं दूसरा वर माँगता हूँ-आप अपने मन को आत्मकल्याण की ओर लगाइर।
यक्ष अत्यन्त प्रसन्न होकर बोला- तुम्हारी बात मैं स्वीकार करता हूँ, किन्तु यह भी मेरे हित के लिए है। तुम अपने हित के लिए कुछ मांगो।
यक्ष के वार पार आग्रह करने पर चित्रकार ने कहा- यदि आप मेरे पर अत्यधिक प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिए कि मैं किसी व्यक्ति या वस्तु के एक भाग को देख कर सारे का चित्र खींच सकें। __ यक्ष ने 'तथाऽस्तु' कह कर उसकी प्रार्थना के अनुमार वर दे दिया। चित्रकार अपने अभीष्ट को प्राप्त कर बहुत खुश हुया
और अपने स्थान पर चला आया । उसके मुंह से सारा हाल सुन कर राजा और प्रजा को बड़ा हर्ष हुआ। सभी निर्भय होकर
विशेष प्रसन्न
र लगाइ। .. सहारी बात
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
श्री सेठिया जैन मन्यमाला
आनन्द पूर्वक रहने लगे । चित्रकार अपनी कुशलता के कारण सब जगह प्रसिद्ध हो गया। उसकी कीर्ति दूर दूर तक फैल गई ।
एक बार शतानीक ने अपनी चित्रशाला चित्रित करने के लिए
०६
उसी चित्रकार को बुलाया। राजा ने उसकी बहुत प्रशंसा की और
अपनी चित्रशाला में विविध प्रकार के प्राणी, सुन्दर दृश्य तथा दूसरी वस्तुएं चित्रित करने के लिए कहा ।
1
चित्रकार अपनी कारीगरी दिखाने लगा। सिंह, हाथी मादि प्राणी ऐसे मालूम पढ़ते थे जैसे वे अभी बोलेंगे। प्राकृतिक दृश्य ऐसे मालूम पढ़ते थे जैसे वास्तविक हो । सभी चित्र सजीव तथा भावपूर्ण थे। एक बार रानी मृगावती अपने महल की खिड़की मैं बैठी हुई थी । उसका अंगूठा चित्रकार की नजरों में पड़ गया । यक्ष द्वारा प्राप्त हुए वरदान के कारण उसने सारी मृगावती का हूबहू चित्र बना दिया। चित्रबनाते समय उसकी पीछी से काले रंग का एक धव्वा चित्र की जांघ पर गिर पड़ा । चित्रकार ने उसे पांच दिया किन्तु फिर भी वह काला चिह्न बना रहा । चित्रकार ने सोचामृगावती की जांघ पर सचमुच फाला तिल होगा इसी लिए वरदान के कारण वारवार पोंछने पर भी यह दाग यहाँ से नहीं मिटता । यह चिह्न देखने वाले के दिल में सन्देह पैदा करने वाला है, किन्तु नहीं निकलने पर क्या किया जाय। इस चित्र को वस्त्र पहना देने चाहिएं जिससे यह तिल ढक जाय । यह सोच कर काम को दूसरे दिन के लिए मुल्तवी करके वह अपने घर चला गया ।
अचानक उसी समय महाराज शतानीक चित्रशाला देखने के लिए आए । अनेक प्रकार के सुन्दर और कला पूर्ण चित्रों को 'देख कर उन्हें बढ़ी प्रसन्नता हुई। चित्र देखते हुए वे मृगावती के वस्त्र रहित चित्र के पास भा पहुँचे । चित्र को देख कर उन्हें चित्रकार की कुशलता पर आश्चर्य होने लगा । अचानक उनका ध्यान
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
३०७
जंघा पर पड़े हुए तिल के निशान पर गया। राजा के मन में सन्देह हो गया। वे सोचने लगे- इस चित्रकार का मृगावती के साथ गुप्त सम्बन्ध होगा, नहीं तो वह इस तिल को कैसे जान सकता है। उसका अपराध बहुत बड़ा है, इसके लिए उसे मृत्यु दण्ड मिलना चाहिए। यह निश्चय करके राजा ने उसके लिए मृत्युदण्ट की धाज्ञा दे दी।
चित्रकार ने क्षमा याचना करते हुए कहा-महाराज ! मुझे पक्ष की तरफ से वरदान मिला हुआ है। यह बात सभी लोग जानते हैं। आप भी इससे अपरिचित नहोंगे। उस वर के कारण में किसी वस्तु या व्यक्ति का एक अङ्ग देख कर पूरा चित्र बना सकता हूँ। मैंने महारानी का केवल एक अंगूठा देखा था, उसी से वर के कारण सारा चित्र खींच दिया।जपा के दाग को निकालने के लिए मैंने कई बार प्रयत्न किया किन्तु वह न निकला। हार कर मैंने दूसरे दिन इस चित्र को कपड़े पहिनाने का निश्चय किया जिस से यह दाग ढक जाय। मैंने भाप से सच्ची पात निवेदन कर दी है, अब भाप जो चाहें कर सकते हैं। आप हमारे मालिक हैं।
राजा ने चित्रकार की परीक्षा के लिए उसे एक कुब्जा का केवल मुंह दिखा कर सारीका चित्र बनाने की आज्ञादी चित्रकार ने कुना का हूबहू चित्र बना दिया। राजा को उसकी वास पर विश्वास हो गया। फिर भी उसने इस बात को अपना अपमान समझा कि चित्रकार ने रानी का चित्र उससे बिना पूछे इस प्रफार बनाया। इस लिए राजाने यह कहते हुए कि भविष्य में यह किसी कुलवती महिला का चित्र न खींचने पावे, चित्रकार का अंगूठा काट लेने की आज्ञा दे दी।
बिना दोष के दण्डित होने के कारण चित्रकार को यह वात बहुत बुरी लगी। उसने मन में बदला लेने का निश्चय किया।
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला
धीरे धीरे बाएं हाथ से चित्र बनाने का मभ्यास कर लिया। इस के बाद उसने मृगावती का चित्र बनाया और उसे शतानीक के परम शत्र भवन्ती के राजा चण्डप्रद्योतन के पास लेगया। __ राजा चण्डप्रयोतन उस सुन्दर चित्र को देख कर आश्चर्य में पड़ गया और चित्रकार से पूछने लगा- यह चित्र काल्पनिक है या वास्तव में इतनी सुन्दर स्त्री संसार में विद्यमान है ? ऐसा भाग्यशाली पुरुष कौन है जिसे ऐसी सुन्दरी पत्नी रूप में प्राप्त हुई है।
चित्रकार ने उत्तर दिया-महाराज ! यह चित्र काल्पनिक नहीं है। यह चित्र भापके शत्रु कौशाम्बी के राजा शवानीक की पटरानी मृगावती का है। महाराज ! चित्र तो चित्रही है। मृगावती का बास्तविक सौन्दर्य इससे हजारों गुणा अधिक है।
चित्रकार की बात सुनते ही राजा के हृदय में काम विकार जागृत हो गया। साथ में पुगना वैर भी ताना हो गया। उसने मन में सोचा- ऐसी सन्दरी तो मेरे महलों में शोभा देती है । शतानीक के पास उसका रहना उचित नहीं है। यह सोच कर अपने वज्रजंघ नामक दूत को बुलाया और मृगावती की मांगनी करने के लिए शतानीक के पास भेज दिया।
दत कौशाम्बी पहुंचा। शतानीक के सामने जाकर उसने चण्डप्रद्योतन का सन्देश सुनाया- महाराज ! हमारे महाराजा ने थापकी रानी मृगावती की मांगनी की है और कहलाया हैजैसे मणि शीशे के साथ शोभा नहीं देती उसी प्रकार सगावती भापके साथ नहीं शोभती। इस लिए उसे शीघ्र मेरे अधीन कर दीजिए। मुकुट सिर पर ही शोभता है, पैर पर नहीं । यदि आप को अपने जीवन और राज्य की चिन्ता हो तो विना हिचकिचाहट मृगावती को सौंप दीजिए।
दत का वचन मन कर शतानीक को बहुत क्रोध आया। उस
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
जो न सिगनत बोल संग्रा, पासवां भाग
३०९
ने उत्तर दिया- तुम्हाग राजा-महामूर्ख है जो लोकविरुद्ध मांगनी फरता है। हमेशा कन्या की मांगनी होती है विवाहितास्त्री नहीं मांगी जानी, इम लिए तुम्हारे राजा को जाकर कहना- तुम्हारे सरीखे पैर के समान नीच राजा के घर मुकुट जैसी मृगावती नहीं शोषती। वह तो हमारे सरीखे सिर के समान उत्तम राजाओं के अन्तःपुर में ही शोभती है। अगर तुम्हें अपने जीवन, धन और राज्य को सुरक्षित रखना हो तो मृगावती को प्राप्त करने का प्रयत्न मत करना। दत का वध करना नीति विरुद्ध समझ कर शतानीक ने उसे अप. मानित करके नगरी से बाहर निकलवा दिया।
दूत ने अवन्ती में पहुँच कर सारी बात कही। चण्डप्रद्योतन ने कुपित होकर बड़े बड़े चोदह राजाओं की सेना के साथ कौशाम्बी पर चढ़ाई कर दी। सेना ने शीघ्रता से कौशाम्र्व पहुँच कर नगरी के चारों तरफ घेरा डाल दिया। राजाशतानीकभाशत्र को अपने राज्य पर चदाई करते देख कर तैयार होने लगा। उसने नगरी के द्वार बन्द कर दिए और भीतर रह कर लड़ना शुरू किया। शतानीक बहुत देर तक लड़ता रहा परन्तु चण्डप्रद्योतन की सेना बहुत बड़ी थी। सागर के समान उसकी विशाल सेना को देख कर शतानीक हिम्मत हार गया । डर के कारण उसे भयातिसार हो गया और अन्त में उसी रोग से उसकी मृत्यु हो गई।
अकस्मात् अपने पति का मरण जान कर मृगावती को बहुत दुःख हुआ। अपने शील की रक्षा के लिए उचित भवसर जान कर उस ने शोक को हृदय में दबा लिया और एक चाल चली। उसने चण्डपद्योतन को कालाया- मेरे पति का आप के भय से देहान्त हो गया है । इस लिए लौकिक रीति के अनुसार मैं अभी शोक में हूँ। मेरा पुत्र उदयन कुमार अभी छोटा है। वह राज्य को नहीं सम्भाल सफता । इस लिए कुछ समय बाद जब उदयन
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
vunrur
भी मेठिपा जैसम्पमाला ~~~~mmmmmmmmmmmmmmmmmman womrammmm. कुमार राज्य सम्भाल लेगा मौर में शोकमुक्त हो जाऊँगी तो स्वयं भापके पास चली आऊँगी। आप किसी बात के लिए मुझ पर अप्रसन्न न छोइएगा। यदि आपने मेरी इस बात पर ध्यान न दिया भौरशोक की अवस्था में भी राज्य और मुझ पर अधिकार जमाने का प्रयत्न किया तो मुझे प्राण त्यागने पड़ेंगे। इससे आपका मनोरय मिट्टी में मिल जाएगा। इस लिए लड़ाई बन्द करके भाप भपने राज्य की ओर चले जाइये इसी में कल्याण है। __राजा ने मृगावती की बात मान ली और लड़ाई पन्द करके सेना सरित अवन्ती की ओर प्रस्थान कर दिया।
चण्डप्रद्योतन के लौट जाने पर मृगारती ने पति का मृत्यु संस्कार किया। कौशाम्बी के चारों ओर मजबूत दीपाल वन. वाई जिमसे शत्र शीघ्र नगरी में न घुस सके। उदयनकुमार को मस्त्र शस्त्रों की शिक्षा दी। धीरे धीरे उसे राज्य का भार सम्मालने योग्य बना दिया।
चमद्योतन अपने मनोरथ की पूर्ति के लिए उत्कण्ठिन था। कुछ वर्षों के बाद उसने मृगावती को बुलाने के लिए अपने सेवकों को भेजा। सेवकों ने कौशाम्बी में जाकर मृगावती को चण्डप्रद्योतन का सन्देश सुनाया । मृगावती ने उत्तर दिया- मैं तुम्हारे राजा को मन से भी नहीं चाहती। मैंने अपने शील की रक्षा के लिए युक्ति रची थी। महाराजा शतानीक की मृत्यु हो जाने से मैं आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन फरूँगी। किसी दूसरे पुरुष को पति के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती। इस लिए तुम लोग वापिस जाकर अपने राजा से कह दो कि वह अपने पापपूर्ण विचारों को छोड़ दे।
सेवकों को इस बात से खुशी हुई कि मृगावती अपने शील पर हद है। उन्होंने भवन्ती में जाकर सारी बात राजा से की। चण्ड. प्रमोसनने जमीयशास्ती चटाई परदी और नगरीके
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिमान्त पोल संमह, पांदचा भाग
३१॥
पास पड़ाव डाल कर दूत द्वारा मृगावती को कहलाया- मृगावती! यदि तुम अपना और अपने पुत्र का भला चाहती हो तो शीघ्र मेरी बात मानलो नहीं तो तुम्हारा राज्य नष्ट कर दिया जायगा। ___ मृगावती ने भापत्ति को आई हुई जानकर नगरी के माकार पर सिपाहियों को तैनात कर दिया। सब प्रकार का प्रबन्ध करके वा अपने शील की रक्षा के लिए नवकार मन्त्र का जापकरने लगी।
उसी समय ग्रामानुग्राम विचर कर जगत् का कल्याण करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कौशाम्बी पधारे। नगरी के बाहर देवों ने समवसरण की रचना की। भगवान् के प्रभाव से पास पास के सभी प्राणी अपने वैर को थूल गए। राजा चण्डप्रद्योतन पर भी असर पड़ा । भगवान् का उपदेश सुनने के लिए वह समवसरण में भाया । मृगावती को भी भगवान् के भागमन फा समाचार जान कर बड़ी खुशी हुई। अपने पुत्र को साथ लेकर वह नगरी के बाहर भगवान के दर्शनार्थ गई । वह भी धर्मोपदेश सुनने के लिए बैठ गई। भगवान् ने सभी के लिए हितकारक उपदेश देना शुरू किया।
भगवान् के उपदेश से मृगावती ने उसी समय दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। यह सुन कर चण्डपद्योतन को भी बड़ा हर्ष हुआ। उसने उदयन को कौशाम्बी के राजसिंहासन पर बैग कर राज्याभिषेक महोत्सव मनाया। मृगावती ने भीराजा को सदैव इसी प्रकार उदयन के ऊपर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखने का सन्देश दिया।
इस के बाद मृगावती ने भगवान् के पास दीक्षा धारण कर ली तथा महासती चन्दनवाला कीभाज्ञा में विचरने लगी।
एक बार श्रमण भगवान् महावीर विचरते हुए कौशाम्बी पधारे। चन्दनवाला का भी अपनी शिष्याभों के साथ वहीं आगमन हुआ। एक दिन मृगावती अपनी गुरुभानी सती चन्दनबाला की भाज्ञा
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया चैन प्रन्यमाला
लेकर भगवान् के दर्शनार्थ गई । वापिस लौटते समय रास्ते में भीड़ होने के कारण उसे बहुत देर खड़ी रहना पड़ा। इतने में रात हो गई। मृगावतीअंधेरा हो जाने पर उपाश्रय में पहुँची। वहाँ श्राकर उसने चन्दनबाला को वन्दना की । प्रवर्तिनी होने के कारण उसे उपालम्भ देते हुए चन्दनवाला ने कहा- साध्वियों को सूर्यास्त के बाद उपाश्रय के बाहर न रहना चाहिये।
मृगावती अपनादोष स्वीकार करके उसके लिये पश्चात्ताप करने लगी। समय होने पर चन्दनवाला तथा दूसरी सानियाँ अपने अपने स्थान पर सो गई,किन्तु मृगावती बैठी हुई पश्चात्ताप करती रही। धीरे धीरे उसके घाती कर्म नष्ट हो गए। उसे केवलज्ञान होगया। __ अंधेरी गत थी। सब सतियाँ सोई हुई थीं। उसी समय मृगावती ने अपने ज्ञान द्वारा एक काला सांप देखा। वह चन्दनवाला के हाथ की तरफ आ रहा था। यह देख कर मृगावती ने चन्दनवाला के हाथ को उठा लिया। हाथ के छूए जाने से चन्दनवाला की नींद खुल गई। पूछने पर मृगावती ने सांप की बात कह दी और निद्राभंग करने के लिए क्षमा मांगी।
चन्दनवाला ने पूछा-अंधेरे में आपने सॉप को कैसे देख लिया? मृगावती ने उत्तर दिया-मापकी कृपा से मेरे दोष नष्ट हो गए है, अतः ज्ञान कीज्योति प्रकट हुई है। चन्दनवाला- पूर्ण या अपूर्ण ?
मृगावती-भापकी कृपा होने पर अपूर्णता कैसे रह सकती है ?
चन्दनवाला- तब तो आपको केवलज्ञान प्राप्त हो गया है। बिना जाने मुझ से आशातनाहुई है। मेरा अपगध क्षमा कीजिए।
चन्दनवाला ने मृगावती को बन्दना की। केवली की आशा. तना के लिए वह पश्चात्ताप करने लगी। उसी समय उसके घाती फर्म नष्ट हो जाने से उसे भी फेवलज्ञान होगया।
मायुष्य पूरी होने पर सती मृगावती सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुई।
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग - ३१३
(८) सुलसा
ज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले की बात है । मगध देश में राजगृही नाम की विशाल नगरी थी । वहाँ श्रेणिक नाम का प्रतापी राजा राज्य करता था। उसके सुनन्दा नाम वाली भार्या से उत्पन्न हुआ अभयकुमार नामक पुत्र था। वह औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी रूप चारों बुद्धियों का निधान था । वही राजा का प्रधान मंत्री था। नगरी धन, धान्य आदि से पूर्ण तथा सुखी थी।
उसी नगरी में नाग नाम का रथिक रहता था। वह राजा श्रेणिक का सेवक था । उसके श्रेष्ठ गुणों वाली मुलसा नामक भार्या थी । नाग सारथी ने गुरु के समक्ष यह नियम कर लिया था कि मैं कभी दूसरी स्त्री से विवाह नहीं करूँगा । दोनों स्त्री पुरुष परस्पर प्रेमपूर्वक सुख से जीवन व्यतीत करते थे। सुलसा सम्यक्त्व में दृढ़ थी । उसे कभी क्रोध न आता था ।
1
एक बार नाग रथिक ने किसी सेठ के पुत्रों को आंगन में खेलते हुए देखा । वच्चे देवकुमार के समान सुन्दर थे । उनके खेल से सारा श्रांगन हास्यमय हो रहा था। उन्हें देख कर नाग रथिक के मन में आया - पुत्र के बिना घर सूना है । सव प्रकार का सुख होने पर भी सन्तान के बिना फीका मालूम पड़ता है । इस प्रकार के विचारों से उसके हृदय में पुत्रप्राप्ति की प्रबल इच्छा जाग उठी । वह पुत्रप्राप्ति के लिए विविध प्रकार के उपाय सोचने लगा । इस के लिए वह मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना करने लगा। सुलसा ने यह देख कर उससे कहा- प्राणनाथ ! पुत्र, यश, धन आदि सभी वस्तुओं की प्राप्ति अपने अपने कर्मानुसार होती है । बाँधे हुए कर्म भोगने ही पढ़ते हैं। इस में मनुष्य या देव कुछ नहीं कर सकते। मालूम पड़ता है, मेरे गर्भ से कोई सन्तान न होगी इस
www
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन मन्माला
लिए आप दूसरा विवाह कर लीजिए।
नाग सारथी ने उत्तर दिया-मुझे तुम्हारे ही पुत्र की आवश्यकता है। मैं दूसरा विवाह नहीं करना चाहता।
सुलसा ने कहा- सन्तान, धन आदि किसी वस्तु का अभाव अन्तराय फर्म के उदय से होता है। अन्तराय को दूर करने के लिए हमें दान, तप, पञ्चकखाण आदि धर्म कार्य करने चाहिएं । धर्म से सभी बातों की प्राप्ति होती है। धर्य ही कल्पवृक्ष है। धर्म ही चिन्तामणि रत्न तथा कामधेनु है। भोले प्राणी स्वर्ग और मोक्ष के देने वाले धर्म को छोड़ कर इधर उधर भटकते हैं। उत्तम कुल, दीर्घ आयुष्य,स्वस्थ शरीर,पूर्ण इन्द्रियों, अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति, परस्पर प्रेम, गुणों का अनुराग, उत्तम सन्तान तथा ऐश्वर्य आदि सभी बातें धर्म से प्राप्त होती हैं। घर में लक्ष्मी, वाहु में बल, हाथों द्वारा दान, देह में सुन्दरता, मुंह में अमृत के समान मीठी वाणी तथा कीर्ति आदि सभी गुणों का कारण धर्य है। __किसी वस्तु के अपने पास न होने पर खेद न करना चाहिए। उसकी प्राप्ति के लिए शुभ कर्म तथा पुण्य उपार्जन करना चाहिये।
झुलसा की बात सुन कर नाग सारथी की भी धर्म की ओर विशेष रुचि हो गई। दोनों उसी दिन से दान, त्याग और तपस्या
आदि धर्य कार्यों में विशेष अनुराग रखने लगे। ____एक वार देवों की सभा लगी हुई थी। मनुष्यलोक की बात चली।शक्रेन्द्र ने सुलसा की प्रशंसा करते हुए कहा-भरतखण्ड के मगध देश की राजगृही नगरी में नाग नाम का सारथी रहता है। उसकी भार्या सलसा को कभी क्रोध नहीं आता। वह धर्म में ऐसी दृढ़ है कि देव दानव या मनुष्य कोई भी उसे विचलित करने में समर्थनहीं है। इन्द्र द्वारा की गई प्रशंसा को सुन कर हरिणगवेषी देव सलसा की परीक्षा करने के लिए मृत्युलोक में आया । दो
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, पाचवां भाग
wwmmmmmmmmmmmmmmmm
साधुओं का रूप बना कर वह मलसा के घर गया। साधुओं को देख कर सुलसा बहुत कर्षित हुई। मन में सोचने लगी- मेराअहोभाग्य है कि निर्ग्रन्थ साधु विक्षा के लिए मेरे घर पधारे हैं। साधुओं को वन्दना नमस्कार करने के बाद सुलसा ने हाथ जोड़ फर विनति की- मुनिराज ! आप के पधारने से मेरा घर पवित्र हुआ है। आप को जिस वस्तु की चाहना हो फरमाइए।
पनि ने उत्तर दिया- तुम्हारे घर में लक्षपाक तेल है। उग्र विहार के कारण बहुत से साधु ग्लान हो गए हैं। उनके उपचार के लिए इसकी आवश्यकता है। _ 'लासी हूँ' कह कर हर्षित होती हुई सुलसा तेल लाने के लिए अन्दर गई,जैसे ही वह ऊपर रखे तेल के पाजल को उतारने लगी कि देवमाया के प्रभाव से वह हाथ से फिसलकर नीचे गिर पड़ा। इसी प्रकार दूसरा और तीसरा भाजन भी नीचे गिर कर फूट गया। ___ इतना नुक्सान होने पर भी सुलसा के मन में बिल्कुल खेद नहीं हुआ । बाहर आकर उसने सारा हाल साधुजी से कहा। साधुवेषधारी देव प्रसन्न हो गया। उसने अपने असली रूप में प्रकट होकर सुलसा से कहा- शक्रन्द्र ने जैसी तुम्हारी प्रशंसा की थी, वास्तव में तुम वैसी ही हो। मैंने तुम्हारी परीक्षा के लिए साधु का वेष बनाया था। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। जो तुम्हारी इच्छा हो मांगो।
सलसाने उत्तर दिया- पाप मेरे हृदय की बात जानते ही हैं, फिर मुझे कहने की क्या आवश्यकता है ?
देव ने ज्ञान द्वारा उसके पुत्रप्राप्ति रूप मनोरथ को जान कर सलला को बत्तीस गोलियाँ दी और कहा- एक एक गोली खाती जाना। इनके प्रभाव से तुम्हें बत्तीस पुत्रों की प्राप्ति होगी। फिर कभी जब आवश्यकता पड़े गेरा स्मरण करना, मैं उसी समय उपस्थित हो जाऊँगा । यह कह कर देव अन्तधोन हो गया।
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन मन्यमाला
गोलियाँ खाने से पहले सुलसा ने सोचा-मैं बत्तीस पुत्रों का क्या करूँगी ? यदि शुभ लक्षणों वाला एक ही पुत्र हो तो वही घर को भानन्द से भर देता है। अकेला चाँद रात्रि को प्रकाशित कर देता है किन्तु अनगिनत तारों से कुछ नहीं होता । इसी प्रकार एक ही गुणी पुत्र वंशको उज्ज्वल बना देता है, निगण बहुत से पुत्र भी कुछ नहीं कर सकते। अधिक पुत्रों के होने से धर्मकार्य में भी वाधा पड़ती है। यदि मेरे बत्तीस लक्षणों वाला एक ही पुत्र उत्पन्न हो तो बहुत अच्छा है। यह सोच कर उसने सभी गोलियाँ एक साथ खा लीं। उसके प्रभाव से सुलसा के बत्तीस गर्भ रह गए और धीरे धीरे बढ़ने लगे। सुलसा के उदर में भयङ्कर वेदना होने लगी। उस भसह्य वेदना की शान्ति के लिए सुलसा ने हरिणगवेषी देव का स्मरण किया। देव ने प्रकट होकर सलसा से कहा तुम्हें एक एक गोली खानी चाहिए थी। बत्तीस गोलियों को एक साथ खाने से तुम्हारे एक साथ बत्तीस पुत्रों का जन्म होगा। इन में से किसी एक की मृत्यु होने पर सभी मर जाएंगे। यदि तुम अलग अलग बत्तीस गोलियाँ खाती तो अलग अलग बत्तीस पुत्रों को जन्म देती। ____ सुलसा ने उत्तर दिया- प्रत्येक प्राणी को अपने किए हुए कर्म भोगने ही पड़ते हैं। मापने तो अच्छा ही किया था किन्तु अशुभ कर्मोदय के कारण मुझ से गन्ती हो गई। यदि आप इस वेदना को शान्त कर सकते हों तो प्रयत्न कीजिए नहीं तो मुझे बाँधे हुए कर्म भोगने ही पड़ेंगे।
हरिणगवेषी देव ने मुलसा की वेदना को शान्त कर दिया। समय पूरा होने पर उसने शुभ लक्षणों वाले बत्तीसपुत्रों को जन्म दिया। बड़े धूमधाम से पुत्रों का जन्म महोत्सव मनाया गया। पारहवें दिन सभी के अलग अलग नाम रक्खे गए।
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग
श्रा
३१७
www
पाँच पाँच धायमातामों की देखरेख में सभी पुत्र धीरे धीरे चढ़ने लगे। नाग रथिक का घर पुत्रों के मधुर शब्द, सरल हँसी तथा वालक्रीडाओं से भर गया। सभी बालक एक से एक बढ़ कर सुन्दर थे। उन्हें देख कर माता पिता के हर्ष की सीमा न रही। योग्य अवस्था होने पर सभी को धर्म, कर्म और शस्त्र सम्बन्धी शिक्षा दीगई। सभी कुमार पुरुष की कलाओं में प्रवीण हो गए
और राजा श्रेणिक की नौकरी करने लगे। युवा अवस्था प्राप्त होने पर नाग रथिक ने कुलीन और गुणवती कन्यामों के साथ उनका विवाह कर दिया।
एक बार राजा श्रेणिक के पास कोई तापसी (संन्यासिनी) एक चित्र लाई । वह चित्र वैशाली के राजा चेटक की सुज्येष्ठा नामक पुत्री का था। उसे देख कर श्रेणिक के मन में उससे विवाह करने की इच्छा हुई। पिता की इच्छा पूरी करने के लिए प्रमय कुमार पणिफ का वेश बना कर वैशाली में गया। वहाँ जाकर राजमहल के समीप दुकान कर ली। उसकी दुकान पर सुज्येष्ठा की एक दासी मुगन्धित वस्तुओं को खरीदने के लिए भाने लगी। अभयकुमार ने एक पट पर श्रेणिक का चित्र बना रक्खा था । जिस समय दासी दुकान पर आती वह उस चित्र की पूजा करने लगता। एक बार दासी ने पूछा- यह किस का चित्र है?
मैं यह नहीं बता सकता, अभयकुमारने उत्तर दिया। दासी के बहुत आग्रहपूर्वक पूछने पर अभयकुमार ने कहा- यह चित्र राजा श्रेणिक का है।
दासी ने सारी बात सुज्येष्ठा से कही। मुज्येष्ठा नेदासी से कहा ऐसा प्रयत्न करो जिससे इस राजा के साथ मेरा विवाह होजाय। दासी ने जाकर यह वात अभयकुमार से कही। इस पर अभय कुमार ने एक सुरंग तैयार कराई और श्रेणिक महाराज को कह
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१८
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला
NNNN
लाया-चैत्र शुक्ला द्वादशी के दिन इस सुरंग के द्वारा आप यहाँ भाजाइएगा। सुज्येष्ठा को भी इस बात की खबर कर दी कि श्रेणिक राजा द्वादशी के दिन वैशाली में पाएंगे।
उसी दिन श्रेणिक आया। सज्येष्ठा उसके साथ जाने के लिए तैयार होने लगी। इतने में उसकी छोटी बहिन चेलणा ने कहामैं भी तुमारे साथ चलॅगी और श्रेणिक के साथ विनाइकरूँगी। दोनों वहिने तैयार होकर मुरंग के मुंह पर भाई । यहाँ पाकर मुज्येष्ठा बोली- अपना रनों का पिटारा भूल आई हूँ। मैं उसे लेने जाती हूँ। मेरे आने तक तुम यहीं ठहरना । यह कह कर वह रनकरण्ड लाने वापिस चली गई। इतने में श्रेणिक वहाँधा पहुंचा। वह सुलसा के बत्तीस पुत्रों के साथ वहाँ पाया था। सुरंग के द्वार पर खड़ी हुई चेलणा को सुज्येष्ठा समझ कर श्रेणिक ने उसे रथ पर विठा लिया और शीघ्रता से राजगृही की भोर मस्थान कर दिया। ___ इतने में सुज्येष्ठा भाई । सुरंग के द्वार पर किसी को न देख कर वह समझ गई कि चेलणा अकेली चली गई है। उसने चिल्लाना शुरू किया । चेड़ा महाराज को रखबर पहुँची। पुत्री का हरण हुआ जान कर उन्होंने पीछा किया। सुलसा के पुत्रों ने चेड़ा राजा की सेना को मार्गही में रोक लिया। युद्ध शुरू हुमा । उस में सुलसा का एक पुत्र मारा गया। एक की मृत्यु से बाकी बचे हुए इकतीस पक्षों की भी मृत्यु हो गई। श्रेणिक चेलणा को लेकर राजगृही के समीप पहुँचा। राजाने उसे सुज्येष्ठा के नाम से पुलाया तो चेलणा ने कहा- मैं मृज्येष्ठा नहीं हूँ। मैं तो उसकी छोटी महिन चेलणा है। राजा को अपनी भूल का पता लगा। बड़े समारोह के साथ श्रेणिक और चेलणा का विवाह हो गया। . ___ सुलसा को अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार सन फर बड़ा दुःख हुआ। वह विलाप फरने लगी। एक साथ बर्ता
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
VnVw
मृत्यु उसके लिए असह्य हो गई। उस का रुदन सन कर मास पास के लोग भी शोक करने लगे। उस समय अभयकुमार नागरथिक के घर आया और सुलसा को सान्त्वना देने के लिए फहने लगा- सुलसे ! धर्म पर तुम्हारी दृढ़ श्रद्धा है। तुम उसके मर्य को पहिचानती हो । अविवेकी पुरुष के समान विलाप करना तुम्हें शोभा नहीं देता। यह संसार इन्द्रजाल के समान है। इन्द्रधनुष के समान नश्वर है। हाथी के कानों के समान चपल है। सन्ध्या राग के समान अस्थिर है। कमलपत्र पर पड़ी हुई बंद के समान क्षणिक है। मगतृष्णा के समान मिथ्या है । यहाँ जो आया है वह अवश्य जायगा। नष्ट होने वाली वस्तु के लिए शोक करना वृथा है। अभयकुमार के इस प्रकार के वचनों को सुन कर सुलसा और नाग रथिक का शोक कुछ कम हो गया । संसार की विचित्रता को समझ कर उन्होंने दुःख करना छोड़ दिया।
कुछ दिनों बाद भगवान महावीर चम्पानगरी में पधारे। नगरी के बाहर देवों ने समवसरण की रचना की। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। देशना के अन्त में अम्बड़ नाम का विद्याधारीश्रावक खड़ा हुआ। विद्या के बल से वह कई प्रकार के रूप पलट सकता था। वह राजगृही का रहने वालाथा। उसने कहा-प्रभो! आपके उपदेश से मेरा जन्म सफल होगया। अव में राजगृही जा रहा हूँ। __भगवान् ने फरमाया- राजगृही में झुलसानाम बालीश्राविका है। वह धर्म में परम दृढ़ है।
अम्बड़ ने मन में सोचा-सुलसा श्राविका बड़ी पुण्यशालिनी है, जिसके लिए भगवान् स्वयं इस प्रकार कह रहे हैं। उसमें ऐसा कौन सागुण है जिससे भगवान् ने उसे धर्म में दृढ़ वताया। मैं उसके सम्यक्त्व की परीक्षा करूँगा।यह सोच कर उसने परिव्राजक (संन्यासी) का रूप बनाया और सुलसा के घर जाकर कहा- भायुष्मति !
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
Mmmmm
मुझे भोजन दो इससे तुम्हें धर्म होगा । मुलसा ने उत्तर दियाजिन्हें देने से धर्म होता है, उन्हें मैं जानती हूँ।
वहाँ से लौट कर सम्बड़ ने भाफाश में पद्मासन रचा और उस पर बैठ कर लोगों को आश्चर्य में टालने लगा।लोग उसे भोजन के लिए निमन्त्रित करने लगे किन्तु उसने किसी का निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया। लोगों ने पूछा- भगवन् ! ऐसा फौन भाग्यशाली है जिसके घर का भोजन ग्रहण करके आप पारणा करेंगे।
भम्बड़ ने कहा- मैं सुलसा के घर का आहार पानी ग्रहण करूँगा।
लोग सुलसा को बधाई देने माए। उन्होंने कहा-सुलसे! तुम बड़ी भाग्यशालिनी हो। तुम्हारे घर भूखा संन्यासी भोजन करेगा।
सलसा ने उत्तर दिया- मैं इसे दोंग मानती हूँ।
लोगों ने यह बात अम्बड़ से कही । अम्बड़ ने समझ लियासलसा परम सम्यग्दृष्टि है जिससे महान् अतिशय देखने पर भी वह श्रद्धा में डॉवाडोल नहीं हुई।
इसके बाद अम्बड़ श्रावक ने जैन मुनि का रूप बनाया। 'णिसीहि णिसीहि' के साथ नमुक्कार मन्त्र का उच्चारण करते हुए उसने सुलसा के घर में प्रवेश किया। सुलसा ने मुनि जान कर उसका उचित सत्कार किया अम्बड़ श्रावक ने अपना असली रूप बता कर सलसा की बहुत प्रशंसा की। उसे भगवान् महावीर द्वारा की हई प्रशंसा की बात कही। इसके बाद वह अपने घर चला गया। * सम्यक्त्व में दृढ़ होने के कारण मुलसा ने तीर्थङ्कर गोत्र वॉधा।
आगामी चौवीसी में उसका जीव पन्द्रहवें तीर्थङ्कर के रूप में उत्पन्न होगा और उसी भव में मोत जायगा।
(टाणाग सूत्र, टाणा : सूत्र ६६१-६२ टीका) ।
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पैन सिखान्त बोल समह, पाच माग ३२१
( ६ ) सीता
भरतक्षेत्र में मिथिला नाम की नगरी थी । वहाँ हरिवंशी राजा वासुकि का पुत्र राजा जनक राज्य करता था । उसका दूसरा नाम विदेह था । रानी का नाम विदेहा था । राजा न्याय-नीतिपरायण था । प्रजा का पुत्रवत् पालन करता था अतः प्रजा भी उसे बहुत मानती थी ।
रानी विदेहा में राजरानी के योग्य सब ही गुण विद्यमान थे । सुखपूर्वक समय बिताती हुई रानी एक समय गर्भवती हुई । समय पूरा होने पर रानी की कुक्षि से एक युगल, अर्थात् एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुआ। इससे राजा, रानी और प्रजा को बहुत ही प्रसन्नता हुई ।
इसी समय सौधर्म देवलोक का पिंगल नाम का देव अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव देख रहा था। रानी विदेहा की कुक्षि से उत्पन्न होने वाले युगल सन्तान में से पुत्र रूप में उत्पन्न होने वाले जीव के साथ उसे अपने पूर्व भव के वैर का स्मरण हो प्राया । अपने वैर का बदला लेने के लिये वह शीघ्र ही रानी के प्रसूतिगृह में आया और वहाँ से वालक को उठा कर चल दिया । वह उसे मार डालना चाहता था किन्तु बालक की सुन्दर आकृति देख कर उसे उस पर दया आ गई। इससे उसे वैताढ्य पर्वत पर ले जाकर एक वन में सुनसान जगह पर रख दिया। इस प्रकार अपने वैर का बदला चुका हुआ मान कर वह वापिस अपने स्थान पर लौट आया ।
वैताढ्य पर्वत पर रथनूपुर नाम का नगर था । यहाँ पर चन्द्रगति नाम का विद्याधर राज्य करता था । वनक्रीड़ा करता हुआ वह उधर निकल आया । एक सुन्दर वालक को पृथ्वी पर पड़ा हुआ
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२
श्री मेठिया जेन प्रन्यमाला
देख कर उसे भाश्चर्य और प्रसन्नता दोनों हुए। उसने तत्काल वालक को उठा लिया और अपने महल की ओर रवाना हुभा। घरमाकर उसने वह वालक रानी को दे दिया। उसके कोई सन्तान नहीं थी इस लिए ऐसे सुन्दर वालक को प्राप्त कर उसे बहुत खुशी हुई। बालक की प्राप्ति के विषय में राजा और रानी के सिवाय किसी को कुछ भी मालूम न था इस लिये उन दोनों ने विचार किया कि इसे अपना निजी पुत्र होना माहिर करके धूमधाम से इसका जन्मोत्सव मनाना चाहिये । ऐसा विचार कर राजा ने अपने परिजनों में तथा शहर में यह घोषणा करादी कि रानी सगर्भा थी फिन्तु कई कारणों से यह बात अब तक गुप्त रखी गई थी। भाज रानी की कुति से एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ है। इस घोषणा को सुन कर प्रजा में श्रानन्द छा गया। विविध प्रकार से खुशियाँ मनाई जाने लगीं। पुत्र जन्मोत्सव मनाफर राजा ने पुत्र का नाम भामण्डल रखा । सुखपूर्वक लालन पालन होने से वह द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा। क्रमशः बढ़ता हुभाबालक यौवन अवस्था को माप्त हुआ। अब राजा चन्द्रगति को उसके अनुरूप योग्य कन्या खोजने की चिन्ता हुई। ___ अपने यहाँ पुत्र तथा पुत्री के उत्पन्न होने की शुभ सूचना एक दासीद्वारा प्राप्त करके राजा जनक खुश हो ही रहे थे इतने ही में पुत्रहरण की दुःखद घटना घटी। दूसरी दाप्ती द्वारा इस खबर को सुन कर राना की ग्वुशी चिन्ता में परिणत हो गई। उनके हृदय को भारी चोट पहुँची जिससे वे मूछित होकर भूमि पर गिर पड़े। प्रजा में भी अत्यन्त शोक छा गया । शीतल उपचार करने पर राजा की मृा दृर हुई । पुत्री को ही पुत्र मान कर उनीने संतोप किया । जन्मोत्सव मना कर पुत्री का नाम सीता रक्खा । पाँच धायों द्वारा लालन पालन की जाती हुई मीता सुरक्षित वेल की तरह बढ़ने लगी।
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी
यो
मा पर भाग
isqn ti། བྷ ཝ | inཔ [jit ti $ དqinrin: पर ना निदेशकोमा गोगना पोनने की निन्ना। घर में नीन गिनीयान मारपनी नारित उनच गीली नमनायनाचविला विनंच वर्षमा वांगुगामासचिलारनीयान्तनः मान्यता कन्या।। - : :
PETY, # 1
बाका पर्व दनिगम भाव स नाम का एक देगा। वा अन्नग नाम का एक माना गम भरनामा वमः कान में पत्र थे । एक समय में वही भार्गमेना लफर मिथिला पर जमाये मीर नाना महार पर करने लगे। गमास्टर कामना गोली हाना नगरगंकने में असमर्थ पा। महीनना सवार पगन्न हानी का यह देख कर गना विदेशबान समगा। माना निगे सपने मित्र गमादश. रय पं. पाम उम पदन भेजा। दन की बानगन फर गना दशम्य अपने मित्र गमाविदह सी गहायता लिए जनामहित मिथिला जाने को नया उसी मगर गम मारनगणनाकर उनके सामने उपस्थित हुए मार विनय पूर्वक अर्ज करने लगे कि,
प्रय ! गाएती कावस्या है। अतः हम लोगों को ही मिथिला जाने ही पागा दीमिय। पत्रों का विशेष भाग्रह दरय फर गना दशरमने उन्हें मिथिला की और विदा किया। वहा पहन कर राम और लपणा न ऐमा पगमम दिखलाना किम्नच राजा की मना भाग गई। गना विदेश चार मिथिलावासी जनों को शान्ति मिली, वे निरूपद्रव होगए। उनका अद्भुत पराक्रम देख
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
श्री सेठिया जैन मन्यमाला
कर राजा विदेह को बहुत प्रसन्नता हुई । उनका उचित सत्कार करके उन्हें अयोध्या की ओर विदा किया।
सीता का दूसरा नाम जानकी था। वह परमसुन्दरी एवं रूपवती थी। उसके रूप लावण्य की प्रशंसा चारों मोर फैल चुकी थी। एफ समय नारद मुनि उसे देखने के लिये मिथिला में आये । राजमाल में पाकर वे सीधे वहाँ पहुँचे जहाँ जानकी अपनी सखियों के साथ खेल रही थी। नारद मुनि के विचित्र रूप को देख कर जानकी दर कर भागने लगी, दासियों ने शोर किया जिससे राजपुरुप वहाँ पहुँचे और नारद मुनि को पकड़ कर अपमान पूर्वक महल से बाहर निकाल दिया। नारद मुनि को बड़ा क्रोध भाया। वेस अपमान का बदला लेने का उपाय सोचने लगे। सीता का एक चित्र बना कर वे वैताढ्य गिरि पर विद्याधरकुमार भामण्डल के पास पहुँचे। भामण्डल को वह चित्रपट दिखला कर सीता को हर लाने के लिये नारदमुनि उसे उत्साहित कर वहाँ से चले गये। चित्रपट देख कर भामण्डल सीता पर मुग्ध होगया। उसकी माप्ति के लिये वह रात दिन चिन्तित रहने लगा । राजपुत्र की चिन्ताभौर उदासीनता का कारण मालूम करके चन्द्रगति ने एक दत जनक के पास भेजा और अपने पुत्र भामण्डल के लिये सीताकी मांगणी की। दत की बात सुन कर राजा जनक ने उत्तर दिया कि मैंने अपनी प्यारी पुत्री सीता का स्वयंवर द्वारा विवाह करने का निश्चय किया है। स्वयंवर में सव राजाओं को निमन्त्रण दिया जायगा। मेरी प्रतिमा के भनुसार देवाधिष्ठित वज्रावर्स नाम का धनुप वहॉरखा जायगा । जो धनुप पर वाण चढ़ाने में समर्थ होगा उसी के साथ सीता का पाणिग्रहण होगा। दूत्त ने चैताढ्य गिरि पर भाकर सारी वात चन्द्रगति को कह सुनाई । राजा ने भामण्डल को माश्वासन दिया और सीता के स्वयंवर की प्रतीक्षा करने लगा।
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
दगनीदनाने परामक नेपालमान पानगी पूला पर पावर
कमान सीमा पक्षान रामाने विविधांगमाया गाम यस पान भंगा निकननि र मनकामी मोर मामान स्वरम माटर में उनिहुमागमा वाम राम, आदि सपने पुन मायामपनं पर मामदल .साथ महापारे । सभी जाया गया नया गाने संगमागमा जनानी सौर मंकन यर या गजा गों गोमानी नाई। इसी समय एकमतानी माय गन्दरवनापमान लगाना स्वगंगामा सदभत पानावर यो देय कर गित सभी गमागार
मार मी मालिक लिये अपने अपने प्रदय का ध्यान पारने लगे।
सना जनक मी प्रनिता एन कर 3 ए राजमार्ग में में मायबार्ग बार्ग में धनग फे पास आकर थपना पन मनमान लग किन्न धना पर वाण बहाना को दूर रहा. इस पनुप को हिलाने में नामार्थ नए। जो गजकुमार पर गर्व के साथ अफर फर पनप में पास मातेथे सरल होनाने पर चेलम्जा मिर नीना करके वापिस अपने सामन पर जा बैठते थे। राजकुमागे की यह दशा देग्य फार रागा जनक यं इदय में चिन्ता उत्पन्न हुई। वह सोचने लगायया नत्रियों का बल पराक्रम ग हो चुका है ? क्या मेरी प्रतिमा पूरी न होगी? क्या मीता फारिवाहन हो सकेगा? उस उदग में इस प्रकार के संकल्प रिफन्प उठ रहे थे । उतने ही में काकुत्स्थकुलदीपक दशरथनन्दन गम अपने मामन से उठे। धनप के पास माफर जनायास ही उन्होंने धनप को उठा फर उस पर वाण चढ़ा दिया। यह देख कर राजा जनक फी प्रसन्नता की
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन प्रन्यमाला
wwwmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr
.
सीमा न रही। उनकी प्रतिज्ञा पूरी हुई। सीता ने परम हर्ष के साथ अपने भाग्य की सराहना करते हुए राम के गले में वरमाला डाल दी।
राजा जनक और राजा दशरथ पहले से मित्र थे। अब उनकी मित्रता और भी गहरी हो गई । राजा जनक ने विधिपूर्वक सीता का विवाह राम के साथ कर दिया । राजा दशरथ अपने पुत्र और पुत्रवधू को साथ लेकर सानन्द अयोध्या लौट आए और मुखपूर्वक समय बिताने लगे।
स्वयंवर में आए हुए दूसरे रामा लोग निराश होकर अपने अपने नगर को वापिस लौटे। विद्याधरकुमार भामण्डल कोभत्यविफ निराशा हुई। सीता की प्राप्ति न होने से वह रात दिन चिन्तित एवं उदास रहने लगा।
एक समय चार ज्ञान के धारक एफ मुनिराज भयोध्या में पधारे। राजा दशरथ अपने परिवार सहित धर्मोपदेश सुनने के लिए गया। भामण्डल को साथ लेकर श्राफाशमार्ग से गमन करता हभा चन्द्रगति भी उधर से निकला । मुनिराज को देख कर वह नीचे उतर पाया। भक्तिपूर्वफ वन्दना नमस्कार फर वह वहॉपैठ गया। 'भामण्डल अब भी सीता की अभिलाषा से संतप्त हो रहा है यह दात अपने ज्ञान द्वारा जान कर मुनिराज ने समयोचित देशना दी। प्रसंगवश चन्द्रगति और उसकी रानी पुष्पवती के तथा भामण्डल
और सीसा के पूर्वभव कह सनाये। उसी में भामण्डल और सीता का इस भव में एक साथ जन्म लेना और तत्काल पूर्वभव क वैरी एक देव द्वारा भामण्डल का हरा जाना आदि सारा वृत्तान्त भी कह सुनाया। इसे सुन कर भामण्डल को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। मच्छित होकर वह उसी क्षण भूमि पर गिर पड़ा। थोड़ी देर बाद उसकी मूर्छा दर हुई । जिस तरष्ठ मुनिराज ने कहा था उसी प्रकार उसने अपने पूर्वभव का सारा वृत्तान्त जान लिया।
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
जेसिया बन माग
२०७
भीता पो अपनी पहिन गंगा पर उसने मे मरणाम किया जन्म
से
है। चन्द्र को भी
हुए अपने भाई की मीना भी अत्यन्त प्रसन्नता ने दून भेजकर जन भर की रानी विदेश बुलाया और जमने ही जिसका होगया था
वह यह भागष्ट तुम्हारा
है दिमाग चार चौर भगठन को
13
मनाया यह शन पर सपना पुत्र मकान से लगा लिया। अपने वाविक माता शिवापोपहिचान कर भाल को भीगना भक्ति नाम विनचन्द्रगतिको उपोगया। भामटन को निराकर
घराने
दारकर ली। राजा
ने भी निगम में अपने के विषय में 9-11 अपने पूर्वभवका तान्न सुन कर गंजा दशव्य को भी बैंगन उत्पन्न होगया ने भी अपने पुत्र रामफोराज्य ने का नियय कर लिया। नमक की बारी होने बगी। रानी कैकयी की
दासीन नहीं होगा | उगने साया और गंग्राम के द्वारा दिये गये दर पांगने के ये रत किया। दामी की बानों में आकर की ने राजा मेयर गोगे मेरे पुत्र भरत को गले
--
की चौदह वर्ष का वनवास अपने वचन का पालन करने के लिये राजा ने उसके दोनों स्वीकार किये। पिता की माता से राम वन जाने के लिये हुए | जब यह बात गीता को मालूम हुई तो वह भी राम के साथ वन जाने को व्या हो गई। रानी कौशल्या के पास जाकर बन जाने की अनुमति यागने लगी। कौशल्या ने कहा- पुत्रि ! राम पिता की भाषा से
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२८
श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला
वन जा रहा है। वह वीर पुरुष है। उसके लिये कुछ कठिन नहीं है फिन्तु तू बहुत कोमलाङ्गी है । तू सदा महलों में रही है। वन में शीत ताप आदि के तथा पैदल चलने के फष्ट को कैसे सहन कर सकेगी ? सीता ने कहा- माताजी! आपका कहना ठीक है किन्तु आपका आशीर्वाद मेरी सब कठिनाइयों को दूर करेगा। जिस प्रकार रोहिणी चन्द्रपा फा,विजली मेघ का चार छाया पुरुष का अनुसरण करती है उसी प्रकार पतिव्रता स्त्रियों को अपने पति का अनुसरण करना चाहिए । पति के सुरत में सुरखी और दुःख में दुखी रहना उनका परम धर्म है। इस प्रकार विनय पूर्वक निवेदन कर सीता ने कौशल्या से बन जाने की आज्ञा प्राप्त कर ली।
राम की वन आने की बात सुन कर लक्ष्मण एकदम कुपित हो गया। वह कहने लगा कि मेरे रहते हुए राम के राजगद्दी के हक को कौन छीन सकता है ? पिता जी तो सरल प्रकृति के हैं किन्तु स्त्रियाँ स्वभावतः कुटिल हुआ करती हैं। अन्यथा कैकयी अपना वरदान इस समय क्यों मांगती ? मैं राम को वन में न जाने दंगा। मैं उन्हें राजगद्दी पर बिठाऊँगा। ऐसा सोच कर लक्ष्मण राम के पाम पाया। राम ने समझा कर उसका क्रोध शान्त किया। वह भी राम के साथ वन जाने को तप्यार हो गया। तत्पश्चात् सीता मौर लक्ष्मण सहित राम बन की ओर रवाना हो गए।
एफसमय एक सघन वन में एक झोपड़ी बना कर सीता,लक्ष्मण और राम टहरे हुए थे। सीता के अद्भुत रूप लावण्य की शोभा सन फर फामातुर बना हुआ रावण संन्यासीफा वेषपना कर वहाँ आया। राम और लक्ष्मण के बाहर चले जाने पर वा झोपड़ी के पास आया और मिना माँगने लगा। मिनादेने के लिये जब सीता बाहर निकली तो रावण ने उसे पकड़ लिया भौर अपने पप्पफ विमान में विठा कर लंकाले गया। यहॉलेजाकर सीता को
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
free traint, it मा
१५
मशीफ वाटिका में वाि मरकामी मामीनाकपः पं. प्रांगन देकर माने
जाने की पहा पारने लगा। देश गमन पर गोली मार को महारा दापयन फर रहेगा। मैं तुम्हें पानी पदरानी सना पर मगा। बुहारी माता का सभी गम नही गावी पर पताकार करने का मनमा ! ! नमुनमगनमानेपानीपरमरमानानेगदी पर भीगान नदिमाग
की मनमा सीधाजन मावि मीना पनपना गाना मनों का मानना अनी मला फार दिवानलगा। मीना मानी नगी आने निभीक होकर मार दिया कि मपनी मनपारा किसे बना सके मरना
भीणाग सपने मनी की रक्षा नियमनमा गा. गर कर सकती है। निगमकार नीधिन सिंह की महाराज उत्पादना मोर जी पनाग पं. गन्ना की गति को माद करना सम्भव दे सीमकार नियों में मनीय गाजपारा करना भी ममम्भव है।
गवण ने साम, दाम, दण्जार भेदन पारी नानियों का प्रयोग सीना पर कर लिया किन्तु जो एक भी गतिः सफल नई। मीना को आने मनीद में भे गमान निधन पर दृढ़ साझा कर रायण निगश हो गया। वह वापिमरने साल को लोट गया किन्तु वह कामानि दम्प रोने लगा। अपने पनि की यह दशा देख कर मन्दोदरी को बहुत दान मा । वा करने लगी- स्वामिन ! सीता कारण कर मापने पहन अनुचित कार्य किया है। भाप मी उत्तम पम्पों को या, फार्ग
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीमग्विा बैन प्रन्पमाला
~ ~ ~~~~~~~~ ~ ~~~ ~~ नाम की तीन रानियाँ और थीं। सीता को सगर्भा जान कर उनके यन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई । वे उस पर कोई कलंक चढ़ाना चाहती थीं अतः रातदिन उसका छिद्र ढूँढने लगीं। एकदिन कपटपूर्वक उन्होंने सीता से पूछा कि सरिख ! तुम लंका में बहुत समय तक रही थी और गवण को भी देखा था। हमें भी बताओ फिरावण का रूप कैसा था सीता की प्रकृति सरल थी। उसने कहा-बहिनो! मैंने रावण का रूप नहीं देखा किन्तु कभीकभी मुझे डराने धमकाने के लिए वह अशोक वाटिका में आया करता था इसलिए उसके केरल पैर मैंने देखे है। सौतों ने कहा- अच्छा उसके पैर ही चित्रित करके हमें दिखाभो । उन्हें देखने की हमें बहुत इच्छा हो रही है। सरल प्रकृति वाली सीता उनके कपटभाव को न जान सकी। सरल भाव से उसने रावण के दोनों पैर चित्रित कर दिये । सौतों ने उन्हें अपने पास रख लिया। अब वे अपनी इच्छा को पूरी करने का उचित अवसर देखने लगीं । एक समय राम अकेले बैठे हुए थे। तब सब सौत मिल कर उनके पास गई। चित्र दिखा कर वे कहने लगीं- स्वामिन् ! जिस सीता को श्राप पतिव्रता और सती करते हैं उसके चरित्र पर जरा गौर कीजिए । वह अब भी रावण की ही इच्छा करती है। वह नित्यप्रति इन चरणों के दर्शन करती है। सौतों की बात सुन कर राम विचार में पड़ गये किन्तु फिसी अनबन के फारण सौतों ने यह बात बनाई होगी यह सोच कर राम ने उनकी बातों की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। अपनाप्रयास असफल होसे देख मौतों की ईर्ष्या और भी बढ़ गई। उन्होंने अपनी दासियों द्वारा लोगों में धीरे धीरे यह वास फैलानी शुरू की। इसमे लोग भी भव सीता को सकलंकसमझने लगे।
एक दिन रात्रि के समय राम सादावेप पहन फर लोगों का सम्व दुःख जानने के लिये नगर में निकले। घूमते हुए वे एक धोवी के घर
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानेन सिमान्त मोम संग्रह, पावां भाग ३३० rxmmmmmwwwmv .mmmmmmmm or m~~~~~~~~~~ शोभा नहीं देता। सीता महासती है । वह मन से भी परपुरुष की इच्छा नहीं करती । सतियों को कष्ट देना ठीक नहीं है। अतः श्राप इस दुष्ट वामनाको हृदय से निकाल दीजिए और शीघ्र ही सीता को वापिस राम के पास पहुंचा दीजिए । रावण के छोटे भाई विभीषण ने भी रावण को बहुत कुछ समझाया किन्तु रावण तो कामान्ध बना हुआ था। उसने फिसी की बात पर ध्यान न दिया।
राम लक्ष्मण जब वापिस लौट फर झोंपड़ी पर पाये तो उन्होंने वहाँ सीता को न देखा, इससे उन्हें बहुत दुःख हुमा। वे इधर उधर सीता की खोज करने लगे किन्तु सीता का कहीं पता न लगा। सीता की खोज में घूमते हुए राम लक्ष्मण की सुग्रीव से भेट हो गई। सीता की खोज के लिये सुग्रीव ने भी चारों दिशाओं में अपने दूत भेजे । हनुमान् द्वारा सीता की खबर पाकर राम, लक्ष्मण और झग्रीव वहुत बड़ी सेना लेफर लंका गये। अपनी सेना को सज्जित कर रावण भीयुद्ध के लिये तय्यार हुभा।दोनों वरफ की सेनाओं में घमासान युद्ध हुना। कई वीर योद्धा मारे गये। अन्त में वासुदेव लक्ष्मण द्वारा प्रतिवासुदेव रावण मारा गया। राम की विजय हुई। सीता को लेकर राम और लक्ष्मण अयोध्या को लौटे। माता कौशल्या, सुमित्रा और पैकयी को तथा भरत को और सभी नगर निवासियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। सभी ने मिल कर राम का राज्याभिषेक किया। न्याय नीतिपूर्वक प्रजा का पुत्रवत् पालन करते हुए राजा राम मुखपूर्वक दिन बिताने लगे।
एक समय रात्रि के अन्तिम भाग में सीता ने एक शुभ स्वमदेखा। उसने अपना नाम राम से कहा । स्वम सन फर राम ने कहादेवि ! तुम्हारी कुति से फिसी वीरपत्र का जन्म होगा । सीता यतना पूर्वक अपने गर्भ का पालन करने लगी।
सीता के सिवाय राम के प्रभावती, रतिनिभा और श्रीदामा
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन मन्यमाला
के पास जा पहुँचे । धोविन रात में देरी से आई थी। वह दरवाजा खटखटा रही थी। धोची उसे बुरी तरह से हाट रहा था और का रहा था कि मैं राम थोड़ा ही हूँ जिन्होंने रावण के पास रही हुई सीता को वापिस अपने घर में रत्व लिया। धोबी के इन शब्दों ने राम के हृदय को भेद डाला। उन्होंने सीता को त्यागने का निश्चय कर लिया।
दूसरे दिन राम ने सारी हकीकत लक्ष्मण से कही। लक्ष्मण ने कहा-पूज्य भ्राता आप यह क्या कह रहे हैं ?सीता शुद्ध है। वह महासती है। उसके विषय में किसी प्रकार की भी शङ्कान करनी चाहिये। राम ने कहा- तुम्हारा कहना ठीक है किन्तु लोकापवाद से रघुकुल का निर्मल यश मलिन होता है। मैं इसे सहन नहीं कर सकता।
दसरे दिन प्रातःकाल राम ने सीता को बन के दृश्य देखने रूप दोहद को पूरा करने के बहाने से रथ में बैठा कर जंगल में भेज दिया। एक भयंकर जंगल के अन्दर ले जाकर सारथी ने सीता से सारी हकीकत कही। सुनते ही सीता मूछित होकर भूमि
पर गिर पड़ी। शीतल पवन से कुछ देर बाद उसकी मूछो दर हुई। : सीता फी यह दशा देख कर सारथी बहुत दुखी हुमा किन्तु वह विवश था। सीसा को वहाँ छोड़ फर वह वापिस अयोध्या लौट माया। सीता अपने मन में सोच रही थी कि मैंने ऐसा कौन सा अशुभ कार्य किया या किसी पर झूठा कलंक चढाया है जिसके परिणाम स्वरूप इस जन्म में मुझ पर यह झूठा फलंफ लगा है।
पुण्डरीफपुर का स्वामीराजा बज्रजंघ अपने मंत्रियों सहित उस नन में हाथी पकड़ने के लिये आया था। अपना कार्य करके वापिस लौटते हुए उसने विलाप करती हई सीता को देखा । नजदीक जाकर उमने सीता से उसके दुःख का कारण पूछा । प्रधानमन्त्री ने गजा का परिचय देते हुए कहा- हे सुभगे । ये पुण्डरीकपुर के राजा वनजंघ हैं। ये परनारी के सहोदर परम श्रावक हैं। तुम
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां भाग ३३३ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm अपना वृत्तान्त इनसे कहो। ये अवश्य तुम्हारा दुःख दूर करेंगे।
मन्त्री के कथन पर विश्वास करके सीता ने अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया। राजा कहने लगा- हे आर्ये ! एक धर्म वाले परस्पर पन्धु होते हैं । इसलिये तुम मेरी धर्म वहिन हो। तुम मुझे अपना भाई समझ कर मेरे घर को पावन करो और धर्म ध्यान करती हुई सरख पूर्वक अपना समय विताभो । वज्रजंघ का शुद्ध हृदय जान कर सीता ने पुण्डरीफपुर में जाना स्वीकार कर लिया । राजा वनजंघ सीता को पालकी में पैठा कर अपने नगर में ले पाया । सीता विधिवत् अपने गर्भ का पालन करने लगी।
समय पूरा होने पर सीता ने एक पुत्र युगल को जन्म दिया। राजा वनजंघ ने दोनों पुत्रों का जन्मोत्सव मनाया। उनमें से एक का नाम लव और दूसरे का नाम कुश रखा। दोनों राजकुमार आनन्दपूर्वक बढ़ने लगे। योग्य वय होने पर उन दोनों को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा दिलाई गई। यौषन अवस्था प्राप्त होने पर राजा वज्रजंघ ने दूसरी बत्तीस राजकन्याओं का और अपनी पुत्री शशिकला का विवाह लव के साथ कर दिया । कुश के लिए राजा वज्रजंघ ने पृथ्वीपर के राजा पृथुराज से उसकी कन्या की मांगणी की फिन्तु लव, कुश के वंश को अज्ञात बसा कर पृथुराज ने अपनी कन्या देने से इन्कार कर दिया। राजा वज्रजंघ ने इसे अपना अपमान समझा । राजा वज्रजंघ ने लव कुश को साथ लेकर पृथुराज के नगर पर चढ़ाई कर दी। उसकी प्रबल सेना के सामने पृथराज की सेना न टिक सकी। परास्त होकर वह मैदान छोड़ कर भाग गई । पृथुराज भी अपने प्राण बचाने के लिए भागने लगा किन्तु लव, कुश ने उसे चारों ओर से घेर लिया। कुश ने कहा- राजन् ! आप सरीखे उत्तम कुल वंश वाले हम जैसे हीन कुल वंश वालों के सामने से अपने प्राण बचा कर भागते हुए
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३१
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला
शोभा नहीं देते। जरा मैदान में खड़े रह फर हमारा पराक्रम तो देखो जिससे हमारे कुल वंश का पता चल जाय । कुश के ये ममेकारी वचन मुन कर पृथुराज का अभिमान चूरचूर हो गया ।वह मन में सोचने लगा- इन दोनों वीगें का पराक्रम ही इनके उत्तम कुल वंश का परिचय दे रहा है । ये अवश्य ही किसी वीर क्षत्रिय की सन्तान हैं। इन्हें अपनी कन्या देने में मेरा गौरव ही है। ऐसा सोच कर पृथुराज ने राजा वनजंघ से सुलह करके अपनी कन्या का विवाह कुश के साथ कर दिया। इसी समय नारद मुनि वॉ श्रा पहुँचे । राजा वनजंघ के प्रार्थना करने पर नारद मुनि ने लव
और कुश के कुल वंश का परिचय दिया, जिससे पृथुराज को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह अपने आप को सौभाग्यशाली मानने लगा। - इसके बाद राजा वज्रजंघ लव और कुश के साथ भनेक नगरों पर विजय फरता हुआ पुण्डरीकपर लौट आया।
सती साध्वी सीता पर फलंक चढ़ाना, गर्भवती अवस्था में निष्कारण उसे भयङ्कर वन में छोड़ देना आदि सारा वृत्तान्त नारदमी द्वारा जान कर लव और कुश राम पर अति कुपित हुए । राजा वनजंघ की सेनाको साथ में लेकर लव और कुश ने भयोध्या पर चढ़ाई कर दी। इस अचानक चढ़ाई से राय लक्ष्मण कोअति विस्मय हुआ। वे सोचने लगे कि यह कौन शत्र है और इस
आकस्मिक माझमण का क्या कारण है ? मारिखर अपनी सेना को लेकर वे भी मैदान में भाए। घमासान युद्ध शुरू हुभा । लव कुश के बाणप्रहार से परास्त होकर राम की सेना अपने प्राण लेकर भागने लगी। अपनी सेना की यह दशा देख कर वे विस्मय के साथ विचार में पड़ गए कि हमारी सेना ने भाज तक भनेक युद्ध किये। सर्वत्र विजय छुई किन्तु ऐसी दशा कभी नहीं हुई। क्या उपार्जन की हुई कीर्ति पर आज धव्या लग जायगा ? कुछ भी हो
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोन समह, पांचवा भाग ३३५ mmmmmmmmmmmmmrawranamm ormin armmmmmmm rrrrrrrrrrr हमें वीरता पूर्वक शत्र का मुकाबला करना ही चाहिए। ऐसा सोच कर लक्ष्मण धनुष बाण लेकर आगे बढ़ा। उसके आते हुए वाणों को लव और कुश बीच में ही काट देते थे। शत्रु पर फेंके सबशस्त्रों को निष्फल जाते देख कर लक्ष्मण अति कुपित हुए। विजय का कोई उपाय न देख कर शत्र का सिर काट कर लाने के लिए उन्होंने चक्र चलाया । लव कुश के पास आकर उन दोनों भाइयों की प्रदक्षिणा देकर चक्र वापिस लौट आया।अब तो राम लक्ष्मण फी निराशा का ठिकाना न रहा । वे दोनों उदास होकर बैठ गये
और सोचने लगे कि मालूम होता है कि ये कोई नये बलदेव और वासुदेव प्रकट हुए हैं। __उसी समय नारद मुनि वहाँ भा पहुँचे। राम लक्ष्मण को उदास बैठे देख कर वे हंस कर कहने लगे- हर्षित होने के बदले आज आप उदास होकर कैसे बैठे हैं ? अपने शिष्य और पुत्र के सामने पराजित होना तो हर्ष की बात है। राम लक्ष्मण ने कहा-महाराज! हम आपकी बात का रहस्य कुछ भी नहीं समझ सके । जरा स्पष्ट करके कहिये । नारदजी ने कहा ये लड़ने वाले दोनों वीर माता सीता के पुत्र हैं। चक्र ने भी इस बात की सूचना दी है क्योंकि वह स्वगोत्री पर नहीं चलता।
नारदजी की बात सुन फर राम लक्ष्मण के हर्ष का पारावार न रहा। वे अपने वीर पुत्रों से भेट करने के लिए आतुरता पूर्वक उनकी तरफ चले । लव कुश के पास जाकर नारदजी ने यह सारा वृत्तान्त कहा । उन्होंने अपने अस्त्र शस्त्र-नीचे डाल दिये और आगे बढ़ कर सामने आते हुए राम लक्ष्मण के चरणों में सिर नमाया । उन्होंने भी प्रेमालिजन कर आशीर्वाद दिया। अपने वीर पुत्रों को देख कर उन्हें भति हर्ष हुआ। इसके बाद राम ने सीता को लाने की आज्ञा दी । सीता के पास जाकर लक्ष्मण ने चरणों
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३६
श्री सेठिया जैन मन्यमाला
NNNNN
में नमस्कार किया और भयोध्या में चल कर उसे पावन करने की प्रार्थना की। सीता ने कहा- मत्स ! अयोध्या चलने में मुझे कोई एतराज नहीं है किन्तु जिस लोकापवाद से डर कर राम ने मेरा त्याग कियाथा वह तो ज्यों का त्यों बना रहेगा। इसलिए मैंने यह प्रतिज्ञा की है कि अपने सतीत्व की परीक्षा देकर ही मैं अयोध्या में प्रवेश करूँगी।
राम के पास आकर लक्ष्मण ने सीता की प्रतिज्ञा कह सुनाई। सती सीताको निष्कारण वन में छोड़ देने के कारण होने वाले पश्चात्ताप से राम पहले से ही खिन्न हो रहे थे। सीता की कठिन प्रतिज्ञा को सुन फर वे और भी अधिक खिन्न हुए। राम के पास अन्य कोई उपाय न था, वे विवश थे। उन्होंने एक अग्नि का कुण्ड बनवाया। इस दृश्य को देखने के लिए अनेक सुर नर वहाँइकटे हुए
और उत्सुकता पूर्ण नेत्रों से सीता की ओर देखने लगे। अग्नि अपना प्रचण्ड रूप धारण कर चुकी थी। उसकी ओर बॉख उठा कर देखना भी लोगों के लिए कठिन हो गया। उस समय सीता अग्निकुण्ड के पास आकर खड़ी हो गई और उपस्थित देव थोर मनुष्यों के सामने अग्नि से कहने लगी
मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नमध्ये, यदि मम पतिभावो राघवादन्यपुंसि । तदिह दह शरीरं पापकं पावक ! त्वं, खुकृत निकृतकानां स्वं हि सर्वत्र साक्षी ॥
अर्थात- मन, वचन या ाया में, जागते समय या स्वप्न में यदि रामचन्द्र जी को छोड कर किसी दूसरे पुरुप में मेरा पतिभाव हुप्रा हो तो हे अग्नि ! तुम दम पापी शरीर को जला डालो । सदाचार और दुराचार के लिए इस समय तुम्हीं सक्षी हो।। ऐसा कह कर मीता उस अग्निकुण्ड में कूद पड़ी तत्काल अग्नि
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी चैन सिमान्त बोत्र सग्रह, पांचवा भाग
-३३७
बुझ कर वह कुण्ड जल से भर गया । शीलरनक देवों ने जल में कमल परसिंहासन बना दिया और सती सीता उस पर बैठी हुई दिखने लगी । यह दृश्य देख कर लोगों के हर्प का ठिकाना न रहा । सती के जयनाद से भाफाश गूंज उठा। देवताओं ने सती पर पुष्पवृष्टि की।
राम उपस्थित जनसमाज के सामने पश्चात्ताप करने लगेमैंने सती साध्वी पत्नी को इतना कष्ट दिया। सत्यासत्य का निर्णय किए बिना केवल लोकापवाद से डर कर भयङ्कर वन में छोड़ कर मैंने उसे प्राणान्त कष्ट दिया। यह मेरा अविचारपूर्ण कार्य था। सती को कष्ट में राल कर मैंने भारी पाप उपार्जन किया है। मैं इस पाप से कैसे छूटेंगा। इस प्रकार पश्चात्ताप में पड़े हुए अपने पति को देख कर सीता कहने लगी- नाथ! आपका पश्चाताप करना व्यर्थ है। सोने को अग्नि में तपाने से उसकी कीमत बढ़ती है घटती नहीं । इसी प्रकार आपने मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाई है। यदि यह सारा बनाव न बना होता तो शील का माहात्म्य कैसे प्रकट होता ? इस लिए आपको पश्चात्ताप करने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार पति पत्नी के संवाद को सुन कर सब लोग कहने लगे कि-सर्वत्र सत्य की जय होती है । सती सीता सत्य पर अटल थी। अनेक विपत्तियाँ बाने पर भी वह शील में दृढ़ रही इसी लिए प्राज उसकी सर्वत्र जय हो रही है।
उस समय चार ज्ञान के धारक एक मुनिराज वहाँ पधारे । सब लोगों ने विनयपूर्वक वन्दना की और धर्मोपदेश सुनने की इच्छा प्रकट की। विशेष लाभ समझ कर मुनिराज ने धर्मोपदेश फरमाया। कितने ही सुलभवोधि जीवों ने वैराग्य प्राप्त कर दीक्षा अङ्गीकार की। सीता ने मुनिरान से पूछा- हे भगवन् । पूर्व जन्म में मैंने ऐसा कौन सा कार्य किया जिससे मुझ पर यह कलंक
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
लगा ? कृपा करके कहिये।
उपस्थित जनसमाज के सामने मुनिराज ने कहनाशुरू किया। भन्यो। मपनी आत्मा का हित चाहने वाले पुरुषों को झूठ वचन, दोपारोपण, निन्दा और किसी की गुप्त बात को प्रकट करना इत्यादि अवगुणों का सर्वथा त्याग करना चाहिये। किसी निर्दोष व्यक्ति पर झूठाकलंक चढ़ाना तो भतिनिन्दनीय कार्य है। ऐसा व्यक्ति लोक में निन्दा का पात्र होता है और परलोक में अनेक कष्ट भोगता है । जो व्यक्ति शुद्ध संयम पालने वाले मुनिराज पर झूठा कलंक लगाता है उस पर सती सीता की तरह झूठा कलंक आता है । सीता के पूर्वभव की कथा इस प्रकार है
भरतक्षेत्र में मृणालिनी नाम की नगरी थी। उसमें श्रीभूति नाम का एक प्रतिष्ठित पुरोहित रहता था। उसकी स्त्री का नाम सरस्वती था। उसके एक पुत्री थी जिसका नाम वेगवती था। ___ एक दिन अपनी सखियों के साथ खेलती हुई वेगवती नगरी से कुछ दूर जंगल की भोर निकल गई। आगे जाकर उसने देखा कि एक कृशकाय तपस्वी मुनिराज काउसग्ग करके ध्यान में खड़े हैं। नगरी में इसफी खबर मिलने से सैकड़ों नर नारी उनके दर्शन करने के लिए आरहे हैं । यह देोव कर वेगवती के हृदय में मुनि पर पूर्वभव का वैर जागृत हो गया।वह दर्शनार्थ पाने वाले लोगों से कहने लगी- संसार को छोड़ कर साधु का वेष पहनने वाले भी कितने कपटी और ढोंगी होते हैं। भोले प्राणियों को ठगने के लिये वे क्या क्या दम्भ रचते हैं। पवित्र कर्मकाण्डी ब्राह्मणों की सेवा को छोड़ कर लोग भी ऐसे पाखण्डियों की ही सेवा करते हैं। मैंने अभी देखा था कि यह साधु एकान्त में एक स्त्री के साथ क्रीड़ा कर रहा था। इससे ध्यानस्थ मुनि काचित्त संतप्त हो उठा। चे विचारने लगे कि में निर्दोष हूँ इसलिए मुझे तो किसी प्रकार
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त घोल संग्रह, पाचवा भाग wwwwwwwwwwwwwwwwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmm
का दुःख नहीं है किन्तु इससे जैन शासन कलङ्कित होता है। इस लिए मेरे सिर से जब यह फलंफ उतरेगा तभी मैं काउसग्ग पार फर अन्न जल ग्रहण करूँगा। ऐसी कठोर प्रतिज्ञा करके मुनिध्यान में विशेष दृढ़ बन गये।
शासनदेवी का आसन कंपित हुआ। उसने अवधिज्ञान द्वारा मुनि के भावों को जान लिया । वह तत्काल वहॉाई और वेगबती के उदर में शूल रोग उत्पन्न कर दिया जिससे उसे प्राणान्त कष्ट होने लगा। वह उपस्थित जनसमुदाय के सामने मुनि को लक्ष्य करके उच्च खर से कहने लगी-भगवन् ! आप सर्वथा निर्दोष हैं । मैंने आपके ऊपर मिथ्या दोष लगाया है। हे क्षमानिधे ! आप मेरे अपराध को क्षमा करें। अपना अभिग्रह पूरा हुआ जान कर मुनि ने काउसग्गपार लिया। जनता के आग्रह से मुनि ने धर्मोपदेश फरमाया । वेगवती सुलभवोधि थी। उपदेश से उसका हृदय परिवर्तित होगया। उसे धर्म पर पूर्ण श्रद्धा होगई। उसी समय उसने श्राविका के व्रत अङ्गीकार कर लिए। कुछ समय पश्चात् उसे संसार से वैराग्य हो गया । दीक्षा अङ्गीकार कर शुद्ध संयम का पालन करने लगी। कई वर्षों तक संयम का पालन कर वह पाँचवें देवलोक में उत्पन्न हुई । वहाँ से चव कर मिथिला के राजा जनक के घर पुत्रीरूप से उत्पन्न हुई। पूर्वभव में इसने मुनि पर झूठा कलंक लगाया था इसलिये इस भव में इस पर भी यह झूठा कलंक आया था।
अपने पूर्वभव का वृत्तान्त मुन कर सीता को संसार से विरक्ति होमई । उसी समय राम की आज्ञा लेकर उसने दीक्षा अङ्गीकार कर ली। कई वर्षों तक शुद्ध संयम का पालन करती रही । अपना अन्तिम समय नजदीक आया जान कर उसने विधिपूर्वक संलेखना संथारा किया और मर कर वारहवें देवलोक में इन्द्र का पद प्राप्त किया। वहॉ से चव कर कितनेक भव करके मोक्ष प्राप्त करेगी।
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४.
श्री सेठिया जेन पन्धमाला
- Pramomwww wwwm
www
(१०)सुभद्रा प्राचीन समय में वसन्तपुर नाम का एक रमणीय नगर था। वहाँ जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसके मन्त्री का नाम जिनदास था। वह जैन धर्मानुयायी पारह व्रतधारी श्रावफ था। उसकी पत्नी का नाम तत्त्वमालिनी था । अपने पति के समान वह पूर्ण धर्मानुरागिणी और श्राविका थी। उसकी कुति से एक महारूपवती कन्या का जन्म हुमा। इससे माता और पिता दोनों को बहुत प्रसनता हुई । जन्मोत्सव मना कर उन्होंने उसका नाम सुभद्रा रक्खा।
माता पिता के विचार,व्यवहार और रहन सहन का सन्तान पर बहुत असर पड़ता है। सुभद्रा पर भी माता पिता के धार्मिक संस्कारों का गहरा असर पड़ा। बचपन से ही धर्म की ओर उसकी विशेष रुचि थी और धर्गक्रियाओं पर विशेष प्रेम था।माता पिता की देखादेख वह भी धार्मिक क्रियाएं करने लगी। थोड़े ही समय में मुभद्रा ने मागायिक, प्रतिक्रमण, नव तत्त्व, पच्चीस क्रिया आदि फा वहुत सा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
योग्य वय होने पर जिनदास को सुभद्रा के योग्य वर खोजने की चिन्ता हुई। सेट ने विचार किया कि मेरी पुत्री की धर्म के प्रति विशेष रुचि है इस लिए किसी जैन धर्मानुयायी वर के साथ विवाह करने से ही इसका दाम्पत्य जीवन सुखमय हो सकता है। यह सोच कर जिनदास ऐसे ही वर की खोज में रहने लगा।
वसन्तपुर व्यापार का केन्द्र था। अनेकनगरोंसे आकर व्यापारी वहाँ व्यापार किया करते थे। एक समय चम्पानिवासी वुद्धदास नाग का व्यापारी वहाँ पाया। वह बौद्ध मतावलम्बी था। एक दिन व्याख्यान मुन कर वापिस पाती हुई सुभद्रा को उसने देखा। उसने उसके विषय में पूछताछ की। किसी ने उसे बताया कि
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग
३४१
mmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwmmon
यह जिनदास श्रावक की पुत्री है, अभी कुंवारी है। किसी जैनधर्मप्रेमी के साथ ही विवाह करने का इसके पिता का निश्चय है।
बुद्धदास के हृदय में उस कन्या को प्राप्त करने की उत्कट अभिलापा उत्पन्न हो गई । वह मन में विचारने लगा कि मेरे में और तो सारे गुण विद्यमान हैं सिर्फ इतनी कमी है कि मैं जैनी नहीं हूँ। इसे प्राप्त करने के लिये मैं जैनी भी बन जाऊँगा। ऐसा दृढ़ निश्रय करके बुद्धदास मय जैन साधुमों के पास जाने लगा। दिखावटी विनय भक्ति करके वह उनके पास ज्ञान सीखने लगा। मनिवन्दन, व्याख्यान श्रवण, त्याग, पच्चरखाण, सामारि मादि धार्मिक क्रियाएं करने लगा।
भर बुद्धदास पक्का धार्मिक समझा जाने लगा। सभी लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। धीरे धीरे जिनदास श्रावक को भी ये सारी बातें मालूम हुई। एक दिन जिनदास ने उसे अपने घर भोजन के लिए निमन्त्रण दिया । बुद्धदास तो ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में था ही। उसे बहुत पै हुमा । मातःकाल उठ कर उसने नित्य नियम किया। मुनिवन्दन करके उसने पोरिसी का पञ्चक्रवाण कर लिया। पोरिसी आने पर वह जिनदास श्रावक के घर आया। याली परोसते समय उसने कहा मुझे अमुक विगय और इतने द्रव्यों के सिवाय माज त्याग है इसलिए इसका ध्यान रखियेगा।
बुद्धदास की इन बातों से जिनदास को यह विश्वास होगया कि धर्म पर इसका पूर्ण प्रेम है और यह धर्म के मर्म को अच्छी तरह जानता है। यह सुभद्रा के योग्य वर है ऐसा सोच फर जिनदास ने बुद्धदास के सामने अपने विचार प्रकट किये । परले तो बुद्धदास ने ऊपरी ढोंग बता कर कुछ आनाकानी की किन्तु सेठ के अधिक कहने पर बुद्धदास ने कहा- यद्यपि इस समय मेरा विचार विवाह करने का नहीं था तथापि आप सरीखे बड़े भाद
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
'
३४२
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
www
A
मियों के वचनों का मैं उल्लंघन नहीं कर सकता । मैं तो आप सरीखे बड़े श्रावकों की श्राज्ञा का पालन करने वाला हूँ ।
बुद्धदास का नम्रता भरा उत्तर सुन कर जिनदास का हृदय प्रेम से भर गया। शुभ मुहूर्त में उसने सुभद्रा का विवाह उसके साथ कर दिया । कुछ समय तक बुद्धदास वहीं पर रहा। बाद में उनकी आज्ञा लेकर वह अपने घर चम्पापुरी में लौट आया । वहॉ थाने पर सुभद्रा को मालूम हुआ कि स्वयं बुद्धदास और उसका सारा कुटुम्ब बौद्धधर्मी है। बुद्धदास ने मेरे पिता को धोखा दिया है । सुभद्रा विचारने लगी कि अब क्या हो सकता है। जो कुछ हुआ सो हुआ । मैं अपना धर्म कभी नहीं छोड़ेंगी । धर्म अन्तरात्मा की वस्तु है । वह मुझे प्रारणों से भी प्यारा है । प्राणान्त कष्ट आने पर भी मैं धर्म पर दृढ़ रहूँगी । ऐसा निश्चय कर सुभद्रा पूर्व की भाँति अपना नित्यनियम आदि धार्मिक क्रियाएं करती रही ।
·
उसके इन कार्यों को देख कर उसकी सासु बहुत क्रोधित हुई । ए उससे कहने लगी- मेरे घर में रह कर तेरा यह ढोंग नहीं चल सकता । तू इन सब को छोड़ दे, अन्यथा तुझे कड़ा दण्ड भोगना पड़ेगा ।
जब उसकी सासू ने देखा कि इन बातों का उस पर कुछ भी असर न पड़ा तब उसने उस पर किसी प्रकार का लाञ्छन लगा कर उसे अपने मार्ग पर लाने का निश्चय किया ।
एक दिन एक जिनकल्पी सुनिराज उधर आ निकले। भिक्षा के लिए उन्होंने शुभद्रा के घर में प्रवेश किया । भक्तिपूर्वक वन्दना कर सुभद्रा ने उन्हें आधार बहराया । 'फूस के गिर जाने से मुनिराज की यांख में से पानी गिर रहा है' यह देख कर सुभद्रा ने बढ़ी सावधानी से अपनी जीभ द्वारा फूस बाहर निकाल दिया । ऐमा करते समय सुभद्रा के ललाट पर लगी हुई कुंकुंम की बिन्दी मुनिराज से ललाट पर लग गई । उसकी सामू ने अपनी इच्छापूर्ति के
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
३४३
लिये यह अवसर ठीक समझा। उसने मुनिराज के ललाट की बिन्दी की ओर संकेत करके बुद्धदास से कहा- पुत्र! बहू के दुराचार का यह प्रत्यक्ष प्रमाण है
1
यह देख कर बुद्धदास को बहुत दुःख हुआ। वह सुभद्रा को दुराचारिणी समझने लगा। सुभद्रा ने सारी सत्य बात कह सुनाई । फिर भी बुद्धदास का सन्देह दूर नहीं हुआ । उसने सुभद्रा के साथ अपने सारे सम्बन्ध तोड़ दिये ।
सुभद्रा ने विचार किया कि मेरे साथ साथ जैन मुनि पर भी कलंक श्राता है। इसलिए मुझे इस कलंक को अवश्य दूर करना चाहिए। तेले का तप करके वह काउसग्ग में स्थित हो गई। तीसरे दिन मध्य रात्रि में शासन देवी प्रकट होकर कहने लगी- सुभद्रे ! तेरा शील अखण्डित है । धर्म पर तेरी दृढ़ श्रद्धा है । मैं तुझ पर प्रसन्न हुई हूँ । कोई वर मांग । सुभद्रा ने कहा- देवि ! मुझे किसी वर की आवश्यकता नहीं है। मेरे सिर पर आया हुआ कलंक दूर होना चाहिये। 'तथास्तु' कह कर देवी अन्तर्ध्यान होगई ।
दूसरे दिन प्रातःकाल जब द्वाररक्षक शहर के दरवाजे उघाढ़ने लगे तो वे उन्हें नहीं खोल सके । द्वार वज्रमय होगये । अनेक प्रयत्न करने पर भी जब दरवाजे नहीं खुले तो राजा के पास जाकर उन्होंने सारी हकीकत कही। राजा ने कहा- शहर के लुहारों और सुधारों को बुला कर दरवाजों को खुलवा लो। सेवकों ने ऐसा ही किया किन्तु दरवाजे न खुले। तब राजा ने आज्ञा दी फि हाथियों को छोड़ कर दरवाजों को तुड़वा दो । मदोन्मत्त हाथी छोड़े गये । उन्होंने पूरी ताकत लगा दी किन्तु दरवाजे टस से मस न हुए। अब तो राजा और प्रजा दोनों की चिन्ता काफी बढ़ गई। इसी समय एक श्राकाशवाणी हुई
'कोई सती कच्चे सूत के धागे से चलनी को बाँध कर कूप से जल
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पठिया जैन प्रन्यमाना
निकाल कर दरवाजों पर छिड़के तो दरवाजे तत्काल खल जावेंगे।'
आकाशवाणी को सुन कर राना ने शहर में घोषणा करनाई कि 'जो सती इस काम को पूरा करेंगी राज्य की ओर से उसका बड़ा भारी सन्मान किया जावेगा।'
निर्धारित किये हुए कुँए पर लोगों की भारी भीड़ जमा होने लगी। सभी उत्सुकनापूर्ण नेत्रों से देखने लगे कि देखे कौन सती इस कार्य को पूरा करती है। गजसन्मान और यश प्राप्त करने फी इच्छा से भनेक स्त्रियों ने कुँए से पानी निकालने का प्रपत्र किया किन्तु सब व्यर्थ रहा । कच्चे सूत से बाँध कर चलनी जन कुंए में लटकाई जाती तो सूत टूट जाने से चलानी कुंए में गिर पड़नी अथवा कमी किसी फी चलनी गल तक पहुँच भी जाती तो वापिस खींचते समय सारा जल छिद्रों से निकल जाता। राजा की आज्ञा से रानियों ने भी जल निकालने का प्रयत्न किया किन्तु दे भी सफल न हो सकी। अब तो राजा को बहुत निराशा हुई ।
राजा की घोषणा सुन कर सुभद्रा अपनी सासू और जल निकालने के लिये कुंए पर जाने की माज्ञा मांगी। क्रुद्ध होती हुई सासू ने कहा- बस रहने दो, तुम कितनी सती हो में अच्छी तरह जानती हूँ। अपने घर में ही बैठी रहो। वहाँ जाकर सब लोगों के सामने हंसी क्यों करवाती हो ? सुभद्रा ने विनय पूर्वक कहा- आप मुझे आज्ञा दीजिए | आपके भाशीर्वाद से मैं अवश्य सफल होऊँगी। सुभद्रा का विशेष भाग्रह देख कर सासू ने भनिच्छापूर्वक माजा दे दी।
सुभद्रा कुंए पर आई । कच्चे सूत से चलनी बाँध कर वह आगे बढ़ी। सब लोग टफटकी गाँध कर निनिमेप दृष्टि से उसकी भोर देखने लगे। सुभद्रा ने पलनी को कुंए में लटकापा भौर जल से भर कर बाहर खींच लिया।
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
सुभद्रा के इस आर्यजनक फार्य को देख कर सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए । राजा और प्रजा में हर्ष छा गया। लोग सुभद्रा के सतीत्व की प्रशंसा करने लगे । सती सुभद्रा की जयध्वनि से भाकाश गूँज उठा ।
1
जयध्वनि के बीच सती एक दरवाजे की ओर बढ़ी । जल छिड़कते ही दरवाजा खुल गया । इस तरह सती ने शहर के तीन दरवाजे खोल दिये। चौथा दरवाजा अन्य किसी सती की परीक्षा के लिये छोड़ दिया ।
सती सुभद्रा के सतीत्व की चारों ओर प्रशंसा फैल गई । राजा ने सती का यथेष्ट सम्मान किया और धूमधाम के साथ उसे घर पहुँचाया। सुभद्रा की सासू ने तथा उसके सारे परिवार वालों ने भी सारी बातें सुनीं। उन्होंने भी सुभद्रा के सतीत्व की प्रशंसा की और अपने अपने अपराध के लिये उससे क्षमा माँगी । सती के प्रयत्न से बुद्धदास तथा उसके माता पिता एवं परिवार के अन्य लोगों ने जैनधर्म अङ्गीकार कर लिया ।
३४५
www
अब सुभद्रा का सांसारिक जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा । पति, सासू तथा सम्बन्धी उसका सत्कार करने लगे। उसे किसी प्रकार का अभाव नहीं रहा, किन्तु सुभद्रा सांसारिक वासनाओं में ही फंसी रहना नहीं चाहती थी। उसे संसार की अनित्यता का भी ज्ञान था, इसलिये अपने सासू ससुर तथा पति की आज्ञा लेकर उसने दीक्षा ले ली। शुद्ध संयम का पालन करती हुई अनेक वर्षो तक विचर विचर कर भव्य प्राणियों का कल्याण करती रही । अन्त में केवलज्ञान केवलदर्शन उपार्जन कर मोक्ष पधार गई ।
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन मन्षमाला
vowwwwwwwww
(११) शिवा प्राचीन समय में विशाला नाम की एक विशाल और सुन्दर नगरी थी। वहाँ,चेटक राजा राज्य करता था। उसके सात कन्याएं थीं। उन में से एक का नाम शिवा था। जवषा विवाह के योग्य हुई तमराजा चेटक ने उसका विवाह उज्जैन के महाराज चण्डप्रद्योतन के साथ कर दिया।
शिवा देवी जिम प्रकार शरीर से सुन्दर थी उसी प्रकार गुणों से भी वह सुन्दर थी। विवाह के बाद उज्जैन में माफर वामपने पनि के साथ सुखपूर्वक समय बिताने लगी। अपने पति के विचारों का वह वैसे ही साथ देती जैसे छाया शरीर का साथ देती है। भवसर भाने पर एक योग्य मन्त्री के समान उचित सलाह देने में भी वह न हिचकती थी। इन सब गुणों से रामा उसे बहुत मानने लगा और उसे अपनी पटरानी बना दिया।
राजा के प्रधान मन्त्री का नाम भूदेव था। इन दोनों में परस्पर इतना प्रेम था कि एक दूसरे से थोड़ी देर के लिये भी कोई अलग होना नहीं चाहता था। फिसी भी बात में राजा मन्त्री पर अविश्वास नहीं करता था। यहाँ तक कि अन्तःपुर में भी राजा अपने साथ उसे निःशङ्कले जाता था। इस कारण रानी शिवा देवी का भी उसके साथ परिचय हो गया।अपने पति की उस पर इतनीज्यादह कृपा देख फर वह भी उसका उचित सत्कार करने लगी। मन्त्री का मन मलिन था। उसने इस सत्कार का दसरा ही भर्थ लगाया। वह रानी को अपने जाल में फंसाने की चेष्टा करने लगा। रानी की मुख्य दासी को उसने अपनी भोर कर लिया। दासी के द्वारा भपनावरा भभिप्राय रानी के सामने रखा।
रानी विचार करने लगी कि पुरुषों का हृदय फितना मलिन
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिदान्त बोल संमह. पांचवां भाग
३१७
होता है। कामान्ध व्यक्ति उचित अनुचित का कुछ भी विचार नहीं करते। रानी ने दासी को ऐसा डॉटा कि वह कॉपने लगी।हाण जोड़ कर उसने अपने अपराध के लिये क्षमा माँगी।
अपनी युक्ति को असफल होते देख कर मन्त्री बहुत निराश हुभा । अब उसने रानी को बलपूर्वक माप्त करने का निश्चय किया। इसके लिये वह कोई अवसर देखने लगा। एक दिन किसी अन्य राजा से मिलने के लिये राजा चण्डप्रद्योतन अपनी राजधानी से बाहरगया। अपने साथ चलने के लिए राजा ने भूदेव मन्त्री को भी कहा किन्तु बीमारी का बहाना करके वह वहींरह गया। रानी शिवा देवी को माप्त करने का उसे यह अवसर उचित प्रतीत हुआ। घर से रवाना होकर वह राजमहल में पहुंचा और निःसंकोच भाव से वह अन्तःपुर में चला गया। रानी शिवा देवी के पास जाकर उसने अपनी दुष्ट भावना उसके सामने प्रकट की। उसने रानी को अनेक प्रलोभन दिये और जन्म भर उसका दास बने रहने की प्रतिज्ञा की। __ रानी को अपना शील धर्म प्राणों से भी ज्यादा प्यारा था। वह पतिव्रत धर्म में दृढ़ थी । उसने निर्भर्त्सना पूर्वक मन्त्री को अन्तःपुर से निकलवा दिया। घर थाने पर मन्त्री को अपने दुष्कृत्य पर बहुत पश्चात्ताप होने लगा। वह सोचने लगाकि जब राजाको मेरे कार्य का पता लगेगा तो मेरी फैसी दुर्दशा होगी। इसी चिन्ता में वह बीमार पड़ गया।
बाहर से लौटते ही राजा ने मन्त्री को बलाया।वह डर के मारे कांपने लगा। बीमारी की अधिकता बताफर उसने राजा के सामने उपस्थित होने में असमर्थता प्रकट की। राजा को मन्त्री के विना चैन नहीं पड़ता । वह सन्ध्या के समय शिवा देवी को साथ लेकर मन्त्री के घर पहुँच गया। अब तो मन्त्री का डर और भी बढ़ गया।
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
wwwwwwwwwwwnn mom numrowwww.
warna
-
na - www
मन्त्री को शय्या पर पड़ा हुआ देख कर राजा कोबहुत दुःख हुआ। प्रेम की अधिकता से वह स्वयं उसकी सेवा शुश्रषा में लग गया। पति को सेवा करते हुएदेख कर रानी शिवा देवी भी उसकी सेवा में लग गई। रानी का शुद्ध और गम्भीर हृदय जान कर मन्त्री अपने नीच कार्य का पश्चात्ताप करने लगा। उसकी भांखों से
आंसुओं की धारा बह चली। रानी उसके भावों को समझ गई। उसे सान्त्वना देती हुई वह कहने लगी-भाई! पश्चात्ताप से पाप इल्फा हो जाता है। एक बार भूल करके भी यदि मनुष्य अपनी भूल को समझ कर सन्मार्ग पर जाय तो वह भूला हुआ नहीं गिना जाता । मन्त्रीने शिवा देवी के पैरों में गिर कर क्षमा मांगी।
एफसमय नगर में अग्निकाभयंकर उपद्रव हुमा।भनेक उपाय फरने पर भी वह शान्त न हुमा। प्रजा में हाहाकार मच गया। तव इस प्रकार की आकाशवाणी हुई कि कोई शीलवती स्त्री अपने हाथ से चारों दिशाओं में जल छिड़के तो यह अग्नि का उपद्रव शान्त हो सकता है। आकाशवाणी कोसन कर बहुत सी स्त्रियों ने ऐसा किया किन्तु उपद्रव शान्त न हुआ। महल की छत पर चढ़ करशिवादेवीने चारों दिशाओं में जल छिड़का। जल छिड़कते ही अग्नि का उपद्रव शान्त हो गया। मजा में वर्ष छा गया। 'महासती शिवादेवी की जय' की ध्वनि से आकाश गुंज उठा।
एक समय ग्रामानुमाम विहार करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उज्जयिनी नगरी के वाहर उद्यान में पधारे। रानी शिवा देवी सहित राजा चण्डपद्योतन भगवान् को वन्दना नमस्कार करने के लिए गया। भगवान् ने धर्मोपदेश फरमाया।शील का माहात्म्य बताते हुए भगवान् ने फरमाया
देवदाणवगन्धव्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा। घम्भयारिं नमसंति, दुकरं जे करन्ति तं ॥
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां भाग
wwwwww
३४६
अर्थात् - दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले पुरुषों को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर आदि सभी नमस्कार करते हैं ।
धर्मोपदेश सुन कर सभी लोग अपने स्थान को वापिस चले गये । सती शिवा देवी को संसार मे विरक्ति होगई । राजा चण्डप्रद्योतन की आज्ञा लेकर उसने दीक्षा अङ्गीकार कर ली । वह विविध प्रकार की कठोर तपस्या करती हुई विचरने लगी । थोड़े ही समय में सब कर्मों का क्षय करके उसने मोक्ष प्राप्त किया ।
(१२)
कुन्ती
प्राचीन समय में शौर्यपुर नाम का नगर था। वहाँ राजा अन्धक दृष्णि राज्य करता था । पटरानी का नाम सुभद्रा था । उसकी कुक्षि से समुद्र विजय, अक्षोभ, स्तिमित, सागर, हिमवान्, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र और वसुदेव ये दस पुत्र उत्पन्न हुए | ये दस दशाई कहलाते थे। इनके दो बहनें थीं- कुन्ती और माद्री । दोनों का रूप लावण्य अद्भुत था ।
हस्तिनापुर में पाण्डु राजा राज्य करता था । वह महारूपधान्, पराक्रमी और तेजस्वी था | महाराज अन्धकदृष्णि ने अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह पाण्डु राजा के साथ कर दिया । ये दोनों रानियाँ बड़ी ही विदुषी, धर्मपरायणा और पतिव्रता थीं। इनमें सौतिया डाह विल्कुल न था । वे दोनों प्रेमपूर्वक रहती थीं । पाण्डु राजा दोनों रानियों के साथ आनन्द पूर्वक समय बिताने लगा । कुछ समय पश्चात् कुन्ती गर्भवती हुई। गर्भ समय पूरा होने पर कुन्ती ने एक महान तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । पुत्रजन्म से पाण्डु राजा को बहुत प्रसन्नता हुई। बड़ी धूमधाम से उसने पुत्र जन्मोत्सव मनाया और पुत्र का नाम युधिष्ठिर रखा। इसके पश्चात् कुन्ती की कुक्षि से क्रमशः भीम और अर्जुन नाम के दो पुत्र और उत्पन्न हुए। रानी माद्री की कुत्ति से नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५०
श्री सेठिया जैन मन्थमाला
wn ww
LAVwww
VANV www
हुए। ये पाँचों पाण्डव कहलाते थे । श्रेष्ठ गुरु के पास इन्हें उत्तम शिक्षा दिलाई गई। थोड़े ही समय में ये पाँचों शस्त्र और शास्त्र दोनों विद्यार्थीों में प्रवीण हो गए।
एक समय पाण्डु राजा सैर करने के लिये जंगल में गये । रानी कुन्ती और माद्री दोनों भी साथ में थीं । वसन्तक्रीड़ा करता हुआ राजा पाण्डु आनन्द पूर्वक समय बिता रहा था। इसी समय अकस्मात् हृदय की गति बन्द हो जाने से उसकी मृत्यु हो गई । इस व्याकस्मिक वज्रपात से रानी कुन्ती और माद्री को बहुत शोक हुआ। जब यह खबर नगर में पहुँची तो चारों ओर कुहराम छा गया । पाण्डव शोक समुद्र में डूब गये । उन्होंने अपने पिता का यथाविधि अग्नि संस्कार किया। माता कुन्ती और माड़ी को महलों में लाकर उनकी विनय भक्ति करते हुए वे अपना समय विताने लगे । योग्य नय होने पर पाँचों पाण्डवों का विवाह कम्पिलपुर के राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी के साथ हुआ। द्रौपदी धर्मपरायणा एवं पतिव्रता थी ।
राजा पाण्डु के बड़े भाई का नाम धृतराष्ट्र था। वे जन्मान्ध थे । उनकी पत्नी का नाम गान्धारी था। उनके दुर्योधन भादि सौ पुत्र थे। जो कौरव कहलाते थे । दुर्योधन बड़ा कुटिल था। वह पाण्डवों से ईर्ष्या रखता था । वह उनका राज्य छीनना चाहता था। उसने पाण्डवों को जुआ खेलने के लिए तैयार कर लिया । पाण्डवों ने अपने राज्य को दॉव पर रख दिया। वे जुए में हार गये। कौरवों ने उनका राज्य छीन लिया । द्रौपदी सहित पाँचों पाण्डव वन में चले गये । वहाँ उन्हें अनेक कष्ट सहन करने पड़े । पुत्रवियोग से माता कुन्ती बहुत उदासीन रहने लगी ।
एक समय कृष्ण वासुदेव कुन्ती देवी से मिलने के लिये आये । प्रणाम करके उन्होंने कहा- भूआजी ! आनन्द मंगल तो है ? कुन्ती ने उत्तर दिया- वत्स ! तुम्हीं सोचो - तुम्हारे भाई पाँचों
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५१
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां भाग
पाण्डव वन में कष्ट सहन कर रहे हैं। राजमहलों में पली हुई द्रौपदी भी उनके साथ कष्ट सहन कर रही है। उनका वियोग मुझे दुखी कर रहा है। ऐसी अवस्था में मेरे लिये आनन्द मंगल कैसा १ कृष्ण ने उसे सान्त्वना दी और शीघ्र ही उसके के दुःख को दूर करने का आश्वासन दिया।
कृष्ण वासुदेव दुर्योधन आदि कौरवों के पास आये। कुछ देकर पाण्डवों के साथ सन्धि कर लेने के लिये उन्हें बहुतेरा समझाया किन्तु कौरव न माने । परिणामस्वरूप महाभारत युद्ध हुआ । लाखों आदमी मारे गये । पाण्डवों की विजय हुई | युधिष्ठिर हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर बैठे । कुन्ती राजमाता और द्रौपदी राजरानी बनी । न्याय और नीतिपूर्वक राज्य करने से मजा महाराज युधिष्ठिर को धर्मराज कहने लगी।
1
युद्ध में दुर्योधन यदि सभी कौरव मारे गये थे। पुत्रों के शोक से दुखी होकर धृतराष्ट्र और गान्धारी वन में जाकर रहने लगे । उनके शोक सन्तप्त हृदय को सान्त्वना देने तथा उनकी सेवा करने के लिये कुन्ती भी उनके पास वन में जाकर रहने लगी ।
कुछ समय पश्चात् कुन्ती ने दीक्षा लेने के लिये अपने पुत्रों से अनुमति माँगी । पाण्डवों के इन्कार करने पर कुन्ती ने उन्हें समझाते हुए कहा - पुत्रो ! भो जन्म लेकर इस संसार में माया है एक न एक दिन उसे अवश्य यहाँ से जाना होगा । यहाँ सदा किसी की न बनी रही है और न सदा बनी रहेगी। कल यहाँ कौरवों का राज्य था आज उनका नाम निशान भी नहीं है । आत्मशान्ति न राज्य से मिलती है, न धन से, न कुटुम्ब से और न वैभव से । आत्मशान्ति तो त्याग से ही मिल सकती है। मैंने राज
रानी वन कर पति मुख देखा, तुम्हारे वन में चले जाने पर पुत्रवियोग का कष्ट सहन किया। तुम्हारे वापिस आने पर हर्षित हुई।
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
___भी सेठिया जैन मन्यमाला
AAAAAA.
AAAAAAM.
marrrrrrrrrrrrrrr arman ornamrrrrr
तुम्हारे राजसिंहासन बैठने पर मैं राजमाता बनी। मैंने संसार के सारे रंग देख लिये किन्तु मुझे आत्मिक शान्ति का अनुभव न हुा । ये सांसारिक सम्बन्ध मुझे बन्धन मालूम पड़ते हैं। मैं इन्हें तोड़ डालना चाहती हूँ।
माता कुन्ती के उत्कृष्ट वैराग्य को देख कर पाण्डवों ने उसे दीक्षा लेने की अनुमति दे दी। पुत्रों की अनुमति प्राप्त कर कुन्ती ने दीक्षा अङ्गीकार कर ली । विविध प्रकार की कठोर तपस्या करती हुई कुन्ती भार्या विचरने लगी। थोड़े ही समय में तपस्या द्वारा सभी कर्मों का क्षय कर वह मोक्ष में पधार गई।
(१३) दमयन्ती विदर्भ देश में कुंदिनपुर (कुन्दनपुर) नाम का नगर था। वहाँ भीम राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम पुष्पवती था।उसकी कुक्षि से एक पुत्री का जन्म हुआ जिसका नाम दमयन्ती रक्खा गया। उसका रूप सौन्दर्य अनुपम था। उसकी पुद्धि तीव्र थी। थोड़े ही समय में वह स्त्री की चौंसठ कलाओं में प्रवीण होगई।
'दमयन्ती का विवाह उसकी प्रकृति, रूप, गुण आदि के अनुरूप वर के साथ हो ऐसा सोच कर राजा भीम ने स्वयंवर द्वारा उसका विवाह करने का निश्चय किया।विविध देशों के राजाओं के पास आमन्त्रण भेजे। निश्चित तिथि पर अनेक राजा और राजकुमार स्वयंवर मण्डप में एकत्रित हो गए। कौशलदेश (भयोध्या) का राजा निषध भी अपने पुत्र नल और कवर के साथ वहाँ माया। __ हाथ में माला लेकर एक सखी के साथ दमयन्ती स्वयंवर मण्डप में आई । राजामों का परिचय प्राप्त करती हुई दमयन्ती धीरे धीरे भागे बढ़ने लगी। राजकुमार नल के पास आकर उसने उनके वल पराक्रम आदि का परिचय प्राप्त किया। दर्पण में पड़ने वाले
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग ३५३
wwwwwwwwwwww उनके शरीर का प्रतिविम्ब देखा । रूप और गुण में नल अद्वितीय था। दमयन्ती ने उसे सर्व प्रकार से अपने योग्य वर समझा। उसने राजकमार नल के गले में वरमाला साल दी। योग्य वर के चुनाव से सभी को प्रसन्नता हुई। सभी ने नव वरवधू पर पुष्पों की सषों की । राजा भीम ने यथाविधि दमयन्ती का विवाह राजकुमार नल के साथ फर दिया । यथोचित मादर सत्कार कर राजा भीम ने उन्हें विदा किया। ___ राजा निषध नव वरवधू के साथ आनन्दपूर्वक अपनी राजधानी भयोध्या में पहुंच गये। पुत्र के विवाह की खुशी में राजा निषध ने गरीबों को बहुत दान दिया। कुछ समय पश्चात् राजा को संसार से विरक्ति होगई। अपने ज्येष्ठ पुत्र नल फो राज्य का भार सौंप कर राजा ने दीक्षा अङ्गीकार कर ली। मुनि बन कर वे कठोर तपस्या करते हुए आत्मकल्याण करने लगे।
नल न्याय नीतिपूर्वक राज्य करने लगा। प्रजा को वह पुत्रवत् प्यार करता था। उसकी कीर्ति चारों ओर फैल गई । नल राजा का छोटा भाई कुबेर इस को सहन न कर सका। राजानल से उसका राज्य छीन लेने के लिये वह कोई उपाय सोचने लगा। कुबेर जुआ खेलने में पड़ा चतुर था। उसका फेंफा हुआ पासा उन्टा नहीं पड़ता था । उसने यही निश्चय किया कि नल फोजना खेलने के लिये कहा जाय और शते में उसफा राज्य दाव पर रख दिया जाय। फिर मेरा मनोरथ सिद्ध होने में कुछ देर न लगेगी। ___ एक दिन कुवेर नल के पास भाया। उसने जुआ खेलने का प्रस्ताव रक्खा । राजा नल को भी जमा खेलने का बहुत शौक था। उसने कुवेर का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इसके लिये एक दिन नियत किया गया। दोनों भाई जमा खेलने बैठे। खेलते खेलते कुवेर ने कहा- भाई ! इस तरह खेलने में मानन्द नहीं
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जेन ग्रन्थमाला
-
ramniwwar ram ramrma nrnamr marnamrrammar naamanna
आता । कुछ शर्त रखिये । राजा नल ने अपना सारा राज्य दाव पर रख दिया । कुवेर का पासा सीधा पड़ा। वह जीत गया।शर्त के अनुसार अब राज्य का स्वामी कुवेर हो गया।
राजा नल राजपाट फो छोड़ कर जंगल में जाने को तैयार हुआ। दमयन्ती भी उसके साथ बन जाने को तैयार हुई । राजा नल ने उसे बहुत समझाया और कहा- प्रिये ! पैदल चलना, भूख प्यास को सहन करना, सर्दी गर्मी में समभाव रखना, जंगली जानवरों से भयभीत न होना, इस प्रकार के और भी अनेक कष्ट जंगल में सहन करने पड़ते हैं। तुम राजमहलों में पली हुई हो। इन कष्टा को सहन न कर सकोगी। इसलिये तुम्हारे लिये यही उचित है कि तुम अपने पिता के यहॉ चली जाओ। ___ दमयन्ती ने कहा- स्वामिन् ! भाप क्या कह रहे हैं ? क्या छाया शरीर से दूर रह सकती है ? मैं पापसे अलग नहीं रह सकती। जहाँ आप हैं वहीं मैं हूँ। मैं आपके साथ वन में चलँगी।
दमयन्ती का विशेप आग्रह देख फर नल ने उसे अपने साथ चलने के लिए कह दिया । नल और दमयन्ती ने वन की ओर प्रस्थान किया। चलते चलते वे एक भयंकर जंगल में पहुँच गये । सन्ध्या का समय हो चुका था और वे भी थक गए थे । इसलिए रात बिताने के लिए वे एक वृक्ष के नीचे ठहर गए। रास्ते की थकावट के कारण दमयन्ती को सोते ही नींद भागई । नल अपने भाग्य पर विचार कर रहा था। उसे नींद नहीं आई। वह सोचने लगा-दमयन्ती वन के कष्टों को सहन न कर सकेगी। मोह के कारण यह मेरा साथ नहीं छोड़ना चाहती है। इसलिए यही अच्छा है कि मैं इसे यहाँ सोती हुई छोड़ कर चला जाऊँ ऐसा विचार कर नल ने दमयन्ती की साड़ी के एक किनारे पर लिग्वा-प्रिये! बाएं हाथ की भोर तुम्हारे पीहर कुण्डिनपुर का रास्ता है। तुम वहाँ चली
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पांचवां भाग
३५५
जाना । मुझे मत ढूँढना । मैं तुम्हें नहीं मिल सकूँगा। ऐसा लिख फरसोती हुई दमयन्ती को छोड़ कर नल मागेजंगल में चला गया।
कुछ आगे जाने पर नल ने जंगल में एक जगह जलती हुई भाग देखी। उसमें से आवाज आ रही थी- हे इक्ष्वाकुलनन्दन राजा नल ! तू मेरी रक्षा कर अपना नाम सुन कर नल चौक पड़ा। वह तेजी से उस ओर बढ़ा। आगे जाकर क्या देखता है कि जलती हुई अग्नि के वीच एक सांप पड़ा हुआ है और वह मनुष्य की वाणी में अपनी रक्षा की पुकार कर रहा है। राजा नल ने तत्काल साँप को अग्नि से बाहर निकाला। बाहर निकलते ही सपे ने राजा नल के दाहिने हाथ पर डंक मारा जिससे वह कुबड़ा वन गया। अपने शरीर को विकृत देख कर नल चिन्ता करने लगा। राजा को चिन्तित देख कर सर्प ने कहा-हे वत्स ! तू चिन्ता मत कर । मैं तेरा पिता निषध हूँ। संयम का पालन कर मैं ब्रह्मदेवलोक में देव हुआ हूँ। तू अभी अकेला है । तुझे पहिचान कर कोई शत्रु उपद्रव न करे इसलिए मैंने तेरारूप विकृत बना दिया है। यह ले मैं तुझे रूपपरावर्तिनी विद्या देता हूँ जिससे तू अपनी इच्छानसार रूप बना सकेगा । पूर्वभव के अशुभ कर्मों के उदय से कुछ काल के लिए तुझे यह कष्ट प्राप्त हुआ है। बारह वर्ष के बाद तेरा दमयन्ती से पुनर्मिलन होगा और तुझे अपना राज्य वापिस प्राप्त होगा। ऐसा कह कर सपेरूपधारी देव अन्तान होगया।
राजा नल वहाँ से आगे बढ़ा। भयङ्कर जंगली जानवरों फा सामना करता हुआ वह जंगल से बाहर निकला। नगर की ओर प्रयाण करता हुआ वह सुंसुमार नगर में जा पहुंचा।
सँसुमार नगर में दधिपणे राजा राज्य करता था। एक समय उसका पट्टहस्ती मदोन्मत्त होकर गजबन्धनस्तम्भ को तोड़ कर भाग निकला। औरतों, बच्चों और मनुष्यों को कुचलता हुशा
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिश जैन अन्धमाला
हाथी पूरे वेग से दौड़ा जा रहा था। इससे नगर में हाहाकर मच गया। हाथी को वश में करने के लिए बहुत बड़ी सम्पत्ति देने के लिए राजा ने घोपणा फरवाई। राजसन्मान और सम्पत्ति को सभी लोग चाहते थे किन्तु हाथी का सामना करना साक्षात् मृत्यु थी। मरना कोई नहीं चाहता था।
नल हाथी को पकड़ने की कला मानता था। इसलिए वह आगे चढ़ा । एक सफेद कपड़े को वांस पर लपेट कर हाथी के सामने खड़ा कर दिया और नल उसके पास छुप कर खड़ा हो गया। कपड़े को आदमी समझ कर उसे मारने के लिए ज्यों ही हाथी दौड़ कर उधर माया त्यों ही पास में छुपा हुआ नल हाथी का कान परुड़ कर उसकी गर्दन पर सवार हो गया। उसने हाथी के मर्मस्थान पर ऐसा मुष्टि प्रहार किया जिससे उसका मद तत्काल उतर गया। शान्त होकर वह जहॉफा तहाँ खड़ा होगया। नल ने उसे भालानस्तम्भ (हाथी के बांधने की जगह) में बॉध दिया।
राजा और प्रजा का भय दूर हुआ। सर्वत्र प्रसन्नता छा गई। राजा दधिपर्ण बहुत सन्तुष्ट हुआ। वस्त्राभरण से सन्मानित करके राजा ने उस कुबड़े को अपने पास विठाया। राजा उसका परिचय पूछनेलगा। नल ने अपना वास्तविक परिचय देना ठीक नहीं समझा । उसने कहा- मैंने अयोध्या नरेश नल के यहॉरसोइए का काम किया है। राजा नल सूर्य की कृपा से सूर्यपाक रमवती बनाना जानते थे। यहुत भाग्रह करने पर उन्होंने मुझे भी सिखा दिया है। तब राजा दधिपर्ण ने कहा तुम हमारे यहॉरहो और रसोइए का काम करो। उसने राजा की बात मान ली और काम करने लगा।
राजा नल जव दमयन्ती को छोड़ कर चला गया तो कितनी ही देर तक दमयन्ती सुरवपूर्वक सोती रही। रात्रि के पिछले पहर में उसने एक स्वप्न देखा- 'फलों से लदा हुमा एक माम्रक्ष
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग ३५७
mmmwwwvm wwwwwwwwmmm है। फल खाने की इच्छा से वह उस पर चढ़ी। उसी समय एक मदोन्मत्त हाथी आया और उसने माम्ररक्ष को उखाड़ कर फेंक दिया। वह भूमि पर गिर पड़ी। हाथी उसकी ओर लपका और उसे अपनी सॅड में उठा कर भूमि पर पटका । इस भयंकर स्वम को देख कर वह चौंक पड़ी। उठ कर उसने देखा तो राजा नल वहॉपर नहीं था। वह उसे ढूँढने के लिए इधर उधर जंगल में घूमने लगी किन्तु कहीं पता नहीं लगा। इतने में उसकी दृष्टि अपनी साड़ी के कोने पर पड़ी। राजा नल के लिखे हुए अक्षरों को देख फर वह पूछित होकर धड़ाम से धरती पर गिर पड़ी। कितनी ही देर तक वह इसी अवस्था में पड़ी रही। वन काशीतल पवन लगने पर उसकी मूर्छा दूर हुई। अपने भाग्य को वारपार कोसती हुई वह अपने देखे हुए स्वप्त पर विचार करने लगी- भाम्रक्ष के समान मेरे पति देव हैं। आम्रफल के समान राज्यलक्ष्मी है। मदोन्मत्त हाथी के समान कुबेर है। मुझे भूमि पर पछाड़ने का मतलब मेरे लिये पतिवियोग है।
बहस देर तक विचार करने के पश्चात दमयन्ती ने यही निश्चय किया फि अब सुके पति द्वारा निर्दिष्ट मार्गही स्वीकार करना चाहिये। ऐसा सोच कर उसने कुण्सिनपुर की ओरप्रयाण किया। मार्गबहस विफट था। भयंकर जंगली जानवरों का सामना करती हुई दमयन्ती आगे बढ़ने लगी।
उन दिनों यशोभद्र मुनिग्रामानुग्राम विचर फर धर्मोपदेश द्वारा जनता का कल्याण कर रहे थे। एक समय वे अयोध्या में पधारे। राजा कुबेर अपने पुत्रसहित धर्मोपदेश सुनने के लिये भाया । धर्मोपदेश सुन कर कुवेर के पुत्र राजकुमार सिंहकेसरी को वैराग्य उत्पन्न होगया। पिता की आज्ञा लेकर उसने यशोभद्र मुनि के पास दीक्षा अङ्गीकार कर ली। कर्मों का क्षय करने के लिये वे
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८
श्री सेठिया जैन मन्यमाला mararmmm कठोर तपस्या करते हुए विचरने लगे। एक समय गुरु की भाज्ञा लेकर सूर्य की भातापना लेने के लिये वे जंगल में गये । वहॉजाफर निश्चल रूप से ध्यान में खड़े हो गये। परिणामों की विशुद्धता के कारण वे आपकश्रेणी में चढ़े और घाती कर्मों का क्षय कर उन्होंने तत्काल केवलज्ञान केवतादर्शन उपार्जन कर लिए । उनका केवलज्ञान महोत्सव मनाने के लिये देव आने लगे। यह दृश्य देख कर दमयन्ती भी उधर गई । वन्दना नमस्कार करके उसने अपने पूर्वभव के विपय में पूछा। फेवली भगवान् ने फरमाया
इस जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के अन्दर ममण नाम का एक राजा था। उसकी स्त्री का नाम वीरमती था। एक समय राजा और रानी दोनों कही बाहर जाने के लिये तैयार हुए। इतने में सामने एक मुनि आते हुए दिखाई दिये । राजा रानी ने इसे अपशकुन समझा । अपने सिपाहियों द्वारा मुनि को पकड़वा लिया और बारह घन्टे तक उन्हें वहाँ रोक रक्खा । इसके पश्चात् राजा और रानी का क्रोध शान्त हुआ । उन्हें सद्बुद्धि आई। मुनि के पास पाकर वे अपने अपराध के लिये वारवार क्षमा मांगने लगे । मुनि ने उन्हें धर्मोपदेश दिया जिससे राजा और रानी दोनों ने जैनधर्म स्वीकार किया और वे दोनों शुद्ध सम्यक्त्व का पालन करते हुए समय विताने लगे । आयुष्य पूर्ण होने पर ममण का जीव राजा नन्न हुआ है और रानी वीरमती का जीप तू दमयन्ती हुई है। निष्कारण मुनिराज फोबारह घन्टे तक रोक रखने के कारण इस जन्म में तुम पति पत्नी का बारह वर्ष तक वियोग रहेगा। . यह फरमाने के बाद फेवली भगवान् के शेष चार अघाती कर्म नष्ट हो गए और वे उसी समय मोक्ष पधार गये । - केवली भगवान् द्वारा अपने पूर्वभव का,यत्तान्त सुन कर दमयन्तीकमा की विचित्रता पर वारवार विचार करने लगी। अशुभ
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां भाग ३५६ rammmmmmmmmmmmmmmar
कर्म बॉधते समय प्राणी खुश होता है किन्तु जब उनका अशुभ फल उदय में आता है तब वह महान् दरवी होता है। हँसते हँसते प्राणी जिन कर्मों को वॉधते हैं, रोने पर भी उनका छुटकारा नहीं होता । फिस रूप में कर्म बंधते हैं और किस रूप में उदय में आते हैं यही कर्मों की विचित्रता है। __ जंगल में आगे चलती हुई दमयन्ती को धनदेव नाम का एक सार्थपति मिला । वह भचलपुर जा रहा था। दमयन्ती भी उसके साथ हो गई। धनदेव ने उसका परिचय जानना चाहा किन्तु दमयन्ती ने अपना वास्तविक परिचय न दिया। उसने कहा कि मैं दासी हूँ। कहीं नौकरी करना चाहती हूँ। धनदेव ने विशेष छानवीन करना उचित न समझा। धीरे धीरे वे सब लोग भचलेपुर पहुंचे। धनदेव का सार्थ (काफिला) नगर के बाहर ठहर गया।
अचलपुर में ऋतुपर्ण राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम चन्द्रयशा था। उसे मालूम पड़ा कि नगर के बाहर एक सार्थ ठहरा हुआ है। उसमें एक कन्या है। वह देवकन्या के समान सुन्दर है। कार्य में बहुत होशियार है । उसने सोचा यदि उसे अपनी दानशाला में रख दिया जाय तो बहुत अच्छा हो । रानी ने नौकरी को भेज कर उसे बुलाया और वातचीत करके उसे अपनी दोनशाला में रख लिया।
MI ___ चन्द्रयशा दमयन्ती की मौसी थी। चन्द्रयशा ने उसे नहीं पहिचाना । दमयन्ती अपनी मौसी और मौसा को भाल प्रकार पहिचानती थी किन्तु उसने अपना परिचय देना उचित न समझा। वह दानशाला में काम करने लग गई। माने जाने वाले अतिथियों को खूब दान देती हुई ईश्वरभजन में अपना समय विताने लगी। __एक समय कुण्डिनपुर का एक ब्राह्मण अचलपुर आया। राजा रानी ने उचित सत्कार करके महाराजा भीम और रोनी पुष्परत
.mart
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
का कुशल समाचार पूछा। कुशल समाचार कहने के बाद ब्राह्मण ने कहा कि राजा भीम ने राजा नल और दमयन्ती की खोज के लिए चारों दिशाओं में अपने दूत भेज रखे हैं किन्तु अभी उनका कहीं भी पता नहीं लगा है। सुनते हैं कि राजा नल दमयन्ती को जंगला में अकेली छोड़ कर चला गया है। इस समाचार से राजा भीम की चिन्ता और भी बढ़ गई है। नल और दमयन्ती की बहुत खोज की किन्तु उनका कहीं भी पता नहीं लगा। माविरनिराश होकर अब मैं वापिस कुण्टिनपुर लौट रहा हूँ। ___ भोजन करके ब्राह्मण विश्राम करने चला गया। शाम को घूमता हुया ब्राह्मण राजा की दानशाला में पहुंचा। दान देती हुई कन्या को देख फर वह आगे बढ़ा। वह उसे परिचित सी मालूम पड़ी। नजदीक पहुँचने पर उसे पहिचानने में देर न लगी। दमयन्ती ने भी ब्राह्मण को पहिचान लिया।
ब्राह्मण ने जाकर रानी चन्द्रयशा को खबर दी। वह तत्काल दानशाला में आई और दमयन्ती से प्रेमपूर्वक मिली । न पहिमानने के कारण उसने दमयन्ती से दासी का काम लिया था इसलिए वह पश्चात्ताप करने लगी और दमयन्ती से अपने अपराध के लिए क्षमा मांगने लगी। रानी चन्द्रयशा दमयन्ती को साथ लेकरमहलों में आई। इस बात का पता जब राजा ऋतुपर्ण को लगा तो वह बहुत प्रसन्न हुआ।
इसके बाद ब्राह्मण की प्राथना पर राजा ऋतुपर्ण ने दमयन्ती को धूमधाम के साथ कुण्डिनपुर की ओर रवाना किया। यह खबर राजा भीम के पास पहुंची। उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। कुछ सामन्तों को उसके सामने भेजा। महलों में पहुँच कर दमयन्ती ने मातापिता को प्रणाम किया। इसके पश्चात उसने अपनी सारी दुःखकहानी फट पुनाई । किस तरह राजा नल उसे भयंकर वन में अकेली
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीन सिदारत बोल संग्रह, पाचवां भाग ३६१
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm सोती हुई छोड़ गया और फिस किस तरह से उसे भयंकर जंगली जानवरों का सामना करना पड़ा, भादि वृत्तान्त सुन फर राजा और रानी का हृदय कांप उठा । उन्होंने दमयन्ती को सान्त्वना दी और कहा- पुत्रि! तू अप यहाँ शान्ति से रह । नल राजा फा शीघ्र पता लगाने के लिए प्रयत्न किया जायगा। दमयन्ती शान्तिपूर्वक वहाँरहने लगी। राजा नल की खोज के लिये राजा भीम ने चारों दिशाओं में अपने आदमियों को भेजा।
एफ समय सुंमुमार नगर का एक व्यापारी कुंरिनपुर भाया। बातचीत के सिलसिले में उसने राजासे बतलाया कि नल राजा का एक रसोइया हमारे नगर के राजा दधिपर्ण के यहाँ रहता है। बह सूर्यपाफ रसवती बनाना जानता है। पास में बैठी हुई दमयन्ती ने भी यह बात सुनी। उसे कुछ विश्वास हुमा किवा राजा नल ही होना चाहिये। व्यापारी ने फिर कहा वह रसोइया शरीर से कुबड़ा है किन्तु बहुत गुणवान् है । पागल हुए हाथी को वश में करने की विद्याभी वह जानता है। यह सुन कर दमयन्ती को पूर्ण विश्वास होगया कि वह राजा नल ही है किन्तु विद्या के बल से अपने रूप को उसने बदल रक्खा है, ऐसा मालूम पड़ता है।
दमयन्ती के कहने पर राजा भीम को भी विश्वास होगया किन्तु वे एफ परीक्षा और करना चाहते थे। उन्होंने कहा राजा नल अवविधा में विशेष निपुण हैं। यह परीक्षा और फरलेनी चाहिये। इससे पूरा निश्चय हो जायगा । फिर सन्देह का कोई कारण नहीं रहेगा। इसलिये मैंने एक उपाय सोचा है- यहॉ से एक दत मुंशुमारनगर राजादधिपर्ण के पास भेजा जाय। उसके साथ दमयन्ती के स्वयंवर की आमन्त्रणपत्रिका भेजी जाय। दत को स्वयंवर की निश्चिततिथि के एक दिन पहले वहाँ पहुँचना चाहिए। यदि वह कुबड़ा गजानन होगा तब तो अश्वविद्याद्वारा वह राजा दधिपणे
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला .
को यहॉ एक दिन में पहुँचा देगा। राजा भीम की या युक्ति सब को ठीक ऊँची । उसी समय एक दूत को सारी बात समझा फर सुंमुमार नगर के लिये रवाना कर दिया।
चलता हुआ दूत कई दिनों में सुंमुमार नगर में पहुँचा । राजा के पास जाकर उसने आमन्त्रणपत्रिका दी। राजा बहुत प्रसन्न हुआ,फिन्तु उसे पढ़ते हुए राजा का चेहरा उदास होगया। कुण्डिनपुर बहुत दूर था और स्वयंवर में सिर्फ एक दिन वाकी था । राजा सोचने लगा अव कुण्डिनपुर कैसे पहुँचा जाय । राजा की चिन्ता उत्तरोतर बढ़ने लगी। नल भी अपने मन में विचारने लगा कि भार्यकन्या दमयन्ती दुबारा स्वयंवर फैसे करेगी। चल कर मुझे भी देखना चाहिये। ऐसा सोच फर उसने कहा महाराज !
आप चिन्ता क्यों करते हैं ? यदि आपकी इच्छा कण्डिनपुर जाने की हो तो श्रेष्ठ घोड़ों पाला एक रथ मंगाइये। मैं अश्वविद्या जानता हूँ। असः आपको माज ही कुण्डिनपुर पहुँचा दूंगा।
कुवड़े की बात सुन कर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसी समय रथ मंगाया । राजा उसमें बैठ गया । कुबड़ा सारथी बना। घोड़े हना से बातें करने लगे। थोड़े ही समय में वे कुण्डिनपुर पहुंच गये । राजा भीम ने उनका उचित सन्मान करके उत्तम स्थान में ठहराया। राजा दषिपर्ण ने देखा कि शहर में स्वयंवर की कुछ भी तैयारी नहीं है फिर भी शान्तिपूर्वक वे अपने नियत स्थान पर ठहर गये । __ अब राजा भीम और दमयन्ती को पूर्ण विश्वास होगया कि यए कुबड़ा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है किन्तु राजा नल ही है। राजा भीम ने शाम को उसे अपने महल में बुलाया। राजा ने उससे कहा हमने आपके गुणों की प्रशंसा सुन ली है तथा हमने स्वयं भी परीक्षा कर ली है। भाप राजा नल ही हैं। अब हम लोगों पर कृपा कर
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिमान्त वोल सपह, पायवां भाग ३६३ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwww mmmmmmm आप अपना असली रूप प्रकट कीजिए।
राजा भीम की बात के उत्तर में कुब्जरूपधारी नल ने कहाराजन् ! आप क्या कह रहे हैं ? कहाँ राजा नल और कहाँ मैं ? कहाँ उनका रूप सौन्दर्य और कहा मैं कुबड़ा । आप भ्रम में हैं। विपत्ति के मारे रामा नल कहीं जंगलों में भटक रहे होंगे। श्राप वहीं खोज करवाइये। __राजा भीम ने कहा-इस्ति विद्या, अश्वविद्या, सूर्यपाक रसवती विद्या प्रादि के द्वारा मुझे पूर्ण निश्चय होगया कि श्राप राजा नल ही हैं। राजन् ! स्वजनों को अब विशेष कष्ट में डालना उचित नहीं है। ऐसा कहते हुए राजा का हृदय भर आया।
राजा नल भी अब ज्यादह देर के लिए अपने आप कोन छिपा सफे। तुरन्त रूपपरावर्तिनी विद्या द्वारा अपने असली रूप में प्रकट होगए। राजा भीम, रानी पुष्पवती और दमयन्ती के हर्षकापारावार न रहा। शहर में इस हर्ष समाचार को फैलते देर न लगी। प्रजा में खुशी छा गई। राजा दधिपणे भी वहॉ आया। न पहिचानने के कारण अपने यहॉ नौकर रखने के लिए उसने राजा नल से क्षमा माँगी। ___ जब यह खबर अयोध्या पहुँची तो वहॉ का राजा कुबेर तत्काल कुण्डिनपुर के लिए रवाना हुआ । जाकर अपने बड़े भाई नल के पैरों में गिरा और अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगने लगा। बड़े भाई नल कोवन में भेजने के कारण उसे बहुत पश्चात्तापहो रहा था। अयोध्या का राज्य स्वीकार करने के लिए वह नल से प्रार्थना करने लगा।
नल और दमयन्ती को साथ लेकर कुवेर अयोध्या की ओर रवाना हुआ। नल दमपन्ती का आगमन सुन कर अयोध्या की प्रजा उनके दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी।
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्पमाला
कुबेर ने राजगद्दी नल को सौंप दी। भव नल राजा हुमा और दमयन्ती महारानी बनी। न्याय नीतिपूर्वक राज्य करता हुभा राजा नल प्रजा का पुत्रवत् पालन करने लगा। कुछ समय पश्चात् महारानी दमयन्ती की कुति से एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम पुष्कर रखा गया। जब राजकुमारपुष्कर युवावस्था को प्राप्त हुआ तो उसे राज्य का भार सौंप कर राजा नल और दमयन्ती ने दीक्षा ले ली।
जिन कर्मों ने नल दमयन्ती को वन वन भटकाया और अनेक कष्टों में डाला, नल और दमयन्ती ने उन्हीं कर्मों के साथ युद्ध करके उनका अन्त करने का निश्चय कर लिया।
कई वर्षों तक शुद्ध संयम का पालन कर नल और दमयन्ती देवलोक में गये। वहाँ से चव कर मनुष्य भव में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेंगे।
(१४) पुष्पचूला गङ्गा नदी के सट पर पुष्पभद्र नाम को नगर था। वहॉ पुष्पकेतु राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम पुष्पवती था। उनके दो सन्तान थीं,एक पुत्र और दूसरीपुत्री। पुत्र का नाम पुष्पचूल था और पुत्री का नाम पुष्पचूला।भाई बहिन में परस्पर बहुत स्नेपथा।
पुष्पचूला में जन्म से ही धार्मिक संस्कार जमे हुए थे। सांसारिक भोगविलास उसे अच्छे न लगते थे।
विवाह के बाद उसने दीक्षा ले ली। तपस्या और धर्मध्यान के साथ साथ दूसरों की वैयावच्च में भी वह बहुत रुचि दिखाने लगी। शुद्धभाव से सेवा में लीन रहने के कारण वह सपफ श्रेणी में चढ़ी। उसके घातीफर्म नष्ट हो गए।
अपने उपदेशों से भव्यप्राणियों का कल्याण करती हुई महासती पुष्पचूला ने आयुष्य पूरी होने पर मोक्ष प्राप्त किया।
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग
(१५) प्रभावती
विशाला नगरी के स्वामी महाराजा चेटक के सात पुनियाँ थीं । सभी पुत्रियाँ गुणवती, शीलवती तथा धर्म में रुचि वाली थीं। उनमें से मृगावती, शिवा, प्रभावती और पद्मावती सोलह सतियों में गिनी गई हैं। इनका नाम मङ्गलमय समझ कर प्रातःकाल जपा जाता है । त्रिशला कुण्डलपुर के महाराज सिद्धार्थ की रानी थी। I उन्हीं के गर्भ से चरम तीर्थङ्कर श्रमण भगवान् महावीर का जन्म हुआ था । चेला श्रेणिक राजा की रानी थी। उसने अपने उपदेश तथा प्रभाव से श्रेणिक को सम्यग्दृष्टि तथा भगवान् महावीर का परम भक्त बनाया। सातवीं पुत्री का नाम सुज्येष्ठा था । चेलणा की बड़ी बहिन सुज्येष्ठा ने बालब्रह्मचारिणी साध्वी होकर आत्मकल्याण किया । देश तथा धर्म के नाम को उज्ज्वल करने वाली ऐसी पुत्रियों के कारण चेड़ा महाराज जैन साहित्य में अमर रहेंगे ।
प्रभावती का विवाह सिन्धुसौवीर देश के राजा उदयन के साथ हुआ था। उनकी राजधानी वीतभय नगर था। प्रभावती में जन्म से ही धर्म के दृढ़ संस्कार थे । उदयन भी धर्मपरायण राजा था। धर्म तथा न्याय से प्रजा का पालन करते हुए वे अपना जीवन सुखपूर्वक बिता रहे थे । कुछ समय पश्चात् प्रभावती के श्रभिचि नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ ।
एक बार श्रमण भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विचर कर जनता का कल्याण करते हुए वीतभय नगर में पधारे। राजा तथा रानी दोनों दर्शन करने गए । भगवान् का उपदेश सुन कर प्रभावती
दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की । दीक्षा की आज्ञा देने से पहले राजा ने रानी से कहा- जिस समय तुम्हें देवलोक प्राप्त हो मुझे प्रतिबोध देने के लिए आना । प्रभावती ने उसकी बात मान कर
३६५
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीठिया जैन ग्रन्थमाला
दीक्षा अङ्गीकार कर ली । कठोर तपस्या तथा निर्दोष संयम का पालन करती हुई वह आयुष्य पूरी होने पर काल करके देवलोक मे उत्पन्न हुई।
अपने दिए हुए वचन के अनुसार उसने मृत्युलोक में आकर . उदयन राजा को प्रतिबोच दिया। राजा ने दीक्षा अङ्गीकार कर ली। फठोर तपस्या द्वारा वह राजर्षि हो गया। यथासमय कर्मों को खपा कर दोनों मोक्ष प्राप्त करेंगे।
(१६) पद्मावती पद्मावती वैशाली के महाराजा चेटक की पुत्री और चम्पानरेश महाराजा दधिवाहन की रानी थी। दधिवाइनन्यायी, प्रजावत्सल और धार्मिक राजा था। रानी भी उसी के समान गुणों गाली थी। राजा और रानी दोनों मर्यादित भोगों को भोगते हुए सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे।
एक बार राभि के पिछले पहर में रानी ने एक शुभस्वप्न देखा। पूछने पर स्वमशास्त्रियों ने बताया कि रानी के गर्भ से किसी प्रतापी पुत्र का जन्म होगा। राजा और रानी दोनों को बड़ी प्रसन्नता हुई।
रानीने गर्भधारण किया। कुछ दिनों बाद उसके मन में विविध प्रकार के दोहद (गर्मिणी की इच्छा) उत्पन्न होने लगे। एक बार रानी की इच्छा हुई-मैं राजा का वेश पहिन । सिर पर मुकुट रक्खू। राजा मुझ पर छत्र धारण करे। इस प्रकार सजधज कर मेरी सवारी नगर में से निकले । इसके बाद वन में जाकर क्रीडा करूँ।
लज्जा के कारण रानी अपने इस दोहद को प्रकट न कर सकी, किन्तु इच्छा बहुत प्रवल थी इसलिए वह मन ही मन घुलने लगी। उसके चेहरे पर उदासी छा गई। शरीर प्रतिदिन दुर्वल होने लगा।
राजा ने रानी से दुर्वलता का कारण पूछा । रानी ने पहले
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल समह, पाचवा भाग
३६७
तो टालमटोल की किन्तु आग्रह पूर्वक पूछने पर उसने संकुचाते हुए अपने दोहद की बात कह दी ।
गर्भ में रहे हुए बालक की इच्छा ही गर्भिणी की इच्छा हुआ करती है । उसी से बालक की रुचि भौर भविष्य का पता लगाया जा सकता है | पद्मावती के मन में राजा बनने की इच्छा हुई थी । 1 यह जान कर दहिवाहन को बहुत प्रसन्नता हुई । उसे विश्वास हो गया कि पद्मावती के गर्भ से उत्पन्न होने वाला बालक बहुत तेजस्वी और प्रभावशाली होगा ।
www
रानी का दोहद पूरा करने के लिए उसी प्रकार सवारी निकली। रानी राजा के वेश में हाथी के सिंहासन पर बैठी थी । राजा ने उस पर छत्र धारण कर रक्खा था। नगरी की सारी जनता यह दृश्य देखने के लिए उमड़ रही थी । उसे इस बात का हर्ष था कि उनका भावी राजा बड़ा प्रतापी होने वाला है ।
सवारी का हाथी धीरे धीरे नगरी को पार करके वन में आ पहुँचा। उन दिनों वसन्त ऋतु थी । लताएं और वृक्ष फूल, फल तथा कोमल पत्तों से लदे थे । पक्षी मधुर शब्द कर रहे थे। फूलों की मीठी मीठी सुगन्ध आ रही थी। यह दृश्य देख कर हाथी को अपना पुराना घर याद आगया । बन्धन में पड़े रहना उसे अखरने लगा । उसका मन अपने पुराने साथियों से मिलने के लिये व्याकुल हो उठा । अंकुश की उपेक्षा करके वह भागने लगा । महावत ने उसे रोकने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु हाथी न माना । उसने महावत को नीचे गिरा दिया तथा पहले की अपेक्षा अधिक वेग से दौड़ना शुरू किया। राजा और रानी हाथी की पीठ पर रह गए।
स्वतन्त्रता सभी को प्रिय होती है। उसे प्राप्त करके हाथी प्रसन्न हो रहा था। साथ में उसे भय भी था कि कहीं दुवारा बन्धन में न पड़ जाऊँ इसलिये वह घोर वन की ओर सरपट दौड़ रहा था ।
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसेठिया बैन ग्रन्थमाला
men man man
वह जिधर दौड़ रहा था उसी मार्ग में कुछ दूरी पर एक वट का वृक्ष था। राजा ने उसे देख कर रानी से कहा-देखो हाथी उस वृक्ष के नीचे से निकलेगा। जब वह उसके नीचे पहुँचे तुम वृक्ष की दाल पकड़ लेना। मैं भी ऐसा ही करूँगा। ऐसा करने पर हम दोनों इस आपत्ति से पच जाएंगे।
हाथी दौड़ता प्रभा वटवृक्ष के नीचे आया । राजा ने शीघ्रता से एफ डाल को पकड़ लिया। गर्भवती होने के कारण रानी ऐसा न कर सकी। वह हाथी पर रह गई। राजा वृक्ष से उतर कर अपनी राजधानी में चला गया। ___ हाथी दौड़ता दौड़ता घने वन में पहुंचा। उसे प्यास लगाई। पानी पीने के लिए वह एफ जलाशय में उतरा। उस समय हाथी का होदा एक वृक्ष की शाखा के साथ लग गया। रानी उसे पकड़ कर नीचे उतर आई। हाथी ने पानी पीकर फिर दौड़नाशुरू किया। पद्मावती नीचे बैठ गई। उस समय वह अकेली और असहाय थी। कुछ समय पहले जिसकी आज्ञा प्राप्त करने के लिए हजारों व्यक्ति उत्सक रहते थे. अब उसकी करुण पकार को सनने वाला कोई नथा। चारों ओर से सिंह,व्याघ्र वगैरह जंगली प्राणियों के भयङ्कर शब्द सुनाई दे रहे थे। उस निर्जन वन में एक अबला के लिए अपने प्राणों को बचाना बहत कठिन था। पद्मावती ने अपने जीवन को सन्देह में पड़ा जान फर सागारी संथारा कर लिया।मपने पापों के लिए यह आलोयणा करने लगी -
यदि मैंने इस भव या परभव में पृथ्वी, पानी, अग्नि,वायु या बनस्पति काय के जीवों की हिंसा मन, वचन या काया से स्वयं की हो, दूसरे के द्वारा कराई हो, या करने वाले को भला समझा हो तो मेरा यह आरम्भ सम्वन्धी पाप मिथ्या अर्थात् निष्फल होवे । मैं ऐसे कार्य को बुरा मानती हूँ तथा जिन जीवों को मेरे
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचचा भाग
३६१
कारण कष्ट हश्रा है उनसे क्षमा मांगती हूँ । इसी प्रकार त्रस मर्थात् बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीवों की मन, वचन या काया से हिंसा की हो, कराई हो या उसका अनुमोदन किया हो तो मेरा वह पाप मिथ्या होवे। मैं उसके लिए हृदय से पश्चात्ताप करती हूँ। यदि मैंने देवरानी, जेठानी, ननद, मौजाई, साम, समुर, जेठ, देवर भादि किसी भी कुटुम्बी को मर्मभेदी वचन कहा हो, उनकी गुप्त बात को प्रकट किया हो, धरोहर रक्खी हुई वस्तु को दवाया हो या और किसी प्रकार से उन्हें कष्ट पहुँचाया हो तो मेरा यह पाप मिथ्या होवे। मैं उनसे वारवार क्षमा माँगती हूँ। यदि मैंने जानते हुए या विनाजाने कभी झूठ बोला हो, चोरी की हो, स्वप्न में भी परपुरुष के लिए बुरी भावना की हो, परिग्रह का अधिक संचय किया हो,धन,धान्य, कुटुम्ब श्रादि पर ममत्व रक्खा होतो मेरा वह पाप निष्फल होवे। यदि मैं धन पाकर गर्व किया हो, किसी की निन्दा या चुगली की हो, इधर उधर बातें बना कर दो व्यक्तियों में झगड़ा फराया हो, किसी पर झूठा कलंक लगाया हो, धर्मकार्य में भालस्य किया हो, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये माया जाल रचा हो, किसी को धोखा दिया हो, सच्चे देव, गुरु तथा धर्म के प्रति अविश्वास किया हो, अधर्म को धर्म समझा हो तो मेरा वह पाप मिथ्या हो । मैं उसके लिए पश्चात्ताप करती हूँ। अपने अपराध के लिए संसार के सभी जीवों से क्षमा माँगती हूँ।संसार के सभी प्राणी मेरे मित्र हैं। मेरी शत्रता फिसी से नहीं है। ___ इस प्रकार आलोयणा करने से पद्मावती का दुःख कुछ हल्फा हो गया। उसे वहीं पर नींद आ गई।
उठने पर पद्मावती ने नगर के लिए मार्ग खोजना शुरू किया। खोजते खोजते वह एक आश्रम में पहुंच गई। आश्रम निवासियों ने उसका अतिथिसत्कार किया। स्वस्थ होने पर उन्होंने उसे नगर
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
~A
DAN
का मार्ग बता दिया ।
पास वाले नगर में आकर पद्मावती साध्वियों के उपाश्रय में चली गई । वन्दना नमस्कार करके उनके पास बैठ गई । साध्वियों ने उससे पूछा- वहिन तुम कौन हो ? कहाँ से आई हो ?
पद्मावती ने उत्तर दिया- मैं एक रास्ता भूली हुई भबला हूँ । कष्ट और आपत्तियों से छुटकारा पाने के लिए आपकी शरण में आई हूँ | पद्मावती ने अपना वास्तविक परिचय देना ठीक न समझा ।
साध्वियों ने उसे दुखी देख कर उपदेश देना शुरू कियाबहिन ! यह संसार असार है। जो वस्तु पहले सुखमय मालूम पड़ती है नही बाद में दुःखमय हो जाती है। संसार में मालूम पड़ने वाले सुख वास्तविक नहीं हैं। वे नश्वर हैं। क्षणभंगुर हैं। जो कल राजा था वही आज दर दर का भिखारी बना हुआ है। जिस घर में सुबह के समय राग रंग दिखाई देते हैं, शाम को वहीं रुदन सुनाई पड़ता है । यह सब कर्मों की विडम्बना है। संसार की माया है। इसमें फंसा हुआ व्यक्ति सदा दुःख प्राप्त करता है। यदि तुम्हें सम्पूर्ण और शाश्वत सुख प्राप्त करने की इच्छा हो तो संसार का मोह छोड़ दो। संसार के झगड़ों को छोड़ कर मात्मचिन्तन में लीन हो जाओ ।
/
पद्मावती पर उपदेश का गहरा असर पड़ा। संसार के सारे संबन्ध उसे निःसार मालूम पड़ने लगे। उसने दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया । साध्वियों ने चतुर्विध संघ की भाज्ञा लेकर पद्मावती को दीक्षा दे दी। जिस व्यक्ति का कोई इष्ट सम्बन्धी पास में न हो या जिसके साथ किसी की जान पहिचान न हो उसे दीक्षा देने के लिए संघ की आज्ञा लेना आवश्यक होता है ।
पद्मावती आत्मचिन्तन तथा धर्मध्यान में लीन रहने लगी । कुछ दिनों बाद साध्वियों को उसके गर्भ का पता लगा। दीक्षा
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैम सिद्धान्त बोल संमह, पाचवा भाग ३७१ ~_~ ~ ~ ~ ~~~~v .
m mmmmmmmmmwww के समय इस बात को छिपा रखने के लिए उसे उलहना दिया गया। साध्वियों ने पद्मावती को गुप्त रूप से रन लिया, जिससे धर्म की निन्दा न हो और गर्भ को भी किसी प्रकार का धक्का न पहुंचे।
समय पूरा होने पर पद्मावती ने मुन्दर पालक को जन्म दिया। साध्वियाँ इस बात से असमञ्जस में पड़ गई। लोकव्यवहार के अनुसार वे बालक को अपने पास नहीं रख सकती थीं किन्तु उस की रक्षा भी आवश्यक थी। दूसरी साध्वियों को इस प्रकार असमञ्जस में देख कर पद्मावती ने करा- इस विषय में चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं सारी व्यवस्था कर लँगी जिससे लोक निन्दा भी न हो और बालक की रक्षा भी हो जाय।
रात पड़ने पर पद्मावती बालक को लेकर श्मशान में गई। जलती हुई चिना के प्रकाश में उमने वालक को इस तरह रख दिया जिससे आने जाने वाले की दृष्टि उस पर पड़ जाय । स्वयं एक झाड़ी के पीछे छिप कर देखने लगी।
थोड़ी देर बाद वहाँ एक चण्डाल आया। वह श्मशान भूमि का रक्षक था। उसके कोई सन्तान न थी। वालफ को देख कर वह बहुत प्रसन्न हुआ और मन ही मन कहने लगा- मेरे भाग्य से कोई इस सालक को यहाँ छोड़ गया है। मेरे कोई सन्तान नहीं है। आज इस पुत्र की प्राप्ति हुई है। यह कर कर उसने बालक को उठा लिया।
घर जाकर चण्डाल ने बालक अपनी स्त्री को सौंप दिया। साथ में कहा- हमें इस पुत्र की प्राप्ति हुई है। इसे अच्छी तरह पालना। चण्डाल की स्त्री उस सुन्दर वालक को देख कर बहुत प्रसन्न हुई।
पद्मावती चण्डाल के पीछे पीछे गई थी। सारा हाल देख फर उसे सन्तोष हो गया कि भव बालक का भरण पोषण होता रहेगा। वापिस उपाश्रय में आकर वह धर्मध्यान में लीन रहने लगी।
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
nnnnnnnuwun
६७२
भी सेठिया जैन मन्यमाला ~rn mmmmmmmmmmmmmm or om.
rrrrror वालक चण्डाल के घर बड़ा होने लगा। उसके शरीर पर प्रायः खुजली चला करती थी । इसलिये वह अपने अंगों को हाथ से खुजलाया करताथा।इसी कारण से लोग उसे करकण्डू कहने लगे। ___ करकण्डू यद्यपि चण्डाल के घर पल रहा था फिर भी उसकी प्रत्येक चेष्टा से स्पष्ट मालूम पड़ता था कि वह भविष्य में राजा बनेगा। खेलते समय वह स्वयं राजा बनता। अपने किसी साथी को सिपाही बनाता और किसी को चोर । फिर उनका न्याय करता । अपराधी को सजा देता । इस प्रकार उसके प्रत्येक कार्य राजा के समान होते थे। बड़ा होने पर उसे श्मशान में रक्षा करने फा कार्य सौंपा गया।
एक बार करकण्ड श्मशान में पहरा दे रहा था। उसी समय उपर से दो साधु निफले । आपस में बातचीत करते समय एक साधु के मुँह से निकला___ वॉस की इस झाड़ी में एक सात गॉठ वाली लकड़ी है। वह जिसे प्राप्त होगी उसे राज्य मिलेगा।
इस वात को करकण्डू तथा रास्ते चलते हुए एक ब्राह्मण ने सुना। दोनों लकड़ी लेने चले। दोनों ने उसे एक साथ छूया। ब्राह्मण कहने लगा- इस लकड़ी पर मेरा अधिकार है और करफण्डू कहने लगा मेरा । दोनों में झगड़ा खड़ा होगया। कोई अपने अधिकार को छोड़ना नहीं चाहता था।वात बढ़ने परन्यायालय तक पहुँची।ब्राह्मण भौर करफण्डू दोनों दरवार में उपस्थित हुए। दधिवाइन राजा न्याय फरने वाला था। फरफण्डू को देख कर दरबार के सभी लोग चकित रह गए । चण्डाल के पुत्र में इतना तेज और भोज देख कर वे आश्चर्य करने लगे। ___ फरकण्ड ने अपने पक्ष का समर्थन करते हुए कहा-महाराज! मैं श्मशान फा राजा हूँ। जिस प्रकार आपके राज्य में उत्पन्न हुई
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी जैन सिमान्त बोल संपह, पापयां भाग
७३
wwwmanmrrrrr
सभी वस्तुओं पर आपका अधिकार है उसी प्रकार श्मशान में उत्पन्न हुई सभी वस्तुओं पर मेरा अधिकार है।
करकण्डू की युक्ति और साहस भरी वात को सुन कर दधिवाहन वहुत प्रसन्न हुआ । उसने मुस्कराते हुए कहा-करकण्डू ! इस लकड़ी पर मैं तुम्हारा अधिकार मानता हूँ। श्मशान की सीमा में उत्पन्न होने के कारण यह तुम्हारी है। इसके प्रभाव से जव तुम्हें राज्य प्राप्त हो जाय तो एक गाँव इस ब्राह्मण को भी दे देना।
एक बार करकण्डू उस लकड़ी को लेकर कंचनपुर की ओर जा रहा था। उसी समय वहाँ के राजा का देहान्त होगया। राजा के न कोई पुत्र था और न उत्तराधिकारी । मन्त्रियों को इस बात की चिन्ता हुई कि राजा फिसे बनाया जाय । सपने इकडे होकर निश्चय किया कि राज्य की श्रेष्ठ हस्तिनी के सूड में हार डाल कर उसे नगर में घुमाया जाय । वह जिसके गले में हार साल दे उसी को राजा बना देना चाहिए। निश्चय के अनुसार हथिनी घूमने लगी। उसके सूंड में हार था। पीछे पीछे राजपुरुष चल रहे थे। हथिनी चक्कर लगाती हुई नगर के दूसरे द्वार पर पहुंची। उसी समय उस द्वार से करकण्डू ने प्रवेश किया। हथिनी ने माला उस के गले में डाल दी।
करकण्ड कंचनपुर का राजा बन गया। ब्राह्मण को इस बात का पता लगा । उसने करकण्ड के पास आकर गाँव मांगा। करकण्डू ने पूछा-तुम किस के राज्य में रहते हो?
ब्राह्मण ने उत्तर दिया- राजा दधिवाहन के।।
करकण्ड ने दधिवाहन राजा के नाम एक आज्ञापत्र लिखा कि इस ब्राह्मण को एक गॉव जागीरी में दो।
ब्राह्मण पत्र लेकर दधिवाहन के पास आया। उसे देख कर दधिवाइन कुपित हो गया। उसने ब्राह्मण से कहा-जाओ! कर
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७४
श्री मेठिया जैन अन्यमाला • ~~• • • .rr . rrr ... on rrrrrm ~~~ कण्डू से कह दो कि तुम्हारा राज्य छीन कर मैं ब्राह्मण को गॉव दूंगा। साथ ही उसने लड़ाई के लिये तैयारी शुरू कर दी। ___ ब्राह्मण ने जाकर सारी बात करकण्डू से कही। उसने भी युद्ध की तैयारी की और चम्पा पर चढ़ाई कर दी।
बाप और बेटा दोनों एक दूसरे के शत्रु घन कर रणक्षेत्र में मा • डटे। दूसरे दिन सुबह ही युद्ध शुरू होने वाला था।
पद्मावती को इस बात का पता चला। एक मामूली सी बात . पर पिता पुत्र के युद्ध और उसके द्वारा होने वाले नरसंहार की कल्पना से उसे बहुत दुःख हुभा।
वह फरफण्डू के पास गई। सिपाहियों ने जाकर उसे खबर दी-महाराज! कोई साध्वी आपसे मिलना चाहती है। करकण्डू ने कहा-उसे पाने दो।
पद्मावती ने माते ही कहा-बेटा!
करकण्डू आश्चर्य में पड़ गया। उसे क्या मालूम था कि यही साध्वी उस की मां है।
पद्मावती ने फिर कहा-करकण्डू ! मैं तुम्हारी मां हूँ। दषिवाहन राजा तुम्हारा पिता है। ऐसा कह कर पद्मावती ने उसे शुरू से लेकर सारा हाल सुनाया। उसे मातामान कर करकण्डू ने भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। युद्ध का विचार छोड़ कर वह पिता से मिलने चला। __ पद्मावती शीघ्रता पूर्वक चम्पापुरी में गई। एक साध्वी को पाते देख कर नगरी का दरवाजा खुला । पद्मावती सीधी दधिवाइन के पास पहुंची और सारा हाल कहा।
'करकण्डू मेरा पुत्र है' यह जानकर दधिवाहन को बहुत हर्ष हुआ । उसी समय उन्हीं वस्त्रों से वह करकण्डू से मिलने चला। करकण्डू भी पिता से मिलने के लिए मारहाथा। मार्ग में ही दोनों मिल गए | करफण्डू दधिवाहन के पैरों में गिर पड़ा और अपने
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सपह, पांचवा भाग ३७५ ~~~~ • www . • ~ ~~ ~ ~ ~winwr .. rrrrmwaranwror
अपराध के लिए क्षमा माँगने लगा । दधिवाहन ने उसे अपनी छाती से लगा लिया। पिता को विछड़ा हुभा पुत्र मिला मौर पत्र को पिता। दोनों सेनाएं जो परस्पर शत्र बन कर आई थीं, परस्पर मित्र बन गई। चम्पा और कंचनपुर दोनों का राज्य एक होगया। दधिवाइन फरकण्डू को राजसिंहासन पर बिठा कर स्वयं धर्मध्यान में लीन रहने लगा।
तप.स्वाध्याय, ध्यान आदि में लीन रहती हुई पद्मावती ने प्रात्म कन्याण किया। (१) ठाणाग सुत्र (५) सती चन्दनवाला अपरनाम वसुमती (२) ज्ञाताधर्मकथाग (६) राजीमती (३) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (७) पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराज के व्याख्यान (४) पचाशक ८७६- सतियों के लिए प्रमाणभूत शास्त्र
निम्न लिखित शास्त्र और प्राचीन ग्रन्थों में सतियों का संक्षिप्त वर्णन मिलता है(१) ब्राह्मी
आवश्यकनियुक्ति गाथा १६६ (२) सुन्दरी
" , गाथा ३४८ (३) चन्दनबाला
, गा०५२०-२१ (४) राजीमती
दशवैकालिकनिर्यक्ति अ० २ गा०८
उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २२ (५) द्रौपदी
ज्ञातासूत्र १६ वाँ अध्ययन (६) कौशल्या त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व ७ (७) मृगावती
आवश्यकनियुक्ति गा० १०४८
- दशवकालिकनियुक्ति अ० १ गा० ७६ (८) सलसा
आवश्यफनियुक्ति गा० १२८४ (8) सीता
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व ७
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७६
श्री सेठिया जैन पन्थमाला
memnun me an an amore on
(१०) सुभद्रा (११) शिवा (१२) कुन्ती (१३) दमयन्ती (१४) पुष्पचूला (१५) प्रभावती (१६) पद्मावती
दशवैकालिफनिर्यक्ति गा ०७३-७४ अ० १
आवश्यक नियुक्ति गा ० १२८४ ज्ञाताधर्मकथाङ्ग १६ वाँ अध्ययन
आवश्यकनियुक्ति गा० १२८४ भावश्यकनियुक्ति गा० १३११की
भाष्य गाथा२०५-६
**
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
सतरहवां बोल संग्रह
S
८७७--विनय समाधि अध्ययन की १७गाथाएं
दशकालिक सूत्र के नवें अध्ययन का नाम विनयसमाधि है। उस में चार उद्देशे हैं। पहले उद्देशे में १७ गाथाएं हैं। दूसरे में २४ । तीसरे में १५ और चौथे में७।पहले उद्देशे की १७ गाथाओं का भावार्थ नीचे लिखे अनुसार है
(१) जो शिष्य अहंकार, क्रोध, छल तथा प्रमाद के कारण गुरु की सेवा में रहता हुआ भी विनयधर्म की शिक्षा नहीं लेता। अहंकार श्रादि दुर्गण उसके ज्ञान आदि सद्गुणों को उसीप्रकार नष्ट कर देते हैं जिस प्रकार बॉस का फल स्वयं बॉस को नष्ट कर देता है।
(२) जो दुर्वद्धि शिष्य अपने गुरु को मन्दबुद्धि, अल्पवयस्क और अल्पज्ञ जान कर उनकी हीलना करता है, निन्दा करता है यह मिथ्यात्व को प्राप्त होता है तथा गुरु की वड़ी भारीअशातना करने वाला होता है।
(३) बहुत से मुनि वयोवृद्ध होने पर भी स्वभाव से मन्दबुद्धि होते हैं। बहुत से छोटी उमर वाले भी बुद्धिमान् तथा शास्त्रों के झाला होते हैं। ज्ञान में न्यूनाधिक होने पर भी सदाचारी और सद्गणी गुरुजनों का अपमान न करना चाहिए। उनका अपमान अग्नि के समान सभी गुणों को भस्म कर देता है।
(४) यह छोटा है, कुछ नहीं कर सकता ऐसासमझ कर भी जो व्यक्ति सॉप को छेड़ता है उसे साँप काट खाता है और बहुत
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८
भी सेठिया जैन मन्यमाला
~rnmamimar
अधिक हानि पहुँचा देता है। इसी प्रकार अल्पवयस्क भाचार्य की हीलना करने वाला मन्द बुद्धि शिष्य जातिपथ अर्थात् जन्म मरणरूप संसार को बढ़ाता है।
(५) दृष्टिविष सर्प भी बहुत क्रुद्ध होने पर प्राणनाश से अधिक कुछ नहीं कर सकता फिन्तु आशातना के कारण आचार्य के अप्रसन्न हो जाने पर प्रबोधि अथात् सम्यग्ज्ञान का अभाव हो जाता है। फिर मोक्ष नहीं होता अर्थात् प्राचार्य की भाशातना करने वाला रूमी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।
(६) जो अभिमानी शिष्य आचार्य की आशातना करता है वह जलती हुई भाग पर पैर रख कर जाना चाहता है, आशीविष अर्थात् भयङ्कर सॉप को क्रोधित करता है अथवा जीने की इच्छा से जहर खाता है।
(७) यह सम्भव है कि पैर रखने पर आग न जलाए, क्रोधित सर्पल दो अथवा खाया हुआ विप अपना असर न दिखाए अर्थात् खाने वाले को न मारे फिन्तु गुरु की निन्दा यामपमान से कभी मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।
(E) जोअभिमानी शिष्य गुरुजनों की आशातना करता है वह कठोर पर्वत को मस्तक की टक्कर से फोड़ना चाहता है। सोए हुए सिंह कोलात मार कर जगाता है तथा शक्ति (खांडा) की तेज धार पर अपने हाथ पैरों को पटक कर स्वयं घायल होता है।
(8) यह सम्भव है कि कोई सिर की टक्कर से पर्वत को तोड़ दे. क्रोधित सिंह से भी बच जावे । खांडे पर पटके हुए हाथ पैर भी न फटें फिन्तु गुरु की हीलना करने वाला शिष्य कभी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता।
(१०) पाशातना द्वारा प्राचार्य को अप्रसन्न करने वाला व्यक्ति कभी वोषि को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए वह मोक्ष मुख
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, पाचवा भाग ३७६ mrrrrrr own www xn . . . . . xxn ~~rnar का भागी भी नहीं हो सकता। अनाबाध मोक्ष मुख की इच्छा करने वाले भव्य पुरुष का फर्तव्य है कि वह सदा अपने धर्माचार्य को प्रसन्न रखने के लिये प्रयत्नशील रहे। __ (११) जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण मन्त्रपूर्वक मधु घी आदि की विविध भारतियों से अग्नि का अभिषेक और पूजा करता है उसी प्रकार अनन्तज्ञान सम्पन्न हो जाने पर भी शिष्य को प्राचार्य की नम्रभाव से उपासना करनी चाहिए। __ (१२) शिष्य का कर्तव्य है कि जिस गुरु के पास आत्मा का विकास करने वाले धर्मशास्त्र की शिक्षा ले, उसकी पूर्ण रूप से विनय भक्ति करे । हाथ जोड़ कर उसे सिर से नमस्कार करे और मन, वचन, काया से गुरु का सदा उचित सत्कार करे।
(१३) लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य कल्याण चाहने वाले साधु की मात्मा को शुद्ध करने वाले हैं। इस लिए शिष्य सदा यह भावना करे फि जो गुरु मुझे सदा हित शिक्षा देते हैं, मुझे उनका आदर सत्कार करना चाहिए।
(१४) जिस प्रकार रात्रि के अन्त में देदीप्यमान सूर्य सारे भरतखंड को प्रकाशित करता है उसी प्रकार आचार्य अपने श्रुत अर्थात् ज्ञान, शील अर्थात् चारित्र और बुद्धि से जीवाजीवादि पदार्थों के स्वरूप को प्रकाशित करता है। जिस प्रकार देवों के बीच बैठा हुआ इन्द्र शोभा देता है उसी प्रकार साधनों की सभा के बीच बैठा हुआ भाचार्य शोभा देता है।
(१५) जैसे बादल रहित निर्मल श्राफाश में शुभ्र चाँदनी भौर तारामण्डल से घिरा हुआ चॉद शोभा देता है उसी प्रकार भिक्षों के बीच गणी अर्थात् आचार्य मुशोभित होता है।
(१६) भाचार्य तीनों योगों की समाधि अर्थात् निश्चलता, श्रुमशान, शील और बुद्धि से युक्त सम्यग्दर्शन आदि गुणों के
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मेठिया जैन मन्यमाला
आकर (खान) होते हैं। मोक्षाभिलाषी को चाहिए कि वह आचार्य की निरन्तर आराधना करे। सदा उनकी सेवा में रहे और उन्हें प्रसन्न रक्खे।
(१७) बुद्धिमान् साधु को चाहिए कि वह शिक्षाप्रद उपदेशों को सुन कर अप्रमत्तभाव से भाचार्य की सेवा करे। इस प्रकार सेवा करने से सद्गुणों की प्राप्ति होती है और जीव अन्त में सिद्धि को प्राप्त करता है।
(दशवेकालिक अध्ययन ६ उद्देशा " ८७८- भगवान महावीर की तपश्चर्या विषयक
१७ गाथाएं आचारांग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध, नवम अध्ययन के चौथे उद्देशे में भगवान महावीर की तपश्चर्या का वर्णन है। उसमें सतरह गाथाएं हैं। उनका भावार्थ क्रमशः नीचे लिखे अनुसार है।
भगवान् सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं- हे भायुष्मन् जम्बू ! भगवान् महावीर के पास से उनकी तपस्या का वर्णन मैंने जैसा सुना है वैसा तुम्हें कहता हूँ
(१) किसी प्रकार का रोग न होने पर भी भगवान् ऊनोदरी अर्थात् परिमित आहार करते थे । रोग उत्पन्न होने पर उसके लिए औषधोपचार करना नहीं चाहते थे। ___ (२) सारे शरीर को अशुचि रूप समझ कर बेजुलाब, वमन, तैलाभ्यंग (मालिश), स्नान, सम्बाधन (पगचॉपी) और दातुन भी नहीं करते थे।
(३-४) इन्द्रियों के विपयों से विरक्त होकर वे सदा अल्पभापी रोते हुए विचरते थे ।शीत काल में भगवान् छाया में बैठ करध्यान किया करते थे और ग्रीष्म ऋतु में धूप में बैठ कर भातापनालेते थे।
nirm
i
r -
--
---
----
--
----
--
--
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
f
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग
३८१
या उड़दों का आहार किया करते थे ।
( ५ - ६ ) लगातार आठ महीने तक भगवान् इन्हीं तीन वस्तुओं पर निर्वाह करते रहे । पन्द्रह दिन, महीना, दो महीने यहाँ तक कि छह महीने उन्होंने पानी का सेवन किए बिना बिता दिए । रूखे सूखे बचे हुए अन्न का भोजन करते हुए वे किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखते हुए विचरते थे ।
(७) इस प्रकार का अन्न भी वे वेले, तेले, चौले या पाँच पाँच उपवासों के बाद उपयोग में लाते थे। ऐसा करते हुए वे शरीर की समाधि का ध्यान रखते थे। मन में कभी ग्लानि न माने देते थे तथा नियाणा भी न करते थे।
(८) हेय और उपादेय के स्वरूप को जानने वाले भगवान् महावीर ने स्वयं पाप नहीं किया, दूसरों से नहीं कराया और न करने वाले को भला समझा ।
( 8 ) भगवान् नगर अथवा गाँव में जाकर दूसरों के लिए किये हुए आहार की गवेषणा करते थे। इस प्रकार शुद्ध आहार लेकर उसे सावधानी से उपयोग में लाते थे ।
(१०) भिक्षा लेने के लिए जाते समय भगवान् के मार्ग में कौए वगैरह भूखे पक्षी तथा दूसरे प्राणी अपना आहार करते हुए वैठे रहते थे । भगवान् उन्हें किसी प्रकार की बाधा पहुॅचाए बिना 1 निकल जाते थे ।
( ११-१२ ) यदि मार्ग में या दाता के द्वार पर ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी, अतिथि, चण्डाल, बिल्ली या कुत्ते वगैरह को आहार मिल रहा हो तो उसे देख कर भगवान् किसी प्रकार का विघ्न नहीं डालते थे । मन में किसी प्रकार की अप्रीति किए बिना धीरे धीरे चले जाते थे । यहाँ तक कि भगवान् भिक्षाटन करते हुए कुन्थु वगैरह छोटे से छोटे प्राणी की भी हिंसा नहीं करते थे ।
।
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी मेठिया जैन ग्रन्थमान्दा
(१३) आहार भीगा हुनाहो या सूखा,ठण्डा हो या वहुत दिनों का बासी, उचाले हुए उड़दों का, पुराने अनाज का या जो वगैरह नीरस धान्य का जो भी आहार मिल जाता वे उसे शान्तिपूर्वक काम में लाते। यदि बिल्कुल नहीं मिलता तो भी सन्तोष रखते थे।
(१४) भगवान् उत्कुटुक, गोदोहनिका, वीरासन वगैरह भासनों से बैठ कर विकार रहित होते हुए धर्म ध्यान करते थे। इच्छा रहित बन कर वे श्रात्मा की पवित्रता के लिए अर्व, अधों और तियग्लोक के स्वरूप का ध्यान में विचार करते थे।
(१५) इस प्रकार कपाय रहित होफर गृद्धि को छोड़ कर, शब्दादि विषयों में अनासक्त रहते हुए भगवान् ध्यान में लीन रहते थे। छजस्थ अवस्था में भी संयम मे लीन रहते हुए भगवान ने एक बार भी रूपायादि रूप प्रमाद सेवन नहीं किया।
(१६-१७ ) अपने आप संसार की असारता को जान कर आत्मा की पवित्रता द्वारा मन, वचन और काया को अपने वश में रखते हुए भगवान् शान्त और कपट रहित होकरजीवन पर्यन्त पवित्र कार्यों में लगे रहे। । भगवान् ने इस प्रकार निरीह होकर शुद्ध संयम का पालन किया है। दूसरे साधुओं को भी इसी प्रकार करना चाहिए।
(पाचाग प्रथम श्रुतस्कन्ध ६ वा अध्ययन ४ उद्देशा) ८७६-- मरण सतरह प्रकार का
भायुप्य पूरी होने पर भात्मा का शरीर से अलग होना अथवा शरीर से प्राणों का निकलना मरण कहलाता है। इसके १७ भेद है
(१) आवीचियरण-आयुकर्म के भोगे हुए पुद्गलों का प्रत्येक क्षण में अलग होना श्रावीचिमरण है।
(२) अवधिमरण- नरफ आदि गतियों के कारणभूत आयुकर्म के पुद्गलों को एक बार भोग कर छोड़ देने के बाद जीव फिर
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग ३८३ । -~- wrrrrrrr rrrrrr .wwwmar on rva . . . . . . . . . . . उन्हीं पुद्गलों को भोग कर मृत्यु प्राप्त करे तो वीच की अवधि को अवधिमरण कहते हैं अर्थात् एक वार भोग कर छोड़े हुए परमाणुओं को दुबारा भोगने से पहले पहले जब तक जीव उनका भोगना शुरू नहीं करता तब तक अवधिमरण होता है।
(३) प्रात्यन्तिकमरण- आयुफर्म के जिन दलिकों को एक बार भोग कर छोड़ दिया है यदि उन्हें फिर न भोगना पड़े तो उन दलिकों की अपेक्षा जीव का आत्यन्तिकमरण होता है।
(४) बलन्मरण- संयम या महाव्रतों से गिरते हुए व्यक्ति की मृत्यु बलन्मरण होती है।
(५) वशार्तमरण- इन्द्रिय विषयों में फंसे हुए व्यक्ति की मृत्यु वशार्तमरण होती है।
(६) अन्तः शल्यमरण- जो व्यक्ति लज्जा या अभिमान के कारण अपने पापों की पालोयणा किए बिना ही मर जाता है उसकी मृत्यु को अन्तःशल्यमरण कहते हैं।
(७)तद्भवमरण-तियश्च या मनुष्य भव में आयुष्य पूरी करके फिर उसी भव की आयुष्य वांध लेने पर तथा दुवारा उसी भद में उत्पन्न होकर मृत्यु प्राप्त करना तद्भवमरण है।
तद्भवमरण देव तथा नरफ गति में नहीं होता, क्योंकि देव मर कर देव सथा नैरयिफ मर कर नैरयिक नहीं होता। (८)वालमरण-ब्रतरहित प्राणियों की मृत्यु बालमरण है। (8) पण्डितमरण-सर्वविरति साधुओं की मृत्यु फो पण्डित मरण कहते हैं।
(१०) बालपण्डिवमरण- देशचिरति श्रावकों की मृत्यु को बालपण्डितमरण कहते है।
(११) छद्मस्थमरण-केवलज्ञान विनाप्राप्त किये छमस्थावस्था में मृत्यु हो जाना छद्मस्थमरण है।
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८४
~
~..
....
~
श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला
- ~ (१२) केवलिमरण- केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद मृत्यु होना केवलिमरण है।
(१३) वैहायसमरण-आकाश में होने वाली मृत्यु को वैवायस मरण कहते हैं। वृक्ष की शाखा आदि से बॉध देने पर या फॉसी आदि से मृत्यु हो जाना भी वैहायसपरण है।
(१४) गिद्धपिठमरण-गिद्ध,शृगाल आदि मांसाहारी प्राणियों द्वारा लाया जाने पर होने वाला मरण गिद्धपिहमरण है। यह दो प्रकार से होता है-शरीर का मांस खाने के लिए आते हुए हिंसक प्राणियों को न रोकने से या गिद्ध आदि के द्वारा खाए जाते हुए हाथी ऊँट यादि के फलेवर में प्रवेश करने से । अथवा अपने शरीर पर लाल रंग या मांस की तरह मालूम पड़ने वाली किसी बस्तु को लगा कर अपनी पीठ गिद्ध मादि को खिला देना भौर उससे मृत्यु प्राप्त करना गिद्धपिट्ट परण है। इस प्रकार की मृत्यु महासत्त्व शाली मनुष्य प्राप्त करते हैं। कर्मों की निर्जरा के लिए वे अपने शरीर को मांसाहारी प्राणियों का भक्ष्य बना देते हैं। __ यदि यह मरण विवशता या अज्ञानपूर्वक अथवा कषाय के घावेश में हो तो वह बालमरण है । इसका स्वरूप चौथे भाग बोल नं. ७६८ में दिया जा चुका है।
(१५) भक्त प्रत्याख्यानमरण- यावज्जीवन तीन या चारों माहारों का त्याग करने के बाद जो मृत्यु होती है उसे भक्तमत्याख्यान मरण कहा जाता है। इसी को भक्तपरिज्ञा भी कहते हैं ।
(१६) इङ्गिनीमरण- यावज्जीवन चारों भाहारों के त्याग के वाद निश्चित स्थान में हिलने डुलने काभागार रख कर जो मृत्यु होती है उसे इगिनीमरण कहते हैं । इजिन्नी मरण वाला अपने स्थान को छोड़ कर कहीं नहीं जाता। एक ही स्थान पर रहते हुए हाथ पैर मादि हिलाने डुलाने का उसे आगार होता है। वह
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, पाचवा भाग ३८५
~ - - . .. wormwarmmmmmmmmmmmmmmm.ne दूसरों से सेवा नहीं कराता।
(१७)पादपोपगमन मरण-संधारा करके वृक्ष के समान जिस स्थान पर जिस रूप में एक बार लेट जाय फिर उसी जगह उसी . रूप में लेटे रहना और इस प्रकार मृत्यु होजाना पादपोपगमन मरण है । इस मरण में हाथ पैर हिलाने का भी भागार नहीं होता। (समवायाग १७ वा समवाय) (प्रवचनसारोद्धार १७५ वॉ द्वार, गा• १००६-१७) ८८०- माया के सतरह नाम
फपटाचार को माया कहते हैं। इसके सतरह नाम हैं(१) माया। (8) जिम्हे- जैह्म । (२) उवही- उपधि। (१०) दंभे- दम्भ । (३) नियडी-निकृति । (११) कूडे -- कूट । (४) वलए-वलय। (१२) फिब्बिसे- किल्विष । (५) गहणे-- गहन । (१३) भरणायरणया-अनाचरणता। (६) णमे- न्यवम। (१४) गृहणया- गृहनता। (७) कक्के- कल्फ। (१५) वंचणया- वंचनता। (८) कुरुए-कुरुक। (१६) परिकुचरणया-परिकंचनता
(१७) सातिओग-सानियोग।।
(सममायांग ५२ वर्मा, मोहनीय कर्म के ५२ नामों में से ) ८८१- शरीर के सतरह द्वार
पनवणा सूत्र के इक्कीसवें पद का नाम शरीर पद है। इसमें शरीरों के नाम, अर्थ, आकार, परिमाण आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। उन्हीं के माधार से शरीर के सतरह द्वारों का कथन किया जायगा
(१) नाम द्वार-औदारिक शरीर, वैक्रियफ शरीर, आहारफ शरीर, तैजस शरीर और फार्मण शरीर।
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८६
श्री मेठिया नैन ग्रन्हमारना
(२) अर्थ द्वार-उधार अर्थात् प्रधान और स्थूल पुद्गलों से बना हुभाशरीर औदारिक फरलाता है। अथवा मांस,रुधिर और हड्डियों से बना हुभा शरीर औदारिफ कहलाता है।
जिस शरीर में एक, अनेस, छोटा, बड़ा यादि रूप बनाने की विविध क्रियाएं होती है वह वैक्रियफ शरीर कहलाता है।
प्राणिदया, तीर्थडूर भगवान् की ऋद्धि का दर्शन तथा संशय निवारण मादि प्रयोजनों से चौदह पूर्वधारी मुनिराज जो एक हाथ का पुतला निकालते हैं वह भाहारफ शरीर कहलाता है।
तैजस पुद्गलों से बना हुमा तथा आहार को पचाने की क्रिया करने वाला शरीर तैजस कहलाता है।
कर्मों से बना हुभा शरीर कार्यण कहलाता है।
(३) अवगाहना द्वार- औदारिफ शरीर की जघन्य अवगाना अंगुल के असंख्यातवें भागीर उत्कृष्ट एक हजार योजन से छछ अधिक होती है। क्रियक शरीर की जघन्य भरगाहना अंगल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ भधिक होती है। माहारक शरीर की जघन्य अवगाहना एक हाथ से कुछ फम, उत्कृष्ट एक हाथ की होती है। तैजस और कार्यण शरीर की जघन्य अवगाहना अंगल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चौदह राजू परिमाण होती है। (४) संयोग द्वार- जहाँ मौदारिक शरीर होता है वहाँ तेजस और फार्मण शरीर की नियमा है अर्थात् निश्चित रूप से होते हैं। वैक्रियफ, आहारक शरीर की भजना है अर्थात् जहाँ औदारिक शरीर होता है वहाँ ये दोनों शरीर पाये भी जा सकते हैं और नहीं भी। क्रियक शरीर में तेजस फार्मण की नियमा, भौदारिक की भजना और आहारक का अभाव होता है। प्राहारक शरीर में वैक्रियक शरीर का प्रभाव होता है और शेष तीन शरीरों की
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, पाचवां भाग ३८७ ~~rrn wn e rrr . . .... . . . . . . नियमा है। तैजस शरीर में कार्यण की और कार्मण में तैजस की नियया है अर्थात् ये दोनों शरीर एक साथ रहते हैं । इन दोनों शरीरों में शेप तीन शरीरों की भगना है।
( ५ )द्रव्य द्वार-औदारिक और वैक्रियफ शरीर के असंख्यात द्रव्य हैं। याहारक शरीर के संख्यात द्रव्य हैं। तैजस और कार्यण के अनन्त द्रव्य हैं। इन पांचों शरीरों के प्रदेश अनन्तानन्त हैं।
(६) द्रव्य की अपेक्षा अल्पबहत्व द्वार- आहारक शरीर के द्रव्य सब से थोड़ हैं। बैंक्रिया शरीर के द्रव्य उनसे असंख्यात गुणे अधिक हैं। श्रौदारिक शरीर के द्रव्य उनसे असंख्यात गुणे अधिक हैं । जस और कामण शरीर के द्रव्य उनसे असंत मनन गुणे अधिक हैं किन्तु परस्पर दोनों तुल्य हैं।
(७) प्रदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्व द्वार- आहारक शरीर के प्रदेश सब से थोड़े हैं। वैक्रियफ शरीर के प्रदेश उनसे असंख्यात गुणे अधिक है। औदारिक शरीर के प्रदेश असंख्यात गुणे, तेजस के अनन्त गुणे और फार्मण शरीर के प्रदेश उनसे अनन्त गुण हैं।
(८) द्रव्य प्रदेश की अपेक्षाभल्पबहुत्व द्वार-भाहारक शरीर के द्रव्य सबसे थोड़े हैं। वैक्रिया शरीर के द्रव्य उनसे असंख्यात गुणे अधिक हैं । औदारिक शरीर के द्रव्य उनसे असंख्यात गुणे हैं। माहारक शरीर के प्रदेश अनन्त गुणे हैं । वैफियक शरीर के प्रदेश उनसे असंख्यात गुणे है । औदारिफ शरीर के प्रदेश उनसे असंख्यात गुणे हैं। तेजस और कार्मण शरीर के द्रव्य उनसे अनन्त गुणे हैं। तैजस शरीर के प्रदेश उनसे अनन्त गुणे हैं। कार्मण शरीर के प्रदेश उनसे अनन्त गुणे हैं। __(6) स्वामी द्वार-मनुष्य और तिर्यञ्चों के औदारिकशरीर होता है। तैजस और फार्मण शरीर चारों गति के जीवों के होते हैं। वैक्रियक शरीर नैरथिक और देवों के होता है सथा तिर्यश्च और
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.
..
३८८
श्री मेठिया जैन ग्रन्पमाला ~ in mmmmmmmmmmwwwmanu v . . . मनुष्यों के भी हो सकता है। आहारक शरीर के स्वामी चौदह पूर्वधारी मुनिराज हैं।
(१०) संस्थान द्वार- औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों में छहों संस्थान पाये जाते हैं। वैक्रियक में समचतुरस्र मौर हुण्डक दो संस्थान पाये जाते हैं। आहारक शरीर में एक समचतुरस्र संस्थान पाया जाता है।
(११) संहनन द्वार- औदारिफ, तैजम और कार्मण शरीर में छः संहनन पाये जाते हैं। आहारक में एक वज्रऋषभ नाराच संहनन पाया जाता है। वैक्रियफ शरीर में कोई संहनन नहीं होता।
(१२) सूक्ष्म वादर द्वार- कार्यण शरीर सव शरीरों से सूक्ष्म है। तेजस शरीर उससे वादर है। आहारक उससे बादर है । वैक्रियक शरीर उससे वादर है । औदारिक शरीर उससे बादर है। औदारिक शरीर सब शरीरों से वादर है। वैक्रिया, आहारक, तैमस और कार्मण शरीर क्रमशः सूक्ष्म हैं।
(१३) प्रयोजन द्वार- आठ कर्मों का तय कर मोक्ष प्राप्त करना औदारिक शरीर का प्रयोजन है। नाना प्रकार के रूप बनाना वैक्रियक शरीर का प्रयोजन है । प्राणिदया, संशयनिवारण, तीर्थकरों फीऋद्धि कादर्शन श्रादिप्रापरक शरीर का प्रयोजन है । संसार में परिभ्रमण करते रहना तैमस और फार्मण शरीर का प्रयोजन है।
(१४) विषय द्वार-मौदारिफ शरीर का विषय रुचक द्वीप तफ है। वैक्रियक शरीर का विषय असंख्यात द्वीप समुद्र पर्यन्त है। माहारक शरीर का विषय अढाई द्वीप पर्यन्त है। तेजस और फार्मण शरीर का विषय चौदह राजू परिमाण है।
(१५) स्थिति द्वार-औदारिक शरीर की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट तीन पन्योपम । वैक्रिय शरीर की जघन्य
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग
। ३८६
स्थिति एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम । आहारक शरीर की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्महूर्त। तैजस और कार्यण शरीर की स्थिति अनादि अनन्त है और भनादि सान्त है।
(१६) भवगाहना का अल्पबहुत्व द्वार- प्रोदारिफ शरीर की जघन्य अवगाहना सब से थोड़ी है। उससे तैजस, कार्यण की जघन्य अवगाहना विशेषाधिक है। वैक्रियक शरीर की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यात गुणी है। आहारक शरीर की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यात गुणी है। माहारक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेषाधिक है। औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना उससे संख्यात गुणी अधिक है । वैक्रियक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना उससे संख्यात गणी अधिक है। तेजस और फार्मण शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना उससे असंख्यात गणी है।
(१७) अन्तर द्वार-ौदारिक शरीर का यदि अन्तर पड़े तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तेतीस सागगेपम। वैक्रियक शारीर फा अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल । आधारफ फा अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन। तैजस और कार्मण शरीर का अन्तर कभी नहीं पड़ता।
पॉच शरीरों का अन्तर दूसरे प्रकार से भी है। औदारिक वैक्रियक, तैजस भौर कार्मण ये चारों शरीर लोक में सदा पाये जाते हैं। इनका कभी भन्तर नहीं पड़ता। यदि आहारक शरीर का अन्तर पड़े तो उत्कृष्ट ६ महीने तक पड़ता है । (पन्नवगा पद २१)
८८२-विहायोगति के सतरह भेद भाकाश में गमन करने को विहायोगति कहते हैं। इसके१७भेद हैं (१) स्पृशद्गति- परमाणुपुद्गल, द्विपादेशिक स्कन्ध यावत् अनन्तप्रादेशिक स्कन्धों की एक दूसरे को स्पर्श करते हुए गति होना स्पृशद्गति है।
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया जैन मन्यमाजा
( २ ) अस्पृशद्गति - परमाणु या पुद्गलस्कन्धों की परस्पर स्पर्श के बिना गति होना अस्पृशद्गति है ।
३६०
(३) उपसंपद्यमान गति - दूसरों का सहारा लेकर गमन करना । जैसे राजा, युवराज अथवा राज्य का भार संभालने वाला राजा का प्रतिनिधि या प्रधान मंत्री, ईश्वर (अणिमा मादि लब्धि वाला व्यक्ति), तलवर (ताजीमी सरदार जिसे राजाने सन्तुष्ट होकर पट्टा दे रखा हो) माण्डविक (टूटे फूटे गाँव का मालिक) कौटुम्बिक ( बहुत से कुटुम्बों का मुखिया), इभ्य ( इतना बड़ा धनवान् जो अपने पास हाथियों को रक्खे अथवा हाथीप्रमाण धनराशि का स्वामी), श्रेष्ठी (सेठ जिसका मस्तक श्रीदेवी के स्वर्णपद से विभूषित रहता है), सेनापति और सार्थवाह क्रमशः एफ दूसरे के सहारे पर चलते हैं। इसलिए वह उपसंपद्यमान गति है ।
(४) अनुपसंपद्यमान गति - राजा, युवराज, ईश्वर आदि यदि एक दूसरे का अनुसरण करते हुए न चलें, बिना सहारे के चलें तो वह अनुपसंपद्यमान गति है ।
( ५ ) पुगलगसि - परमाणु से लेकर अनन्तप्रादेशिक स्कन्ध नफ के पुद्गल की गति को पुगलगति कहते हैं ।
( ६ ) मण्डूकगति - मेढक के समान कूद कूद कर चलने को मण्डूक गति कहते हैं।
( ७ ) नौका गति - जिस प्रकार नाव नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे तक पानी में ही गमनागमन करती रहती है, इस प्रकार की गति को नौका गति कहते हैं।
(८) नयगति - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुमूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन सात नयों की प्रवृत्ति अथवा मान्यता को नय गति कहते है।
(६) छायागति - घोड़ा, हाथी, मनुष्य, किन्नर, महोरग, गंधर्व
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
muman womanmananaw nman nrannan
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, पाषचा भाग ३६१
marr mmmr वृषभ, रथ तथा छत्र श्रादि की छाया के अनुसार जो गति हो उसे छायागति कहते हैं अर्थात् छाया में रहते हुए गति करना।
(१०) छायानुपात गति- पुरुष के अनुसार छाया चलती है, छाया के अनुसार पुरुष नहीं चलता । पुरुष के अनुसरण से होने वाली छाया की गति को छायानुपात गति कहते हैं। . (११)लेश्या गति-कृष्ण लेश्या नील लेश्या को प्राप्त करके
उसी के वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श रूप में परिणत हो जाती है। इसी प्रकार नील लेश्या कापोत लेश्या को प्राप्त करके तद्रप में परिणत हो जाती है। कापोतलेश्या तेजोलेश्या के रूप में, सेजोलेश्या पद्मलेश्या के रूप में और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या के रूप में। लेश्याओं के इस प्रकार परिणत होने को लेश्या गति कहते हैं।
(१२) लेश्यानुपात गति- जिस लेश्या वाले पुद्गलों को ग्रहण करक जीव मरण प्राप्त करता है उसी लेश्या वाले पुद्गलों के साथ उत्पन होता है। जैसे मरते समय कृष्णलेश्या होने पर जन्म लेते समय भी वही रहेगी। इसी प्रकार सभी लेश्याओं के लिये जानना चाहिए । इसे लेश्यानुपात गति कहते हैं।
(१३) उद्दिश्यप्रविभक्तिक गति- यदि भाचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणी, गणधर या गणावच्छेदक आदि किसी को उद्देश करके गमन किया जाय तो उसे उद्दिश्यप्रविभक्तिक गति कहते हैं।
(१४) चतुःपुरुष प्रविभक्तिफ गति- इस में चार भांगे हैं(क) चार पुरुष एक साथ तैयार हो और एक ही साथ प्रयाण करें। (ख) एक साथ तैयार हो किन्तु भिन्न भिन्न समय में प्रयाण करें। (ग) भिन्न भिन्न समय में तैयार हों और भिन्न भिन्न समय में ही प्रयाण करें। (घ) भिन्न भिन्न समय में तैयार हों किन्तु एक ही समय में गति करें।
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
श्रीठिया जैन अन्यमाला
इन चारों भांगों में होने वाली गति को चतुः पुरुषप्रविभक्तिक गति कहते हैं।
(१५) वक्र गति-जोगति टेढ़ी मेढ़ी या जीव को अनिष्ट हो उसे वक्र गति फहते हैं। इसके चार भेद हैं(क) घट्टनता- लंगड़ाते हुए चलना। (ख) स्तम्भनता- ग्रीवा में धमनी अर्थात् रक्त का संचालन करने वाली नाड़ी का रहना या अपना कार्य करना स्तम्भनता है,अथवा आत्मा का शरीर के प्रदेशों में रहना स्तन्यनता है। (ग) श्लेषणता-घुटने का जॉघ के साथ सम्बन्ध होना श्लेषणता है। (घ) पतनता- खड़े होते समय या चलते समय गिर पड़ना।
(१६)पंक गति- कीचड़ या पानी में जिस प्रकार कोई पुरुष लकड़ी आदि का सहारा लेफर चलता है, उसी प्रकार की गति को पंक गति कहते हैं।
(१७) वन्धनविमोचन गति- पकने पर या बन्धन से छुटन पर आम,विजोरा, बिल,दाडिम,पारावत आदि की जो गति होती है उसे वन्धनविमोचन गति करते हैं। (पनवणा १६ याँ प्रयोग पद) ८८३-भाव श्रावक के सतरह लक्षण
शास्त्र श्रवण करने वाले देशविरति चारित्र के धारक गृहस्थ फो श्रावक फहते हैं । उसमें नीचे लिखे सतरह गुण होते हैं। (१) श्रावक स्त्रियों के अधीन नहीं होता। (२) श्रावक इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोकता है अर्थात् उन्हें वश में रखता है। (३) आवफ अनयों के कारण भूत धन में लोभ नहीं करता। (४) श्रावक संसार में रति अर्थात अनुराग नहीं करता। (५)श्रावक विषयों में गृद्धि भाव नहीं रखता। (६) श्रावक महारम्भ नहीं करता, यदि कभी विवश होकर
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल समह,
पाचवा भाग
३९३
करना ही पड़े तो अनिच्छा पूर्वक करता है ।
1
(७) श्रावक गृहस्थावास को जाल के समान मानता है । ( ८ ) श्रावक सम्यक्त्व से विचलित नहीं होता । ( 8 ) श्रावक भेड़ चाल को छोड़ता है।
1
(१०) श्रावक सारी क्रियाएं श्रागम के अनुसार करता है (११) अपनी शक्ति के अनुसार दान आदि में प्रवृत्ति करता है । ( १२ ) श्रावक निर्दोष तथा पापरहित कार्य को करते हुए नहीं हिचकता ।
(१३) श्रावक सांसारिक वस्तुओं में राग द्वेष से रहित होकर रहता है ।
(१४) श्रावक धर्म आदि के स्वरूप का विचार करते समय मध्यस्थ रहता है । अपने पक्ष का मिथ्या आग्रह नहीं करता ।
(१५) श्रावक धन तथा कुटुम्बियों के साथ सम्बन्ध रखता हुआ भी सभी को क्षणभङ्गुर समझ कर सम्बन्ध रहित की तरह रहता है । (१६) श्रावक मासक्ति से सांसारिक भोगों में प्रवृत्त नहीं होता । ( १७ ) श्रावक हृदय से विमुख रहते हुए गृहस्थावास का सेवन करता है । (धर्मसंग्रह अधिकार २ गाथा २२)
८८४ - संयम के सतरह भेद
मन, वचन और काया को सावध व्यापार से रोकना संयम है । इस के सतरह भेद हैं
( १ ) पृथ्वीकाय संयम - तीन करण तीन योग से पृथ्वीकाय के जीवों की विराधना न करना पृथ्वीकाय संयम है ।
(२) अप्काय संयम - अप्काय के जीवों की हिंसा न करना । ( ३ ) तेजस्काय संयम - तेजस्काय की हिंसा न करना । (४) वायुकाय संयम - वायुकाय के जीवों की हिंसा न करना । (५) वनस्पतिकाय संयम - वनस्पतिकाय की हिंसा न करना ।
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सेठिया नैन प्रबमात्रा
wrir mmmrrrrrrrrn mmmmmmmmmmmmmmmmmmm (६)द्वीन्द्रिय संयम-बेइन्द्रिय जीवों की हिंसा न करना। (७)त्रीन्द्रिय संयम-तेइन्द्रिय जीवों की हिंसान करना। (८)चतुरिन्द्रिय संयम-चोरिन्द्रिय जीवों की हिंसान करना। (8) पञ्चेन्द्रिय संयम-पञ्चेन्द्रिय जीवों की हिंसान करना।
(१०) अजीव संयम-अजीब होने पर भी जिन वस्तुओं के ग्रहण से असंयम होता है उन्हें न लेना अजीव संयम है। जैसेसोना, चाँदी आदि धातुओं अथवा शस्त्र को पास में न रखना। पुस्तक, पत्र तथा दूसरे संयम के उपकरणों को पडिलेहना करते हुए यतनापूर्वक बिना ममत्वभाव के मर्यादा अनुसार रखना असंयम नहीं है।
(११)प्रेता संयम-बीज, हरी घास, जीव जन्तु भादि से रहित स्थान में अच्छी तरह देख भाल कर सोना, बैठना, चलना आदि क्रियाएं करना प्रेक्षा संयम है।
(१२) उपेक्षा संयम-गृहस्थ तथा पासत्या भादि जो पापकार्य में प्रवृत्त हो रहा हो उसे पापकार्य के लिए प्रोत्साहित न करते हुए उपेक्षाभाव बनाए रखना उपेक्षासंयम है।
(१३) प्रमार्जना संयम- स्थान तथा वस्त्र पात्र मादि को पूँज फर काम में लानाप्रमार्जना संयम है।
(१४) परिठापना संयम- माहार या वस्त्र पात्र आदि को जीवों से रहित स्थान में जयणा से शास्त्र में बताई गई विधि के अनुसार परठना परिष्ठापना संयम है । समवायांग सूत्र में इस को 'अपहत्य संयम' लिखा है।
(१५) मनःसंयम- मन में इर्ष्या, द्रोह, अभिमान आदि न रख कर उसे धर्मध्यान में लगाना मनःसंयम है।
(१६) बचन संयम-हिंसाकारी कठोर वचनको छोड़ कर शुभ पचन में प्रकृति करना वचन संयम है।
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां माग
(१७) काय संयम-गमनागमन तथा दूसरे आवश्यक कार्यों में फाया की उपयोगपूर्वक शुभ प्रवृत्ति करना कायसंयम है ।
(समवायाग १७) (हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन) (प्रवचनसारोद्धार गा• ५५६) ८८५- संयम के सतरह भेद
संयम के दूसरी प्रकार से भी सतरह भेद हैं(१-५) हिंसा, झूठ,चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह रूप पाँच भावों से विरति ।
(६-१०) स्पर्शन, रसन, घ्राण, चतु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों को उन के विषयों की ओर जाने से रोकना अर्थात् उन्हें वश में रखना।
(११-१४) क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों को छोड़ना। __ (१५-१७) मन, वचन और फाया की अशुभ प्रवृत्ति रूप
तीन दण्डों से विरति। (प्रवचनसारोद्धार द्वार ६ ६ गाया ५५५) ८८६-- चरम शरीरी को प्राप्त सतरह बातें
जो जीव उसी भव में मोक्ष जाने वाला होता है उसे पूण्य के उदय से नीचे लिली सतरह बातें प्राप्त होती हैं
(१) चरम शरीरी को परिणाम में भी रमणीय तथा उत्कृष्ट सिषय मुख की प्राति होती है।
(२) चरम शरीरी में अपनी जाति, कुल, सम्पत्ति, वय तथा दसरे फिसी प्रकार से हीनता का पाव नहीं रहता।
(३) दास दासी आदि द्विपद तथा हाथी, घोड़े, गाय, भैंस आधि चतुष्पद की उत्तम समृद्धि प्राप्त होती है। (४)उसके द्वारा अपना और दूसरों फा महान् उपकार होता है। (५) उनका चित्त बहुत निर्मल होता है अर्थात् वे सदा
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६८
श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला
vaav muvm ~~
Ava-news
८८८ गतागत के अठारह द्वार
एक गति से काल करके जीव किन किन गतियों में जा सकता है तथा फिन किन गतियों से आफर एक गति में उत्पन्न होता है इस बात के खुलासे को गतागत कहते हैं । इसके अठारह द्वार हैं
(१) पहली नरक में जीव ग्यारह स्थानों से आता है-जलचर, स्थलचर, खेचर, उर:परिसर्प, भुजपरिसर्प, इन पाँच सज्ञी विर्यञ्चों के पर्याप्त, पॉच असंज्ञी तिर्यञ्चों के पर्याप्त और संख्यात फाल फा फर्मभूमि मनुष्य।
पहली नरक से फाल करके जीव वः स्थानों में जाता है-पाँच संज्ञी तिर्थञ्च के पर्याप्त और संख्यात काल का फर्मभूमि मनुष्य ।
(२) दूसरी नरक में जीव छः स्थानों से आता है-पाँच संज्ञी तिर्यञ्च के पर्याप्त तथा संख्यात वर्ष का कर्मभूमि मनुष्य ।
इन्हीं छः स्थानों में जाता है।
(३) तीसरी नरक में पाँच स्थानों से माता है- जलचर, स्थलचर, खेचर मौर उर परिसर्प के संज्ञी पर्याप्त और संख्यात काल का कर्मभूमि मनुष्य। पहले की तरह छः स्थानों में जाता है।
(४) चौथी नरक में चार स्थानों से भाता है-जलचर, स्थलचर और उरःपरिसर्प के संही पर्याप्त मौर संख्यात वर्ष का कर्मभूमि मनुष्य । पहले के समान छः स्थानों में जाता है।
(५)पाँचवी नरक में तीन स्थानों से प्राता है उरपरिसर्प फेसंझी पर्याप्त तथा संख्यात काल काकर्मभूमि मनुष्य।
पहले के समान स्थानों में जाता है। (६) छठी नरक में दो स्थानों से भाता है- संज्ञी जलचर
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग ३६६ wwwmwww.mmmmmmmmmmmmmmmmmmwww. wom का पर्याप्त तथा संख्यात काल का कर्मभूमि मनुष्य।
पहले के समान छः स्थानों में जाता है।
(७) सातवीं नरक में दो स्थानों से पाता है- संधी जलचर और संख्यात काल का फर्मभूमि मनुष्य (स्त्री वेद को छोड़ कर)। पाँच स्थानों में जाता है- संज्ञी तिर्यश्च का पर्याप्त ।
(८) भवनपति और व्यन्तर देवों की भागति सोलह कीपाँच संज्ञी तिर्यश्च के पर्याप्त, पॉच असंज्ञी तिर्यश्च के अपर्याप्त, संख्यात काल का कर्मभूमि मनुष्य, असंख्यात काल का फर्मभूमि मनुष्य,अफर्मभूमि मनुष्य,प्रान्तर द्वीपिक मनुष्य, खेचर जुगलिया
और स्थलचर जगलिया। __ गति नौ स्थानों की- पाँच संज्ञी तिर्यञ्च, संख्यात साल का कर्मभूमि, पृथ्वी, पानी और वनस्पति ।
(5) ज्योतिषी तथा पहले दूसरे देवलोक में जीव नौ स्थानों से माता है-पॉच संज्ञी तिर्यञ्च, संख्यात काल का कर्मभूमि मनुष्य, असंख्यात फाल का फर्मभूमि मनुष्य, मकर्मभूमि मनुष्य और स्थलचरजुगलिया।
नौ स्थानों में जाताई- पाँच संज्ञी तिर्यञ्च, संख्यात काल का फर्मभूमि, पृथ्वी, पानी और वनस्पति ।
(१०) तीसरे देवलोक से माठवें देवलोक तक छह की भागतिपाँच संज्ञी तिर्यश्च के पर्याप्त और संख्यात काल का कर्मभूपि मनुष्य।
इन्हीं छह स्थानों में जाता है।
(११) नवें से वाररावें देवलोक तक चार की भागति-मिथ्याहामि भविरति सम्यग्दृष्टि, देशविरति सम्यग्दृष्टि और सर्वविरति सम्यग्दृष्टि मनुष्य।
गति एक की- संख्यात काल का कर्मभूमि मनुष्य । (१२) नवग्रेवेयक में दो की मागति-मिथ्याष्टिसाधुलिङ्गी
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
४००
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
तथा सम्यग्दृष्टि साधु |
गति एक की- संख्यात वर्ष का कर्मभूमि मनुष्य ।
(१३) पाँच अनुत्तर विमान में दो की आगति - ऋद्धि प्राप्त श्रममादी, अमृद्धिप्राप्त अप्रमादी ।
गति एक फी - संख्यात काल का कर्मभूमि मनुष्य ।
(१४) पृथ्वीकाय, अकाय और वनस्पतिकाय में चोहत्तर की आगति - बयालीस प्रकार के तिर्यञ्च (पृथ्वी काय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और प्रत्येक वनस्पति काय में प्रत्येक के चार भेदसूक्ष्म, वादर, पर्याप्त और अपर्याप्त। इस प्रकार एकेन्द्रिय के बीस भेद | विकलेन्द्रिय के छः- बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त । पञ्चेन्द्रिय के बीस- जलचर, स्थलचर, खेचर, उरः परिसर्प और भुजपरिसर्प में प्रत्येक के संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त और अपर्याप्त ) मनुष्य के तीन भेद (सङ्गी मनुष्य का पर्याप्त, अपर्याप्त और असी का अपर्याप्त ) दस भवनपति, भाठ वाणव्यन्तर, पाँच ज्योतिषी, पहला देवलोक, दूसरा देवलोक । इस प्रकार कुल मिलाकर चोहत्तर हो जाते हैं ।
1
गति उनचास में- ४६ तिर्यञ्च और तीन मनुष्य ।
(१५) काय और वायुकाय में आगति ४६ की ४६ तिर्यञ्च और तीन मनुष्य ।
गति छचालीस की - तिर्यञ्च के छयालीस भेद |
(१६) तीन विकलेन्द्रिय में आगति और गति दोनों उनचास फी - ४६ तिर्यञ्च और ३ मनुष्य ।
( १७ ) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में आगति सतासी की- उनचास ऊपर लिखे अनुसार, इकतीस प्रकार के देवता ( दस भवनपति, याठ वाणव्यन्तर, पाँच ज्योतिपी और पहले से लेकर आठवें तक माठ देवलोफ) और सात नरक |
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
maamirrrrrrrrrr mur
श्री जैन सिद्धान्त घोल संघह, पांचवा भाग ४०१
www. mmmmm गति बानवे की-संख्यात वर्ष का कर्मभूमि मनुष्य, भसंख्यात वर्ष का कर्मभूमि मनुष्य,प्रकर्मभूमि, आन्तरद्वीपिक, स्थलचर युगलिया और सतासी ऊपर लिखे अनुसार।
(१८)मनुष्य में भागति छयानवें की-३८ ति छयालीस में से तेउकाय और वायुफाय के पाठ भेद छोड़ कर) मनुष्य के तीन,देवता के उनचास(दस भवनपति,आठ वाणव्यन्तर, पाँच ज्योतिषी, बारह देवलोक, नौ ग्रैवेयक और पाँच भनुत्तर विमान) पहली से लेकर छठी तक छह नरक। कुल मिला कर६६ । ___ गति एक सौ ग्यारह की-४६ तिर्यञ्च,३ मनुष्य, ४६ देवता७ नारकी, भसंख्यात काल का कर्मभूमि मनुष्य,भकर्मभूमि,आन्तर दीपिक, स्थलचर युगलिया, खेचर युगलिया और मोच । कुल मिला कर १११ हो जाते हैं।
(पन्नवणा पद ६) ८८६- लिपियाँ अठारह
जिस के द्वारा अपने भाव लिख कर प्रकाशित किए जा सके उसे लिपि कहते हैं। श्रार्यदेशों में अठारह प्रकार की ब्राह्मी लिपि काम में लाई जाती है। वे इस प्रकार हैं(१) ब्राह्मी
(१०) वैनयिकी (२) यवनानी
(११) निह्नविकी (३) दोसापुरिया (१२) अंकलिपि (४) खरोष्ठी
(१३) गणितलिपि (५) पुक्खरसरिया (१४) गंधर्वलिपि (६) भोगवती
(१५) आदर्शलिपि (७) पहराया
(१६) माहेश्वरी (८) अंतरवरिया (१७) दोमिलिपि (8) अक्खरपुहिया (१८) पौलिन्दी
(प्रज्ञापना पद १ सूत्र ७१) (समवायांग १८ वा)
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०२
भी सेठिया जैन प्रन्यमाला
८६० साधु के अठारह कल्प
दशवकालिक सुन के महाचार नामक छठे अध्ययन में साधु के लिये भठारह स्थान (कल्प) बतलाये गये हैं। वे इस प्रकार हैं
क्यछक्कं कायछक्कं अकप्पो गिहिभायणं । पलियक निसज्जाय सिपाणं सोहवज्जणं ॥ ।
अर्थात्- छः व्रत, छः काया के प्रारभ का त्याग, अकल्पनीय वस्तु, गृहस्थ के पात्र, पर्यम्, निवद्या, स्नान और शरीर की शुश्रूया । इनका त्याग करना ये अठारह स्थान है। ___ (१-६) प्राणातिपात, मृपावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह
और रात्रिभोजन का त्याग करना ये छः व्रत हैं। प्रथम पॉचव्रतों का स्वरूप इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में ३१६ बोल में दिया गया है। रात्रि भोजन त्याग-रात्रि में सूक्ष्म त्रस और स्थावर प्राणी दिखाई नहीं देते हैं इसलिए उस समय आहार के गवेषण, ग्रहण और परिभोग सम्वन्धी शुद्ध एपणा नहीं हो सकती। हिंसादि महादोषों को देख कर भगवान् ने साधुओं के लिये रात्रि भोजन त्याग का विधान किया है। दशवकालिक चौथे अध्ययन में भी इन छहों व्रतों का स्वरूप दिया गया है। __ (७-१२)पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पति काय और त्रस काय इन छहों का स्वरूप इस ग्रन्थ के द्वितीय भाग के बोलनं ४६२ में दिया गया है। साधु को तीन करण और तीन योग से इन छः कायों के प्रारंभ का त्याग करना चाहिये । एक काया की हिंसा में उसके आश्रित अनेक चाक्षप एवं भचाक्षुष त्रस
और स्थावर माणियों की हिंसा होती है। अग्नि अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र है। यह छहों दिशा में रहे हुए जीवों का विनाशक है। छकाय का भारंभ दुर्गति को बढ़ाने वाला है ऐसा जान कर साधुओं को यावज्जीवन के लिए इनका भारंभ छोड़ देना पाहिये।
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, पाचवां भाग ४०३ ____
- wwwm rnrmmon a marrrrrrrrrrr ~ (१३) अकल्प्य त्याग- मुनि भकल्पनीय पिंड, शय्या, वन पौर पात्र आदि को ग्रहण न करे । नित्य आमंत्रित आहार, क्रीस भाहार, प्रौदेशिक माहार तथा पाहत आहार आदि को ग्रहण नफरे अर्थात् कोई गृहस्थ साधु से ऐसा निवेदन करे कि 'भगवन् ! भाए भिक्षा के लिये कहाँ फिरते फिरेंगे, कृपया नित्यप्रति मेरे ही घर से शाहार ले लिया करें गृहस्थ के इस निवेदन को स्वीकार कर नित्य प्रति उसी के घर से माहार भादि लेना नित्य मामंत्रित पिण्ड कहलाता है। इसी प्रकार गृहस्थ के एक जगह से दूसरी जगह जाने से क्षेत्र भेद होने पर भी सदा उसीफे यहाँ से भिन्न भिन्न परिवर्तित स्थानों पर जाफर आहार लेना नित्य पिण्ड ही है। साधु के निमित्त मोल लाया हुभा पदार्थ क्रीत फालासा है। साधु के वास्ते तैयार किया हुभा पदाथे औदेशिक कहलाता है। साधु के लिये साधु के स्थान पर लाया हुआ पदार्थ भाहल फरलाता है। साधु के लिये उपरोक्त भाहार आदि पदार्थ अकल्पनीय हैं क्योंकि उपरोक्त आहार आदि को लेने से साधु को छःकाया के जीवों की हिंसा की भनुमोदना लगती है। अतः धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले निष्परिग्रह साधु को मौदेशिकादि माहार ग्रहण न करना चाहिये।
जिस प्रकार मुनि के लिये सदोष आहार अकल्पनीय है उसी प्रकार यदि शय्या,वस्त्र और पात्र आदि सदोष हों तो वे भी मुनि के लिये अकल्पनीय हैं।
(१४) भाजन- साधु को गृहस्थी के वर्तनों में अर्थात् कांसी, पीतल भादिकीयाली या कटोरीमादि में भोजन न करना चाहिए। इसी प्रकार मिट्टी के बर्तनों में भी साधु को भोजन न करना चाहिए। गृहस्थी के बर्तनों को वापरने से साधु को पूर्वकर्म और पश्चात्कर्म आदि कई दोष लगते हैं अर्थात् नव साधु गृहस्थ के बर्तनों में
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
wann
५०४
श्री सेठिया बैन पन्यमाला ~ - - - - www ~ ~~ ~ warm. ~~~~rrn
आहार आदि करने लग जायगा तो गृहस्थ उन वर्तनों को कच्चे जल आदि से धोकर साधु को भोजन करने के लिए देगा और साधु के भोजन कर लेने के बाद गृहस्थ उन बर्तनों को शुद्ध करने में फच्चेजल आदि का व्यवहार करेगा तथा वर्तनों को साफ करके उस पानी को अयतना पूर्वक इधर उधर फेंक देगा जिससे जीवों फी विराधना होगी, इत्यादि अनेक दोषों से संयम की विराधना होने की सम्भाषना रहती है इसलिए छकाया के रक्षक निग्रन्थ साधु को गृहस्थ के वर्तनों में आहार मादि न करना चाहिये।
(१५) आसन- निर्ग्रन्थ साधु को गृहस्थ के भासन, पलंग, खाट, कुर्सी आदि पर न बैठना चाहिये । इन पर चैठने से साधु को अनाचरित नाम का दोष लगता है। यदि कदावित् किसी कारण विशेष से कुर्सी भादि पर बैठना पड़े तो बैठने से पहले उनकी अच्छी तरह पडिलेहणा कर लेनी चाहिये क्योंकि उपरोक्त
आसनों में सूक्ष्म छिद्र होते हैं। अतः साधुओं द्वारा ये भासन सभी प्रकार से वर्जित हैं।
(१६) निषधा-निर्ग्रन्थ साधु को गृहस्थ के घर में जाकर बैठना न चाहिये । गृहस्थों के घर में बैठने से ब्रह्मचर्य का नाश होने की सम्भावना रहती है क्योंकि वहाँवैठने से स्त्रियों का परिचय होता है और स्त्रियों का विशेष परिचय ब्रह्मचर्य का घातक होता है। प्राणियों का वध तथा संयम का घात मादि दोष भी उत्पन्न होते हैं । भिक्षा के लिये भाये हुए दीन अनाथ गरीब प्राणियों के दान में अन्तराय पड़ता है। गृहस्थों के घर में बैठने से स्वयं घर के स्वामी को भी क्रोध उत्पन्न होता है। 'साधु का फाम है आहार लिया और चल दिया। घर में बैठने से क्या प्रयोजन प्रतीत होता है यह साधु चाल चलन का कच्चाई' इत्यादि प्रकार से गृहस्थ के मन में साधु के प्रति अनेक प्रकार की शङ्का उत्पन्न
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
wrrrrrrr . ~~
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पाचवा भाग ४०५ wwwmmmmmmmmmmmmmm - ~~~ ~ r. in हो सकती है। इसलिये अत्यन्त वृद्ध,रोगी या उत्कृष्ट तपस्वी इन तीन के सिवाय अन्य किसी भी निर्ग्रन्थ साधु को गृहस्थ के घर न बैठना चाहिये।
(१७) स्नान त्याग- निर्ग्रन्थ साधु को कच्चे जल से या गर्म जल से स्नान करने का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । स्नान करने से जल के जीवों की विराधना होती है तथा वह फर जाते हुए जल से अन्य जीवों की भी विराधना होती है। इसलिए साधु को अस्नान नामक कठिन व्रत का यावज्जीवन पूर्णतया पालन करना चाहिए । कारण बिना कभी भी देश या सर्व स्नान न करना चाहिए। इसी प्रकार चन्दन केसर भादि सुगन्धित पदार्थ भी साधु को अपने शरीर पर न लगाने चाहिए । ब्रह्मचर्य की दृष्टि से भी साधु को स्नान न करना चाहिए, स्नान काम का अङ्ग माना गया है। कहा भी हैस्नानं मद दर्प करं, कामाझं प्रथमं स्मृतम् । तस्मास्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः ॥
अर्थात्-स्नान मद और दर्प उत्पन करता है। पहला कामाङ्ग माना गया है। यही कारण है कि इन्द्रियों को दमन करने वाले संयमी साधु काम कात्याग कर कभी स्नान नहीं करते। दशवैकालिक तीसरे अध्ययन में स्नान को साधु के लिए अनाचीर्ण बतलाया गया है।
(१८) शोभावर्जन- मलिन एवं परिमित वस्त्रों को धारण करने वाले द्रव्य और भाव से मुण्डित, मैथुन कर्म के विकार से उपशान्त मुनि को अपने शरीर की विभूषा, शोभा और शृङ्गार मादि का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए क्योंकि शरीर की शोभा
और श्रृङ्गारमादि करने से दुस्तर और रौद्र संसार समुद्र में भ्रमण कराने वाले चिकने कर्मों का वध होता है। इसलिये छःकाय मीवों के रक्षक ब्रह्मचारी मुनि को शरीर विभूषा का सर्वथा त्याग
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
-~~~~~~rn -
-
~
.. -
श्रीठिया जैन पन्थमाला
~ ~ ~~ wwwman a ~ ~ne कर देना चाहिए।
उपरोक्त अठारह कल्पों का यथावत पालन करने वालो विशुद्ध तप क्रिया में रत रहने वाले पुनि अविचल मोक्ष पद को प्राप्त करते हैं।
(दशवैकानिक अध्ययन ६ गाथा ८--६६. ) ( समवायाग १८) ८६१-- दीक्षा के अयोग्य अठारह पुरुष ___ सब प्रकार के सावध व्यापार को छोड़ कर मुनि व्रत अङ्गीकार करने को दीक्षा कहते हैं। नीचे लिखे अठारह व्यक्ति दीक्षा के लिए भयोग्य होते हैं___ (१) वाल- जन्म से लेकर आठ वर्ष तक बालक कहा जाता है। वाल स्वभाव के कारण वह देशविरति या सर्वविरति चारित्र को अङ्गीकार नहीं कर सकता। भगवान् वज्रस्वामी ने छः माह की अवस्था में भी भाव से संयम स्वीकार कर लिया था ऐसा फहा जाता है। आठ वर्ष की यह मर्यादा सामान्य साधाओं के लिए निश्चित की गई है। पागमविहारी होने के कारण उन पर यह मर्यादा लागू नहीं होती। कुछ प्राचार्य गर्भ से लेकर भाठ वर्ष तक वाल्यावस्था मानते हैं।
(२) द्ध- सत्तर वर्ष से ऊपर वृद्धावस्था मानी जाती है। शारीरिक शक्ति के कारण वृद्ध भी दीक्षा के योग्य नहीं होते। कुछ आचार्य साट वर्ष से ऊपर वृद्धावस्था मानते हैं। यह बात १०० वर्ष की आयु को लक्ष्य करके कही गई है। कम आयु होने पर उसी अनुपात से वृद्धावस्था जल्दी मान ली जाती है।
(३) नसक-जिसके स्त्री और पुरुष दोनों वेदों का उदय हो उसे नपुंसक कहते हैं। प्रायः अशुभ भावना बाला तथा लोक निन्दा का पात्र होने के कारण वह दीक्षा के अयोग्य होता है ।
(४) क्लीव-पुरुष की माकृतिवाला नपुंसक । स्त्री वेद का तीव्र उदय होने के कारण वह दीक्षा के योग्य नहीं होता।
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
श्री जैन सिदान्त बोल सग्रह, पाचवा माग
४०७
- -
rrrrrrrrrr
(५) जड़- जड़ तीन प्रकार का होता है- भाषाजड़, शरीर अड़ और करणजड़।
(क) भाषाजड के तीन भेद हैं- जलमूफ, मन्मनमुफ और एलक मूक । जो व्यक्ति पानी में डूबे हुए के समान केपला बुढबुड करता है कुछ भी स्पष्ट नहीं कह सकता उसे जलमूक कहते हैं। बोलते समय जिसके मुँह से कोई शब्द स्पष्ट न निकले,केवल अधूरे और अस्पष्ट शब्द निकलते रहें उसे मन्मनमूक कहते हैं । जो व्यक्ति भेड़ या बकरी के समान शब्द करता है उसे एलफमूक कहते हैं। ज्ञान ग्रहण में असमर्थ होने के कारण भाषाजड़ दीक्षा के योग्य नहीं होता।
(ख) शरीर जड़- जो व्यक्ति बहुत मोटा होने के कारण विहार गोचरी, वन्दना आदि करने में असमर्थ है उसे शरीरजड़ कहते हैं। ___ (ग) करणजड़- जो व्यक्ति समिति, गुप्ति, प्रतिक्रमण, प्रत्युपेक्षण, पडिलेहना मादि साधु के लिए आवश्यक क्रियामों को नहीं समझ सकता या कर सकता वह करणजह (क्रियाजद) है।
तीनों प्रकार के जड दीक्षा के लिए योग्य नहीं होते।
(६)व्याधित-किसी बड़े रोग वाला व्यक्ति दीक्षा के योग्य नहीं होता।
(७) स्तेन- खात खनना, मार्ग में चलते हुए को लूटना मादि किसी प्रकार से चोरी करने वाला व्यक्ति दीक्षा के योग्य नहीं होता। उसके कारण संघ की निन्दा तथा अपमान होता है।
(८) राजापकारी- राजा, राजपरिवार,राज्य के अधिकारी या राज्य की व्यवस्था का विरोध करने वाला दीक्षा के योग्य नहीं होता। उसे दीक्षा देने से राज्य की ओर से सभी साधुओं पर रोष होने का भय रहता है।
(8) उन्मत्त- यक्ष आदि के भावेश या मोह के सरल उदय
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला ~ ~ ~ ~ ~ ~ war war arr ... ..
से जो कर्तव्याकर्तव्य को भूल कर परवश होजाता है और अपनी विचार शक्ति को खो देता है वह उन्मत्त कहलाता है। ___ (१०) अदर्शन-दृष्टि अर्थात् विना नेत्रों वाला अन्धा। अथवा दृष्टि अर्थात् सम्यक्त्व से रहित स्त्यानमृद्धि निद्रा वाला । अन्धा
आदमी जीवों की रक्षा नहीं कर सकता और स्त्यानगद्धि वाले से निद्रा में कई प्रकार के उत्पात हो जाने का भय रहता है। इस लिए वे दोनों दीक्षा के योग्य नहीं होते।
(११) दास-घर की दासी से उत्पन्न हुमा, अथवा दुर्मित आदि में धन देकर खरीदा हुमा या जिस पर कर्ज का भार हो उसे दास कहते हैं। ऐसे व्यक्ति को दीक्षा देने से उसका मालिक वापिस छुड़ाने का प्रयत्न करता है। इस लिए वह भी दीक्षा का
अधिकारी नहीं होता। __ (१२) दुष्ट-दुष्ट दो तरह का होता है-कषायदुष्ट और विषयदुष्ट । जिस व्यक्ति के क्रोध आदि कषाय बहुत उग्रहों उसे कपाय दुष्ट कहते हैं और सांसारिक कामभोगों में फंसे हुए व्यक्ति को विपयदुष्ट करते हैं।
(१३)मढ-जिस में हिताहित का विचार करने की शक्ति नहो। (१४) ऋणातें-- मिस पर राज्य मादि का ऋण हो। (१५) जुङ्गित- जुङ्गित का अर्थ है दूषित या हीन जुङ्गित तीन प्रकार का होता है- जाति जुंगित, कर्मजंगित और शरीर जुंगित। __ (क) जाति जुंगित- चंदाल, कोलिक, डोम आदि अस्पृश्य जाति के लोग जाति जुंगित हैं।
(ख) कर्म जुंगित- फसाई, शिकारी, मच्छीमार, धोबी आदि निन्ध कर्म करने वाले कर्म जंगित हैं।
(ग) शरीर जंगित- हाथ, पैर, कान, नाक, ओठ-इन अंगों से रहित,पंगु, कुबड़ा, बहरा, फाणा, कोढ़ी वगैरह शरीर जुंगित हैं ।
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
mamannoun
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, पाचवा भाग
~ ammmmmmmmmmmmmmmmmmmm~ चमार,जलाहा आदि निम्न कोटि के शिल्प से भाजीविका करने चाले शिल्प जुङ्गित हैं । यह जुङ्गित का चौथा प्रकार भी है। वे सभी दीक्षा के भयोग्य हैं। इन्हें दीक्षा देने से लोक में अपयश होने की संभावना रहती है।
(१६) अवबद्ध-धन लेकर नियत काल के लिये जो व्यक्ति पराधीन बन गया है वह प्रवबद्ध कहलाता है। इसी प्रकार विद्या पढ़ने के निमित्त जिसने नियत काल तक पराधीन रहना स्वीकार कर लिया है वह भी अवबद्ध कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति को दीक्षा देने से क्लेश आदि की शंका रहती है।
(१७) भृतक-नियत अवधि के लिये वेतन पर कार्य करने वाला व्यक्ति भृतक कहलाता है। उसे दीक्षा देने से मालिक अपसन्न हो सकता है।
(१८)शैक्ष निस्फेटिका- माता पितादि की रजामन्दी के बिना जो दीक्षार्थी भगा कर लाया गया हो या भाग कर आया हो वह भी दीक्षा के अयोग्य होता है। उसे दीक्षा देने से माता पिता के फर्म बन्ध का संभव है एवं साधु अदत्तादान दोष का भागी होता है।
(प्रवचन सारोद्धार द्वार १०७)
(धर्मसंग्रद अधिकार ३ गाया ७८ टीका ) पुरुषों की तरह उक्त अठारह प्रकार की स्त्रियाँभी उक्त कारणों से दीक्षा के अयोग्य बतलाई गई हैं। इनके सिवाय गर्भवती और स्तन चघने वाले छोटे बच्चों वाली स्त्रियाँ भी दीक्षा के अयोग्य हैं। इस प्रकारदीक्षा के अयोग्य स्त्रियॉकुल पीस हैं। (प्रवचन सारोद्धार द्वार १०८)
नोट- उपरोक्त मठारह बोल उत्सर्ग मार्ग को लक्ष्य में रख कर कहे गए है । अप
वाद मार्ग में गुरु आदि उस दीक्षार्थी को योग्यता देख कर सुन व्यवहार के अनुसार दीक्षा दे सकते हैं।
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________ 410 श्री सेठिया जैन मन्यमाला * MAVA NIvavrovo 862- ब्रह्मचर्य के अठारह भेद मन, वचन और काया को सांसारिक वासनाओं से स्टार श्रात्मचिन्तन में लगाना ब्रह्मचर्य है / इसके अठारह भेद हैंदिवा कामरइसुहातिविहं तिविहेण नवविहा विरई। श्रोरालिया उवितहातं बंभट्टदसभेय // अर्थात्- देवसम्धी भोगों का मन, वचन और काया से स्वयं सेवन करना, दूसरे से कराना तथा करते हुए को भला जानना, इस प्रकार नौ मेद हो जाते हैं / औदारिक अर्थात् मनुष्य, तिर्यञ्च सम्बन्धी भोगों के लिए भी इसी प्रकार नौ भेद हैं। कुल मिलाकर अठारह भेद हो जाते हैं। इन अठारह प्रकार के भोगों का सेवन न करनाअठारह प्रकार का ब्रह्मचर्य है। (समवायांग 18 वा समवाय) (प्र. सा• द्वार 168 पाया 61) 863- अब्रह्मचर्य के अठारह भेद ऊपर लिखे भोगों को सेवन करना अठारह प्रकार का अब्रह्मचर्य है। (सम० 18 वा समवाय) (अावश्यकनियुक्ति प्रतिक्रमणाध्ययन) ८६४-पौषध के अठारह दोष जो व्रत धर्म की पुष्टि करता है उसे पौषधवत कहते हैं मथवा अष्टमी, चतुर्दशी, अमावास्या और पूर्णिमा रूप पर्व दिन धर्मवृद्धि के कारण होने से पौपध कहलाते हैं। इन पत्रों में उपवास करना पौपधोपचास व्रत है। यह व्रत चार प्रकार का है-(१)भाहार पौपध (2) शरीर पौपध (3) ब्रह्मचर्य पोपध (4) अव्यापार पौषध / __ आगर का त्याग करके धर्म का पोषण करना आहार पौषध है। स्नान, उवटन,वर्णक, विलेपन, पुष्प, गन्ध, ताम्बूल, वस्त्र, भाभरण रूप शरीर सत्कार का त्याग करना शरीर पोपध है।
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सपह, पाचवा भाग 411 अब्रह्म (मैथुन) का त्याग कर कुशल अनुष्ठानों के सेवन द्वारा धर्मवृद्धि करना ब्रह्मचर्य पौषध है। कृषि, वाणिज्यादि सावध व्यापारों का त्याग कर धर्म का पोषण करना अव्यापार पौषध है। श्राहार तनुसत्कारा ब्रह्म सावद्य कर्मणाम् / स्यागः पर्व चतुष्टय्यां, तद्विदुः पौषधम्रतम् // भावार्थ- चारों पर्यों के दिन श्राहार, शरीर सत्कार, अब्रह्म और सावध व्यापारों का त्याग करना पौषधव्रत कहा गया है। उक्त पौषधत्रत के शास्त्रकारों ने अठारह दोष बताए हैं। वे येहैं(१) पौषध निमित्त लूंस ढूंस कर सरस माहार करना / (2) पौषध की पाली रात्रि में मैथुन सेवन करना / (3) पौषध के लिये नख, केश आदि का संस्कार करना। (4) पोषध के ख्याल से वस्त्र धोना या धुलवाना। (5) पौषध के लिये शरीर की शुश्रूषा करना। (6) पौषध के निमित्त माभूषण पहिनना। पौषधवत लेने के पहले दिन उक्त छः वातें करने से पौषध दक्षित होता है। इस लिये इनका सेवन न करना चाहिये। (7) अवती (व्रत न लिए हुए व्यक्ति) से बैयावृत्य कराना। (8) शरीर का मैल उतारना / (8) विनापूँजे शरीर खुजलाना। (10) अकाल में निद्रा लेना, जैसे-दिन में नींद लेना, पहर रात जाने के पहले सो जाना और पिछली रात में उठकर धर्मजागरण न करना। (11) विनापूँजे परठना। (12) निंदा, विकथा और हँसी मजाक करना। (13) सांसारिक वातों की चर्चा करना। (14) स्वयं डरना या दूसरों को डराना
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________ 412 श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला (15) कलह करना। (16) खुले झुंह अयतना से बोलना / (17) स्त्री के अंग उपांग निहारना (निरखना)। (18) फाफा, मामा आदि सांसारिक सम्बन्ध के नाम से सम्बोधन करना। मात से अठारह तक ये वारह नाते, पौषध लेने के बाद की जायें तो दोप रूप हैं / पौषध के इन अठारह दोपों का परिहार करके शुद्ध पौपध करना चाहिये। (श्रावक के चार शिक्षाबत) 865- अठारह पापस्थानक__ पाप के हेतु रूप हिंसादि स्थानक पापस्थानक हैं। पापस्थानक अठारह हैं (1) माणातिपात- प्रमाद पूर्वक प्राणों का प्रतिपात करना अर्थात् आत्मा से उन्हें जुदा करना प्राणातिपात (हिंसा) है / हिंसा की व्याख्या करते हुए शास्त्रकार फहते हैं: पञ्चन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छ्वास निःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ता स्तेषां वियोजीकरणं तु हिसा / / अर्थात्- पाँच इन्द्रियाँ,मनचल,वचनबल,कायवान,श्वासोच्छ्वास और ग्रायु ये भगवान ने दश प्राया कहे है। इन का श्रात्मा से पृथक करना हिंसा है। __ प्राणातिपात द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। विनाश, परिताप और संक्लेश के भेद से यह तीन प्रकार का है। पयोय का नाश करना विनाश है, दुःख उत्पन्न करना परिताप है। और क्लेश पहुँचाना संक्लेश है। करण और योग के भेद से यह नव प्रकार का है। इन्ही नो भेदों को धार कपाय से गुणा करने
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग से प्राणातिपात के छत्तीस भेद होजाते हैं। (2) मृषावाद- मिथ्या वचनों का कहना मृपावाद है। मृषाबाद द्रव्य, भाव के भेट से दो प्रकार का है। अभूतोद्भावन, भूतनिव, वस्त्वन्तरन्यास और निन्दा के भेद से इसके चार प्रकार हैं। ये चारों प्रकार इस ग्रन्थ के प्रथम भाग के 270 वे बोल में दिये हैं। (3) अदत्तादान- स्वामी,जीव,तीर्थकर और गुरु द्वारा नदी हुई सचित्त,अचिस और मिश्र वस्तु को विना आज्ञा प्राप्त किये लेना अदत्तादान अर्थात् चोरी है। महाव्रत की व्याख्या देते हुए इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग के ३१६वें बोल में इसका विशद वर्णन है। (4) मैथुन- स्त्री पुरुष के सहवास को मैथुन कहते हैं। देव, मनुष्य और तिर्यश्च के भेद से तथा करण और योग के भेद से इसके भनेक भेद हैं। अब्रह्मचर्य के भठारह भेद इस भाग में अन्यत्र दिये हैं। (5) परिग्रह- मूर्यो- ममता पूर्वक वस्तुओं का ग्रहण करना परिग्रह है / बाह्य और प्राभ्यन्तर के भेद से परिग्रह दो प्रकार का है। धर्मसाधन के सिवाय धन धान्यादि ग्रहण करना बाह्य है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि प्राभ्यन्तर परिग्रह हैं। (६-६)-क्रोध, मान, माया, लोभ-कपाय मोहनीय फर्म के उदय से होने वाले जीव के मज्वलन, अहंकार, वञ्चना एवं मूर्छा रूप परिणाम क्रमशः क्रोध,मान,माया,लोभ हैं / इस ग्रन्थ के प्रथम भाग के बोल नं० 158 से १६६तथा२६१ में कपाय,प्रमाद आदि के वर्णन में इनका विशेष स्वरूप दिया गया है तथा अनन्तानुवन्धी आदि भेदों का निरूपण भी किया गया है। (10) राग- माया और लोभ जिसमें अप्रकट रूप से विधमान हों ऐसा भासक्तिरूप जीव का परिणाम राग है। (11) द्वेष-क्रोध और मान जिसमें अव्यक्त भाव से मौजूद हों ऐसा अप्रीति रूप जीब का परिणाम द्वेष है।
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________ 114 श्री मंठिया जैन ग्रन्थमाला (12) फलह- झगड़ा, राड़ करना कलह है। (13) अभ्याख्यान- प्रकटरूप से भविद्यमान दोषों का आरोप लगाना- (झूठा आल) देना अभ्याख्यान है। (14 ) पैशुन्य-पीठ पीछे किसी के दोष प्रकट करना, चाहें उसमें हों या न हों, पैशुन्य है। (15) परपरिवाद-दूसरे की बुराई करना, निन्दा करना परपरिवाद है। (16) अरति रति-मोहनीय कर्म के उदय से प्रतिकूल विषयों फी प्राप्ति होने पर जो उद्वेग होता है वह अरति है और इसी के उदय से अनुकूल विपयों के प्राप्त होने पर चित्त में जो आनन्द रूप परिणाम उत्पन्न होता है वह रति है। जीव को जब एक विषय में रति होती है तब दूसरे विषय में स्वतः अरति हो जाती है। यही कारण है कि एक वस्तु विपयक रति को ही दूसरे विषय की अपेक्षा से अरति कहते हैं। इसी लिये दोनों को एक पापस्थानक गिना है। (17) मायामृषा- मायापूर्वक झूठ बोलना मायामृषा है। दो दोषों के संयोग से यह पापस्थानक माना गया है। इसी प्रकार मान और मृपा इत्यादि के संयोग से होने वाले पापों का भी इसी में भन्तर्भाव समझना चाहिये / वेष बदल कर लोगों को ठगना मायामृपा है, ऐसा भी इसका अर्थ किया जाता है। (18) मिथ्यादर्शनशल्य- श्रद्धा का विपरीत होना मिथ्या दर्शन है। जैसे शरीर में चुभा हुआ शल्य सदा कष्ट देता है इसी प्रकार मिथ्या दर्शन मी आत्मा को दुखी बनाये रखता है। प्रवचनसारोद्धार में अठारह पापस्थानों में 'अरति रति' नहीं देकर छठा 'रात्रि भोजन' पापस्थानक दिया है। भगवती मुत्र शतक१ उद्देशा हमें बताया है कि इन अठारह पापस्थानों से जीव कमाँ का संचय कर गुरु बनता है। बारहवें शतक के
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्न बोल संग्रह, पाचवा भाग 415 पॉचवे उद्देशे में अठारह पापस्थानों को चतुःस्पर्शी बतलाया है। (टाणाग ठाणा 1 सूत्र 48,46) (प्रवचन सारोद्धार 237 द्वार) (दशाश्रुतम्कंध छठी दशा) (भगवती श० 1 उ० 6 तथा श• 12 उ०५) 866-- चोर की प्रसूति अठारह नीचे लिखी अठारह बातें चोर की प्रसूति समझी जाती हैं अर्थात् स्वयं चोरी न करने पर भी इन बातों को करने वाला चोर का सहायक होने के कारण चोरी का अपराधी माना जाता है। वे इस प्रकार हैं भलनं कुशलं तर्जा, राजभागोऽवलोकनम् / मार्गदर्शनं शय्या, पदभङ्गस्तथैव च // विश्रामः पादपतनमासनं गोपनं तथा। खण्डस्यखादनं चैव तथाऽन्यन्माहराजिकम् / / पाद्याधुदक रज्जूनां, प्रदानं ज्ञानपूर्वकम् / एताः प्रसूतयो ज्ञेयाः, अष्टादश मनीषिभिः / / (1) भलन-तुम डरो मत,मैं सब कुछ ठीक कर लूँगा, इस प्रकार चोर को प्रोत्सान देना भलन नाम की प्रसुति है। (2) कुशल- चोरों के मिलने पर उन से सुख दुःख आदि का कुशलमश्न पूछना। (3) तर्जा- हाथ आदि से चोरी करने के लिए भेजने आदि का इशारा करना। (4) राजभाग- राजा द्वारा नहीं जाने हुए धन को छिपा लेना और पूछने पर इन्कार कर देना। (5) अवलोकन-किप्ती के घर में चोरी करते हुए चोरों को देख कर चुप्पी साध लेना। (6) अमार्गदर्शन-पीछा करने वालों द्वारा चोरों का मार्ग
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________ 416 भी सेठिया जैन ग्रन्माला पूछने पर दसग मार्ग बता कर असली मार्ग को छिपा लेना। (7) शय्या-- चोर को ठहरने का स्थान देना। (8) पदभङ्ग- जिस मार्ग से चोर गया है उस मार्ग पर पश वगैरह ले जाकर चोर के पदचिह्नों को मिटा देना। (8) विश्राम-अपने घर में विश्राम करने की अनुमति देना। (10) पादपतन-प्रणाम आदि के द्वारा चोर को सन्मान देना। (11) आसन- चोर को आसन या विस्तर देना। (12) गोपन- चोर को छिपा कर रखना। (13) खण्ड खादन-चोर को मीठा और स्वादिष्ठ भोजन देना। (14) माहराजिक-चोर को जिस वस्तु की आवश्यकता हो उसे गुप्त रूप से उसके पास पहुँचाना। (15) पायदान- कहीं बाहर से आए हुए चोर को थकावट उतारने के लिए पानी या तेल भादि देना। (१६)चोर को रसोई बनाने के लिए भाग देना। (17) पीने के लिए ठण्डा पानी देना / (18) चोर के द्वारा लाए हुए पशु आदि को बाँधने के लिए रस्सी देना। (प्रश्नव्याकरगा प्रधर्मद्वार 3, टीका) 867- क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय अध्ययन की अठारह गाथाएं संसार में जितने भी अविद्या प्रधान पुरुष हैं,अर्थात् मिथ्यात्व से जिनका ज्ञान कुत्सित है वे सभी दुःख भागी हैं / अपने भले बुरे के विवेक से शुन्य वे पुरुष इस अनन्त संसार में भनेक बार दरिद्रतादि दुःखों से दुखी होते हैं। (२)स्त्रीमादि के सम्बन्ध श्रात्मा को परवश बना देते हैं इस लिए ये पाश रूप हैं। ये तीन मोह को उत्पन्न कर आत्मा की ज्ञान
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त दोल सग्रह, पाचवा भाग 417 शक्ति को आकृत कर देते हैं और ये ही अज्ञानियों को दुःख के कारण हैं। यहविचार कर विवेकी पुरुष को स्वयं सत्य और सदागम की खोज करनी चाहिए एवं प्राणियों पर मैत्रीभाव रखना चाहिए। (3) सत्यान्वेषी विवेकी पुरुष को यह सोचना चाहिए कि स्वकृत कर्मों से दुखी हुए जीव को माता, पिता, भाई, स्त्री, पुत्र और पुत्रवधू आदि घनिष्ठ सम्बन्धी भी दुःखों से नहीं छुढ़ा सकते। वास्तल में धर्म ही सत्य है एवं उसके विना संसार में कोई भी शरण रूप नहीं है। (4) अपनी बुद्धि से उपरोक्त बात सोच कर एवं सम्यग्दृष्टि होकर जीव को विषयों में रहे हुए भासक्ति भाव को मिटा देना चाठिये, स्वजनों में राग न रखना चाहिए एवं पूर्व परिचय की इच्छा भी न करनी चाहिए। (5) उपरोक्त बात को ही शास्त्रकार दूसरे शब्दों में दोहरा कर उसका फल बताते हैं / गाय, घोड़े, मणि, कुंडल एवं सेवक वर्ग इन सभी का त्याग करने एवं संयम का पालन करने से यह श्रात्मा इसी भन में वैक्रियलब्धि द्वारा एवं परलोक में देव बन कर इच्छानुसार रूप बनाने वाला हो जाता है। (६)सत्य के स्वरूप का विशप स्पष्टीकरण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-स्थावर एवं जंगम सम्पत्ति,धान्य एवं गृह सामग्री ये सभी, कर्मों का फल भोगते हुए जीव को दुःख से नहीं बचा सकते। (7) सत्य स्वरूप फा प्रतिपादन करते हुए शास्त्रकार आश्व निरोध का उपदेश देते हैं___ इष्ट संयोग और अनिष्ट वियोग से होने वाला मुख सभी जीवों को इष्ट है, उन्हें अपनी आत्मा प्रिय है तथा वे उसकी रक्षा करना चाहते हैं। यह सोच कर भय एवं वैर से निवृत्त होकर आत्मा को किसी प्राणी की हिंसा न करनी चाहिए।
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________ 418 भी सेठिया जैन मन्यमाला ~~ . ....... . . . * ~ ~ ~ wwmoram arrrrrrrror (८)प्राणातिपात रूप प्राश्रव निरोध का उपदेश देकर शास्त्रकार परिग्रह रूप पाश्रव निरोध के लिये कहते हैं- प्रथम एवं अन्तिम आश्रवनिरोध के कथन से वीच के भावों का निरोध भी समझ लेना चाहिये। धन धान्यादि परिग्रह को साक्षात् नरक समझ कर तृणमात्र का भी परिग्रह न करना चाहिए / क्षुधाविफल होने पर उसे अपने पात्र में गृहस्थ द्वारा दिया गया भोजन करना चाहिये / (8) आश्रव निरोध रूप संयम क्रिया अनावश्यक है इस मान्यता के विषय में शास्त्रकार कहते हैं___ मुक्ति मार्ग का विचार करते हुए कई लोग कहते हैं कि प्राणातिपानादि रूप पाप का त्याग किये बिना ही तत्त्वज्ञान मात्र से जीद सभी दुःखों से छूट जाता है। (10) औपध के ज्ञान मात्र से ही रोगी स्वस्थ नहीं होता किन्तु उसके सेवन से / इसी प्रकार क्रिया शून्य तत्त्वज्ञान भी भव दःखों से नहीं छड़ा सकता, यह सत्य है। वन्ध और मोक्ष को मानने वाले जो लोग ज्ञान को मुक्ति का अंग कहते हैं परन्तु मुक्ति के लिये कोई उपाय नहीं करते, वे लोग सत्य से परे हैं। केवल वाक्शक्ति से अपनी आत्माको आश्वासन ही देते हैं। (११)उक्त मान्यता के विषय में शास्त्रकार और भी कहते है'तत्त्व ज्ञान से ही मक्ति हो जाती है ये वचन एवं संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाएं आत्मा को पापों से बचाने में समर्थ नहीं हैं। न मन्त्र रूप विद्या की शिक्षा ही पाप से आत्मा की रक्षा कर सकती है। अपने को पंडित समझने वाले एवं हिंसादि पापों में फंसे हुए ये लोग वास्तव में वाल (अज्ञानी) हैं। (12) अब सामान्यतः मुक्ति मार्ग के विरोधियों को दोप दिखाते हुए कहते हैं
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग 416 war m ummon जोलोग शरीर,स्निग्ध,गौर,रूप,वर्ण एवं सुन्दर आकार में सब प्रकार मन,वचन और काया से आसक्त हैं। हम कैसे सन्दर वर्ण और भाकृति वाले बनें ? इसके लिए जो निरन्तर सोचा करते हैं, रसायन आदि की चर्चा करते हैं एवं उसका उपयोग करते हैं। ये सभी लोग वास्तव में दुःख के भागी हैं। (13) इन्हें कैसे दुःख होता है यह बताते हुए शास्त्रकार उपदेश करते हैं इस अनन्त संसार में ये लोग जन्म मरण रूप दुःखमय दीर्घ मार्ग में पहुँचे हुए हैं इसीलिये सभी द्रव्य औरभाव दिशाओं की ओर देखते हुए निद्रादि प्रमाद कात्याग कर इस प्रकार विचरना चाहिए कि श्रात्मा इन्हीं में न भटक कर अपने गन्तव्य स्थान (मुक्ति) में पहुँच जाय। (14) संसार के दुःखों से छुटकाराचाहने वाले को चाहिए कि वह केवल मोक्ष को ही अपना उद्देश्य बना ले और किसी वस्तु की इच्छा न करे। यह शरीर भी उसे पूर्व कृत कर्मों को तय करने के लिए ही अनासक्ति भाव से धारण करना चाहिए। (15) उसे कर्म के हेतु मिथ्यात्व, अविरति आदि को हटा करक्रिया पालन के अवसर की इच्छा रखते हुए विचरना चाहिए। गृहस्थ द्वारा अपने लिए बनाए हुए भोजन में से संयम निर्वाह योग्य परिमित आहार पानी लेकर उसे खाना चाहिए। (16) ममक्ष को उक्त आहार का कतई लेपमात्र भी संचय न करना चाहिए। जैसे पत्नी केवल अपने पंखों के साथ उड़ जाता है उसी प्रकार उसे भी पात्रादि धर्मोपकरण लेकर स्थानादि की आसक्ति न रखते हुए निरपेक्ष होकर विचरना चाहिए / (17) सयमी को ग्राम नगरादि में एपणा समिति का पालन करते हुए अनियत वृत्ति बाला होकर विचरना चाहिए। उसे
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________ - rrrrrr mun rrrrrrrrrr No 420 श्री सेठिया जैन प्रन्धमाला ~~~~~n - प्रमाद रहित होकर गृहस्थी के यहाँवार को खोज करनी चाहिए। (18) उक्त उपदेश के प्रति आदर भाव हो इसलिए शास्त्रकार उपदेष्टा का वर्णन करते हैं__सर्व श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन केधारक,इन्द्रादि से पूजित,विशाल तीर्थ के नायक ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने यह उपदेश फरमाया है। (उत्तराध्ययन अध्ययन 6) 868-- दशवैकालिक प्रथम चूलिका की अठारह गाथाएं दशवैकालिक सूत्र की दो चूलिकाएं हैं। प्रथम चूलिका में 18 गाथाएं हैं। संयम से गिरते हुए साधु को स्थिर करने के लिए उन गाथाओं में अठारह यातो का निर्देश किया गया है। किसी आपत्ति के पाजाने पर साधु फा चित्त चञ्चल हो जाय और संयम के प्रति उसे अरुचि हो जाय तो संयम को छोड़ने से पहले उसे इन अठारह बातों पर विचार करना चाहिए। जिस प्रकार चञ्चल घोड़ा लगाम से और मदोन्मत्त हाथी अंनुश से वश में भा जाते हैं उसी प्रकार इन अठारह बातों का विचार करने से चञ्चल बना हुआ साधु का मन पुनः संयम में स्थिर हो जाता है। वे अठारह ये हैं(१) इस दुःखम काल में जीवन दुःख पूर्वक व्यतीत होता है। (2) गृहस्थ लोगों के कामभोग तुच्छ और क्षणस्थायी हैं। (3) इस फाल के बहुत से मनुष्य कपटी एवं मायावी हैं। (4) मुझे जो दुःख हुआ है वह बहुत काल तक नहीं रहेगा। (5) संयम को छोड़ देने पर मुझे गृहस्थों की सेवा करनी परगी। (6) वमन किए हुए भोगों का पुनः पान करना होगा। (७)ग्रारम्भ और परिग्रह का सेवन करने से नीच गतियों में ले जाने वाले फर्म बंधेगे।
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिमान्त वोल सग्रह, पाचवा भाग 421 (8) पुत्र पौत्रादि के बन्धनों में फंसे हुए गृहस्थों को पूर्ण रूप से धर्म की प्राप्ति होना दुर्लभ है। (8) विचिकादि रोग हो जाने पर बहुत दुःख होता है। (10) गृहस्थ का चित्त सदा संकल्प विकल्पों से घिरा रहता है। (११)गृहस्थावास क्लेश सहित है और संयम क्लेश रहित है। (12) गृहस्थावास बन्धन रूप है और संयम मोक्ष रूप है। (13) गृहस्थावास पाप रूप है और चारित्रपाप से रहित है। (14) गृहस्थों के कामभोग तुच्छ एवं सर्व साधारण हैं। (15) प्रत्येक के पुण्य और पाप अलग अलग है। (16) मनुष्य का जीवन कुश के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चञ्चल है। (१७)मेरे बहुत ही प्रवल पाप कर्मों का उदय है इसीलिये संयम छोड़ देने के निन्दनीय विचार मेरे हृदय में उत्पन्न हो रहे हैं। (18) पूर्वकृत फर्मों को भोगने के पश्चात् ही मोक्ष होता है, बिना भोगे नहीं। अथवा तप द्वारा पूर्वकृत फर्मों का क्षय कर देने पर ही मोत होता है। ये अठारह बातें हैं। इन्हीं का निर्देश अठारह गाथाओं में किया गया है। उनका भावार्थ क्रमशः इस प्रकार है। (1) कामभोगों में आसक्त, गृद्ध एवं मूछित बना हुमा अज्ञानी साधु आगामी काल के विषय में कुछ भी विचार नहीं करता। (2) जिस प्रकार स्वर्ग से चर कर मनुप्य लोक में उत्पन्न होने वाला इन्द्र अपनी पूर्व कीऋद्धि को याद कर पश्चात्ताप करता है उसी प्रकार चारित्र धर्म से भ्रष्ट साधु भी पश्चात्ताप करता है। (3) जन साधु संयम का पालन करता है तब तो सब लोगों का बन्दनीय होता है किन्तु संयम से पतित हो जाने के बाद वह अवन्दनीय होजाता है। जिस प्रकार इन्द्र द्वारा परित्यक्ता देवी
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला anA ~ ~ ~ . . पश्चात्ताप करती है उसी प्रकार संयम से भ्रष्ट हुआ साधु भी पश्चात्ताप करता है। (4) संयम में स्थिर साधु सब लोगों का पूजनीय होता है, किन्तु संयम से भ्रष्ट हो जाने के बाद वह अपूजनीय हो जाता है। mazासापरता। संयम भ्रष्ट साधु राज्यभ्रष्ट राजा के समान सदा पश्चात्ताप (5) संयम का पालन करता हुना साधु सर्वमान्य होता है किन्तु संयम छोड़ देने के बाद वह जगह जगह अपमानित होता है। जैसे किसी छोटे से गांव में कैद किया हुआ नगर सेठ पश्चात्ताप करता है उसी प्रकार संयमसे पतित साधु भी पश्चात्ताप करता है। (6) जिस प्रकार लोह के कांटे पर लगे हुए मांस को खाने के लिये मछली उस पर झपटती है किन्तु गले में कांटा फंस जाने के कारण पश्चात्ताप करती हुई मृत्यु को प्राप्त करती है, इसी प्रकार यौवन अवस्था के बीत जाने पर वृद्धावस्था के समय संयम से पतित होने वाला साधु भी पश्चात्ताप करता है। जिस प्रकार मछली न तो उस लोह के कांटे को गले से नीचे उतार सकती है और न गले से बाहर निकाल सकती है, उसी प्रकार वह दृद्ध साधू न तो भोगों को भोग सकता है और न उन्हें छोड़ सकता है। यों ही कप्टमय जीवन समाप्त कर मृत्यु के मुँह में पहुँच जाता है। . (7) विपय भोगों के झूठे लालच में फंस कर संयम से गिरने वाले साधु को जब इष्ट संयोगों की प्राप्ति नहीं होती तब बन्धन में पड़े हुए हाथी के समान वारवार पश्चाताप करता है। (8) स्त्री, पुत्र श्रादि से घिरा हुआ और मोह में फंसा हुमा वह संयमभ्रष्ट साधु कीचड़ में फंसे हुए हाथी के समान पश्चात्ताप करता है। (6)संयम से पतित हुभा कोई कोई साधु इस प्रकार विचार करता है कि यदि मैं साधुपना न छोड़ता और वीतराग प्ररूपित
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग 423 vnAnniv संयम धर्म का पालन करता हुआ शास्त्रों का अभ्यास करता रहता तो आज मैं प्राचार्य पद पर सुशोभित होता। (10) जो महर्षि संयमक्रिया में रत हैं वे संयम को स्वर्गीय सुखों से भी बढ़ कर मानते हैं किन्तु जोसंयम स्वीकार करके भी उस में रुचि नहीं रखते उन्हें संयम नरक के समान दुखदायी प्रतीत होता है। (11) संयम में रत रहने वाले देवों के समान सुख भोगते है और संयम से विरक्त रहने वाले नरक के समान दुःख भोगते हैं, ऐसा जान कर साधु को सदा संयम मार्ग में ही रमण करना चाहिये। (12) संयम और तप से भ्रष्ट साधु बुझी हुई यज्ञ की अग्नि और जिसकी विषैली दाढ़ें निकाल दी गई हैं ऐसे चिपधारी सांप के समान सब जगह तिरस्कृत होता है। (13) ग्रहण किये हुए व्रतों को खण्डित करने वाला और अधर्म मार्ग का सेवन करने वाला संयम भ्रष्ट साध इस लोक में अपयश और अफीनि का भागी होता है और परलोक में नरक आदि नीच गतियों में भ्रमण करता हुआ चिर फाल तफ असह्य दुःख भोगता है। (14) संयम से भ्रष्ट जो साधु कामभोगों में गृद्ध बन कर उनका सेवन करता है वह मर कर नरक आदि नीच गतियों में जाता है। फिर जिनधर्य प्राप्ति रूप बोधि उसके लिए दुर्लभ हो जाती है। (15) संकट आ पड़ने पर संयम से डिगने वाले साधुको विचार करना चाहिए कि नरकों में उत्पन्न होकर मेरे इस जीव ने अनेक कष्ट सहन किये हैं और वहॉकी पल्योपम और सागरोपम जैसी दुःखपूर्ण लम्बी आयु को भी समाप्त करके वहाँ से निकल पाया है तो यह चारित्रविषयक कष्ट तो है ही क्या चीज ? यह तो अभी थोड़े ही समय में नष्ट हो जायगा।
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________ 124 श्री मेठिया जैन प्रन्पमाला (16 ) साधु को संयम के प्रति जव अरुचि उत्पन्न हो उस समय उसे ऐसा विचार करना चाहिए कि मेरा यह अरतिजन्य दाख अधिक दिनों तक नहीं रहेगा क्योंकि जीव की विषयवासना अशाश्वत है। यदि शरीर में शक्ति के रहते हुए यह नष्ट न होगी तो वृद्धावस्था आने पर अथवा मरने परतो अवश्य नष्ट हो जायगी। (१७)जिस मुनि की आत्मा धर्म में दृढ़ होती है,अवसर पड़ने पर वह अपने प्राणों को धर्म पर न्योछावर कर देता है किन्तु संयम मार्ग से विचलित नहीं होता।जिस प्रकार प्रलयकाल की प्रचण्ड वायु भी समेरु पर्वत को फम्पित नहीं कर सकती उसी प्रकार चञ्चल इन्द्रियाँ भी उक्त मनि को धर्म से विचलित नहीं कर सकीं। (18) बुद्धिमान् साधु को पूर्वोक्त रीति से विचार करके ज्ञान और विनय आदि लाभ के उपायों को जानना चाहिए और मन, वचन, काया रूप तीन गुप्तियों से गुप्त होकर जिन वचनों का यथावत् पालन करना चाहिए। (दशवकालिक पहली चूलिका)
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________ भGI पर उन्नीसवां बोल संग्रह 866- कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष घोडगलया य खम्भे कुड्डे माले यसवरि बहु नियले / लंबुत्तर थण उड्डी संजय खलिणे य वायस कवितु // सीसो कंपिय मूई अंगुलि भमुहा य वारुणी पेहा / एए काउसग्गे हवन्ति दोसा इगुणवीसं // ___ अर्थात्- घोटक, लता, स्तम्भकुड्य, माल, शबरी, वधू, निगड, लम्बोत्तर, स्तन, अदिका, संयती,खलीन, पायस,कपित्थ, शीर्षोत्कम्पित, मक, अंगुलिका, वारुणी, प्रेक्षा ये कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष हैं। (1) पोटक दोष- घोड़े की तरह एक पैर कोभाकुंचित कर (मोड़ कर) खड़े रहना। (2) लतादोष- तेज हवा से प्रकम्पित लता की तरह कांपना। (3) स्तम्भकुख्य दोष-खम्भेयादीवाल का सहारा लेना। (4) मालदोष- माल यानि ऊपरी भाग में सिर टेक कर कायोत्सर्ग करना। (५)शवरी दोप-वन रहित शबरी (भिल्लनी)जैसे गुह्यस्थान को हाथों से ढक कर खड़ी रहती है उसी तरह दोनों हाथ गुह्यस्थान पर रख कर खड़े रहना। (६)वधु दोष-कुलवधू की तरह मस्तक झकाकर खड़े रहना। (7) निगड़ दोष-वेड़ी पहने हुए पुरुष की तरह दोनों पैर फैला कर अथवा मिला कर खड़े रहना। (8) लम्वोत्तरदोप-भविधि से चोलपट्टे को नाभि के ऊपर
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________ 426 भी सेठिया जैन पन्थमाला और नीचे घुटने तक रख कर खड़े रहना। (6) स्तन दोप- डांस, मच्छर के भय से अथवा प्रज्ञान से चोलपट्टे द्वारा छाती ढक कर कायोत्सर्ग करना। (10) ऊर्द्धिका दोष- एड़ी मिला कर और पंजों को फैला कर खड़े रहना अथवा अंगूठे मिला कर और एड़ी फैला कर खड़े रहना अद्धिका दोप है। (11) संयती दोष- साध्वी की तरह कपड़े से शरीर ढक कर कायोत्सर्ग करना। (12) खलीन दोप- लगाम की तरह रजोहरण को आगे रख कर खसे रहा। लगाम से पीडित अश्व की तरह मस्तक को ऊपर नीचे हिलाना खलीन दोप है, कई भाचार्य खलीन दोप की ऐसी व्याख्या भी करते हैं। (13) वायस दोप-कौवे की तरह चञ्चल चित्त होकर इधर उधर भारखें घुमाना अथवा दिशाओं की ओर देखना। (14) कपित्थ दोप-पटपदिका (ज) के भय से चोलपट्टे को कपिन्थ की तरह गोलाकार कर जंघादि के बीच रख कर खड़े रहना / मुट्ठी वॉध कर खड़े रहना कपित्थ दोप है ऐसा भी अथ किया जाता है। __ (15) शीर्पोत्कम्पित दोप- भूत लगे हुए व्यक्ति की तरह सिर धुनते हुए खड़े रहना। (16) मूक दोष-मुक व्यक्ति की तरह हुँ हुँ इस तरह अव्यक्त शब्द करते हुए फायोत्सर्ग करना / __ (17) अंगुलिकाभ्र दोप- पालापकों (पाठ की आवृत्तियों) को गिनने के लिए अंगुली हिलाना एवं दूसरे व्यापार के लिए भौंह चला कर संकेत करना। (18) वारुणी दोप- तैयार की जाती हुई शराय से जैसे 'बुड
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिमान्त बोल संग्रह. पांचवां भाग 427 बुढ' शब्द निकलता है उसी प्रकार अव्यक्त शब्द करते हुए खड़े रहना अथवा शराबी की तरह झूमते हुए खड़े रहना / (16) प्रेक्षा दोप-नवकार आदि का का चिन्तन करते हुए वानर की तरह अोठों को चलाना। योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने कायोत्सर्ग के इक्कीस दोष बतलाये हैं। उनके मतानुसार स्तम्भ दोष, कुडयदोष, अंगुली दोष और भ्र दोष चार हैं, जिनका ऊपर स्तम्भकुड्य दोष, अंगुलिकाभ्र दोष इन दो दोषों में समावेश किया गया है। (भावश्यक कायोत्सर्गाध्ययन गा• 1546-47 ) (प्रवचन सारोद्धार गाथा 247--262) (योगशास्त्र तृतीय प्रकाश) 600- ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र की 16 कथाएं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के गौतम स्वामी श्रादि ग्यारह गणधर हुए हैं। "उप्पण्णेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा" इस त्रिपदी का ज्ञान प्राप्त कर गणधरों ने द्वादशाङ्गी की रचना की,जिसमें ज्ञान दर्शन चारित्र ये तीन मोक्ष के उपाय बतलाए गए हैं। सव शास्त्रों के मुख्य रूप से चार विभाग हैं- द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग और धर्मकथानुयोग। छठे अङ्ग ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र में कथानुयोग का वर्णन है। भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधरों में से पाँचवें गणघर श्री सुधर्मा स्वामी की ही पाट परम्परा चली है। वर्तमान द्वादशांगी के रचयिताश्री सुधर्मा स्वामी ही माने जाते हैं। उनके प्रधान शिष्य श्री जम्बूस्वामी ने प्रश्न किये हैं और उन्होंने उत्तर दिये हैं। उत्तर देते समय मुधर्मा स्वामी ने प्रत्येक स्थल में ये शब्द कहे हैंहे भायुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने भगवान् महावीर स्वामी से मुना है, वैसा ही तुझे कहता हूँ।
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________ 428 श्री सेठिया जैन ग्रन्धमाला इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि इस द्वादशांगी का कथन सर्वज्ञ देव श्री महावीर स्वामी ने भव्य प्राणियों के हितार्थ किया। इसमें श्री गौतम स्वामी और श्री सुधर्मा स्वामी की स्वतन्त्र प्ररूपणा कुछ भी नहीं है। जैसा भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया है वैसा ही मै तुझे कहता हूँ' इस वाक्य से श्री सुधर्मा स्वामी ने "माणाए धम्मो” अर्थात् वीतराग भगवान् की आज्ञा में ही धर्म है और उनके वचन को विनय पूर्वक स्वीकार करना धर्म का मुख्य अंग है, इस तत्त्व का भली भांति प्रतिपादन किया है। श्री जम्बू स्वामी ने बारबार प्रश्न किये हैं। इससे यह बतलाया गया है फि शिष्य को विनयपूर्वक जिज्ञासा बुद्धि से प्रश्नकरके गुरु से ज्ञान ग्रहण करना चाहिए क्योंकि विनयपूर्वक ग्रहण किया हुमा ज्ञान ही आत्मकल्याण में सहायक होता है। ___ जम्बू स्वामी के प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि छठे अंग श्री ज्ञाताधर्मफया के दो श्रुतस्कन्ध कहे गए हैं- ज्ञाता और धर्म कथा। ज्ञाता नामक मथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन हैं। प्रत्येक अध्ययन में एक दृष्टान्त (उदाहरण) दिया गया है और अन्त में दाष्टोन्तिक के साथ मुन्दर समन्वय करके धर्म के किसी एक तत्त्व को दृढ़ किया गया है / यह सम्पूर्ण सूत्र गद्यमय है। कहीं कहीं पर कुछ गाथाएं दी गई हैं। इस शास्त्र में नगर, उधान, महल, शय्या, समुद्र, खम, स्वमों के फल मादिका तथा हाथी, घोडे, राजा, रानी, सेठ, सेनापति आदि जंगम पदार्थों का वर्णन बहुत विस्तारपूर्वक दिया गया है / कथा भाग की अपेक्षा वर्णन का भाग अधिक है / जहॉ पर पूर्व पाठ का वर्णन फिर से पाया है वहाँ "जाव (यावत्)" शब्द देकर पूर्व पाट की भलामण दी गई है। सामान्य ग्रन्थ की अपेक्षा शास्त्र में गम्भीरता और गुरुगमता
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग 426 विशेष होती है। इस लिए शास्त्र अध्ययन के अभिलाषी मुमुक्ष आत्माओं को शास्त्र का अध्ययन श्रद्धा पूर्वक गुरु के पास ही करना चाहिए। इस तरह से प्राप्त किया हुआ ज्ञान ही आत्मकल्याण में विशेष सहायक होता है। (1) मेधकुमार की कथा पहला अध्ययन- विनय का स्वरूप बतलाने के लिए पहला अध्ययन कहा गया है। इसका नाम 'उत्तिप्त है। यदि कोई शिष्य अविनीत हो जाय तो उसे मीठे वचनों से उपालम्भ देकर गुरु को चाहिए कि वह उसे विनय मार्ग में प्रवृत्ति फरावे। इस प्रकार रूपदेश देने के लिए पहले अध्ययन में मेघकुमारका दृष्टान्त दिया गया है। राजगृह नगर में श्रेणिक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम नन्दा देवी था। उसकी कुति से उत्पन्न हुआ अभयकुमार नाम का पुत्र था। वह राजनीति में बहुत चतुर था। औत्पातिकी, वैनयिफी श्रादि चारों बुद्धियों का निधान था। वह राजा फामंत्री था। श्रेणिक राजा की छोटी रानी का नाम धारिणी था। एक समय रात्रि के पिछले पहर में उसने हाथी का शुभ स्वम देखा / राजा के पास जाकर उसने अपना स्वम सुनाया। राजा ने कहा- देवि ! इस शुभस्वम के प्रभाव से तुम्हारी कुति से किसी पुण्यशाली प्रतापी बालक का जन्म होगा / यह सुन कर रानी बहुत प्र दूसरे दिन प्रातःकाल खमपाठकों को बुला कर राजा ने स्वम का अर्थ पूछा / उन्होंने बतलाया कि यह स्वमवहुत शुभ है। रानी की कुति से फिसी पुण्यशाली प्रतापी बालफ का जन्म होगा। यतनापूर्वक अपने गर्भ का पालन करती हुई धारिणी रानी समय पिताने लगी। तीसरे महीने में रानी को अफाल मेघ का दोहद (दोइला) उत्पन्न हुभा। वह सोचने लगी-विजली सहित
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________ 43. श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला wrrrrr ~ गर्जता हुआ मेघ हो,छोटी छोटी बूंदें पड़ रही हों,सर्वत्र हरियाली हो, मोर नाच रहे हों आदि सारी बातें वर्षाऋतु की हों। ऐसे समय में वनक्रीड़ा करने वाली माताएं धन्य हैं। यदि मुझे भी ऐसा योग मिले तो वैभार पर्वत के समीप क्रीड़ा करती हुई में अपना दोहद पूर्ण करूँ। __ धारिणी रानी की इच्छा पूरी न होने से वह प्रतिदिन दुर्बल होने लगी। दासियों ने जाकर राजा को इस बात की सूचना दी। राजा ने रानी से पूछा-प्रिये ! तुम्हारे दुर्बल होने का क्या कारण है और तुम इस प्रकार वार्तध्यान क्यों कर रही हो? तव रानीने अपने दोहद की बात कही / राजा ने कहा-मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे तुम्हारी इच्छा शीघ्र ही पूर्ण होगी / इस प्रकार रानी को आश्वासन देकर राजा वापिस अपने माल में चला पाया / रानी के दोहद को पूर्ण करने का वह उपाय सोचने लगा किन्तु उसे कोई उपाय न मिला / इससे राजा मार्तध्यान करने लगा। इसी समय अभयकुमार अपने पिता के पादवन्दन करने के लिए वहाँ आया। अभयकुमार के पछने पर राजा ने उसे अपनी चिन्ता का कारण बता दिया / अभयकुमार ने कहा-पिताजी! भाप चिन्ता मत कीजिये / में शीघ्र ही ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे मेरी लघु माता का दोहद शीघ्र ही पूरा होगा। अपने स्थान पर आकर अभयकुमार ने विचार किया कि अकाल मेघ फा दोरला देवता की सहायता के बिना पूरा नहीं हो सकता। ऐसा विचार कर अभयकुमार पौषधशाला में भाया। अहम तप (तीन उपवास) स्वीकार करके अपने पर्वभव के मित्र देव का स्मरण करता हुआ वह समय विताने लगा। तीसरे दिन अभयकुमार का पूर्व मित्र सौधर्म फल्पवासी एक देव उसके सामने प्रकट हुआ। अभयकुमार ने उसके सामने अपनी इच्छा प्रकट की।
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________ औजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग 431 ~~rn romawrrrrr ... wrimar - . . m mm देव ने कहा- हे आर्य! मैं मकाल में वर्षाऋतु की विक्रिया (रचना) करूँगा जिससे तुम्हारी लघुमाता का दोहद पूर्ण होगा। ऐसा कह कर वह देव वापिस अपने स्थान पर चला गया। दसरे दिन देव ने वर्षाऋतु की विक्रिया की / आकाश में सर्वत्र मेघ छा गये और छोटी छोटी बूंदें गिरने लगीं। हाथी पर बैठ कर रानी धारिणी राजा के साथ वन में गई। वैभार पर्वत के पास वनक्रीड़ा करती हुई रानी अपने दोहले को पूर्ण करने लगी।दोहला पूर्ण होने पर रानी को बड़ी प्रसन्नता हुई। नौ मास पूर्ण होने पर रानी की कुक्षि से एक पुत्र का जन्म हुआ। दासियों द्वारा पुत्रजन्म की सूचना पाकर राजा को बहुत हर्ष हुआ / गर्भावस्था में रानी को मेघ का दोहला उत्पन्न हुआ था इसलिए पुत्र का नाम मेघकुमार रखा गया। योग्य वय होने पर मेघकुमार को पुरुष की 72 कलाओं की शिक्षा दी गई। युवावस्था को प्राप्त होने पर मेघकुमार का विवाह सुन्दर, सुशील और स्त्री की 64 कलाओं में प्रवीण आठ राजकन्याओं के साथ किया गया। एक समय भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के बाहर गुणशील नामक उद्यान में पधारे। भगवान् का आगमन छुनकर प्रजाजन, राजा और मेघकुमार भगवान् को वन्दना करने के लिए गये। भगवान् ने धर्मोपदेश फरमाया। उपदेश सुन कर मेघकुमार को संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया। घर आकर माता पिता से दीक्षा लेने की आज्ञा मांगी। बड़ी कठिनाई के साथ माता पिता से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त की। राजा श्रेणिक ने बड़े समारोह और धूमधाम के साथ दीक्षामहोत्सव किया। मेघकुमार दीक्षा लेकर ज्ञानाभ्यास करने लगे। रात्रि के समय जब सोने का वक्त आया तब मेघकुमार का विछौना सब साधुओं
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमामा orrr- ~ ~ ~ rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrror के अन्त में किया गया क्योंकि दीक्षा में वे सब से छोटे थे। रात्रि में इधर उधर माने जाने वाले साधुओं के पादसंघट्टन से मेघकुमार को नींद नहीं आई। नींद न आने से सेधकुमार प्रतिखेदित हुए और विचार करने लगे कि प्रातःकाल ही भगवान् की आज्ञा लेकर ली हुई इस प्रव्रज्या को छोड़ कर वापिस अपने घर चला जाऊँगा। ऐसा विचार कर प्रात:काल होते ही मेघकमार भगवान् के पास आज्ञा लेने को भाये / मेघकुमार के विचारों एवं उसके मनोगत भावों को फेवलज्ञान से जान कर भगवान् फरमाने लगे कि हे मेघ ! तुम इस जरा से फष्ट से घबरा गये।तुम अपने पूर्वभव को तो याद करो। पहले हाथी के भव में वन में लगी हुई दावानल को देख कर तुम भयभ्रान्त होकर वहाँ से भागने लगे किन्तु आगे जाकर तालाब के कीचड़ में बहुत बुरी तरह से फंस गये और बहुत कोशिश करने पर भी निकल न सके / इतने में एक दूसरा हाथी प्रागया और उसके दंत प्रहार से मर कर फिर दूसरे जन्म में भी हाथी हुए। एक वक्त जंगल में लगी हुई दावानल को देख कर तुम्हें जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। ऐसे दावानल से बचने के लिए गंगा नदी के दक्षिण किनारे पर एक योजन का लम्वा चौड़ा एक मण्डल बनाया। एक वक्त जंगल में फिर आग लगी उससे बचने के लिए फिर तुम अपने मण्डल (घेरा)में आये। वहाँ पहले से ही बहुत से पशु,पक्षी पाकर ठहरे हुए थे। मण्डल जीवों से खचाखच भरा हुआ था। बड़ी मुश्किल से तुम को थोड़ी सी जग मिली / कुछ समय बाद अपने शरीर को खुजलाने के लिए तुमने अपना पैर उठाया। इतने में दूसरे बलवान् प्राणियों द्वारा धकेला हुआ एक शशक (खरगोश) उस जगहमा पहुँचा। शरीर कोखुजला कर जब तुम वापिस अपना पैर नीचे रखने लगे तोएक शशक को वैठा हुया देखा। तव
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________ भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग 433 rmmmmmmrrrrrrrr marrrrr . . . . . . ~~ w.. पाणाणुकंपाए,भूयाणुकपाए,जीवाणुकंपाए,सत्ताणुकंपाए ___ अर्थात्- प्राण, भूत, जीव, सत्वों की अनुकम्पा से तुमने अपना पैर ऊपर अधर ही रखा किन्तु नीचे नहीं रखा। उन प्राण (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय),भूत (वनस्पतिफाय),जीव (पञ्चेन्द्रिय जीव) और सत्वों (पृथ्वीकाय,अपकाय,तेउकाय,वायुकाय) की अनुकम्पा करके तुमने संसार परित्त किया और मनुष्य भायु का पंध किया / अढाई दिन में वह दावानल शान्त हुआ।सव पशु वहाँ से निकल कर चले गये / समने चलने के लिए अपना पैर लम्बा किया किन्तु तुम्हारा पैर अकड़ गया जिससे तुम एकदम पृथ्वी पर गिर पड़े और शरीर में अत्यन्त वेदना उत्पन्न हुई। तीन दिन तक वेदना को सहन कर सौ वर्ष की आयुष्य पूर्ण करके तुम धारिणी रानी के गर्भ में पाये। हे शेष! सिर्यश्च के भव में प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों पर अनुकम्पा कर तुमने पहले कभी नहीं प्राप्त हुए सम्यक्त्व रन की प्राप्ति की। हे मेध! अब तुम विशाल कुल में उत्पन्न होकर गृहस्थाबास को छोड़ साधु बने हो तो क्या साधुओं के पादस्पर्श से होने वाले जरा से कष्ट से घबरा गये। ___ भगवान् के उपरोक्त वचनों को सुन फर मेघकुमार को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन होगया। पिर भेघ कुमार ने संयम में दृढ़ होकर भगवान् की आज्ञा से भिक्ष की बारह पडिमा अङ्गीकार की और गणरत्नसंवत्सर वगैरह तप किये। अन्त में संलेखना संथाराफर के विजय नामक अनुत्तर विमान में 33 सागरोपम की स्थिति बाला देव हुआ। वहॉ से चल कर महाविदेह क्षेत्र में पैदा होकर गंयम होगा और मोक्ष जायगा। जिस प्रकार संयम से विचलित होते हुए मेघकुमार को भग वान ने मधुर शब्दों से उपान्तम्भ देकर संयत्र में स्थिर कर दिया
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री संठिया जैन प्रमाला ~~~ ~ ~ www wwnwwwwwvvvvvv nwu उसी प्रकार गुरु को चाहिए कि संयम से विचलित होते हुए शिष्य को मधुर शब्दों से समझा कर पुनः संयम मे स्थिर कर दे। (2) धन्ना सार्थवाह और विजय चोर को कथा दूसरा संघट ज्ञात अध्ययन- अनुचित प्रवृत्ति करने वाले को अनर्थ को प्राप्ति होती है और सम्यग् भर्थ की प्राप्ति नहीं होती तथा उचित प्रवृत्ति करने वाले को सम्यग् अर्थ की प्राप्ति है / यह वतलाने के लिए धन्ना सर्थवाह और विजय नामक चोर का दृष्टान्त दूसरे अध्ययन मे दिया गया है। गजगृह नगर में धन्ना नामक एक सार्थनाह रहना था / उसी नगर में विजय नाम का एक चोर रहता था। वह बहुत ही पाप कर्म करने वाला और क्रूर था। एक समय धन्ना सार्थवाह की स्त्री भद्रा ने अपने पुत्र देवदत्त को स्नान मञ्जन करा कर तथा श्राभूषणों से अलंकृत कर अपने दास पंथक के हाथ में देकर बाहर खिलाने के लिए भेजा। पंथक दास देवदत्त को एक जगह बिठा कर दूसरे चालकों के साथ खेलने लग गया। इतने में विजय नामक चोर वहाँआ पहुँचा और देवदत्त बालक को उठा ले गया। एकान्त में ले जा कर उसे मार डाला और उसके सारे आभषण उतार लिए। उसके मृतक शरीर को एक कर में डाल कर मालुककच्छ मे छिप गया। धन्ना सार्थवाह ने पुलिस को खबर दी। पुलिस ने विजय चोर को ढूंढ कर उसे कैदखाने में डाल दिया। ___ एक बार राज्य के कर (महसूल) की चोरी करने के कारण धन्ना सार्थवाह राज्य का अपराधी साबित हुआ। इसलिए उसे भीकैदखाने में डाल दिया और संयोगवश उसी खोड़े में डाला जिसमें आगे विजय चोर था। खोड़ा एक होने के कारण दोनों का भाना जाना, उठना बैठना एक ही साथ होता था। जव धन्ना साथै
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________ . . . . ~~ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पाचवा भाग -~in ram rm umrammwww w amar in umr nrnwww. . वाह टही, पेशाव भ्यादि करने के लिए जाने की इच्छा करता तो वह चोर साथ चलने से इन्कार हो जाता। तब दसरा कोई उपाय न होने के कारण धन्ना सार्थवाह अपने भोजन में से थोड़ा योजन उस चोर को भी देता और उसे अपने अनुकूल ररवता / जब धभा सार्थयाह कैद से छूट कर घर माया तो अपने पुत्र की हत्या करने वाले चोर को भोजन देने के कारण उसकी पत्नी ने उसका तिरस्कार किया और उपालम्भ दिया। तव धन्ना ने उस चोर को भोजन देने का कारण समझाया और अपनी पत्नी के क्रोध फो शान्त किया। उपरोक्त दृष्टान्त देकर शास्त्रकार ने इसका निगमन (उपनय) इस प्रकार घटाया है-राजगृह नगर के समान मनुष्य क्षेत्र है। धन्ना सार्थवाह के समान साधु है। विजय चोर के समान शरीर है। पुत्र के समान निरुपम श्वानन्द को देने वाला संयम है। अयोग्य आचरण करने से इसका विनाश हो जाता है / आभूषणों के समान शब्दादि विषय हैं। इनका सेवन करने से संयम का विनाश हो जाता है। हडिबन्धन (खोड़े) के समान जीव और शरीर का सम्बन्ध है। राजा के समान कर्य परिणाम और रामपुरुषों के समान कर्मों फे भेद हैं। छोटे से अपराध के समान मनुष्यायु वध के कारण हैं। मलमूत्रादि की निवृत्ति के समान प्रत्युपेक्षण (पडिलेहना) आदि कार्य हैं अर्थात् जिस प्रकार अपने भोजन में से कुछ हिस्सा विजय चोर को न देने से वह यलमूत्रादि की निवृत्ति के लिए धन्ना सार्थवाह के साथ नहीं जाना था इसी प्रकार इस शरीर को भोजन आदि न देने से पहिलेहणा आदि संगम क्रियाओं में सम्यक प्रवृत्ति नहीं हो सकती / पन्थफ दास के समान मुग्ध (शब्दादि विषयों में आसक्त होने वाला) साधु है / सार्थवाही के समान आचार्य है। दूसरे साधुओं से सुन कर वे भोजनादि से पुष्ट शरीर वाले साधु को
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________ 136 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ~~~~~~ ~~~ ~ " " ... ~ ~ उपालम्भ देने लगते हैं किन्तु उस साधु के द्वारा वेदना को शान्ति, वैयावञ्च आदि कारण बतला देने पर वे आचार्य सन्तुष्ट हो जाते हैं। जिस तरह धन्ना सार्थवाह ने दसरा उपाय न होने के कारण अपने पुत्र को मारने वाले चोर को भोजन दिया इसी तरह साधु को चाहिए कि सिर्फ संयम के निर्वाह के लिए चोर समान इस शरीर को भोजन दे, शरीर की पुष्टि प्रादि किसी दूसरे उद्देश्य कोलिए नहीं। जिस तरह सराय में ठहरने के लिए मकान का भाडादेना पड़ता है उसी तरह संयम निर्वाह के लिए शरीर को भोजन रूपी भाड़ा देना चाहिए। (3) जिनदत्त और सागरदत्त को कथा तीसरा अण्डक ज्ञात अध्ययन-समफिल की शुद्धि के लिएशका दोष का त्याग करना चाहिए / शंका छोष का त्याग करने वाले परुप को शुद्ध समकित रत्न की प्राप्ति होती है और शंकाआदि करने वाले को समकित रत्न की प्राप्ति नहीं होती / इस बात को बताने के लिए तीसरे अध्ययन में अण्डे का दृष्टान्त दिया गया है। __चम्पा नगरी के अन्दर जिनदत्त और सागरदत्त नाम के दो सार्थवाष्ठ पुत्र रहते थे। वे दोनों बालमित्र थे। क्रीड़ा के लिए उद्यान में गए हुए दोनों मित्रों ने एक जगह मयूरी के अण्डे देखे / उन अण्डोको उठा कर वे दोनों मित्र अपने अपने घर ले आये और बूकड़ी के अण्डों के साथ रख दिये। सागरदत्त को यह शङ्का हुई कि इन अण्डों में से मयूरी के बच्चे पैदा होंगे या नहीं ? इसलिए वह उनको वारवार हिला कर देखने लगा। हिलाने से वे अण्डे निर्जीव हो गये। जिससे उसको अति खेद और चिन्ता हुई। जिनदत्त ने उन अण्डों के विषय में कोई शहा न की, इसलिए
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सपा, पाचवा भाग 137 ~~~~~~ उनको हिलाया डुलाया भी नहीं,जिससे समय पर उन अण्डों से मयूरी के बच्चे पैदा हुए। फिर वह उन बच्चों को मयूर पोषक से शिक्षित फरा फर नृत्य और क्रीढ़ाएं करवाता हुआ आनन्द का अनुभव करने लगा। उपरोक्तष्टान्त देकर शास्त्रकार ने साधसाध्वी श्रावक श्राविका को यह उपदेश दिया है कि बीतराग जिनेश्वर देव के कहे हुए तत्त्वों में किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिए क्योंकि सन्देह ही अनर्थ का कारण है। जिन वचनों में निःशंक रहना चाहिए। यदि कदाचित् शास्त्र का कोई गहन तत्व बराबर समझ मेंन आवे तो अपनी बुद्धि की मन्दता और शानावरणीय का उदय सपा कर कभी विद्वान् आचार्य का संयोग मिलने पर उस तत्व का निर्णय फरने की बुद्धि रखनी चाहिए किन्तु शंकित न होना चाहिए / तहमेव सच्च निस्संकं जं जिणेहि पवेइयम् / अर्थात्-जो केवली भगवान् ने फरमाया है वही सत्य है। ऐसी वृद्ध श्रद्धा रखनी चाहिए क्योंकि तीर्थङ्कर देवों ने फेवल संसार के प्राणियों के परोपकार के लिए ही इन तत्वों का प्रतिपादन किया है। वैरागद्वेष और मोह से रहित होते हैं इसलिए उनको झूठ बोलने का कोई कारण ही नहीं है / अतः वीसराग जिनेश्वर के वचनों में निःशान्ति और निष्कांक्षिस होना चाहिए / (4) कछुए और शृगाल की कथा चौथा कूर्मज्ञात'अध्ययन-अपनी पॉच इन्द्रियों को वश में रखने से गुण की प्राप्ति होती है और वश में न रखने से अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं। इसके लिए दो कछओं दृष्टान्त इस अध्ययन में दिया गया है। वाराणसी नगरी के बाहर गंगा नदी के किनारे एक द्रह था।
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________ 438 भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला * ~. . . . . . . . . उसमें दो कछुए रहते थे। उस द्रह के पास ही एक मालुफाकच्छ था। वहॉ दोषपी शगान (सियालिए) रहते थे। एक दिन उन दोनों ने उन छुयों को देखा। शृगालों को देखते ही दोनों कछुओं ने अपने शरीर के सब अङ्गों को संशोच लिया जिससे वे शगाल उनका कुछ भी नुकसान नहीं कर सके किन्तु थोड़े समय बाद ही उनमें से एक कछुए ने उन शगालों को दर गए हुए समझकर धीर धीर अपनी गर्दन और पर बाहर निकाले / उसके पैरों को बाहर निकले हुए देख फर बे पापी शगाल शीघ्रतापूर्वक वहाँ पाए और उस कछुए के शरीर के अगों को छेद दाला और उसे जीवन रहित कर डाला। दूसरा फछुआ, जिसने अपने अङ्ग गुप्त रखे और बाहर नहीं निकाले, पापी शृगाल उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सके और वह कछुआ उस दर में मानन्दपूर्वक रहने लगा। इस दृष्टान्स का उपनय घटाते हुए शास्त्रकार ने बतलाया कि दो मछुओं के समानदोसाधु समझने चाहिएं। चार पैर और ग्रीवा फे समान पाँच इन्द्रियों है। बाहर निकालने के समान शब्दादि विषय हैं। उनमे प्रवृत्ति करना राग, द्वेप रूपी दो शगाल हैं। इन दोनों के वश में होने से संयम का घात हो जाता है। जो साधु इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्त नहीं होता वह दूसरे कछुए की तरह द्रह सुख के समान मोक्ष सुरस को माप्त करता है और इन्द्रिय मुख में लोलुप साधु संसार सागर में परिभ्रमण करता हुआ अनन्त दुःरनों को भोगता है। इसलिए साधु को इन्द्रियों के हरवों में तथा शब्दादि विषयों में लोलुप नहीं होना चाहिए। (5) शैलक राजर्षि की कथा पाँचवाँ शैलक ज्ञात अध्ययन-यदि फिसी कारण से कोई साधु इन्द्रियों के वश में पड़ कर संयम में शिथिल पड़ जाय परन्तु फिर
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, शचवा भाग 436 अपनी भूल को समझ कर संयम मार्ग में दृढ़ हो जाय तो वह भी अपने अर्थ की सिद्धि कर सकता है इसके लिए शैलक राजर्षि का दृष्टान्त दिया गया है। द्वारिका नगरी में कृष्ण वादेव राज्य करते थे। उनके राज्य में थावच्च पुत्र नामक एक सार्थवाहपुत्र रहता था। एक समय भगवान् नेमिनाथ स्वामी वहॉ पधारे। उनका धर्मोपदेश सुन कर थावच्चापुत्र को वैराग्य उत्पन्न हो गया और एक हजार पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की। भगवान् की आज्ञा लेकर थावच्चापुत्र अनगार एक हजार साधुओं के साथ अलग विहार करने लगे। एक वारविहार करते हुए सेलकपुर पधारे। वहाँ का राजा शैलफ अपने पन्थक आदि पाँच सौ मन्त्रियों सहित उनका धर्मोपदेश सुनने के लिए पाया। प्रतिवोध प्राप्त कर उसने श्रावकधर्मअंगीकार किया। उस समय शुक परिव्राजफ एफ एजार परिव्रामकों सहित अपने मत का उपदेश देता हुआ विचरताथा। विचरसा हुथा वह सौगन्धिका नगरी में आया। उसका उपदेश सुन कर सुदर्शन सेठ ने शौचधर्म अङ्गीकार किया। धिका नगरी में पधारे। उनका धर्मोपदेश सुनने के लिए नगर जनों के साथ सुदर्शन सेठ भी गया / उनका उपदेश सुन कर सुदर्शन सेठ ने शौचधर्म का त्याग कर दिया और विनय धर्म स्वीकार कर श्रावक व्रत अङ्गीकार कर लिये / इस बात को जान कर शक परिव्राजक वहाँ आया किन्तु सुदर्शन ने उसका आदर सत्कार नहीं किया। इसके पश्चात् वष्ठ सुदर्शन सेठ को साथ लेकर थावचापत्र अनगार के पास गया और बहुत से प्रश्न किये। उनका युक्तियुक्त उत्तर सन कर शुक परिव्राजक को सम्यग तत्त्व का बोध होगया और अपने हजार शिष्यों सहित थावच्चापुत्र अनगार के
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला पास प्रव्रज्या अङ्गीकार कर ली। अपने धर्माचार्य श्रीथावच्चापुत्र अन. गार की आमा लेझरशुक निम्रन्थ अपने एक हजार शिष्यों सहित अलग विहार करने लगे। कुछ समय पश्चात् थावच्चापुत्र मनगार को केवलज्ञान उत्पन्न होगया और वे मोक्ष में पधार गये। __ एक समय विहार करते हुए शुरु निग्रंन्ध सेलकपुर पारे / शैलक राजा ने अपने पुत्र मण्डूक को राज सिंहासन पर बिठा कर शुफ निग्रन्थ के पास पंथक प्रादि 500 मन्त्रियों सहित दीक्षा अङ्गीकार कर ली और विचरने लगे। शुक निर्ग्रन्थ की याज्ञा अनुसार शैलक राजर्षि पंथफ आदि 500 शिष्यों सहित अलग विहार करने लगे। कुछ काल बाद शुक निर्ग्रन्थ को फेवलज्ञान उत्पन्न हो गया और वे मोक्ष पधार गये। ग्रामानुग्राम विहार कर धर्म का उपदेश करते हुए शैलक राजर्पि के शरीर में पित्त ज्वर की बीमारी हो गई। सेलफपुर के राजा मण्डूक की आज्ञा लेकर वे उसकी दानशाला में ठहर गये। राजा ने चतुर वैद्यों द्वारा उनकी चिकित्सा करवाई जिससे थोड़े ही समय में स्वस्थ हो गये। स्वस्थ हो जाने के बाद भी धनोज्ञ अशन, पान खादिम स्वादिम आदि में मृच्छित हो जाने के कारण शैलक राजर्षि ने वहाँ से विहार नहीं किया। शैलक राजर्षि की यह दशा देख कर दूसरे सब साधुओं ने वहाँ रो विहार कर दिया सिर्फ एक पंथक साधु उनकी सेवा में रहा। एक दिन कार्तिक चातुमासिक प्रतिक्रमण करके पंथक निब्रन्थ ने शैलक राजर्षि को खमाने के लिए उनके चरणों का स्पर्श किया। उस समय शैलक राजर्षि अशन पान आदि का खव आहार करके मुख पूर्वक सोते हुए थे। पैरों का स्पर्श करने के कारण उनकी निद्रा भङ्ग हो गई जिससे वे कुपित हो गये। पंथक निर्ग्रन्थ ने विनय पूर्वफ अर्ज की कि- पूज्य ! आज चौमाती पर्व है। चौमासी प्रतिक्रमण करके
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्न बोल मंग्रह, पाच ग भाग 441 ~~*~* * * * *mn . मैं भापको रवमाने के लिए आया हूँ। मेरी तरफ से आपको जो कष्ट हुआ है उसके लिए मैं क्षमा चाहता है। पंथक मनि के उपरोक्त वचनों को सन कर शैलक राजर्षि को प्रतिबोध हुआ और विचार करने लगे कि राज्य का त्याग करके मैंने दीक्षा ली है अब मुझे अशनादि में मूर्छाभाव रख कर संयम में शिथिल न बनना चाहिए। ऐसा विचार कर शैलक रामर्षि दूसरे दिन प्रातः काल ही मण्डूक राजा को उसके पीठ फलक आदि सम्भला कर संयम में दृढ़ हो कर विहार करने लगे। इस वृत्तान्त को मन कर उनके दूसरे शिष्य भी उनकी सेवा में आगये और गुरु की सेवा शुश्रूषा करते हुए विचरने लगे। बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन कर शैलक राजर्पि और पंथक आदि पाँच सौ ही निग्रन्धों ने सिद्ध पद प्राप्त किया / इस अध्ययन के अन्त में भगवान् ने मुनियों को उपदेश करते हुए फरमाया है कि जो साधु साध्वी प्रमाद रहित होकर संयम मार्ग में प्रवृत्ति करेंगे वे इस लोक में पूज्य होंगे और अन्त में मोक्ष पद को प्राप्त करेंगे। (6) तुम्बे का दृष्टान्त छठा 'तुम्बक ज्ञात' अध्ययन-प्रमादी को अनर्थ की प्राप्ति और अप्रमादी को अर्थ की प्राप्ति होती है अर्थात् प्रमाद से जीव भारीकर्मा और अप्रमाद से लघुकर्मा होता है। इस बात को बतलाने के लिए छठे अध्ययन में तुम्बे का दृष्टान्त दिया गया है। जैसे किसी तुम्बे पर डाभ और कुश लपेट कर मिट्टी का लेप कर दिया जाय और फिर उसे धूप में सुखा दिया जाय / इसके बाद क्रमशः हाभ और कुश लपेटने हुए आठ बार उसके ऊपर मिट्टी का लेप कर दिया जाय / इसके पश्चात् उस गुम्बे को पानी
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________ 442 श्री मेठिया बैन पन्थमाला ~~rnmmmm mmmm ~ or or narr m ammmmmmmmmm में छोड़ दिया जाय तो वह मिट्टी के लेप से भारी होने के कारण पानी के तल भाग में नीचे चला जायगा / पानी में पड़ा रहने के कारण ज्यों ज्यों उसका लेप गल फर उतरता जायगा त्यों त्यों वह ऊपर की तरफ उठता जायगा। जब उस पर से आठों लेप उतर जायेंगे तव वह तुम्वा पानी के ऊपर भाजायगा। तुम्वेमा दृष्टान्त देकर शास्त्रकार ने यह बताया कि इसी प्रकार जीव प्राणातिपात आदि अठारह पापस्थानों का सेवन कर पाठ कर्मों का उपार्जन करते हैं जिससे भारी होकर वे नरकादि नीच गतियों में जाते हैं। आठ कर्मों से मुक्त हो जाने के पश्चात् जीव लोकाग्र में स्थित सिद्धस्थान (मुक्ति) में पहुँच जाते हैं। भतः जीवों को प्राणातिपात श्रादि पापों से निवृत्ति करनी चाहिए। (7) चार पुत्रवधुओं की कथा सातवां 'रोहिणी झाल' अध्ययन-पाँच महाव्रतों का सन्यग् पालन करने वाले आराधक साधु को शुभ फल की प्राप्ति होती है और विराधक को अशुभ फल की प्राप्ति / इस वात को बताने के लिए सातवें अध्ययन में रोहिणी श्रादि का दृष्टान्त दिया गया है। __राजगृह नगर के अन्दर धन्ना नाम का एक सार्थवाह रहता था। उसके भद्रा नाम की भार्या थी। उसके धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरचित नाम के चार पुत्र थे। इनकी भार्याओं के नाम क्रमशः उज्झिका, भोगवती, रतिका और रोहिणी था। धन्ना सार्थवाह ने अपनी पुत्रवधुओं की बुद्धि की परीक्षा करने के लिए सव कुटुम्बी परुपों के सामने प्रत्येक को पाँच पाँच शालिकण (छिलके सहित चावल) दिये। उनको लेकर ज्येष्ठ पुत्रवधू ने तो फेंक दिया, दूसरी ने आदरपूर्वक खा लिया, तीसरी ने बड़ी हिफाजत के साथ अपने जेवरों की पेटी में रख दिया, चौथी ने
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिमान्त बोल सप्रह, पाचवा भाग 143 mammarnnr mm~ उन शालिकणों को लेकर अपने बन्धु वर्ग को दे दिया और कहा कि वर्षा होते ही इन शालिकणों को साफ किये हुए खेत में वो देना और बड़े होने पर फिर दूसरी जगह बोना इस तरह क्रमशः बोते रहना। बन्धुवर्ग ने उसके कथनानुसार कार्य किया। इस प्रकार पाँच वर्ष बीत गये। एक समय श्वसुर ने पुत्रवधुओं से वे पाँच शालिकरण वापिस मॉगे तब उन्होंने अपना अपना वृत्तान्त कह सुनाया। छोटी पुत्रबधू ने उन शालिकणों से पैदा हुए शालि धान्य के कई गाड़े भरवा कर मंगवाये और श्वसुर के सामने सारी हकीकत कही। श्वसुर ने उन चारों का वृत्तान्त सुन कर उनकी बुद्धि के अनुसार उन कोकाम सौंप दिया अर्थात् बड़ी बहू को घर का कचरा कूड़ा निका लने का, दसरी को रसोई बनाने का, तीसरी को भांडागारिणी का यानि घर के माल की रक्षा करने का काम सौंपा और चौथी वहू को अति बुद्धिमती समझ कर उसे घर की मालकिन बनाया। ___ उपरोक्त दृष्टान्त देकर भगवान् ने अपने शिष्यवर्ग को संबोधित करके फरमाया कि जो साधु साध्वी पॉच महाव्रतों को लेकर पहली और दूसरी बहू की तरह उनका त्याग कर देते हैं या रसने. न्द्रिय के वशीभूत हो खाने पीने में ही लग जाते है वे इस लोक में अयश अकीर्ति का उपार्जन कर निन्दा के पात्र होते हैं और चतुगति रूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं / तीसरी और चौथी पुत्रवधू के समान जोसाधु साध्वी पॉच महाव्रतों को लेकर सख्यक प्रकार से उनका पालन करते हैं तथा अपने गुणों को अधिकाधिक बढ़ाते हैं वे इस लोक में विपल यश कीर्ति का उपार्जन कर पूज्यपद को प्राप्त करते हैं और अन्त में सिद्धपद को प्राप्त करते हैं। इस दृष्टान्त को जान कर भव्य प्राणियों को धर्म के विषय में अप्रमत्त रूप से प्रवृत्ति करनी चाहिए।
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________ 444 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ormurr wrmr rrrrr ~~ ~ ~~~~~ (8) भगवान् मल्लिनाथ की कथा आटवॉ 'मल्लि ज्ञात अध्ययन-पाँच महाव्रतों को लेकर यदि उन्हें किञ्चित् भी माया कपटाई से दूषित कर दिया जाय तो उनका यथार्थ फल नहीं होता है / इस बात को पुष्ट करने के लिए आठवें अध्ययन में भगवान् मल्लिनाथ का दृष्टान्त दिया गया है। भगवान् मल्लिनाथ पूर्वभत्र में महाबल नाम के राजाथे। उनके अचल, धरण, पूरण, वसु, वैश्रमण और अभिचन्द्र नाम के छः बालमित्र थे। उन सातों मित्रों ने एक ही साथ दीक्षा ग्रहण की और यह निश्चय किया कि सब ही मित्र एक साथ एक सरीखी तपस्या करेंगे। इसके पश्चात् वे वेला तेला आदि तपस्या करते हुए विचरने लगे। आगामी भव में इन छः मित्रों से बड़ा पद पाने की इच्छा से महाबल मुनि कपट से अधिक तपस्या करने लगे। व वेले के दिन तेला और तेले के दिन चोला कर लिया करते थे। उन सातो मनियों ने बारह भिक्खु पडिमा अङ्गीकार की। इसके बाढ लघुसिंह निष्क्रीड़ित तप किया जिसकी एक परिपाटी में छः महीने और सात दिन लगे अर्थात् 154 तपस्या के दिन और 33 पारणे के दिन होते है। इसके पश्चात् महासिंह निष्क्रीड़ित तए अङ्गीकार किया जिसकी एक परिपाटी में एक वर्ष छः महीने और अठारह दिन लगे अर्थात् 467 दिन उपवास के और 61 पारणे के दिन होते हैं। कुल 558 दिन होते हैं। इस प्रकार उग्र तपस्या करके और बीस बोलों में से कई बोलोंकी उत्कृष्ट आराधना करके महावल मुनि ने तीर्थङ्कर नामझर्य का उपार्जन किया। तीर्थङ्कर नाम कर्म उपार्जन करने के वीस बोल ये हैं(१) अरिहन्त (2) सिद्ध (3) प्रवचन-श्रुतज्ञान (4) गुरु, धर्मोपदेशक (5) स्थविर (6) बहुश्रुत (7) तपस्वी। इन सात की वत्स
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिमान्त बोल सपह, पाचवा भाग 445 ~ ~ ~ ~ on लता यानि वहुमान पूर्वक भक्ति करने से। (8) ज्ञान (6) दर्शन (१०)विनय (11) आवश्यक (१२)शीलवत इन पॉचों का निरतिचार पालन करने से (13) खणलव-संवेग,भावना और ध्यान से (14) तप (15) त्याग (16) वैयावच्च (17) समाधि (18) अपूर्व ज्ञान ग्रहण (16) श्रुस भक्ति (20) प्रवचन प्रभावना। इन बीस बोलों की उत्कृष्ट आराधना करने से जीव तीर्थङ्कर नाम कर्म उपार्जन करता है। इन वीस वोलों की विस्तृत व्याख्या छठे भाग के बीसवें बोल संग्रह में दी जायगी। __ अनेक वर्षों तफ श्रमण पर्याय का पालन करके वे देवलोक में उत्पन्न हुए। वहॉसे चव कर वे छहों मित्र भिन्न भिन्न देश के राजाओं के यहॉ राजकुमार रूप से उत्पन्न हुए। महाबल राजा का जीव देवलोक से चव कर मिथिला नगरी के राजा कुम्भ की रानी प्रभावती के गर्भ में आया। सख शय्या पर सोती हुई प्रभावती रानी ने निम्न लिखित चौदह महास्वम देखे / यथा-गज,पभ, सिंह, अभिषेक, पुष्पमाला, चन्द्र,सूर्य, ध्वजा, कलश,पद्म सरोवर,सागर, विमान, रत्नराशि, निधम अग्नि। स्वप्न पाठकों से स्वमों के फल को सुन कर रानी अतिहर्षित हई और गर्भ का पालन करने लगी। नौ मास पूर्ण होने पर रानी ने एक पुत्री को जन्म दिया। पुत्री के जन्म से माता पिता को बहुत प्रसन्नता हुई / तीर्थङ्कर का जन्म हुआ जान कर अनेक देवी और देवों के साथ इन्द्र वहाँ उपस्थित हुए। यथाविधि जन्म कल्याण मना कर वेवापिस अपने स्थान पर चले गये। माता पिता ने पुत्री का नाम मल्लिकुँवरी रखा / पाँच धायों द्वारा लालन पालन की जाती हुई मल्लिकुंवरी सुरक्षित वेल की तरह बढ़ने लगी। जब मलिकुंवरी की अवस्था लगभग सो वर्ष की हुई तव एक समय उन्होने अवधिज्ञान द्वारा अपने पूर्वभव के छः मित्रों को देखा
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________ 416 श्री सेठिया जैन धन्यमाला और जाना कि वे इसी भरतक्षेत्र में अलग अलग राजाओं के यहाँ राजपुत्र रूप से उत्पम हुए हैं। __ भविष्य में होने वाली घटना को ज्ञान द्वारा जान कर मल्लिकुंवरी ने नौकरों को बुला कर अशोक वाटिका में अनेक स्तम्भों वाला एक मोहनघर बनाने की माझा दी। मोहन पर बन जाने के बाद उसके बीच मल्लिकुंबरी के भाकार बाली एफ सोने की प्रतिमा बनपाई / उसके मस्तक पर एकछिद्र रखा और उस पर एक कमलाकार उक्कन लगा दिया। मल्लिकंबरी जो भोजन करती उसमें से एक त्रास प्रतिदिन उस छिद्र में डाल कर नापिस ढक्फन लगा दिया जाता था। भोजन के सड़ने से उसमें से गाय और सर्प के मृत कलेबर से भी अत्यन्त अधिक दुर्गन्ध उठने लगी। मल्लिकुंवरी अव पूर्ण यौवन अमस्या को प्राप्त हो चुकी थी। उसके रूप लावण्य की प्रशंसा चारों तरफ फैल गई। उस समय साकेतपुर नाम का नगर था। वहॉ प्रतिबुद्धि नाम का गणा राज्य करता था। रानी का नाम पद्मावती था। रामा के प्रधान मन्त्री का नाम मुबुद्धिथा / यह राजनीति में बड़ा चतुर था। ___ एक समय नाग महोत्सव मनाने के लिये राजा, रानी और मन्त्री सभी उद्यान में गये / वहाँ राजा ने एक बड़ा मिरिदामगंड अर्थात् सुन्दर मालाओं का दण्डाकार समूह देखा। उसे देख कर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने मन्त्री से पूछा कि क्या तुमने सही पहले ऐसा सिरिदामगंड देखा है। मन्त्री ने उत्तर दियाराजन् ! एक समय मैं मिथिला गया था। उस समय वहॉ के राजा कुम्भ की पुत्री मल्लिकँवरी का जन्म महोत्सव मनाया जा रहा था। मैने वहाँ एक सिरिदामगंड देखा था। पद्मावती रानी का यह सिरिदामगंड उसकी शोभा के लाख अंश को भी प्राप्त नहीं होता।
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, पाचवा भाग 447 v vuuuuuy www. इसके बाद मन्त्री द्वारा की गई मल्लिकवरी के रूप लावण्य की प्रशंसा को सुन फर प्रतिवद्धि राजा ने एक दूत राजा कुम्भ के पास भेजा भोर मल्लिकुंचरी की मांगणी (याचमा) की। दूत शीघ्र ही मिथिला के लिये रवाना हो गया। अगदेश में चम्पा नाम की नगरी थी। वहाँ के राजा का नाम चन्द्रछाय था। उस नगरी में भरणक मादिबहुत से श्रावक रहते थे। वे नौका द्वारा अपना व्यापार परदेश में करते थे। एक समय अरणक श्रावक ने दूसरे बहुत से व्यापारियों के साथ लवण समुद्र में यात्रा की / जब जहान समुद्र के बीच में पहुंच गया तोअकाल ही में मेघ की गर्जना होने लगी और भयंकर विजलियाँ चमकने लगीं। इसके पश्चात हाथ में तलवार लिए एफ भयंकर रूप वाला पिशाच उनके सन्मुख भाया और अरणक आबकसे कहने लगा कि हे अरणफ ! तुझे अपने धर्म से विचलित होना इष्ट नहीं परन्तु मैं तुझे तेरे धर्म से विचलित करूँगा / तू अपने धर्म को छोड़ दे अन्यथा मैं तेरे जहाज को आकाश में उठा कर फिर समुद्र में पटक दूंगा जिससे तू मर कर आते और रौद्रध्यान करता हुआ दुर्गति को प्राप्त होगा। पिशाच के उपरोक्त वचनों को सुन कर जहाज में वैठे हुए दूसरे लोग बहुत घबराये और इन्द्र, वैश्रमण, दुर्गा आदि देवों की अनेक प्रकार की मान्यताएं करने लगे किन्तु अरणकश्रावक किञ्चिन्मात्र भी घबराया नहीं और न विचलित ही हुआ / प्रत्युत अपने वस्त्र से भूमि का प्रमार्जन करके सागारी संथारा करके धर्म ध्यान करता हुआ शान्तचित्त से वैठ गया / इस प्रकार निश्चल बैठे हुए श्ररणक श्रावक को देख कर वह पिशाच अनेक प्रकार के भयोत्पादक वचन कहने लगा | अरणक को विचलित न होते देख पिशाच उस जहाज को दो अंगुलियों से उठा कर आकाश
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________ 148 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला - . .marva . . .mmmmmmm ... -- ~ ~ ~ ~ ~ में बहुत ऊंचा ले गया और अरणक श्रावक से फिर इसी प्रकार कहने लगा कि तू अपने धर्म को छोड़ दे। किन्तु वह अपने धर्म से किश्चित् भी चलायमान नहीं हुआ / अरणक श्रावक को इस प्रकार अपने धर्म में दृढ़ देख कर वह पिशाचशान्त होगया। अपना असली देवस्वरूप धारण करके वह अरणक श्रावक के सामने हाथ जोड़ कर उपस्थित हुआ और कहने लगा कि- पूज्य ! आप धन्य हैं / आपका जन्म सफल है। आज देवसभा के अन्दर शक्रेन्द्र ने आपकी धार्मिक दृढ़ता की प्रशंसा की कि जीवाजीवादिक नव तत्त्व का ज्ञाता अरणक श्रावक अपने धर्म के विषय में इतना दृढ़ है कि उसको देव दानव भी निर्ग्रन्थ प्रवचन से विलित करने में और समकित से भ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हैं। मुझे शक्रेन्द्र के वचनों पर विश्वास नहीं आया। अतः मैं आपकी धार्मिक दृढ़ता की परीक्षा करने के लिए यहाँ आया था। "देवानप्रिय ! जिस तरह शकेन्द्र ने आपकी प्रशंसा की थी वास्तव मे श्राप वैसे ही हैं। मैंने जो आपको कष्ट दिया उसके लिए आपसे क्षमा चाहता हूँ। मेरे थपराध को आपक्षमा करें।" इस प्रकार वह अपने अपराध की क्षमा याचना करके अरणक श्रावक की सेवा में कुण्डलों की जोड़ी रख कर अपने स्थान को चला गया। अपने आप को उपसर्ग रहित समझ कर अरणक श्रावक ने काउसग्ग खोला और सागारी संथारे को पार लिया। इसके बाद वेअरशक आदि सभी नौणिक दक्षिण दिशा में स्थित मिथिला नगरी के अन्दर आये / अरणक ने राजा कुम्भ को बहुत सा द्रव्य और एक कुण्डल जोड़ी भेट की। राजा कुम्भ को वह कुण्डल जोड़ी बहुत पसन्द आई और उसी समय मल्लिकुवरी को बुला कर उसे पहना दी / भरणक आदि व्यापारियों का बहुत आदर सत्कार किया और उनका राज्य महसूल माफ कर दिया।
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग 446 mmmmmmmmmmmmmmmmmmmm व्यापारियों ने अपना माल बेचा और वहाँ से नया माल खरीद कर जहाज में भर लिया। समुद्र यात्रा करते हुए वे चम्पा नगरी पहुँचे / वहॉ के राजा चन्द्रछाय के पूछने पर उन व्यापारियों ने मल्लिऊवरी के रूपलावण्य का वर्णन किया। उसे सुनकर चन्द्रछाय राजा ने अपना दूत कुम्भ राजा के पास भेजा कि मल्लिकुँवरी का विवाह उसके साथ कर दे। कुणाल देश में श्रावस्ती नगरी थी। वहाँ रूपी नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम धारिणी नाम सुवाहुकुमारी था / एक समय राजा ने बड़ी धूमधाम से सुबाहु कुमारी का स्नान महोत्सव मनाया। राजा ने अपने मंत्री वर्षधर से पूछा कि इससे पहिले तुमने कहीं ऐसा स्नान महोत्सव देखा है ? मन्त्री ने उत्तर दिया- मिथिला के राजा कुम्भ की पुत्री मल्लिकुंवरी का स्नान महोत्सव देखा था। यह उसके लाखवें अंश को भी प्राप्त नहीं होता है। __ मन्त्री द्वारा की गई मल्लिकुंवरी के रूप लावण्य की प्रशंसा को मुन कर राजा उसे प्राप्त करने के लिये आतुर होगया। तत्काल एक दत को बुला कर राजा ने उसे मिथिला भेजा और मल्लिकुंवरी की मांगणी (याचना) की / दूत मिथिला के लिए रवानाहोगया। ___ एक समय मल्लिकुंवरी के कानों के दिव्य कुण्डतों की सन्धि खल गई / राजा कुम्भ ने शहर के सारे सुनारों को बुलाया और उन टूटे हुए कुण्डलों की सन्धि जोड़ने के लिये कहा / सुनारों ने बहुत प्रयत्न किया किन्तु वे कुण्डलों की सन्धि नहीं जोड़ सके। राजा के पास आकर वे कहने लगे- राजन् ! यदि आप याज्ञा दें तो हम नये कुण्डल बना सकते हैं किन्तु इन टूटे हुए कुण्डलों की सन्धि जोड़ने में असमर्थ हैं। सुनारों की वात मुन कर राजापित हो गया। उसने सुनारों को अपने राज्य से निकल जाने की आज्ञा
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री सेठिया जैन पन्थमाला anorammarrrrrma rmwww.mms rumwwmwww.ram दे दी। वे सव सुनार मिथिला से निकल कर वाराणसी नगरी में आये। वहाँ के राजा शंख के पास जाकर वाराणसी में रहने की आज्ञा मांगी / राजा ने उनसे देशनिकाला देने का कारण पूछा। सुनारों ने सारा वृत्तान्त कहा और मल्लिकुंवरी के रूप लावण्य की प्रशंसा की। उसे सुन कर मल्लिकुंवरी के साथ विवाह करने की इच्छा से राजा शंख ने एक दत मिथिला भेजा। मिथिला के राजा कुम्भ के पुत्र का नाम मल्लदिन्न था। वह युवराज था। एक समय शहर के सब चित्रकारों को बुलाकर मल्लदिन्न कमार ने अपने सभाभवन को चित्रित करने की आज्ञा दी। चित्रकारों ने राजकुमार की आज्ञा स्वीकार कर अपना काम शुरु कर दिया। उन सब चित्रकारों में एक चित्रकार को ऐसी लब्धि थी कि किसी भी पदार्थ का एक अवयव देख कर सारे का बहू चित्र वना सकता था। एक समय महल में बैठी हुई मल्लिकुंवरी के पैर का अंगठा चित्रकार की नजरों में पड़ गया। उसने लब्धि के प्रभाव से मल्लिकुँवरी का हूबहू चित्र सभाभवन में चित्रित कर दिया। जव सभाभवन पूरा चित्रित होगया तो राजकुमार उसे देखने के लिये आया। विविध प्रकार के चित्रों को देख कर वह बहुत प्रसन्न हुआ। आगे बढ़ने पर उसने अपनीवड़ी वहिन मल्लिकुंवरी का चित्र देखा। उसे देख कर वह उस चित्रकार पर कुपित होगया। उसने इस चित्रकार को अपने राज्य से निकल जाने की भाज्ञा दी। वह चित्रकार मिथिला से निकल कर हस्तिनापुर में पाया / वहाँ के राजा अदीनशत्रु के पास जाकर उसने वहाँ रहने की आज्ञा मॉगी। राजा के पूछने पर चित्रकार ने अपना सारा वृत्तान्त कहा और मल्लिकुंवरी का चित्र उसे वताया। चित्र को देख कर राजाउस पर मोहित होगया ।मल्लिकुँवरी के साथ विवाह करने की इच्छा से राजा ने अपना एक दत मिथिला को भेजा।
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग 451 mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwmmmmmmmmmmmmmmmm एक समय चोता नाम की परित्रानिका मिथिला नगरी में आई। मल्लिकुंवरी के पास भाकर शुचि धर्म का उपदेश देने लगी। उसने वतलाया कि हमारे धर्मानुसार भपवित्र वस्तु की शुद्धि जल और मिट्टी द्वारा होती है। मल्लिकुंवरी ने कहा-परिवाजिके ! रुधिर से लिप्त वस्न को रुधिर से धोने पर क्या उसकी शुद्धि हो सकती है ? परित्राजिफाने कहा-नहीं। मल्लिफवरी ने कहा-इसीप्रकार हिंसा से हिंसा की (पाप स्थानों की)शुद्धि नहीं हो सकती।मल्लि कुंवरी का युक्ति पूर्ण वचन सुन कर चोक्षा परित्राजिका निरू त्तर हो गई। मल्लिकुँवरी को दासियों ने उसका उपहास किया / इससे क्रोधित होकर चोक्षा परिव्राजिका वहाँ से निकल गई। वह कम्पिलपुर के राजा जितशत्र के अन्तःपुर में गई / राजा ने उसका आदर सत्कार किया। इसके पश्चात् राजा ने उससे पूछा परिवाजिके ! तुम बहुत जगह घूमती हो / मेरे जैसाअन्तःपुर तुम ने फरी देखा है ? परिव्राजिका ने कहा-राजन् ! भाप कूपमण्डूक प्रतीत होते हैं / मैंने मिथिला के राजा कुम्भ की पुत्री मल्लिकुंवरी को देखा है। वह देवकन्या के समान सुन्दर है। भापका सारा अन्तःपुर उसके पैर के अंगूठे की शोभा को भी प्राप्त नहीं हो सकता। ___ मल्लिकुँवरी के रूप लावण्य की प्रशंसा सुन कर राजा जितशत्र ने अपना एक दूत राजा कुम्भ के पास मिथिला भेजा और मल्लिकुँवरी की मांगणी (याचना) की। * छहों राजामों के दूत एक साथ मिथिला में पहुँचे और अपने अपने राजा का सन्देश कुम्भ राजा को कह सुनाया। एफ कन्या के लिए छः राजाओं की मांगणी देख कर कुम्भ राजा को क्रोध आगया।दूतों का अपमान करके उन्हें अपने नगर से बाहर निकाल दिया। अपमानित होकर दूत वापिस चले गये। उन्होंने जाकर सारा वृत्तान्त अपने अपने राजा से कहा / इससे वे छहों राजा
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________ 452 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कुपित हुए और अपनी अपनी सेना सजाफर राजाकुम्भ के ऊपर चढ़ाई कर दी। इस वृत्तान्त को सुन कर राजा कुम्भ घबराया / मल्लिकँवरी ने अपने पिता को आश्वासन दिया और कहा कि आप घबराइये नहीं। मैं सब को समझा दूंगी। भाप सब राजाभों के पास पृथक पृथक् दूत भेज दीजिए कि शाम को तुम मोहन घ आओ। मैं तुम्हें मल्लिकुंवरी दूंगा। राजा कुम्भ ने ऐसा ही किया। पृथक पृथक् द्वार से वे छहों राजा शाम को मोहन घर में आगये। मल्लिकुँवरी ने पहले से मोहन घर में अपने आकार वाली सोने की पुसली बना रखी थी जिसमें ऊपर के छिद्र से प्रतिदिन भोजन का एक एक ग्रास डाला था / उस मुर्वण की पुतली को देख कर वे छहों राजा उसे साक्षात् मल्लिकुंवरी समझ कर उस पर मोहित होगये / इसी समय मल्लिकुवरी ने उस पुतली के ढक्कन कोउघाड़ दिया जिससे उसमें डाले हुए अन्न की अत्यन्त दुर्गन्ध बाहर निकली। उस दुर्गन्ध को न सह सकने के कारण वे छहों राजा पराङ्मुख होकर बैठ गये। इस अवसर को उपयुक्त समझ कर मल्लिकुंवरी ने उनको शरीर की अशुचिता बतलाते हुए धर्मापदेश दिया और अपने पूर्वभव का वृत्तान्त कहा जिसे सुन कर उन छहों राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होगया। छहों राजाओं ने अपने अपने ज्येष्ठ पुत्र का राज्याभिषेक कर भगवान् मल्लिनाथ के साथ प्रव्रज्या अङ्गीकार कर ली। वर्षीदान देने के पश्चात् भगवान् मल्लिनाथ ने पौप शुक्ला एकादशी को प्रातःकाल दीक्षा ली और दूसरे पहर में उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। ___ भगवान् मल्लिनाथ के 28 गण थे और 28 ही गणधर थे। चालीस हजार साधु, पचपन हजार साध्वियॉ,एक लाख चौरासी हजार श्रावक,तीन लाख पैंसठ हजारश्राविकाएं थीं।६०० चौदह पूर्वधारी साधु,दो हजार अवधिज्ञानी,३२०० केवलज्ञानी, 3500
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग 453 rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrman वैक्रियक लब्धिधारी,८०० मनःपर्ययज्ञानी, १४००वादी,२००० अनुत्तर विमानवासी हुए। __ भगवान् मल्लिनाथ को केवलज्ञान होने के दो वर्ष बाद उनके शासन में से जीव मोक्ष जाने लगे और उनके निर्वाण के पश्चात् वीस पाट तक जीव मोक्ष में जाते रहे। भगवान् मल्लिनाथ का शरीर उन्नीस धनुष ऊंचा था, शरीर का वर्ण प्रियंगु समान नीला था। ___ केवलज्ञान होने पर वे धर्मोपदेश करते हुए और अनेक भव्य प्राणियों का उद्धार करते हुए विचरते रहे। भगवान् मल्लिनाथ __ सौ वर्ष तक गृहस्थावास (छद्मस्थावस्था) में रहे / सौ वर्ष कम पच पन हजार वर्ष श्रमण पर्याय और केवल पर्याय का पालन कर ग्रीष्म ऋतु में समेदशिखर पर्वत पर पधारे और पादपोपगमन संथारा किया। उनके साथ पाँच सौ साधुओं और पाँच सौ साध्विओं ने भी संथारा किया। चैत्र शुक्ला चौथ के दिन अर्धरात्रि के समय भरणी नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग होने पर वेदनीय, आयुष्य नाम,गोत्र इन चार अघाती कर्मों का नाश कर भगवान् मल्लिनाथ मोक्ष पधार गये। (8) जिनपाल और जिनरक्ष की कथा नवां 'माकंदी ज्ञात' अध्ययन- काम भोगों में लिप्त रहने वाले पुरुष को दुःख की प्राप्ति होती है और काम भोगों से विरक्त पुरुष को सख की प्राप्ति होती है। इस विषय की पुष्टि के लिए इस अध्ययन में जिनपाल और जिनरक्ष का दृष्टान्त दिया गया है। चम्पा नगरी में माकंदी नाम का सार्थवाह रहता था। उसके जिनपाल और जिनरक्ष नाय के दो पुत्र थे। उन दोनों भाइयों ने ग्यारह वक्त लवण समुद्र में यात्रा कर व्यापार द्वारा वहुत सा द्रव्य उपार्जन किया था। माता पिता के मना करने पर भी वे दोनों
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________ 454 भी मेठिया जैन प्रन्यमाला -rrrrrrrrrrrrrrrrrmmarrr.mawwamrermmmmmmmware rrrrrrrrrrrrrrrrr लवण समुद्र में बारहवीं वक्त यात्रा करने के लिए रवाना हुए। जब जहाज समुद्र के बीच में पहुँचा तो तूफान से नष्ट हो गया। जहाज का टूटा हुआ एक पाटिया उन दोनों भाइयों के हाथ लग गया। जिस पर बैठ कर तैरते हुए वे दोनों रत्नद्वीप में जा पहुँचे। उस द्वीप की स्वामिनी रयणा देवी ने उन्हें देखा / वह उनसे कहने लगी कि तुम दोनों मेरे साथ कामभोग भोगते हुए यहीं रहो अन्यथा मैं तुम्हें मार दूंगी / इस प्रकार उस देवी के भयप्रद वचनों को सुन कर उन्होंने उसकी बात स्वीकार कर ली और उसके साथ कामभोग भोगते हुए रहने लगे। ___ एक समय लवण समुद्र के अधिष्ठायक सुस्थित देव ने रयणा देवी को लवण समुद्र की इक्कीस वार परिक्रमा करके तृण, पर्ण, काष्ठ,कचरा,अशुचि मादि को साफ करने की आज्ञा दी। तव उस देवी ने उन दोनों भाइयों को कहा-देवानुप्रियो! मैं वापिस लौट कर पाऊँ तब तक तुम यहीं पर भानन्द पूर्वक रहो / यदि इच्छा हो तो पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा के वनखण्ड में जाना किन्तु दक्षिण दिशा के वन खण्ड (वगीचे) में मत जाना। वहाँ पर एक भयंकर विषधारी सर्प रहता है वह तुम्हारा विनाश कर दालेगा। ऐसा कह कर देवी चली गई। वे दोनों भाई पूर्व,पधिम और उत्तर दिशा के वनखण्ड में जाने के वाद दक्षिण दिशा के वनखण्ड में भी गये। उसमें अत्यन्त दुर्गन्ध भा रही थी। उसके अन्दर जाकर देखा कि सैकड़ों मनुष्यों की हड्डियों का ढेर लगा हुआ है और एक पुरुप शूली पर लटक रहा है। यह हाल देख कर वे दोनों भाई वहुत घबराये भौर शूली पर लटकते हुए उस पुरुप से उसका वृत्तान्त पूछा / उसने कहा कि मैं भी तुम्हारी तरह जहाज के टूट जाने से यहॉ आ पहुंचाया। मैं काकन्दी नगरीका रहने वाला घोड़ों का व्यापारी हूँ। पहले यह देवी मेरे साथ काम भोग भोगती रही
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग .455 mo ~rnwrwww.rar mmm vom . ~* wwmwww.. एक समय एक छोटे से अपराध के हो माने पर कुपित होकर इस ने मुझे यह दंड दिया है। न मालूम यह देवी तुम्हें किस समय और किस ढंग से मार देगी। पहले भी कई मनुष्यों को मार कर यह हड्डियों का ढेर कर रखा है। शूली पर लटकते हुए पुरुष के उपरोक्त वचनों को सुन कर दोनों भाई बहुत भयभीत हुए और वहाँ से भाग निकलने का उपाय पूछने लगे। तब वह पुरुष कहने लगा कि पूर्व दिशा के वनखण्ड में शैलक नाम का एक यक्ष रहता है। उसकी पूजा करने से प्रसन्न होकर वह तुम्हें इस देवी के फन्दे से छुड़ा देगा। यह सुन कर वेदोनों भाई यत्त के पास जाकर उसकी स्तुति करने लगे और उस देवी के फन्दे से छुड़ाने की प्रार्थना करने लगे। उन पर प्रसन्न होकर यह कहने लगा कि मैं तुम्हें तुम्हारे इच्छित स्थान पर पहुँचा दूँगा। किन्तु मार्ग में वह देवी आकर अनेक प्रकार के हावभाव करके अनुकूल प्रतिकूल वचन कहती हुई परिषह उपसर्ग देगी। यदि तुम उसके कहने में आकर उसमें आसक्त हो जानोगे तो मैं तुम्हें मार्ग में ही अपनी पीठ पर से फेंक लूंगा। यत की इस शर्त को उन दोनों भाइयों ने स्वीकार किया। यत्त ने अश्व का रूप वनाया और दोनों भाइयों को अपनी पीठ पर बैठा कर आकाश मार्ग से चला / इतने में वह देवी मा पहुँची / उनको वहॉ न देख कर अवधिज्ञान से शैलक यक्ष की पीठ पर जाते हुए देखा। वह शीघ्र वहाँ आई और अनेक प्रकार से हावभाव पूर्वक अनुकूल प्रतिकूल वचन कहती हुई करुण विलाप करने लगी। जिनपाल ने उसके वचनों पर कोई ध्यान नहीं दिया किन्तु जिनरत उसके वचनों में फंस गया। वह उस पर मोहित होकर प्रेम के साथ रयणा देवी को देखने लगा। जिससे उस यक्ष ने अपनी पीठ पर से फेंक दिया।नीचे गिरते हुए मिनरल को उस देवी नेशूली में पिरोदिया
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________ 456 श्री सेठिया जैन मन्थमाला mimromrammmmmmmmmmmmmmmmmmmr x. . rrrrrrrrrrrrrrrrrrrऔर बहुत कष्ट देकर उसे प्राण रहित करके समुद्र में डाल दिया। जिनपाल देवी के वचनों में नहीं फंसा इसलिए यक्ष ने उसको मानन्दपूर्वक चम्पा नगरी में पहुंचा दिया। वहाँ पहुँच कर जिनपाल अपने माता पिता से मिला। कई वर्षों तक सांसारिक सुख भोग कर प्रव्रज्या अङ्गीकार की। कई वर्षों तक संयम का पालन कर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुा / वहाँ का आयुष्य पूरा कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त होगा। अन्त में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने मुनियों को सम्बोधित कर फरमाथा कि- श्रयणो ! जो प्राणी छोड़े हुए काम भोगों की फिर से इच्छा नहीं करते थे जिनपाल की तरह शीघ्र ही संसार रूपी समुद्र को पार कर सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं और जो प्राणी रयणा देवी सरीखी अविरति में फंस कर काम भोगों में आसक्त हो जाते हैं वे जिनरक्ष की तरह संसार रूपी समुद्र में पड़ कर अनन्त काल तक जन्म मरण के दुःखों का अनुभव करते हुए परिभ्रमण करते हैं। ऐसा समझ कर मुमुक्ष मात्माओं को काम भोगों से निवृत्ति करनी चाहिए। (10) चन्द्रमा का दृष्टान्त दसवां 'चन्द्र ज्ञात' अध्ययन-प्रमादी जीवों के गुणों की हानि और अप्रमादी जीवों के गुणों की वृद्धि होती है। यह बताने के लिए गौतम स्वामी द्वारा किये गये प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने चन्द्रमा का दृष्टान्त दिया। यथा पूर्णिमा के चन्द्रमा की अपेक्षा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा का चन्द्रमा हीन होता है। उसकी अपेक्षा द्वितीया का चन्द्रमा और हीन होता है। इस प्रकार क्रमशः हीनता को प्राप्त होता हुआ चन्द्रमा अमावस्या को सव प्रकार से हीन होजाता है अर्थात् अमावस्या का चन्द्रमा
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पाचवां भाग 457 waar munun vonan uw vw vow wo सर्वथा प्रकाश शून्य हो जाता है। ___ इसी प्रकार जो साधु क्षमा मार्दव आदि तथा ब्रह्मचर्य के गुणों में शिथिलता को प्राप्त होता जाता है वह अन्त में ब्रह्मचर्य शादि के गुणों से सर्वथा भ्रष्ट होजाता है। जिस प्रकार अमावस्या के चन्द्रमा की अपेक्षा शुक्ल पक्ष की मतिपदा का चन्द्रमा प्रकाश में कुछ अधिक होता है। प्रतिपदा की अपेक्षा द्वितीया का चन्द्रमा और विशेष प्रकाशमान होता है। इस तरह क्रमशः बढ़ते बढ़ते पूर्णिमा को अखण्ड और पूर्ण प्रकाशमान वन जाता है। इसी प्रकार जो साधु अप्रमादी बन कर अपने क्षमा मादिक यावत् ब्रह्मचर्य के गुणों को बढ़ाता है वह अन्त में जाकर सम्पूर्ण आत्मिक गुणों से युक्त हो जाता है और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। (11) दावद्रव रक्ष का दृष्टान्त ग्यारहवां 'दावद्रव ज्ञात' अध्ययन- धर्म सम्बन्धी मार्ग की आराधना करने वाले को सुख की प्राप्ति और विराधना करने वाले कोदुःख की प्राप्ति होती है। इसलिए इस अध्ययन में दावद्रव -- वृक्ष का दृष्टान्त दिया गया है। समुद्र के किनारे 'दावद्रव' नाम के एक तरह के वृक्ष होते हैं। उनमें से कुछ ऐसे होते हैं जो समुद्र की हवा लेगने से मुरझा जाते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जो द्वीप की हवा लगने से मुरझा कर सुख जाते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जो द्वीप और समुद्र दोनों की हवा से नहीं सखते और कुछ ऐसे होते हैं जो दोनों की हवा न सह सकने के कारण सूख जाते हैं। इस दृष्टान्त के अनुसार साधुओं की चतुर्भङ्गी बतलाई गई है। यथा* कुछ साधु ऐसे होते हैं जो साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________ 458 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm रूप स्वतार्थिकों के कठोर वचनों को सहन कर लेते हैं परन्तु भन्य तीथिकों के वचनों को सहन नहीं करते। ऐसे साधु देशविराधक कहलाते हैं। जो साधु अन्य तीथिकों के तथा गृहस्थों के कहे हुए कठोर वचनों को सहन करते हैं किन्तु स्वतीर्थिकों के कठोर वचनों को सहन नहीं करते वे देश भाराधक कहलाते हैं। जो साधु स्वतीर्थिक और अन्य तीर्थिक किसी के भी कठोर वचनों को सहन नहीं करते वे सर्वविराधक कहे जाते हैं। जो साधु स्वतीथिक और अन्य सीर्थिक दोनों के कठोर वचनों को समभाव से सहन करते है वे सर्व भाराधक कहे जाते हैं। उपरोक्त दृष्टान्त देकर यह बतलाया गया है कि जीवों को भाराषक बनना चाहिए, विराधक नहीं। पाराषक बनने से ही जीव का कल्याण होता है। (12) पुद्गलों के शुभाशुभ परिणाम वारहवाँ 'उदक ज्ञात' मध्ययन-स्वभाव से मलिन चित्त वाले भी भव्य प्राणी सद्गुरु की सेवासे चारित्र के माराधक बन जाते हैं। पुद्गल किस प्रकार शुभाशुभ रूप में परिवर्तित हो जाते हैं इस वात को बतलाने के लिए इस अध्ययन में जल का रष्टान्त दिया गया है। चम्पानगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसके सुबुद्धि नामक मन्त्रीथा।वह जीवाजीवादि नव तत्त्वों का जानकारश्रावक था। एक समय भोजन करने के पश्चात् राजा ने उस भोजन के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श भादि की बहुत तारीफ की। राज परिवार ने भी राजा के कयन का अनुमोदन किया किन्तु मुबुद्धि मन्त्री उस समय मौन रहा / तब राजा ने उससे इसका कारण पूछा तो मन्त्री ने जवाब दिया कि इसमें तारीफ की क्या बात है? प्रयोग
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग 456 wwwrr~~~~mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm विशेष से शुभ पुद्गल अशुभ और अशुभ पुद्गल शुभ रूप से परिणात हो सकते हैं / रामाने मन्त्री के इन वचनों को सत्य नहीं माना। ___ एक समय सुबुद्धि मन्त्री के साथ राजा बाहर घूमने गया। नगर के बाहर एक खाई के अति दुर्गन्धित जल को देख कर राजा ने उस जल की निन्दा की। दूसरे लोगों ने भी राजा के कथन का समर्थन किया / मन्त्री को मौन देख कर राजा ने इसका कारण पूछा। मन्त्री ने वही पूर्वोक्त जवाब दिया। राजा ने मन्त्री के कथन को सत्य नहीं माना। अपने वचन को सत्य सिद्ध करने के लिए और राजा को तत्त्व का ज्ञान कराने के लिए मन्त्री ने उसी खाई से जल मंगाया और एक अच्छे वर्तन में डाला। फिर अनेक प्रयोग करके उस जल को शद्ध भौर अति सुगन्धित बनाया / जलरक्षक के साथ उस जल को राजा के पास भेजा | उस जल को पीकर राजा बहुत खुश हुआ और जलरक्षक से पूछा कि यह जल कहाँ से आया ? उसने उत्तर दिया कि सुबुद्धि मन्त्री ने मुझे यह जल दिया है। तव राजा ने मन्त्री से पूछा / मन्त्री ने जवाब दिया कि यह जल उसी खाई का है। प्रयोग करके मैंने इसको इतना श्रेष्ठ और सुगन्धित बनाया है। राजा को मन्त्री के वचनों पर विश्वास आगया। उसने मन्त्री से धर्म का तत्त्व पूछा / मन्त्री ने राजा को धर्मका तत्त्व बड़ी खूबी से समझाया। कुछ समय पश्चात् राजा और मन्त्री दोनों को संसार से विरक्ति हो गई और दोनों ने प्रव्रज्या अङ्गीफार कर ली। ग्यारह अङ्ग का ज्ञान पढ़ा और बहुत वर्षों तक श्रमण पयोय का पालन फर सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त हुए। ___ जल के दृष्टान्त का अभिप्राय यह है कि खाई के पानी की तरह पापी जीव भी सद्गुरु की संगति करने से अपना आत्म कल्याण फरने में समर्थ हो सकते हैं।
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________ 46. श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला nonr mmmmmm (13) नन्द मणियार की कथा तेरहवॉ दर्दुर ज्ञात अध्ययन-सद्गुरु के प्रभाव से तप, नियम, व्रत,पञ्चक्रवाण आदि गुणों की हानि होती है। इस बात को बतलाने के लिए दर्दर (मेंढक) का दृष्टान्त दिया गया है। एक समय ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् महावीर राजगृह नगर में पधारे। उस समय दर्दुर नाम का देव सूर्याभ देव के समान नाट्यविधि दिखला कर और भगवान् को वन्दना नमस्कार करके वापिस अपने स्थान को चला गया। उसकी ऋद्धि के बारे में गौसम स्वामी ने प्रश्न पूछा। तब भगवान् ने उसका पूर्वभव फरमाया राजगृह नगर में नन्द नाम का मणियार रहता था। उपदेश सन कर वह श्रावक बन गया। श्रावक बनने के बाद वहुत समय तक साधुओं का समागम नहीं होने से तथा मिथ्यात्वियों का परिचय होते रहने से वह मिथ्यत्वी बन गया। एक समय ग्रीष्म ऋतु में तेला करके वह पोषधवत कर रहा था। उस समय तृषा का परिपह उत्पन्न हुआ जिससे उसकी यह भावना होगई कि जो लोग कुत्रा, वावड़ी भादि खुदवाते हैं और जहाँ अनेक प्यासे आदमी पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं वे लोग धन्य हैं। अतः मझे भी ऐसा ही करना श्रेष्ठ है / प्रातःकाल पारणा करने के बाद राजा की आज्ञा लेकर नगर के बाहर एक विशाल वावड़ी खुदवाई और वाग, वगीचे, चित्रशाला,भोजनशाला,वैद्यकशाला अलङ्कार सभा आदि वनवाई। उनका उपयोग नगर के सबलोग करने लगे और नन्द मणियार की प्रशंसा करने लगे। अपनी प्रशंसा सुन कर वह अत्यन्त प्रसन्न होने लगा। उसका मन दिन रारा वावड़ी में रहने लगा। वह उसी में आसक्त होगया। एक समय नन्द मणियार के शरीर में श्वास, खांसी, कोढ़ आदि सोलह
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, पांचवां भाग 41 रोग उत्पन्न हुए / चिकित्सा शास्त्र में प्रवीण वैद्यों ने अनेक तरह से चिकित्सा की किन्तु उनमें से एक भी रोग शान्त नहीं हुआ। अन्त में आर्तध्यान ध्याते हुए उसने सिर्यञ्च गति का आयुष्य वाँधा तथा मर कर मूर्छा के कारण उसी बावड़ी में मेंढक रूप से उत्पन्न हुआ। उस बावड़ी के जल का उपयोग करने वाले लोगों के मुख से नन्द मणियार की प्रशंसा छन फर उस मेंढ़क को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने अपने पूर्व भव के कार्य का स्मरण किया / मिथ्यात्व का पश्चात्ताप करके मेंढ़क के भव में भी उसने श्रावक व्रत अङ्गीकार किये और धर्म ध्यान की भावना भाते हुए रहने लगा। एक समय मेरा (भगवान् महावीर स्वामी फा) आगमन राजगृह में हुआ,उस समय पानी भरने के लिए वावड़ी पर गई हुई स्त्रियों के मुख से इस बात को सुन कर वह मेंढक सझे वन्दना करने के लिए बाहर निकला। रास्ते में मझे वन्दना करने के लिए आते हुए श्रेणिक राजा के घोड़े के पैर नीचे दव कर वह मेंढक घायल हो गया। उसी समय रास्ते के एक तरफ जाकर उसने वहीं से मुझे वन्दना नमस्कार कर संलेखना संथारा किया।शुभ ध्यान धरता हुआ वहाँ से मर फरसौधर्म देवलोक में दर्दुरावतंसफ विमान में दर्दुर नाम का देव हुआ है। वहॉ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा और प्रव्रज्या अङ्गीकार कर मोक्ष में जायगा। इस दृष्टान्त का अभिमाय यह है कि समकित आदि गुणों को प्राप्त कर लेने पर भी यदि प्राणियों को श्रेष्ठ साधुनों की संगति न मिले तोनन्द मणियार की तरह गुणों की हानि हो जाती है। अतः भव्य प्राणियों को साधु समागम का लाभ सदा तोते रहना चाहिए।
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________ 462 श्री मेठिया जैन ग्रन्थमाला www.mwww normwarwwwrammwwwwwwwwwwwwnar awmarrrrrran, (14) तेतली पुत्र की कथा चौदहवां तेतली ज्ञात' अध्ययन- धर्म की अनुकूल सामग्री मिलने से ही धर्म की प्राप्ति होती है। इस बात को बतलाने के लिए इस अध्ययन में तेतली पुत्र नाम के मन्त्री का दृष्टान्त दिया गया है। तेतलीपुर नगर में कनकरथ राजा राज्य करताथा। उसकी रानी का नाम पद्मावतीथा। तेतली पुत्र नाम का मन्त्री था। वह राजनीति में अति निपुण था। उसकी स्त्री का नाम पोहिला था / कनकरय राजा राज्य में अत्यन्त मासक्त एवं गृद्ध होने के कारण अपने उत्पन्न होने वाले सव पुत्रों के मङ्गों को विकृत करके उनको राज्य पद के भयोग्य बना देता था। इस पात से रानी भति दुःखित थी। एक समय उसने अपने मन्त्री से सलाह की और उत्पन्न हुए एफ पुत्र को गुप्त रूप से तत्काल मन्त्री के घर पहुंचा दिया / मन्त्री के घर वह श्रानन्द पूर्वक बढ़ने लगा। उसका नाम कनकध्वज रखा गया।वा फलामों में निपुण होकर यौवन अवस्था को प्राप्त हुभा। तेतली पुत्र मन्त्री अपनी पोट्टिला भार्या के साथ मानन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करता था किन्तु किसी कारण से कुछ समय के पश्चात् वह पोट्टिला तेतलीपुत्र को अप्रिय और अनिष्टकारी होगई। वह उसका नाम सुनने से भी घृणा करने लगा। यह देख पोट्टिला अति दुःखित होकर पार्तध्यान करने लगी। तब तेतलीपुत्र ने उस से कहा कि तू वार्तध्यान मत कर। मेरी दानशाला में चली जा / वहॉ श्रमण माहणों को विपुल भशन पान आदि देती हुई आनन्द पूर्वक रह / पोट्टिला वैसा ही करने लगी। एक समय सुत्रता नाम की आर्या अपनी शिष्य मण्डली सहित वहाँआई। भिक्षा के लिए आती हुई दो पार्याओं को देख पोहिला ने अपने आसन से उट कर उन्हें वन्दना नमस्कार किया और
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवा भाग 413 wwimwwwmmmm.rammmmmm आदर पूर्वक माहार पानी पहराया। फिर पोटिला उनसे पूछने लगी कि कृपा कर मझे कोई ऐसी दवा, चूर्णयोग या मन्त्र वगैरह बताभो जिससे मैं फिर तेतलीपुत्र को प्रिय एवं इष्ट बन जाऊँ ? पोटिला के इन वचनों को सुन कर उन भार्याभों ने दोनों हाथों से अपने दोनों कान बन्द कर लिए और कहने लगी कि ऐसी दवा या मन्त्र तन्त्र बताना तो दूर रहा हमें ऐसे वचनों को सुनना भी योग्य नहीं क्योंकि हम तो पूर्ण ब्रह्मचर्य को पालने वाली आर्याएं हैं। इम तुझे केवली प्ररूपित धर्म कह सकती हैं। ___ उन आर्याओं के पास से केवली प्ररूपित धर्म को सुन कर पोहिला ने श्राविका के व्रत अङ्गीकार किये और धर्मकार्य में प्रवृत्त हुई। कुछ समय पश्चात् पोटिला ने सुत्रता प्रापो के पास दीक्षा लेने के लिए तेतलीपुत्र से आज्ञा मांगी। तेतलीपुत्र ने कहा- 'चारित्र पालन करके जब तुम स्वर्ग में जाओ तब वहाँ से आकर मुझे केवली प्ररूपित धर्म का उपदेश देकर धर्म मार्ग में प्रवृत्त करोतो मैं तुम्हें भाज्ञा दे सकता हूँ।' पोट्टिला ने इस बात को स्वीकार किया और तेतलीपुत्र की प्राज्ञा लेकर सुव्रता भार्या के पास दीक्षा ले ली। बहुत वर्षों तक दीक्षा पाल कर काल करके देवलोक में उत्पन्न हुई। इधर राजा कनकरथ की मृत्यु होगई तब गुप्त रखे हुए कनकध्वज कुमार को राजगद्दी पर बिठाया। राजा कनकध्वज अपनी माता पद्मावती रानी के कहने से तेतलीपुत्र मन्त्री का बहुत भादर पत्र मन्त्रीकापभोगों में भधिक गृदएवं मासक्त होगया। पोट्टिल देव ने तेतलीपुत्र को धर्म का बोध दिया किन्तु से धर्मकी भोर रुपि न हुई। सब पोट्टिल देव ने देवशक्ति से राजा कनकध्वज का मन फेर दिया जिससे वह तेतलीपुत्र का किसी प्रकार मादरसत्कार नहीं करने लगा और उससे विमुख होगया। तेतलीपत्र बहुत भय
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ommmmmmm भीत हुआ और मात्मघात करने की इच्छा करने लगा। तव पोट्टिल देव ने उसे प्रतिबोध दिया। शुभ अध्यवसाय से तेतलीपुत्र को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होगया और अपने पूर्वभव में ली हुई दीक्षा आदि के वृत्तान्त को जान कर उसने प्रव्रज्या ग्रहण की। कुछ समय पश्चात् उनको केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होगए। देवों ने दुन्दुभि वजा कर केवलज्ञान महोत्सव किया / कनकध्वज राजा भी वन्दना नमस्कार करने गया / तेतलीपुत्र केवली ने धर्मकथा कही / धर्यकथा सुन कर राजा कनकध्वज ने श्रावक व्रत अङ्गीकार किये / वहुत वर्षों तक केवली पर्याय का पालन कर तेतलीपुत्र मोक्ष में पधार गये। (15) नन्दीफल का दृष्टान्त पन्द्रहवां 'नंदीफला ज्ञात' अध्ययन-वीतराग देव के उपदेश से विषय का त्याग और सत्य अर्थ की प्राप्ति होती है। उसके विना हो नहीं सकती / यह बतलाने के लिए इस अध्ययन में नन्दीफल का दृष्टान्त दिया गया है। चम्पा नगरी में धन्ना सार्थवाह रहता था। एक समय वह महिच्छत्रा नाम की नगरी में व्यापार करने के लिए जाने लगा। उस ने शहर में घोषणा करवाई. कि जो कोई व्यापार के लिए मेरे साथ चलना चाहें वे चलें जिनके पास वस्त्र, पात्र, भाड़ा आदि नहीं है उनको वे सब चीजें मैं दूंगा और अन्य सारी मुविधायें मैं दूंगा / इस घोषणा को सुन कर बहुत से लोग धन्ना सार्थ - वाह के साथ जाने को तय्यारहए। कुछ दर जाने पर एफ.भटवी - पड़ी. धन्ना सार्थवाह सब लोगों को सम्बोधित कर कहने लगा कि.इस भटवी में फल फूल और पत्रों से युक्त बहुत से नन्दीक्ष हैं। उनके फल देखने में बड़े सुन्दर और मनोहर हैं,खाने में तत्काल .
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________ भी जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचो भाग 115 खादिष्ट भी लगते हैं किन्तु उनका परिणाम दुःखदायी होता है और भकाल में जीवन से हाथ धोना पड़ता है। इसलिए तुम सबलोग नन्दी वृक्ष के फलों को न खाना भौर यहाँ तक कि उनकी छाया में भी मत बैठना / दूसरे वृक्षों के फल दीखने में तो मुन्दर नहीं हैं किन्तु उनका परिणाममुन्दर है। उनका स्वेच्छानुसार उपभोग कर सकते हो। ऐसाफाकर उन सबलोगों के साथ धन्नासार्थवाह ने उस अटवी में प्रवेश किया। कितनेक लोगों ने घना सार्थवाह के कथनानुसार नन्दी वृक्षों के फलों को नहीं खाया और उनकी बाया से भी दूर रहे। इसलिए तत्काल तो वे मुखी नहीं हुए किन्तु अन्त में बहुत सुखी हुए। कितनेक लोगों ने धन्ना सार्थवाह के वचनों पर विश्वास न करके नन्दीवृक्षों के सुन्दर फलों को खाया और सनकी छाया में बैठ कर आनन्द उठाया। इससे तत्काल तो उन्हें सुख प्राप्त हुआ किन्तु पीछे उनका शरीर भयंकर विष से व्याप्त होगया और अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त हुए। इसी तरह जो पुरुष नन्दी फलों के समान पाँच इन्द्रियों के विषयों कात्याग करेंगे उनको मोक्ष मुख की प्राप्ति होगी। जो लोग नन्दी वृक्षों के समान इन्द्रियों के विषयसुख में भासक्त होवेंगे वे अनेक प्रकार के दुःन भोगते हुए संसार में परिभ्रमण करेंगे। _इसके पश्चात् वह पन्ना सार्थवाह अहिच्छत्रा नगरी में गया। अपना माल बेच कर बहुत लाभ उठाया और वहाँ से वापिस माल भर कर चम्पा नगरी में भागया। बहुत वर्षों तक संसार मुख भोगने के पश्चात् धर्मघोष मुनि के पास दीक्षा ग्रहण की। प्रव्रज्या का पालन कर देवलोक में गया और वहाँ से चव कर महाविदेश क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष पद प्राप्त करेगा।
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री सेठिया जैन धमाला Arnorrhanwww (16) श्रीकृष्ण का अपरकंका गमन सोलहवा 'अपरफङ्काज्ञात' मध्ययन-विषय मुख कितने दुःखदायी होते हैं, इसका वर्णन इस अध्ययन में किया गया है। विपय मुख को न भोगते हुए केवल उनकी इच्छा रखने मात्र से अनर्थ की प्राप्ति होती है। इसके लिए अपरकंका के राजा पनोत्तर का शन्त दिया गया है। इसमें द्रौपदी की कथा बड़े विस्तार के साथ दी गई है। द्रौपदी का जीव पूर्वभव में चम्पा नगरी में नागश्री ब्राह्मणी था। एक वार उसने धर्मरुचि मुनि को मासखमण के पारणे के दिन कड़वे तुम्बे का शाक पहराया / उस शाक को लेकर धर्मरुचि भनगार अपने गुरु धर्मघोष मुनि के पास आये और आहार दिखलाया। उस शाफ को चख कर गुरु ने कहा कि या तो कड़वे तुम्वे का शाक है। एकान्त में जाकर इसको परठ दो। गुरु की श्राज्ञा लेकर धर्मरुचि एकान्त स्थान में आये। वहाँ आकर जमीन पर एक वृंद डाली / शाक में घृतादि पदार्थ अच्छे डाले हुए थे इसलिए उस की सुगन्ध से बहुत सी कीड़ियाँ उस बंद पर भाई और उसके जहर से मर गई। मुनि ने सोचा एक बद से इतनी कीड़ियाँ मर गई तो न जाने इस सारे शाक से कितने जीवों का नाश होगा? इस प्रकार कीड़ियों पर अनुकम्पा करके उस सारे शाक को धर्मरुचि अनगार स्वयं पी गये। इससे शरीर में प्रबल पीड़ा उत्पन्न दुई। उसी समय मुनि ने संथारा कर लिया / समाधिपूर्वक मरण प्राप्त कर वे सर्वार्थसिद्ध मनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगे भौर प्रत्रज्या ग्रहण कर मोक्षपद प्राप्त करेंगे। धर्मरुचिमुनि को कड़वा तुम्बा पहराने आदि का सारा वृत्तान्त
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________ तल श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां भाग 417 orrrrrrrrrmmmwwwxnm mmmmmwwwmorrom नागश्री के पति को मालूम हुमा / इससे वह अतिकुपित हुआ। तर्जना और ताड़नापूर्वक उसने नागश्री को घर से बाहर निकाल दिया,जिससे लोगों में भी उसकी बहुत हीलना और निन्दा हुई।दर दर भटफनी हुई नागश्री के शरीर में सोलह रोग उत्पन्न हुए / मर फर छठी नरक में उत्पन्न हुई। वहाँ से निकल कर मत्स्य(मच्छ), सातवीं नरफ, मत्स्य, सातवीं नरक,मत्स्य,छठी नरफ,उरगादिक फे भव बीच में फरती हुई पांचवीं नरक से पहली नरफ तफ,चादर पृथ्वी काय आदि सव एकेन्द्रियों में लाखों भव करने के पश्चात् चम्पानगरी में सागरदत्त सार्थवाह के सुकुमालिका नाम की पुत्री रूप से उत्पन्न हुई। यौवन वय को प्राप्त होने पर जिनदस सार्थवाह के पुत्र सागर के साथ विवाह किया गयाफिन्तु उसके शरीर का वार जैसा उग्र और अग्निसरीखा उष्ण लगने के कारण सागर ने तत्काल उसका त्याग कर दिया और अपने घर चला गया। इससे सङ्घमालिका अति चिन्तित हुई। तब पिता ने उसको आश्वासन दिया और अपनीदानशाला में उसे दान देने के लिए रख दिया। एक समय गोपालिफामार्या से धर्मोपदेश सुन फर उसे संसार से विरक्ति हो गई। उसने गोपालिफा आर्या के पास पत्रज्या अङ्गीफार कर ली। बह वेला तेला भादि तप करती हुई विचरने लगी। एक समय अपनी गुरुआनी की भाज्ञा के बिना ही शहर के बाहर उद्यान में माफर सूर्य की प्रातापना लेने लगी / वहाँ उसने देवदत्ता गणिका के साथ क्रीड़ा करते हुए पांच पुरुषों को देखा। यह देख कर सुकमालिकाआयो ने नियाणा कर लिया कि यदि मेरी तपस्या का फल हो तो आगामी भव में मैं भी पांच पुरुपों की वल्लभा (प्रिया) वनें / इस प्रकार का नियाणा करफे.चारित्र(संयम) में भी वह शिथिल होगई / अन्त में भर्धमास की संलेखना संथारा करके ईशान देवलोक में देवी रूप से उत्पन्न हुई। वहॉ से चव
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री सेठिया जैन मन्थमाला करकापिल्य नगर में द्रुपद राजा के यहाँ पुत्री रूप से उत्पमहुई। उसका नाम द्रौपदी रखा गया / यौवन वय को प्राप्त होने पर राजा द्रुपद ने द्रौपदी का स्वयंवर करवाया जिसमें द्रौपदी ने युधिष्ठिर भादि पाँचों पाण्डवों को वर लिया अर्थात् पति रूप से स्वीकार कर लिया। एक समय नारद ऋषि पाण्डवों के महल में भाये। सबने खड़े होकर ऋषि का आदर सत्कार किया किन्तु द्रौपदी ने उनका आदर सत्कार नहीं किया। इससे नारदजी को बुरा मालूम हुभा। उन्होंने धातकी खण्ड में अपरफङ्का नगरी के राजा पद्मोत्तर के पास जाकर उसके सामने द्रौपदी के रूप लावण्य की प्रशंसा की। पद्मोत्तर राजा ने देवताकी सहायता से द्रौपदी का हरण करवा फर अपने अन्तःपुर में मंगवा लिया। महासती होने के कारण वह उसको वश में नहीं कर सका। कृष्ण वासुदेव के साथ पाँचों पाण्डव अपरफङ्का नगरी में गये और युद्ध में पद्मोत्तरको पराजित करके द्रौपदी को वापिस ले भाये। कई वर्षों तकगृहस्थावास में रहकर पाँचों पाण्डवों ने दीक्षा ली और चारित्र पालन कर सिद्धपद को प्राप्त किया। द्रौपदी ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की,भनेक प्रकार की तपस्या करके वह ब्रह्मदेवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुई। वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धिपद को प्राप्त करेगी। इस अध्ययन से यह शिता मिलती है कि नागश्री ने मुनि को कड़वे तुम्वे का शाफ वहराया जो महा मनर्थ का कारण हुआ और नारकी, तिर्यञ्च आदि के भवों में उसे अनेक प्रकार के दुःख उठाने पड़े। सकुमालिका के भव में नियाणा किया जिससे द्रौपदी के भव में उसको मोक्ष की प्राप्ति नहीं हुई। इसलिए साधु साध्वी को किसी प्रकार का नियाणा नहीं करना चाहिये।
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________ भीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचो भाग 461 (17) अश्वों का दृष्टान्त सतरहवाँ 'भश्वज्ञात' अध्ययन- इन्द्रियों को वश में न करने से अनर्थ की प्राप्ति होती है। यह बतलाने के लिए इस अध्ययन में अश्वों का दृष्टान्त दिया गया है। हस्तिशीर्षनाम के नगर में कनककेतु नाम का राजा राज्य करता था। उस नगर में बहुत से व्यापारी रहते थे। एक समय जहाज में माल भर कर वे समुद्र में यात्रा कर रहे थे। दिशा की भूल हो जाने से वे कालिक नाम के दीप में पहुँच गए। वहाँ सुवर्ण और रनों की खानें थीं और उत्तम जाति के अनेक प्रकार के विचित्र घोड़े थे। वे मनुष्यों की गन्ध सहन नहीं कर सकते थे इसलिए उन व्यापारियों को देखते ही वे बहुत दूर भाग गए। सोने और रनों से जहाज को भरकर वेव्यापारीवापिस अपने नगर में भागए। वहाँ के राजा कनककेतु के पूछने पर उन व्यापारियों ने आश्चर्यकारक उन घोड़ों की हकीकत कही। राजा ने उन घोड़ों को अपने यहाँ मंगाने की इच्छा से उन व्यापारियों के साथ अपने नौकरों को भेजा। वे नौकर अपने साथ बहुत से उत्तम उत्तम पदार्थ लेते गए और घोड़ों के रहने के स्थान पर उन सुगन्धिन चीजों को विखेर दिया और स्वयं छिप कर एकान्त में बैठ गए। इसके बाद घूमते फिरते वे घोड़े वहाँमाए। उनमें से कितनेक घोड़े उनसगन्धित पदार्थों में आसक्त हो गए और कितनेफ घोड़े उनमें आसक्त न होते हुए दूर चले गए। जो घोड़े उन सुगन्धित पदार्थों में श्रासक्त होगए उनको उन नौकरों ने पकड़ लिया और हस्तिशीर्ष नगर में राजा के पास ले आए। राजा ने अश्वशिक्षकों के पास रख कर चन घोड़ों को नाचना कूदना आदि सिखा कर विनीत बनाया। यह दृष्टान्त देकर साधु साध्वियों को उपदेश दियागया कि
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________ 170 भी सेठिया जैन प्रन्यमाला ~~~~ ~ wwwwwwww ammmmmmm जो इन्द्रियों के विषय में आसक्त होकर रस लोलुप बन जायेंगे वे उन आसक्त घोड़ों की तरह दुखी होंगे और पराधीनपने से दुःख भोगेंगे। जो पोड़े उन पदार्थों में मासक्त नहीं हुए वे स्वतन्त्रता पूर्वक जंगल में आनन्द से रहे। इसी प्रकार जो साधु साध्वी इन्द्रियों के विषय में आसक्त नहीं होते वे इस लोक में मुखी होते हैं और अन्त में मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं। इसलिये इन्द्रियों के विषय में आसक्त नहीं होना चाहिए। (18) सुसुमा और चिलातीपुत्र की कथा अठारहवॉ सुंमुमा ज्ञात अध्ययन- लोभ से अनर्थ की प्राप्ति होती है / इसके लिए इस अध्ययन में संसमा का दृष्टान्त दिया है। __ राजगृह नगर में धन्ना नाम का एक सार्थवाह रहता था। उसके भद्रा नाम की भार्या थी जिससे पॉच पुत्र भोर सुसमा नामक एक पुत्री उत्पन्न हुई। चिलात नाम कादासपुष उस लड़की को खेलाया करता था। किन्तु साथ खेलने वाले दूसरे बच्चों को वह अनेक प्रकार से दुःख देता था। वे अपने माता पिता से इसकी शिकायत करते थे / इन बातों को जान कर धन्ना सार्थवाद ने उसे अपने घर से निकाल दिया / स्वच्छन्द बन कर वह चिलात सातों व्यसनों में भासक्त होगया। नगरजनों से तिरस्कृत होकर वह सिंह गुफा नाम की चोर पल्ली में चोर सेनापति विजय की शरण में चला गया। उसके पास से सारी चोर विद्याएं सीख ली और पाप फार्य में अति निपुण होगया। कुछ समय पश्चात् विजय चोर की मृत्यु होगई। उसके स्थान में चिलात को चोर सेनापति नियुक्त किया। एक समय उस चिलात चोर सेनापति ने अपने पॉच सौ चोरों से फसाफि चलो-रामगृह नगर में चल कर धन्ना सार्थवाह के घर को लूटे / लूट में जो धन भावे वह सब तुम रख लेना और सेठ
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________ Avvv श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग 471 mmmmmmm की पुत्री सुसमा बालिका को मैं रखेंगा। ऐसा विचार कर उन्होंने धन्ना साथेवाह के घर डाका डाला। बहुत सा धन और सुसमा बालिका को लेकर वे चोर भाग गये। अपने पाँच पूत्रों को तथा कोटवाल और राजसेवकों को साथ लेकरधना सार्थवाह ने चोरों का पीछा किया / चोरों से धन लेकर राजसेवक तो वापिस लौट गये किन्तु धन्ना और उसके पाँचों पुत्रों ने सुसमा को लेने के लिए चिलात का पीछा किया। उनको पीछे आता देख कर चिलात थक गया और सुंममा को लेकर भागने में असमर्थ होगया। इस लिए तलवार से सुंसमा का सिर काट कर धड़ को वहीं छोड़ दिया और सिर हाथ में लेकर भाग गया। जंगल में दौड़ते दौड़ते उसे बड़े जोर से प्यास लगी। पानी न मिलने से उसकी मृत्यु होगई। धन्ना सार्थवाह और उसके पाँचों पुत्र चिलात चोर के पीछे दौड़ते दौड़ते थक गए और भूख प्यास से व्याकुल होकर वापिस लौटे। रास्ते में पडे हुए सुंसुमा के मृत शरीर को देख फर वे अत्यन्त शोक करने लगे। ये सब लोग भूख और प्यास से घबराने लगे तब धन्ना सार्थवाह ने अपने पाँचों पुत्रों से कहा कि मुझे मार डालो और मेरे मांस से भूख को और खून से तृषा को शान्त कर राजगृह नगर में पहुँच जाभो / यह वात उन पुत्रों ने स्वीकार नहीं की। वे कहने लगे- भाप हमारे पिता हैं। हम आपको कैसे मार सकते हैं ? तब कोई दूसरा उपाय न देख कर पिता ने कहा कि संसमा तो मर चुकी है। अपने को इसके मांस और रुधिर से भूख और प्यास बुझा कर राजगृह नगर में पहुँच जाना चाहिए / इस बात को सबने स्वीकार किया और वैसा ही करके वे राजगृहनगर में पहुंच गये। * इस कथन से यह प्रकट होता है कि धन्ना सार्थवाह जैन नहीं था किन्तु मजैन था / भगवान् महावीर के धर्मोपदेश से जैन साधु बन कर सुगति को प्राप्त हुमा /
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री सेठिया जैन प्रन्पमाला ~ mmmmmmmmmwwww ww ww wwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwww~ एक समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में पधारे। धर्मोपदेश सुन कर उसे वैराग्य रत्पन्न होगया। भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण की। कई वर्षों तक संयम का पालन कर सौधमे देवलोक में उत्पन्न हुमा। वहाँ से चक्कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धिपद को प्राप्त करेगा। जिस प्रकार धन्ना सार्थवाह ने वर्ण गन्ध रस रूप मादि के लिए नहीं किन्तु केवल भपने शरीर निर्वाह के लिए भौर राजगृह नगरी में पहुँचने के लिए ही मुंमुमा बालिका के मांस और रुधिर का सेवन किया था। इसी प्रकार साधु साध्वियों को भी इस अशुचिरूप मौदारिक शरीर की पुष्टि एवं रूप आदि के लिए नहीं किन्तु केवल सिद्धगति को माप्त करने के लिए ही आहार प्रादि करना चाहिए। ऐसे आत्मार्थी साधु साध्वी एवं श्रावक श्राविका इस लोक में भी पूज्य होते हैं और क्रमशः मोक्ष मुख को प्राप्त करते हैं। (19) पुण्डरीक और कुण्डरीक की कथा ___ उन्नीसवां पुण्डरीक ज्ञात'अध्ययन-जो बहुत समय तक संयम का पालन कर पीछे संयम को छोड़ दे और सांसारिक पदार्थों में विशेष मासक्त हो जाय तो उसे अनर्थ की प्राप्ति होती है। यदि उत्कृष्ट भाव से शुद्ध संयम का पालन थोड़े समय तक भी किया जाय तो भात्मा का कल्याण हो सकता है। इस बात को बताने के लिएइस अध्ययन में पुंडरीक और कुंडरीक का दृष्टान्त दिया गया है। पूर्व महाविदेह के पुष्कलावती विनय में पुण्डरीकिणी नाम की नगरी थी / उसमें महापद्म नाम का राजा राज्य परता था। उसके पुण्डरीक और कुण्डरीक दो पुत्र थे। कुछ समय पश्चात् राजा महापद्म ने अपने ज्येष्ठपुत्र पुण्डरीकको राजगद्दी पर विठा कर तथा
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________ भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह. पाचवां भाग 473 कुण्डरीक को युवराज बना कर धर्मघोष स्थविर के पास दीक्षा ले ली। बहुत वर्षों तक संयम का पालन करसिद्धिपद को माप्त किया। एक समय फिर वे ही स्थविरमुनि पुण्डरीफिणीनगरी फेनलिनीवन उद्यान में पधारे। धर्मोपदेश मुन कर राजा पुण्डरीक ने तो श्रावक व्रत अङ्गीकार किये और कुण्डरीक ने दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद वेजनपद में विहार करने लगे। अन्तमान्त पाहार करने से उनके शरीर में दाइज्वर की बीमारी उत्पन्न होगई। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए एक समय वे पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे। स्थविर मुनि को पूछ कर कुण्डरीक मुनि पुण्डरीक राजा की यानशाला में ठहरे। राजा ने मुनि के योग्य चिकित्सा करवाई जिससे वे थोड़े ही समय में स्वस्थ होगए। उनके साथ वाले मनि विहारकर गये किन्तु कुण्डरीक मुनि ने विहार नहीं किया और साधु के आचार में भी शिथिलता करने लगे। तब पुण्डरीक राजा ने उन्हें समझाया। पुण्डरीक के समझाने पर कुण्डरीक मुनि विहारफर गये।कुछ समय तक स्थविर मुनि के साथ उग्र विहार करते रहे फिन्तु फिर शिषिलाचारी बन कर वे अकेले ही पण्डरीकिणी नगरी में आगये।कुण्डरीक मुनि को इस प्रकार शिथिलाचारी देख कर पुण्डरीफ राजा ने उन्हें बहुत समझाया किन्तु वे समझ नहीं, प्रत्युत राजगद्दी लेकर भोग भोगने की इच्छा करने लगे। पण्डरीक राजा ने उनके भावों को जानकर उन्हें राजगद्दी पर स्थापित किया और स्वयमेव पंचमुष्टि लोच करके प्रव्रज्या अभीकारकी। 'स्थविर भगवान् को वन्दना करने के पश्चात् मुझे माहार फरना योग्य है' ऐसा मभिग्रह करके उनोंने पुण्डरीकिणी नगरी से विहार कर दिया ।ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे स्थविरमगवान् की सेवा में उपस्थित हुए। गुरु के मुख से महावत अंगीकार किये / तत्पश्चात् स्वाध्यादि करके गुरु कीमाज्ञा लेकर भिक्षा
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________ 474 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला , mar on n nirmwarrrrrrrrrrrrrrrrr ~ rrrrrrmmmmmmmm के लिये गये। भिक्षा में पाये हुए अन्तमान्त एवं रुक्ष अशनादि , का आहार करने से उनके शरीर में दाहज्वर की बीमारी होगई। अर्धरात्रि के समय शरीर में तीव्र वेदना उत्पन्न हुई। मालोचना एवं प्रतिक्रमण करके संलेखना संथारा किया। शुभ ध्यान पूर्वक .,मरण प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। वहॉ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धपद को प्राप्त करेंगे। उधर राजगद्दी पर बैठ कर कुण्डरीफ कामभोगों में आसक्त होकर बहुत पुष्टिकारक और कामोत्तेजक पदार्थों का अतिमात्रा में सेवन करने लगा। वह आहार उसे पचा नहीं, जिससे अर्धरात्रि के समय उसके शरीर में अत्यन्त तीव्र वेदना उत्पन्न हुई / आत्ते, रौद्रध्यानध्याता हुश्रा कुण्डरीक मर कर सातवीं नरक में गया। इस दृष्टान्त से शास्त्रकारों ने यह उपदेश दिया कि जो साधु, साध्वी चारित्र ग्रहण करके शुद्ध आचरण करते हैं वे थोड़े समय , में ही आत्मा का कल्याण कर जाते हैं जैसा कि पुण्डरीक मुनि स्वल्प काल में ही शुद्ध आचरण द्वारा मुक्ति प्राप्त कर लेंगे। जो साधु,साध्वी संयम लेकर पड़िवाई होजाते हैं अर्थात् संयम से पतित होजाते हैं भौर कामभोगों में भासक्त हो जाते हैं वे कुण्डरीक की तरह दुःख पाते हैं और मर कर दुर्गति में जाते हैं / अतः लिये हुए व्रत, प्रत्याख्यानों का भली प्रहार पालन करना चाहिए। संख्याकेशवनारदेन्दु गणिते वर्षे शुभे वैक्रमे // मासे श्रावणके शनैश्वरदिने शुक्ले तृतीया तिथौ / आशीभिःव्रतिनां सतांच सुधियां मोक्षकनिष्ठावताम् / भागः पञ्चम एष योलजलधेः यातः समाप्तिं मुदा // // इति शुभम् / /
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________ परिशिष्ट श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह में दिये गए __ -- गाथाओं के भावार्थ का मूल पाठ 'श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह' के कई बोलों में सूत्र की गाथाओं का भावार्थ दिया गया है। अस्वाध्याय काल में बाँचने, से होने वाली सूत्रों की प्राशासना से बचने के लिए वहाँ मूल गाथाएं नहीं दी गई / यहाँ उन सब गाथाओं को दिया जाता है। पाठकों को चाहिए कि उन्हें अस्वाध्याय के समय को टाल कर पढ़ें। अस्वाध्यायों के ज्ञान के लिए नीचे सवैये दिए जाते हैं। बीज कड़के भपार, भूमिकप भारी है। बाल चन्द्र, जख चेन, भाकाशे अगन काय, काली धोली धुंध और रजोधात न्यारी है // 1 // हाड़, मांस, लोही, राध, ठंडले मसाण वले, चन्द्र सूर्य ग्रहण और राज मृत्यु टाली है। थानक में मर्यो पड़यो, पंचेन्द्रिय कलेवर, ए बीस वोल टाल कर ज्ञानी आज्ञा पाली है // 2 // आषाढ़, भादों, भासु, फाती और चैती पूनम जाण, इण थी लगती टालिए पड़वा पाँच बरखाण। पड़वा पाँच पखाण, सांझ सरेर मध्य न भणिये, श्राधी रात दोष हर, सब मिल चौंतीस गिणिए / चौंतीस मसझाई टाल के, सूत्र भणसी सोय। ऋषिलालचन्द इणपरिकहे,ताफे विधन नव्यापे कोय॥
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________ 176 .. mrrrrrrrr wrir nummarrn amrrrrrr rrrrrrrr - श्री सेठिया जैन प्रस्वमाला दशवैकालिक सूत्र अध्ययन 6 उद्देशा 3 ( चोल न० 853) मायरियं अग्गिमिनाहिअग्गी, सुस्यूसमाणो परिजागरिजा / भालोइमं इंगिममेर नचा, जो छंदमारायई स पुरानो॥ 1 // आयारमहा विणयं पउंजे, सुस्म्समाणो परिगिज्झ बक्कं / नहोगइदं भभिकखमाणो, गुरु तु नासाययई स पुज्जो // 2 // रायणिएम विणयं परंजे, डहरापि भ जे परिभायजिहा। नीमत्तणे बट्टा सञ्चबाई, ग्वायवं वक्ककरे स पुज्जो // 3 // अन्नायउंछं घरई विमुद्धं, अवणहया समुभाणं च निच्चं / अलशं नो परिदेवइज्जा, लद्धंन विकत्थई स पुज्जो // 4 // संथारसिज्जासणभत्तपाणे, मप्पिच्छया भइलाभेऽवि संते / जो एवमप्पाणमभितोसइज्जा, संतोसपाहन्नरए स पुज्जो // 5 // सक्का सहेउं आसाइ कंटया, भभोमया उच्चापा नरेणं / अणासए जो सहिज्न कंटए, ईमए कमसरे स पुज्जो // 6 // मुहुरादुक्खा र इवंति कंटया, अओमया तेऽपि तमो मुग्दरा। वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि मान्मयाणि / / 7 / / समावयंता वयणाभिघाया, कन्नं गया दुम्मणिभं जणंति / धम्मुत्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइंदिए जो साई स पुज्जो // 8 // अरण्णवायं च परम्मुहस्स, पञ्चरस्वओ परिणीभर भासं / ओहारिणिं अप्पिभकारिणिं च,भासंन भासिज्ज सयास पुज्जो।हा अलोलुए भक्कुहए भमाई, भपिसुणे मावि अदीणवित्ती / नोभावए नोऽवि प्रभावियप्पा,भकोउहल्ले असयास पुज्जो // 10 गुणेहि साहू अगुणेहिऽप्ताह, गिण्हाहि साहू गुणमुरऽप्साहू / विभाणिमा अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समोस पुज्जो॥११॥ तहेव डहरं च महल्लगं वा, इत्यी पुमं पन्वरगं गिहिं वा /
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पांचवां भाग 477 mmmmmmmm नोहीलए नोऽवि अखिसइज्जा,मंच कोहंचचएस पुज्जो॥१२॥ जे माणिआ सययं माणयंति, जत्तरेण कन्नं व निवेसयंति। ते माणए माणरिहे तबस्सी, मिइंदिए सच्चरए स पज्जो // 13 // तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, सुचाण मेहावि सुभासिआई। चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चक्कसायावगए स पुज्जो // 14 // गुरुमिह सययं पडिअरिअमुणी, जिणमयनिउणे अभिगम कुसले। धुणिभ रयमलं पुरेकर्ड, भासुरमलं गई वइ // 15 // उत्तराध्ययन सत्र अध्ययन 20 (बोल नम्बर 854) इमा हु अन्नावि अणाहया निवा, तामेगचित्तोनिहुओ मुरणेहि मे / नियंठधम्मंलहियाणवी जहा, सीयंति एगे बहुकायरानरा॥१॥ जे पचहत्ताण महव्वयाई, सम्मं च नो फासयई पमाया / अणिग्गहप्पा य रसेस गिद्धे, न मूलश्रो छिदइ बंधणं से // 2 // आउत्तया जस्स य नत्थि कावि, परियाइ भासाइ तहेसणाए / आयाणनिक्वेवदुगंछणाए, न बीरजायं अणुजाइ मग्गं // 3 // चिरंपि से मुंडरूई भवित्ता, अथिरन्वए तवनियमेहिं भहे / चिरंपि अप्पाण किलेसइत्ता, न पारए होइ हु संपराए॥४॥ पुल्लेव सुट्टी जह से असारे, अयंतिते कूडकहावणे य / राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइ हु जाणएम् // 5 // कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय बृहइत्ता / असंजए संजय लप्पयाणे, विणिघायमागच्छइ से चिरंपि // 6 // विसं तु पीयं जह कालकूड, हणाइ सत्यं जह कुग्गही / एसेव धम्मो विसोववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो // 7 // जो लक्षणं सुविणं पउंजमाणो, निमित्तकोऊहलसंपगाढे / कुहेड विज्जासवदारजीवी, म गच्छई सरणं तंमि काले // 8 //
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________ 478 श्री सेठिगा जैन मन्थमाला nN तमंतमेणेव उ से असीले, सया दुही विप्परियासुवेइ / संधावई नरगतिरिक्वजोणी, मोणं विराहित्तु असाहुरूवे // 6 // उद्देसियं कीयगडं नियागं, न मुच्चई किंचि अणेसणिज्जं / अग्गीविवा सव्वभक्खी भक्त्तिा,इओ चुओगच्छइ कह पावं // 10 // न तं अरी कंठ छिता करेई, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा / से नाहिई मच्चुमृहं तु पत्ते, पच्छागुतावेण दयाविहूणो॥ 11 // निरत्थया नग्गरुई उ तस्स, जे उत्तमहे विवयासमेइ / इमेवि से नत्थि परेवि लोए,दुहनोऽवि से झिज्झइ तत्थ लोए॥१२॥ एमेवऽहाछंदकुसीलरूथे, मग्गं विराष्ठित्त मिगुत्तमाणं / कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा. निरहसोया परितावमेह // 13 // सुच्चाण मेहावि सुभासियं इमं, अणुसासरणं नाणगुणोववेयं / मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं, महानियंठाण वए पहेणं / / 14 / / चरितमायारगुणन्निए तओ, अणुत्तरं संजम पालिया णं / निरासवे संखविया ण कम्मं, उवेइ ठाणं विउलुत्तमं धुवं // 15 // दशवकालिक सूत्र चूलिका 2 (बोल नम्बर 861) चूलिअं तु पवक्रवामि, सुझं केवलिभासियं / जं मुणित्तु सुपुण्णाणं, धम्मे उप्पज्जए मई // 1 // अणुसोअपहिअबहुजणंमि, पडिसोअलद्धलक्खेणं / पडिसोअमेव अप्पा, दायव्बो होउ कामेणं // 2 // अणुसोय सुहो लोओ, पडिसोमो पासबो मुविहिबाणं / अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो // 3 // तम्हा आयारपरक्कमेणं, संवर समाहिबहुलेणं / चरिआ गुणा भ नियमा अ, हंति साहूण दहव्वा / / 4 / / अनिएअवासो समुआण चरिश्रा, अन्नायउंछ पइरिक्कया अ / गोन
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पाचवा भाग 476 morr . . . . .mmmmmmm wwwmwwmmmmmmmmmm अपोवही कला विवज्जणा अ,विहारचरिआ इसिणं पसत्या॥५॥ आइन्नो माणविवज्जणा थ, ओसन्नदिहाहहभत्तपाणे / संसहकप्पेण चरिज्न भिक्खू,तज्जायसंसह जई जइज्जा // 6 // अमज्जयंसासि अमच्छरीआ, अभिक्खणं निविगइं गया य / अभिवावरणं कालस्सग्गकारी, सज्झायजोगेपयत्रो हविज्जा ||7|| ण पडिन्नविज्जा सयणासगाई,सिज्ज निसिज्ज तह भत्तपाणं। गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिंपि कुज्जा // 8 // गिहिणो वेश्रावडियंन कुज्जा, अभिवायण वंक्षण पूअणं वा / असंकिलिहोहिं समं वसिज्जा, मुणी चरित्तस्स जओन हाणी॥६॥ ण या लभेज्जा निउणं सहाय, गुणाहिअं वा गुणओ समं वा / इक्कोविपाबाई विवज्जयंनो,विहरिज्ज कामेसु असज्जमाणो॥१०॥ संवच्छरं बानि परं पमारणं, बीअं च वासं न तहिं वसिज्जा / मुत्तस्स मग्गेण चरिज भिक्खू ,सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ॥११॥ जो पुम्वरतावरत्तकाले, संपेहर श्रप्पगमप्पएणं / किं कडं किं द से किश्वसेसं, कि सक्कणिज्जं न समायरामि // 12 // किं मे परोपासइ कि च अप्पा, किं वाऽहं खलिअं न विवज्जयामि / इच्चेव सम्मं अणुपालमाणो,अणागयं नोपडिबंध कुज्जा।।१३।। जत्थेव पासे केइ दुप्पटतं, कारण वाया अदु माणसेणं / तत्थेव धीरो पडिसाहरिज्जा,आइन्नो विप्पमिव स्खलीणं // 14 // जस्से रिसा जोग जिइंदिअस्स, धिईमनो सप्पुरिसस्स निच्चं / तमा लोए पडिबुद्धजीवी, सो जीअइ संजयजीविएणं // 15 // अप्पा खलु सययं रश्वियव्यो, सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं / अरविवो जाइपहं उवेइ, सुरक्खिो सव्वदुहाण मुच्चइ॥ 16 // worth face
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________ 460 भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला उत्तराध्ययन अध्ययन 15 (बोल नम्बर 862) % 3D मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्म, सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने / संथवं जहिज्ज अकामकामे, अन्नायएसी परिव्वए स भिक्खू॥१॥ राअोवरयं चरिज्ज लादे, विरए वेदवियाऽऽयरक्खिए / पन्ने अभिभूय सम्वदंसी, जे कम्हिवि न मच्छिए स भिक्खू // 2 // अक्कोसवहं विदित्तु धीरे, मुणी चरे लाढे निच्चमायगुचे / अव्वग्गमणे असंपहिहे,जो कसिणं अहिआसएस भिक्खू // 3 // पंतं सयणासणं भइत्ता, सीउण्डं विविहं च दंसमसगं / अव्वग्गमणे असंपहिहे, जो कसिणं अहिआसए स भिक्खू // 4 // नो सक्कियमिछई न प्रश्र, नोवि य वंदणगं कुमओ पसंसं / से संजए सुव्वए तवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू // 5 // जेण पुणो जहाइ जीवियं, मोहं वा कसिणं नियच्छई। नरनारिं पयहे सया तवस्सी, न यकोऊहलं उवेइ स भिक्खू॥६॥ छिन्नं सरं भोमं अंतलिक्वं, मुविणं लक्खणं दंड वत्थुविज्ज। अङ्गविगारं सरस्सविजयं,जो विज्जाहिं न जीवई स भिक्खू // 7 // मंतं मूलं विविहं विज्जचिंतं, वमणविरेयणधूमनित्तसिणाणं / आउरे सरणं तिगिच्छियंच,तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू // 8 // खत्तियगणउग्गरायपत्ता, माहणभोई य विविहा य सिप्पिणो। नो तेसिं वयइ सिलोगपत्रं, तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू // 6 // गिहिणो जे पन्चइएण दिहा, पव्वअएणइ व संथुया हविज्जा। तेसिं इहलोयफलहयाए, जोसंथवं न करेइ स भिक्खू // 10 // सयणासपपाणभोयणं, विविहं खाइमसाइमं परेसिं / भदए पडिसेहिए नियंठे, जे तत्थ ण पोसई स भिक्खू // 11 //
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________ onr owwwmorammm श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पाचवा भाग 481 womrom onwr wrrrrrrrrrr ~ anmom arror जं किं चाहारपाणगं घिविहं, खाइमसाइम परेसिं लद्धं / जो तं तिविहेण नाणुकपे, मणवयकायमुसंवुडे जे स भिक्खू // 12 / / आयामगं चेव जवोदणं च, सीयं सोवीरनवोदगं च। नो हीलए पिंड नीरसं तु, पंतकुलाणि परिवएस भिवखु // 13 // सहा विविहा भवंति लोए, दिव्या माणुसया तहा तिरिच्छा। भीमा भयभेरवा उसला, जो सुच्चा ण विहिज्मईस भिक्ख // 14|| वार्य विविहं समिञ्च लोए, सहिए खेयाणुगए अ कोविषप्पा / पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, उवसंते अविहेडए स भिक्खु // 15 // असिप्पजीवी अगिहे अमिचे, जिइंदिओ सव्वलो विप्पमुक्के / अणुक्कसाई लहु अप्पभक्खी, चिच्चा गिह एगचरेस भिक्खू॥१६॥ आचारांग श्रुतस्कंध 1 अ०६ उद्देशा२ ' (बोल नम्वर 874) चरियासणाई सिज्जाओ एगइयाओ जालो बुइयायो / आइक्स्व ताई सयणासणाई जाई सेवित्था से महावीरे // 1 // श्रावेसणसभापवासु पणिय सालासु एगया वासो / अदुवा पलियठाणेस पलालपुजेसु एगया वासो // 2 // आगन्तारे आरामागारे तह य नगरे व एगया बासो / ससाणे सुण्णगारे वा रुक्खमूले व एगया वासो // 3 // एएहिं मुणी सयणेहिं समणे आसि पतेरसवासे / राई दिवंपि जयमाणे अपमचे समाहिए झाइ // 4 // णिपि नो पगामाए, सेवइ भगवं उहाए / जग्गावइ य अप्पाणं ईसिं साई य अपडिन्ने // // संबुज्झमाणे पुणरवि आसिंह भगवं उहाए निक्वम्म एगया राओ वहि चंकमिया मुहुत्तागं // 6 // सयणेहिं तत्थुवसग्गा भीमा आसी अणेगरूवा य /
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________ 482 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला संसप्पगा य जे पाणा अदुवा' पक्विणो रवचरन्ति // 7 // अदु कुचरा उपचरन्ति गामरक्वा य सत्तिहत्था य / अदु गामिया उवसग्गा इत्थी एगइया पुरिसा य // 8 // इहलोइयाइं परलोइयाई भीमाइं अणेगरूवाई / अवि सुभिदुन्भिगन्धाइं सदाइं अणेगरूवाई // 6 // . अहियासए सया समिए फासाइं विरूवरूवाई / अरई रई अभिभूय रीयइ माहणे अपहुवाई // 10 // स जणेहिं तत्थ पुच्छिसु एगचरावि एगया राओ / अव्वाहिए कसाइत्था पेहमाणे समाहिं अपडिन्ने // 11 // अयमंतरंसि को इत्थ ? अहमंसित्ति भिक्खु आरह / अयमुत्तमे से धरमे, तुसिणीए कसाइए झाइ ! // 12 // जंलिप्पेगे पर्वयन्ति सिसिरे मारुए पवायन्ते / तसिप्पेगे अणगारा हिमवाए निवायमेसन्ति // 13 // संघाडीओ पवेसिस्सामो एहा य समादहमाणा / पिहिया व सखामो अदुक्खं हिमगसंफासा // 14 // तसि भगवं अपडिन्ने अहे विगडे अहियासए / दविए निखम्म एगया राम्रो हाएति भगवं समियाए // 15 // एस विही अणुकन्तो माहणेण मईया / वहुसो अपडिएणेण भगवया एवं रीयन्ति // 16 / / दशवकालिक अध्ययन : उद्देशा 1 (ोल नम्बर 877) थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे / सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीअस्स वहाय होइ // 1 // जे आवि मंदित्ति गुरुं विइत्ता, खहरे इमे अप्पमुमति नच्चा / हीलंति मिच्छं पडिवजमाणा, करंति आसायण ते गुरूणं॥२॥
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पाचवा भाग 283 पगईइ मंदावि भवंति एगे, डहरावि अजे मुअबुद्धोववेत्रा / आयारमंता गण सुहि अप्पा,जे हीलिया सिहिरिव भास कुज्जा // 3 // जे भावि नागं डहरंति नच्चा, पासायए से अहिआय होइ / एवायरियपि हु हीलयंतो, निमच्छई जाइपहं खु मंदो // 4 // आसीविसो वावि परं सुरुडो, किं जीवनासाउ परं नु कुज्जा / आयरिअपाया पुण अप्पसना,अयोहिआसायण नत्थि मुक्खो।।५।। जो पावगं जलियमवक्कमिज्जा, आसीविसं वावि हु कोवइज्जा / जोवा विसं खायइ जीविही, एसोवयासायणया गरूणं / / 6 / / सिआ हु से पाबय नोडहिज्जा, पासीविसोवा कुवियोन भक्खे। सिमा विसं हालहलं न मारे, न भावि सुक्खो गुरुहीलणाए॥ 7 // जो पव्वयं सिरसा भित्तु मिच्छे, मुत्तं व सीहं पडियोहइज्जा / जो वादए सत्तिअग्गे पहारं,एसोवमाऽऽसायणया गरूणं // 8 // सिपाहु सीसेण गिरि पिभिंदे,सिधा हु सीहो कुविनोन भक्खे। सिआन भिदिज्ज वसतिग्गं,न आवि मुस्वो गरुहीलणाए॥६॥ आयरिशपाया पुरण अप्पसन्ना, अबोहि आसायण नत्थि मोक्खो। तम्हा अणावाहसुहाभिकरवी,गुरुप्पसायाभिमुहो रमिज्जा॥१०॥ जहाहिअग्गी जलणं नमसे, नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं / एवायरियं उपचिहइज्जा, अणंतनाणोवगो वि संतो॥११॥ जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउजे / सकारए सिरसा पंजलीओ,कायग्गिरा भो मणसा अनिच्च // 12 // लज्जा दया संजम बंभचेरं, कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं / जे मे गुरू सययमणुसासयंति, तेऽहं गुरू सययं पूजयामि॥ 13 // जहा निसंते तवणचिमाली, पभासइ केवल भारहं तु / एवायरिओ सुअसीलबुद्धिए, विरायई सुरमज्झेव इंदो // 14 // जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो, नक्वत्ततारागण परिवुडप्पा / खे सोहई वियले अब्भमुक्फे, एवं गणी सोहइ भिक्खुमझे // 15 //
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________ 484 rrrrrrrrrrrrrr won श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला - irrrrowwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwww. महागरा आयरिमा महेसी, समाहिजोगेसुअसीलबुद्धिए / संपाविउ कामे अणुत्तराई, आराहए तोसइ धम्मकामी // 16 // सुच्चाण मेहावि सुभासिआई, सुस्मुसए आयरिअप्पमत्तो / आराहइत्ताण गुणे अणेगे, से पावई सिद्धिमणुत्तरं // 17 // आचारांग श्रुतस्कन्ध 1 अ०६ उ०४ '(बोल नम्बर 878) प्रोमोयरियं चाएइ अपुढेऽवि भगवं रोगेहिं / पुढे वा अपुढे वा, नो से साइज्जई तेइच्छं // 1 // संसोहणं च वमणं च गायब्भंगणं च सिणाणं च / संवाहणं च न से कप्पे दन्तपस्वालणं च परिन्नाए // 2 // विरए गामधम्मेहिं रीयइ माहणे अवहुवाई / सिसिमि एगया भगवं छायाए भाइ आसीय // 3 // आयावइ य गिम्हाणं अच्छइ उक्कुडुए अमितावे / अदु जावइत्थ लूहेणं प्रोयणमंथुकुम्मासेणं // 4 // एयाणि तिन्नि पडिसेवे अह मासे अ जावयं भगवं / अवि इत्थ एगया भगवं अदमासं अदुवा मासंपि // 5 // अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा विहरित्या / राओवरायं अपडिन्ने अन्नगिलायमेगया मुंजे // 6 // छ?ण एगया भुजे अदुवा अट्टमेण दसमेणं / दुवालसमेण एगया भुंजे पेहमाणो समाहिं अप्पडिन्ने // 7 // णच्चा णं से महावीरे नोऽवि य पावगं सयमकासी / अन्नेहिं वा ण कारित्या कीरंतपि नाणुजाणित्था // 8 // गामं पविस्स रागरं वा घासमेसे कडं परहाए / मुविमुद्धमसिया भगवं पायतजोगयाए सेवित्था // 6 // अद वायसा दिगिच्छत्ता जे अन्ने रसेसिणो सत्ता /
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पाचवां भाग 485 घासेसणाए चिन्ति सययं निवइए य पेहाए // 10 // अदुवा माहणं च समणं वा गामपिण्डोलगं च अतिहिं वा / सोचागमृसियारिं वा कुक्कुरं वावि विहियं पुरो // 11 // वित्तिच्छेयं वजन्तो तेसिमप्पत्तियं परिहरन्तो। मन्दं परिक्कमे भगवं अहिंसमाणो घासमेसित्था // 12 // अवि मुइयं वा सुक्कं वा सीयं पिंडं पुराणकुम्मासं / अदु वुक्कसं पुलागं वा लद्धे पिंडे अलद्धे दविए // 13 // अवि भाई से महावीरे आसरणत्थे अकुक्कुए झाणं / उडढं अहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिन्ने // 14 // अकसाई विगयमेही य सदरूवेस अमुच्छिए झाई / छउमत्थोऽवि परक्कममाणो न पमायं सइंपि कवित्था // 15 // सयसेव अभिसमागम्म आयतजोगमायसोहीए। अभिनिव्वुडे अमाइन्ले श्रावकहं भगवं समियासी // 16 // एस विही अणुक्कतो माहणेण मईमया। बहसो अपडिन्नेणं भगवया एवं रीयंति // 17 // उत्तराध्ययन अध्ययन 6 (बोल नम्बर 867) जावंतऽविज्जा पुरिसा, सचे ते दुक्खसंभवा / लुप्पंति वहुसो मूढा, संसारंमि अणंतए // 1 // समिक्ख पंडिए सम्हा, पास जाइपहे वह / अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मित्तिं भूएहिं कप्पए // 2 // माया पिया ण्हुसा भाया, भज्जा पत्ता य ओरसा / नालं ते मम ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुरणा // 3 //
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________ 186 श्री संठिया जैन ग्रन्थमाला एयमई सपेहाए, पासे समिय दंसणे / छिंद गेहिं सिणेहं च, ण कखे पुव्वसंयवं // 4 // गवासं मणिकडलं, पसवो दासपोरुस / सव्वमेयं चइसा रणं, कामरूवी भविस्ससि // 5 // थावरं जंगर्म चेव, धणं घराणं उवश्वरं / पञ्चमाणस्स कम्मेहि, नालं दुक्खाउ मोयणे / / 6 // अभत्थं सव्वो सव्वं, दिस्स पाणे पियायए। न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए // 7 // आयाणं नरयं दिस्स, नायइज्ज तणामवि / दोगुंछी अप्पणो पाए, दिन्नं मुंजेज्म भोयणं // 8 // इहमेगे उ मन्नंति, अप्पश्चक्वाय पावगं / पायरियं विदित्ता णं, सव्वदुक्खा विमुच्चइ // 6 // भयंता अकरिता य, बंधमोक्वपइणिणो / वायाविरियमेणं, समासासेंति अप्पगं // 10 // न चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं / विसम्णा पावकम्मे हिं, बाला पंडियमाणियो / / 11 / / जे केइ सरीरे सत्ता, वरणे रुवे य सध्वसो / मरणसा कायवक्केणं, सव्वे ते दुपवसंभवा // 12 // आवण्णा दीहमद्धाणं, संसारंमि अयंतए / नम्हा सव्वदिसं पस्सं, अप्पमत्तो परिव्वए / / 13 // वहिया उडमादाय, नावकंखे कयाइ वि / / पुचकम्मक्खयहाए, इमं देहमुदाहरे // 14 // विविञ्च कम्मुणो हेर्ड, कालकरखी परिचए / मायं पिण्डस्स पाणस्स, कडं लण भक्खए // 15 //
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________ भी अन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवा भाग 87 सन्निहिं च न कुन्विज्जा, लेवमायाय संजए / पक्रवी पत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्बए // 16 // एसणासमिओ लज्जू, गामे अनियो परे / अप्पमत्तो पमोहिं, पिंडवातं गवेसए // 17 // एवंसे उदाहु अणुत्तरनाणी अणुत्तरदंसी,अणुत्तरनाणदंसणधरे। अरहा णायपुत्ते भयवं वेसालीए वियाहिए // 18 / दशवैकालिक प्रथम चूलिका (बोल नम्वर 868) इह खलु भो ! पन्चइएणं सप्पन्नदुक्खेणं संजमे अरइसमाबनचित्रेणं अोहागुप्पेहिणा अणोहाइएणं चेव इयरस्सिगयंकुसपोआपढागाभूआई इमाइंअहारस ठाणाइंसम्म संपढिलेहिप्रवाई भवंति तंजहा- हंभो ! (1) दुस्समाए दुप्पजीवी (2) लहुसगा इत्तरिआ गिहीणं कामभोगा(३) झुज्जो असाइबहुला मगुस्सा (4) इमे अमे दुक्खे न चिरकालोबहाई भविस्सई (5) ओमजणपुरस्कारे (6) वंतस्स य पडिआयणं (7) अहरगइवासोवसंपया (8) दुल्लहे खलु भो ! गिहीणं धम्मे गिहवासमझे वसंताणं (8) आयके से वहाय होइ (10) संकप्पे से वहाय होइ (11) सोवक्केसे गिहवासे निरुवक्केसे परिआए (12) बंधे गिहवासे मुक्खे परिआए (13) सावज्जे गिहवासे अणवज्जे परिआए (14) बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा (15) पत्तेयं पुण्णपावं (16) अणिच्चे खलु भो मणुप्राण जीविए कुसगाजलबिंदुचंचले (17) वहुं च खलु भो ! पावं कम पगडं (18) पावाणं च खलु भो कढाणं कम्मारणं पुब्बि दुचिनाणं दुप्पडि
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________ 488 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कंताणं वेइत्ता झुक्रवो, नत्थि अवेइत्ता तवसा वा झोसइत्ता / प्रहारसमं पयं भवइ / भवइ य इत्थ सिलोगो जया य चयई धम्म, अणज्जो भोगकारणा। से तत्थ मुच्छिए वाले, प्रायई नावबुज्झइ // 1 // जया मोहा विश्रो होइ, इंदो वा पडिओ छम् / सव्वधम्मपरिब्भहो, स पच्छा परितप्पइ // 2 // जया अवंदिमो होइ, पच्छा होइ भवदिमो। देवया व चुभा ठाणा, स पच्छा परितप्पड़ // 3 // जया अ पूइमो होइ, पच्छा होइ अपूइमो / राया व रज्जपब्भहो, स पच्छा परितप्पइ // 4 // जया य माणिमो होइ, पच्छा ओइ अमाणिमो। सिटिव्व कब्बडे छूढो, स पच्छा परितप्पइ // 5 // जया अ थेरो होइ, समइक्कंत जुव्वणो। मच्छ व्च गलं गिलित्ता, स पच्छा परितप्पइ // 6 // जया अ कुकुड्बस्स, कुतत्तीहि विहम्मइ / हत्थी व बंधणे बद्धो, स पच्छा परितप्पइ // 7 // पुत्तदारपरिकिएणो, मोहसंताणसंतो। पंकोसन्नो जा नागो, स पच्छा परितप्पइ // 8 / / श्रज्ज अहं गणी हुँतो, भाविअप्पा बहुस्सुनो। जइऽहं रमंतो परिआए, सामगणे जिणदेसिए॥ 6 // देवलोगसमाणो अ, परिश्रामो महेसिणं / रयाणं अरयाणं च, महानरयसारिसो॥ 10 // अमरोवमं जाणिभ मुक्खमुत्तमं, रयाण परिआइ तहाऽरयाणं / निरओवमं जाणि दुक्रवमुत्तमं, रमिज्ज तम्हा परिआइपंडिए॥११॥
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री नैन सिद्धान्त बोल संग्रह, पाचवां भाग 486 धम्मा र भहं सिरिओ अवेयं, जन्नग्गिविज्झाममिवऽप्पते / हीलंति णं दुविहिअंकुसीला,दादुढिअंघोरविसंव नाग॥१२॥ इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती, दुनामपिज्जं च पिहुज्जणम्मि। चुअस्स धम्माउ अहम्मसेविणो,संभिन्नवित्तस्स य हिमोगई।१३॥ भुजित्तु भोगाई पसज्झचेअसा, तहाविहं फट्ट असंजमं पहुं। गइंचगच्छे अणभिझिअंदुई,दोही असे नोमुलहापुणो पुणो।१४ इमस्स ता नेरइभस्स जंतुणो, दुहोवणीअस्स किलेसवत्तिणो / पलिमोवमं झिज्झइ सागरोवमं,किमंगपुणमझइममणोदुहां१५ नमे चिरं दुक्खमिणं भविस्सइ, असासया भोगपिवास जंतुणो। नचेसरीरेण इमेणऽविस्सइ,अविस्सई जीविषपज्वेण मे॥१६॥ जस्सेवमप्पा उ इपिज्ज निच्छिमो, चइज्ज देहं न हु धम्मसासणं। तंतारिसं नोपइलंति इंदिआ, रविंतवाया व मुदंसणं गिरिं // 17 // इच्चेव संपस्सिा बुदिमं नरो, श्रायं स्वायं षिविहं विभाणिया। कारण वाया अदु माणसेणं, तियत्तिगुत्तोजिणवयणमहिहिज्जासि / / 18 //
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
_
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
_